साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Wednesday, July 24, 2024

हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता-सुरेश सौरभ

   पुस्तक समीक्षा  
                         


पुस्तक- हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता
संपादक- डॉ. मिथिलेश दीक्षित
प्रकाशक-शुभदा बुक्स साहिबाबाद उ.प्र.
मूल्य-300/
पृष्ठ-112 (पेपर बैक)
    
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

                डॉ. मिथिलेश दीक्षित साहित्य जगत में एक बड़ा नाम है। शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि साहित्य और समाज सेवा में भी आपका उल्लेखनीय योगदान है। हिंदी की तमाम विधाओं में आपका रचना कर्म है। विभिन्न विधाओं में आप की लगभग  अस्सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं। हाल ही में इनकी किताब हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता के नाम से सुभदा बुक्स साहिबाबाद से प्रकाशित हुई है, जो हिंदी लघुकथा के पाठकों, लेखकों और शोधार्थियों- विद्याथिर्यों  के लिए पठनीय और वंदनीय है। संपादकीय में डॉ.मिथिलेश दीक्षित लिखती हैं- हिंदी साहित्य की गद्यात्मक विधाओं में लघुकथा सबसे चर्चित विधा है। आज के विधागत परिपेक्ष्य में लघुकथा के स्वरूप को देखते हैं, तो लगता है इसके स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है, इसका मूल प्रयोजन भी बदल गया है। अब उपदेशात्मक या कोरी काल्पनिक लघुकथाओं में विशेष पत्रों के स्थान पर सामान्य जन का प्रतिनिधित्व करने वाले सामान्य पात्रों का समयगत परिस्थितियों में चित्रण होता है.....और वे आगे लिखतीं हैं..संक्षिप्तता गहन संवेदन, प्रभाव सृष्टि और संप्रेषण क्षमता लघुकथा की विशिष्ट गुण है। "लघुकथाकार का गहन संवेदन जब लघुकथा में समाहित हो जाता है, तब शिल्प में सघनता आ जाती है, भाषा में सहजता और पात्रों में जीवन्तता आ जाती है‌।"
      डॉ.ध्रुव कुमार, अंजू श्रीवास्तव निगम, इंदिरा किसलय, डॉ.कमल चोपड़ा, कल्पना भट्ट, कनक हरलालका, डॉ.गिरीश पंकज, निहाल चंद्र शिवहरे, बी. एल. अच्छा, डॉ,भागीरथ परिहार, मुकेश तिवारी, मीनू खरे, रजनीश दीक्षित, शील कौशिक, डॉ. शैलेश गुप्ता 'वीर' ,डॉ.शोभा जैन, सत्या  सिंह, डॉ.स्मिता मिश्रा, डॉ. सुरंगमा यादव, डॉ.सुषमा सिंह, संतोष श्रीवास्तव के बहुत ही शोधपरक लेखों  को इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया हैं।  लेखों में लघुकथा के शिल्प, संवेदना, और लघुकथा के  वर्तमान, अतीत और भविष्य पर बड़ी सहजता, सूक्ष्मता और गंभीरता से विमर्श किया गया है। पुस्तक में हिंदी लघुकथा के बारे में डॉक्टर मिथिलेश दीक्षित से डॉ.लता अग्रवाल की बातचीत भी कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर की गई है, जिसमें लघुकथा की प्रासंगिकता, उसकी उपयोगिता, उसका आकार-प्रकार व मर्म, उसमें व्यंग्य तथा शिल्पगत विविधता आदि। 

         प्रसिद्ध साहित्यकार  गिरीश पंकज पुस्तक में अपने आलेख में लिखते हैं-" कुछ लेखक लघुकथा को लघु कहानी समझ लेते हैं जिसे अंग्रेजी में 'शॉर्ट स्टोरी' कहते हैं, जबकि वह लघु नहीं पूर्ण विस्तार वाली सुदीर्घ कहानी ही होती है। लघुकथा के नाम पर 500 या 1000 शब्दों वाली भी लघुकथाएं मैंने देखी हैं और चकित हुआ हूं ।ये किसी भी कोण  से लघुकथा के मानक में फिट नहीं हो सकती। मेरा अपना मानना है कि लघुकथा 300 शब्दों तक ही सिमट जाएं तो बेहतर है। तभी सही मायने में उसे हम संप्रेषणीय में लघुकथा कहेंगे। अगर वह 500 या उससे अधिक शब्दों तक फैल जाती है तो उसे लघु कहानी के श्रेणी में रखना उचित  होगा।"
         मिथिलेश जी ने बहुत श्रमसाध्य कार्य किया है,  लघुकथा पर कालजयी विमर्श की पहल की है उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। 



Saturday, December 18, 2021

अशोक दास पत्रकार के साथ बहुजन साहित्य के साधक संपादक भी हैं-

व्यक्तित्व
साभार-बहुजन एवं बहुजन हितैषी महापुरुष एवं महामाताएं फेसबुक पेज से 
अशोक दास (संपादक)
दलित-दस्तक, दास पब्लिकेशन
न्यूज-दलित दस्तक (यूट्यूब)


