साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Tuesday, September 12, 2023

लिखा नहीं जाता और कलम है कि मानती नहीं-डॉ० हरिवंश शर्मा


      नजरिया
डॉ हरिवंश शर्मा (प्राचार्य)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली, लखीमपुर-खीरी 
        यात्रा की थकान अभी उतर नही पाई थी । अचानक याद आया कि जरूरी काम एक बाकी है । मैंने मोबाइल उठाया और हमारे सहयोगी कम्प्यूटर सहायक डी के जी से पूछा, " आज आफिस आओगे क्या ? 
    "सर जी, वैसे तो मुझे दवा लेने जाना है हॉ अगर कोई जरूरी काम हो तो आ जाते है। 
    "किस समय बता दो" मैने पूछा। बोले," कहिए अभी आ जाऊं ।" 
    "तब ठीक है, मैं बस कपड़े बदलकर तुरन्त आता हू ।"
    मैने पत्नी से कहा ,"आफिस कुछ जरूरी काम है थोड़ा वक्त लगेगा ।"
    "खाना कब खाओगे ? पत्नी ने पूछा । 
    "दो - ढाई तो बज ही जाएगा ।"
    वैसे भी इस समय बच्चों के हास्टल जाने के बाद घर आधा सन्नाटा ही रहता है । ऐसे में अगर मोबाइल भी साथ छोड़ दे तो संसार ही अधूरा हो जाये । खैर छोडिए बात ये नही है कुछ और है ।
    स्कूटी लेकर मै घर से निकला था । जल्दी भी थी क्यों किसी को इन्तजार कराना मेरी आदत नही । ख्यालों में था कि कुछ बैंक का काम भी निपटा ही लेते है । बच्चों को कुछ पैसे भेजने है पर ये क्या बैक खुली भी है बन्द भी है सबसे सरल उपाय - सर्वर नही आ रहा । चेक तो जमा हो जाएगी मैंने पूछा तो हिकारत भरे स्वर में बोला नही आज वह भी नही हो पाएगा । मै मन ही बुदबुदाया सीधे मेन्टीनेन्स की बन्दी नही बोल रहे । फिर याद आया कि डाकघर में भी एक खाता है वहां चलते है । वैसे तो अमूमन यहाॅ के कर्मचारी तो बैंक से ज्यादा बेढंगे है । कभी सीधे मुह बात छोडिये जनाब चाल भी तिरछी रहती है । शायद मेरे साथ ही ऐसा हो क्योंकि न पान पुड़िया खाकर बतियाते है और न ही भौकाल बनाने के लिए धत् तेरी करते है । खैर मै पहुचा तो जमा निकासी वाले राना बाबू नही थे । मिश्रा जी भी नही दिखे । एक बैठा था उससे पूछा तो बताया . मिश्रा जी बीमार है । उनकी जगह एक नये सज्जन बैठे थे । उनसे मालूम किया तो बोले - मिश्रा जी बीमार है ऐसे जमा निकासी सब कुछ बन्द । पास में बैठे एक एजेन्ट महाशय मुझे तरह तरह के ज्ञान देने लगे । पिण्ड छुड़ाकर मै बाहर आया । मन में गुस्से का गुब्बार जरूर था । यह मनोदशा लेकर मैं स्कूटी से आगे बढ़ा तो बायें साइड की तरफ पड़ने वाली कोतवाली से एक्टिवा पर सवार एक नौजवान पुलिस वाला जिसकी पीठ पर आज के चलन का पिट्ठू बैग था । वह सरपट चौरहे की तरफ बढ़ा । जन्माष्टमी के चलते शहर के चौराहों पर लगने वाली पटरी थी दुकानों के चलते सदा सर्वदा कहने को ही फुटपाथ है । पुलिस वाले के पीछे उसकी बगल एक साइकिल वाला चल रहा था । उसकी उम्र कुछ अधेड होगी । यह क्या अचानक वह पुलिसवाला - साले हरामखोर आदि सहित मा बहन की दो चार गालियां उस साइकिल वाले देने लगा | साले मारुगा थप्पड़ । भीड थी । ऐसे किसी से साइकिल मोटर साइकिल लड़ जाना स्वाभाविक था । इसी के फलस्वरूप वह गालियां खा रहा था चुपचाप बड़े प्रेम से । कसूर था कि साइकिल उस महापुरुष से कैसे छू गई तो इतना प्रसाद जरूरी था । थोड़ा पीछे मै था । मुझे लगा कहीं मेरी स्कूटी उसकी स्कूटी से लड गई होती तो क्या होता? खैर उनको वर्दी ऐसी ही जनरक्षा सुरक्षा के मद्देनजर मिली है । भीड की धक्कम धक्का के चलते सब इधर उधर जा रहे थे । में भी अपने रास्ते चला गया 1 मन सिफ रह गया अफसोस कि हर जगह मनुष्य के ये कौन कौन से रुप देखने को मिल रहे । वाह री ये दुनिया ।  चाहते हुये भी कलम नही रुकी ।

