साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Friday, November 17, 2023

करो कम ,फैलाओ ज्यादा-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य) 
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066


   पुराने दिनों बात है। उन दिनों 'कर्म ही पूजा है’ के सिद्धांत को मजबूती से अपनी गांठ में बांधकर बड़ी कर्मठता, ईमानदारी से, मैं अपना कार्य किया करता था। लेकिन फिर भी लोगों की मेरे प्रति, यह गलत धारणाएँ बनी हुईं थीं कि मैं अपने कर्म के प्रति उदासीन रहता  हूं, हीलाहवाली करता हूं, ऐसी रोज अनेक मेरी शिकायतें बॉस से हुआ करती थीं। आए दिन बॉस की डांट मुझ पर पड़तीं रहती थी। मैं बहुत परेशान रहता था। क्षुब्ध रहता था। 
  घर में पत्नी बच्चों की किचकिच से बचकर जब ऑफिस आओ, तो बेवजह बॉस की झांड़ सुनो, मेरी जिंदगी किसी बड़ी पार्टी से निकाले गये, उस नेता जैसी हो गई थी, जिसे लाख कोशिशों के बाद भी उसे कोई मंजिल न मिल रही हो,कोई सही ठौर-ठिकाना न मिल रहा हो, कोई  पुरसाहाल न हो। क्या करूँ ? क्या न करूँ ? मेरी दशा चिड़ियाघर में कैद बेचारे निरीह निरुपाय जीव जैसी हो गई थी। हमेशा सोचता रहता था, कैसे अपनी जहन्नुम हो चुकी जिंदगी को जन्नत बनाऊं।
     फिर एक दिन अचानक परमात्मा की मुझ पर असीम कृपा हुई। हर समस्या का समाधान चुटकियों में हल करने वाले, एक संत जी सोशल मीडिया के दरवाजे पर दिखे, उनसे फोन पर रो-गाकर अपनी सारी व्यथा बताई ,तब उन्होंने मिलने के लिए, परामर्श से समाधान के लिए, अपनी ऑनलाइन फीस बताई। मैंने तुरत-फुरत उनकी फीस जमा कर दी। उनसे मिलने का ऑपाइंटमेंट लिया। फिर ढेर सारे फल, मेवा, मिष्ठान आदि लेकर, नियत स्थान, नियत तिथि, नियत समय, संत जी के आश्रम पहुंच गया। संत जी उर्फ बाबा जी ने मुझे अपने एकांत केबिन बुलवाया। मेरी समस्या ध्यान से सुनी। फिर मुझे खूब समझाया। काउंसिलिंग की। फिर मुझे परमार्थ करने के अनेक पुण्य बताते हुए, मेरे कान में कुछ मंत्र फूंकें। जिन्हें अपने तक ही सीमित रखने का आदेश दिया। मैं उनके बताए नेक मार्ग पर चलने लगा। फिर मुझे संत जी के मंत्रों और टोटकों से बहुत लाभ होने लगा। घर से लेकर ऑफिस तक, अपनी फुल बॉडी के अंदर से लेकर बाहर तक, मुझे गुड फील होने लगा। जिंदगी मंगलमय आनंदमय में बीतने लगी। अगर अन्य लोगों से संत जी के मंत्रों की चर्चा करूंगा, तो उन मंत्रों का असर मेरे जीवन से जाता रहेगा। लिहाजा फिर भी मेरा मन नहीं मान रहा है। अपने दिल पर बड़ा सा पत्थर रखकर, एक मंत्र मैं आप से शेअर किए ले रहा हूँ। ...काम करो कम फैलाओ ज्यादा, जी हां इसके आगे और न बताऊंगा। यूँ समझो बॉस की चापलूसी करते हुए ...करो कम फैलाओ ज्यादा तथा संत जी के अन्य टोटकों से अपना जीवन सुखमय और शांतिपूर्वक बीता रहा हूँ। खुशी और मस्ती से राग मल्हार गाते हुए अब अपने दिन सोने जैसे सुनहरे, रातें चांदी जैसी, चांदनी जैसी चम-चम चमकाने लगी हैं।

Monday, March 20, 2023

झोला उठाकर जाने की जिद-सुरेश सौरभ


हास्य-व्यंग्य
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

अक्सर जब मैं अपनी कोई बात, अपनी पत्नी से मनवाना चाहता हूं, तो गुस्से में आकर कह देता हूं, मेरी बात मानना हो तो मानो वर्ना मैं अपना झोला उठाकर अभी चल दूंगा। पत्नी डर जाती है, फौरन मेरी बात किसी आज्ञाकारी भक्त की तरह मान लेती है। यानी मैं अपनी पूरी स्वातंत्रता में जीते हुए, पत्नी को हर बार इमोशनल ब्लैकमेल करके मौज से, अपने दिन काटता जा रहा हूं। अब मेरे बड़े सुकून से अच्छे दिन चल रहे थे, पर उस दिन जब मैंने यह बात दोहराई, तब वे पलट कर बोलीं-तू जो हरजाई है, तो कोई और सही और नहीं तो कोई और सही।’  
मैंने मुंह बना कर कहा-लग रहा आजकल टीवी सीरियल कुछ ज्यादा ही देखने लगी हो। वो नजाकत से जुल्फें लहरा कर बोली-हां आजकल देख रहीं हूं ‘भाभी जी घर पर हैं, भैया जी छत पर हैं।’ 
मैंने तैश में कहा-इसी लिए आजकल तुम कुछ ज्यादा ही चपड़-चपड़ करने लगी हो। तुम नहीं जानती हो, मैं जो कहता हूं, वो कर के भी दिखा सकता हूं। मुझे कोई लंबी-लंबी फेंकने वाला जोकर न समझना।’ 
वह भी नाक-भौं सिकोड़ कर गुस्से से बोली-हुंह! तुम भी नहीं जानते मैं, जो कह सकती हूं, वह कर भी सकती हूं, जब स्त्रियां सरकारें चला सकती हैं। गिरा सकती हैं, तो उन्हें सरकारें बदलने में ज्यादा टाइम नहीं लगता।’ 
मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। अपना गियर बदल कर मरियल आवाज में मैं बोला-झोला खूंटी पर टंगा है, अब वह वहीं टंगा रहेगा। मेरी इस अधेड़ अवस्था में सरकार न बदलना। मेरा साथ न छोड़ना, वरना मैं कहीं मुंह दिखाने के लायक न रहूंगा। मेरी खटिया खड़ी बिस्तरा गोल हो जायेगा। खट-पट किसके घर में नहीं होती भाग्यवान! मुझ पर तरस खाओ! तुम मेरी जिंदगी हो! तुम मेरी बंदगी हो! मेरी सब कुछ हो!
तब वे मुस्कुराकर बोलीं-बस.. बस ज्यादा ताड़ के झाड़ पर न चढ़ो! ठीक है.. ठीक है, चाय बनाकर लाइए शर्मा जी। आप की बात पर विचार किया जायेगा। मेरा निर्णय अभी विचाराधीन है।
चाय बनाने के लिए रसोई की ओर मैं चल पड़ा। सामने टंगा झोला मुझे मुंह चिढ़ा रहा है। 
बेटी बचाओ अभियान में अब तन-मन से जुट पड़ा हूं। झोला उठाकर जाने वाली मेरी अकड़ जा रही है। भले ही अब हमें कोई पत्नी भक्त कहें, पर कोई गम नहीं, लेकिन पत्नी के वियोग में एक पल रहना मुझे गंवारा नहीं साथ ही पत्नी के छोड़कर जाने पर जगहंसाई झेल पाना भी मेरे बस की बात नहीं।


