साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Thursday, June 24, 2021

सिमटते अखबार और सोशल मीडिया में ‘सूचनाओ का लंगर’-अजय बोकिल

अजय बोकिल

कोरोना की पहली लहर ने अखबारों को एनीमिक बनाया तो दूसरी लहर ने उनकी बची खुची कमर भी तोड़ दी है। बावजूद अपनी बेहतर विश्वसनीयता के अखबार एक-एक कर बंद होते जा रहे हैं। उनमें काम करने वाले मीडियाकर्मी भी सड़क पर आते जा रहे हैं। वो खुद अपनी आवाज उठाने के लायक भी नहीं रहे हैं, क्योंकि मीडिया अब खेमों में इतना विभाजित हो चुका है कि अपनों की मौत भी उसे ज्यादा विचलित नहीं करती। नौकरियां गंवाने के साथ बीते सवा साल में कोरोना से करीब 500 पत्रकारों ने अपनी जानें गंवा दी हैं। दूसरी तरफ सोशल मीडिया में अखबार अब पीडीएफ के रूप में जिंदा रहने की कोशिश में हैं। यह अखबारों का वामनावतार है। इस बात पर तो चर्चा बहुत होती है कि मीडिया को क्या छापनाध्दिखाना चाहिए, क्या नहीं छापनाध्दिखाना चाहिए, लेकिन मीडिया और मीडिया के अपने हालात क्या हैं, इस पर तो खुद मीडिया वाले भी चर्चा से बचते हैं।

कोविड-1 के समय मीडिया डेंजर जोन में चला गया था, अब कोविड-2 में मीडिया में दो तरह के बदलाव नमूदार हुए और हो रहे हैं। पहला तो जनता की आवाजसमझे जाते रहे ज्यादातर अखबार अब अपने वजूद की संध्या छाया से जूझ रहे हैं। इस देश में अखबारों 240 साल की महान परंपरा मिटने की कगार पर है। वो पत्रकारिता, जिसने तमाम खामियों के बावजूद आजादी के आंदोलन से लेकर स्वतं‍त्र भारत में भी कई दूसरे आंदोलन और समाज सुधार के अभियान चलाए, भंडा फोड़ किए अब खुद पाठकों को तलाश रही है। आश्चर्य नहीं कि दो दशक बाद आने वाली नस्ल अखबार की दुनिया को इतिहास के एक अध्याय के रूप में पढ़े। बड़े अखबारों का आकार सिमट रहा है, तो ज्यादातर छोटे अखबार छपना बंद होकर डिजीटल एडीशन पर चले गए हैं। दूसरी तरफ सोशल मीडिया में अखबारों का पीडीएफ और खबरों का लिंक कल्चर तेजी से उभर रहा है। अपनी खबर पढ़वाने के लिए भी हाथ-पैर जोड़ना पड़ रहे हैं कि मेहरबानी कर फलां लिंक को खोलें, लाइक या कमेंट करें। यानी आप का एक लाइक अथवा कमेंट किसी खबर नवीस के लिए जिंदगी की खुराक हो सकता है।

यहां तर्क दिया जा सकता है ‍कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इससे मीडिया अपवाद कैसे हो सकता है? अखबारों ने अपनी जिंदगी जी ली, जी भर कर खेल लिया। अब बदले वक्त में इंटरनेट ने सब कुछ बदल कर रख दिया है। मिलेनियल पीढ़ी नेट को ही भगवान मानती है। हाथ में अखबार लेकर पढ़ना, उसके स्पर्श से रोमांचित होना, उसे सुबह की चाय का अनिवार्य साथी समझना, बिना अखबार के दिन सूना-सूना महसूस करना, यह सब 20 सदी के एहसास हैं। या यूं कहें कि यह विचार और सूचना की भूख कम, आदत की लाचारी ज्यादा है। अब जब सूचना के तमाम साधन मौजूद हैं, तब अखबार की जरूरत ही क्या है ? मोबाइल पर हर सूचना हर क्षण मौजूद है।

