साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Friday, November 26, 2021

डॉ.अंबेडकर के लोकतांत्रिक समाजवाद से क्यों असहमत थी संविधान सभा-कंवल भारती

संविधान दिवस 26 नवंबर पर विशेष
15.3.1947 को डॉ.अंबेडकर ने संविधान में कानून के द्वारा ‘राज्य समाजवाद’ को लागू करने के लिए संविधान सभा को ज्ञापन दिया। उन्होंने मांग की थी कि भारत के संविधान में यह घोषित किया जाए कि उद्योग, कृषि, भूमि और बीमा का राष्ट्रीयकरण होगा तथा खेती का सामूहिकीकरण। लेकिन संविधान सभा ने ऐसा होने नहीं दिया।

डॉ.अंबेडकर दुनिया भर के संविधान के ज्ञाता थे और मानते थे कि किसी भी देश की प्रगति में उस देश के संविधान की बड़ी भूमिका होती है। संविधान की भूमिका को रेखांकित करते हुए वे एक जगह लिखते हैं-“सारी सामाजिक बुराईयां धर्म-आधारित होती हैं।

एक हिन्दू स्त्री या पुरुष, वह जो कुछ भी करता है, अपने धर्म का पालन करने के रूप में करता है। एक हिन्दू का खाना, पीना, नहाना, वस्त्र पहिनना, जन्म, विवाह और मरना सब धर्म के अनुसार होता है। उसके सारे कार्य धार्मिक हैं। हालांकि धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से वे बुराइयां हैं, पर हिन्दू के लिए वे बुराइयां नहीं हैं, क्योंकि उन्हें उसके धर्म की स्वीकृति मिली हुई है। यदि कोई हिन्दू पर पाप करने का आरोप लगाता है, तो उसका उत्तर होता है, ‘यदि मैं पाप कर रहा हूं, तो धर्म के अनुसार कर रहा हूं’।”

“समाज हमेशा अनुदार और रूढ़िवादी होता है। यह तब तक नहीं बदलता है, जब तक कि इसे बदलने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है और वह भी धीरे–धीरे। जब भी परिवर्तन शुरू होता है, तो हमेशा पुराने और नये के बीच संघर्ष होता है, और इस संघर्ष में अगर नए को बचाने के लिए उसका समर्थन न किया जाय तो नये के खत्म होने का हमेशा खतरा बना रहता है। सुधार के माध्यम से एक निश्चित तरीका उसे कानून द्वारा समर्थन देना है। कानून की सहायता के बिना, कभी भी किसी बुराई को नहीं सुधारा जा सकता। और जब बुराई धर्म पर आधारित हो, तो कानून की भूमिका बहुत बड़ी होती है।”

हिन्दू समाज की बहुत सी बुराइयां बेहद अमानवीय थीं, जो ब्रिटिश काल में कानून के दबाव से धीरे-धीरे समाप्त हुईं। परन्तु क्या कारण है कि दलितों के प्रति अस्पृश्यता और भेदभाव की बुराई खत्म नहीं हुई। डॉ. आंबेडकर ने इसका कारण यह बताया कि जो बुराइयां दूर हुईं, उन्हें हिन्दू स्वयं दूर करना चाहते थे, क्योंकि वे हिन्दू परिवार की बुराइयां थीं, जिनमें सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा आदि थीं। किन्तु अस्पृश्यता की बुराई हिन्दू समाज की संरचनात्मक व्यवस्था है, जिसे हिन्दू आज भी सही मानते हैं और खत्म करना नहीं चाहते।

डॉ.अंबेडकर ने महसूस कर लिया था कि हिन्दू अपनी जाति व्यवस्था का त्याग नहीं कर सकते, और कानून बन जाने के बावजूद वे दलित वर्गों की प्रगति में बाधक बने रहेंगे। इसलिए, वे कानून की, ऐसी अवधारणा पर विचार कर रहे थे, जहां अल्पसंख्यक वर्ग स्वतंत्र भारत के संविधान में अपने अधिकारों को सहजता से प्राप्त कर सकें। भारत स्वतंत्र हो चुका था और स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण होने जा रहा था। ऐसी स्थिति में डॉ. आंबेडकर की चिन्ता बढ़ गई थी, क्योंकि शासन सत्ता कांग्रेस के हाथों में आई थी, जिसमें ब्राह्मणों का वर्चस्व था। वे महसूस कर रहे थे कि ‘भारत सम्पूर्ण रूप से हिन्दुओं की मुट्ठी में है, उस पर उनका एकाधिकार है। ऊपर से नीचे तक सब उन्हीं के नियन्त्रण में है। ऐसा कोई विभाग नहीं है, जिस पर वे हावी न हों। पुलिस, अदालत तथा सरकार सेवाएं, दरअसल प्रशासन की प्रत्येक शाखा उनके कब्जे में है। परिणाम यह है कि अछूत लोग एक ओर हिन्दू जनता, तो दूसरी ओर हिन्दू बहुल प्रशासन नामक दो पाटों के बीच में पिस रहे हैं, एक उन पर अत्याचार करता है, तो दूसरा उनकी मदद करने के बजाए, अत्याचार करने वालों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करता है।’

ऐसी स्थिति में डॉ.अंबेडकर ने संविधान के एक ऐसे माॅडल पर विचार किया, जो समाजवादी था। उनका विश्वास था कि समाजवादी माॅडल को स्वीकार किए बिना भारत के अछूतों की दशा को नहीं सुधारा जा सकता, क्योंकि किसी का भी सामाजिक स्तर तभी ऊंचा उठता है, जब उनका आर्थिक स्तर सुधरता है। आर्थिक स्तर सरकार के नियन्त्रण वाली व्यवस्था से ही सुधर सकता है, निजीकरण की व्यवस्था से नहीं। इसलिए वे समाज कल्याण के यूरोपीय माडल को पसन्द नहीं करते थे, जिसके तहत सरकारें यह मानकर चलती हैं कि अधिकांश लोगों को सरकारी सुविधाओं की जरूरत नहीं है, बस थोड़े से गरीब लोग हैं, जिन्हें सुविधाएं चाहिए। सरकारों की लोकलुभावन योजनायें इसी माॅडल के तहत आती हैं। यह माॅडल दलित वर्गों का भला नहीं कर सकता, हालांकि आज की सरकारें इसी माडल पर काम कर रही हैं, और गरीबों की स्थिति जस की तस बनी हुई है। यह पूंजीवादी माॅडल है। इसलिए डॉ.अंबेडकर ने यह मानते हुए कि पूंजीवाद अमीरों का दर्शन है, गरीबों के हित में और देश के औद्योगिक विकास के हित में समाजवाद को आवश्यक माना। 17 दिसम्बर 1946 को उन्होंने संविधान सभा में पंडित नेहरू के प्रस्ताव पर बोलते हुए साफ-साफ शब्दों में कहा था कि ‘भारत को लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए संविधान में कैसे प्राविधान किए जायें, इसका कोई जिक्र पंडित नेहरू के प्रस्ताव में नहीं है। इसलिए मैं कुछ ऐसे प्राविधानों को रखना चाहूंगा, जो वास्तव में भारत में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय स्थापित करेंगे। इस दृष्टि से यह तभी सम्भव होगा, जब देश में उद्योग और भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जायेगा। मैं नहीं समझता कि किसी भी भावी सरकार के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को समाजवादी बनाए बगैर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय में विश्वास करना सम्भव हो सकता है?’

