साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Monday, May 31, 2021

कल्पनाओं में अच्छे दिनों का इंतजार

कल्पनाओं में अच्छे दिनों का इंतजार

 

 

स्मरण होता है कि अच्छे दिनों की शुरुआत सन् 2014 में हुई थी, जब नई सरकार का पदारोहण हुआ था। क्योंकि जनता को नए प्रधानमंत्री के रूप में जैसे संकटमोचक एवं अच्छे दिन प्रदाता के रूप में कोई मसीहा मिल गया हो। लेकिन समय गुजरने के साथ ही मसीहा के शासन का तरीका, उसके कानून, व्यवहार, प्रवचन, क्रिया कलाप एवं वेश भूषा में भी महान परिवर्तन होता गया । इसे कहते हैं समय का फेर सब अंधेर ही अंधेर । असर यह कि देश की आबोहवा में भी विकट परिवर्तन होने लगा । इस सब का साक्षात् असर पड़ा आखिर जनता पर । बलि का बकरा बनी जनता। अर्थात् प्यारी जनता ने क्या सोचा था? और क्या हो गया? कहने में मैं भी भावुक हूं। हालांकि जनता ने किसी भी मायने में ग़लत नहीं सोचा क्योंकि उसको अच्छे दिनों के सपने जो इतनी मजबूती से दिखाए गए थे कि जनता उम्मीदों के पर लगाए अच्छे दिनों की कल्पनाओं के आसमान में हवाओं में, गोते लगाने लगी। अच्छे दिनों की तस्वीर हरेक व्यक्ति के जेहन में इस क़दर उतरी कि वह कल्पनाओं से बंध गया। 

गरीब ने कुछ स्थिति सुधरने, मजदूर ने दो वक्त की रोटी मिलने, किसान ने सही फसल बिकने तथा बेरोजगार ने नौकरी मिलने की कल्पनाएं अच्छे दिनों से पुरजोर की। उसने यह कभी नहीं सोचा था कि सब कल्पनाएं बस कल्पनाएं ही रहती हैं। हकीकत में यही हुआ ज्यों-ज्यों समय बीता कल्पनाएं बोझ बनती गईं उन्हें ढोने में ऊब होने लगी, वे सिरदर्द बन गईं, सिरदर्द से बुखार और बुखार से महामारी बन गई। जिसका निवाला निर्दोष जनता बनी। बने भी क्यों ना जब देश का प्रधानमंत्री अच्छे दिनों का सपना दिखाकर बुरे से बुरे वक्त की महामारी दिखा दे। ग़रीबी, मजदूरी, लाचारी, बेरोजगारी तथा महंगाई जैसी महामारी से जूझ रही जनता को इस प्रधामंत्री के शासन में कोरोना जैसी महामारी से भी जूझना पड़ेगा इसकी कल्पना कभी जनता ने नहीं की थी। सोचो जिस जनता के लिए अच्छे दिनों की कल्पना भी एक महामारी बन गई हो, उसे ऊपर से कोरोना जैसी भयंकर महामारी से जूझना पड़े तो वो कैसे संभल पायेगी। उसे तो बलिदान देना ही पड़ सकता है और जब देश का प्रधानमंत्री व्यवस्था को दुरुस्त करने अथवा स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के बजाए प्रवचनबाजी या आंसूबाजी करके सांत्वना दे रहा हो। 

हकीकत सामने है कोरोनाकाल की। लॉकडाउन, क्वारंटाइन, मास्क, सोशल डिस्टेंस, वैक्सीन, ऑक्सीजन, पैरासिटामोल, हास्पिटल और अंत में डेथ आदि ऐसी शब्दावली से जो जिंदगी की पहेली बनी पड़ी है। जिससे हर आदमी डेढ़ साल से जूझ रहा है और अभी खत्म होने का नाम ही नहीं, जबकि आदमी खत्म हो रहा है। शायद इसे ही कहते हैं महामारी जिसमें सरकारी प्रयास होने के बावजूद बचना मुश्किल है। अब सरकारी प्रयास कितना हो रहा? कैसे हो रहा? कहां हो रहा है? यह गूढ़ विषय है पर इतना भी नहीं कि जनता को समझ न आए आखिर पब्लिक है सब जानती है, जानती ही नहीं सब देख और भुगत रही है। देश के प्रधानमंत्री और शासन के कारनामों एवं अच्छे दिनों के खेल को ऐसा खेल जिसमें फंसकर बाहर निकलना मुश्किल। अब उसके सामने खेले या झेले की स्थिति है। जिससे बाहर आने के लिए व्यक्ति छटपटा रहा है। आखिर कब तक उसके सामने ऐसी असहनीय महामारी का संकट बना रहेगा इसका अंदाजा भी मुश्किल है। बस कुर्बानी देते रहो। क्या यही समाधान बचा है? नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता हरेक को विश्वास है। इसी अपनी विश्वास शक्ति के बल पर अब वह प्रधानमंत्री द्वारा दिखाए गए अच्छे दिनों को समूल भूलकर इस संकटकाल से परे अपने उन अच्छे दिनों की कल्पना को बल दे रहा है जिसमें वह खुशी से बाहर निकलता था। अपना काम खुशी से करता था। दोस्ती एवं रिश्तेदारियां निभाता था। यात्राएं करता था तथा मिलजुलकर खुशी से रहता था। आज़ एक तुच्छ महामारी ने सर्वव्यापी मनुष्य के क़दम रोक दिए जिसने यह पृथ्वी क्या आकाश, चांद-तारे भी अपने कदमों से नाप डाले। आखिर ज्यादा दिनों तक यह नहीं चलने वाला उसके व्यक्तितग अच्छे दिनों की कल्पना अवश्य साकार होगी। इन जैसी हजारों महामारियों की हार होगी। यथार्थ यही है ।



सन्तोष कुमार 'अंजस'

ग्रा. देवमनिया कलां

लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश

Wednesday, May 26, 2021

कविता, महामारी

 

महामारी

महामारी ! महामारी !

बख़्श दे अब जान हमारी।


पहले से तबाह थे,

महंगाई और बेरोजगारी की आफतों से,

अब तूने दिखाई न भागने की लाचारी।

कब तक मास्क पहने, घर में बैठें-

दूरी बनाएं, अस्पताल जाएं-

अब सरकार से दूरी हुई हमारी।

 

कोरोना का उतना रोना नहीं,

जितना शासन की लापरवाही का ।

महामारी से उतनी लाशें हुईं नहीं,

जितनी लाचार चिकित्सा एवं दवाई से।

भूख, भय, अपनों से दूरी-

एवं अस्पतालों की अत्याचारी से,

संकट वक्त है महामारी का।

 

लाशों पर राजनीति और बिजनेस,

लाशों की कोई कदर नहीं,

श्मशानों, कब्रिस्तानों में जगह नहीं,

नदी किनारे कुत्ते नोचें, रोड किनारे कौए-गिद्ध,

अपनों ने लाशों को त्यागा,

कर्मकांड हो कैसे सिद्ध।

 

कहीं अंग निकासी, इलाज पर लूट-

न ऑक्सीजन और न जीवन पर छूट।

आमजन ने सब कुछ खोया,

इस महामारी में-

कभी घर में, अस्पतालों में रोया

तो कभी हो लाचार जीवन की लाचारी में।

 

हौसला रखें, सावधानी रखें।

संभव हो एक दूजे को आगे आएं।

अंधभक्ती न करें सरकारी।

महामारी ! महामारी !

तेरे निश्चित ‘अंत’ की है, बारी ।।




संतोष कुमार अंजस

लखीमपुर-खीरी(उ०प्र०)

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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