(जन्म-17 दिसंबर)
अशोक दास का जन्म बुद्ध भूमि बिहार के गोपालगंज जिले में हुआ। उन्होंने गोपालगंज कॉलेज से ही राजनीतिक विज्ञान में स्नातक (आनर्स) करने के बाद 2005-06 में देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान 'भारतीय जनसंचार संस्थान, जेएनयू कैंपस दिल्ली' (IIMC) से पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, हरियाणा से पत्रकारिता में एमए किया। 

वे 2006 से मीडिया में सक्रिय हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।

अशोक दास ने जब मीडिया का जातिवादी रवैया देखा तो उन्होंने अपनी पत्रिका निकालने ठान ली। उन्होंने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से 27 मई 2012 से ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। दलित मुद्दों और अभिव्यक्ति को संबोधित करती इस पत्रिका ने हिंदी पट्टी में अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है।

वे अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।

विषम से विषम परिस्थितियों में आप डिगे नहीं दलित पत्रकारिता को आपने एक नया आयाम दिया है। जन की बात को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रिन्ट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर बिना एक दिन क्या एक पल नागा किए सक्रीय रहते हैं और देश-दुनिया की ख़बरें पहुंचाते रहते हैं। जुझारू और कर्मठ अपने कर्म के प्रति कर्तव्यनिष्ठ जो वंचित समाज की आवाज बनकर उनकी समस्याओं को जगजाहिर कर रहे हैं। 

प्रासंगिक : दलित पत्रकार होने का अर्थ

भडास4मीडिया के संपादक-संचालक यशवंत सिंह को ‘दलित दस्तक’ के संपादक बता रहे हैं कि वे पत्रकारिता में कैसे आये और उन्होंने मीडिया की मुख्यधारा को अलविदा क्यों कहा?-जून 2015

मैं बिहार के गोपालगंज जिले का रहने वाला हूं। आज जब सोचता हूं कि पत्रकारिता में कैसे चला आया तो लगता है कि हमने तो बस चलने की ठानी थी, रास्ते अपने आप बनते चले गए। पत्रकारिता में आना महज एक इत्तेफाक था। छोटे शहर में रहने का एक नुकसान यह होता है कि हमारे सपने भी छोटे हो जाते हैं क्योंकि हमारे परिवार, मित्रों के बीच बड़े सपनों की बात ही नहीं होती। सच कहूं तो मुझे एक बात शुरू से ही पता थी और वह यह कि मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी है। नौकरी करनी पड़ती है, जब इसकी समझ आयी तो मैंने मन ही मन तीन बातें तय कीं। एक, बंधी-बंधाई तनख्वाह वाली नौकरी नहीं करनी। दो, सुबह दस से शाम पांच बजे वाली नौकरी नहीं करनी और तीन, कोई ऐसा काम करना है, जिसमें मुझमें जितनी क्षमता हो, मैं उतना ऊंचा उड़ सकूं। मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिए थी जिसमें मैं सुबह दस बजे टिफिन लेकर ऑफिस के लिए निकलूं, बीवी बालकनी में खड़ी होकर बाय-बाय करे और शाम को खाना खाकर सो जाऊं। एक बेचैनी-सी हमेशा बनी रहती थी। मैंने कभी किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं किया। हां, लिखना बहुत पसंद था।

अखबार से लेकर किताबों तक – जो मिल जाये उसे पढऩे का शौक बचपन से था। मेरे जिले में जितनी भी किताबें उपलब्ध थी, सब पढ़ गया। एक दिन, ऐसे ही अखबार उलटते-पलटते हुए, आईआईएमसी के विज्ञापन पर नजऱ पड़ी। मैं साधारण ग्रेजुएट था और वहां दाखिले के लिए यही चाहिए था। दिल्ली में बड़े भाई राजकुमार रहते थे। उन्होंने फार्म भेज दिया और मैंने उसे भर दिया। तब तक मुझे भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) की मीडिया के क्षेत्र में धाक और रुतबे के बारे में कुछ पता नहीं था। पटना में लिखित परीक्षा देने के लिए बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में उम्मीदवार परीक्षा केंद्र आये। लगा कि यार कुछ तो है इस संस्थान में। लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू के लिए दिल्ली से बुलावा आया। मुझे विश्वविद्यालय में पढऩे का कभी मौका नहीं मिला था इसलिए आईआईएमसी सपने जैसा लगा। इंटरव्यू में पास नहीं हो पाया लेकिन यह तय कर लिया कि अब तो यहीं पढऩा है। हां, लिखने का शौक शुरु से था। डायरी के पन्नों में अपनी भड़ास निकाला करता था। यह कुछ वैसा ही था जैसे कोई गायक बाथरूम में गाकर अपना शौक पूरा करता है। फिर, 2005-06 में आईआईएमसी में मेरा दाखिला हो गया। यह मेरे पत्रकार बनने की शुरुआत थी।