डॉ. आंबेडकर ने 15 मार्च 1947 को संविधान में कानून के द्वारा ‘राज्य समाजवाद’ को लागू करने के लिए संविधान सभा को ज्ञापन दिया। इस ज्ञापन में उन्होंने मांग की कि भारत अपने संविधान के कानून के अंग के रूप में यह घोषित करे कि उद्योग, कृषि, भूमि और बीमा का राष्ट्रीयकरण तथा खेती का सामूहिकीकरण हो।

इस ज्ञापन को पढ़कर कांग्रेस को लगा कि यदि संविधान के निर्माण में डाॅ. आंबेडकर की सेवाएं नहीं ली गईं, तो यह व्यक्ति भारत में क्रान्ति पैदा कर देगा, जिसे संभालना मुश्किल हो जायगा। अतः कांग्रेस और गांधी जी ने डॉ. आंबेडकर को, जिन्हें वे सदन में देखना नहीं चाहते थे, और जिन्हें बंगाल से चुनकर आना पड़ा था, बम्बई से तुरन्त चुनकर भेजने के लिए 30 जून 1947 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने बम्बई के प्रधानमंत्री बी. जी. खेर को पत्र लिखा। फलतः वे बम्बई से चुनकर सदन में पहुंचे, क्योंकि विभाजन के बाद बंगाल की उनकी सीट समाप्त हो गई थी। अतः तुरंत ही पंडित नेहरू ने उन्हें 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत का प्रथम कानून मंत्री और संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बना दिया। संविधान सभा में 296 सदस्य थे, जिन्होंने विभिन्न समितियों के माध्यम से तैयार किए गए, संविधान के प्रारूप को संविधान सभा में भारी वाद-विवाद के बाद पास किया था। अतः दलित वर्गों के लोग ऐसा सोचते हैं कि वर्तमान संविधान डॉ. आंबेडकर के मनमाफिक संविधान हैं. तो गलत सोचते हैं। अगर संविधान डॉ. आंबेडकर मनमाफिक बना होता तो उसमें ‘राज्य समाजवाद’ की व्यवस्था को संविधान में कानूनी प्रावधान के रूप में जरूर शामिल करते, जिसे उन्होंने ज्ञापन में प्रस्तुत किया था। पर, संविधान में राज्य समाजवाद का कहीं भी प्राविधान नहीं है। इसके विपरीत, जैसा कि डॉ. राजाराम कहते हैं, ‘भारतीय संविधान में मूल अधिकारों में संपत्ति का व्यक्तिगत स्वामित्व जोड़कर वर्ण–व्यवस्था को ही कायम किया गया, जिससे संपत्ति का न बंटवारा हो, और न उस पर किसी तरह का अंकुश हो। ये मूल अधिकार अनुच्छेद 12 से 35 में आते हैं। संपत्ति के अधिकार को कड़ाई से स्थापित करने के लिए मूल अधिकारों में अनुच्छेद 19 च, छ और अनुच्छेद 31 यानी दो अनुच्छेद भी इसमें जोड़े गए। अनुच्छेद 19 च और छ में अपनी संपत्ति को इकट्ठा करने, उसका व्यापार आदि कुछ भी करने की पूर्ण स्वत्रन्त्रता दी गई है। धन खर्च करने की कोई सीमा नहीं, कोई कितना भी खर्च कर सकता है। अनुच्छेद 31 एक स्वतन्त्र अनुच्छेद है, जिसमें संपत्ति का व्यक्तिगत स्वामित्व रखा गया है। सार्वजनिक उद्देश्य के लिए सरकार किसी की भी संपत्ति को ले सकती है, परन्तु उसका मुआवजा दिए बिना नहीं। मूल अधिकारों को पवित्र और अपरिवर्तनीय बना दिया गया, ताकि उससे छेड़छाड़ न हो। इसलिए अलग से एक अनुच्छेद 13 मूल अधिकारों में रखा गया है। मूल अधिकारों के हनन पर अनुच्छेद 32 रखा गया है, जिसके द्वारा मूल अधिकार के हनन के विरुद्ध न्यायालय में शिकायत दर्ज हो सकती है। ये मूल अधिकार संविधान की तीसरी सूची में दर्ज है।’

क्या यह डाॅ. आंबेडकर की इच्छा से हुआ था। राज्य समाजवाद की वकालत करने वाले डाक्टर क्या निजी संपत्ति का कानून बना सकते थे? उत्तर है, कदापि नहीं। स्वयं भी संपत्ति को मूल अधिकार बनाने के पक्ष में नहीं थे। पर, सदन में बहुमत उन्हीं लोगों का था, जिनके पास भारी संपत्तियां थीं। वे अपनी संपत्ति को खोना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने समाजवाद को अपने पास तक नहीं फटकने दिया। उन्होंने न उद्योगों का राष्ट्रीयकरण होने दिया और न भूमि का। उन दिनों बालिग मताधिकार नहीं था। केवल वही लोग वोटर हुआ करते थे, जो शिक्षित होते थे या जिनके पास इतनी कर योग्य संपत्ति होती थीI जाहिर है कि ऐसे लोगों से, जिनमें ज्यादातर राजे-महाराजे, नवाब और जमींदार ही थे, समाजवाद के समर्थन की आशा नहीं की जा सकती थी. इसलिए भूस्वामियों को मुआवजा देकर उनसे जमीन लेने के सवाल पर जब संविधान सभा में अनुच्छेद 31 पर बहस चल रही थी, तो सदन में अकेले डॉ. आंबेडकर ही उसके विरोध में बालने वाले थे। डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि यह उनका ड्राफ्ट नहीं है। उनके अनुसार, जब अनुच्छेद 31 बनाया जा रहा था, तो उसको लेकर कांग्रेस में तीन गुट हो गए थे। जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और जी. बी. पन्त में गहरे मतभेद थे। किन्तु, इस विवाद का निपटारा भूमि सुधारों की हत्या पर हुआ। तब डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि यह अनुच्छेद इतना बदसूरत है कि ‘मैं उसकी तरफ देखना भी पसन्द नहीं करता।’

