साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
Showing posts with label सामाजिक लेख. Show all posts
Showing posts with label सामाजिक लेख. Show all posts

Tuesday, July 16, 2024

केवल आरक्षण से ही आधे आईएएस एससी-एसटी और ओबीसी,लेकिन वे शीर्ष पदों पर क्यों नहीं पहुंच पाते-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


【अधिकारियों के लिए न्यूनतम और अधिकतम कार्यकाल/अवधि तय होनी चाहिए और शीर्ष पदों के लिए गठित पैनल को गैर-विवेकाधीन, मैट्रिक्स-आधारित और पारदर्शी बनाना होगा】
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पर लोकसभा में बोलते हुए एक महत्वपूर्ण विषय के तार छेड़ दिए,जिसे जानते तो सभी हैं,लेकिन उन पर बड़े मंचों पर चर्चा तक नहीं होती है। महिला आरक्षण के अंदर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि आज की सरकार में सचिव स्तर की नौकरशाही पर सिर्फ तीन ओबीसी अफसर हैं। यानी देश की आधी से ज्यादा उनकी आबादी और हर वर्ष 27% आरक्षण से ओबीसी अधिकारी चयनित होने के बावजूद उनकी भारत सरकार के सिर्फ 5 प्रतिशत बजट निर्धारण में ही भूमिका है। इस मुद्दे को उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस,भारत जोड़ों की पैदल यात्रा और चुनावी रैलियों में भी उठाया और आरक्षण विरोधी नरेंद्र मोदी सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया।
✍️
इसके जवाब में भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार ने यह तो नहीं कहा कि राहुल गंधी का ओबीसी अफसरों का बताया हुआ आंकड़ा गलत है,लेकिन जवाबी राजनीतिक हमला करते हुए कहा कि जब केंद्र में कांग्रेस की सत्ता थी, तो उसने ओबीसी अफसरों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या किया? कैबिनेट मंत्री किरेन रिजीजू ने इस बारे में एक्स पर पोस्ट किया था कि इस समय वही अफसर सचिव बन रहे हैं जो 1992 के आसपास नौकरी में आए थे। इसलिए कांग्रेस को बताना चाहिए कि ओबीसी अफसरों को आगे लाने में कांग्रेस की सरकारों की भूमिका क्या रही?
✍️
2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों तक ऐसा लगता था कि सामाजिक न्याय पर ओबीसी के मुद्दे पर काफी चर्चा होगी और नौकरशाही के शीर्ष पर ओबीसी अफसरों के यथोचित प्रतिनिधित्व न होने या कम होने पर भी काफी चर्चा होगी,लेकिन चुनावी रैलियों और चुनावी घोषणा पत्र में सामाजिक न्याय पर ओबीसी अफसरों के प्रतिनिधित्व और महिला आरक्षण बिल में ओबीसी महिलाओं का आरक्षण न होने और जातिगत जनगणना पर जिस तेजी और जोर शोर से चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं होती दिखी। मोदी के अबकी बार 400पार के नारे के निहितार्थ पर बीजेपी के कतिपय नेताओं की संविधान बदलने के बयान से एससी-एसटी और ओबीसी समाज मे यह संदेश घर कर गया कि यदि इस बार बीजेपी को दो तिहाई बहुमत हासिल हो जाता है तो संविधान में महत्वपूर्ण बदलाव किया जा सकता है। यदि संविधान बदला तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण तो खत्म हो ही जाएगा। इस बार के लोकसभा चुनाव में संविधान और लोकतंत्र का मुद्दा फेज़ दर फेज़ जोर पकड़ता चला गया जिसका सर्वाधिक प्रभाव यूपी में पड़ा जहां बीजेपी इस बार राम मंदिर के नाम पर अस्सी की अस्सी सीटें जीतने का दावा कर रही थी,वहां अयोध्या की सीट पर वहां की जनता ने बीजेपी को हराकर यह संदेश दे दिया कि हिन्दू बनाम मुस्लिम की राजनीति अब चलने वाली नहीं है। मंदिर और मुस्लिम मुद्दा इस बार चुनाव में कहीं भी जोर पकड़ते नहीं दिखा जिसके चलते वह यूपी में मात्र 33 सीटें ही जीत पाई और इस चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि कि अयोध्या में एक दलित समाज के व्यक्ति से बीजेपी के कथित रघुवंशी लल्लू सिंह को हार का सामना करना पड़ा जो बीजेपी के राम मंदिर निर्माण की जनस्वीकार्यता पर बड़ा सवाल खड़ा करती है। बनारस से मोदी जी की जीत की असलियत पर भी सवाल उठ रहे हैं। फ़िलहाल वह हार से बचा लिए गए।
राहुल गांधी ने ओबीसी नौकरशाही की सहभागिता का मुद्दा तो सही उठाया था,लेकिन उनका यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि इसकी सारी जिम्मेदारी वर्तमान मोदी सरकार की ही है। यह नौकरशाही की संरचना,उसके काम करने के तरीके और उसके जातिवादी चरित्र से जुड़ा मामला है और किसी भी पार्टी की सरकार के आने या जाने से इसमें बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। इस समस्या का यदि वास्तव में समाधान करना है तो वह नौकरशाही की संरचना और उसकी चयन प्रक्रिया के स्तर पर ही सम्भव हो सकता है।
तीन प्रस्तावित समाधान:
आईएएस अफसरों के नौकरी में आने की अधिकतम उम्र 29 साल हो और इसी दायरे के अंदर विभिन्न कैटेगरी को उम्र में जो भी छूट देनी हो, दी जाए या फिर सभी अफसरों की नौकरी का कार्यकाल बराबर किया जाए,ताकि सभी श्रेणी के अफसरों को सेवा के इतने वर्ष अवश्य मिल जाएं ताकि वे भी नौकरशाही के शीर्ष स्तर तक पहुंच पाएं। नौकरी के अलग-अलग स्तरों पर जब अफसरों को चुनने के लिए पैनल बनाया जाए तो यह प्रकिया पारदर्शी हो और इसमें मनमाने तरीके से किसी को चुन लेने और किसी को खारिज कर देने का वर्तमान चलन पूरी तरह से बंद होना चाहिए। अफसरों की सालाना गोपनीय रिपोर्ट(सीआर) के मामले में जातिवादी मानसिकता पर अंकुश लगे और भेदभाव को प्रक्रियागत तरीके से सीमित किया जाए।
✍️
इन उपायों पर चर्चा करने से पहले यह ज़रूरी है कि इस विवाद के तीन पहलुओं पर आम सहमति बनाई जाए। सबसे पहले तो सरकार और नीति निर्माताओं को सहमत होना होगा कि भारतीय नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता का अभाव है और एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर उच्च पदों पर आनुपातिक रूप से बहुत कम हैं। 2022 में संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में तत्कालीन केंद्रीय कार्मिक मंत्री डॉ.जितेंद्र सिंह ने सरकार की तरफ से जानकारी दी थी कि संयुक्त सचिव और सचिव स्तर पर केंद्र सरकार में 322 पद हैं,जिनमें से एससी,एसटी,ओबीसी और जनरल (अनारक्षित वर्ग) कटेगरी के क्रमश: 16, 13, 39 और 254 अफसर हैं। 2022 में ही पूछे गए एक अन्य सवाल के जवाब में डॉ.सिंह ने सदन को जानकारी दी थी कि भारत सरकार के 91 अतिरिक्त सचिवों में से एससी-एसटी के दस और ओबीसी के चार अफसर हैं,वहीं 245 संयुक्त सचिवों में से एससी-एसटी के 26 और ओबीसी के 29 अफसर ही हैं। आख़िर निर्धारित प्रतिशत तक आरक्षण और ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में अतिरिक्त जगह बनाने के बावजूद उच्च नौकरशाही के हर स्तर पर आरक्षित वर्ग के अधिकारियों का न्यूनतम आनुपातिक प्रतिनिधित्व न होना,सरकार की संविधान विरोधी सोच को दर्शाता है।
✍️
हमें दूसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि यह समस्या 2014 में बनी मोदी सरकार में ही पैदा नहीं हुई है,लेकिन यह तथ्य और सत्य है कि उन्होंने भी इसे ठीक करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। यह सच है कि यह समस्या 2014 से पहले से ही चली आ रही है। मिसाल के तौर पर,मनमोहन सिंह के यूपीए शासन के तुरंत बाद 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, केंद्र सरकार के 70 सचिवों में कोई ओबीसी नहीं था और एससी-एसटी के तीन-तीन ही अधिकारी थे। 278 संयुक्त सचिवों में सिर्फ 10 एससी और 10 एसटी और 24 ओबीसी थे।
✍️
तीसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि राजकाज और खासकर नौकरशाही में तमाम सामाजिक समूहों, खासकर वंचित समूहों की हिस्सेदारी न सिर्फ अच्छी बात है, बल्कि संविधान और लोकतंत्र के सामाजिक न्याय के लिए यह ज़रूरी भी है। किसी भी संस्था का सार्वजनिक या सबके हित में होना इस बात से भी तय होता है कि इसमें विभिन्न समुदायों और वर्गों की समुचित हिस्सेदारी है या नहीं! ज्योतिबा फुले ने उस समय इस बात को बेहतरीन तरीके से उठाया था,जब उन्होंने पाया कि पुणे सार्वजनिक सभा में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व ही नहीं है तो उन्होंने पूछा कि फिर यह सार्वजनिक सभा कैसे हुई? ज्योतिबा फुले के इस विचार को भारतीय संविधान में मान्यता मिली और अनुच्छेद 16(4) के तहत व्यवस्था की गई है कि अगर राज्य की नज़र में किसी पिछड़े वर्ग (एससी- एसटी और ओबीसी) का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व/हिस्सेदारी नहीं है तो सरकार उस वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है।
उपरोक्त तीन स्थापनाओं पर सहमति के बाद हम उन कारणों पर विचार कर सकते हैं जिनकी वजह से एससी-एसटी और ओबीसी के नौकरशाहों की शीर्ष निर्णायक तथा महत्वपूर्ण पदों पर हिस्सेदारी नहीं है:
नौकरी में अलग-अलग उम्र में आना और कार्यकाल में अंतर:
1️⃣
सिविल सर्विस परीक्षा के लिए यूपीएससी के मापदंडों के हिसाब से अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैटेगरी के अभ्यर्थियों की अधिकतम उम्र 32 साल निर्धारित है। ओबीसी कैंडिडेट को तीन साल और एससी-एसटी कैंडिडेट इस उम्र में पांच साल की छूट है। यानी ओबीसी कैंडिडेट 35 साल तक और एससी-एसटी कैंडिडेट 37 साल की उम्र तक ऑल इंडिया सर्विस में आ सकते हैं,लेकिन इसका एक यह भी अर्थ है कि एससी-एसटी और ओबीसी के कई कैंडिडेट,अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैंडिडेट्स के मुकाबले कम समय नौकरी कर पाएंगे। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है,क्योंकि सबसे लंबी अवधि तक नौकरी कर रहे कैंडिडेट्स से ही शीर्ष स्तर के अफसर चुने जाते हैं। उम्र में छूट की वजह से सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो सिविल सेवा के दो अफसरों के कार्यकाल में 16 वर्ष तक का अंतर हो सकता है,क्योंकि सभी वर्गों से एक अफसर न्यूनतम 21 साल की उम्र में और दूसरा आरक्षित वर्ग का अफसर अधिकतम 37 साल की उम्र में सर्विस में आ सकता है।
सकता है।
2️⃣
दूसरी समस्या उच्च पदों के लिए गठित एंपैनलमेंट की है। अभी व्यवस्था यह है कि सरकार का कार्मिक विभाग नियत समय की नौकरी पूरी कर चुके अफसरों से पूछता है कि क्या वे विभिन्न उच्च पदों के लिए एंपैनल होना चाहते हैं। जो सहमति देते हैं उनमें से कुछ अफसरों को उन पदों के पैनल में चुन लेती है। इसी पैनल से अफसरों को प्रमोशन के लिए चयनित किया जाता है। अभी पैनल में अफसरों को लेने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और इसमें विभाग के उच्च अधिकारियों का मंतव्य यानी उनकी राय महत्वपूर्ण होती है। चूंकि,उच्च पदों पर एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर बहुत कम हैं तो आरक्षित वर्ग के अफसरों के प्रति एक स्वाभाविक पक्षपात हो सकता है, इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता। इसलिए ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया में पक्षपात की आशंका को न्यूनतम किया जाए और विभिन्न मापदंडों को स्कोर के आधार पर निर्धारित किया जाए। अगर ऐसा कोई निष्पक्ष सिस्टम बना पाना संभव न हो तो फिर जिन अफसरों ने एक निर्धारित कार्यकाल पूरा कर लिया है,उन सभी को पैनल में ले लिया जाए। दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट ने कैबिनेट सेक्रेटेरिएट के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट्स औसतन लगभग 25 साल की उम्र में जबकि एससी-एसटी और ओबीसी औसतन लगभग 28 साल की उम्र में सेवा में आते हैं,यानि आरक्षित श्रेणी के कैंडिडेट अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट से औसतन तीन साल कम नौकरी कर पाते हैं। प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल मानता है कि, आरक्षित श्रेणी के कई अफसर इस वजह से भी नीति निर्माता के स्तर पर नहीं पहुंच पाते हैं।
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि “आरक्षित वर्ग से बहूत कम अफसर ही सचिव स्तर तक पहुंच पाते हैं।” लोक प्रशासन पर बनी कोठारी कमेटी ने तो अनारक्षित वर्ग ही नहीं,आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स के लिए भी सिर्फ दो बार परीक्षा में बैठने की सिफारिश की थी। भर्ती नीति और चयन पद्धति पर इस समिति (डी.एस.कोठारी) ने परीक्षा चक्र के डिजाइन पर सिफारिशें प्रदान कीं, जिसके परिणामस्वरूप तीन चरणों में परीक्षा की वर्तमान प्रणाली शुरू की गई: एक प्रारंभिक परीक्षा जिसके बाद एक मुख्य परीक्षा और एक साक्षात्कार। इसके अलावा,ऑल इंडिया सर्विसेज के लिए एक ही परीक्षा की योजना शुरू की गई। देश में गठित कई सुधार आयोग और समितियां इस बात पर एकमत दिखती हैं कि ज्यादा उम्र के चयनित अफसर सेवा में नहीं लिए जाने चाहिए और सुधारों में यह सुझाव बेहद उपयोगी माना जाता है। 31अगस्त 2005 को जांच आयोग के रूप में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सिफारिश की है कि सिविल सर्विस परीक्षा में बैठने के लिए अनारक्षित वर्ग हेतु उम्र 21 से 25 साल होनी चाहिए। ओबीसी के लिए इसमें तीन साल और एससी-एसटी के लिए अधिकतम चार साल की छूट हो। इस उम्र तक अगर लोग नौकरी में आ जाते हैं तो इस बात की पूरी संभावना होगी कि हर अफसर सचिव पद हेतु एंपैनल होने के अर्ह(योग्य) हो जाएगा। दूसरा सुझाव पहली नज़र में अटपटा लग सकता है,लेकिन अगर ज़िद है कि अफसर 32, 35 और 37 साल तक के हो सकते हैं तो ऐसा नियम बनाया जा सकता है कि किसी भी वर्ग से अफसर चाहे जिस उम्र में आए,सबको एक समान कार्यकाल मिलेगा।
3️⃣
एक और महत्वपूर्ण पहलू, किसी अफसर को काबिल और ईमानदार मानने या न मानने को लेकर है। हालांकि, प्रशासनिक सेवाओं में जाति आधारित पक्षपात को साबित कर पाना हमेशा संभव नहीं है,लेकिन उच्च पदों पर उनकी लगभग अनुपस्थिति को देखते हुए इस आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता। जब 22.5% एससी-एसटी तथा 27% ओबीसी अफसर केवल आरक्षण से सर्विस में आ रहे हैं और कुछ उच्च मेरिट की वजग से ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में जगह ले लेते हैं, तो वे बीच में कहां लटक या अटक जा रहे हैं? दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सालाना रिपोर्ट बनाने में पक्षपात कम करने के लिए यह सिफारिश की थी कि "आउट ऑफ टर्न प्रमोशन ग्रेड" किसी भी स्तर पर सिर्फ 5-10% अफसरों को ही दिया जाए यानी कि मनमाने ढंग से प्रोमोशन पर एक सीमा तक अंकुश लगाना भी न्यायसंगत होगा। साथ ही यह भी सिफारिश थी कि गोपनीय रिपोर्ट की जगह एक नया सिस्टम ईज़ाद किया जाए,जिसमें कार्यभार पूरा करने के स्पष्ट रूप से पहचाने जाने वाले मानकों के आधार पर किसी अफसर का प्रोमोशन हेतु मूल्यांकन हो।
सरकार अगर सचमुच नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता के आधार पर न्याय या हिस्सेदारी देना चाहती है, तो उसे उपरोक्त कुछ उपायों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