Saturday, September 02, 2023

अपना-अपना अहसास-डॉ हरिवंश शर्मा

डॉ हरिवंश शर्मा (प्राचार्य)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली, लखीमपुर-खीरी 
यात्रा-वृतांत

       आज मुझे 6:50 की ट्रेन से लखनऊ जाना था । स्लीपर का टिकट बेटे ने यह कहते हुए ऑनलाइन बुक कर दिया कि गर्मी का सीजन है साधारण कम्पार्टमेन्ट में यात्रा करना कठिन है । ऊपर से भीड़ का अपना आलम । हालांकि खुद की पढ़ाई के दिनों र्में खूब यात्रा की है वह भी साधारण रेल के डिब्बे में ही । तब कोयले वाला इंजन हुआ करता था जो अक्सर जेम्सवाट की  केतली वाला किस्सा खूब याद दिलाता था । ग्रेजुएशन पूरा करते . करते छोटी लाइन पर पर एक सुबह की ट्रेन डीजल वाले इन्जन से दौडने लगी थी । वकालत की पढ़ाई के दौरान भी खूब आना - जाना ट्रेनो से ही हुआ । आज की यह यात्रा कुछ अलग सा अहसास कराने वाली थी । मुझे इसका कतई अन्दाजा नही था । स्टेशन पर पहुंचा तो जी आर पी वाला बोला कहा जाना है ? मैने उससे पूछा कि एस . 2 किधर लगेगा । उसने कहा बस यही खड़े रहिये इधर ही लगेगा । छोटी लाइन  को अब बड़ी लाइन में तब्दील कर  दिया गया है ।  लेकिन स्टेशन वही जिन्दगी जी रही है । कहने को भर कि नई बिल्डिंगें बन गई है पर लोग तो वैसे ही ख्यालों से लबरेज  छोटी लाइन जैसे I कोई जानकारी नही रहती कौन सा कम्पार्टमेन्ट किधर लगेगा । यात्रियों को अपना डिब्बा दूंढने में खूब इधर से उधर कसरत करनी पड़ती है । यह रोज बरोज होता है । ट्रेन आई मेरा डिब्बा आगे के बजाय  बिल्कुल पीछे था । यदि दौड़कर न जाता तो ट्रेन का छूटना तय था । खैर डिब्बे तक पहुचने में इतना वक्त नही लगा जितना उसके अन्दर घुसने में | खचाखच भरी ट्रेन में बड़ी मसक्कत करके गेट पर ही बडी मुश्किल से खड़े होने की जगह मिल पायी । लोग चिल्ला रहे थे । औरतें चीख रही थी । बच्चे रो रहे थे । कुछ खो गए थे और कुछ खोज रहे थे । तभी एक ग्रामीण औरत चिल्लाती - रोती  भीड को चीरती हुई गेट की तरफ आती दिखाई दी । हाय ! मेरा बेटा  बाहर रह गया है । मेरे आदमी ( हसबैण्ड ) भी बाहर है ट्रेन चल दी है । कोई मेरे बेटे को ला दो । कोई उन्हें बता दो । हाय हम क्या करे ! अरे ! वह तो धीरे धीरे चलती ट्रेन से कूदने ही जा रही थी तभी एक महिला ने बाहर  से  उसके बेटे को गेट थी तरफ बढ़ाया । लोगों ने झट से खीचकर उस महिला के हवाले कर दिया । बेटे को पाकर उसके चेहरे पर शान्ति के भाव थे । वह फिर जोर जोर से चिल्लाने लगी । इनके पापा स्टेशन पर ही रह गये । अब हम का करी । ऐसे में कुछ की हैसी भी छूट गई। कुछ ने उसे ढाँढ़स बंधाया।
