साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Monday, June 26, 2023

इस दुनिया में तीसरी दुनिया से साक्षात्कार -डॉ.आदित्य रंजन

(पुस्तक समीक्षा)

पुस्तक-इस दुनिया में तीसरी दुनिया (साझा लघुकथा संग्रह)
संपादक -डॉ.शैलेष गुप्त 'वीर'/सुरेश सौरभ 
मूल्य-249
प्रकाषन-श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली को
प्रकाशन वर्ष-2023

किन्नर विमर्श पर आधारित ‘‘इस दुनिया में तीसरी दुनिया‘‘ के सम्पादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर‘ व सुरेश सौरभ जी ने किन्नरों के जीवन की हकीकतों-तकलीफों को परत-दर परत खोलने के लिए इस संग्रह में सामयिक-मार्मिक लघुकथाओं का साझा संकलन प्रस्तुत किया है। जहाँ हमारा सम्पूर्ण समाज स्त्री एवं पुरुष इन्हीं दो वर्गों को समाज की धुरी मान बैठा, है वहीं इन दोनों से पृथक एक ऐसा वर्ग भी है जो न तो पूर्ण स्त्री है और न ही पूर्ण पुरुष, यह वर्ग है किन्नर का, जिसे हमारे समाज में हिजड़ा, छक्का, खोजा और अरावली आदि नामों से जाना जाता है।
      परिवार और समाज से परित्यक्त यह किन्नर समुदाय लगातार अपने हक तथा अपने वजूद के लिए संघर्ष करता रहता है। समाज का यह वर्ग जो स्त्री एवं पुरुष के मध्यबिंदु पर खड़ा है, अपनी अपूर्णता के कारण समाज में हीन दृष्टि से देखा जाता है। अपनी अपूर्णता के दर्द को तिल-तिल सहते ये किन्नर कभी समाज में अपने हक के लिए तो कभी अपने वजूद की पूर्णता के लिए,कभी निज से तो कभी समाज से संघर्ष करते दीख पड़ते हैं।
       इस लघुकथाओं के संग्रह में किन्नर जीवन की त्रासदी, अकेलेपन, परिवार से परित्यक्त होने का दर्द और समाज के तिरस्कार को सहते किन्नरों के जीवन का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। संग्रह में विभिन्न लेखकों की लघुकथाओं के संकलन होने के नाते किन्नरों के विषय में बहुकोणीय दृष्टिकोण व विमर्श परिलक्षित होता है।
     इस संग्रह की प्रथम लघुकथा अंजू खरबंदा की ‘‘बुलावा‘‘ है, जिसमें संभ्रांत समाज द्वारा किन्नरों के प्रति सद्भावना दर्शायी गई है। डॉ. कुसुम जोशी द्वारा रचित ‘मैं भी हिस्सा हूँं‘ एक ऐसे किन्नर की कहानी है जिसे अपने कालेज की पढ़ाई के दौरान समाज से संघर्ष करके संभलते हुए दिखाया गया है। 
     ‘इस दुनिया में तीसरी दुनिया‘ में अठहत्तर बेहतरीन लघुकथाओं का समावेश किया गया है। लेकिन विशेष रूप से सुरेश सौरभ की ‘राखी का इंतजार‘, सीमा वर्मा की ‘बढ़ोत्तरी‘, सरोज बाला सोनी की ‘बहन कब आयेगी‘, रेखा शाह आरबी की ‘त्याग‘, माधवी चौधरी की ‘अधूरापन‘, प्रियंका श्रीवास्तव ‘शुभ्र‘ की ‘न्याय‘, गुलजार हुसैन की ‘चोट‘, दुर्गा वनवासी की ‘पीड़ा‘ आदि लघुकथाओं में किन्नरों के जीवन, समाज में स्थान और उनकी पहचान को बड़े ही अच्छे ढंग से, संजीदा तरीके से प्रस्तुत किया है। इन लघुकथाओं के माध्यम से समाज में एक नवीन दृष्टिकोण उजागर होगा और यह पुस्तक निश्चित तौर पर समाज में किन्नरों के प्रति लोगों की सोच में परिवर्तन लाने का कार्य करेगी। इसके लिए मैं इस पुस्तक के सम्पादक डा. शैलेष गुप्त वीर व सुरेश सौरभ को कोटि-कोटि बधाई देता है। साथ ही मै श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली को भी बधाई देता है, जिन्होंने इस पुस्तक के कवर डिजाइन से लेकर शब्द संयोजन तक में बेतरीन कार्य किया तथा आकर्षक और हार्ड बाउंड रूप में पुस्तक प्रकाशित करके पाठकों तक पहुँचाने का सुफल किया। संग्रह पठनीय संग्रहणीय है और किन्नर विमर्श के शोधकर्ताओं के लिए नये द्वार खोलेगा।

समीक्षक डॉ आदित्य रंजन
प्रवक्ता ( प्रा.भा.इतिहास)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली लखीमपुर खीरी

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