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Monday, June 21, 2021

राजनैतिक सत्ता और चुनावी डर से विनम्र और झुकने को मजबूर केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर बात-चीत के लिए आधीरात को तैयार सरकार-नन्द लाल वर्मा

आधी रात को भी स्वागत: किसानों के  पक्ष में जाएगी सरकार या फिर एक कुटिल चाल  

एन०एल० वर्मा
           केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि एक्ट से संबंधित प्रावधानों पर कोई भी किसान यूनियन अगर आधी रात को भी बातचीत करने के लिए तैयार हैं तो वह उनका स्वागत करते हैं। कृषि मंत्री ने कहा है कि सरकार किसान संगठनों के साथ कृषि कानूनों के प्रावधानों पर बातचीत करने को तैयार है लेकिन कृषि कानूनों को वापस लेने पर कोई बात नहीं होगी। केंद्र सरकार द्वारा पारित किए गए तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ देश भर से आए किसान पिछले छह महीने से भी अधिक समय से दिल्ली के कई बोर्डरों पर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। किसान संगठन तीनों कृषि कानूनों को वापस करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी)पर गारंटी की मांग कर रहे हैं। इसी बीच केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने कहा है कि वह किसानों से बात करने को तैयार हैं और बातचीत के लिए आधी रात को भी किसान यूनियन का स्वागत करते हैं।

        मध्यप्रदेश के ग्वालियर में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा कि भारत सरकार कृषि बिलों को लेकर किसानों से बातचीत करने के लिए तैयार है। एक्ट से संबंधित प्रावधानों पर कोई भी किसान यूनियन अगर आधी रात को भी बातचीत करने के लिए तैयार है तो मैं उसका स्वागत करता हूं। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि सरकार किसान संगठनों के साथ किसी भी प्रावधान पर बातचीत करने को तैयार है लेकिन कृषि कानूनों को वापस लेने पर कोई बात नहीं होगी।

       वहीं शुक्रवार को किसान नेता राकेश टिकैत ने ट्वीट कर तीनों कृषि कानूनों को देश के किसानों के लिए डेथ वारंट बताया। इसके अलावा एक और ट्वीट में उन्होंने लिखा कि सरकारें आरोप ढूंढती हैं समाधान नहीं। यह कौन सा लोकतंत्र है! देशभर के किसान सात महीने से राजधानी में धरने पर बैठे हैं और केंद्र सरकार तानाशाही का रवैया अपनाए हुए है। किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच आखिरी बातचीत 22 जनवरी,2021 को हुई थी। केंद्र सरकार ने किसान संगठनों को तीनों कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक निलंबित करने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन किसान संगठनों ने सरकार के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। किसान संगठनों ने केंद्र सरकार से इन कानूनों को वापस लेने को कहा था लेकिन सरकार ने इससे साफ़ साफ़ मना कर दिया था।

          नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद ने भी कृषि कानूनों को निरस्त करने के बजाय इसकी कमियों को सुधारने की वकालत की है। उन्होंने कहा है कि किसानों को बातचीत शुरू करने के लिए कृषि कानूनों को ख़त्म करने के बजाय इसकी खामियों को स्पष्ट रूप से केंद्र सरकार के सामने रखना चाहिए। हालांकि, राकेश टिकैत सहित सभी किसान नेताओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसान संगठन केंद्र सरकार के साथ बातचीत करने को तैयार है लेकिन चर्चा सिर्फ कानून को निरस्त करने के बारे में ही होनी चाहिए।  

           केंद्रीय कृषि मंत्री और नीति आयोग के सदस्य के बयानों को अगले साल होने वाले सात राज्यों के विधानसभा चुनावों के व्यापक संदर्भों में लिया जाना चाहिए और देश के किसानों और संगठनों को इनका निहितार्थ समझना चाहिए। आंदोलनरत किसानों से लगभग पांच महीने तक किसी भी तरह का संवाद स्थापित न करने की सरकार के तानाशाही रवैये की ओर इशारा करती है।जनवरी में हुई आखिरी मुलाकात के बाद सरकार ने किसानों के प्रति जो उदासीनता और उपेक्षा पूर्ण व्यवहार कर जिस संवेदनहीनता का परिचय दिया है, वह इस देश के किसान आंदोलन में सदैव याद किया जाता रहेगा।पांच महीनों तक कान में तेल डालकर किसानों की सुध न लेने वाली सरकार के मंत्री द्वारा कृषि कानूनों पर बातचीत करने का  एकतरफा दिया गया प्रस्ताव के गूढ़ निहितार्थ का अवलोकन और आंकलन करने की जरूरत है।बंगाल विधानसभा चुनाव में पूरी ताकत झोंकने के बावजूद अपेक्षित सफलता न मिलने और ममता की पूर्ण बहुमत की  सरकार बनने और मोदी सरकार और राज्यपाल के सामने घुटने न टेकने की वजह से बीजेपी के नामी गिरामी एमपी- एमएलए टीएमसी में वापस जाने के सैलाव से भयभीत बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व में अब एक अजीब तरह की राजनैतिक खलबली मची हुई दिखाई देती है।बीजेपी सरकार के कृषि मंत्री के रुख में आये अचानक बदलाव को किसानों को सहजरूप में लेने की जरूरत नही है।