        साधारण डिब्बे की भीड को मात देता हुआ स्लीपर कोच की खीसे निकल रही थी । कई बार मन हुआ यह स्लीपर कोच कोई पुरुष होता तो मैं इसकी बतीसी तोड देता ।
        बगल में खड़ी एक  महिला का बच्चा भूख से व्याकुल था । वह उसे दूध पिलाने के लिए आंचल की तरक हाथ ले जाती फिर संकोच वश रुक जाती । लोग सिर्फ देख रहे  थे । बीच गलियारे में खड़ी वह महिला परेशान थी कि क्या करे और कैसे अपने बच्चे को दूध पिलाये । इस पर भी सामने बैठे 40 साला आदमी की नजर नही हट रही थी । उसकी नजर सिर्फ दो जगह पर अटकी थी एक तो अपनी दोनों टांगे इस कदर चौड़ी करके बैठा था कि कोई वहाँ बैठ न जाये | दूसरे कि वह अपने बच्चे को कब और कैसे दूध पिलाएगी | मेरी रिजर्व 71 नम्बर वाली बर्थ पर भी कुछ ऐसे ही दुष्ट कब्जा किये बैठे थे । उसके पति भी मजबूर वही मेरे पास खड़े थे । मैने पूछा कि क्या आप इन सबको धक्का मारते हुये भीड को चीरकर मेरी वाली बर्थ तक जा सकते हो । बच्चे का रोना उनसे भी देखा न जा रहा था | बोले और क्या कर सकते है । मैने उन्हे टिकट दिपा कहा जाकर उनको खड़ा कर दो और कहो मेरी सीट बुक है हटो यहाँ से | बस फिर क्या एक बाप अपने बच्चे के लिए जो कर सकता है किया और लड - झगड़ कर मेरी बताई सीट पर जा बैठा । लोग उसे धक्का दे रहे थे उसे जोरो से चिल्लाकर कहा ये मेरी सीट है 71 नम्बर वाली यहाँ से हटिए । उन दोनों ने अपने बैठने भर की जगह बना ली थी। मै भीड मे दबा कसमसा रहा था । लेकिन सन्तुष्टि थी मेरे स्लीपर के टिकट का पैसा अब वसूल हो गया था । टांगे फैलाये बैठे उस आदमी को पीटने का मन हो रहा था । आसपास के लोग भी खफा थे । तभी उस महिला ने मेरी तरफ हाथ हिलाकर बुलाया । भैया जगह है आप भी आकर बैठ लो काफी देर से खड़े हो । भीड में बडी मुश्किल से मै वहाँ पहुचा तो दोनो बहुत प्रसन्न थे । मुझे उनकी दुआ का  अहसास हो रहा था ।
वही  बगल थी सीट पर बैठे एक सिख युवक व युवती पर मेरी नजर पड़ी युवक ने बताया वह मेरे ही शहर के एक विद्यालय का छात्र रहा है और दिल्ली में नौकरी करता है । जिसे वह दीदी -दीदी कह रहा था । मैने पहचाना वह कोई और नही उन्नीस वर्ष पहले वह कक्षा दो की मेरी स्टूडेन्ट सिमरन कौर बजाज थी जो दिल्ली में ही जॉब करती है । एक शिक्षक के लिए इससे बड़ा कुछ नही । मुझे ऐसे में कई प्रकार के अहसास हो रहे थे जो मुझे रोमांचित कर रहे थे जो अकथनीय है।

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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