साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Monday, July 12, 2021

दलित पत्रकारिता का नायाब नगीना थे महीपाल सिंह-डी०के०भास्कर

महीपाल सिंह
 (सम्पादक-दलित टुडे)
 "वह आम आदमी की पीड़ा को प्रखरता मुखरता से बल देते थे। वे किसी भी तरह से डरने वाले नहीं थे, इसलिए वह अदम्य साहस के साथ लिखते थे। अम्बेडकरवाद के प्रति प्रतिबद्धता ही थी कि कोई उनके लेखन का कायल हुए बिना नहीं रह सकता था। उन्होंने कांग्रेस मुखिया सोनिया गाँधी को इंगित करते हुए लिखा था कि हमें सत्ता चाहिए, सांत्वना नहीं।' कांग्रेस दलितों को सांत्वना देती रही, मगर सत्ता का असली मजा, वही लेती रही।"
जब भारत में दलित पत्रकारिता का इतिहास लिखा जाएगा, तब महीपाल सिंह (सम्पादक-दलित टुडे) का नाम आदर के साथ अंकित किया जाएगा। मैंने दर्जन भर सम्पादकों-पत्रकारों के सम्पादकीय लेख पढ़े हैं, मगर वे बेजान, नीरस और बोझिल से बन पड़ते हैं। एक महीपाल सिंह ही थे, जिनके लेखन को पढ़कर ऊर्जा का संचार होता था, जज्बा-जोश भर उठता था। निराशा काफूर हो जाती थी। सच्चे अर्थों में वह अर्थपूर्ण पत्रकारिता कर रहे थे, जिनके लफ्ज-लफ्ज में मिशन था, एक स्पष्ट सोच और निश्चित दिशा थी। वह आम आदमी की पीड़ा को प्रखरता मुखरता से बल देते थे। वे किसी भी तरह से डरने वाले नहीं थे, इसलिए वह अदम्य साहस के साथ लिखते थे।

उदारमना महीपाल सिंह का जन्म- 3 मार्च 1955 (अभिलेखानुसार) को उत्तर प्रदेश के वर्तमान हापुड़ (तत्कालीन गाजियाबाद) जनपद के गाँव धौलाना में पिता लेखराज सिंह और माता बलदेई के यहाँ हुआ था। उनके पिता के चार संतानें हुईं, जिनमें वह भाई ब्रजेन्द्र सिंह, बहनें रामवती एवं राजवती हैं। पिता किसान थे, महीपाल सिंह एम.ए तक पढ़े थे, उनके पिता उन्हें अफसर बनाना चाहते थे, मगर वह अपनी धुन के पक्के थे, उन्हें पत्रकारिता का शौक चराया हुआ था। उनके पिता पत्रकारिता-लेखन के सख्त खिलाफ थे। इस प्रकार पिता-पुत्र में मनमुटाव पनपने लगा। वह गाँव से शहर गाजियाबाद आ गए और किराए पर रहकर पत्रकारिता में जुट गए। एक बार उन्होंने बताया कि वह अपने चाचा जी के यहाँ किराएदार की तरह रहते थे, मगर चाचाजी उनसे किराया नहीं लेते थे। उन्होंने करीब 39 वर्ष की उम्र में विनीता सिंह जी (राजपूत) से शादी की, जिन्होंने हर तरह से अपने पति का साथ दिया। उनके एक पुत्र शुभम सिंह पैदा हुआ। अब दोनों माँ-बेटा शास्त्री नगर स्थित आवास पर रह रहे हैं।