      मोदी नेतृत्व और आरएसएस नियंत्रित बीजेपी सरकार की राजनैतिक साजिशों, हरकतों और अतिरंजित घोषणाओं/वक्तव्यों से आम आदमी भी सजग होने लगा है।मोदी की लच्छेदार बातों और चुनावी प्रलोभनों को आमजनता इनके सात सालों के शासन को बखूबी समझ चुकी है।मोदी की जुमलेबाजी और झूठ बयानवाजी से देश का किसान और बेरोजगार युवाओं की समझ मे आ चुका है।रही सही कसर कोविड महामारी में सरकार की कार्यसंस्कृति ने पूरी कर दी।देश की मूलभूत आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में सरकार पूरी तरह कोरी बयानवाजी करती नज़र आई है।सरकार की नोटबन्दी,जीएसटी और निजीकरण (मोनेटाइजेशन) के दुष्परिणाम सबके समझ मे आ चुके हैं।कृषि कानूनों के माध्यम से सरकार की मंशा को एक बहुत बड़ा मतदाता वर्ग किसान अच्छी तरह जान चुका है।निजीकरण के माध्यम से एससी एसटी और ओबीसी को आरक्षण के माध्यम से राष्ट्र की व्यवस्था में भागीदारी को खत्म करने की मंशा को भी लोग अच्छी तरह जान चुके हैं।सरकार की विशुद्ध पूंजीवादी संस्कृति स्पष्ट हो चुकी है।देश की संवैधानिक संस्थाओं पर राजनैतिक दबाव बना हुआ है और लोकतंत्र की जगह पूँजीतन्त्र स्थापित करने की पूरी योजना इस सरकार की लगती है।देश की भोली भाली जनता को चुनावी प्रलोभनों में फंसाकर उसकी जेब से कई गुना डीजल,पेट्रोल,खाद के कीमतों की बढ़ोतरी और नए करों के माध्यम से निकाल ली जा रही है, उसे अब समझ मे आ चुका है। यूपी सरकार किसानों के गन्ना मूल्य के भुगतान/बढ़ोतरी और गेहूं खरीद के मसले पर पूरी तरह लचर, असहाय और विफल सिद्ध हुई है।

           सरकार के केंद्रीय मंत्री की अचानक किसानों के की याद आने और वार्तालाप के लिए दरवाजे खोलने के स्पष्ट राजनीतिक आसंकाओ और दुश्वारियों की ओर इशारा करती नज़र आ रही हैं।विगत राज्य विधान सभा चुनावों में मिली शिकाश्त से आरएसएस और बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व की बेचैनी स्पष्ट नज़र आती है और निकट भविष्य में होने वाले पांच राज्यों के विधान सभाओं के चुनावों ने उनकी नींद उड़ा रखी है क्योंकि यूपी और पंजाब जैसे कृषि प्रधान राज्यों में किसानों की नाराजगी से भारी राजनैतिक नुकसान दिख रहा है। देश की केंद्र की सरकार के बनाने और बिगाड़ने में यूपी की राजनीति की भूमिका को नकारा नही जा सकता है,यह बात बीजेपी और उसके आनुषंगिक संगठन बखूबी जानते हैं। कृषि मंत्री का आमंत्रण इन्ही सब का परिणाम हैं। कृषि कानूनों की वापसी के अलावा कानूनों के प्रावधानों के संशोधन पर बातचीत करने का अब कोई मतलब ही नही बचा है। जब किसान संगठन पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि तीनों कृषि कानूनों की वापसी और एमएसपी की कानूनी गारंटी के बिना किसान अपने घर वापस नही जाएगा।इसके बावजूद मंत्री का वार्ता के लिए आमंत्रण का क्या औचित्य रह जाता है! सरकार के आमंत्रण से लग रहा है कि वह सन्निकट विधानसभा चुनावों के डर से कृषि क़ानूनों पर बैक फुट पर जा सकती है।किसानों और किसान संगठनों के लिए यही अवसर है जब वे सरकार पर कानूनों को वापस लेने के लिए प्रभावी दबाव बनाया जा सकता है।किसानों की अडिगता, साहस और धैर्य ने यह साबित कर दिया है कि वे अपनी दो मांगे पूरी न होने से पहले आंदोलन को खत्म नही करेंगे।लगता है कि  सरकार रूपी ऊंट किसान/जनता रूपी पहाड़ के नीचे आता नज़र आ रहा है। मेरे विचार से आने वाले विधान सभा चुनावों से पहले कृषि कानूनों पर कोई बड़ा निणर्य करने के लिए सरकार की राजनैतिक मजबूरी हो सकती है।

नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

Ph.9415461224,8858656000

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