Tuesday, January 03, 2023

नये साल में फेसबुक कम, बुक ज्यादा-सुरेश सौरभ

हास्य-व्यंग्य
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

   
नए साल पर मैंने प्रण किया है कि मैं फेसबुक कम चलाऊँगा और बुक पर अपनी निगाहें अधिक खर्च करूंगा। फेसबुक कम चलाने की वजह यह है कि फेसबुक चलाते-चलाते मेरी आंखें कमजोर होने लगीं हैं। 
       बरसों से फेसबुक चलाते-चलाते तमाम नाजनीनों के फेस देखते-देखते यह नौबत मेरे सिर पर साया हुई है, जो समय मैं नाजनीनों के नृत्य, गायन, उनकी कमनीय काया को फेसबुक पर देखते-देखते बिताते रहा, अगर वही समय पैसा कमाने में लगाता तो अडानी अंबानी के लेवल का जरूर बन जाता। फिर तमाम-नेता मंत्री मेरी चरण वंदना या गुणगान करते हुए फिरते और दुनिया भर का यश अपने चौखटे पर लटकता फिरता। और अपने चौखटे की वैलू वैश्विक स्तर की होती। 
     फेसबुक की बहन व्हाट्सएप्प, चचेरा भाई ट्वीटर और इन सबकी अम्मा ऐसी-वैसी तमाम वेबसाइडों का मैं इस कदर दीवाना हुआ कि नौबत यहाँ तक आ गई कि हमेशा ऑफिस में लेट हो जाया करता था। बॉस की झाड़ हमेशा मेरे पीछे किसी जिन्द-पिशाच की तरह पड़ी रहती थी। 
      हमेशा मोबाइल, मैं ऐसे अपनी आँखों से चिपकाए रहता था, जैसे कोई बंदरिया अपने नवजात बच्चे को अपने कलेजे से चिपकाये रहती। मेरी इस नजाकत को देख, अक्सर पत्नी कहती-हमेशा मोबाइल में घुसे रहो। ऐसा लगता है यह मोबाइल नहीं समुद्र मंथन से निकला वह अमृत कलश है जिसे हर समय अपने मुँह पर औंधाए रखते हो। पत्नी कभी-कभी इतनी आग-बगूला हो जाती कि हालात और हमारे रिश्ते भारत-पाक जैसे बेहद तनावपूर्ण, नाजुक और संवेनशील हो जाया करते। फिर नौबत भयानक युद्ध जैसी खतरे की बन जाती। मगर मेरी इमोशन गुलाटियों की वजह़ से द्वन्द्व युद्ध होते-होते टल जाता। फिर इसके लिए मैं ढकवा के जिन्द बाबा और ब्रह्म बाबा को प्रसाद चढ़ा आता। पर बकरे की माँ कब तक तक खैर मनायेगी, मेरी आंखें की जलन और सिर की पीड़ा बढ़ती गयी। तमाम अर्थिक और सामाजिक संबंधों का नुकसान होने लगा और तो और पत्नी को कम समय देने के कारण, वह मोबाइल को अपनी सौत और मुझे उसका गुलाम तक बताने लगी है। मित्रों यह दशा फेसबुक पर समय खपाने के कारण हुआ है।
       मेरे जैसे कई सरकारी भले मनुषों को यह फेसबुक अपना शिकार बनाता जा रहा है। थोड़ा काम, फिर फेसबुक, फिर काम फिर फेसबुक, जो समय पब्लिक के काम का होता है, उस समय, कोई नाच में पड़ा है, कोई नंगई के खेलों में पड़ा है, कोई फालतू की टिप्पणियों में पड़ा है, कोई अपने यूट्यूब के पंचर में पड़ा है, कोई अपने लौड़े के टपोरी मर्का डान्स के प्रमोशन में पड़ा है। कोई लंफगई-लुच्चई के वीडियों पब्लिक का काम छोड़ कर ऐसे देख रहा है, जैसे कुछ समय पहले कुछ माननीय विधानसभा में देख रहे थे। मेरी सरकार से गुजारिश है, बढ़ रहे सोशल मीडिया की इस लती महामारी से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनाए। इसके समूल उन्मूलन के लिए उस कार्यकारिणी का अध्यक्ष अमित मालवीय को बनाए। जिससे तमाम सरकारी काम बाधित न हो, जनता का काम न रूके। विकास पंख लगाकर फर-फर उड़ता रहे। नाले से गैस धड़-धड़ बनती रहे। दरअसल मेरा बेटा, मेरी बेटी  इस्ट्राग्राम के दीवाने होते जा रहे है। यानी दुनिवायी विषैला प्रदूषण मेरे घर में भी सोशल मीडिया के जरिए घुसने लगा है, इसलिए इसका विरोध करना भी मेरी मजबूरी बन गयी है।

Friday, April 01, 2022

भ्रष्टाचार का अंत नहीं-अखिलेश कुमार अरुण

व्यंग्य कहानी

अखिलेश कुमार अरुण
तकनिकी/उपसम्पादक
अस्मिता ब्लॉग
मेवालाल जी स्थानीय छुटभैये नेताओं में सुमार किये जाते हैं। उनकी पुश्तैनी नहीं अपनी पहचान है, जिसे अपने खून-पसीने की खाद-पानी को डालकर पल्लवित-पोषित किया है। हर एक छोटे-बड़े प्रस्तावित कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह किसी के खास नहीं और सबके खास हैं। ऊपर से कहीं-कहीं तो उनही उपस्थिति कुछ खास लोगों को खलने लगती है। इनकी उपमा उन लोगों के लिये राहु-केतु या काले नाग से कम की न होगी विचारे तिलमिला के रह जाते हैं पर कुछ कर नहीं पाते हैं। इनकी जान-पहचान आला-अफ़सरों से लेकर गाँव-घर के नेताओ से, सांसद तक है।