मा. सिंह साहब ने कई अखबार वीर अर्जुन, जनसत्ता, दैनिक जागरण जैसे समाचार पत्रों में लिखा। जब मुख्यधारा के अखबारों में लिखते-लिखते ऊब गए, तो उन्होंने अपना मासिक समाचार पत्र 'अल्पतंत्र' निकाला। बाद में वह अखबार बंद हो गया, तब तमाम मिशनरी साथियों के सहयोग से अक्टूबर 2001 से दलित टुडे हिन्दी मासिक पत्रिका का सम्पादन किया। दलित टुडे पत्रिका ने दलित पत्रकारिता के क्षेत्र में ऊँचा मुकाम हासिल किया। वह देश की पहली अनूठी पत्रिका बन गई, जो वैचारिक आन्दोलन की धार पैनी कर रही थी। दलितों की मुखर आवाज बन गई थी। दलित टुडे का कलेवर तीखा और उनकी लेखन शैली मारक थी। देशभर में उसके मुकाबले कोई पत्र-पत्रिका नहीं दिखती, जो दलित आन्दोलन के लिए ईमानदारी से समर्पित हो। उनका किसी भी राजनीतिक दल की ओर से झुकाव नहीं था। हाँ, दलित होने के नाते बसपा से सहानुभूति थी, मगर वह बहन मायावती जी की बदली हुई कार्यशैली से नाखुश थे। वह डॉ. बी.पी. मौर्य को अपना राजनैतिक गुरु मानते थे। इस सबसे अलग उनकी प्रतिबद्धता केवल दलित आन्दोलन से गहरे तक जुड़ी थी। वह कहते थे कि "जब तक जिन्दा रहूँगा अम्बेडकर मिशन के लिए कार्य करता रहूँगा।" पत्रिका का उद्देश्य बताते हुए वह कहते थे कि "मैं अम्बेडकरवाद की नर्सरी लगा रहा हूँ।"

और उन्होंने ऐसा किया भी। मैं उनसे जुलाई 2002 में जुड़ा। दलित टुडे का जून अंक-2002 पढ़कर उन्हें पत्र लिखा। अगस्त में फोन से बात हुई। मैंने पत्रिका की तारीफ की, तो वह बोले-'भई आपकी ही पत्रिका है। मैं तभी से दलित टुडे से गहराई से जुड़ गया और मुझे लगा कि यह जुड़ाव अटूट हो गया है। मगर 2 अक्टूबर, 2013 को सर गंगाराम हॉस्पिटल नई दिल्ली में उन्होंने अन्तिम सांस ली। सब कुछ रेत की दीवार की तरह ढह गया। उनके निधन से दलित पत्रकारिता और दलित आन्दोलन को गहरी क्षति हुई। बिना लाग-लपेट, बिल्कुल खरा-खरा लिखने वाला, एक जहीन कलमकार चला गया एक शून्य छोड़कर... उनके चले जाने के बाद कई लोगों की मुझे कॉल आई, जिनमें गाजियाबाद से रिसाल सिंह जी, मेरठ से डॉ० रामगोपाल भारतीय जी, मोदी नगर से देशराज भारती जी ने दलित टुडे को जीवित रखने की कोशिशों को बल दिया। मगर मैं यह सब करने में असफल रहा, तमाम शुभचिंतकों ने सहयोग का वादा किया, मगर दलित टुडे पुनर्जीवित नहीं हो सकी। तब मुझे एहसास हुआ कि हम सिंह साहब के उत्तराधिकार को संभालने में विफल रहे।

वह इतना साहस कहाँ से लाते थे कोई ज्ञात स्रोत नहीं है, मगर अम्बेडकरवाद के प्रति प्रतिबद्धता ही थी कि कोई उनके लेखन का कायल हुए बिना नहीं रह सकता था। उन्होंने कांग्रेस मुखिया सोनिया गाँधी को इंगित करते हुए लिखा था कि हमें सत्ता चाहिए, सांत्वना नहीं।' कांग्रेस दलितों को सांत्वना देती रही, मगर सत्ता का असली मजा, वही लेती रही। एक बार उन्होंने लिखा था कि सरकार सार्वजनिक उपक्रमों को निजी क्षेत्र में बेच रही है, बहाना यह बना रही है कि घाटे में चल रही है। उनका कहना था कि अर्थव्यवस्था का राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा है; इसे क्यों नहीं बेच देती? अपने अन्तिम सम्पादकीय में वह लिखते हैं कि दलित टुडे का उद्देश्य किसी को खुश करना अथवा नाखुश करना कदापि नहीं रहा। वैसे भी पत्रकारिता का मतलब वस्तुस्थिति को तथ्यात्मक रूप से प्रस्तुत करना। है। हम बाबा साहेब के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाकर दलितों को जुल्म और जालिम के खिलाफ जंग के लिए तैयार करना चाहते हैं। वह यह भी लिखते हैं कि दलितों को भी चाहिए कि वह ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद को गाली देने में अपनी शक्ति क्षीण न करें वरन् उनसे सीख लेकर अपने आपसी मतभेदों को भुलाकर एकजुट हों, तभी जाकर दलित अपने दलितपन से पीछा छुड़ा सकते हैं।