ऐसा नहीं है कि आईआईएमसी में दलितों के साथ भेदभाव नहीं था। मुझे वहां भी जातीय दुराग्रह का सामना करना पड़ा। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म तरीके का भेदभाव था जो तब तो मुझे समझ में नहीं आया लेकिन आज समझ पाता हूं। मसलन, मैंने महसूस किया कि कुछ ‘खास’ लोगों को आगे बढ़ाया जाता था। यहां विचारधारा को लेकर भी गोलबंदी थी – वामपंथी, दक्षिणपंथी आदि। तब तक तो मुझे विचारधारा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। सब वहीं भेदभाव झेलते हुए सीखा। मेरे साथ जो हुआ, उसे ‘माइक्रो डिसक्रिमिनेशन’ कहा जा सकता है। जाति ने ‘अमर उजाला’ समेत कई अन्य मीडिया हाउसों में भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा। आईआईएमसी से निकलने के बाद मेरी सबसे पहली नौकरी ‘लोकमत’ ग्रुप में लगी। मेरी नियुक्ति महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुई। जब तक मैं वहां रहा, मैंने झूठ बोलकर जाति के मसले से बचने की कोशिश की। एक डर, एक आशंका हमेशा बनी रहती थी। मुझे वहां घुटन होने लगी। लगता था कि कुछ बाहर आना चाहता है लेकिन आ नहीं पा रहा है। फिर मुझे ‘अमर उजाला’ (अलीगढ़, यूपी) में बतौर रिपोर्टर नौकरी मिल गई। यहां जाति का सवाल फिर मेरे सामने था। इस बार मैंने जवाबी हमला कर दिया। बिना किसी लाग-लपेट के बता दिया कि मैं दलित हूं। मुझे याद है कि हम दस नए लड़के एक साथ बैठे थे। सब सन्न रह गए। सब अलीगढ के लिए नए थे। एक-दूसरे के साथ शिफ्ट हो रहे थे लेकिन मुझे साथ रखने के लिए कोई तैयार नहीं था। बाद में संपादक के हस्तक्षेप के बाद मैं भी उनमें से एक के साथ रह पाया। लेकिन वहां कुछ दिन रहने के बाद मैं श्रीनारायण मिश्रा के साथ रहने लगा। वे उम्र में मुझसे बड़े थे और हम दोनों के बीच एक स्नेह का रिश्ता बन गया था। लोगों ने उसकी भी खूब खिंचाई की लेकिन उसने मेरा पक्ष लिया। वहां मृत्युंजय भैया ने भी बहुत साथ दिया। हां, जब पदोन्नति की बारी आई तो प्रधान संपादक शशि शेखर द्वारा नियुक्ति के समय किये गए वायदे के बावजूद, संपादक गीतेश्वर सिंह ने मेरा प्रमोशन नहीं किया। मुझे साथ रखने की सजा श्रीनारायण मिश्रा को भी मिली। उसका भी प्रमोशन नहीं हुआ, जबकि वो सभी से सीनियर और ज्यादा योग्य था। यह खुला भेदभाव था। दलित होने के कारण मेरे साथ और एक दलित का साथ देने के कारण श्रीनारायण मिश्रा के साथ। लेकिन मैं वहां कभी दबा नहीं। प्रमोशन नहीं होने के सवाल पर मैंने अपने संपादक की शिकायत दिल्ली में प्रधान संपादक तक से की और सबको सीधी चुनौती दी।

बाद में मैंने ‘अमर उजाला’ एक गुस्से, एक आवेग और एक वृहद सोच के कारण छोड़ दिया। मेरे दिल में गुस्सा था। यह प्रतिक्रिया थी, उस प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदभाव की, जिसका सामना मुझे वर्षों से करना पड़ रहा था। मैं अंदर ही अंदर सुलग रहा था। एक रात जब मैं कमरे पर आया तो टीवी पर राज ठाकरे के गुंडों द्वारा बिहार और यूपी के लोगों के साथ मारपीट की खबर चल रही थी। वे दृश्य परेशान करने वाले थे। मैंने विरोध करने की ठानी। मुझे नहीं पता था कि इससे कुछ होगा भी या नहीं लेकिन मैं चुप नहीं बैठना चाहता था। मैं विरोध करने के लिए, चिल्लाने के लिए, छटपटा रहा था और इस घटना ने मुझे मौका दे दिया। मैं अपने संपादक के पास गया और मुझे यह करना है, कहकर छुट्टी मांगी। उन्होंने कहा कि इस्तीफा दे दो। मैंने कहा कि आपको निकालना हो तो निकाल देना, मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। फिर मैं अलीगढ़ के ही चार अन्य छात्रों के साथ देश के तमाम विश्वविद्यालयों में राज ठाकरे के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाने के लिए निकल पड़ा। इसमें प्रेमपाल और अमित चौधरी ने काफी सहयोग किया। अलीगढ़, लखनऊ, बनारस (बीएचयू), गोरखपुर, पटना, मेरठ, दिल्ली (दिल्ली विवि, जेएनयू) आदि जगहों पर बीस दिनों तक घूमने के बाद दिल्ली में तकरीबन पांच सौ लड़कों के साथ रेलवे स्टेशन से जंतर-मंतर तक मार्च निकाल कर राष्ट्रपति और चुनाव आयोग को ज्ञापन सौंपा।

मेरे हस्ताक्षर अभियान को भड़ास4मीडिया डाट काम नाम की वेबसाइट ने कवर किया। तब तक मेरा आपसे (यशवंत सिंह) से परिचय हो गया था। मेरा हौसला बढ़ाने वालों में आप भी थे। इस अभियान के बाद मैंने अलीगढ़ छोड़ दिया और दिल्ली आ गया। तब तक नौकरी से मन हट गया था, कुछ अलग करने की चाह जाग गई थी। मैं भड़ास4मीडिया डाट काम के साथ काम करने लगा। दलितमत डाट कॉम का विचार वहीं से निकल कर आया। इस दौरान देवप्रताप सिंह, जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार और बौद्ध चिंतक आनंद जी के संपर्क में आया। इनसे मुलाकातों ने मेरी जिंदगी को दिशा दी। इस तरह ‘दलित दस्तक’ अस्तित्व में आयी।