छोटी-बड़ी सभी चुनाव में हाथ आज़माते हैं, जीतने के लिये नहीं हारने के लिये ही सही एक पहचान तो बने, जहाँ जनता इनके खरे-खोटे बादों से तंग आकर चैथी-पाँचवीं जगह पर पहुँचा देती है, कुछ चुनावों का परिणाम तो ऐसा है कि जमानत जब्त करवा कर मुँह की खाये बैठे हैं। मानों वह चुनाव ही चिढ़कर मुँह फिरा लिया हो ‘क्या यार! हमारी भी रेपोटेशन की ह्वाट लगा देता है, सो इनका अब भविष्य में चुनाव जीतना तो मुष्किल ही है पर यह हार कहाँ मानने वालों में से हैं। समाजसेवी विचारधारा के हैं हर एक दुखिया का मदद करना अपना परम्कत्र्तव्य समझते हैं। और तो और इनका सुबह से शाम का समय समाज के कामों में ही गुजर जाता है। परिणामतः इनके तीन बच्चों में से कोई ढंग से पढ़-लिख न सके, गली-मोहल्ले, चैराहों की अब शान कहे जाते हैं।

इनका अपना स्वप्न यह है कि अपने जीवन काल में भारत से भ्रष्टाचार मिटा देना चाहते हैं। इस स्वप्न को साकार करने के लिये जहाँ कहीं जब भी मौका मिलता है अन्ना हजारे आन्दोलन के कर्णधार बन बैठते हैं। उन्हें अपना आदर्ष मानकर आन्दोलन करते हैं, भूख हड़ताल इनका अपना पसंदीदा आन्दोलन है, गले तक खाये-पीये हों वह अलग बात है, जिले का हर अधिकारी इनको अपने कार्यकाल में मुसम्मी, अनार का जूस पिला चुका होता है। उसका कार्यकाल क्यों न चार दिन का ही रहा हो, पहचान बनाने का उनका अपना यह तरीका अलग ही है।

अपने कार्यक्रमों में चीख-चीख कर चिल्लाते हैं न लेंगे न लेने देंगे यह हमारा नारा है। भाईयों-बहनों हम गरीब-मज़लुमों पर अत्याचार होने नहीं देंगे, ‘‘सत्य का साथ देना हमारा जन्मसिध्द अधिकार है।’’ इनका अपना सिध्दान्त है जिसे एक सच्चे वृत्ति के तरह धारण किये हुये हैं।

सेवा का चार्ज लेने के बाद यह मेरे सेवाकाल की दूसरी पोस्टिंग थी। विभाग में नये होने के चलते जगह बदल-बदल कर मुझे मेरे अपने क्षे़त्र में पारंगत किया जा रहा था। मुझसे मेरे विभाग को बड़ी आषा थी, जो मेरे से अग्रज थे वह तो नर्सरी का बच्चा समझकर हर एक युक्ति को सलीके से समझा देना चाहते थे। कक्षा में कही गई गुरु जी की बातंे एक-एक कर अब याद आ रहीं थी कि व्यक्ति को पूरे जीवन कुछ न कुछ सीखना पड़ता है, इसी में जीवन के पैतीस बंसत पूरे हो गये पता ही नहीं चला पर जो आज सीखने को मिला वह जीवन के किसी भी पड़ाव पर शायद भूल नहीं पाऊँगा।

मैं अपने काम में व्यस्त किसी मोटी सी फाईल में खोया था तभी एक आवाज आई, ‘नमस्ते बाबू जी।’

‘हाँ नमस्ते।’

‘पहचाना सर, मुझे। सफेद कुर्ता-पाजामें में एक फ़रिस्ता मुस्करा रहा था, शायद......... एक कुटिल मुस्कान।

मुझे पहचानने में देर न लगी, अरे! मेवालाल जी, आप?’

‘हाँ बाबू जी’ कहते हुये कुरसी पर आ विराजे, मैं श्रृध्दा से मन ही मन उनको नमन किया। और शब्दों में शालीनता का परिचय देते हुये कहा, ‘कहिये।’

बोले कुछ बोले बगैर, एक फाईल मेज पर सरकाते हुये मुस्करा रहे थे, ‘साहब देख लीजियेगा, मेरा अपना ही काम है।’

और अगले ही पल आॅफिस से जा चुके थे, कौतुहलवश फाईल खोलकर जल्दी से जल्दी देख लेना चाहता, आखिर काम क्या है? जिसे लेकर एक ईमानदार छवि का व्यक्ति मेरे सामने आया है। जिसमें गाँधी, अन्ना हजारे जैसे उन तमाम तपस्वियों की झलक दिखती है जो भ्रष्टाचार को मिटाने के लिये एक पैर पर खड़े रहते हैं। उसके लिये मेरा काम करना तो किसी बड़े यज्ञ में आहुति देने के समान है, मैं अपने छात्र जीवन में ऐसी ही क्रान्ति करना चाहता था। जहाँ भ्रष्टाचार का नाम नहो ऐसे मेरे देश की विष्व में पहचान बने। इसी विचारमग्नावस्था में फाईल को खोला तो लगा जैसे किसी ने मेरे स्वप्न पर एकाएक ताबड़तोड़ प्रहार कर दिये हों, उसमें से दो हजार के रुपये वाला गाँधी जी का चित्र बेतहासा मुझ पर हंसे जा रहा था।
(पूर्व प्रकाशित रचना 'भ्रष्टाचार' मरू-नवकिरण, राजस्थान से वर्ष 2018 और मध्यप्रदेश  से इंदौर समाचार पत्र में 4 अप्रैल 2022 को प्रकशित)

ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर(खीरी) उ प्र २६२८०४
दूरभाष-8127698147

Wednesday, March 30, 2022

भैया जी ने इण्टर के बाद एम.ए. किया-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य)  
सुरेश सौरभ