Friday, July 12, 2024

सामाजिक न्याय के नाम पर सत्ता की मलाई चाटते जातीय दलों की असलियत जो एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आस्तीन के सांप सिद्ध हो रहे हैं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग:एक
       
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
✍️सामाजिक न्याय की दुहाई देकर जातीय आधार पर दल गठित जो दल संविधान विरोधी आरएसएस और उसके राजनीतिक दल बीजेपी नेतृत्व एनडीए की सरकार में शामिल होकर लंबे अरसे से सत्ता की मलाई चाटने वाले दल बहुजन समाज (एससी-एसटी और ओबीसी) के लिए आस्तीन के सांप साबित हो रहे हैं। अनुप्रिया पटेल,ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद सभी सत्ता की अवसरवादी राजनीति कर समाज मे राजनीतिक बिखराव पैदाकर मनुवादी शक्तियों को अप्रत्यक्ष रूप से लंबे अरसे से राजनीतिक लाभ पहुंचा रहे हैं,अर्थात उनकी चुनावी राजनीति को मजबूत कर रहे हैं। संविधान और लोकतंत्र के मुद्दे पर ओबीसी और एससी-एसटी और अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय में चुनावी जागरूकता के साथ टैक्टिकल वोटिंग का हुनर पैदा होने से आज बीजेपी और एनडीए गठबंधन यूपी में अप्रत्याशित रूप से कमजोर हुआ है,यदि बीएसपी सुप्रीमो विपक्ष के इंडिया गठबंधन में शामिल हो गईं होती तो यूपी में बीजेपी और एनडीए गठबंधन का सफाया लगभग पक्का था,लेकिन दुर्भाग्यवश वो न हो सका। बीएसपी सुप्रीमो की भूमिका को लेकर भी सामाजिक-राजनीतिक और बौद्धिक मंचों पर कई तरह के आलोचनात्मक ढंग से सवाल उठते रहे और उन सवालों या संशयों के दुष्प्रभाव बीएसपी के आये चुनावी परिणामों का विश्लेषण करने से परिलक्षित होते दिखाई भी दिए हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर शून्य से दस तक पहुंचने वाली बीएसपी ने लगभग 20% वोट हासिल किया था और समाजवादी पार्टी अपनी पुरानी संख्या ही बचा पाई थी। 2024 में बीएसपी सुप्रीमो की "एकला चलो" की नीति के फलस्वरूप वह शून्य पर जा पहुंची और वोट प्रतिशत भी आधे से ज़्यादा कम हो गया। जब देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी गठबंधन की राजनीति का फार्मूला अपनाने पर मजबूर है या यह उसकी सत्ता की राजनीति का अभिन्न हिस्सा बन चुका है तो ऐसी परिस्थिति में बीएसपी की एकला चलो की राजनीति कितनी तार्किक और न्यायसंगत लग रही है।
✍️मोदी नेतृत्व बीजेपी जैसे-जैसे राजनीतिक रूप से कमजोर दिखाई देगी,सामाजिक न्याय की झूठी राजनीति करने वाले बहुजन समाज के असली राजनीतिक दुश्मनों का बीजेपी से मोह भंग होता हुआ दिखेगा और सत्ता की ओर बढ़ते किसी दूसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश जारी करते हुए दिखाई देंगे। आज की विशुद्ध सत्ता की राजनीति के दौर में सामाजिक न्याय के नाम पर बने ऐसे जाति आधारित दलों की कोई कमी नहीं है,एक हटेगा तो  जातीय राजनीति की भरपाई के लिए कोई दूसरे के आने का क्रम थमने वाला नहीं और पैदा होते रहेंगे एवं अलग-अलग जाति के नाम पर बहुजन समाज राजनीतिक रूप से बंटता हुआ राजनीति का शिकार होकर ठगा जाता रहेगा। समाज के शिक्षित जानकार और जागरूक लोगों को आगे आकर समाज की सामाजिक-राजनीतिक चेतना और कदम पर काम करना होगा। जातीय राजनीति और चेतना के अति भावावेश या अतिरंजना में अब और बहने की जरूरत नहीं है,क्योंकि देश में सामाजिक- राजनीतिक बहुरूपियों की कमी नहीं है। एक हटेगा तो दूसरा आकर .....।
【अपना दल (एस) सांसद अनुप्रिया पटेल की मुख्यमंत्री योगी को लिखी चिट्ठी का पोस्टमार्टम एवं राजनीतिक निहितार्थ】
                ●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●●
✍️आजकल एनडीए गठबंधन में शामिल अपना दल (एस) की केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल की एक चिट्ठी सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा के मीडिया में सुर्खियों में है जिसमें उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर सरकारी नियुक्तियों में एनएफएस(नॉन फाउंड सूटेबल) के नाम पर एससी-एसटी और ओबीसी के अभ्यर्थियों के साथ हो रहे अन्याय की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है। उल्लेखनीय है कि अपना दल (एस) राज्य में 2014 से बीजेपी गठबंधन की राजनीति का हिस्सा बनकर योगी सरकार में और 2017 से केंद्र सरकार में शामिल है। आरएसएस संचालित और नियंत्रित बीजेपी का राजनीतिक आचरण शुरू से ही संविधान और लोकतंत्र विरोधी रहा है। जब बीजेपी की सरकार नहीं हुआ करती थी तबसे वह आरक्षण खत्म करने की अप्रत्यक्ष और अदृश्य साज़िश के तहत संविधान समीक्षा की बात करती रही है और 2014 में मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद भी संविधान और आरक्षण की समीक्षा की लगातार समय-समय वकालत की जाती रही है। संविधान और संविधान सम्मत आरक्षण को सीधे खत्म करने का वक्तव्य-कदम किसी भी दल के लिए कितना आत्मघाती साबित हो सकता है,आरएसएस और बीजेपी उसे अच्छी तरह समझती है। इसलिए संविधान और आरक्षण पर डायरेक्ट हिट या आक्रमण नहीं होगा,बल्कि उसके अप्रत्यक्ष विकल्पों पर लगातार विचार-मंथन होता रहता है और 2014 से उसकी कार्ययोजना पर क्रियान्वयन भी हो रहा है। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का बेतहाशा निजीकरण,बैंकों का विलय,पीपीपी मॉडल का अनवरत विकास,सरकारी नौकरियों में कमी,विशेषज्ञता के नाम पर लेट्रल एंट्री के नाम पर एक वर्ग और संस्कृति विशेष की भर्तियां करना आदि सामाजिक न्याय जैसी सांविधानिक व्यवस्थाओं की धज्जियाँ उड़ाने की अप्रत्यक्ष और अदृश्य रूप से तो विगत दस सालों से उपक्रम जारी है। चुनावी माहौल में एससी-एसटी और ओबीसी मंदिर,हिंदुत्व और धर्म के नशे में बेसुध होकर मतदान करता दिखाई देता है। 
✍️2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था न होने के बावजूद सवर्ण वर्चस्व आरएसएस के इशारे पर सामान्य वर्ग की जातियों के लिए दस प्रतिशत सरकारी नौकरियों में आरक्षण देते समय सत्ता और विपक्ष में बैठे सभी एससी-एसटी और ओबीसी के सांसदों के मुँह में दही क्यों जम गई थी अर्थात उनकी जुबान को लकबा क्यों मार गया था? यदि डॉ.भीमराव आंबेडकर जी ने एससी-एसटी के लिए लोकसभा में आरक्षण की व्यवस्था न की होती तो एससी-एसटी के लिए लोकसभा में पहुंचना एक सपना ही रह जाता। 75 साल के लोकतंत्र में संसद की राज्यसभा में आरक्षण न होने की वजह से एससी-एसटी के कितने सांसद पहुंच पाए हैं?
✍️एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ लंबे अरसे से होते आ रहे अन्याय या चीर हरण पर अपना दल (एस) प्रमुख और सांसद की नज़र अब पहुंची है, उसके लिए बहुजन समाज की ओर से सादर धन्यवाद और साधुवाद। एससी-एसटी और ओबीसी अभ्यर्थियों के साथ केवल एनएफएस के आधार पर ही अन्याय या उनकी हकमारी नहीं हो रही है,बल्कि उनके साथ केंद्र में 2014 से और राज्य सरकार में 2017 से यह प्रक्रिया अनवरत रूप से कई रूपों में जारी है। विधान मंडल और संसद में बैठे एससी-एसटी और ओबीसी के सांसदों के दिमागों में सत्ता के ताले,जुबानों पर लकबा की मार और आंखों पर पट्टियां बंधी हुई हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसका इलाज कैसे हो सकता है? सरकारी नौकरियों में एससी-एसटी और ओबीसी की बैक लॉग की बंद पड़ी भर्ती प्रक्रिया, आरक्षण में ओवरलैपिंग व्यवस्था का खात्मा,शिक्षण संस्थानों में नियुक्ति के उपरांत प्लेसमेंट में नई रोस्टर व्यवस्था लागू होना, डिफेंस सेवाओं में भर्ती की सारी पुरानी प्रक्रिया, किंतु चार साल के लिए अग्निवीर बनाया जाना,ओबीसी आरक्षण में क्रीमिलेयर के नाम पर उस वर्ग के योग्य और पात्र अभ्यर्थियों को आरक्षण से बाहर करना,बढ़ती महंगाई के फलस्वरूप घटती क्रय शक्ति (परचेजिंग पावर) अर्थात अप्रत्यक्ष रूप से घटती आय और नए वेतनमान की वजह से बढ़ती आय के फलस्वरूप बढ़ता क्रीमिलेयर वर्ग अर्थात क्रीमीलेयर के बहाने आरक्षण की सीमा से बाहर होता ओबीसी का एक बड़ा वर्ग, ओबीसी वेलफेयर की संसदीय समिति के अध्यक्ष सतना-एमपी से लगातार चौथी बार के सांसद गणेश सिंह पटेल द्वारा क्रीमीलेयर की आय सीमा 15लाख रुपये की सिफारिश करने की वजह से रुष्ट कथित ओबीसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनका कार्यकाल का विस्तार ही नहीं किया और उनके स्थान पर सीतापुर से सांसद राजेश वर्मा को नामित किया। उनके कार्यकाल में शायद ही इस मुद्दे पर कोई अगली कार्यवाही हो सकी हो। 2024 में गणेश सिंह पटेल सतना से लगातार पांचवीं बार सांसद चुने गए हैं।
✍️मंडल आयोग की स्पष्ट सिफारिश होने के बावजूद प्रोमोशन में आरक्षण न होने से तत्संबंधी स्तर पर आरक्षण में कमी आना... आदि बड़ी हकमारी की ओर हमारे एससी-एसटी और ओबीसी के चुने हुए जनप्रतिनिधियो का ध्यान अभी तक क्यों नहीं जा सका? सामाजिक न्याय करने का वादा कर विधान मंडल और संसद में पहुँचकर हमारे जनप्रतिनिधि यदि वहां सत्ता से सामाजिक न्याय की मांग नहीं कर सकते हैं तो ऐसे लोगों को दुबारा प्रतिनिधि चुनना उस समाज की मूर्खता या जातीय अंधभक्ति ही समझी जाएगी। सामाजिक न्याय की राजनीति के बहाने विधायिका में हिस्सेदारी पाने वाले सभी दलों पर जातिगत जनगणना कराने का सामाजिक दबाव बनना चाहिए जिससे जनसंख्या के हिसाब से जातिगत आरक्षण के विस्तार की राजनीति को भरपूर ताकत मिल सके। एनएफएस तो आरक्षण में कटौती करने की मनुवादियों द्वारा एक नवीन अदृश्य तकनीक विकसित की गई है जिसका दायरा शिक्षण संस्थाओं जैसे क्षेत्रों की नौकरियों तक ही सीमित है या जहां साक्षात्कार की मेरिट के आधार पर नियुक्तियां होती हैं। अपना दल (एस) की सांसद की चिट्ठी में केवल एनएफएस के आधार पर आरक्षण में हो रही साज़िश का ही उल्लेख नहीं होना चाहिए था, बल्कि ऊपर अंकित उन सभी बिंदुओं को शामिल किया जाना चाहिए था जिनके माध्यम से एससी-एसटी और ओबीसी की लंबे अरसे से बारीकी से बड़ी हकमारी हो रही है।
भाग दो पढ़ने के लिए लिंक करे    https://anviraj.blogspot.com/2024/07/blog-post_55.html