हमारी वेबसाइट 12 देशों में पढ़ी जाती है। पत्रिका भी निरंतर आगे बढ़ रही है। हमें 30 महीने हो चुके हैं और हम दस हजार प्रतियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। हमारा प्रसार देश के 15 राज्यों के 135 जिलों तक हो चुका है। यह सामूहिक प्रयास है और हमारी पूरी टीम ईमानदारी से लगी है। हमारे लिए यह एक मिशन है। डॉ. अंबेडकर, जोतिबा फुले और तथागत बुद्ध सहित तमाम बहुजन नायकों की विचारधारा को लोगों के बीच पहुंचाना और उन्हें दलित समाज के वर्तमान हालात के बारे में बताना ही हमारा मकसद है।

संदर्भ
1.अखिलेश कुमार अरुण
2.सोशल मिडिया
3.फारवर्ड प्रेस जून, 2015 अंक
https://www.forwardpress.in/2015/07/being-a-dalit-journalist_hindi/?amp
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=301204955352934&id=100063902943052

Thursday, September 16, 2021

हिन्दी को दिवस की जगह व्यवहारिक और व्यवसायिक बनाईए-अखिलेश कुमार अरुण

ए०के० अरुण
आज के समय में हिन्दी को जिन्दा रखने में सबसे अहम भूमिका कोई निभा रहा है तो वह है सोशल मीडिया वह भी ट्वीटर को छोड़कर, ट्वीटर जहां अंग्रेजियत का पर्याय है वहीं फेसबुक हिन्दी का वैश्विक पटल बना हुआ है। नामचीन लेखकों में सुमार एक से एक हस्तियां अपने पाठकों की टोह में फेसबुक के शरणागत हुए अपनी कविता, कहानी, समसामयिक विषयों पर आलेख संस्मरण आदि चिपका रहे हैं वह अलग बात है कि उनके लेख की सार्थकता स्वरूप कमेन्ट के रूप में बधाई, बहुत अच्छे, सुन्दर रचना, नाईस आदि से ही संतोष करना पड़ रहा पर इतना जरूर है वह अपनी लेखकीय धमक को जमाने में कामयाब रहे हैं।

हिंदी जनसामान्य की आवाज बनी हुई है कहीं इसलिए भी इसकी अनदेखी तो नहीं की जा रही कि हिंदी विश्व स्तर की भाषा न बन सके। भारत देश में वंचितों, शोषित, गरीब, मजदूर, मजलूमों के साथ क्या हो रहा है इसकी भनक दूसरे अन्य देशों को ना लगे। आप देखेंगे तो अंग्रेजी के अखबार से ऐसे-ऐसे न्यूज़ निकल कर आते हैं जिनका सरोकार जमीनी स्तर से बिल्कुल नहीं है किंतु विश्व पटल पर वाहवाही लूटी जा रही है।

बीते इतिहास के दिनों में जाएं तो हम देखते हैं कि संस्कृति शासक, सामंत या सवर्ण उच्च जातियों की भाषा रही है जो 'खग ही जाने खग की भाषा' के नक्शे कदम पर चल कर अपनी सामंत शाही सत्ता को बनाए रखने में इसे साधन के रूप में प्रयोग किया है। जहां इस प्रकार के ग्रंथों का निर्माण किया गया जो शोषण पर आधारित थे वही हुबहू आज के दौर में हो रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में नौकरशाही, सामंत शाही का पर्याय बनी हुई है जिसकी अपनी भाषा है अंग्रेजी। संघ लोक सेवा आयोग से लेकर राज्य लोक सेवा आयोग तक अंग्रेजी को महत्व देने के चलते हम एक शासकवर्ग का निर्माण कर रहे हैं जो आने वाले समय में ऐसे नीति नियमों को लेकर आ रहे हैं जो केवल और केवल नौकरशाही को पुष्ट कर रहा है तथा एक बड़े तबके को हाशिए पर धकेल रहा है।

अंग्रेजी माध्यम से पढ़े लिखे युवाओं का भविष्य उन्नत है क्योंकि आज के वर्तमान स्वरूप में योग्यता की जगह अंको को अधिक महत्व दिए जाने के कारण हिंदी माध्यम के  स्कूलों की अपेक्षा अंग्रेजी माध्यम के स्कूल छात्रों को अंक प्रदान करने में कहीं आगे हैं वह अलग बात है आईआईटी जैसी परीक्षा में सफलता प्राप्त करने में राज्य बोर्ड के बच्चे आगे आ रहे हैं।