भैया जी को हल्के में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह हल्के नेता नहीं है। उनके भारी-भरकम शरीर की तरह उनका ज्ञान और विज्ञान भी बहुत भारी और भरकम है। जहां जाते हैं, बस वहीं अपनी अमिट छाप छोड़ कर चले आते हैं और चर्चा-ए-आम हो जाते हैं। बचपन में उन्होंने पहले कक्षा आठ पास किया था, बाद में लोगों के कहने पर कक्षा पांच भी पास कर लिया। मंचों पर वह अक्सर कहते थे, मैं वह एमए फर्स्ट डिवीजन पास हूं। उनकी लच्छेदार बातों पर लोगों को जब शक होने लगा, तब एक दिन विपक्षियों ने उनसे डिग्री मांगी, कहा, दिखाओ तब माने, फिर तो उन्होंने टालमटोली करनी शुरू कर दी। जब विरोधियों ने उनकी नाक में नकेल डाल कर बहुत परेशान करना शुरू किया, तो एक दिन बाकायदा उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके, अपने 'नक्षत्र विज्ञान' से एमए पास करने की डिग्री, उस समय की दिखाई जब नक्षत्र विज्ञान का कोर्स किसी विश्वविद्यालय में न था। जब इस पर, पत्रकारों ने उनसे सवाल उठाए तो वह बोले कि बस वही इतने काबिल छात्र थे जिनकी काबिलियत के दम पर फलां विश्वविद्यालय ने अकेले उनके लिए वह कोर्स चलाया था और फिर उनके कोर्स कम्पलीट करने के बाद, वह कोर्स बंद कर दिया। इसलिए उस समय वह डिग्री पाने वाले, वही एक मात्र छात्र हैं। यह भी बताया कि उन्होंने कि वह डिग्री जब हासिल की, तब इंटर के बाद डायरेक्ट एमए होता था। अब वह मंत्री पद पर रहते हुए खूब मन लगा कर, पढाई करके आगे बीए भी कर लेंगे। उनकी दूरदर्शी दृष्टि पर सभी अभिभूत हुए। आजकल वह नेता जी सत्ता की चाशनी दिन-रात चाटते हुए स्कूल कॉलेज के नौनिहालों को, युवकों को और देश की एडवाइजरी विभाग को अपने दुर्लभलतम ज्ञान से आलोकित करते हुए, अपने मन की बातों और विचारों से देश का बहुत उद्धार करने वाले सबसे टॉप क्लास के नेता बन चुकें हैं।


निर्मल नगर लखीमपुर खीरी पिन-262701
मो-7376236066

Friday, December 31, 2021

तेरा क्या होगा कालीचरण-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य)
सुरेश सौरभ
   मुझे कायदे से याद है कि बचपन में, मेरे गाँव में, जब भी किसी के यहाँ शादी-ब्याह, मुन्डन या यहाँ दवात-ए-वलीमा होता था, तब इसकी खुशी में लप्पो हरामी की नौटंकी जरूर बंधाई जाती थी।हम सब लौड़ो-लपाड़ो को बड़ा मजा आता था। जब पांच-पांच रूपये देकर हमारे बाप-दादा मनचाहा गाना नचनियों से सुनते थे और नचनिये भी सब के कलमबंद ईनाम पर शुक्रिया ठुमका लगा-लगा कर अदा कर दिया करते थे।

    मेरे युवा अवस्था आते-आते नौटंकी का चलन धीरे-धीरे कम होता चला गया और धीरे-धीरे टीवी हर घर में महामारी की तरह फैलती चली गई और टीवी के बाद फिर यह स्मार्ट फोन की माया का साया घर-घर में ‘फेंकू फोटोजीवी’ की तरह फैलता चला गया। कहते हैं, बचपन का प्यार, बचपन में टीचर से खायी मार, और बचपन के शौक जवानी से लेकर बुढापे तक चर्राते रहते हंै। जब भी मौका मिल जाये तो उसे पूरा करने के लिए मन कुलबुलाने ही लगता है।

    स्मार्ट फोन की दुनिया में टहलते हुए मुझे आभासी दुनिया में लप्पो हरामी के बेटे रम्मन हरामी की नौटंकी जब नजर आ गई तो मेरी बांछंे खिल र्गइं।मुँह से लार टपकने लगी। तभी मेरा हाथ मारे जोश के अपनी जेब पर चला गया। दस रूपैया नचनिये पे लुटाना चाह रहा था। उसका फ्लाइंग किस दिल को घायल कर गया था। अपने दिये जाने वाले कलमबंद ईनाम से शुक्रिया भी चाह रहा था। तभी मेरे दिमाग की बत्ती जली, अरे! ये तो डिजिटल नौटंकी है। यहाँ तो बस लाइक कमेन्ट और सब्सक्राइब से ही ईनाम लुटाया जा सकता है और इस पातेे ही डिजिटल प्लेटफार्म के सारे नचैया फ्लाइंग किस फेंक कर नाजो अदा से शुक्रिया अदा करतंे हैं अथवा करतीं हैं। खैर अब तो डिजिटल प्लेटफार्म पर नौटंकी देखना रोज मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था, पर एक दिन मैंने कालीचरण नाम के एक नौटंकी बाज की नौटंकी देखी तो मुझे मजा आने के बजाय बहुत गुस्सा आ गया। दिल में तूफान उठ गया। मन कर रहा था कि जेब से दस रूपैया नहीं बल्कि पाँव से जूता निकालूँ। पर वह  आभासी दुनिया थी, सामने अगर वह होता तो मेरे साथ मेरे जैसे तमाम लोग उसे तमाम जूता दान कर देते। युगपुरूष गाँधी को गाली देने वाला यह कथित नौटंकीबाज उस फेंकू पार्टी से पोषित परजीवी है, जो अपने पैरों में उसी पार्टी के घुघरूँ बांध कर संसद जाने के ऐसे सपने देख रहा है,जैसे बिल्ली सपने में छिछड़े देखती है। अब मुझे किसी भी नौटंकीबाज की नौटंकी अच्छी नहीं लगती जब से एक नौटंकीबाज ने गांधी को अपना घिनौना मुँह फाड़ कर गाली दी है।

मो-निर्मल नगर
लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

Monday, December 20, 2021

जाता हुआ दिसंबर और हम......अखिलेश कुमार अरुण

अखिलेश कुमार अरुण
गैर-कानूनी क़दम उठाएं जो सम्भव नहीं है अगर गलती से क़दम उठा भी लिया तो पुलिस से लेकर घर वाले पीट-पीटकर बोकला छोड़ा देंगे वकील साहब भी कुछ नहीं कर पाएंगे मानवाधिकार के हाथ से भी निकल गया अब करो गणना मगर उल्टी गिनती दो साल बारह महीना..दो साल ग्यारह महीना...दो साल दस.....।

(हिंदी-मिलाप के दैनिक अंक  हैदराबाद से २८.१२.२०२१ को प्रकाशित)
दिसंबर जाने वाला है और यह हर साल जाता है इसमें कोई नई बात नहीं है, पहली इस्वी मने ईसा मसीह के जन्म से लेकर आज तक यह क्रम लगातार जारी है और रहेगा जब तक कि यह दुनिया रहेगी और लिखने-पढ़ने वाले लोग रहेंगे क्योंकि इसकी गणना मनुष्य ही करता है और मनुष्य पढ़ा लिखा है, जानवर नहीं करता वह पढ़ा-लिखा नहीं है न। मनुष्यों के पास साल भर का लेखा-जोखा होता है गिनने के लिए जन्म, मृत्यु, शादी, सालगिरह आदि-आदि इस साल का निपटा नहीं कि अगले साल की तैयारी में लग जाइए
 