Friday, May 31, 2024

हर परिस्थिति में बीजेपी को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने की संभावना-नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)

  लोकतंत्र की लूट/आशंका/संभावना/हिटलरशाही पर लेख   
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी


✍️इस बार चरण दर चरण चुनाव के बाद मोदी की भाषा-शैली लड़खड़ाती और कटुतापूर्ण होती दिख रही है। चुनाव परिणाम के बाद उपजने वाले संकटपूर्ण परिदृश्य पर संविधान और लोकतंत्र के समानता, समता, धर्मनिरपेक्षता और बंधुता जैसे सिद्धांतों में गहन आस्था और विश्वास रखने वाले सामाजिक वर्ग और राजनीति की संस्थाओं से जुड़े चिंतक वर्ग संविधान और लोकतंत्र को लेकर कल्पनातीत सम्भावनाएं और आशंकाएं व्यक्त कर रहे हैं।चुनाव में सत्ता के शीर्ष नेतृत्व के वैमनस्यता पूर्ण वक्तव्यों विशेषकर हिन्दू मुसलमान और पाकिस्तान पर लगातार जनता को दिग्भ्रमित करने की हर सम्भव कोशिश जारी रही है। साम्प्रदायिक वैमनस्यता फैलाते और विषवमन करते भाषणों की लगातार  बौछार से देश के ईमानदार,स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया वर्ग में चार जून के बाद संविधान और लोकतंत्र के संकट को लेकर गहन विचार-विमर्श जारी है।बीजेपी को बहुमत न मिलने की स्थिति में सरकार गठन के मुद्दे पर नई तरह की तानाशाही के उभरने की आशंका ज़ाहिर कर रहे हैं।इस बार भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में वह हो सकता है जिससे देश के संविधान बनाने वाले और लोकतंत्र स्थापित करने वालों की रूह तक कांप उठेगी।बहुमत न मिलने की आशंका से भयभीत दिखते पीएम इंडिया गठबंधन के घोषणा पत्र को साम्प्रदायिक रंग देकर उसकी व्याख्या कर हिंदू-मुस्लिम की दीवार लगातार ऊंची करने में लगे हैं।उनके चुनावी भाषणों,संसद पर अचानक बढ़ाई गयी सुरक्षा व्यवस्था सन्निकट संभावित आशंकाओं और घटनाक्रम को लेकर संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था रखने वाला बौद्धिक वर्ग यथासंभव वैचारिक-विमर्श कर टीवी चैनलों के माध्यम से लोगों को संभावित खतरों से लगातार आगाह कर रहा है। 
✍️मोदी काल में नियुक्त राष्ट्रपतियों और उपराष्ट्रपतियों के आचरण से संवैधानिक और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का लगातार हरण-क्षरण हुआ है। देश-विदेश में सार्वजनिक मंचों पर इन प्रमुखों का आचरण कैसा रहेगा,उसे पीएमओ तय करता है जिसके कुछ उदाहरण बतौर सबूत देखे जा सकते हैं। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद अपने पूरे कार्य काल में मोदी के सामने समर्पण और कृतज्ञता भाव से आचरण करते दिखाई देते रहे और वर्तमान राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू उन्हीं की विरासत को आगे बढ़ाते हुए पीएमओ से मिले दिशा-निर्देशों की अनुरूपता और अनुकूलता के हिसाब से आचरण करने की हर सम्भव कोशिश करती दिखाई देती हैं।उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की राष्ट्रपति बनने की चाहत ने मोदी के सामने उनकी शारीरिक भाव-भंगिमा,भाषा और समर्पण मुद्रा से संविधान और लोकतंत्र की व्यवस्थाएं-मर्यादाएं मौके-बेमौके विगत लंबे अरसे से शर्मसार और बेनक़ाब होती रही हैं। द्रोपदी मुर्मू की लोकतंत्र और देश की महिला पहलवानों,मणिपुर में महिलाओं के साथ हुई शर्मनाक घटनाओं पर उनके मुंह से एक लफ्ज़ न निकलना मोदी के सामने उनका निरीह दिखता चरित्र और व्यक्तित्व उनकी संवैधानिक शक्ति के निष्पक्ष और विवेकपूर्ण उपयोग के बारे में बहुत कुछ संशय पैदा करता दिखाई देता है।राष्ट्रपति मुर्मू को नई संसद के शिलान्यास से लेकर उद्घाटन और राम मंदिर के शिलान्यास व प्राण प्रतिष्ठा आयोजन में शामिल न होने या न करने के बावजूद मोदी के प्रति उनके कृतज्ञता भाव में कोई कमी नही आयी है।इन विषयों पर सवाल होने पर मोदी की कार्य-संस्कृति से उन्हें कोई शिकवा शिकायत नहीं है।वो मानती हैं कि मोदी जी जो कर रहे हैं या करेंगे वो सब ठीक ही होगा। मुर्मू की भूमिका के बारे में यह धारणा सी बन चुकी है कि वह संविधान प्रदत्त शक्तियों का विवेकपूर्ण प्रयोग न कर पीएमओ से मिले दिशा-निर्देशों को शीर्ष सत्ता की मर्ज़ी और मंशा के अनुरूप और अनुकूल ही आचरण करती हैं,अर्थात वह पीएमओ की राय के बिना एक शब्द तक नहीं बोल सकती हैं। महिला पहलवान और मणिपुर की महिलाओं की अस्मिता पर उनकी चुप्पी को देखते हुए लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद सरकार गठन के मुद्दे को लेकर संभावित वीभत्स परिस्थितियों प का सामना करने की कई तरह की आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं।2024 के चुनावी परिणाम मोदी और शाह के लिए राजनीतिक रूप से जीवन-मरण और प्रतिष्ठा की लड़ाई दिखाई देती है।बीजेपी यानि कि मोदी-शाह किसी भी परिस्थिति में विपक्ष की विशेष रूप से कांग्रेस नेतृत्व की सरकार न बनने की कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहते हैं,भले ही उन्हें संविधान-लोकतंत्र की सारी हदें पार करनी पड़े और इसमें राष्ट्रपति से पूर्ण सहयोग मिलने की उम्मीद जताई जा रही है।
✍️संविधान-लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं,मर्यादाओं,परंपराओं का तकाज़ा है कि चुनाव परिणाम के बाद राष्ट्रपति को सांविधानिक व्यवस्था के साथ खड़ा होना चाहिए,किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के पक्ष या विपक्षी दलों के विपक्ष में नहीं। इस बार चुनाव परिणाम आने के बाद पैदा होने वाली परिस्थिति से निपटने के लिए भारतीय संसदीय लोकतंत्र में कल्पनातीत ऐतिहासिक उथल-पुथल होने की संभावना जताई जा रही है। मोदी के तानाशाही रवैये के चलते राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका और प्रदत्त शक्तियों के कसौटी पर कसने का समय आने वाला है। देखना है कि चुनाव परिणाम में यदि एनडीए को स्पष्ट पूर्ण बहुमत नहीं मिलता है तो राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्ति और विवेक निष्पक्ष होकर काम करती है या फिर शीर्ष सत्ता संस्थान से मिले संकेतों और दिशा-निर्देशोँ के अनुरूप और अनुकूल निर्णय लेने के लिए मजबूर होती हैं।एनडीए को पूर्ण बहुमत नही मिलने पर मुर्मू विपक्षी इंडिया गठबंधन को गठबंधन की मान्यता देती हैं या नहीं,यह एक बड़ा सवाल उठता दिखाई दे रहा है।ऐसी परिस्थिति में वह संविधान और लोकतंत्र के साथ खडी दिखाई देंगी या पार्टी/व्यक्ति विशेष के साथ जिसने उन्हें राष्ट्रपति जैसे गौरवशाली पद तक पहुंचाया है!संविधान-लोकतंत्र के जानकारों का मानना है कि इस चुनाव परिणाम के बाद बीजेपी के प्रतिकूल बनीं परिस्थितियों में सरकार के गठन पर राष्ट्रपति की निर्णय बेहद महत्त्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

ये परिस्थितियां पैदा होने की संभावना जताई जा रही है:
1️⃣यदि एनडीए को पूर्ण बहुमत मिलता है तो सरकार बनाने के आमंत्रण देने में राष्ट्रपति को कोई दुविधा नहीं होगी। बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता दिया जाना निश्चित। यह स्थित उनके लिए बेहद सुखद और सुविधाजनक साबित होगी।
2️⃣यदि एनडीए का पूर्ण बहुमत नहीं आता है तो राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाएगी।बहुमत पाए विपक्ष इंडिया गठबंधन को सरकार बनाने का न्योता नहीं भेजेंगी,ऐसी सम्भावना जताई जा रही है। माना जा रहा है कि मोदी  के इशारे पर इंडिया गठबंधन की प्री पोल गठबंधन की मान्यता न मानते हुए उसे सरकार बनाने का न्योता नहीं देंगी। यदि एनडीए पूर्ण बहुमत की संख्या से थोड़ा पीछे रह जाती है जो मैनेज की जा सकती है तो राष्ट्रपति मुर्मू एनडीए को पूर्ण बहुमत  के लिए समर्थन जुटाने के लिए सरकार गठन में विलंब कर सकती हैं जिसकी पूरी सम्भावना जताई जा रही है। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि इसी बीच बीजेपी अर्थात मोदी को हीरा मंडी से हीरे खरीदने का वक्त मिल जायेगा अर्थात हॉर्स ट्रेडिंग हो जाएगी। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए विपक्ष के छोटे-छोटे दलों के सांसदों को अच्छी खासी रकम और मंत्री का आकर्षण दिखाकर बहुमत के लिए न्यूनतम आबश्यक संख्या जुटा ली जाएगी। इस तरह की परिस्थिति की ज्यादा संभावना जताई जा रही है।
3️⃣यदि विपक्ष के इंडिया गठबंधन अर्थात विपक्ष को पूर्ण बहुमत का संख्या बल हासिल हो जाता है तो क्या राष्ट्रपति मुर्मू इंडिया गठबंधन को सरकार बनाने और बहुमत सिद्ध करने का न्योता देंगी? जानकारों का मानना है कि ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति विपक्ष को सरकार बनाने का न्योता नही देंगी। माना जा रहा है कि ऐसा शीर्ष सत्ता संस्थान से फरमान जारी हो चुका है। लोगों का मानना है कि ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रपति विपक्षी दलों को गठबंधन की मान्यता इस आधार पर नहीं देंगी कि एनडीए गठबंधन की तरह विपक्ष का इंडिया गठबंधन प्री-पोल गठबंधन ही नहीं है और इंडिया गठबंधन को सरकार बनाने का मौका नहीं दिया जाएगा,ऐसा प्लान मोदी बना चुके हैं।
4️⃣यदि एनडीए गठबंधन बहुमत से थोड़ी दूर अर्थात बहुमत सिद्ध करने के काफी नजदीक संख्या पर आकर टिकती है तो राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों का मानना है कि इस परिस्थिति में मोदी की इच्छानुसार/संकेतानुसार राष्ट्रपति द्वारा बीजेपी को सरकार बनाने का न्योता देते हुए अपना सदन में बहुमत साबित करने के लिए अनुकूल और सुविधापूर्ण अवसर प्रदान किया जा सकता है। संसद पर बढ़ाई गई सुरक्षा का इसी संदर्भ में अवलोकन और आंकलन किया जा रहा है। उनका मानना है कि सदन में बहुमत सिद्ध करने के लिए कुछ विपक्षी सांसदों को सुरक्षा के कतिपय अदृश्य कारणों का हवाला देते हुए संसद में प्रवेश करने से रोक दिया जाएगा और एनडीए को पूर्ण बहुमत न मिलने पर भी बीजेपी/मोदी के लिए सरकार बनाने की अनुकूल परिस्थिति पैदा की जाएगी।
5️⃣हंग पार्लियामेंट की दशा में राष्ट्रपति द्वारा जानबूझकर ऐसी परिस्थितियां पैदा की जाएंगी जिससे एनडीए गठबंधन की हर हाल में सरकार बन सके। अपरिहार्य परिस्थिति जैसे अपवाद को छोड़कर राष्ट्रपति मुर्मू की यही मंशा और प्रयास रहेगा कि किसी तरह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन की ही सरकार बनने का रास्ता साफ हो सके,भले ही उन्हें इसके लिए संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और परंपराओं को थोड़े समय के लिए दरकिनार करना पड़े।
6️⃣ बीजेपी सरकार बनने की कोई गुंजाइश न दिखने पर पीएम मोदी आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं।

Wednesday, April 17, 2024

डॉ.आंबेडकर के संगठन और संघर्ष जैसे मन्त्रों की राजनीतिक प्रासंगिकता:प्रो.नन्द लाल वर्मा(सेवानिवृत्त)

नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 
✍️एक जमाना था,जब न्यायपालिका और चुनाव आयोग जैसी भारत की स्वायत्त और स्वतंत्र संस्थाओं के सरकार और शक्तिशाली नेताओं के दबाव में न आने के लिए विश्व भर में भारत की प्रशंसा हुआ करती थी,लेकिन आज के दौर में ऐसा नहीं दिखाई दे रहा है। संवैधानिक संस्थानों को सत्त्तारुढ़ दल की सोच के अनुरूप ढालने के लिए लगातार दबाव जारी हैं। आज एक्टिविस्ट और विपक्षी नेताओं को महीनों तक बिना ज़मानत के न्यायिक हिरासत में,जेल या घरों में नज़रबंद कर रखा जा रहा है और लोकतंत्र की रक्षक न्यायपालिका की आज़ादी शंका की नज़र से देखी जाने लगी है। संवैधानिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण तंत्र आज के दौर में ग़ायब से होते दिख रहे हैं। विदेश ही नहीं देश के अंदर भी मोदी सरकार पर संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को किनारे लगाने का आरोप लग रहा है। आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन डॉ.बिबेक देबराय ने अखबार मिंट में एक लेख के माध्यम से 2047 के लिए एक नए संविधान की जोरदार तरीके से वकालत कर चुके हैं और बीजेपी सांसद अनंत हेगड़े भी कई बार बयान दे चुके हैं कि संविधान बदलने के लिए दो तिहाई बहुमत जरूरी है। बीजेपी के नेताओं द्वारा दिया गया नारा "अबकी बार 400 पार" इसी संदर्भ में देखा जा रहा है। संघ,बीजेपी और मोदी का अंतिम लक्ष्य संविधान को नष्ट कर उसके स्थान पर मनुस्मृति की व्यवस्था लागू करना है। उन्हें न्याय,समता,धर्मनिरपेक्षता,नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र से सख्त नफ़रत है।
✍️आंबेडकर ने संविधान के माध्यम से लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना की है। इसलिए हमारा संविधान हमारे लोकतंत्र का रक्षक है,लेकिन आज जैसे हालात पैदा हो गए हैं और निरंतर जारी हैं,ऐसे में आंबेडकर जी की विचारधारा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। आज चारों तरफ सांविधानिक अभिव्यक्ति की आजादी पर आक्रामक हमले हो रहे हैं। असहमति और विपक्ष लोकतंत्र की खूबसूरती माना जाता है, लेकिन आज विपक्ष,असहमति व्यक्त करने और सवाल करने वाले लोग एक तरह की अघोषित इमरजेंसी जैसे दौर में गुजरने को मजबूर हो रहे हैं। आज प्रजातांत्रिक व्यवस्था में "अहम ब्रह्मश्मि" जैसा दम्भ भरता हुआ एक तानाशाह दिखाई दे रहा है। संवैधानिक व्यवस्था और मूल्यों का खुला हनन हो रहा है। वर्तमान सत्तारूढ़ दल की पैतृक संस्था द्वारा संविधान बदलकर सांविधानिक धर्मनिरपेक्ष देश को “हिन्दू राष्ट्र” बनाने की बात कही जा रही है। लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने वालों को देश द्रोही करार देकर उन्हें जेल भेजा जा रहा है या उन्हें उनके घरों में नज़रबंद किया जा रहा है। चुनावी राजनीति के लिए साम्प्रदायिकता को हवा देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही है। मॉबलिंचिंग जैसी वारदातों को अंजाम दिया जा रहा है। जातिगत-धार्मिक भेदभाव और अत्याचार की घटनाएं बढ़ रही हैं। ऐसे संक्रमण काल में डॉ.आंबेडकर की मानवतावादी विचारधारा और संवैधानिक व्यवस्था का महत्व और बढ़ जाता है। अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि संविधान और लोकतंत्र के बग़ैर भारत का कोई भविष्य नहीं है। 
संविधान सभा में दिए आख़िरी संबोधन में डॉ.आंबेडकर ने कहा था कि केवल राजनीतिक लोकतंत्र से काम नहीं चलेगा। राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में बदलना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता है तब तक लोकतंत्र भारत की धरती पर सिर्फ़ आवरण मात्र होगा। हमारा भारत राजनीतिक लोकतंत्र से सामाजिक लोकतंत्र में कितना बदला है?सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है, स्वतंत्रता, समता और बन्धुतायुक्त सामाजिक जीवन पद्धति। लगता है कि हम संवैधानिक और कानूनी माध्यमों से इस दिशा में आगे जरूर बढ़े हैं,लेकिन अभी भी हमें एक लंबा रास्ता तय करना है।
✍️ अमेरिका की एक संस्था ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है कि पीएम मोदी की सरकार के अंतर्गत ''भारतीय लोकतंत्र अब पूर्ण रूप से आज़ाद के बजाए केवल आंशिक रूप से आज़ाद रह गया है और यह अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहा है।" वहीं की एक मानवधिकार संस्था ने अपनी सालाना रिपोर्ट में लिखा है कि "सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी की नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों ने हाशिए के समुदायों, सरकार की आलोचना करने वालों और धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों पर अधिकाधिक दबाव डाला है।" "संघ की स्वतंत्रता" भारतीय नागरिकों के हाथों से फिसलने के साथ उनके राजनीतिक अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता भी कम हो रही है।" हम कह सकते हैं कि आंबेडकर के सपनों का लोकतंत्र बीजेपी के कार्यकाल में गायब होता दिख रहा है। चुनावी तंत्र के भ्रष्ट होने से सम्पूर्ण लोकतंत्र खतरे में आ जाता है। लोकतंत्र में आने वाली हर गिरावट किसी भी देश की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय साख में गिरावट लाने का संकेत देखे जा रहे हैं। 
✍️उदार लोकतंत्र के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं उसमें पहला तो यह है कि क्या सभी नागरिकों को चेतना और धर्म की स्वतंत्रता हासिल है? दूसरा, कोई धार्मिक समूह चुनावी प्रक्रिया पर अनुचित प्रभाव तो नहीं डालते? अगर देश का वर्तमान संविधान,उनकी व्यवस्थाओं और संस्थाओं को नहीं बचाया गया तो पिछड़ों और वंचितों की सामाजिक न्याय के विस्तार की बात तो दूर की कौड़ी बल्कि उस व्यवस्था को जड़ से खत्म किये जाने की साजिश के स्पष्ट संकेत दिखने लगे हैं। प्रेस की आज़ादी जो थोड़ी बहुत बची हुई है, वह पूरी तरह खत्म हो जाएगी। संविधान सभा में डॉ.आंबेडकर के कड़े संघर्ष के बाद मिला आम आदमी का वोट देने का अधिकार भी छिन सकता है, ऐसी स्थिति में तो लोकतंत्र भी ख़त्म होना निश्चित है। इसलिए सन्निकट लोकसभा चुनाव में " संविधान बचाओ-देश बचाओ " का देशव्यापी सामाजिक और राजनीतिक अभियान चलाकर और नारा लगाकर सामाजिक न्याय के दायरे में शामिल वर्गों को जाग्रत करने की जरूरत है।
✍️आंबेडकर जी की जयंती,परिनिर्वाण और संविधान दिवस पर भारत में लोकतंत्र और संविधान में आती गिरावटों पर होती बहसें इस बात का परिचायक हैं कि भारत में लोकतंत्र और आंबेडकर के संविधान के प्रति लोगों की अभी भी आस्था बनी हुई है अर्थात संविधान विरोधी शक्तियों के सतत प्रयास के बावजूद आंबेडकर का संविधान और लोकतंत्र अब भी ज़िंदा है। सबसे उल्लेखनीय पहलू यह है कि भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं में आ रही गिरावट की आलोचनाओं को भारत में वह समूह भी उठा रहा है जिन्हें महसूस होता है कि सत्ता संस्थाओं द्वारा उन्हें ख़ामोश किए जाने का कोई मौका नहीं छोड़ा जा रहा है।

Tuesday, October 31, 2023

सोशल मीडिया पर नंगे होने की होड़ - रमाकान्त चौधरी


           रमाकान्त चौधरी           
ग्राम -झाऊपुर, लन्दनपुर ग्रंट, 
जनपद लखीमपुर खीरी उप्र।
सम्पर्क -  9415881883

    
    जैसे ही मनुष्य के हाथ में मोबाइल आया तो यूं लगा की सारी दुनिया उसकी मुट्ठी में आ गई। मोबाइल क्रांति ने मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन कर दिया, जो कार्य करने में काफी लंबा सफर तय करना पड़ता था वही काम कुछ पलों में होने लगा।  सोने पर सुहागा तब हुआ जब सोशल मीडिया ने दस्तक दी , यू ट्यूब, फेसबुक, व्हाट्सएप, ईमेल, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे दर्जनों प्लेटफार्म आ गए जहां मनुष्य अपने विचारों का एक दूसरे से आदान-प्रदान करने लगा।  गरीब से गरीब व्यक्ति जो सीधे-सीधे शासन प्रशासन से अपनी बात, अपना दुख दर्द नहीं  कह पाता था वह इन सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म के माध्यम से अपनी बात शासन प्रशासन तक पहुंचाकर अपना मन हल्का  करने का रास्ता खोज निकाला। और तो और वर्षों बिछड़े पुराने मित्र जिनसे शायद दोबारा कभी मिलने की उम्मीद न थी सोशल मीडिया के माध्यम से वह सभी लोग मिलने लगे और मनुष्य अपनी जिंदगी का पूर्ण आनंद सोशल मीडिया पर ढूंढने लगा। जीवन में अपने सगे संबंधी से ज्यादा सगेपन की जगह इस अदने से प्लास्टिक के टुकड़े ने ले ली। वर्तमान समय में समाजनीति से लेकर राजनीति  व धर्मनीति का प्रचार प्रसार करने का माध्यम सोशल मीडिया से बेहतर दूसरा कोई नहीं है।  जैसे-जैसे देश दुनिया ने प्रगति की वैसे-वैसे छोटे बड़े हर हाथ में मोबाइल पहुंचने लगा।  फिर एक दौर ऐसा भी आया कि बड़ों से ज्यादा बच्चे एवं किशोर मोबाइल का उपयोग करने लगे, जो जानकारी चाहो मोबाइल से पूछो तुरंत हाजिर, किंतु सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक चीज यह हुई कि एक प्रश्न पूछने पर दस उत्तर हाजिर हो गए।  साथ साथ सोशल मीडिया के उपरोक्त तमाम प्लेटफार्म  वीडियो रील्स आदि बनाकर अपलोड करने के बदले अपने नियम शर्तों के मुताबिक अच्छा खासा  एमाउंट भी दे रहे हैं । मोबाइल फोन सोशल मीडिया लोगों के पैसा कमाने का एक बेहतरीन जरिया भी साबित हुआ। जहां एक और हर आदमी अखबार खरीद कर नहीं पढ़ पा रहा था और घर पर बैठकर टीवी पर समाचार देखने का समय नहीं था वहीं  व्यक्ति को अपने कार्य करते हुए भी  युटुब चैनलों के माध्यम से क्षेत्र से लेकर देश-विदेश तक की खबरें देखने का जानने का बेहतर प्लेट फार्म मिल गया।
 किन्तु  इन तमाम फायदों के साथ  अप्रत्याशित कार्य यह भी हुआ कि बहुत सारी वह भी चीजें मोबाइल पर खुलकर सामने आने लगी जिन्हें किशोर एवं बच्चों को नहीं देखना चाहिए।  किंतु जब सामने आई है तो फिर देखने व जानने की जिज्ञासा बढ़ जाना लाजिमी है।  इसी जिज्ञासा ने  पढ़ने वाले हाथों को अनावश्यक चीजे सर्च करने पर मजबूर कर दिया परिणाम स्वरूप जिन चीजों को जानने की अभी बिल्कुल आवश्यकता नहीं थी वह भी जानने लगे।  इसका प्रभाव यह रहा कि किशोरों द्वारा यौन अपराधों में अकल्पनीय वृद्धि हो गई । जिस कोरी स्लेट पर मानवता की इबारत लिखी जानी चाहिए थी उस स्लेट पर उम्र से पहले वे चीजें लिख गईं जो उनके जीवन के लिए अहितकर साबित हो रही हैं। आज  जो बच्चे व किशोर यौन अपराधी बन रहे हैं देखा जाए तो  मोबाइल एवं सोशल मीडिया की इस बिगड़ती सामाजिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका साबित हो रही है। किन्तु सबसे अहम परिवर्तन जो हुआ उसके विषय में सोच कर ही रूह कांप जाती है, पढ़ाई करने वाले, कैरियर बनाने वाले, कैरियर की फिक्र करने वाले युवा व किशोर  जिस तरह से रील्स बना बनाकर मोबाइल पर अपलोड करने में व्यस्त हैं वह भविष्य के लिए ठीक नहीं साबित होगा। जहां एक ओर फिल्मी गानों पर युवक युवतियां अर्धनग्न होकर वीडियो रील्स बना रहे हैं तो वहीं  दूसरी ओर आजकल  स्तनपान कराने वाली माताएं बच्चों को स्तनपान कराते हुए अर्द्धनग्न होकर रील्स बनाकर अपलोड कर रही हैं, जहां मातृत्व होना चाहिए वहां अश्लील तरीके से स्वयं को माताएं परोस रही हैं। जैसे ही सोशल मीडिया का कोई भी प्लेटफॉर्म खोला जाए कोई न कोई वीडियो रील्स जो फूहड़ता से लवरेज होगी, सामने खुलकर आ जाएगी। ऐसा लग रहा है कि मोबाइल सिर्फ इसी कार्य के लिए बनाया गया है। बच्चे, किशोर, युवा सभी नंगे होने की होड़ में लगे हुए हैं। इन्हीं नंगी पुंगी रील्स बनाने वाले हाथों में कल देश दुनिया का भविष्य  होगा, यह एक चिंतनीय व विचारणीय विषय है।

Wednesday, September 20, 2023

मोदी सरकार का आधा-अधूरा और विसंगतिपूर्ण " नारी शक्ति वंदन बिल"-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


            "इस बिल को महिला आरक्षण बिल या सवर्ण महिला आरक्षण बिल कहें .....पढ़िए इस पुरे लेख में आखिर क्या है यह महिला आरक्षण बिल ?....महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं........बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं"
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