डॉ. आंबेडकर पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र को आदर्श व्यवस्था नहीं मानते थे। राज्य के नीति-निर्देशक तत्व भी, जो संविधान की चौथी सूची में हैं, डॉ. आंबेडकर के विचारों के अनुरूप नहीं है। ये अनुच्छेद 36 से 51 के अंतर्गत आते हैं। ये सिद्धांत राज्यों को कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए राज्यों को कानून बनाने का निर्देश देते हैं, परन्तु अनुच्छेद 37 में यह प्राविधान है कि राज्य द्वारा बनाए गए कानून को न्यायालय में मान्यता प्राप्त नहीं है। ये वैसे ही हैं, जैसे बिना दांत और नाखून वाला शेर। ये तत्व समाजवाद का दिखावा हैं, जबकि असल में ये पूंजीवाद के ही उपक्रम हैं।

इसीलिए डाॅ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में संविधान पर अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि जिस व्यक्ति को वास्तव में इस संविधान का ड्राफ्ट तैयार करने का श्रेय दिया जाना चाहिए, वह बी. एन. राव हैं। इसके बाद जिसे सबसे ज्यादा श्रेय मिलना चाहिए, वह संविधान के मुख्य शिल्पी एस. एन. मुखर्जी है। इससे यह बेहतर समझा जा सकता है कि अकेले डाॅ. आंबेडकर ने संविधान नहीं लिखा था, बल्कि उसके तैयार करने में ब्राह्मणों का हाथ और हित सर्वोपरि था। इसलिए इसी भाषण में उन्होंने कहा था-

‘26 जनवरी को हम विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हमें समानता प्राप्त होगी, परन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन मे हम असमानता से होंगे। राजनीति में हमारी पहिचान एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य की होगी, परन्तु हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करते रहेंगे, जिसका मुख्य कारण संविधान का सामाजिक और आर्थिक ढांचा है। अग़र हमने इस विरोधाभास को लम्बे समय तक बनाए रखा, तो राजनीतिक लोकतन्त्र खतरे में पड़ जायेगा।’


दरअसल, डाॅ. आंबेडकर अपने राज्य समाजवाद की क्रान्ति को संविधान में शामिल नहीं कर सके थे। हम इसके पीछे की राजनीतिक परिस्थितियों को समझते हैं। डाॅ. आंबेडकर के साथ बहुमत नहीं था। उस समय बहुजन समाज शिक्षित और जागरूक भी नहीं था। किन्तु आज बहुजन समाज शिक्षित भी है और जागरूक भी है। क्या ही अच्छा होगा कि वह राज्य समाजवाद की मांग के लिए आन्दोलन करे और उसे संविधान का अंग बनाने के लिए संसद पर दबाव बनाए।

संदर्भ 26.11.2018
कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क
लेखन : कंवल भारती
https://www.forwardpress.in/2018/11/buy-forward-press-books-86/

Thursday, November 25, 2021

वर्तमान दौर की लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति की स्थिति-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

संविधान दिवस की पूर्व संध्या पर
N.L.Verma
(Associate professor)

     किसी भी देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था एक ऐसी खूबसूरत और सर्वोत्तम राज्य व्यवस्था मानी जाती है जिसमें सभी वर्गों या पक्षों की असहमति के लिए ना सिर्फ सम्मान और स्वागत के लिए पर्याप्त जगह होती है, बल्कि वह कई राजनीतिक दलों के अस्तित्व और उसकी राजनीतिक सक्रियता के रूप में उसकी राजनैतिक संस्कृति में विद्यमान होती है अर्थात् असहमति की आवाज़ देश के लोकतंत्र, विपक्ष और प्रबुद्ध नागरिकों के जीवंत होने का लक्षण माना जाता है। असहमति की गुंजाइश के बिना कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वस्थ और सशक्त नहीं बन सकती है। आज के दौर में संविधान द्वारा संचालित और नियंत्रित भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था बहुसंख्यकवाद/ हिंदुत्व /कथित नव राष्ट्रवाद व धर्मवाद की सांस्कृतिक चपेट में है और असहमति व्यक्त करने वालों को बाधित और दंडित करने की एक नयी संस्कृति का वर्चस्व और भय स्थापित होता हुआ दिखाई देता है। 

आज बहुत से नए कानून और सरकारी कार्रवाईयों की बाढ़ सी आई हुई है जो रोजमर्रा की व्यक्त की जाने वाली असहमितियों की लोकतांत्रिक आवाज़ को दबाने,कुचलने और चुप कराने का सरकार या राज्य द्वारा लगातार उपक्रम या षड्यंत्र किया जा रहा है। आज आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी में राजनीति,धर्म और मीडिया के असर की वजह से बेवजह आक्रामकता, नागरिक व्यवहार में सौम्यता,सहजता और परस्पर आदर के बजाय आहत होने, लड़ने और झगड़ने के मुहावरे बढ़ते जा रहे हैं। देश में एक प्रकार से नागरिक लय भंग होता नजर आ रहा है। आज लगभग हर दिन राज्य व्यवस्था अपनी और संवैधानिक-लोकतांत्रिक मर्यादाओं- मूल्यों का उल्लंघन करता हुआ नजर आ रही है जिसका समाज बुरी तरह से शिकार बना हुआ है। आज देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद सरकार के प्रति किसी भी प्रकार की व्यक्त असहमति या विरोध को सख्त दंडनीय रूप लेती जा रही है अर्थात वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति, जो लोकतंत्र के लिए एक सबसे बड़ी खूबसूरती मानी जाती है,अत्यंत जोखिम और साहस भरा काम हो गया है और असहमति व्यक्त करने वाले कई प्रकार की कानूनी अड़चनों और मुश्किलों में पड़ते दिखाई दे रहे हैं। 

