साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, January 10, 2023

डॉ.आंबेडकर द्वारा ओबीसी उत्थान के लिए की गई संवैधानिक व्यवस्था का सामाजिक-राजनीतिक-अकादमिक विमर्श के पटलों/मंचों पर समय पर आकलन और आंकलन न हो पाना ओबीसी के सामाजिक न्याय और बहुजन समाज की राजनीति के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और हानिकारक साबित हुआ और आज भी हो रहा है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

 पृष्ठ एक "
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

           हिंदू धर्म शास्त्रों का गहनता पूर्वक अध्ययन करने के बाद डॉ.आंबेडकर ने 1946 में "शूद्र कौन थे - हू वेयर शूद्राज़ " नामक एक पुस्तक लिखी जिसमें ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर स्थापित किये गए शूद्र वर्ण जिसे बाद में उन्होंने संवैधानिक रूप से ओबीसी नाम से परिभाषित किया। पुस्तक के माध्यम से शूद्रों का सामाजिक व शैक्षणिक इतिहास लोगों के सामने लाने का प्रयास किया गया। इस पुस्तक को लिखने के तुरंत बाद उन्हें उनकी शिक्षा और ज्ञान की वजह से भारत के संविधान लिखने की जिम्मेवारी मिली। संविधान सभा में वह सबसे ज्यादा शिक्षित और विद्वान थे और उनके बाद उनके सलाहकार डॉ.बीएन राव थे। शेष सदस्य डॉ.आंबेडकर की विद्वता के सामने कहीं ठहरते नज़र नहीं आ रहे थे। शूद्रों का इतिहास लिखने के कारण डॉ.आंबेडकर उनकी सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से भलीभाँति परिचित थे और वह स्वयं भी उन समस्याओं से तपकर निकले थे। डॉ.आंबेडकर को ओबीसी की समस्याएं बेहद महत्वपूर्ण और गंभीर लगती थी। उन्हें मालूम था कि शूद्र वर्ण की समस्याओं का समाधान संवैधानिक व्यवस्था के जरिए ही निकाला जा सकता है। इसलिए संविधान लिखते समय जब सामाजिक न्याय का सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का मुद्दा आया तो उन्होंने अछूतों (एससी) और आदिवासियों(एसटी) से पहले शूद्र यानी ओबीसी पर विचार किया। ओबीसी के लिए 340वां उसके बाद एससी के लिए 341वां और सबसे बाद एसटी के लिए 342वां अनुच्छेद लिखा। तार्किक और विस्तृत स्पष्टीकरण-विश्लेषण प्रस्तुत कर उन्होंने इन अनुच्छेदों को संविधान सभा में सर्वसम्मति से पारित कराया। संविधान सभा में इन अनुच्छेदों पर बहुत लंबी बहस चली थी। अनु. 341और 342 पर अनु.340 की तुलना में कम विरोध हुआ अर्थात ओबीसी की समस्याओं को लेकर प्रस्तुत 340वें अनु. का सर्वाधिक विरोध हुआ। जब गांधी, नेहरू और पटेल को पता चला कि संविधान में अनु. 340 के अंतर्गत ओबीसी के लिए अलग से विशेष प्रावधान किया गया है तो इनके साथ-साथ अन्य तत्कालीन कद्दावर सदस्य भी नाराज हो गए। यहां तक कि सरदार पटेल जो स्वयं पिछड़ा वर्ग से आते थे,डॉ.आंबेडकर से पूछने लगे कि ये ओबीसी कौन है और इनके पिछड़ेपन के कारण क्या है ? संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने ओबीसी के इस अनु. के विरुद्ध जमकर आवाज उठाई,लेकिन अपनी योग्यता और सामाजिक विज्ञान पर आधारित अभेद्य तार्किक क्षमता के दम पर डॉ.