लेखक डिप्रेस्ड एक्स्प्रेस (मासिक पत्रिका) मथुरा के सम्पादक हैं

Thursday, July 01, 2021

'सम्मान दो-सम्मान लो' के स्लोगन पर कदमताल-डी०के०भास्कर

डी०के०भास्कर
विगत 20 जून, 2021 को हरियाणा के जनपद भिवानी के गाँव गोविन्दपुरा में 300 साल में पहली बार एक दलित युवक विजय कुमार ने अपनी शादी के अवसर पर घुड़चढ़ी करके इतिहास रचा है। विजय कुमार की शादी रोहतक जनपद के गाँव लाखनमाजरा निवासी पूजा के साथ हुई है। हालांकि घुड़चढ़ी करने में इतिहास रचने जैसी कोई विशेष बात नहीं है, सामान्य तौर पर तमाम लोगों की घुड़चढ़ी की रश्म होती रहती हैं। विशेष बात यह है कि एक दलित हेड़ी जाति के व्यक्ति को पहली बार यह मौका हाथ लगा है। इससे पूर्व कोई भी दलित व्यक्ति गाँव में घोड़ी चढ़ने का साहस नहीं कर पाया। दरअसल कोई व्यक्ति पहले साहस इसलिए भी नहीं कर पाया कि हिन्दू समुदाय में दलितों के इस तरह के कृत्यों की मनाही रही है और ऐसा करने से कथित ऊँची जाति के लोगों की नाक कट जाती है, इसलिए यदा-कदा कई अप्रिय घटनाएं देखने को मिल जाती हैं। पिछले दिनों 13 मार्च, 2021 को राजस्थान के जनपद अलवर के थानागाजी क्षेत्र के गाँव बसई अभयराम निवासी तेजाराम पुत्र छोटूराम बलाई ने पुलिस प्रशासन से शिकायत की कि 15 मार्च, 2021 को मेरी बेटी सोनम बाई की शादी है, गाँव में बारात चढ़ने पर कुछ लोग अवरोध उत्पन्न कर सकते हैं। तब पुलिस हरकत में आयी और पुलिस के पहरे में बारात चढ़ी। गत 4 जून, 2021 को उत्तर प्रदेश के जनपद महोबा के गाँव माधवगंज निवासी अलखराम को घुड़चढ़ी के लिए सोशल मीडिया पर गुहार लगानी पड़ी। एक जंग-सी लड़नी पड़ी, तब जाकर वह 18 जून को घोड़ी चढ़ पाया। फिलहाल गोविन्दपुरा मामले में सुखद और राहत की बात है कि गाँव के सरपंच ने इस प्रकरण में भरपूर सहयोग किया है। गाँव के सरपंच वीर सिंह राजपूत का कहना है कि ष्विजय कुमार की हिम्मत के चलते मैं यह परम्परा तोड़ने में कामयाब हुआ हूँ। तीन साल से प्रयास कर रहा था, पर कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। गाँव में पूरी तरह शांति है। किसी ने भी इस घुड़चढ़ी का कोई विरोध नहीं किया। भविष्य में लोगों के बीच इसी तरह प्यार और सद्भाव बना रहेगा।