मुझे याद है कि 2011 में एक प्रतिष्ठित पत्र में लेख छपा था कि भारत में प्रिंट उद्योग के इतने अच्छे दिनक्यों चल रहे हैं, जब कि बाकी दुनिया में इंटरनेट धीरे-धीरे अखबारों को लील रहा है। ये वो दिन थे, जब अखबारों में नए-नए संस्करण निकालने की होड़ सी मची थी। हमारे इतने संस्करणयह गर्व के साथ कहा जाता था। अब यही बात दबी जबान से भी करने को लोग तैयार नहीं है। नोटबंदी के बाद दूसरा बड़ा झटका कोविड ने पिछले साल दिया, जब लोगों ने बड़ी तादाद में संक्रमण के डर के मारे अखबार बंद कर दिए। विज्ञापन राजस्व 67 फीसदी तक घट गया। हजारों पत्रकारों और मीडिया ‍कर्मियों की नौकरियां चली गईं। अखबार में काम करना दुरूस्वप्न बन गया। कुछ ऐसी ही हालत इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की भी है। मीडिया जगत ने सरकार से बेलआउट पैकेज भी मांगा। लेकिन सरकार के लिए दूसरी चिन्ताएं ज्यादा महत्वपूर्ण थीं और जागरूक मीडिया कोई भी सरकार नहीं चाहती। बीते सवा साल में कितने अखबार या चैनल बंद हुए अथवा वेंटीलेटर पर जिंदा हैं, इसका कोई निश्चित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह सैकड़ों में है। अखबार बंद होने से बेरोजगार हुए अनेक पत्रकार अब डिजीटल मीडिया या दूसरे नए मीडिया में अपना भविष्य तलाश रहे हैं। कई पत्रकार खुद प्रकाशक बन गए हैं। हालांकि वहां भी अपनी पहचान बनाने और पहचान बचाने की मारा-मारी है। इस बीच कई नवाचार भी देखने को मिल रहे हैं। मसलन नई न्यूज साइट्स, फैक्ट चैक पत्रकारिता, डाटा विश्लेषण पत्रकारिता, सनसनीखेज बहसें आदि। इनमें से कई तो लोगों से चंदा करके अपने वेंचर चला रहे हैं। हर खबर को मसालेदार बनाने का चलन आम होता जा रहा है। उधर यू ट्यूब आदि पर तो ऐसे पत्रकारों का सैलाब-सा आया हुआ है और मौलिकता दांव पर लगी हुई है। सोशल मीडिया में जो दिखाया, बताया जा रहा है, वो कितना सही, कितना गलत है, कितना ज्ञान और कितना एजेंडा है, समझना मुश्किल है।

दूसरी तरफ देश में छपने वाले अखबारों की संख्या सिकुड़ने से सोशल मीडिया और खासकर व्हाॅट्स एप पर हम एक नया पीडीएफ कल्चरपनपते देख रहे हैं। अपने ग्रुप में यथाशीघ्र जमाने भर के अखबारों की पीडीएफ उपलब्ध कराना भी अब एक नई समाज सेवाहै। यह बात अलग है कि इन्हें मुहैया कराने वाले ज्यादातर पीडीएफ सेवकों और पीडीएफ पाठकों को भी पीडीएफका फुल फार्म ( पोर्टेबल डाॅक्युमेंट फार्मेट ) और अर्थ भी शायद ही मालूम होता हो। लोग इतना ही जानते हैं कि व्हाट्स एप पर झलकने वाला अखबार ही पीडीएफ है। आंखों पर जोर डालने वाले ये आॅन लाइन ‍अखबार कितनी गंभीरता से पढ़े जाते हैं, कहना मुश्किल है। अलबत्ता लेकिन किसी खास लेख या खबर को पढ़वाने के लिए भी लेखक या रिपोर्टर को पूरा दम लगाना पड़ता है। यानी समग्रता में अखबार पढ़ना और उस पर मनन का युग भी समाप्ति की ओर है। यह पीडीएफ पत्रकारिता भी बच्चों को रात में तारे दिखाने जैसी है। लेकिन इससे इतना फायदा जरूर हुआ है कि वो तमाम अखबार, जिनके शीर्षक भी आपके लिए मनोरंजन का कारण हो सकते हैं, खूब आॅन लाइन हो रहे हैं।