कुछ अजीब सा नहीं लगता है कि हम अपनी मातृभाषा के कुशल मंगल के लिए १४ सितम्बर से १५ दिन पखवाड़ा मनाते हैं। जगह-जगह सभाएं की जाती हैं, स्कूल-कालेजों में हिंदी पढ़ना, लिखना और बोलने का संकल्प दिलवाते हैं। रेलवे, बस स्टेशन और सरकारी कार्यालयों में “हिंदी में काम करना राष्ट्रीयता का घोतक है।” तख्ती टंगवाते हैं। इन कर्तव्य निर्वहनों द्वारा हम कितना न्याय कर पा रहें हैं। अपनी भाषा के विकास के लिए बाद हम अपने लड़के को इंग्लिश बोर्डिंग के स्कूल में ही पढ़ने को भेजते हैं। उसकी गिटर-पिटर के इंग्लिश पर पुलकित होकर असीम सुख पाते हैं। तोतले मुंह बच्चे को वाटर, ब्रेड, नुडल्स, कहना सिखाते हैं। और यही सब हम आप को अपनी सोसायटी से अलग करती है और अपनी इस पहचान को मिटा कर समान्य लोगों से अलग होने का दंभ भरते हैं। विलायती भाषा को सीखना गर्व की बात है किन्तु अपनी भाषा को भूल जाना शर्म की बात भी तो है। भारतेंदु जी भी लिखते है-

निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषा को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटें न हिय को शूल।।

 अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाला छात्र बड़े सलीके से कहता है कि उसकी हिंदी कमजोर है। लज्जित होने की अपेक्षा अपने को गौरवान्वित महसूस करता है 'वाह जी वाह तुमको हिंदी नहीं आती और झेंपना हमको पड़ता है । अस्सी-नब्बे नब्बे दशक के हिरो फिल्मों में अंग्रेजी के चार शब्द विलायत से पढ़कर आने वाली मैम(हिरोइन) के सामने चबा जाए तो दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट से हिंदी प्रेमियों पर क्या बीतती है पुछिए मत, किसी के योग्यता का परिचायक केवल अंग्रेजी ही हो सकती है क्या? ऐसा है तब तो होटल का बैरा, टूरिस्ट गाइड आदि जो अंग्रेजी अच्छी तरीके से बोल लेते हैं, समझ लेते हैं। उन्हें अन्य विषयों में प्राप्त डाक्टरेड मानद उपाधि के समकक्ष बिठाया जाना चाहिए। हम मातृभाषा के इतर किसी अन्य भाषा को बोलने में कौशल प्राप्त कर लेते हैं तो यह हमारी भाषाई-कौशल होगी न कि योग्यता का परिचायक है।

हम अपनी भाषा को विदेशी भाषाओं से कमतर आंकते हैं। हमारे यहाँ का डॉक्टर ,वकील, अधिकारी, वैज्ञानिक हिंदी में बात करने पर गिल्टी फील करते हैं। वहीं अन्य देशों चीन, जापान, अमेरिका,  फिलिपिन्स, आदि देशों के डाक्टर, वैज्ञानिक आदि अपनी भाषाओं को बोलने में गर्व महसूस करते है। इसलिए उनकी भाषा फल-फूल रही है। चीनी  मन्दारिन विश्व में बोली जाने वाली पहले नम्बर की भाषा है, दूसरे नंबर पर अंग्रेजी आती है और तीसरे नम्बर की भाषा हिन्दी है, सबसे दिलचस्प बात यह है कि हम भारतीय ब्रिटेन की अंग्रेजी बोलते हैं, अमेरिकन्स अंग्रेजी बोलने वालों को अंग्रेजी भाषा से बाहर कर दें तो हिंदी दूसरे नम्बर की भाषा बन जाएगी यह अंग्रेजियत पर सबसे बड़ा प्रहार होगा। 

हम भारतीय (आज के छात्र) तो देवनागरी में अंको के लेखन जानते ही नहीं १,२,३,४,५...... और तो और ७८, ६९, ५९ आदि नम्बर लिखने को बोल दीजिए तो पढ़े-लिखे मूर्ख बन बैठते हैं सेवेन्टी एट, सिक्सटी  नाइन समझ में आता है पर हिन्दी में गिनती लिखना नहीं आता, वह कौन सी बला है? 

अंग्रेजी स्कूल में नौनिहाल जिस दिन गलती से हिंदी के एक शब्द का प्रयोग कर लेते हैं। उस दिन उन्हें दण्डित होना पड़ता है। अपनी भाषा का इससे बड़ा अनादर और क्या हो सकता हैं। जिस बच्चे को बचपन में हिन्दी बोलने पर दंड का भागीदार बनना पड़े उसे क्या हिंदी से घृणा न होगी। वह हिंदी का सम्मान क्यों करेगा? हिंदी के अजीज प्रेमी जो अपनी गाड़ी पर हिंदी में नम्बर प्लेट का लेखन करवाते हैं। उनके सम्मान में राजधानी क्षेत्र दिल्ली में ही नहीं बल्कि सभी राज्यों में (मोटर व्हीकल अधिनियम 1988 के अंतर्गत धारा 50 डी संदर्भित है कि गाड़ी के नम्बर-पट्टी पर हिंदी में नंबर लिखवाना कानूनन अपराध है।) का उपहार दिया जाता है, अब हिंदी के सम्मान में कौन खड़ा होगा? जिसके गाड़ी का चालान हो रहा है वह या जो बचपन में अपने यार-दोस्तों में हिंदी बोलने के कारण अपमानित हुआ है वह। 