    ✍️महिला आरक्षण बिल एक संविधान संशोधन विधेयक है, जो भारत में लोकसभा और सभी राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण देने की बात करता है। यह बिल 1996 में पहली बार पेश किया गया था, लेकिन अब तक पारित नहीं हो पाया है। महिला आरक्षण बिल भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और सशक्तिकरण की दिशा में उठाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण कदम है। भारत में, महिलाओं की लोकसभा में 2023 में भागीदारी केवल 14.5% है, जो विश्व में सबसे कम में से एक है। महिला आरक्षण बिल के पारित होने से उम्मीद है कि महिलाओं की प्रतिनिधित्व में वृद्धि होगी और वे नीति निर्माण में अधिक प्रभावी भूमिका निभा सकेंगी। हालांकि, सोमवार को चली कैबिनेट बैठक को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी सामने नहीं आई है,लेकिन इस बात की चर्चा तेज है कि केंद्रीय कैबिनेट ने महिला आरक्षण बिल को मंजूर कर दिया है।विपक्ष कई बिन्दुओं को लेकर इस महिला आरक्षण बिल पर सरकार को घेरने की रणनीति बना रहा है। वह सवाल उठा रहा है कि जब सभी पार्टियां बिल के समर्थन में थीं, तो फिर 10 साल तक इंतजार करने की क्या जरूरत पड़ी और ओबीसी महिलाओं के आरक्षण पर सरकार अपनी मंशा क्यों नही जता रही है? उनका कहना है कि ऐसा कुछ राज्यों के सन्निकट चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर महिला वोट बैंक तैयार करने की दिशा में यह उपक्रम किया जा रहा है। 
✍️इस महिला आरक्षण बिल के समर्थकों का तर्क है कि यह महिलाओं के सशक्तिकरण और समानता स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा। उनका मानना है कि इस आरक्षण से महिलाओं को राजनीति में प्रवेश करने और अपनी नेतृत्व क्षमता की भूमिकाओं को हासिल करने के लिए एक समान अवसर उपलब्ध होगा,जबकि इस बिल में एससी-एसटी महिलाओं के लिए क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण की बात कही जा रही है और ओबीसी महिलाओं के बारे में इस बिल में कोई जगह नहीं दी गयी है, तो फिर ऐसी स्थिति में यह बिल सशक्तिकरण और समानता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम कैसे साबित होगा? तुलनात्मक रूप से सामान्य वर्ग की महिलाएं एससी-एसटी और ओबीसी की महिलाओं से प्रत्येक क्षेत्र में आगे हैं और वर्तमान में महिला राजनीति की भागीदारी की बात की जाए तो सामान्य वर्ग की महिलाओं की ही अधिकतम भागीदारी दिखाई देती है,एससी -एसटी और ओबीसी महिलाओं की भागीदारी नाममात्र की दिखती है। महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं। फिलहाल, सरकार लोकसभा में दो तिहाई बहुमत से और राज्यसभा में राजनीतिक प्रबंधन से बिल पास कराने की स्थिति में सक्षम दिखती है। बिल पास होने के बाद इसकी विसंगतियों को लेकर विपक्ष या सामाजिक न्याय का कोई संगठन सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। विधि विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ओबीसी महिला आरक्षण के बिंदु पर सरकार के निर्णय से परे राय देते हुए निर्णय दे सकती है।
✍️नए संसद भवन में देश की आधी आबादी नारी शक्ति को राजनैतिक रूप से सशक्तिकरण की दिशा में लोकसभा और विधान सभा में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए विगत दो दशकों से अधिक समय से लंबित महिला आरक्षण विधेयक मोदी सरकार राज्यों और लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर लेकर लायी है। इस बिल की विषय सामग्री का अध्ययन करने के बाद ही पता चल पाएगा कि बिल की वास्तविक विषयवस्तु क्या है। कहा जा रहा है कि यदि यह बिल पारित होकर कानून बन जाता है तो भी उसके लागू होने की संभावना 2029 तक पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती है। परिसीमन और जनगणना एक जटिल प्रक्रिया मानी जाती है। इस बिल की विसंगतियों और संभावना पर शुरुआती दौर में ही तरह- तरह की उंगलियां उठने लगी हैं। बताया जा रहा है कि एससी-एसटी की तरह लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं को 33% आरक्षण दिए जाने की बात कही गई है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को उनको मिलते आ रहे 15 % और 7.5 % राजनीतिक आरक्षण के भीतर ही आरक्षण दिया जाएगा,यह भी सुनने में रहा है। तो इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि बाकी आरक्षण अन्य एक विशिष्ट वर्ग (सामान्य वर्ग) की महिलाओं को 33% आरक्षण का लाभ दिए जाने की बात है। ओबीसी की महिलाओं के राजनैतिक आरक्षण की बात इस बिल में कहीं नहीं है, ऐसा तथ्य सामने निकलकर आ रहा है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को तो क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण का लाभ मिल जाएगा क्योंकि उनके वर्ग को पहले से ही राजनैतिक आरक्षण मिलता आ रहा है, लेकिन ओबीसी महिलाओं को आरक्षण कैसे मिल पायेगा, ओबीसी को तो राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है जबकि 1953 में गठित काका कालेलकर आयोग और 1979 में गठित मंडल आयोग की सिफारिशों में ओबीसी को राजनैतिक आरक्षण की भी सिफारिश है। चूंकि एससी और एसटी को केवल लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में ही आरक्षण मिल रहा है, उनके लिए राज्यसभा तथा राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण की व्यवस्था अभी भी नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस बिल में एससी और एसटी की महिलाओं को राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण देने की बात कही गयी है,कि नही ? और यदि ऐसा नहीं है तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के संगठनों ,राजनीतिक दलों और उनके बौद्धिक मंचों से लंबित इस अधूरे राजनैतिक आरक्षण की मांग नए सिरे से उठना लाज़मी होगा। 
✍️चूंकि ओबीसी को वर्तमान में राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है, इस आधार पर अनुमान लगाया जा रहा है कि उनकी महिलाओं को एससी-एसटी की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण कैसे मिल सकता है? यदि ओबीसी की महिलाओं के लिए आरक्षण की बात इस बिल में है तो फिर उन्हें एससी-एसटी वर्ग की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण नहीं मिल पायेगा। ऐसी स्थिति में महिलाओं में दो भिन्न कैटेगिरी हो जाने से उनके बीच एक नई तरह की खाई पैदा होती दिखेगी जो कि नैसर्गिक न्याय के खिलाफ़ होगी। परिस्थितियों से यह सम्भव लग रहा है कि पहले एससी-एसटी की तर्ज पर ओबीसी के नए राजनैतिक आरक्षण की बात नए सिरे से उठे। अभी तक ओबीसी को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थाओं में 27% आरक्षण सीमा और क्रीमीलेयर की शर्त के साथ ही आरक्षण मिल रहा है। 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण के बाद ओबीसी को मिल रहे 27% आरक्षण सीमा की शर्त को लगातार खारिज किया जा रहा है, क्योंकि ओबीसी आरक्षण पर निर्णय देते समय सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा 50% निर्धारित की थी। ईडब्ल्यूएस पर 2023 में आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से यह सीमा टूट गई है,ऐसा माना जा रहा है। अब एक बड़ा सवाल यह उठता है कि महिला आरक्षण में यदि ओबीसी महिलाओं को शामिल नही किया जाता है तो मोदी जी के " नारी शक्ति वंदन " नारे और बिल की व्यावहारिकता और सार्थकता कैसे सिद्ध होगी? सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक मंचों से इस बिल को कई तरह की विसंगतियों से भरा हुआ बताया जा रहा है और यह भी कहा जा रहा है कि सन्निकट राज्य विधासभाओं और 2024 के लोकसभा चुनाव के भविष्य को लेकर जल्दबाजी में लाया गया यह बिल मोदी जी का एक और जुमला साबित हो सकता है।
✍️2019 में जब सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10% आरक्षण के लिए संविधान संशोधन बिल पास हुआ था तो उसके बाद से ही ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ाने और जातिगत जनगणना की मांग जोर शोर से उठ रही है। महिलाओं को 33% राजनैतिक आरक्षण देने के लिए लाए गए इस बिल के बाद जातिगत जनगणना और उसके हिसाब से आरक्षण दिए जाने की एक सामाजिक और राजनीतिक मांग उठने का एक और माक़ूल मौका मिलता हुआ दिख रहा है। यदि सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियां इस बिल पर बहस के दौरान यह मांग उठाती हैं और विसंगतियों के कारण बिल के पास होने या लागू होने में कोई अड़चन पैदा होती है तो यह स्थिति बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं, अर्थात विपक्ष की राजनैतिक एकता के गठबंधन का दायरा और बड़ा होने के साथ पहले से अधिक मजबूत बन सकता है। इस बिल से विपक्ष को सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना कराने का एक और सुअवसर मिलने की संभावना जताई जा रही है। यदि ओबीसी महिलाओं को आरक्षण की परिधि में नहीं लाया गया तो 2024 के लोकसभा चुनाव सरकार के लिए भारी पड़ सकता है। जरा इस पर गम्भीरतापूर्वक सोचिएगा!

Saturday, September 02, 2023

यदि संविधान बदला तो एससी-एसटी और ओबीसी की गति उस लोहार जैसी ही होगी जिसे भेंट में मिले चंदन के बाग-नन्द लाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)

चिंतनीय_आलेख
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

         एक बार एक राजा ने एक लोहार की कारीगरी से खुश होकर उसे चंदन का बाग इसलिए भेंट कर दिया कि वह चंदन की बेशकीमती लकड़ी बेचकर धनवान बन जाये।
उस लोहार को चंदन के पेड़ की कीमत और उपयोगिता का कोई अंदाजा नहीं था। इसलिए उसने अपने पेशे की उपयोगिता के हिसाब से चंदन के पेड़ो को काटकर उन्हें भट्टी में जलाकर कोयला बनाकर अपने काम में और अपने पेशेवर साथियों को बेचना शुरू कर दिया। ऐसा करते-करते, धीरे-धीरे एक दिन बेशकीमती चंदन का पूरा बाग कोयला के रूप में तब्दील होकर बिक और उसकी भट्टी में जल गया।
          एक दिन राजा घूमते हुए उस लोहार के घर के बाहर से गुजर रहे थे तो राजा ने सोचा अब तो लोहार चंदन की लकड़ी बेच-बेचकर बहुत अमीर हो गया होगा। सामने देखने पर लोहार की स्थिति जैसे की तैसी ही बनी हुई नजर आई। यह देखकर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। अनायास राजा के मुँह से निकला यह कैसे हो सकता है! राजा ने अपने जासूसों से सच का पता लगावाया तो पाया चंदन के बाग की बेशकीमती लकडी को तो उसने कोयला बनाकर बेच दिया और अपनी भट्टी में प्रयोग कर लिया है। यह सुनकर राजा ने अपना माथा पीटते हुए कहा कि उपहार,भेंट और दान किसी पात्र व्यक्ति को ही देना चाहिए। तब राजा ने लोहार को बुलाकर पूछा,तुम्हारे पास चंदन की एकाध लकडी बची है या सबका कोयला बनाकर बेच दिया? लोहार के पास कुल्हाडी में लगे चंदन के बेंट के अलावा कुछ भी नहीं था,उसने वह लाकर राजा को दे दिया।
          राजा ने लोहार की कुल्हाड़ी का बेंट लेकर लोहार को चंदन के व्यापारी के पास भेज दिया, वहाँ जाकर लोहार को कुल्हाड़ी के बेंट के बदले अच्छे खासे पैसे मिल गये। यह देखकर लोहार भौचक रह गया, उसकी आंखो में आंसू आ गये। उसकी स्थिति " अब पछताये होत क्या,जब चिड़ियां चुंग गयी खेत " जैसी हो गयी थी। वह बहुत पछताया और फिर उसने रोते हुए आँसू पोछकर राजा से एक और बाग देने की विनती की। तब राजा ने उससे कहा कि " ऐसी भेंट जीवन में बार-बार नहीं मिलती हैं बल्कि, एक बार ही मिलती है।"
         अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को संविधान प्रदत्त अधिकार विशेषकर मतदान का अधिकार चंदन के बाग की भेंट की तरह मिले हुए हैं। इन्हें पांच किलो मुफ्त राशन, सब्सिडी पर मिल रही घरेलू गैस,शौचालय एवं किसान सम्मान निधि के नाम पर मिल रही चन्द आर्थिक सहायता के लालच में बेचा जा रहा है। अगर संविधान प्रदत्त अधिकारों के संरक्षण के लिए एकजुट होकर सड़क से लेकर संसद तक विरोध-प्रदर्शन नहीं किया गया तो एससी-एसटी और ओबीसी की हालत उस लोहार जैसी होने में देर नहीं लगेगी। लोकतंत्र के आवरण में छुपी वर्तमान तानाशाह प्रवृत्ति की सत्ता की नीयत साफ नहीं लग रही है। यदि 2024 के लोकसभा चुनाव में आरएसएस से निकले मनुवादी भाजपाई एक बार फिर संसद में कब्जा करने में सफल हो जाते हैं तो डॉ आंबेडकर का न्याय पर आधारित संविधान बदलना तय है। डॉ.भीमराव आंबेडकर जी के अथक प्रयासों से पिछड़े समाज को जो सांविधानिक अधिकार मिले हैं जिनकी वजह से उसका एक बड़ा हिस्सा सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक सशक्त मध्यम वर्ग बनकर उभरा है। यह वर्ग अच्छा खा रहा है, उनके बच्चे देश विदेश की प्रतिष्ठित संस्थाओं में पढ़ और रिसर्च कर रहे हैं, सूट,बूट और टाई पहनकर मूछों पर ताव देकर आज़ादी से घूम रहा है, घोड़ी पर चढ़कर बारात निकाल रहा है, अच्छे मकानों और हवेलियों में रह रहा है, बड़ी बड़ी कारों में घूम रहा है, शिक्षित होकर बौद्धिक वर्ग विभिन विषयों और मुद्दों पर सड़क से लेकर उच्च संस्थाओं में सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ सीना तानकर लिख और दहाड़ रहा है, जिन्हें आज़ादी से पहले चारपाई पर बैठने का अधिकार नहीं था, वे आरक्षण की वजह से बड़े-बड़े अधिकारी बन रहे हैं, ऐसा होने से मनुवादियों को लग रहा है कि वे उनके सिर पर बैठ रहे हैं, ये सब मनुवादियों को अच्छा नहीं लग रहा है। संविधान बदलने के बाद वही पुरानी मनुस्मृति की व्यवस्था लागू होने की पूरी सम्भावना है जो सामाजिक व्यवस्था में ऊंच-नीच और भेदभाव से भरी जाति व्यवस्था फिर से कायम होने की पूरी सम्भावना दिख रही है। डॉ.आंबेडकर की सोच की दूरदर्शिता की वजह से राजनैतिक आरक्षण के माध्यम से जो एससी और एसटी के 131 सांसद हर लोकसभा में पहुंच रहे हैं, संविधान बदलने के बाद एससी और एसटी एक भी सांसद बनाने के लिए तरस जाएगा। बहुजन समाज को मिल रहे चुनावी प्रलोभनों से निजात पानी होगी। बहुजन समाज (एससी- एसटी और ओबीसी) की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि सारे सामाजिक और राजनीतिक द्वेष और दुराग्रह दरकिनार कर 2024 के लोकसभा चुनाव में संविधान,लोकतंत्र और उसके सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों के गठबंधन को ही जिताने में अपनी सारी राजनीतिक ऊर्जा लगाएं और समाज को भी प्रेरित व जागरूक करें।
        जब डॉ.आंबेडकर ने भारतीय संविधान की रचना की थी,वह मनुवाद पर आंबेडकर द्वारा किया गया करारा प्रहार था। इसलिए मनुवादी आंबेडकर और उनके संविधान से घोर नफ़रत करते हैं और उन्होंने ऐलानिया तौर पर भारतीय संविधान को स्वीकार करने से मना भी कर दिया था। सांविधानिक व्यवस्थाओं को देखकर मनुवादियों को सांप सूंघ गया था। संविधान ने एससी -एसटी और ओबीसी को केवल आरक्षण ही नहीं दिया,उसने बहुजन समाज को बहुत कुछ दिया है, जैसे आठ घण्टे का कार्य दिवस, महिलाओं को मातृत्व अवकाश और महिलाओं को तो डॉ आंबेडकर ने इतना दिया है, जितना उन्हें देश के सारे समाज सुधारक नहीं दे पाए। इसके बावजूद देश की 50प्रतिशत आबादी को डॉ.आंबेडकर के योगदान का एहसास नहीं है। देश के वंचित वर्ग के जीवन में जो भी बदलाव आया है वह सिर्फ डॉ.आंबेडकर और उनकी सांविधानिक व्यवस्थाओं से ही सम्भव हो पाया है। जिन्हें डॉ.आंबेडकर और उनके संविधान से प्रेम या लगाव नहीं है,अर्थात उससे नफ़रत करते हैं तो वे संविधान के माध्यम से डॉ.आंबेडकर द्वारा दी गयी सारी सुविधाओं और लाभों को त्याग दें,तब उन्हें संविधान की अहमियत पता चल जाएगी। इसलिए वर्तमान सत्ता द्वारा संविधान के बदलाव की संभावना से उपजने वाले गम्भीर दुष्प्रभावों को भांपते हुए बहुजन समाज को समय रहते ही सावधान और सजग हो जाना चाहिए और उस लोहार को मिली चंदन की लकड़ी की कीमत की तरह अपने सांविधानिक अधिकारों की कीमत पहचान कर संविधान की रक्षा करने की दिशा में आज से ही गम्भीर विचार-विमर्श के माध्यम से सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर सार्थक प्रयास शुरू कर देना चाहिए अन्यथा लोहार की तरह बेशकीमती चीज खो जाने के बाद पछतावे और हाथ मलने के सिवा कुछ हासिल नहीं होने वाला। भारतीय संविधान की अनमोल विरासत देश के हर वर्ग और नागरिक के हित में है। इसलिए इसके सरंक्षण की जिम्मेदारी भी सभी नागरिकों की बनती है। वर्तमान सत्त्तारुढ़ दल द्वारा बिना एजेंडे के संसद का विशेष सत्र बुलाने के गूढ़ निहितार्थ को समझने की जरूरत है। राजनीतिक और बौद्धिक गलियारों में संभावित बिंदुओं पर प्रकाश डालने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है, लेकिन इस सत्र के एजेंडों की असलियत सत्र शुरू होने के बाद ही सामने आ पाएगी।