आज संविधान से संचालित और नियंत्रित लोकतांत्रिक या गणतांत्रिक व्यवस्था की सभी संस्थाओं की स्वात्तायता व निष्पक्षता ही समाप्त नहीं हो चुकी है बल्कि, देश के संविधान की व्यवस्थाओं को विफल या निष्प्रयोज्य कर देश के ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों की प्रगति के रास्ते अवरुद्ध कर नफ़रत और आशंकाओं से युक्त माहौल पैदा किया जा रहा है। बार- बार संविधान की समीक्षा के नाम पर एक विशेष संस्कृति से पोषित और नियंत्रित व्यवस्था द्वारा कुछ वर्गों के मन में घोर आशंकाएं और अनिश्चितताएं पैदा कर समाज में साम्प्रदायिक वैमनस्यता के बीज बोकर एक तरह से भय का माहौल पैदा किया जा रहा है। आज देश की संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था एक नए प्रकार की अदृश्य और अपरिभाषित तानाशाही या अराजकता की चपेट में है,अर्थात् देश का संविधान खतरे के दौर में है।

पता- मो० राजगढ़ जिला लखीमपुर-खीरी 262701

Sunday, November 21, 2021

वैचारिक आतंकवाद-सिद्धार्थ (संपादक-फारवर्ड प्रेस)


इवी पेरियार रामास्वामी : भारतीय आधुनिकता के प्रस्तावक (सिद्धार्थ)
ईवीआर पेरियार का जन्म 17 सितंबर 1879 में हुआ था. 
उन्होंने उत्तर भारत के द्विजों की आर्य श्रेष्ठता, मर्दवादी दंभ, राष्ट्रवाद और शोषण-अन्याय के सभी रूपों को चुनौती दी.

भारतीय समाज और व्यक्ति का मुकम्मल आधुनिकीकरण जिन चिंतकों के विचारों के आधार पर होना है, उनमें ई.वी. रामासामी पेरियार अग्रणी हैं. पेरियार ने उन सभी बिंदुओं को चिह्नित और रेखांकित किया है जिनका खात्मा भारतीय समाज के आधुनिकीकरण की अनिवार्य शर्त है.

ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ भारत की प्रगतिशील श्रमण बहुजन-परंपरा के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने उत्तर भारत के द्विजों की आर्य श्रेष्ठता और मर्दवादी दंभ, राष्ट्रवाद, ब्राह्मणवाद, वर्ण-जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और शोषण-अन्याय के सभी रूपों को चुनौती दी. वर्चस्व, अन्याय, असमानता और दासता का कोई रूप उन्हें स्वीकार नहीं था. उनकी आवेगात्मक अभिव्यक्ति पढ़ने वालों को हिला देती है. तर्क-पद्धति, तेवर और अभिव्यक्ति की शैली के चलते उन्हें यूनेस्को ने 1970 में “दक्षिणी एशिया का सुकरात” कहा था.

पेरियार 1920 से 1925 तक कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े रहे. वह औपचारिक तौर पर 1920 में कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और 1920 और 1924 में वह तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष और 1921 और 1922 में उसके सचिव रहे. इस दौरान उन्होंने गांधी के सशक्त सहयोगी के रूप में काम किया लेकिन कांग्रेस और गांधी के साथ काम करते हुए बहुत जल्दी उन्हें अहसास हो गया कि यह पार्टी और गांधी उत्तर भारतीय आर्य-द्विज मर्दों के वर्चस्व को कायम रखने का उपकरण हैं. उन्होंने कांग्रेसी पार्टी के भीतर काम करने के अपने अनुभवों के बारे में लिखा :

जब मैं तमिलनाडु कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष था, तो मैंने 1925 के सम्मेलन में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था. उस प्रस्ताव में मैंने जातिविहीन समाज के निर्माण का प्रस्ताव किया था. मेरे मित्र चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) ने इसे अस्वीकृत कर दिया था. मैंने यह भी अनुरोध किया था कि कांग्रेस के विभिन्न पक्षों और क्षेत्रों में सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व (वंचित एवं अल्पसंख्यक तबकों के लिए आरक्षण) का पालन किया जाना चाहिए. लेकिन यह प्रस्ताव भी विषय समिति में थिरु वि. का. (एक सम्मानित तमिल विद्वान कल्यानासुन्दरानर) के द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया. तब मुझे अपने प्रस्ताव के समर्थन में 30 प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर प्राप्त करने के लिए कहा गया था. श्री एस. रामानाथन ने 50 प्रतिनिधियों से हस्ताक्षर प्राप्त कर लिए. तब सर्वश्री सी. राजगोपालाचारी, श्रीनिवास आयंगर, सत्यमूर्ति और अन्य लोगों ने अपना प्रतिरोध दर्ज कराया. उन्हें डर था कि अगर मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया, तो कांग्रेस खत्म हो जाएगी. बाद में यह प्रस्ताव थिरु वि. का. और डॉ. पी. वरदाराजुलू के द्वारा रोक दिया गया. ब्राह्मण बहुत खुश हुए. इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे सम्मेलन में बोलने की इजाजत भी नहीं दी.

पेरियार ने बाद में कांग्रेस के बारे में लिखा, “कांग्रेस पार्टी से अकेले ब्राह्मण और धनी लोग ही लाभ उठा रहे हैं. यह आम आदमी, गरीब आदमी और श्रमिक वर्गों के लिए अच्छा काम नहीं करेगी. यह बात मैं काफी लम्बे समय से कह रहा था.”