हम अपनी भाषा से अगर वास्तव में प्यार करते हैं। और उसका सम्मान करते हैं तो हिंदी के लिए साल का एक दिन न होकर वल्कि वर्ष के पूरे ३६५ दिन हिंदी के ही नाम होना चाहिए। हमें जहाँ कहीं जब भी मौका मिले हिंदी के उत्थान की ही बात करें। तभी हमारी हिंदी हमारी न होकर बल्कि विश्व की हो सकेगी और इसका भी मान-सम्मान देश-विदेश में होगा। अपने आस्तित्व को लेकर हिंदी आँसू नहीं बहायेगी और न ही उसे इंग्लिश के सामने अपमानित ही होना पड़ेगा। जब तक हम हिन्दी को व्यवसायिक भाषा के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं तब तक हिंदी उत्थान नहीं हो सकता लाख कोशिश कर लीजिए, सम्मेलन कर लीजिए या भी हिन्दी दिवस, पखवाड़ा नहीं सालाना मना लीजिए या तो स्वीकार कर लीजिए कि हम अहिन्दी ही सही हमें हिंदी से कुछ नहीं सरोकार...इस दिखावे से हिंदी को मुक्ति तो मिलेगी।
प्रकशित-प्रवासी सन्देश (मुम्बई) महाराष्ट्र से १४ सितम्बर २०२१ के अंक में

ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
लखीमपुर खीरी २६२८०४
मोबाइल-८१२७६९८१४७

Sunday, September 05, 2021

शिक्षा तो दूर सार्वजनिक कुएं से पानी पीने को मोहताज थे-अखिलेश कुमार अरुण

साथियों हम तो उस समाज से आते हैं जहां सार्वजनिक कुएं, तालाब, नदी-नाले से पानी पीना भी गुनाह था; ऐसे में हम शिक्षा कैसे प्राप्त कर सकते थे। मिट्टी का पुतला बनाकर शिक्षा लेने लगा तो अंगूठा कटवा लिया गया, ज्ञान देने लगा तो सर कटवा लिया गया, अध्यात्म के तरफ गए निर्गुण की उपासना करने लगे तो छल से मार दिया गया क्योंकि शिक्षा का अधिकार तो हमें था ही नहीं, तो हम शिक्षा कैसे प्राप्त करते शुक्र है अपने उस रहनुमा का जिसने हमें यह अधिकार दिया #भारतीय संविधान की धारा 29,30 और 21 क, जिसमें #शिक्षा संस्कृति और शिक्षा का मूल अधिकार समाहित किया गया है।

हमारी शिक्षा प्रारंभ होती है #चार्टर #एक्ट 1813 और  1833 से धीरे-धीरे ही सही हमें शिक्षा प्राप्त करने का मौका मिला तो, अंग्रेजों को जाति धर्म से अलग हटकर उन्हें एक नौकर चाहिए था ऐसा नौकर जो उनकी भाषा और शिक्षा को समझ कर कंपनी के कार्यप्रणाली के अनुसार अपने को तैयार कर सके किंतु हम यहां भी चूक गए, #मैकाले का विवरण पत्र #1835 के अनुसार शिक्षा का स्वरूप #निस्यंदन_सिद्धांत (filtration theory) की भेंट चढ़ गई क्योंकि उच्च वर्ग शिक्षित होकर नौकरी पेशा में जाने लगा उसका सामाजिक स्तर पहले से ही ऊंचा था और ऊंचा हो गया। अंग्रेजों के साथ उसका उठना बैठना हो गया, "अरे ओ साहब कहां इन मैले-कुचैले जाहिलों को शिक्षित करने की सोच रहे हैं।" छन-छन कर जो शिक्षा निचले तबके तक आने के लिए थी उसकी जालियां बंद कर दी गई शिक्षा छनने की बात अलग एक बूंद टपकना भी मयस्सर न रहा।

शिक्षा का स्वरूप वर्तमान समय में अत्यधिक विकृत हो गया है क्योंकि शिक्षा की धारा दो रूपों में प्रवाहित हो रही है-एक तरफ सुख सुविधाओं से संपन्न महंगी शिक्षा व्यवस्था और दूसरी तरफ गरीबों की शिक्षा जिसमें शिक्षा के न नए आयाम हैं और न ही सुविधाएं परिणामत: एक बहुत बड़ा तबका चाहे वह जिस जाति धर्म-मजहब का हो शिक्षा से वंचित है क्योंकि महंगी शिक्षा उसके बस की बात नहीं है। अभी हाल ही में #कानपुरयूनिवर्सिटी (गरीबों की यूनीवर्सिटी कह लीजिए) के अंतर्गत संचालित #सीतापुर, #लखीमपुर, #उन्नाव आदि जिलों के #महाविद्यालय संचालित हो रहे थे, यकायक इन्हें #लखनऊविश्वविद्यालय से संबद्ध कर दिया गया, जिसकी फीस 2 गुना ही नहीं 3 गुना है ऐसे में इन पिछड़े जिलों के अभिभावक अपने पाल्य को शिक्षा दिलाने के लिए महाविद्यालय की मोटी फीस अदा करने में अक्षम है। ऐसे में जनसामान्य की शिक्षा को कैसे साकार किया जा सकता है। हम फिर जहां से उठे थे धीरे धीरे वहीं और उससे भी बुरी स्थिति को प्राप्त हो रहे हैं।