Monday, June 05, 2023

बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति की काट,सिर्फ डाइवर्सिटी और सामाजिक न्याय की विस्तारवादी राजनीति-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

*दो टूक*
नंदलाल वर्मा (सेवानिवृत्त ए0 प्रो0)
युवराज दत्त महाविद्यालय, खीरी 
कर्नाटक चुनाव के परिणामों को राजनीतिक गलियारों में मोदी सरकार की विदाई के संदेश के रूप में लिया जा रहा है। ऐसा अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों द्वारा माना जा रहा है,लेकिन इससे सहमत होने के बावजूद इस चुनाव से दो और महत्वपूर्ण संदेश निकलते हुए दिखाई देते हैं। पहला यह है कि बीजेपी नफ़रत की राजनीति किसी भी दशा  में छोड़ने या कम करने से बाज नहीं आ सकती है। आरएसएस से निकली बीजेपी की प्राणवायु धार्मिक विद्वेष का प्रचार-प्रसार ही है। बीजेपी राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के रास्ते से सत्ता में आई और उसने केंद्र से लेकर कई राज्यों के चुनावों में नफरत फैलाकर ही सफलता और सत्ता हासिल की है। बस,बीच-बीच में वह "सबका साथ- सबका विकास" का तड़का ज़रूर लगाती हुई देखी गयी है,लेकिन उसका ज्यादातर फ़ोकस साम्प्रदायिक नफ़रती राजनीति पर ही रहा है। राम जन्मभूमि आंदोलन के समय से ही गुलामी के प्रतीकों की दुहाई देना, विशेषकर मुस्लिम प्रतीकों से मुक्ति के नाम पर भावनात्मक नफ़रत फैलाकर चुनाव जीतती रही है। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो चुनावी रैलियों में 80 बनाम 20 का खुल्लमखुल्ला बिगुल बजाते हुए देश के सबसे बड़े राज्य के हारे हुए चुनाव को जीत में बदल दिया। बीजेपी ने सत्ता हासिल करने के बाद देश के कोने-कोने में स्थित मुस्लिम गुलामी के प्रतीकों (मस्जिदों) की एक सूची तक जारी कर डाली है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के साथ आरएसएस और बीजेपी वाराणसी मे स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी हुई ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में स्थित श्रीकृष्ण जन्मभूमि से जुड़े मुद्दों को " अयोध्या तो झांकी है,काशी - मथुरा बाकी है " पहले से ही सामाजिक स्तर पर और चुनावों में उठाती रही है। हिंदुत्व के एजेंडे को मजबूती देने के उद्देश्य से आरएसएस और बीजेपी ऐसे साम्प्रदायिक मुद्दों से दूर होना नही चाहती है।

बहुजन बुद्धिजीवियों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी की साम्प्रदायिक चुनावी राजनीति की काट सिर्फ डाइवर्सिटी और सामाजिक न्याय की राजनीति का विस्तार ही हो सकती है। विपक्षी दलों की एकता और चुनावों में सामाजिक न्याय की पिच पर केंद्रित हो जाने से बीजेपी कोई चुनाव जीत नहीं सकती है। इसलिए विपक्षी दलों के लिए एकजुट होकर सामाजिक न्याय के दायरे के विस्तार के लिए जातिगत जनगणना के लिए व्यापक जनांदोलन करना बहुत जरूरी लगता है। चुनावी रैलियों में एक खास संदेश यह जाना चाहिए कि सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों और ठेकों सहित विकास की सारी योजनाओं में एससी-एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय को कम से कम 85% आरक्षण मिलना चाहिए। ऐसी घोषणा का संदेश दूरगामी राजनीति पर प्रभाव डालेगा। विपक्षी दलों को यह एलान कर देना चाहिए कि 2024 के चुनाव में एससी-एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय को अपने वोट से कमंडल की राजनीति के बैनर को फ़ाड़ना होगा। आगामी चुनाव मंडल बनाम कमंडल पर केंद्रित होकर जातिगत जनगणना कराए जाने तथा बामसेफ और डीएस-4 से होते हुए बीएसपी के संस्थापक कांशीराम के मूल मंत्र " जिसकी जितनी संख्या भारी- उसकी उतनी भागीदारी " में छुपे सामाजिक - राजनीतिक संदेश को मजबूती के साथ बुलंद करने की जरूरत है। सामाजिक न्याय के विस्तार का यह नारा बीजेपी के राजनीतिक मनशूबों पर पानी फेर सकता है, अर्थात बीजेपी की चुनावी राजनीति का आंकड़ा बिगाड़ा जा सकता है। 90 प्रतिशत पिछड़ों पर 10 प्रतिशत अगड़ों का राज अब नहीं चलना चाहिए। पिछड़ों को अपने पुरखों के अपमान का बदला राजनीति के माध्यम से सत्ता हासिल कर लेना होगा। सामाजिक न्याय के विस्तार से बीजेपी की नफ़रती राजनीति काफी हद तक ध्वस्त हो सकती है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के संविधान समीक्षा के बिहार में दिए गए चुनावी वक्तव्य की भी याद दिलानी होगी। सामाजिक न्याय के मुद्दे पर बीजेपी को कई राज्यों के चुनाव में करारी शिकस्त मिल चुकी है,जिसका सीधा असर 2015 में बिहार (लालू प्रसाद यादव : मंडल की बनेगा कमंडल की काट) और 2023 में कांग्रेस द्वारा कर्नाटक चुनावों में सामाजिक न्याय और राहुल गांधी की राजनीति " नफ़रत की बाज़ार में मोहब्बत की दुकान " पर केंद्रित होंने से यह सिद्ध हो चुका है कि सामाजिक न्याय और सौहार्द्र पर केंद्रित राजनीति से ही सत्तारूढ़ दल की नफ़रत की राजनीति को परास्त किया जा सकता है। धर्मनिरपेक्ष विपक्षी दलों को सुर में सुर मिलाकर सरकार के सवर्ण वर्ग के ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) आरक्षण को आधार बनाकर एससी-एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय के सामाजिक न्याय के विस्तार की राजनीति पर केंद्रित होने की जरूरत है, अन्यथा 2024 के चुनाव में बीजेपी को सत्ता हासिल करने से फिर रोकना आसान नहीं होगा।

बहरहाल, अधिकांश राजनीतिक बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों का मानना है कि चूंकि बीजेपी मुस्लिम विरोधी नफ़रती बयान के बिना कोई चुनाव जीत नही सकती है। इसलिए अभी हाल सम्पन्न हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त से सबक लेते हुए 2024 में हेट पॉलिटिक्स को और अधिक ऊंचाई देने से बाज नही आएगी। आगामी लोकसभा चुनाव के लिए सामाजिक न्याय की नई पिच तैयार करने के लिए दो काम किये जा सकते हैं। पहला, एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए सरकारी और निजी क्षेत्रों में आरक्षण 50% से 85% तक विस्तार करने की घोषणा होनी चाहिए। दूसरा काम यह करना होगा कि सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों में सप्लाई,डीलरशिप,ठेका,आउटसोर्सिंग जॉब आदि धनोपार्जन की सभी गतिविधियों तक सामाजिक न्याय के दायरे को बढ़ाने की घोषणा करना होगा। कांग्रेस के राहुल गांधी ने जिस तरह बीजेपी की नफ़रती राजनीतिक सत्ता के खिलाफ मोहब्बत की बात करते हुए भारत जोड़ो यात्रा की है, ठीक उसी तर्ज पर सम्पूर्ण विपक्षी दलों को कुछ वैसा ही सामाजिक - राजनीतिक भारतमय उपक्रम करना होगा। सामाजिक-राजनीतिक बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों का मानना है कि इसके लिए " जिसकी जितनी संख्या भारी,उसकी उतनी भागीदारी" का सामाजिक-राजनीतिक संदेश देते हुए एक विशाल जनअभियान चलाया जाए तो आगामी चुनाव सामाजिक न्याय की विस्तारवादी सोच पर केंद्रित हो सकता है जो आरएसएस और बीजेपी की नफ़रती राजनीति की सबसे बड़ी काट साबित हो सकती है और सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक हिंदुत्ववादी साधु - संतों के नफ़रती गैंगों और सवर्ण मानसिकता वाली गोदी मीडिया की ताकत के प्रभाव को कम या ध्वस्त किया जा सकता है।

Friday, May 26, 2023

सत्ता खोने के डर से वर्तमान लोकसभा अपने निर्धारित कार्यकाल से पहले भंग होने की आशंका-नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)