आंबेडकर ने ज्यादातर सदस्यों को संतुष्ट करते हुए यह मनाने में सफल हुए कि ओबीसी कौन और उनकी समस्याएं क्या हैं अर्थात यह समझाने में सफल हुए कि उनके पिछड़ेपन के कारण क्या है और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए अनु. 340 क्यों जरूरी है। लम्बी और मुश्किल भरी जद्दोजहद के बाद डॉ.आंबेडकर ओबीसी के लिए अनुच्छेद 340 पारित करा सके थे। यह सच्चाई मनुवादी शक्तियों की साजिश और जिस जाति से डॉ.आंबेडकर आते थे उससे ओबीसी अपनी जातीय श्रेष्ठता के झूठे दम्भ में चूर उनके इस महान योगदान को न तो ओबीसी समझ पाया और न ही संविधान सभा के ओबीसी सदस्य उसे समझाने की दिशा में अपेक्षित काम कर सके। मनुवादियों द्वारा किये गए इस दुष्प्रचार कि आंबेडकर तो दलितों के मसीहा हैं, ओबीसी उनके दुष्चक्र में फंसकर रह गया और इस तरह देश का एक बहुसंख्य ओबीसी डॉ.आंबेडकर जैसे महान पुरूष के व्यापक और बहुआयामी व्यक्तित्व को एक जाति विशेष के खांचे में कसकर देखने,उसका जोर-शोर से प्रचार-प्रसार करने और राहत व जातीय श्रेष्ठता की सांस लेने में ही आनंद लेता रह गया। डॉ.आंबेडकर को दलितों का मसीहा घोषित और प्रचारित करने की मनुवादियों की साज़िश ओबीसी के लिए बहुत घातक सिध्द हुई,लेकिन ओबीसी वर्ण व्यवस्था की जातीय श्रेष्ठता के नशे में डुबकी लगाने में ही मस्त रहा और सवर्ण उनकी हिस्सेदारी को एक चालाक भेड़िये की तरह छुपकर नोच-नोच कर खाता रहा।
          डॉ.आंबेडकर की वजह से अनु0 340 तो पारित हो गया,लेकिन उच्च वर्गीय कट्टरवादी शक्तियों द्वारा इसका लगातार विरोध जारी रहा। अनु. 340 के अनुसार ओबीसी जातियों की पहचान कर उनकी समस्याओं का पता लगाना, उनके कारणों का जानना तथा उनके उत्थान के लिए रोड मैप तैयार करने के लिए एक आयोग के गठन का प्रावधान किया गया। 26 जनवरी 1950 को जब संविधान पूर्ण रूप से लागू हो गया तो डॉ.आंबेडकर ने ओबीसी आयोग गठित करने की मांग रखी, लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू इस विषय को बड़ी चतुराई से टाल गए। उसी दौरान डॉ.आंबेडकर हिंदू कोड बिल पर भी काम कर रहे थे और वह उस बिल को संसद में यथाशीघ्र पारित कराना चाहते थे, लेकिन ओबीसी और महिलाओं के प्रति सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये ने उन्हें बहुत निराश किया। यहां तक कि संसद में उच्च वर्गीय महिलाओं ने भी हिंदू कोड बिल की अंतर्निहित विषय वस्तु जो उनके व्यापक हित में थी,के निहितार्थ को न समझते हुए उसका कड़ा विरोध किया। यही नही, डॉ.आंबेडकर को इस बिल की वजह से संसद के भीतर और संसद के बाहर भी भारी जनाक्रोश का विरोध झेलना पड़ा जिससे दुखी होकर उन्होंने 27 सितंबर 1951 को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने के बाद वह चुपचाप नहीं बैठे उन्होंने संकल्प लिया कि वह अब ओबीसी को जागरूक और संगठित करने का काम करेंगे। पं.नेहरू इस बात को अच्छी तरह समझते थे, क्योंकि उस समय देशमुख और आरएल चंदापुरी जैसे ओबीसी नेता डॉ.आंबेडकर के संपर्क में थे और वे ओबीसी आयोग के गठन को लेकर देशव्यापी आंदोलन करने के लिए एक ठोस योजना का रूप देने की दिशा में प्रयासरत थे। ये ओबीसी नेता उत्तर भारत में ओबीसी की बड़ी-बड़ी जनसभाएं भी करना शुरू कर चुके थे। सन 1952 में जब पहला आम चुनाव होना था तो डॉ.