साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Tuesday, January 03, 2023

दर्द का जीवंत दस्तावेज--वर्चुअल रैल-विनोद शर्मा ‘सागर’

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक --वर्चुअल रैली( लघुकथा संग्रह)
लेखक-- सुरेश सौरभ
प्रकाशक-इण्डिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड नोएडा - 201301
प्रथम संस्करण-2021 
मूल्य --160रु 


   वर्तमान हिंदी साहित्य में लघुकथा एक चर्चित विधा है। जिसका लेखन व्यापक रूप से हो रहा है। लघुकथा उड़ती हुई तितली के परों के रंगों को देख लेने तथा उन्हें गिन लेने की यह कला जैसा है। साहित्य संवेदना,सान्त्वना,सुझाव शिक्षा एवं संदेश का सागर होता है, जिसमें समाज के एक छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकर बड़े से बड़े व्यक्ति तक की व्यथा-कथा समाहित होती है। लघुकथा में बहुत बड़ी बात या संदेश को कम शब्दों में कहने की सामर्थ्य होती है। अत्यंत प्रभावी ढंग से महत्वपूर्ण विषय व संदेश को कह पाने की क्षमता के कारण ही लघुकथा पाठकों में अपनी विशेष पहचान पकड़ व पहुँच बनाने में सफल हुई है और सभी को अत्यंत पसंद है।
     विगत वर्षों कोरोना महामारी के दौरान जहाँ एक तरफ हमें अत्यधिक कष्ट व पीड़ा हुई। जिंदगी में तमाम कठिनाइयों को झेलना पड़ा। आम जिंदगी तहस-नहस हो गई। वहीं दूसरी तरफ साहित्य सृजन,आत्ममंथन तथा आत्म विश्लेषण इत्यादि के लिए पर्याप्त अवसर भी प्राप्त हुए। इस दौरान एक तरफ पर्यावरण प्रदूषण कम हुआ तो दूसरी तरफ साहित्य समृद्ध हुआ।
      चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ जी का लघुकथा संग्रह ‘वर्चुअल रैली‘ अपने आप में अप्रतिम है, जिसमें कोरोना महामारी के दौरान हमारे समाज तथा जीवन की दशा के सजीव चित्र संग्रहित हैं। आमजन की पीड़ा व परेशानियों का मार्मिक सजीव चित्रण है। सौरभ जी की लघुकथाएँ जीवन से जुड़ी तमाम विसंगतियों व विषमताओं  की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करातीं हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति चाहे वह अखबार वाला हो, कबाड़ी वाला हो, रिक्शावाला हो या मजदूर हो सबकी पीड़ाओं का खाका खींचती  दिखाई देती हैं।
       ये लघुकथाएँ सदैव यह सिखाती हैं कि मानव धर्म ही सर्वोच्च व शाश्वत है। इनकी लघुकथाओं को पढ़ना जीवन के असली रंगों से परिचित होना एवं पीड़ाओं तथा परेशानियों को करीब से पढ़ने जैसा है। इनकी कथाओं के पात्र एवं विषय हमारे आस-पास के समाज व आमजन की जिंदगी से जुड़े हुए लोग हैं। जिनमें जिंदगी की जद्दोजहद, जख्म और जरूरतें साफ देखे जा सकते हैं।
    104 पृष्ठ के इस लघुकथा संग्रह में कुल 71 लघुकथाओं से गुजरने के दौरान आपको विषम परिस्थितियों में कर्तव्य बोध, साहस व समाज की सत्यता का आभास होगा। ये बेबाक लघुकथाएँ हर स्तर पर हमें प्रखरता के साथ समाज की सच्चाई मानवता की सीख तथा परपीड़ा की पहचान कराती हैं। ये लघुकथाएँ प्रकाशकों के मनमाने रवैये पर भी तीखा प्रहार भी करती हैं। किन्नरों की सामाजिक अवहेलना एवं वेश्यावृत्ति की विवशता को उजागर करती हैं । सुरेश सौरभ की कलम यहीं ही नहीं रुकती है बल्कि समाज में सोशल मीडिया की क्रूरता व निजता के वायरल होने के गंभीर मामले को भी उठाती हैं।अव्यवस्था जनित परेशानियों की प्रतिलिपि और आमजन-मन की पीड़ाओं की प्रतिनिधि हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी के चाल-चलन चेहरे का सही रूप भी हमें दिखाती हैं। जीवन में अपनों का साया जब हटता है तो अबोध नौनिहाल पौधों का क्या होता है, इसका सोदाहरण दृश्य देखने को इन कथाओं में मिलता है । आत्मीय संबंध की उलझन की तरंगें कभी-कभी त्वरित तनाव के साथ आए तूफान उसके बाद सुखद सन्नाटें से गुनगुनाती खुशी के दर्शन, मन मोह लेते हैं। रिश्तों में बढ़ती अविश्वासनीयता,पतंगों के माध्यम से धरती पर मानव मन में जाति धर्म की झाड़ियों में फँसी मानवता व गरीबी में विवश स्त्री का दर्द और फर्जी मुठभेड़ की असलियत से रूबरू कराती हैं।