कांग्रेस के अध्यक्ष या सचिव के रूप में तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों के वर्चस्व को तोड़ने की हर कोशिश को कांग्रेस पार्टी पर अपना वर्चस्व कायम रखने वाले द्विज मर्दों ने नाकाम कर दिया. इतना ही नहीं, गांधी ने स्पष्ट शब्दों में तमिलनाडु में सार्वजनिक तौर पर वर्ण-व्यवस्था की महानता और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की घोषणा की. भीखू पारेख ने अपनी किताब कोलेनिज्म, ट्रेडिशन एंड रिफॉर्म : एनालिसिस ऑफ गांधी पोलिटिकल डिस्कोर्स में गांधी को उद्धृत करते हुए बताया है कि गांधी ने कहा था, “वर्णाश्रण धर्म अभिशाप नहीं है; बल्कि यह उन बुनियादों में से एक है, जिन पर हिंदू धर्म टिका हुआ है और यह (वर्णाश्रम धर्म) बताता है कि धरती पर जन्म लेने का इंसान का उद्देश्य क्या है? गांधी आगे कहते हैं, “ब्राह्मण हिंदू-धर्म और मानवता के सबसे खूबसूरत फूल हैं.’ वह आगे अपनी बात पर जोर देते हुए कहते हैं, “मुझे इनके (ब्राह्मणों) लिए कुछ करने की जरूरत नहीं है. ये अपनी हिफाजत खुद ही अच्छी तरह कर सकते हैं. ये पहले भी बहुत सारे तूफानों का सामना कर चुके हैं. मुझे गैर-ब्राह्मणों से सिर्फ इतना कहना है कि वे इन फूलों ( ब्राह्मणों) को उनकी खुशबू और चमक के साथ रौंद देने की कोशिश कर रहे हैं.”

पेरियार ने वामपंथियों के साथ मिलकर भी काम किया लेकिन उन्होंने देखा कि वामपंथियों द्वारा जाति, पितृसत्ता और धर्म के गठजोड़ की उपेक्षा की जा रही है. वामपंथियों की वर्ग की यांत्रिक यूरोपीय धारणा, इतिहास की एक रेखीय आर्थिक व्याख्या और जाति, पितृसत्ता, धर्म, राष्ट्रवाद और वर्ग के गठजोड़ को समझ पाने में नाकामी के चलते पेरियार को उनसे भी अपना रास्ता अलग करना पड़ा. पेरियार ने भारत के वामपंथियों के बारे में लिखा, “हमारे देश में साम्यवाद की जितनी भी बातें हो रही हैं, वे बकवास हैं... वे जातिवाद की दुष्टता और प्रतिक्रियावादी गांधी के दुष्प्रचार के कुप्रभावों के प्रति चिंतित नहीं लगते. वे उस राजाजी के प्रति चिंतित नहीं हैं जिनकी चिंता सिर्फ यह है कि ब्राह्मण कैसे सुख से जीवित रहेंगे. वे उस कांग्रेस पार्टी के बारे में चिंतित नहीं हैं, जो वर्णाश्रम धर्म को सही ठहराती है.” बाद में पेरियार ने तमिलनाडु में गैर-ब्राह्मणवाद की अगुवा जस्टिस पार्टी के साथ भी मिलकर काम किया.

जस्टिस पार्टी की स्थापना सन 1916 में (आधुनिक चेन्नई) में हुई थी. तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन की औपचारिक शुरुआत 1916 में तब हुई, जब जस्टिस पार्टी ने गैर-ब्राह्मण घोषणा-पत्र जारी किया. ब्राह्मणवाद बनाम गैर-ब्राह्मणवाद का संघर्ष ही इस घोषणा-पत्र का मूल स्वर था. मद्रास प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों का वर्चस्व किस कदर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1912 में वहां ब्राह्मणों की आबादी सिर्फ 3.2 प्रतिशत थी, जबकि 55 प्रतिशत जिला अधिकारी और 72.2 प्रतिशत जिला जज ब्राह्मण थे. मंदिरों और मठों पर ब्राह्मणों का कब्जा तो था ही जमीन की मिल्कियत भी उन्हीं लोगों के पास थी. 

इस प्रकार तमिल समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था. इस वर्चस्व को तोड़ने के लिेए ब्राह्मण विरोधी आंदोलन शुरू हुआ. 1915-1916 के आस-पास मंझोली जातियों की ओर से सी.एन. मुलियार, टी. एन. नायर और पी. त्यागराज चेट्टी ने जस्टिस आंदोलन की स्थापना की थी. इन मंझोली जातियों में तमिल वल्लाल, मुदलियाल और चेट्टियार प्रमुख थे. इनके साथ ही इसमें तेलुगु रेड्डी, कम्मा, बलीचा नायडू और मलयाली नायर भी शामिल थे. 1920 में मोंटेग-चेम्सफोर्ड सुधारों के अनुसार मद्रास प्रेसीडेंसी में एक द्विशासन प्रणाली बनायी गई जिसमें प्रेसीडेंसी में चुनाव कराने के प्रावधान किए गए. इस चुनाव में जस्टिस पार्टी ने भाग लिया और एक गैर-ब्राह्मणों के नेतृत्व और प्रभुत्व वाली जस्टिस पार्टी सत्ता में आई. इस पार्टी के नेतृत्व में पहली बार तमिलनाडु में 1921 में सरकारी नौकरियों में गैर ब्राह्मणों के लिए आरक्षण लागू हुआ.

लेकिन पेरियार ने देखा कि जस्टिस पार्टी तमिलनाडु में ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को तोड़कर गैर-ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व को तो कायम करना चाहती है, मगर वर्चस्व और अन्याय के अन्य रूपों के खिलाफ वह चुप रहती है जबकि वह एक ऐसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे थे जिसमें वर्चस्व और अन्याय के सभी रूपों का खात्मा हो जाए और ऐसी दुनिया का निर्माण हो जहां किसी तरह का अन्याय और शोषण न हो. उन्होंने अपने आंदोलन को आत्मसम्मान-आंदोलन ( सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट) नाम दिया. पेरियार ने अपनी पत्रिका ‘कुदी आरसू’ में 20 अक्टूबर 1945 को लिखा कि “देश में बहुत सारे आंदोलन चल रहे हैं... कांग्रेस पार्टी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष कर रही है. जस्टिस पार्टी ब्राह्मणों के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है. आदि द्रविड़ पार्टी उच्च जातीय हिंदुओं के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है और वर्कर्स पार्टी पूंजीपतियों के वर्चस्व के खिलाफ संघर्ष कर रही है. इस तरह हर एक पार्टी का उद्देश्य वर्चस्व के किसी एक रूप का खात्मा करना है. लेकिन, यदि कोई पार्टी वर्चस्व के सभी रूपों के खिलाफ एक साथ संघर्षरत है, तो वह आत्मसम्मान-आंदोलन है.”

