(हास्य-व्यंग्य)
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सुरेश सौरभ |
डीपी बदलते ही, कायाकल्प हुआ
कल रात जैसे ही, मैंने अपनी डीपी बदली भाई! मेरी तो खड़ूस किस्मत का रंग ही एकदम से बदल गया। फौरन खटरागी प्राइवेट नौकरी ऑटोमैटिक सरकारी में तब्दील हो गई। वाह! मिनटों में, मैं सरकारी दामाद बन गया। डीपी बदली तो बैंकों का निजीकरण फौरन बंद हो गया। डीपी बदली तो रेल की बिकवाली तुरन्त बंद हो गई। बीएसएनएल की बोली लगने वाली थी। एलआईसी की नीलामी होने वाली थी, भाईजान जैसे ही डीपी मैंने क्या बदली तमाम, सरकारी उपक्रमों की नीलामी-सीलामी सब रफा-दफा हो गई। और तो और विदेश टहलने गया नामुराद काला धन, झर-झर-झर धवल पानी जैसा आकाश से, देश में बरसने लगा। ओह! 15 लाख मेरे खाते में, एकदम से टूट पड़े। वाह! मोदी जी वाह! क्या सुझाव दिया। बिलकुल जादू हो रहा है। गजब हो गया। पूरे विश्व में गरीबी भुखमरी का ग्राफ जो रोज हमारे यहां, सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा था। डीपी बदलने सेे उस राक्षसी का मुंह छूमंतर सा गायब हो गया। डीपी बदलने से ऐसा कमाल हुआ, भाई ऐसा कमाल हुआ कि डालर को रौंदते हुए रुपया, वीर हनुमान की तरह बढ़ता जा रहा है। फिर कहना पड़ रहा है वाह! क्या सीन है। वाह! मोदी जी वाह! सवा सौ करोड़ जनता की करोड़ों-अरबों दुवाएं तुम पर भराभरा कर निछावर। जय हो तुम्हारी! तुम हमारे भगवान, हम तुम्हारे सौ फीसदी वाले, पक्के वाले भक्त।
डीपी बदलने से तेल-गैस के दाम आधे हो गये। जिसकी घोषणा साध्वी नेत्री स्मृति देवी ने कर डाली। आसमान छूती महंगाई को जमीन चाटनी पड़ गई। देश से पाकिस्तानी,खालिस्तानी देशद्रोही मुंह लुकाकर उड़नछू हो गये।
वाह! डीपी क्या बदली बिलकुल राम राज्य आ गया। लॉकडाउन के कारण ध्वस्त हुए काम-धंधे, डीपी चेन्ज करने की संजीवनी बूटी का अर्क पाकर धड़धड़ाते हुए रॉकेट की तरह दौड़ने लगे। सारी बेकारी खत्म। लक्ष्मी जी सब पर मेहरबान हो गईं। पौकड़ा बेचने वाले आत्मनिर्भर शिक्षित युवाओं के पर लग गये। लोकल ब्रॉन्ड के माल से उनका, बेहतर सुनहरा वो कल हो गया। उनके हाथ में महंगी गाड़ी, बंगला सब आ गया। कमाल हो गया। हाथरस में रात में जलाई गई बेटी की आत्मा को न्याय मिल गया। कासगंज जैसी जगहों, पर जहां दलित दूल्हे घुड़चढ़ी नहीं कर सकते, ऐसी भेदभाव वही जगहों से तो सारे भेदभावों के नामोनिशान मिट गये। डीपी क्या बदली देश की तकदीर बदल गयी। सारे चोरों को, सारे नेता राम-राम रटाने लगे, तोते जैसे। अमेरिका थरथराने लगा हमसे। पाक तो दुम दुबाकर हिमालय पर्वत की कंदराओं में छिपकर अपनी सलामती की खैर खुदा से मनाने लगा। यूं समझिए डीपी बदलने से रोज, मेरे पास पैसों की बहार आ गई। रोज मैं कपड़े बदलने लगा। अब कपड़ों से आप मेरी पहचान न कर लेना। अब कपड़े अदल-बदल कर कहीं ड्रम बजाता हूं तो कभी मोर नचाते हुए, पूरी दुनिया के चक्कर पे चक्कर काट रहा हूं। मेरी तो मौजां ही मौजां... मेरे तो अच्छे दिन आ गये, बस एक डीपी बदलने से। आप भी बदल डालिए।
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लघुकथायें
गफलत
डॉक्टर ने रवि की ओर रिपोर्ट बढ़ाते हुए कहा,"कमी सीमा में नहीं आप में है रवि जी।
डॉक्टर के ये शब्द नहीं वज्रपात था सीमा और रवि पर। हतप्रभ सीमा कांपते हुए विस्मय से रवि का मुंह ताकने लगी, रवि भर्राये गले से बोला, 'चलो घर...