वस्तुत: हम आखरी पीढ़ी होंगे अपने समाज में उच्च शिक्षा धारित करने वाले लोगों में से इसके बाद आने वाली पीढ़ी उच्च शिक्षा के लिए तरसेगी केवल एक स्वप्न बनकर रह जाएगा उनके शिक्षा की चाहत और उनके सामाजिक जीवन का उभरता स्तर, शिक्षा में मार्क्सवाद अपने चरम पर है पूंजीपति और सर्वहारा वर्ग की शिक्षा कहिए.... हमारे हाथ से शिक्षा की आधुनिकता के नाम पर हमारी पाटी, खड़िया, सरकंडे की कलम भी छीन लिया गया और अत्याधुनिक शिक्षा का साधन भी उपलब्ध नहीं कराया गया। प्राईमरी और जूनियर की स्कूलिंग में शिक्षा से ज्यादा सरकार को मिड-डे-मील का फीडबैक चाहिए। मास्टर जी पढ़ाने से ज्यादा सरकार को  मोबाइल पर एप्प से लेकर आफिस के रजिस्टर तक मिड-डे-मील को लेकर व्यस्त हैं....टूंटपूजिहे प्राइवेट स्कूल कोरोना की मार से चौपट हो गए और बड़े स्कूल आनलाइन क्लाश के नाम पर अभिभावकों की जेब काट लिए हमारे माता-पिता के पास इतनी मोटी रकम नहीं थी उनकी रोड किनारे की दुकान, मजदूरी और कम्पनी की प्राइवेट नौकरी चली गई, नून-रोटी खाकर किसी प्रकार से जीवनयापन हो रहा है।

वंचितों की शिक्षा का असली इतिहास ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले से स्टार्ट होता है जो बाबा साहब डॉक्टर बी आर अंबेडकर के गुरु भी कहलाते हैं अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली का ही परिणाम था की 1891 में जन्मा बालक शिक्षा के क्षेत्र में अर्जित कर आज विश्व का सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करने वाला स्कॉलर बना हुआ है जिसे हम नॉलेज आफ सिंबल इन द वर्ल्ड के नाम से जानते हैं। हम अपने संपूर्ण समाज की तरफ से ऐसे महापुरुष को बार-बार नमन करते हैं हमारे असली शिक्षक बाबा साहब ज्योतिबा राव फूले और सावित्रीबाई फूले ही हैं।

आज के समय में भी द्रोणाचार्य जैसे शिक्षकों की कमी नहीं है इन शिक्षकों की साया से भी बचने का प्रयास करुंगा।

अधिकतर शिक्षक ऐसे हैं जो अपने शिक्षक धर्म का निर्वाह करते आए हैं चाहे वह जो भी समय काल रहा हो हम अपने जीवन के मोड़ पर मिले उन शिक्षकों को पुनः पुनः नमन करता हूं और अपने ज्ञान वृद्धि के लिए उन शिक्षकों के आशीर्वाद की कामना करता हूं जिनका आशीर्वाद हमें आजीवन मिलता रहे। 

शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं।

अखिलेश कुमार अरुण
8127698147

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Thursday, August 05, 2021

दुनिया के 5 देशों में पहुंची झुग्गी में किराये के झोपड़े में रहने वाली कलाकार की बांबू (बांस) राखियाँ-मुकेश कुमार

देशी संस्कृति एक विमर्श
मुकेश कुमार
पूर्व उपसम्पादक दैनिक भास्कर
आप माने या न माने झुग्गी में दस बाई तेरह के किराए के झोपड़े में रहनेवाली बांस कारीगर की बांबू राखिया और अन्य कुछ कलाकृतियां दुनिया के ५ देशों में पहुंची है. बीते वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सराहना पा चुकी बांबू राखी इस वर्ष सीधे इंग्लैंड, स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, नेदर्लांड और स्वीडन पहुंची है. हैरत की बात है कि दो वर्ष पूर्व इसी गरीब बांस कारीगर महिला को इजरायल के जेरुसलेम की एक बड़ी आर्ट स्कूल में वर्कशॉप लेने का निमंत्रण भी मिला था, पर आर्थिक कारणवश वह नहीं पहुंच पाई थी. इस वर्ष उनकी राखियों ने सीधे ५ देशों की यात्रा कर ली है. भारत में बांबू राखी को लोकप्रियता दिलाने के साथ ही इस तरह से दुनियाभर में इन राखियों को पहुंचनेवाली यह कारीगर देश की पहली महिला है. मीनाक्षी मुकेश वालके ऐसा इनका नाम है.

मीनाक्षी मुकेश वालके महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल और नक्सल प्रभावित चंद्रपुर के बंगाली कॅम्प झोपडपट्टी में रहती है. वे बांबू डिजाइनर और महीला सक्षमीकरण कार्यकर्ता है. बांस क्षेत्र में उनके अद्वितीय सेवा कार्य की सराहना करते हुए इसी वर्ष कनाडा की इंडो कॅनडीयन आर्ट्स अँड कल्चर इनिशिएटिव संस्था ने महिला दिवस पर वुमन हीरो पुरस्कार से सम्मानित भी किया था. 

लॉक डाउन की भीषण मार सहने के  बाद इस वर्ष रक्षा बंधन पर मीनाक्षी और उनकी साथी महिलाओं ने बड़े साहस से काम शुरू किया. द बांबू लेडी ऑफ महाराष्ट्र के नाम से मशहूर सौ मीनाक्षी वालके ने २०१८ में केवल 50 रुपयों में सामाजिक गृहोद्योग अभिसार इनोवेटिव की स्थापना की थी. उसी समय उन्होंने पहली बार बांबू की राखियां भी बनाई थी. अब उनका कारवां सात समुंदर पार पहुंचा है. इससे मीनाक्षी की सहयोगी कारीगर महिलाओं में हर्षोल्लास व्याप्त है.

