लघुकथा
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-डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ |
ट्रेन अभी फतेहपुर से छूटी ही थी कि एक
पचीस-छब्बीस वर्षीय नवयुवक ने हाँफते हुए अन्दर प्रवेश किया। वह गेट पर ही कुछ
पलों के लिए ठिठका और इधर-उधर नज़रें दौड़ने के पश्चात् समीप की ही एक सीट,
जिस पर तीन महिलाएँ विराजमान थीं,
से सटकर खड़ा हो गया। उन तीनों महिलाओं ने उसे
हिकारत भरी नज़रों से घूरा,
किन्तु इसका उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन महिलाओं में से एक
प्रौढ़ा थी,
किन्तु बाक़ी
दो...बला की ख़ूबसूरत जवान युवतियाँ। ख़ैर ट्रेन धीरे-धीरे स्पीड पकड़ रही
थी..."क्यों भाई तेरे को और कहीं जगह नहीं मिली,
यहीं हमारे सर पे ही खड़ा होना था। माँ-बाप जाने
कैसे संस्कार देते हैं इन युवकों को...लड़कियाँ देखी और निहारने
लगे...ए...ओ...मनचले,
तुझसे ही कह रही हूँ,
अपना ठौर कहीं और ढूँढ़ ले।" प्रौढ़ा
ने अपना आक्रोश ज़ाहिर करते हुए हट जाने की चेतावनी दी...पर वह बंदा मानो कसम खाकर
आया था। ख़ामोशी की चादर ओढ़े निर्विकार भाव से वहीं खड़ा रहा। माँ जी के इतना
कहने के बाद भी यहीं पर...अंगद की तरह पैर...बेशर्म यहीं पर...मेरा वश चले
तो...चप्पलों से...।" वे दोनों युवतियाँ आपस में बतियाए जा रही थीं।
अब ट्रेन पूरी स्पीड में थी। कानपुर चंद मिनटों
की बात थी कि टीटीई ने एस-फोर कोच में प्रवेश किया और सात नम्बर की बर्थ से सटे उस
नवयुवक को टोका- साबजादे, टिकट...उसने शायद उसकी बात सुनी नहीं या जानबूझकर अनसुनी कर दी।
"अबे ओ मनचले, उधर मत निहार,
टिकट दिखा।" इस बार आवेश भरे स्वर
में टीटीई ने उससे टिकट की माँग की...अच्छा-अच्छा टि-टिकट...इस ज़ेब-उस ज़ेब में
हाथ डालने लगा। तीनों महिलाएँ और आस-पास बैठे लोग मुस्कुराने लगे- "...अब
स्साले को पता चलेगा। बहुत स्मार्ट...", "एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे...",
बगल में एक सज्जन गीत गुनगुना रहे थे कि
तभी हर ज़ेब खँगालने के बाद आख़िर में शर्ट की ज़ेब में हाथ डाला। सर, यह टिकट...एस-फोर, सेवन। तब तुम खड़े क्यों हो? टीटीई ने प्रश्न किया...साब, मेरे अम्मा-बाबू ने मुझे ऐसे ही संस्कार दिये
हैं।
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