बोझिल कदमों से घर में प्रवेश कर रहे, रवि और सीमा को देखते ही, रवि की मां ने जलता सवाल दाग दिया 'क्या हुआ? क्या निकला रिपोर्ट में?
दोनों यंत्रवत् खामोशी से अपने कमरे में जाने लगे।
"मैं जानती थी यह किन्नरी है। बंजर भूमि में कभी कोई बीज उगा है, जो अब यहां उगेगा, न जाने कहाँ बैठी थी, यह हिजड़ी, इस घर के नसीब में..... कर्कशा माँ का स्वर दोनों का कलेजा छीले जा रहा था। गुस्से से सीमा बाहर जाने को उद्यत हुई, तो रवि ने उसका हाथ कस कर रोक लिया। याचना भरे स्वर में बोला-जाने दो, मेरी तरफ से, मां को माफ कर दो।
....मैं तो कहती हूं, अरे! यह बांझ है तो दूसरी कर ला रवि! इस हिजड़ी को रखने से क्या फायदा?.. खामखा इसका खर्चा उठाने और खिलाने से क्या फायदा ?
अब बर्दाश्त से बाहर था। सनसनाते हुए रवि बाहर आया, बोला-किन्नरी सीमा नहीं मैं हूँ..
माँ अवाक! बुत सी बन गईं। फटी-फटी विस्फारित आंखों से एकटक रवि को देखने लगी।
"हां हां मैं किन्नर हूं। इसलिए बच्चा नहीं पैदा कर पा रहा हूं। बोलो अब क्या बोलती हो... रवि का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था। मां को सांप सूंघ गया। अंदर सीमा फूट पड़ी। चिंहुकते हुए उठी और किसी सन्न में दौड़ते हुए आई, रवि का हाथ पकड़, अंदर खींचकर ले गई। अब दोनों सुबक रहे थे। बाहर बैठी मां की आंखों में आंसू न थे, पर उसका दिल अंदर ही अंदर सुलग रहा था और दिमाग में सैकड़ों सुइयां चुभ रहीं थीं।
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राखी का मोल
बहन ने अपने भाई के माथे पर रूचना लगाया, आरती उतारी फिर जब राखी बांध चुकी, तब भाई राखी देखते हुए थोड़ा हैरत से बोला- अरे वाह ! यह राखी तो बहुत चमक रही है। बहन सहजता से बोली- इसमें कुछ लड़ियां चांदी की चमक रहीं हैं।
'अच्छा तो ये बात है।' बहन की थाली में पांच सौ का नोट धरते हुए भाई बोला ।
'नहीं नहीं भैया पांच सौ काहे दे रहे हैं। वैसे भी तुम्हारा लॉकडाउन के पीछे काम धंधा मंदा चल रहा है। फालतू में पैसा न खर्च करो सौ देते थे, सौ ही दो । अगर वो भी न हो तो कोई बात नहीं। 'अरे! बहना चांदी की राखी लाई हो, इतना तो तुम्हारा हक बनता है।' 'ऐसा नहीं है भैया, इस राखी का मोल पैसे से न लगाओ। कहते-कहते परदेसी बहन " की आंखें भर आईं। तब भाई उसे अपने कंधे से लगाते हुए रूंधे गले से बोला- मुझे माफ करना बहना । तेरा दिल दुखाना मेरा मकसद न था ।
अब बहन की रूचना - रोली से सजी थाली में दीपक की रोशनी में पड़ा सौ का नोट इठलाते हुए मानो भाई - बहन को हजारों-लाखों दुआएं दे रहा हो