स्वित्झर्लंड की सुनीता कौर ने मीनाक्षी की बांबू राखियों के साथ ही अन्य कलाकृतियां भी वहां बिक्री हेतु मंगाई है. स्वीडन के सचिन जोंनालवार समेत लंदन की मीनाक्षी खोडके ने भी अपने ग्लोबल बाप्पा शो रूम के लिए राखियों की खरीद की है. 

बांबू की पूर्णतया इको फ्रेंडली ऐसी बांबू राखियों में प्लास्टिक का तनिक भी अंश न होना, यह मीनाक्षी वालके की विशेषता है और राखियों को सजाने वे खादी धागे के साथ तुलसी मणी एवम् रुद्राक्ष का प्रयोग करती है. मीनाक्षी इस संदर्भ में बताती है कि अपनी पावन संस्कृती का शुद्ध एहसास इस भावनिक संस्कार में महसूस होना चाहिए. प्रकृति को वंदन करते हुए आध्यात्मिक अनुभूती मिलनी चाहिए, ऐसा हमारा प्रयास रहता है. स्वदेशी, संस्कृती और पर्यावरण संदेश का प्रेरक संयोग करने की कोशिश इससे हम कर रहे है, ऐसा मीनाक्षी ने बताया. बतौर मीनाक्षी, उनका काम ही मुख्य रूप से प्लास्टिक का प्रयोग न्यूनतम हो इस दिशा में चलता है. वसुंधरा का सौदर्य अबाधित रहे, इस हेतु वे समर्पित है. इस लिए उनका हर काम, कलाकृति शुद्ध स्वरूप में होती है.

ज्ञातव्य हो, लॉक डाउन में मीनाक्षी और सहयोगियों का बड़ा नुकसान हुआ. कुछ कारीगरों पर किराणा किट लेने की नौबत अाई. ऐसे संकट में कोई भी साथ में खड़ा नहीं रहा. डेढ़ वर्ष से काम ठप है. इस बिकट प्रसंग में अब राखी के बंधन ने आर्थिक अड़चनों से मुक्ति दिलाने में बड़ा साथ दिया है, ऐसी भावुक प्रतिक्रिया भी मीनाक्षी ने व्यक्त की. किसी भी प्रकार की परम्परा या विरासत नहीं, समर्थन या मार्गदर्शन नहीं, बेहद गरिबी में मीनाक्षी ने अभिसार इनोव्हेटिव्ज यह सामाजिक उद्यम शुरू किया. झोपडपट्टी की महिला व लड़कियों को मुफ्त प्रशिक्षण देकर रोजगार देते हुए मीनाक्षी का काम बढता जा रहा है. यहां बता दे, बीते वर्ष मीनाक्षी की राखी महाराष्ट्र के तत्कालीन वित्त एवं वन मंत्री सुधीर मुनगंटीवार ने स्वयं प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी थी!

इस साल ५० हजार का लक्ष्य
मीनाक्षी ने बताया कि इस वर्ष उन्होंने ५० हजार राखियों का लक्ष्य रखा है. विदेशों से मांग बढ़ने के बाद अब स्थानीय स्तर से भी पूछ परख बरबस ही बढ़ गई है. लॉक डाउन से मीनाक्षी व उनकी सहयोगी महिलाओं पर भुखमरी ही नहीं, कर्ज की नौबत अाई है. ऐसे में अब राखी ने उन्हें नव संजीवनी देकर उम्मीदें काफी बढ़ा दी है. 
मीनाक्षी का अमीर खान कनेक्शन
भाजपा के सुधीर मुनगंटीवार महाराष्ट्र के वनमंत्री थे तब बल्लारपुर में स्टेडियम का उद्घाटन अमीर खान के हाथों हुआ था. इस बीच सैनिकी विद्यालय में अमीर खान के अल्पाहार की व्यवस्था की थी. उस समय मीनाक्षी के बांबू राखी का लोकार्पण भी नियोजित था परंतु समयाभाव में वह टल गया था. देर से ही सही उसके बाद अमीर खान के ही दंगल फिल्म की अभिनेत्री मिनू प्रजापती ने मीनाक्षी के बनाए बांबू गहनों की खरीदी कर प्रशंसा की थी. मीनाक्षी यह याद बड़े ही उत्साह से बताती है.
बांबू फ्रेंडशिप बैंड का आविष्कार
इको फ्रेंडली फ्रेंडशिप बैंड वैसे उपलब्ध या प्रचलित नहीं था. मुख्य रूप से धातू, प्लास्टिक के ही स्वरूप में वह अधिकांश उपलब्ध है. मीनाक्षी ने इसी वर्ष जून माह में बांबू के फ्रेंडशिप बैंड बनाने का आविष्कार किया. इसके माध्यम से भी स्वदेशी, पर्यावरण से मित्रता ऐसा संदेश दिया जा रहा है. उल्लेखनीय है कि आज तक बांबू के फ्रेंडशिप बैंड उपलब्ध व लोकप्रिय नहीं थे.

पूर्व उप संपादक, दैनिक भास्कर
चंद्रपुर (महाराष्ट्र)

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