पति अपना जन्मदिन भूल जाए चलेगा पर अपनी पत्नी का भूल जाये  तो उसकी खैर नहीं, "इतना भी याद नहीं रहता कि आज कुछ खास है, काहें याद रखियेगा खर्च जो नहीं हो जाएगा, पिछले साल भी ऐसे ही भूल गए थे कौन रोज-रोज आता है साल में एक ही बार तो आता है दो-चार सौ खर्च हो जाए तो कौन हम बेगाने हैं हम पर ही तो खर्च होना है किसके लिए कमा रहे हैं...।"  अब इस पत्नी नामक परजीवी को कौन समझाए कि बैंक की ईएमआई, दूधवाला, पेपर वाला, बच्चों की स्कूल-टयूशन फीस ले-देकर महीने की अन्तिम तारिख को बचता है तो बस जान देना ही रह जाता है। घर में कुछ नया करना हो तो हाथ फैलाए बिना नहीं होता, सरकारी नौकरी से कहां पूर पड़ता है जी अपनी जिंदगी तो बंधुआ मजदूर सी होकर रह गयी है।

उत्तर प्रदेश की सरगर्मी तेज हो चली है ज्यों-ज्यों चुनाव नजदीक आता जा रहा है दिसम्बर की ठिठूरती जाड़े में प्रत्याशियों को यकायक पसीना छूट जा रहा है। वर्तमान सत्तापक्ष के छूटभैये नेता से लेकर सांसद-विधायक तक वोट की गणित में दिन-रात एक किए जा रहे हैं। साल का भी अन्तिम महिना चल रहा है और पंचवर्षीय राजशाही का भी अंत ही समझिए सरकार की वापसी हो भी सकती है और नहीं भी क्योंकि साफ-साफ कहना मुश्किल है। वह इसलिए कि मतदाताओं का मन किसी के गड़ना में नहीं आ रहा है। किसान आन्दोलन करते रहे पर किसान सम्मान निधि वाले भी तो हैं

बेरोजगार युवाओं के मन में आशा थी की समय से टीईटी हो जाएगा तो सुपर टेट में मौका मिल जाएगा आज साल का अंतिम महिना है और सत्ता में सरकार भी पांच साल पूरे कर रही है आशा यह है कि जनवरी तक कुछ अच्छा हो जाएगा। सबसे ज्यादा असमंजस में वे बेरोजगार साथी हैं जिनके लिए यही साल लास्ट है इसके बाद वे ओवरएज हो जाएंगे तो न नौकरी मिलनी है और न ही छोकरी फिर तो ताने के नाम पर खरी-खोटी सुनने को रह जाएगा मने पूरे जीवन की पढ़ाई-लिखाई पर पानी फिर जाना क्योंकि अपने देश में उसे ही सफल माना जाता है जिसकी महीने की पेशगी होती है उसके इतर आप लाख कमाओं रहोगे निकम्मे के निकम्मे इसलिए तो युवा कुछ कर गुजरने की उम्र में अपने को चहारदिवारियों में कैद कर आंखें फोड़ता रहता है। युवाओं का देश है भारत फिर भी निकम्मों में गिना जाता है।

वह किशोरियां जो अभी-अभी 18 को टक से छू-कर यूवा होने वाली थीं जिनका प्री-प्लान था, "बाबू, कुछ दिन की ही तो बात है बालिग होने में....फिर हमारा कोई कुछ नहीं कर पाएगा।" उनके लिए 3 साल का यह सौगात स्वर्ग के दरवाजे से धक्का दे देने जैसा है। अब या तो वह तीन साल के दिन को अपनी गिनती में शामिल करें या फिर गैर-कानूनी क़दम उठाएं जो सम्भव नहीं है अगर गलती से क़दम उठा भी लिया तो पुलिस से लेकर घर वाले पीट-पीटकर बोकला छोड़ा देंगे वकील साहब भी कुछ नहीं कर पाएंगे मानवाधिकार के हाथ से भी निकल गया अब करो गणना मगर उल्टी गिनती दो साल बारह महीना..दो साल ग्यारह महीना...दो साल दस.....। दूसरा पहलू उन लड़कियों/किशोरियों के लिए वरदान साबित होगा जो अपने पैरों पर खड़ा होकर समाज में अपनी अलग पहचान बनाना चाहती हैं और किसी भी इस स्तर पर अपने मान-सम्मान, अभिमान आदि से समझौता नहीं करना चाहती उन्हें तीन साल इस लिहाज से तो मिला की शादी लिए बालिग होने में अभी 3 साल और लगेंगे, यह तीन साल का समय कुछ कर गुजरने के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम-हजरतपुर जिला-खीरी
उत्तर प्रदेश 262804

Friday, December 10, 2021

और शुरुआत लीकेज से-सुरेश सौरभ

(हास्य - व्यंग्य)  
 
 बचपन में मैं जिस स्कूल में पढ़ता था , उस गाँव में स्कूल के मास्टर जी जब बार-बार खेत को, लोटा लेकर जाते-आते थे, तब मैं उनसे पूछता ,क्या हुआ मास्टर जी? वे कहते-लीकेज | 
      उस समय मैं छोटा था, इसका मतलब नहीं समझ पाता था, पर जब थोड़ा बड़ा हुआ, तो पता चला उनके कहे लीकेज का मतलब लूज मोशन होता है । मास्टर जी का, दरअसल अंग्रेजी में हाथ तंग था , इसलिए गलती से लूज मोशन को लीकेज बोल दिया करते थे । उन दिनों जब मेरे दादा जी कोटे पर मिट्टी का तेल लेने जाया करते थे , तो कोटेदार की कम नाप पर उससे भिड़ जाया करते थे , और उससे सही नापने के लिए कहते , कोटेदार तब कहता-जब ऊपर से लेकर नीचे तक सब जगह लीकेज ही लीकेज है, तो पूरा करके कहाँ से  दूँ । तब दादा जी उस पर दया दिखा कर अपना गुस्सा जब्त कर जाते और चुपचाप कम तेल लेकर लौट आते । बचपन में अम्मा की दही-हांड़ी में रखा दूध-दही चट कर जाता था, पूछने पर बता देता उन्हें, कहीं से लीकेज होगा या किसी बिल्ली आदि ने मुँह मारा होगा । कभी एक प्रधान मंत्री ने कहा था, 'ऊपर से जो एक रुपया चलता है, नीचे लीकेज होकर पन्द्रह या बीस पैसा ही रह जाता है ।'
         यह लीकेज राष्ट्रीय नहीं अंतरराष्ट्रीय समस्या है , इस पर तमाम विश्वविद्यालयों  को शोध करने चाहिए, जब नाली से गैस बनाने पर हो रहे हैं,  तब इस पर क्यों नहीं?
      उस दिन एक परम मित्र राम लाल मिल गये । उनके चेहरे से उदासी झर रही थी, पूछा क्या हाल है ? बोले-हाल वही है, पर पिक्चर उसमें बदसूरत चिपक गयी है । मैंने कहा-कौन सी बदसूरत पिक्चर है, दिखाओ यार! थोड़ी झलक। 
         वे फूट पड़े-महीनों से तैयारी कर रहा था, हजारों रुपये कोचिंग और किताबों में फूंक मारे । अब पेपर लीक। टी.ई.टी. नहीं तमाशा लग रहा है , बस हाल न पूछो, पूरा दिल-दिमाग सुलग रहा है । 
         मैंने उनके दिल पर मरहम लगाते हुए कहा-यह लीकेज की समस्या सदियों पुरानी है, इसके स्थाई समाधान के लिए सरकार को एक मजबूत-टिकाऊ कमेटी बनानी चाहिए भाई।
        वे बोले-पहले पेपर बनाने वालों की कमेटी, फिर पेपर कराने वालों की कमेटी, फिर पेपर जांच, सही कन्डीडेट चुनने वालों की कमेटी । अब लीक करने वालों की कमेटी को पकड़ने के लिए, सरकारी जाँच करने वालों की कमेटी । फिर पकड़ कर, उन्हें सजा देने वालों की कमेटी , ऐसे लगता है । सरकार कमेटी-कमेटी का खेल, हम बेकरों से खेल कर हमें हर तरह से आउट कर पावेलियन लौटाना ही चाहती है ।" भरे दिल से, इतना कह कर राम लाल चले गये " 
     मैं  घर से, अपने लीकेज हो रहे जूतों के लिए फेवी क्विक लेने जा रहा था, पर सरकारी खामियों के लीकेज को बंद करने का पता नहीं, कब-कौन फेवीक्विक बने? इस चिंता का गुबार दिल में भरता जा रहा था।