राजनैतिक मुद्दा

नंदलाल वर्मा (सेवानिवृत्त ए0 प्रो0)
युवराज दत्त महाविद्यालय, खीरी 
बड़ी-बड़ी चुनावी प्रलोभनकारी लोक कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा के बाद वर्तमान लोकसभा अपने निर्धारित कार्यकाल से पहले भंग हो सकती है,ऐसी सम्भावना राजनीतिक पंडितों द्वारा व्यक्त की जा रही है। पेट्रोल-डीजल-घरेलू गैस के दामों में भारी कटौती के साथ किसान सम्मान निधि में बढ़ोतरी,सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन योजना की बहाली और कोरोना महामारी मे स्थगित की गई महंगाई भत्ते (डी ए) की तीन किश्तों की अवशेष राशि के भुगतान की घोषणा कर भोली भाली जनता को एक बार फिर चुनावी फंदे में फंसाने का षडयंत्र रचने की चर्चा जोर पकड़ रही है। मुफ़्त राशन, शौचालय,किसान सम्मान निधि और उज्ज्वला योजनाओं की तरह अन्य नई प्रलोभनकारी योजनाओं की अनवरत खोज और उनकी घोषणा पर बीजेपी और आरएसएस में गहन मंथन चल रहा है जिनके बल पर 2024 में राजनीतिक किले को एक बार फिर फतह किया जा सके। नगर निकायों में आशानुकूल सफलता न मिलने से घबराई बीजेपी-आरएसएस ने एक राजनीतिक रणनीति के तहत अपने पांव गांवों में पसारना शुरू कर दिये हैं। शहरी क्षेत्रों अर्थात नगरों को बीजेपी-आरएसएस का गढ़ माना जाता रहा है और वहीं हाल में सम्पन्न हुए नगर निकाय चुनावों में वह बुरी तरह बिखरी और बंटी हुई नज़र आयी जिसकी वजह से बुरी तरह परास्त होती नज़र आई है जिसकी वज़ह से बीजेपी-आरएसएस और उनके आनुषंगिक संगठन मिशन 2024 को लेकर बुरी तरह चिंतित और सशंकित नज़र आ रहे हैं। राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिल रही लगातार हार,पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा पुलवामा कांड पर मोदी की सारी कलाकारी का धुंआ उड़ाना, किसान आंदोलन खत्म करने पर किसान संगठनों से किये वादों पर केंद्र सरकार की वादाखिलाफी, कांग्रेस की राजनीति और सत्ता के प्रति जनता का पुनर्स्थापित होता विश्वास और विपक्षी एकता की संभावना से कई आगामी राज्य विधानसभा चुनावों के संभावित नतीजों से बीजेपी-आरएसएस पूरी तरह सशंकित और भयभीत है। इसलिए आगामी कुछ राज्य विधानसभा चुनावों के साथ या अक्टूबर/नवंबर में लोकसभा चुनाव कराने पर बीजेपी-आरएसएस में चल रहे मंथन से इनकार नहीं किया जा सकता है। 

लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी शासित राज्यों की सरकार और संगठनों में विशेषकर यूपी में फेरबदल किये जाने की सूचनाएं आ रही हैं। लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत आरएसएस की गोपनीय रिपोर्ट/सिफारिश पर यूपी में बीजेपी संगठन और सरकार में ओबीसी और एससी वर्ग को क्षेत्रीय आधार पर ज्यादा तरजीह दी जा सकती है। विपक्षी एकता से घबराई मोदी सरकार विपक्ष के बड़े और प्रभावशाली नेताओं पर लोकसभा चुनाव से पहले सरकारी जांच एजेंसियों के माध्यम से नकेल कसने की कोई कोर कसर न छोड़ने की भी सम्भावना व्यक्त की जा रही है। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर वर्तमान राजनीतिक सत्ता प्रमुख मोदी के तानाशाही और अहंकारी चरित्र का परिचय उनके हर निर्णय में नज़र आ रहा है। चुनी हुई लोकतांत्रिक दिल्ली सरकार के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के खिलाफ लाया गया अध्यादेश और नई संसद भवन-सेंट्रल विस्टा के शिलान्यास से लेकर उद्धघाटन तक संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति को नज़रअंदाज़ कर आमंत्रित तक न करना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तानाशाही और अहंकारी रवैये का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है? संविधान के अनुच्छेद 79 में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि संसद से आशय: राष्ट्रपति और दोनों सदन (लोकसभा और राज्यसभा) होता है और उसी संसद के शिलान्यास से लेकर उद्धघाटन में संसद के ही एक अभिन्न अंग राष्ट्रपति की अनुपस्थिति या पीएम मोदी द्वारा उनको आमन्त्रित न करना लोकतंत्र का मंदिर कही जाने वाली संसद की घोर अवमानना है। संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के अपमान को बहुजन समाज विशेषकर दलित समाज आगामी विधान सभा और लोकसभा चुनावों में वोट करते समय याद रखेगा। सेंट्रल विस्टा के शिलान्यास से लेकर उद्धघाटन तक दलित राष्ट्रपति की लगातार उपेक्षा से अब उसके उद्धघाटन समारोह पर सत्ता पक्ष और विपक्ष में जंग जारी है और देश के प्रथम संवैधानिक नागरिक राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में विपक्षी दलों के प्रमुखों द्वारा उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने की लगातार घोषणाएं की जा रही हैं।

राष्ट्रपति का वर्णव्यवस्था के सबसे नीचे पायदान पर स्थित एक जाति/वर्ण विशेष से ताल्लुक होने की वजह से मोदी द्वारा लोकतंत्र के सबसे बड़े और पवित्र मंदिर नए संसद भवन के शिलान्यास और उद्धघाटन जैसे समारोहों से दूरी बनाए रखने की मंशा के पीछे हिन्दू धार्मिक मंदिरों की तरह संसद के भी अपवित्र और अपशकुन होने की मानसिकता से इनकार नहीं किया जा सकता है। हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना और वकालत करने वाले सावरकर की जयंती पर उद्धघाटन और शिलान्यास - उद्धघाटन समारोहों में दोनों दलित राष्ट्रपतियों की सहभागिता न कराना आरएसएस नियंत्रित और संचालित मोदी नेतृत्व बीजेपी सरकार की वर्ण व्यवस्था के परिमार्जित रूप की स्थापना की मंशा की ओर संकेत से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। 

जंतर-मंतर पर धरना दे रहे अंतराष्ट्रीय ख्यातिलब्ध पहलवानों और उनका साथ दे रहे सामाजिक-राजनीतिक और किसान संगठनों के लोगों ने नई संसद भवन के उद्धघाटन के मौके पर संसद भवन की ओर कूच करने की घोषणा कर दी है जिससे इस जनांदोलन की एक नई दिशा और दशा तय हो सकती है। आत्ममुग्धता में डूबे मोदी की तानाशाही और वर्णवादी मानसिकता वाली सरकार संविधान और लोकतंत्र की सारी हदें पार करती हुई नज़र आ रही है। अंग्रेजों से माफी मांगने वाले संविधान विरोधी सावरकर की जन्म तिथि 28 मई को होने वाले नए संसद भवन के उद्धघाटन समारोह में यदि महामहिम राष्ट्रपति मुर्मू को शामिल नहीं किया जाता है तो भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में यह घटना काले अक्षरों में " राष्ट्रीय शर्म " के दिवस के रूप में दर्ज हो जाएगी। छपास और दिखास रोग (फोटोफोबिया) से भयंकर रूप से पीड़ित पीएम नरेंद्र मोदी का तानाशाही चरित्र और रवैया पूरी तरह खुलकर सामने आ चुका है और इसी चरित्र के चलते संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल्यों और मर्यादाओं की लगातार अवहेलना की राजनीतिक कीमत मोदी और केंद्र सरकार को आगामी विधान सभा और लोकसभा चुनावों में चुकानी पड़ सकती हैं। 

Wednesday, October 12, 2022

ईडब्ल्यूएस आरक्षण की पृष्ठभूमि कांग्रेस ने तैयार की थी,किंतु सामाजिक-राजनीतिक नुकसान के डर से उसने कदम पीछे खींच लिए थे, लेकिन बीजेपी ने सही वक्त पर फेंका पांसा-प्रोफेसर नन्दलाल वर्मा

   विमर्श   
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
2005 में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सत्ता में आई तो उसने 10 जुलाई 2006 को  रिटायर्ड मेजर जनरल एसआर सिन्‍हो की अध्यक्षता में तीन सदस्‍यीय आयोग गठित किया। आयोग ने 2010 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी, लेकिन इस आयोग की रिपोर्ट पर यूपीए की सरकार ने वोट बैंक के खिसकने के डर से उस पर अमल करने के बारे में निर्णय नही ले स्की। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राजनीतिक नुकसान के डर से रिपोर्ट पर मौन साधते हुए इसे ठंडे बस्ते में डाल देना ही उचित समझा, जबकि उनकी यूपीए सरकार के पास अभी कार्यकाल के चार साल बचे थे।

1990 में मंडल कमीशन की सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की घोषणा करने के बाद से ही आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की जमीन कांग्रेस द्वारा तैयार कर ली थी, लेकिन उसे कभी अमल में लाने की कोशिश यूपीए शासनकाल के दौरान नहीं हुई जिसे बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एक राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग कर लिया। 

वर्तमान में क्यों चर्चा में आया  : वैसे तो यह मामला मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट से भी जुड़ा रहा है, लेकिन इसको जानने के लिए 2019 में चलते हैं। इस साल बीजेपी की केंद्र सरकार ने 103वॉ संविधान संशोधन कर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण देने की घोषणा की थी। फिर केंद्र सरकार ने 29 जुलाई 2021 को नीट परीक्षा में आरक्षण को लेकर एक फैसला लिया। केंद्र सरकार ने कहा कि अंडर ग्रैजुएट या पोस्ट ग्रैजुएट मेडिकल कोर्सेज में ओबीसी समुदाय को 27% और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लोगों को 10% आरक्षण का लाभ मिलेगा। इस फैसले के आने के बाद नीट परीक्षा की तैयारी कर रहे तमाम छात्र सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। याचिका लगाकर कहा कि केंद्र सरकार का फैसला सुप्रींम कोर्ट के इंदिरा साहनी बनाम केंद्र सरकार (1992) में दिए गए फैसले के खिलाफ है जिसमें कहा गया है कि आरक्षण की सीमा 50% से ऊपर नहीं होनी चाहिए। यह भी कहा गया कि सरकार ओबीसी वाला इनकम क्राइटेरिया ईडब्ल्यूएस पर कैसे लागू कर सकती है? 21अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने केंद्र सरकार से सवाल पूछा कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण निर्धारित करने के लिए कोई मानदंड स्थापित किए गए हैं? ईडब्ल्यूएस आरक्षण के निर्धारण में शहरी और ग्रामीण क्षेत्र को ध्यान में रखा गया? जिसको लेकर केंद्र सरकार ने अपना जवाब दाखिल किया। सरकार ने ईडब्ल्यूएस के लिए आठ लाख रुपए की आय सीमा के क्राइटेरिया सेट करने को सही ठहराया है। केंद्र की तरफ से कहा गया है कि सिंहों कमीशन की रिपोर्ट पर यह फैसला लिया गया है। केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि आठ लाख रुपये की सीमा बांधना संविधान 14,15 और 16 के अनुरूप है। 

मंडल कमीशन: साल 1990 जिसे भारतीय सामाजिक इतिहास में ‘वाटरशेड मोमेंट’(ऐतिहासिक क्षण) कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी के इस शब्द का मतलब है कि वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू होता है। हाशिए पर पड़े देश के बहुसंख्यक तबके से इतर जातीय व्यवस्था में राजनीतिक चाशनी जब लपेटी गई तो हंगामा मच गया। समाज में लकीर खींची और जातीय राजनीति के धुरंधरों के पौ बारह हो गए। 7 अगस्त 1990, तत्तकालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का ऐलान संसद में किया तो देश जातीय समीकरण के उन्माद से झुलसने लगा। मंडल कमीशन की सिफारिश के मुताबिक पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी में 27% आरक्षण देने की बात कही गई। जो पहले से चले आ रहे अनुसूचित जाति-जनजाति को मिलने वाले 22.5 % आरक्षण से अलग था। वीपी सिंह के इस फैसले ने देश की पूरी सियासत बदलकर रख दी। सवर्ण जातियों के युवा सड़क पर उतर आए। आरक्षण विरोधी आंदोलन के नेता बने राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया जो खुद ओबीसी की श्रेणी में आता था। कांग्रेस पार्टी ने वीपी सिंह सरकार के फैसले की पुरजोर मुखालफत की और राजीव गांधी मणिशंकर अय्यर द्वारा तैयार प्रस्ताव लेकर आए, जिसमें मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूरी तरह से खारिज किया गया। जिस मंडल कमीशन लागू करने के बाद बीजेपी और कांग्रेस ने वीपी सिंह सरकार के खिलाफ मतदान किया और उनकी सरकार गिर गई और उसके बाद आई नरसिंह राव सरकार।

इंदिरा साहनी केस : किसी भी प्रकार के आरक्षण पर बहस हो और इस मामले का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता है। इंदिरा साहनी दिल्ली की पत्रकार थी। वीपी सिंह ने मंडल कमीशन को ज्ञापन के जरिये लागू किया था। इंदिरा साहनी इसकी वैधता को लेकर 1 अक्टूबर 1990 को सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। तब तक वीपी सिंह सत्ता से जा चुके थे और चंद्रशेखर नए प्रधानमंत्री बन गए थे, लेकिन उनकी सरकार ज्यादा दिन चली नहीं। 1991 के चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई और पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। 25 सितंबर 1991 को राव ने सवर्णों के गुस्से को शांत करने के लिए आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण का प्रावधान कर दिया। नरसिम्हा राव ने भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था एक ज्ञापन के जरिये ही लागू की थी। इन दोनों ज्ञापनों पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों वाली संवैधानिक पीठ बनी। जिसके सामने आरक्षण के आधार, संविधान के अनुच्छेद 16 (4) और 16 (1) और 15 (4) व 16 (1) के पछड़ा वर्ग की समानता जैसे सवाल थे। बता दें कि संविधान के 14 से लेकर 18 तक के अनुच्छेद में जो मजमून लिखा है उसे हम समानता के अधिकार के नाम से जानते हैं। इसमें लिखा गया है कि सरकार जाति, धर्म या लिंग के आधार पर किसी भी किस्म का भेदभाव नहीं कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इंद्रा साहनी केस में फैसला देते समय आर्थिक आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण को खारिज कर दिया। नौ जजों की बेंच ने कहा था कि आरक्षित स्थानों की संख्या कुल उपलब्ध स्थानों के 50% से अधिक नहीं होना चाहिए अर्थात आरक्षण की सीमा 50% से ज्यादा नही होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इसी ऐतिहासिक फैसले के बाद से कानून बना था कि 50% से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

आयोग बनाने के पीछे मकसद:  जुलाई 2006 में सिंहों आयोग के गठन का बड़ा कारण चार महीना पहले यानी 5 अप्रैल 2006 को तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह द्वारा केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी के लिये 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा थी। 2005 में ही संविधान संशोधन को जमीन पर उतारने की घोषणा की थी, लेकिन इसके खिलाफ भारी विरोध खड़ा हो गया। उत्तर भारत के कई शहरों में डॉक्टरों और मेडिकल के छात्र इसको लेकर सड़कों पर उतर आए और यहां तक कि विरोध स्वरूप मरीजों का इलाज भी बंद कर दिया गया था। जिस वजह से दवाब में आकर कांग्रेस की तरफ से सवर्णों के गुस्से पर मरहम लगाने के लिए आयोग बनाने वादा एक राजनीतिक दांव खेला गया, लेकिन इसकी रिपोर्ट और सुझाव वर्षों तक धूल फांकते रहे।