पेरियार भारत में चल रहे स्वराज आंदोलन के उद्देश्य के संदर्भ में प्रश्न करते हैं :
हम जोर-शोर से स्वराज की बात कर रहे हैं. क्या स्वराज आप तमिलों के लिए है या उत्तर भारतीयों के लिए है? क्या यह आपके लिए है या पूंजीवादियों के लिए है? क्या स्वराज आपके लिए है या कालाबाजारियों के लिए है? क्या यह मजदूरों के लिए है या उनका खून चूसने वालों के लिए है? अपने आत्मसम्मान-आंदोलन के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए पेरियार लिखते हैं, “आत्मसम्मान आंदोलन का मकसद उन ताकतों का पता लगाना है, जो हमारी प्रगति में बाधक बनी हुई हैं. यह उन ताकतों का मुकाबला करेगा, जो समाजवाद के खिलाफ काम करती हैं. यह समस्त धार्मिक प्रतिक्रियावादी ताकतों का विरोध करेगा.”

पेरियार का भविष्य की दुनिया का सपना मार्क्स-एंगेल्स के साम्यवाद के सपने से मेल खाता है. अपने लेख ‘भविष्य की दुनिया’ में अपने आदर्श समाज की परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने तमिल पुस्तक इनि वारुम उल्लगम में लिखा :

नए विश्व में किसी को कुछ भी चुराने या हड़पने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. पवित्र नदियों जैसे कि गंगा के किनारे रहने वाले लोग उसके पानी की चोरी नहीं करेंगे. वे केवल उतना ही पानी लेंगे, जितना उनके लिए आवश्यक है. भविष्य के उपयोग के लिए वे पानी को दूसरों से छिपाकर नहीं रखेंगे. यदि किसी के पास उसकी आवश्यकता की वस्तुएं प्रचुर मात्रा में होंगी, तो वह चोरी के बारे में सोचेगा तक नहीं. इसी प्रकार किसी को झूठ बोलने, धोखा देने या मक्कारी करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. क्योंकि, उससे उसे कोई प्राप्ति नहीं हो सकेगी. नशीले पेय किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. न कोई किसी की हत्या करने का ख्याल दिल में लाएगा. वक्त बिताने के नाम पर जुआ खेलने, शर्त लगाने जैसे दुर्व्यसन समाप्त हो जाएंगे. उनके कारण किसी को आर्थिक बरबादी नहीं झेलनी पड़ेगी.’’

इसी किताब में वह आगे लिखते हैं, ‘‘पैसे की खातिर अथवा मजबूरी में किसी को वेश्यावृत्ति के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा. स्वाभिमानी समाज में कोई भी दूसरे पर शासन नहीं कर पाएगा. कोई किसी से पक्षपात की उम्मीद नहीं करेगा. ऐसे समाज में जीवन और काम-संबंधों को लेकर लोगों का दृष्टिकोण उदार एवं मानवीय होगा. वे अपने स्वास्थ्य की देखभाल करेंगे. प्रत्येक व्यक्ति में आत्मसम्मान की भावना होगी. स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करेंगे और किसी का प्रेम बलात् (जबरन) हासिल करने की कोशिश नहीं की जाएगी. स्त्री-दासता के लिए कोई जगह नहीं होगी. पुरुष सत्तात्मकता मिटेगी. दोनों में कोई भी एक-दूसरे पर बल-प्रयोग नहीं करेगा. आने वाले समाज में कहीं कोई वेश्यावृत्ति नहीं रहेगी. “

भविष्य के जिस समाज का सपना पेरियार देखते हैं, उसकी भारत में स्थापना की पहली शर्त वह अंबेडकर की तरह जाति के विनाश को मानते थे. उनका मानना था कि वर्ण-जाति की रक्षा के लिए हिंदू-धर्म की स्थापना की गई. वर्ण-जाति की रक्षा के लिए जन्म लेने वाले ईश्वरों को गढ़ा गया है और मनुस्मृति, रामायण, गीता और पुराणों की रचना की गई है. उन्होंने लिखा, “इस जाति-व्यवस्था ने भारतीय समाज को जड़ और बर्बर समाज में तब्दील कर दिया है.” 1959 में उन्होंने लिखा, “हमारे देश में जाति के विनाश का मतलब है- भगवान, धर्म, शास्त्र और ब्राह्मणों (ब्राह्मणवाद) का विनाश. जाति तभी खत्म हो सकती है, जब ये चारों भी खत्म हो जाएं. यदि इसमें से एक भी बना रहता है, तो जाति का विनाश नहीं हो सकता.”

लेकिन ब्राह्मणों के खात्मे से उनका सीधा मतलब ब्राह्मणवाद के खात्मे से है. इस संदर्भ में वह लिखते हैं कि उन्हें “ब्राह्मण-प्रेस द्वारा ब्राह्मण-विरोधी के रूप में चित्रित किया गया है. किन्तु, मैं व्यक्तिगत रूप से किसी भी ब्राह्मण का दुश्मन नहीं हूं. एकमात्र तथ्य यह है कि मैं ब्राहमणवाद का धुर-विरोधी हूं. मैंने कभी नहीं कहा कि ब्राह्मणों को खत्म किया जाना चाहिए.”

पेरियार ने गैर-द्विजों और महिलाओं से आह्वान किया कि वे “उस ईश्वर को नष्ट कर दें, जो तुम्हें शूद्र कहता है. उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर दो, जो हिंदू ईश्वर को सशक्त बनाते हैं”.
पेरियार धर्म को प्रभुत्व और अन्याय का पोषक मानते हैं. वह सभी धर्मों को खारिज करते हुए विज्ञान और बुद्धिवाद का समर्थन करते. वह धर्माचार्यों और विज्ञान के समर्थक बुद्धिवादियों की तुलना करते हुए लिखते हैं, “धर्माचार्य सोचते हैं कि परंपरा-प्रदत्त ज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है; उसमें कोई भी सुधार संभव नहीं है. अतीत को लेकर जो पूर्वाग्रह और धारणाएं प्रचलित हैं, वे उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए तैयार नहीं होते.”

पेरियार ने गैर-द्विजों और महिलाओं से आह्वान किया कि वे “उस ईश्वर को नष्ट कर दें, जो तुम्हें शूद्र कहता है. उन पुराणों और महाकाव्यों को नष्ट कर दो, जो हिंदू ईश्वर को सशक्त बनाते हैं.” उनका मानना था कि “हिंदू-धर्म और जाति-व्यवस्था नौकर और मालिक का सिद्धांत स्थापित करते हैं.”