देश की आजादी के 74 साल बाद हम सामाजिक स्तर पर खुद को कितना बदल पाये हैं, यह घटना इस बात की तसदीक करती है। एक दलित दूल्हे द्वारा घोड़ी पर चढ़कर निकासी की घटना ऐतिहासिक महत्व की खबर बनी है, जबकि स्वाभाविक तौर पर यह एक सामान्य घटना है। गोविन्दपुरा गाँव के हेड़ी समुदाय के लोगों ने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि उनके लिए ये एक ऐतिहासिक पल है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। गौरतलब है कि 300 साल पहले बसे गाँव में राजपूत और हेड़ी समुदाय के लोग रहते हैं। अब तक हेड़ी समुदाय के लोगों को घोड़ी पर चढ़कर बारात या निकासी की अनुमति नहीं थी। इधर दूसरी घटना के सन्दर्भ में अलखराम सवाल उठाते हैं कि ष्बाबा साहब ने संविधान में सबको बराबरी का अवसर दिया है। फिर क्यों दूसरे लोग घोड़ी पर बैठकर बारात में जा सकते हैं और हम नहीं? हम पुरानी परम्पराओं को नहीं मानेंगे। अगर हमारी बारात घोड़ी पर बैठकर नहीं निकलने देंगे, तो हम शादी नहीं करेंगे।ष् वह बताते हैं कि ष्गाँव में उनसे ऊँची जाति के दबंग धमकी दे रहे हैं कि वे बारात पर हमला कर देंगे।ष् सवाल है कि कथित ऊँची जाति के लोगों को दलितों के घोड़ी चढ़ने से क्या दिक्कत है? क्या दलितों का घोड़ी चढ़ना गुनाह है? वह हमलावर क्यों हो जाते हैं? कथित सवर्ण लोग अपने पुराने खोल से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहे हैं? आखिर क्यों दलितों को आम इंसान मानने को तैयार नहीं हैं? कहाँ तो हिन्दू धर्म और समाज सहिष्णु है, सहृदयी है और कहाँ अपने ही धर्म और समाज का दलित व्यक्ति अपने जीवन के महत्वपूर्ण पल शादी के अवसर पर घोड़ी पर नहीं बैठ सकता है, जबकि इससे कथित उच्चवर्णीय हिन्दुओं को किसी तरह की कोई हानि नहीं है। 

देखा गया है कि समाज और राजनीति में प्रगतिशील लोग दलितोत्थान की बात करते हैं। वह दलितों में सुधार की गुंजाइश तलाशते हैं, जबकि सामाजिक स्तर पर जातीय भेदभाव कौन करता है, बिल्कुल स्पष्ट है। कथित प्रगतिशील लोग उस सवर्ण मानसिकता के विरुद्ध कोई सार्थक पहल नहीं करते हैं, जो कि भेदभाव का कारण है। वास्तविकता यह है कि जातीय भेदभाव के मामले में जहाँ अन्याय हुआ है या हो रहा है, वहाँ न तो अन्याय के खिलाफ खड़े होते हैं और न न्याय की मांग करते हैं। वास्तव में समाज सुधार और सामाजिक विकृति के समूल नाश के लिए उन लोगों को सुधारने की अधिक जरूरत है, जिनके दिलोदिमाग में विकृति है, जिन्हें दलितों के प्रति भेदभाव के मामले में सामाजिकता और आपराधिकता में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता है। यहाँ तक कि दलितों के खिलाफ अमानवीय व्यवहार और जातीय भेदभाव करने में उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आती है और बड़ी ढीठता के साथ उस अन्यायपूर्ण व्यवहार को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं। जब तक भेदभावपूर्ण व्यवहार को गलत नहीं माना जाएगा और उसका विरोध नहीं किया जाएगा, तब तक यह माना जाएगा कि हम सभ्य समाज बनना ही नहीं चाहते। जब अमेरिका में नस्लीय भेदभाव के कारण अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की श्वेत पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन ने घुटने से गर्दन दबाकर हत्या की, तो उस जघन्य हत्याकांड के विरोध में अमेरिकी समाज उठ खड़ा हुआ था। आरोपी पुलिस अधिकारी की पत्नी ने तत्काल तलाक लेने का निर्णय लिया था। अमेरिकी पुलिस चीफ ने घुटनों पर झुककर माफी मांगी थी। तब राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी जो बाइडेन ने अपने घर से प्रसारित वक्तव्य में कहा था, ‘इस देश का मूल पाप आज भी हमारे राष्ट्र पर दाग है।