इसी के साथ एक नई डिजीटल पत्रकारिता संस्कृति भी फल-फूल रही है। गुजरे जमाने में लोग अखबार मांग कर पढ़ते थे, अब डिजीटल में अपनी खबर या लेख लोगों को पढ़वाने गुहार करती पड़ती है। एक ही खबर या सूचना पचासों ग्रुपों में अलग-अलग लिंक के रूप में पोस्ट होती रहती है। हर लिंक आप से लाइक और कमेंट मांगती है ताकि उसके हिट्स बढ़ें। कुलमिलाकर माहौल किसी धार्मिक स्थल पर जमे भिक्षुओं की माफिक होता है। यानी एक लाइकया एक हिटका सवाल है बाबा ! इस लिंक सैलाबके चलते डिजीटल मीडिया में विविधता का भारी का अकाल है। मौलिकता का घोर टोटा है। संपादन की कंगाली है। ऊपर से एक ग्रुप से बचो तो वही खबर दूसरे ग्रुप में लिंक के रूप में आपको चुनौती देती लगती है। संतोष की बात केवल इतनी है कि आप सोशल मीडिया पर जो चाहो, जैसा चाहो, कह सकते हैं, पोस्ट और फारवर्ड कर सकते हैं। क्योंकि किसी के पास सोचने, समझने और मेहनत के साथ उसे अभिव्यक्त करने का न तो वक्त है और न ही ऐसी कोई इच्छा है। दरअसल सोशल मीडिया खबरों का लंगरहै। जिसको जो मिले, जैसा बने, परोसता रहता है। लोग भी उसे पूरा पढ़े या समझे बगैर फारवर्ड करते रहते हैं। यानी यहां उद्देश्य सूचना की जिज्ञासा के शमन से ज्यादा उसकी चिंगारी सुलगाते रहना होता है। सोशल मीडिया के गुलाम हो चुके, लोगों की मजबूरी यह है कि उन्हें भी हर पल कुछ नया चाहिए। वो सही है या गलत है, इससे किसी को कोई खास मतलब नहीं होता।

सोशल मीडिया की यह अराजकताभी अब एक बड़ी ताकत बन चुकी है, जो सत्ताओं को भी हिला देती है। भविष्य का मीडिया यही है। अखबार चाटकर उससे दिमागी भूख मिटाने का दौर खत्म हुआ समझो। सोशल मीडिया पर हर पल आने और फारवर्ड होने वाली सूचनाएं चैंकाने, भड़काने या फिर डराने वाली ज्यादा होती है। इन पर अविश्वास के साथ विश्वास करते जाने का एक नया सामाजिक संस्कार हिलोरें ले रहा है। ऐसा संस्कार जिसकी कोई जवाबदेही नहीं है। हालांकि सरकार सोशल मीडिया पर कानूनी नकेल डालने की कोशिश कर रही है, लेकिन वह बहुत ज्यादा कामयाब नहीं होगी ( उससे राजनीतिक प्रतिशोध का मकसद भले पूरा हो जाए)। क्योंकि यह मूलतरू बिगडैल या स्वच्छंद सांड का बस्ती में घूमना है। लोग उससे डरते भी हैं, साथ में उसे देखते और छेड़ते भी हैं।

किसी ने कहा था कि ये दुनिया अब कोविड पूर्वऔर कोविड पश्चातमें विभक्त हो जाएगी। अखबारों की थमती सांसें, मीडियाकर्मियों की बेकारी-लाचारी और सोशल मीडिया की बेखौफ लंगोट घुमाने की अदा यही साबित करती है कि तकनीक के साथ सूचनाओं की बमबारी और बढ़ेगी। लोग उससे घायल भी होंगे। लेकिन सूचनाओं की विश्वसनीयता वेंटीलेटर पर पड़ी दिखेगी। इसका आगाज हो चुका है। 

वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश

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