पता- निर्मल नगर- लखीमपुर खीरी उ.प्र. Pin-262701 
 मो -7376236066.

Friday, June 11, 2021

सबकी आंखों को रूलाता हुआ मैं कड़ुआ तेल हूं-सुरेश सौरभ

    हा..हा.. हा..हा.. मैं कड़ुआ तेल बोल रहा हूं। बड़े-बड़े नेताओं की तरह अपना भी, आज टनाटन चारों ओर खूब बिंदास रौब रूतबा कायम होता जा रहा है। बहरहाल आजकल मैं लोगाें का खूब तेल निकाल रहा हूं। हमेशा लोग निठल्लों के साथ मेरा नाम जोड़ कर मुझे बेवजह बदनाम किया करतें हैं, जैसे तुम को कुछ नहीं करना, बस तेल लगा कर बैठे रहो या कान में तेल डालकर चुपचाप बैठो, तुम्हें धेला कुछ नहीं आता। या इन्हें कुछ नहीं करना बस तेल लगा कर बैठे-ठाले खाली दण्ड पेलना है। ऐसी-वैसी तमाम मिसालें बना-बना कर बात-बात पर मेरा मजाक उड़ाने वाले बंदों के, आंख, मुंह, हाथ-पांव और यहां-वहां सब कहीं बस कड़वा-कड़वा ही लग कर मैं रूला रहा हूं। पेट्रोल, डीजल के शतक लगाने पर, खूब चटखारे ले ले कर चर्चा करने वालों के भी मैं ऐसा कड़वा-कड़वा लग कर झेला रहा हूं कि वह सब भी अब मेरा नाम लेने से ऐसे घबरा रहें हैं जैसे मैं कड़ुआ तेल नहीं हूं बल्कि गब्बर सिंह हूं जो कहीं से आ गया, तो उनकी पूरी नींद और चैन छीन लेगा। अब लोग यह भी नहीं कहते न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। अब कहतें हैं, न सौ ग्राम तेल होगा, न राधा नाचेगी। न लोग यह कहते हैं, मैं तेल और तेल की धार देखता हूं। बल्कि कहतें हैं, कहां है, तेल और तेल की धार? देखने के लिए हम बरसों से तरस रहे हैं। और न लोग यह कहतें हैं तेली का तेल जले मसालची का दिल। बल्कि ये कहतें हैं कहां है तेली?कहां है मसालची? उसे देखे सादियां बीत गईं। मेरी देखा-देखी रिफाइन्ड व अन्य खाने व,लगाने वाले तेल भी अपनी नौ भौं सिकोड़ते जा रहे हैं। यानी अपना भाव बढ़ाते जा रहें हैं। कोरोना काल की मंदी की बेकारी में वैसे भी गरीबों की कमर टूटी थी। अब मेरे रेट बढ़ने से लोगाें का तेल निकल रहा है। लोगों की हालत पतली-दुबली होती जा रही है। पर डोन्ट वेरी भाईयों और बहनों एक न एक दिन अच्छे दिन जरूर आएंगे जैसे नोटबंदी के बाद विदेशों से काला धन वापस आया था। साल भीतर लगभग दोहरे शतक तक पहुंचने में मेरा तिल भर दोष नहीं है, मैं विलियम वर्ड्सवर्थ की "लूसी ग्रे" की तरह बिलकुल निर्दोष मासूम हूं। अगर आप को मेरे पर जरा भी विश्वास न हो, तो तेल की जमाखोरी करने वाले, देश-वदेश की तेल आयात-निर्यात नीति निर्माताओं से पूछ सकतें हैं कि किस तरह कितना मैं निर्दोष हूं। इसलिए कोल्ड ड्रिंक्स पी पी कर बेवजह हमें न श्राप दें।



-सुरेश सौरभ

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश

मो-7376236066

Thursday, June 03, 2021

पियरे और जोसेफ़ के जैसा है मेरा और मेरे साईकिल का रिश्ता-अखिलेश कुमार अरुण


पर्यावरण के अनुकूल है और यह ज्यादा खर्चीला भी नहीं है इसलिए हमें साइकिल की तरफ लौटना चाहिए कुछ लोग तो अभी से कहने लगे हैं आएगा तो साईकिल ही, अब साइकिल आए या हाथी पर कमल नहीं आना चाहिए, का बुरा कह दिए।

 

2014

आज विश्व साइकिल दिवस है, 3 जून 2018 को संपूर्ण विश्व में पहली बार विश्व साइकिल दिवस मनाया गया था, आज तक के वैज्ञानिक आविष्कारों में एक यही ऐसा अविष्कार है जो सस्ता होने के साथ-साथ पर्यावरण के अनुकूल है और यह ज्यादा खर्चीला भी नहीं है इसलिए हमें साइकिल की तरफ लौटना चाहिए कुछ लोग तो अभी से कहने लगे हैं आएगा तो साईकिल ही, अब साइकिल आए या हाथी पर कमल नहीं आना चाहिए, का बुरा कह दिए।