पेरियार ने ऐसा केवल कहा नहीं, बल्कि अपने अनुयायियों के साथ ऐसा किया भी. उन्होंने मनुस्मृति और रामायण को जलाया. रामायण की हकीकत को सामने लाने के लिए उन्होंने रामायण का एक मुकम्मल पाठ ‘रामायण पादीरंगल’ प्रस्तुत किया जो 1959 में अंग्रेजी भाषा में में ‘द रामायण : अ ट्रू रीडिंग’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. इसका हिंदी अनुवाद 1968 में ‘सच्ची रामायण’ के नाम से ललई सिंह यादव ‘पेरियार’ ने प्रकाशित किया; जिसका अनुवाद राम आधार ने किया था.

पेरियार की नजर में रामायण कोई धार्मिक किताब नहीं है. यह एक राजनीतिक ग्रंथ है; जिसका उद्देश्य आर्यों का अनार्यों पर, ब्राह्मणों का गैर-ब्राह्मणों पर, पुरुषों का महिलाओं पर वर्चस्व और वर्चस्व के अन्य रूपों को न्यायसंगत ठहराना है. सच्ची रामायण की भूमिका में पेरियार लिखते हैं, “इनके मूल आख्यानों का सावधानी से विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए, तो पता चलता है कि जो भी घटनाएं हुईं, वे असभ्य और बर्बर थीं  _” और इनकी कथाओं को इस तरह से लिखा गया है कि ब्राह्मण दूसरों की नजर में महान दिखें; महिलाओं को दबाया जा सके और उनको दासी बनाया जा सके. इनका उद्देश्य उनकी रूढ़ियों और मनु की संहिता को समाज में लागू कराना है.”

पेरियार पितृसत्ता के मूल ढांचे को सीधी चुनौती देते हैं. पेरियार की क्रांतिकारी प्रगतिशील सोच सबसे ज्यादा उनके स्त्री संबंधी चिंतन में सामने आती है. पेरियार महिलाओं की ‘पवित्रता’ या स्त्रीत्व की दमनकारी अवधारणा के कटु-विरोधी थे. उनका कहना था कि “यह मान्यता कि केवल महिलाओं के लिए पवित्रता आवश्यक है, पुरुषों के लिए नहीं; इस विचार पर आधारित है कि महिलाएं पुरुषों की संपत्ति हैं. यह मान्यता वर्तमान में महिलाओं को निकृष्ट दर्जे का साबित करने की द्योतक है.” पेरियार महिलाओं के शिक्षा प्राप्त करने, काम करने, अपने ढंग से जीने और प्यार करने के अधिकार के जबरदस्त समर्थक थे.

इस मुद्दे पर उनके विचार इतने क्रांतिकारी थे कि द्रविड़ कड़गम के उनके कई घोर समर्थकों को भी वे रास नहीं आए और इसलिए पार्टी ने न तो उनका प्रचार किया और न ही उनके अनुरूप आचरण. जैसा कि स्त्रीवादी व पेरियार के विचारों की अध्येता वी. गीता ने हाल में 19वीं सदी की समाज-सुधारक सावित्रीबाई फुले की स्मृति में आयोजित एक परिचर्चा में भाग लेते हुए कहा- ‘‘पेरियार के क्रांतिकारी विचारों को दरकिनार कर उन्हें केवल आरक्षण, भौंडे नास्तिकवाद और कटु ब्राह्मण-विरोध के प्रतिपादक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और जाति, ऊंच-नीच, लिंग व सेक्स आदि से जुड़े प्रश्नों पर उनके विचारों को मानो किसी अलमारी में बंद करके भुला दिया गया है.”

श्रम और पूंजी के संघर्ष में पेरियार श्रमिक वर्ग के साथ खड़े होते हैं. वह साफ शब्दों में लिखते हैं कि “यह श्रमिक ही है, जो विश्व में सब कुछ बनाता है. लेकिन, यह श्रमिक ही चिंताओं, कठिनाइयों और दुःखों से गुजरता है.” पेरियार ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें शोषण और अन्याय का नामो-निशान नहीं होगा. उस दुनिया का खाका खींचते हुए वह लिखते हैं, “एक समय ऐसा आएगा, जब धन-संपदा को सिक्कों में नहीं आंका जाएगा. न सरकार की जरूरत रहेगी. किसी भी मनुष्य को जीने के लिए कठोर परिश्रम नहीं करना पड़ेगा. ऐसा कोई काम नहीं होगा, जिसे ओछा माना जाए या जिसके कारण व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखा जाए.”

बर्बर माध्यकालीन मूल्यों और विचारों में जी रहे भारत को पेरियार के दर्शन, चिंतन और विचारों की सख्त जरूरत हैं.

(सिद्धार्थ हिंदी साहित्य में पीएचडी और फारवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक हैं.)
जय भीम जय मान्यवर कांशीराम जी

Monday, May 31, 2021

गाँधी के सहयोगी बद्री अहीर का इतिहास

इतिहास का पन्ना

इतिहास के पन्नों में चंपारण नायक के सबसे बड़े सहयोगी बद्री अहीर कहीं खो गए

धनन्जय सिंह


"खुद गांधी जी ने बद्री जी के बारे में अपने लेखों और संस्मरणों में जम कर तारीफ की. एक तरह से शुरू के दौर में बद्री जी ने गांधी के लिए वही काम किया जो भामाशाह ने प्रताप के लिए किया थामगर खेद है कि इतिहास में उनको असली मुकाम नहीं मिला.महात्मा गांधी के साथ अफ्रीका में उन्होंने पहली गिरफ्तारी दी थी.बद्री जी अपनी पूरी नकदी लेकर पहुंच गए. ये और बात है कि गांधी जी ने उनमें से 10,000 पाउंड ही लिये जिसका उल्लेख खुद गांधी जी अपनी आत्मकथा में किया है."