आंबेडकर ने अपनी पार्टी "शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया" के घोषणा पत्र में अनुच्छेद 340 के अनुसार ओबीसी आयोग के गठन का मुद्दा शामिल किया। नेहरू जी यह अच्छी तरह समझते थे कि पूरे देश का ओबीसी डॉ.आबेडकर के साथ एकजुट हो सकता है। इसलिए उच्च वर्गीय दत्तात्रेय बालकृष्ण उर्फ़ काका कालेलकर की अध्यक्षता में आनन-फानन एक ओबीसी आयोग का गठन कर दिया गया। 30 मार्च 1955 को उन्होंने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद को सौंप दी। रिपोर्ट की विषय वस्तु पढ़कर वह हतप्रभ थे और तुरंत नेहरू से फोन कर अपनी नाराजगी व्यक्त की। नेहरू ने तुरंत रिपोर्ट मंगवाई और उसकी सिफारिशों का गहनता से अध्ययन किया। भावी राजनीति के दृष्टिगत उन्हें रिपोर्ट की सिफारिशें नागवार गुजरी अर्थात बिल्कुल पसंद नहीं आयी और कालेलकर को बुलाकर खूब फटकार लगाई,फिर उनसे ही रिपोर्ट पर लिखवाया कि " इस रिपोर्ट की सिफारिशें लागू नहीं की जा सकती है,क्योंकि मैं स्वयं इनसे सहमत नहीं हूँ।" इस तरह नेहरू ने कालेलकर आयोग रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करना तो दूर उन्हे संसद में पेश करने लायक भी नहीं छोड़ा। जब रिपोर्ट तैयार करने वाला ही लिख कर दे रहा हो कि वह इस रिपोर्ट से सहमत नहीं है तो फिर उसे संसद में पेश करने और उस पर चर्चा कराने की क्या जरूरत और औचित्य बनता है? इस तरह कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को एक दूरगामी सामाजिक और राजनीतिक खतरे को भांपते हुए धीरे से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया जिसे ओबीसी नहीं समझ पाया।
         डॉ.आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को भी लागू करने की पहल का काम भी थम सा गया था, लेकिन उसकी सुलगती आग की आंच अभी पूरी तरह ठंडी नहीं पड़ी थी। पं.नेहरू की मृत्यु के बाद शास्त्री जी देश के प्रधानमंत्री बने,उनकी भारत-पाक युद्ध के बाद ताशकंद समझौते के दौरान रहस्यमयी मौत हो गयी तो फिर इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी। 1975 में उन्होंने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी जिसके विरोध में सभी गैर कांग्रेसी दल एकजुट हो गए और एक संयुक्त राजनीतिक दल " जनता पार्टी " का गठन हुआ। 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में कालेलकर आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया। देश में पहली बार मोरार जी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की प्रचंड बहुमत की गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो कुछ दिनों बाद ओबीसी का एक शिष्टमंडल प्रधानमंत्री से मिलता है और कालेलकर आयोग की रिपोर्ट लागू करने का दबाव बनाता है। प्रधानमंत्री कहते हैं कि चूंकि,आयोग की रिपोर्ट 1931 की जनगणना पर आधारित है जो काफी पुरानी हो चुकी है और तब से ओबीसी के सामाजिक और शैक्षणिक स्तर में काफी बदलाव आ चुका है और आश्वासन दिया कि उसके स्थान पर एक नया आयोग गठित किया जाएगा।......
शेष-पृष्ट दो पर                                                       

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