 

ऊपर चित्र में यही हमारी साईकिल है, कभी हमने अपनी साईकिल को साईकिल नहीं कहा हमेशा गाड़ी कहते थे...इससे सम्बन्धित एक बाकया है हम  हमारा मित्र रविन्द्र कुमार गौतम सरकारी अस्पताल में अपने मित्र का हाल-चाल लेने पहुंचे थे ...साईकिल अस्पताल गेट पर खड़ी किये और अस्पताल में जो भर्ती थे उनके तीमारदार बाहर ही मिल गए पर साईकिल से उतरते नहीं देखा था यह हमें बाद में पता चला........गाड़ी खड़ी बा तनी देखत रहिह....कहते हुए अस्पताल के अन्दर गए हाल-चाल लिया कुछ देर बाद लौटना हुआ तब तक आप हमारी गाड़ी देखते रहे उनसे मिलकर साईकिल का ताला जब खोलने लगे तब ऊ बोले ई का हो .....गाडी से आईल रहल ह न......फिर बहुत हंसी हुई हम कहे, “इहे हमार गाडी ह।” अब जब भी मुलाकात उनसे होती है ठहाका लग ही जाता है।

 

साइकिल से हमारा बहुत पुराना नाता है सन 1998-99 की बात होगी। जब हमारे लिए पापा जी सेकंड हैंड साइकिल लेकर आए थे, 11 या 12 सौ की थी। उसका कलर नीला है तब से लेकर आज तक हम नीले रंग के दीवाने हो गए हमें लगता है कि नीला हमारा अपना रंग है जो हमेशा आसमान की उचाई को छूने के लिए प्रेरित करता रहता है। वह साइकिल आज भी हमारे प्रयोग में लाई जाती है पर कम दूरी के लिए या बाजार तक कभी हम पूरा लखीमपुर उसी से छान मारते थे, हमारा मोटरसाईकिल चलना उसको खलता होगा, लम्बी दुरी पर जो नहीं जाती सजीव होती तो शिकायत जरुर करती। 22/23 साल का हमारा उसका पुराना सम्बन्ध है,  उसके एक-एक पुर्जे से हम बाकिब हैं, और हो भी क्यों ना चलाते कम उसको बनाने का काम ज्यादा करते थे, पढ़ाई के दौरान महीने का दो रविवार साइकिल के नाम ही रहता था। हमारे साइकिल में टायर-ट्यूब का प्रयोग इतना जबरदस्त तरीके से किया जाता था कि बच्चों के खेलने लायक भी नहीं रह जाता। जगह-जगह टायर की सिलाई और ट्यूब में पंचर लगाने का काम तब तक जारी रहता था जब तक की वह लुगदी-लुगदी न हो जाए। हमारी साइकिल इतना वफादार थी कि वह छमाही या वार्षिक परीक्षा होने के पूर्व ही बयाना फेर देती उसका सीधा-सीधा संकेत था कि हम इतना कंडम हो गए हैं हमको सुधरवालो नहीं तो तुम्हारा पेपर हम दिलवा नहीं पाएंगे फिर तीन-चार सौ का खर्चा होना तय था... पीछे का टायर आगे, आगे किसी काम का नहीं ऐसा भी नहीं था टायरों में गोट (कत्तल) रखने के काम आता था। मूलरूप में साईकिल में अब केवल फ्रेम और पीछे का करिएर ही शेष हैं नहीं तो सब कुछ बदल चूका है। मेरे और साइकिल के बीच का सम्बन्ध पियरे और उसके घोड़ा जोसेफ़ के जैसा है हम दोनों एक दुसरे की भावनाओं को आसानी से समझ लेते हैं। हमारी साईकिल को देखकर हमारे होने का सहज अनुमान लोग आज भी लगा लेते हैं।

 जब हम छोटे थे तब साईकिल दुसरे को अपनी साईकिल देने में आना-कानी करते थे। जिसका फायदा उठाकर हमारे चाचा लोग चिढ़ाने का काम करते थे, कभी लेकर चले जाते तो गुस्सा भी बहुत आता था जब साईकिल आ जाती तब चुपके से उसका निरिक्षण करने जाते कहीं कुछ गड़बड़ी तो नहीं है................चोरी पकड़ी जाती हाँ-हाँ देख लो कुछ घिस तो नहीं गया ......हमारा भी जबाब होता आउर नाहीं त का????

 अंत में आएगा तो साईकिल ही की उपयोगिता के लिए एक जयकारा तो बनता है .........जय साईकिल जिंदाबाद साईकिल अब कुछ लोग हमको सपाई होने की भूल भी कर बैठेंगे ऐसे में हम राजनीति से दूर हैं, आएगा साईकिल से तात्पर्य बस इतना है की पेट्रोल-डीजल आसमान छू रहे हैं ऐसे में लोग साईकिल की तरफ़ जा सकते हैं......बहुत कोशिश कर रहा हूँ इस पैराग्राफ में पर पता नहीं क्यों इसमें राजनीति की बू आ रही है हमको राजनीति से दूर रखियेगा वैसे हाथी भी ठीक रहेगा......राजनीति अपनी जगह साहित्य अपनी जगह, चलते है