बद्री अहीर हमारे सगे परनाना थे. उनका जन्म गाँव-हेतमपुर, थाना-जगदीशपुर, जिला-भोजपुर, आरा, बिहार में हुआ था. वे उस गाँव के एक जमींदार ठाकुर लाल सिंह की धोखाघड़ी का शिकार होकर अपनी सारी जोत उसके यहाँ गिरवी रखकर उसी के यहाँ खेत मजदूरी का काम करने लगे थे. एक बार ठाकुर ने अपनी लड़की की शादी में उनको पगड़ी बांधने पर सरेआम अपमानित कर दिया. फिर क्या अपमान से बागी होकर वे पैदल आरा शहर आ गये. 6 फीच की ऊँचाई, गठीला बदन, रौबदार मूंछें, गजब का आकर्षक व्यक्तित्त्व था उनका. उसी समय आरा का सुपरिटेंडेंट मिस्टर डॉल का ट्रांसफर दक्षिण अफ्रीका के नेटाल में हो रहा था. रेलवे स्टेशन पर जब वे अंग्रेज ऑफिसर का सामान उठा कर ट्रेन में रखवा रहे थे तब ऑफिसर ने उनको दक्षिण अफ्रीका ले जाने का प्रस्ताव दे डाला. मरता क्या न करता ? वे 60 वर्षीय मिस्टर डॉल के साथ डरबन, नेटाल, दक्षिण अफ्रीका चले गये. कुछ समय बाद उस ऑफिसर की मृत्यु हो गयी और उसकी 30 वर्षीय पत्नी ने 35 वर्षीय बद्री अहीर से विवाह कर लिया. लगभग दस वर्षों के बाद उनकी नई पत्नी का देहांत हो गया और वे अपनी काबिलियत के दम पर बद्री पैलेस के मालिक बन चुके थे. फिर उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों का संगठन बनाया ओर गांधी जी को 10,000 पौंड की बड़ी रकम भारतीयों का केस लड़ने के लिए दिया. फिर वे गांधी जी को लेकर अपने गांव हेतमपुर से होते हुए चम्पारण तक ले गये. यही नहीं चम्पारण यात्रा सफल बनाने के लिए उन्होंने हेतमपुर से जगदीशपुर तक के समस्त लोगों को इकट्ठा किया और यात्रा को एक सफल आंदोलन का रूप दिया. अचानक उनके दिमाग में अपनी पैतृक जमीन और बीबी बच्चों का खयाल आया और हेतमपुर में आकर लालसिंह की जमींदारी को नीलामी में खरीदा. उनके तीन बेटे शिव प्रसाद बद्री, शिवदयाल बद्री और रामनरेश बद्री थे. सबसे छोटे बेटे रामनरेश बद्री के हवाले जमीन जायदाद करके बाकी दोनों बेटों के साथ वे पुनः बद्री पैलेस डरबन, नेटाल, दक्षिण अफ्रीका चले गये. क्या आप बद्री अहीर को जानते हैं ? बद्री अहीर गांधी जी के साथ जेल जाने वाले पहले भारतीय थे. उन्होंने गांधी जी के शरुआती दिनों में काफी आर्थिक मदद की थी और चम्पारण आन्दोलन को कामयाब बनाने के लिये भारत भी आये थे. हां हां, वही बद्री अहीर, जिसे कुछ लोग 'बदरिया अहिरा' भी कहते हैं.

बदरी अहीर
बद्री अहीर जी बिहार के हेतमपुर गांव के रहने वाले थे, जो आज भी भोजपुर (आरा), बिहार, में पड़ता है. 20 वीं सदी के शुरू में वे अफ्रीका में गिरमिटिया मज़दूर से सफल कारोबारी बन चुके थे। महात्मा गांधी के साथ अफ्रीका में उन्होंने पहली गिरफ्तारी दी थी. वो सन 1902 में मि. डॉल के साथ दक्षिण अफ्रीका गये थे. सन 1916 शुरू में गांधी जी को अफ्रीका में निरामिषहारी गृह बनाने की ज़रूरत हुई तो बद्री जी अपनी पूरी नकदी लेकर पहुंच गए. ये और बात है कि गांधी जी ने उनमें से 10,000 पाउंड ही लिये जिसका उल्लेख खुद गांधी जी अपनी आत्मकथा में किया है. उस वक़्त ये बहुत बड़ी रकम थी.

जुलाई, 1917 में गांधी जी भारत मे चंपारण आंदोलन चलाने आये तो बद्री अहीर जी अपनी नकद पूंजी के साथ भारत भी आ धमके. उन्होंने आंदोलन को सफल बनाने में बहुत श्रम और धन खर्च किया। वे उनके साथ बेतिया भी गए. हजारों किसानों को अपने बल बूते पर चम्पारण यात्रा से जोड़ा. चम्पारण आंदोलन में बद्री अहीर की भूमिका को देख कर उस समय के अखबारों ने उनके बारे में खूब लिखा. खुद गांधी जी ने बद्री जी के बारे में अपने लेखों और संस्मरणों में जम कर तारीफ की. एक तरह से शुरू के दौर में बद्री जी ने गांधी के लिए वही काम किया जो भामाशाह ने प्रताप के लिए किया था, मगर खेद है कि इतिहास में उनको असली मुकाम नहीं मिला. आज भी डरबन में बद्री पैलेस शान से खड़ा है.

चंपारण सत्याग्रह आंदोलन क्या था | Champaran Satyagraha Movement [History  Date] Hindi - Deepawali

बद्री अहीर की पहली पत्नी से तीन बेटे थे...शिवप्रसाद बद्री, शिव दयाल बद्री और रामनरेश बद्री. दोनों बड़े बेटों का परिवार अब भी नेटाल, दक्षिण अफ्रीका में है. जबकि तीसरे बेटे रामनरेश बद्री का परिवार हेतमपुर में है. राम नरेश बद्री को एक बेटा लालबाबू बद्री (मेरे सगे मामा) और एक बेटी अनुसुईया बद्री (मेरी माँ) हैं.

शिवप्रसाद बद्री और शिवदयाल बद्री नेटाल में बैरिस्टर बने जबकि रामनरेश बद्री हेतमपुर, जगदीशपुर, बिहार में 250 एकड़ जोत के एक बड़े प्रतिष्ठित नागरिक बने. आज भी नेटाल, डरबन में बद्री प्रसाद यादव (अहीर) के वंशज केपटाऊन, जोहांसबर्ग, प्रिटोरिया, डरबन, में कई प्रतिष्ठित पदों पर आसीन हैं.

हां, अब बिहार सरकार के निर्देश पर भोजपुर के डी.एम. ने उनके गाँव 'हेतमपुर' को आदर्श ग्राम घोषित करने का निर्णय जरूर लिया है. ये और बात है कि कांग्रेस ने बापू के नाम पर राजनीति तो बहुत की मगर इतिहास के इन नायकों को ठिकाने लगा दिया.

धनन्जय सिंह

प्रस्तुति,यदुकुल दर्पण अभय यादव

आगरा,  9808333344

 

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