आयोग की रिपोर्ट में क्या कहा गया:    आयोग की रिपोर्ट में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग  के लिए एक श्रेणी देने की सिफारिश की थी, जिसको ओबीसी या अन्य पिछड़ा वर्ग के समान लाभ मिलेगा। लाभार्थियों की पहचान के लिए जिन आधार को शामिल किया गया उसमें पूछा गया कि क्या वे करों का भुगतान करते हैं, वे एक वर्ष में कितना कमाते हैं और कितनी भूमि के मालिक हैं? आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ राज्यों में सामान्य श्रेणी और ओबीसी की निरक्षरता दर 'लगभग समान' है, हालांकि सामान्य जातियों में अशिक्षा की स्थिति एससी/एसटी/ओबीसी की तुलना में कम है। जबकि सामान्‍य वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति एससी-एसटी से बहुत आगे थी और ओबीसी से बेहतर थी। इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में एक जगह यह भी लिखा है कि सवर्ण (जनरल कैटेगरी) गरीबों की पहचान करने के लिए आय सीमा वही रखी जा सकती है, जो ओबीसी नॉन क्रीमी लेयर की सीमा है। 

Tuesday, January 04, 2022

ओबीसी-एससी-एसटी वर्ग को समिति की सिफारिश के निहितार्थ को बेहद सावधानी और गहनतापूर्वक अध्ययन करना और सरकार की मंशा समझना बहुत जरूरी है-नन्द लाल वर्मा (असोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श जिस पर आप भी विचार कीजिये ........
"इस तरह, गरीब सवर्णों के लिए 8 लाख की पारिवारिक सालाना आय का निर्धारण टैक्स फ्री इनकम  की सीमा को दृष्टिगत किया गया है। हालांकि, इसमें परिवार के सदस्यों और कृषि आय को जोड़ते ही सारा माजरा बदल जाता है।" मकान की शर्त खत्म, 5 एकड़ जमीन की शर्त बरकरार:"
एन.एल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
ईडब्ल्यूएस और ओबीसी आरक्षण की आय सीमा : गरीब अगड़ों (ईडब्ल्यूएस) और सामाजिक - शैक्षणिक रूप से पिछड़ा- ओबीसी, दोनों के लिए 8 लाख की सीमा, लेकिन उसकी गणना का तरीका बिल्कुल अलग। आइए,इसे विस्तार से समझते हैं:
      केंद्र की बीजेपी सरकार ने 2019 में लोकसभा चुनावों से ठीक पहले सवर्ण गरीबों (ईडब्ल्यूएस) के लिए भी 10% आरक्षण की व्यवस्था की थी। 8 लाख रुपये तक की सालाना आमदनी वाले सवर्ण परिवार को गरीब और आरक्षण योग्य माना गया है। ओबीसी में भी क्रीमी लेयर तय करने के लिए 8 लाख रुपये तक की आमदनी का दायरा है। अब केंद्र सरकार द्वारा गठित एक समिति ने बताया है कि दोनों के लिए 8 लाख रुपये की गणना में निम्नलिखित अंतर है:
      केंद्र सरकार ने 2019 में आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को भी आरक्षण देने का फैसला किया तो गरबी का आधार 8 लाख रुपये की सालाना आय को तय किया गया। इस नियम के तहत जिस सवर्ण "परिवार" की सालाना आमदनी 8 लाख रुपये तक है, उसके अभ्यर्थियों को ही शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिलती है। उधर, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में क्रीमी लेयर का निर्धारण भी 8 लाख रुपये की सालाना आय के आधार पर ही होता है। यानी, अगर ओबीसी कैंडिडेट के "माता-पिता" की विगत तीन वर्षों औसत वार्षिक आय 8 लाख रुपये से अधिक है तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
बाहर से दोनों में समानता, लेकिन वास्तविकता बिल्कुल अलग:
      इस तरह, ईडब्ल्यूएस और ओबीसी, दोनों में क्रीमी लेयर तय करने का ''समान आर्थिक मापदंड'' रखे जाने पर आपत्तियां जताई जाने लगीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से पूछ दिया कि इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? इसका हल ढूंढने के लिए केंद्र सरकार ने एक समिति का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कर दिया कि 8 लाख रुपये का मानदंड बाहर से तो दोनों वर्गों-ओबीसी और ईडब्ल्यूएस के लिए बराबर दिखता है, लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है। उसने बताया  है कि दोनों के लिए भले ही मानदंड 8 लाख रुपये हो, लेकिन इसकी गणना में जमीन-आसमान का अंतर है।
आइए,पहले जानते हैं कि वह अंतर क्या-क्या हैं...
(1) ईडब्ल्यूएस के लिए 8 लाख रुपये के कट ऑफ के मानदंड ओबीसी क्रीमी लेयर की तुलना में बहुत अधिक कठोर हैं।
(2) ईडब्ल्यूएस की आय की सीमा तय करते वक्त परिवार के दायरे में उसकी "तीन पुश्तें" आती हैं जबकि ओबीसी के मामले में सिर्फ "माता-पिता" की आय को ही देखा जाता है।
(3) ओबीसी की आमदनी का आकलन करते वक्त वेतन, खेती या कृषि और पारंपरिक कारीगरी के व्यवसायों से होने वाली आय नहीं जोड़ी जाती है जबकि ईडब्ल्यूएस के लिए     कृषि या खेती सहित "सभी स्रोतों" से होने वाली आयों को शामिल किया जाता है।
(4) ओबीसी अभ्यर्थी के सिर्फ माता-पिता की विगत तीन वर्षों की औसत वार्षिक आय 8 लाख रुपये से ज्यादा की हो रही हो तब वह क्रीमी लेयर कहलाता है जबकि ईडब्ल्यूएस के तीन पुश्तों की पिछले वर्ष की कुल आय मिलाकर 8 लाख रुपये से ज्यादा हो जाए तो उसे आरक्षण नहीं मिलेगा।
आइए, अब इन सभी बिंदुओं को विस्तार से समझते हैं...
पहला बिंदु : केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के निर्धारण के लिए 8 लाख रुपये आय का मापदंड ओबीसी क्रीमी लेयर की तुलना में कहीं अधिक सख्त है।
दूसरा बिंदु : गरीब सवर्णों के लिए पारिवारिक आय के तहत खुद उम्मीदवार, उसके माता-पिता, 18 वर्ष से कम उम्र के उसके भाई-बहन, उसका जीवनसाथी और 18 वर्ष से कम उम्र के उसके बच्चों की आय, सभी शामिल हैं। मतलब, आर्थिक पिछड़ों (ईडब्ल्यूएस) की पारिवारिक आय में तीन पुश्तों की समस्त स्रोतों की आमदनी शामिल है। इसमें खेती-किसानी से होने वाली आयकर मुक्त आमदनी भी जोड़ी जाती है। इनकम टैक्स स्लैब्स के नजरिए से आर्थिक पिछड़े वर्ग की आय की गणना करते वक्त इनका ध्यान रखना ही होगा। वहीं, ओबीसी के पारिवारिक आय की गणना में सिर्फ कैंडिडेट के माता-पिता की आमदनी शामिल होती है। उसमें भी माता-पिता की सैलरी, खेती और परंपरागत व्यवसाय से हुई आमदनी को नहीं जोड़ा जाता है। खुद कैंडिडेट, उसके भाई-बहन, जीवन साथी और बच्चों की आमदनी को तो जोड़ने की चर्चा तक नहीं है।
तीसरा बिंदु : सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि सबसे पहले ईडब्ल्यूएस की शर्त आवेदन के वर्ष से पहले के वित्तीय वर्ष से संबंधित है जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में क्रीमी लेयर के लिए आय मानकों की शर्तें विगत तीन वर्षों के लिए औसत सकल वार्षिक आय (Average Gross Annual Income) पर लागू होती है।
सुप्रीम कोर्ट का सवाल क्या है..........
     दरअसल, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने 7 अक्टूबर, 2021 को कहा था कि "आर्थिक पिछड़ापन एक सच्चाई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि लोगों के पास किताबें खरीदने और यहां तक कि खाने के पैसे भी नहीं हैं। लेकिन, जहां तक बात आर्थिक पिछड़ों का है तो वह अगड़ा वर्ग हैं और उनमें सामाजिक या शैक्षणिक पिछड़ापन नहीं है। तो क्या आप क्रीमी लेयर तय करने के लिए 8 लाख रुपये की सालाना आय का पैमाना आर्थिक पिछड़ों के लिए भी रख सकते हैं? याद रखिए कि जहां तक बात आर्थिक पिछड़ों की है तो हम सामाजिक या शैक्षणिक पिछड़ों की बात नहीं कर रहे हैं। सीमा तय करने का आधार क्या है या आपने आर्थिक पिछड़ों (ईडब्ल्यूएस) के लिए भी बस क्रीमी लेयर का पैमाना उठाकर रख दिया।"
केंद्र सरकार ने मानी समिति की सिफारिश:
     सुप्रीम कोर्ट की उपर्युक्त टिप्पणी पर सरकार ने 30 नवंबर, 2021 को पूर्व वित्त सचिव अजय भूषण पाण्डेय, भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) के प्रोफेसर वीके मल्होत्रा और केंद्र सरकार के प्रधान आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल की एक समिति बना दी थी। इस समिति को गरीब सवर्णों की आय सीमा निर्धारित करने के लिए 2019 में बनाए गए नियमों की समीक्षा और "मेरे हिसाब से उसमें ढिलाई वरतने का दायित्व सौंपा गया था।" इस समिति ने 31 दिसंबर ,2021 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी  है जिसे स्वीकार भी कर लिया गया है।
इस समिति ने समझाया कि आय की गणना में कितना अंतर है:
     समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सुनने में भले ही ओबीसी और आर्थिक पिछड़े, दोनों के लिए 8 लाख रुपये की सीमा में समानता जान पड़ती हो, लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है। ओबीसी का क्रीमी लेयर सिर्फ उम्मीदवार की आय के आधार पर तय होता है जबकि आर्थिक पिछड़ों की आय सीमा में उम्मीदवार के साथ-साथ उसकी पारिवारिक और कृषि आय भी भी शामिल हैं। समिति ने कहा कि सिर्फ उन्हीं परिवारों के उम्मीदवारों को आर्थिक पिछड़ा श्रेणी के आरक्षण का लाभ दिया जा सकता है जिनकी सालाना आमदनी 8 लाख रुपये तक है। उसने कहा कि 17 जनवरी, 2019 को जारी ऑफिस मेमोरेंडम में दर्ज आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण परिवार की परिभाषा को ही आगे भी लागू रखा जाए।
     समिति ने इसे और भी स्पष्ट करते हुए कहा कि " मौजूदा आयकर नियमों के तहत पांच लाख रुपये तक की करयोग्य आय पर कोई टैक्स नहीं लगता है। फिर कटौतियों,बचत, बीमा आदि सभी का लाभ उठा लिया जाए तो 7-8 लाख रुपये तक की सालाना आय टैक्स फ्री हो जाती है। इस तरह, गरीब सवर्णों के लिए 8 लाख की पारिवारिक सालाना आय का निर्धारण टैक्स फ्री इनकम  की सीमा को दृष्टिगत किया गया है। हालांकि, इसमें परिवार के सदस्यों और कृषि आय को जोड़ते ही सारा माजरा बदल जाता है।"
मकान की शर्त खत्म, 5 एकड़ जमीन की शर्त बरकरार:
      वर्ष 2019 में बने नियमों के तहत मकान को आय सीमा से बाहर रखने की सिफारिश की गई है। समिति ने कहा है कि आय सीमा की गणना को सरल बनाए रखने के लिए आवासीय संपत्ति क्षेत्र यानी मकान के पैमाने को बाहर ही रखा जाए, क्योंकि इससे किसी की असल आर्थिक स्थिति का जायजा नहीं मिलता है। ऊपर से गरीब सवर्ण परिवारों पर इसका गंभीर दुष्परिणाम और बेवजह बोझ देखने को मिलेगा। हालांकि, परिवार के पास 5 एकड़ कृषि योग्य भूमि होने पर आर्थिक पिछड़ा नहीं माने जाने का पैमाना बरकरार रखे जाने की सिफारिश की गई है।
      रिपोर्ट में कहा गया है कि " विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों- ग्रामीण, शहरी, मेट्रो या राज्यों के लिए अलग-अलग आय सीमाएं होने से जटिलताएं पैदा होंगी, विशेष रूप से यह देखते हुए कि लोग नौकरियों, पढ़ाई, बिजनस आदि के लिए देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में तेजी से बढ़ रहे हैं। अलग-अलग क्षेत्रों के लिए आय की भिन्न-भिन्न सीमाएं सरकारी अधिकारियों और आवेदकों दोनों के लिए एक दु:स्वप्न के समान होगा।" मकान वाली पूर्व में लगाई गई शर्त को खत्म करने के पीछे सरकार और सवर्ण अधिकारियों की मानसिकता के निहितार्थ को ओबीसी- एससी-एसटी वर्ग के शिक्षित-चिंतकों-राजनीतिज्ञों को समझना- चिंतन-विश्लेषण करना बहुत जरूरी है )

      सुप्रीम कोर्ट ने भी आर्थिक पिछड़े उम्मीदवारों (ईडब्ल्यूएस) की आय सीमा में आवासीय संपत्तियों को जोड़ने पर घोर आपत्ति जाहिर की है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि शहरी और ग्रामीण इलाकों के आधार पर आवासीय संपत्ति की कीमत में भारी अंतर हो जाता है। ऐसे में यदि इस संपत्ति को भी आय के दायरे में ला दिया गया तो गरीब सवर्णों को आरक्षण का लाभ उठाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ेंगे।

पता-लखीमपुर-खीरी (यूपी )

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

सबसे ज्यादा जो पढ़े गये, आप भी पढ़ें.