वास्तव में, किसी भी सभ्य समाज और राष्ट्र में किसी भी तरह का भेदभाव, चाहे वह जातिभेद या नश्लभेद या लिंगभेद हो, एक कलंक है। हमारे यहाँ व्याप्त जातीय भेदभाव रूपी इस कलंक को मिटाने की जिम्मेदारी किसी एक समुदाय की नहीं है, बल्कि समाज के सभी समुदायों की है और यह सामूहिक जिम्मेदारी है, क्योंकि यह देश सभी का है। सबसे ज्यादा अहम जिम्मेदारी उस सवर्ण समुदाय की है, जो इस तरह का कलंकित व्यवहार करने का आदी है, अपराधी है। सवर्णों को दिल से यह स्वीकार करना पड़ेगा कि दलित भी उन्हीं की तरह हाड़-मांस के प्राणी हैं। उनके भी अपने सपने हैं, अरमान हैं। उनका भी स्वाभिमान है। उन्हें भी मानवोचित सम्मान और गरिमामय जीवन जीने की चाह है। दलितों के साथ मानवीय व्यवहार करने से उन्हें कोई भी घाटा होने वाला नहीं है। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा है कि ष्सभी मनुष्य एक ही मिट्टी के बने हुए हैं और उन्हें यह अधिकार भी है कि वे अपने साथ अच्छे व्यवहार की मांग करें।ष् अब समय आ गया है कि हम समय के साथ कदमताल करें और ष्सम्मान दो-सम्मान लो!ष् के स्लोगन पर आगे बढ़ें। हजारों साल पहले जो हो गया, सो हो गया, लेकिन आज वह अमानवीय व्यवहार किसी भी सूरत में सहन नहीं किया जा सकता है। अब दलितों का स्वाभिमान जाग गया है, वह बराबरी के व्यवहार के आकांक्षी हैं और उसमें कुछ गलत भी नहीं है। हरियाणा के एक छोटे-से गाँव गोविन्दपुरा ने सामाजिक सद्भाव की जो मिसाल कायम की है, उसे राष्ट्रीय फलक पर भी कायम करने की जरूरत है।

सम्पादक, डिप्रेस्ड एक्स्प्रेस पत्रिका
मथुरा उत्तर प्रदेश
(जुलाई अंक में प्रकाशित)

Wednesday, June 02, 2021

ग़ज़ल (डी.के.भास्कर)

डी के भास्कर


तुम्हारा आंकड़ों का खेल जारी है

हमारी जिन्दगी पर खूब भारी है।

 

बयाँ सब कर रही हैं तैरती लाशें

हकीकत इस तरह सारी उघारी है।

 

तुम्हें कैसे भला यूं नींद आती है

हमें पूछो कि कैसे शब गुजारी है।

 

अगर कुछ लोग मरते हैं मरें बेशक

मगर सरकार को तस्वीर प्यारी है।

 

तुम्हारे अश्क झूठे हैं फरेबी हैं

रुदाली बन गये कैसी बिमारी है।

 

बड़ी उम्मीद से ये ताज सौंपा था

यही गलती पड़ी भारी हमारी है।

 

समय की मांग है अब चल फकीरा चल

उठा झोली बढ़ा अपनी सवारी है।

(संपादक मासिक पत्रिका डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, मथुरा)

 

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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