ए०के०अरुण
नमस्ते


ग्राम-हजरतपु, जिला खीरी

उ०प्र० 262701

8127698147

Tuesday, October 13, 2020

सुंदरियाँ गलत हाथों में हैं

Tamatina Rajasthani Canvas Paintings - Indian Village Women - Miniature  Style - Rajasthani Wall Décor - Traditional Rajasthani Paintings -  Rajasthani Paintings - Paintings for Bed room - Paintings for Living Room -सोशल मिडिया पर कपल चैलेन्ज का हैसटेग ट्रेंड हो रहा है। एक से एक खूबसूरत जोड़े तो नहीं किन्तु इतना कह सकते हैं कि देश की सुंदरियां गलत हाथों में हैं, दिल पर मत लीजियेगा आपके तारीफ में ही यह लेख है। महिलाएं सुकुमार, कोमल होती हैं और साथ ही साथ सौन्दर्यता की प्रतीक भी होती हैं। पुरुष वर्ग सौन्दर्य का आशिक्त होता है एनकेनप्रकरणेन सौंदार्यता पर अपना अधिकार स्थापित करना उसका परमलक्ष्य होता हैकपल चॅलेंज'वर विवाहित जोडप्यांचा फोटोंचा पाऊस | eSakal। गुजरे जमाने में शक्ति और धनबल से सुन्दर स्त्रिओं पर अपना अधिकार स्थापित कर लेता था। जिसका विषद-वर्णन हमें इतिहास और साहित्य से प्राप्त होता है सौन्दर्यविजेताओं ने आम्रपाली, हेलेना, संयुक्ता, रूपमती, मस्तानी, जोधाबाई, नूरजहाँ, मुमताजमहल जैसी सुंदरियों पर अपना अधिकार स्थापित किया और कुछ असफल सौन्दर्य विजेता भी हैं यथा हीर-राँझा, सोनी-महीवाल, लैला-मजनू, अनारकली-सलीम, मिर्जा-साहिबा, ढोला-मारू आदि जिनकी सौन्दर्य युद्ध में हार हुई अपने जीवन का अंत कर लिया उसे मानव ने प्यार का नाम दे दिया यानि सच्चे आशिक जो घुट-घुट कर मरने की बजाय मौत को गले लगया और सदा-सदा के लिए अमर हो गए। आज के सौन्दर्य-विजेता धनबल के प्रभाव से सौन्दर्यता पर हावी हैं जिनके पास सरकारी नौकरी है, रूपया-पैसा है, बंगला है, वे ही सच्चे अर्थों में सौन्दर्यविजेता हैं। गुलाब खूबसूरत पुष्प है जिसको सभी पाने के लिए लालायित रहते हैं किन्तु वह किसके हाथ में हैं इसका उसे मलाल नहीं कुछ ऐसा ही सुन्दर लड़कियों और स्त्रियों का भी है। मानव स्वभाव से अधिकार प्रवृत्ति का होता है उसका सुन्दरता या किसी वस्तु के प्रति खिंचाव तब तक होता है जब तक की वह उसे अपने अधिकार क्षेत्र में नहीं ले लेता, काबिज होते ही फिर उसका मोह भंग होने लगता है, ये तो अपना ही है। कपल चैलेन्ज हैसटेग में ज्यादतर वही जोड़े सहभाग कर रहे हैं जो अभी नये हैं पुराने रूप सौन्दर्य पर अधिकार पा चुकें हैं इसलिए इस दौड़ से बाहर हैं। कपल चैलेन्ज के नाम पर महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों ने ज्यादा अपनी पत्नी जोड़े का साथ फोटो शेयर किया है। महिलाओं में कहीं न कहीं इस बात की खुन्नस है कि उनका जोड़ उनके मनमाफिक नहीं है उन्होंने अपने अकाउंट से अपने साथी का फोटो शेयर नहीं की इस बात का पुख्ता प्रमाण है। दिल पर मत लीजियेगा क्योंकि हमारा काम था विश्लेषण करना सो कर दिया।
-अखिलेश कुमार 'अरुण'

Sunday, October 11, 2015

हाँ..हाँ....वही फूल (अखिलेश कुमार अरूण)

हाँ..हाँ....वही फूल जो कभी क्रान्ति का प्रतीक हुआ करता था, आज राष्ट्रपुष्प के पद पर भी संशय में अपने जीवन को व्यतित कर रहा है। सोते-जागते उसे डर है अपने आस्तित्व को लेकर कहीं उसका समूल नष्ट न हो जाये; कुछ वर्ष पहले उसकी एक पहचान थी दूधमुंहे बच्चे से लेकर युवा, बूढ़े सभी उसके यश का गान करते थे राष्ट्रीय क्या अन्तराष्ट्रीय स्तर हर जगह तो उसकी पूछ थी कितने को मानव जीवन का मूल्य बताया, कितने को बलिदानी का पाठ पढ़ाया फ्रासं की क्रान्ति को कोई कैसे भूल सकता है पूरा का पूरा हुजुम था उसके पीछे, इतने बड़े देश की असहाय जनता का नेतृत्व करने को मिला पर अपने फर्ज को भी पूरी ईमानदारी के साथ निभाया देखते ही देखते तख्तापलट हो गया पूरातन व्यवस्था को समाप्त कर नये साम्राज्यवाद को स्थापित किया गया। उस दिन को याद कर आँखों में चमक आ जाती है, अर्सों बीत गये अपने नाम को सुनने के लिये कुछ वर्ष पहले तक उसके नाम का भोंपू में एलाउंस हो जाया करता था पर अब तो वह....। अब उसे अपने पुर्नजीवन के आश की कोई किरण शेष नहीं बची दिख रही है। रूप यौवन का जो गुमान था सब का सब व्यर्थ हो गया, उसको अपने ही पवर्ग के सबसे छोटे भाई ने कहीं का नहीं छोड़ा बड़े ने आधार (पंक) दिया तब उसका यौवन निखरा इसके लिये आज भी उसका कृतघ्न है। पर उसे क्या मालूम था कि उसका ही छोटा भाई उसके परोपकार को भूलाकर उसकी जान पर बन बैठेगा जिसको मारे दूलार में उच्चारण के दो स्थान (नाशा और मुख) प्रदान किया। यह राष्ट्र के एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में पहला आक्रमण है। जिसकी शुध्दि लेने वाला कोई नहीं है। सबको अपनी-अपनी पड़ी सब अपने हित में ही सोचते हैं कभी-कभी उन लोगों का भी भूले-भटके नाम ले लेना चाहिए जो अपना सर्वस्व लुटा चुके होते हैं। पर संतोष होता है उसे वह तो ठहरा सजीव मूक प्राणी लेकिन जो बाचाल हैं उनकी तो गति उससे भी गयी गुजरी है। कोई बात नहीं नाच लो अत्याचार के ताण्डव का नंगा नाँच वह कोमल है पर कमजोर नहीं। लोगों में शाहु है पर चोर नहीं।। कुछ नहीं बोलता बिचारा इसीलिए बड़े-बड़े पोस्टर होर्डिगों के मध्य भाग से उसके विशाल स्वरूप् को बौना बना दिया गया इतने से भी संतोष नहीं हुआ तो उसे खिसकाकर एक कोने में पँहुचा दिया गया अब उसकी जगह पर नर आकृति ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है क्षण दर क्षण अपने जीवन को घुट-घुट कर जी रहा है उसकी बस इतनी सी ही तो गलती थी कि पिछले वर्ष की जंग में औंधें मुँह गिर गया उसकी कान्ति धूमिल पड़ गयी थी, देश की जनता प्रतीकात्मक न होकर व्यक्तिवादी हो गयी परन्तु इसमें गलती क्या सिर्फ उसकी ही थी, नहीं उन सबकी गलती है जो उसके साये में राजनीति के खेल को स्वतत्रं होकर खेला है। अब उसकी तुम सब लोगों के लिये ललकार है, “मत भूलो हम आज नहीं तो कल फिर चमकेगें पर तुम लोगों ने चुक किया तो जहाँ में नामों निशां नहीं होगा।” अब सीख लेने की बारी आप और हम सबकी है।

                                                                          अखिलेश कुमार अरूण लखीमपुर-खीरी

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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