      आधुनिक बेतार जिंदगी में संबंधों के धागों की मजबूती व उनकी महक व महत्व को लघुकथाएँ रेखांकित करती हैं। गरीब बेबस विधवा तक को, जुगाड़ की बैसाखी से पहुँचती सुविधाएँ और नोटबंदी से उपजी दुश्वारियों के दृश्य, तालाबंदी से मासूम हृदय की माँग तथा गरीबों का उपहास करती योजनाओं पर तीखे व्यंग्य को उद्घाटित करती हैं। इस लघुकथा संग्रह में आमजन मन शोषित, पीड़ित वंचित व बेसहारा की पीड़ा को जुबान तो दी ही है साथ ही बेजुबान जानवरों की पीड़ा को भी स्वर प्रदान किया है। दहेज जैसी प्राचीन,अर्वाचीन विकराल कुप्रथा पर भी हृदयस्पर्शी प्रहार किया है। भूख प्यास से टूटी एक बच्ची की आत्मा के शब्द लॉकडाउन में घर से दूर-दराज फँसे परिजनों की घर वापसी की गुहार को भी हमारे दिल तक पहुँचाने का प्रयास किया है जो अव्यवस्था व भेदभाव को कोस रही है। लॉकडाउन में बंद वाहनों के साथ बंद मंदिरों व विद्यालयों से जुड़े हर व्यक्ति का ये लघुकथाएँ अनुवाद करती हैं।
      लेखक ने एक तरफ गरीबी भूख जनित अव्यवस्थाओं  को सामने रखा है तो वहीं दूसरी ओर अमीरों की विकृत मानसिकता व सोच पर भी करारा प्रहार किया है ।महानायक के दर्द के जरिए समाज को यह संदेश प्रेषित किया है कि ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त कोई सर्व शक्तिमान नहीं है। कोरोना के कारण जेलों की व्यवस्था का असली दृश्य भी प्रस्तुत किया है। महामारी की मार खाए पुलिस, वकील, वेश्या, मजदूर भिखारी के साथ-साथ आम जनमानस की चीख तथा  बेबसी को भी लघुकथाओं ने भाव भरे शब्द दिए हैं। इस संग्रह की अधिकाँश लघुकथाएँ देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकीं हैं। जिनका मूल उद्देश्य एक समतामूलक समाज की स्थापना है, जिनके नायक समाज में सबसे निम्न स्तर का जीवन यापन करने वाले लोग जैसे मजदूर, रिक्शावाला, मोची भिखारी, पेपर वाला इत्यादि हैं।
   यह सत्य है कि अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति जब तक समाज की मुख्यधारा से जुड़ कर प्रगतिशील नहीं बनता तब तक एक उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। साहित्य का मुख्य मकसद सवाल खड़े करना ही नहीं बल्कि समाधान सुझाना भी होता है। इन सबके साथ समाज में व्याप्त ढोंग, आडंबर, छुआछूत भेदभाव जातिवाद एवं विडंबना पर भी ये लघुकथाएँ निःसंकोच चोट करती हुई प्रतीत होती हैं। इस संग्रह में कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में विवश मानवता, सड़कों पर असहाय रेंगते जीवन के दीन-हीन दृश्य,भूख प्यास की पराकाष्ठा आदि का जमीनी चित्रण किया गया है।
     वर्चुअल रैली आमजन मन के दर्द का जीवंत दस्तावेज है। कोरोना काल में यह कर्तव्यबोध रिश्तों की विवशता, दुष्कर्म, दुर्दांतता के दर्दनाक दृश्य, ऑनलाइन शिक्षा की दुश्वारियाँ व दुविधाएँ दिखाता है। आपदा की आँड़ में हो रहे शोषण व अत्याचार व दुबक रही जिन्दगी को समेटती ये कथाएँ प्रभावी ढंग से पाठकों से जुड़ने में समर्थ हैं। तालाबंदी के दौरान भूख से तड़पते गरीबों तथा मजदूरों की पीड़ाओं का मार्मिक कोलाज सौरभ जी लघुकथाएँ प्रस्तुत करतीं हैं। इसके साथ ही परंपराओं के पराधीन धागों में बुने रिश्तों की घुटन व दुष्परिणाम का प्रभावी छायांकन भी करती हैं। एक तरफ जहाँ इस संग्रह में तालाबंदी(लाकडाउन)के दौरान दिहाड़ी मजदूरों पर पुलिस की बर्बरता, आवागमन बंद होने से वाहनों के लिए भटकते लोग और उनके रास्ता नापते पाँवों के छालों की कराह को समेटे हुए, सार्वजनिक स्वर प्रदान कर रही हैं तो दूसरी तरफ एक शहीद की माँ के गर्वित आँसू भी छलकते हैं। महामारी के दौरान मनुष्य का बदला जीवन व दुर्गंध मारती व्यवस्था की पोल खोलती हुई ये कथायें लघुकथा साहित्य में बेजोड़ हैं। इसलिए पाठकों के लिए यह लघुकथा संग्रह अतीत के गवाक्ष की तरह है। अतः इसे सभी को अवश्य पढ़ना चाहिए।

             समीक्षक-विनोद शर्मा ‘‘सागर’‘‘
                     हरगाँव -- सीतापुर 
                     उत्तर प्रदेश 
     सम्पर्क सूत्र-- 9415572588

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