साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Friday, April 01, 2022

भ्रष्टाचार का अंत नहीं-अखिलेश कुमार अरुण

व्यंग्य कहानी

अखिलेश कुमार अरुण
तकनिकी/उपसम्पादक
अस्मिता ब्लॉग
मेवालाल जी स्थानीय छुटभैये नेताओं में सुमार किये जाते हैं। उनकी पुश्तैनी नहीं अपनी पहचान है, जिसे अपने खून-पसीने की खाद-पानी को डालकर पल्लवित-पोषित किया है। हर एक छोटे-बड़े प्रस्तावित कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह किसी के खास नहीं और सबके खास हैं। ऊपर से कहीं-कहीं तो उनही उपस्थिति कुछ खास लोगों को खलने लगती है। इनकी उपमा उन लोगों के लिये राहु-केतु या काले नाग से कम की न होगी विचारे तिलमिला के रह जाते हैं पर कुछ कर नहीं पाते हैं। इनकी जान-पहचान आला-अफ़सरों से लेकर गाँव-घर के नेताओ से, सांसद तक है।

छोटी-बड़ी सभी चुनाव में हाथ आज़माते हैं, जीतने के लिये नहीं हारने के लिये ही सही एक पहचान तो बने, जहाँ जनता इनके खरे-खोटे बादों से तंग आकर चैथी-पाँचवीं जगह पर पहुँचा देती है, कुछ चुनावों का परिणाम तो ऐसा है कि जमानत जब्त करवा कर मुँह की खाये बैठे हैं। मानों वह चुनाव ही चिढ़कर मुँह फिरा लिया हो ‘क्या यार! हमारी भी रेपोटेशन की ह्वाट लगा देता है, सो इनका अब भविष्य में चुनाव जीतना तो मुष्किल ही है पर यह हार कहाँ मानने वालों में से हैं। समाजसेवी विचारधारा के हैं हर एक दुखिया का मदद करना अपना परम्कत्र्तव्य समझते हैं। और तो और इनका सुबह से शाम का समय समाज के कामों में ही गुजर जाता है। परिणामतः इनके तीन बच्चों में से कोई ढंग से पढ़-लिख न सके, गली-मोहल्ले, चैराहों की अब शान कहे जाते हैं।

इनका अपना स्वप्न यह है कि अपने जीवन काल में भारत से भ्रष्टाचार मिटा देना चाहते हैं। इस स्वप्न को साकार करने के लिये जहाँ कहीं जब भी मौका मिलता है अन्ना हजारे आन्दोलन के कर्णधार बन बैठते हैं। उन्हें अपना आदर्ष मानकर आन्दोलन करते हैं, भूख हड़ताल इनका अपना पसंदीदा आन्दोलन है, गले तक खाये-पीये हों वह अलग बात है, जिले का हर अधिकारी इनको अपने कार्यकाल में मुसम्मी, अनार का जूस पिला चुका होता है। उसका कार्यकाल क्यों न चार दिन का ही रहा हो, पहचान बनाने का उनका अपना यह तरीका अलग ही है।

अपने कार्यक्रमों में चीख-चीख कर चिल्लाते हैं न लेंगे न लेने देंगे यह हमारा नारा है। भाईयों-बहनों हम गरीब-मज़लुमों पर अत्याचार होने नहीं देंगे, ‘‘सत्य का साथ देना हमारा जन्मसिध्द अधिकार है।’’ इनका अपना सिध्दान्त है जिसे एक सच्चे वृत्ति के तरह धारण किये हुये हैं।

सेवा का चार्ज लेने के बाद यह मेरे सेवाकाल की दूसरी पोस्टिंग थी। विभाग में नये होने के चलते जगह बदल-बदल कर मुझे मेरे अपने क्षे़त्र में पारंगत किया जा रहा था। मुझसे मेरे विभाग को बड़ी आषा थी, जो मेरे से अग्रज थे वह तो नर्सरी का बच्चा समझकर हर एक युक्ति को सलीके से समझा देना चाहते थे। कक्षा में कही गई गुरु जी की बातंे एक-एक कर अब याद आ रहीं थी कि व्यक्ति को पूरे जीवन कुछ न कुछ सीखना पड़ता है, इसी में जीवन के पैतीस बंसत पूरे हो गये पता ही नहीं चला पर जो आज सीखने को मिला वह जीवन के किसी भी पड़ाव पर शायद भूल नहीं पाऊँगा।

मैं अपने काम में व्यस्त किसी मोटी सी फाईल में खोया था तभी एक आवाज आई, ‘नमस्ते बाबू जी।’

‘हाँ नमस्ते।’

‘पहचाना सर, मुझे। सफेद कुर्ता-पाजामें में एक फ़रिस्ता मुस्करा रहा था, शायद......... एक कुटिल मुस्कान।

मुझे पहचानने में देर न लगी, अरे! मेवालाल जी, आप?’

‘हाँ बाबू जी’ कहते हुये कुरसी पर आ विराजे, मैं श्रृध्दा से मन ही मन उनको नमन किया। और शब्दों में शालीनता का परिचय देते हुये कहा, ‘कहिये।’

बोले कुछ बोले बगैर, एक फाईल मेज पर सरकाते हुये मुस्करा रहे थे, ‘साहब देख लीजियेगा, मेरा अपना ही काम है।’

और अगले ही पल आॅफिस से जा चुके थे, कौतुहलवश फाईल खोलकर जल्दी से जल्दी देख लेना चाहता, आखिर काम क्या है? जिसे लेकर एक ईमानदार छवि का व्यक्ति मेरे सामने आया है। जिसमें गाँधी, अन्ना हजारे जैसे उन तमाम तपस्वियों की झलक दिखती है जो भ्रष्टाचार को मिटाने के लिये एक पैर पर खड़े रहते हैं। उसके लिये मेरा काम करना तो किसी बड़े यज्ञ में आहुति देने के समान है, मैं अपने छात्र जीवन में ऐसी ही क्रान्ति करना चाहता था। जहाँ भ्रष्टाचार का नाम नहो ऐसे मेरे देश की विष्व में पहचान बने। इसी विचारमग्नावस्था में फाईल को खोला तो लगा जैसे किसी ने मेरे स्वप्न पर एकाएक ताबड़तोड़ प्रहार कर दिये हों, उसमें से दो हजार के रुपये वाला गाँधी जी का चित्र बेतहासा मुझ पर हंसे जा रहा था।
(पूर्व प्रकाशित रचना 'भ्रष्टाचार' मरू-नवकिरण, राजस्थान से वर्ष 2018 और मध्यप्रदेश  से इंदौर समाचार पत्र में 4 अप्रैल 2022 को प्रकशित)

ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर(खीरी) उ प्र २६२८०४
दूरभाष-8127698147

Tuesday, December 14, 2021

ज़ुकामी चाचा-संजीव जायसवाल संजय

 हास्य-कहानी
संजीव जायसवाल संजय

जुकामी चाचा का असली नाम क्या था यह तो अब उनको भी याद न होगा। किंतु उनके नाम की शोहरत का आलम यह था कि उनका मोहल्ला भी अब जुकामी चाचा के मोहल्ले के नाम से जाना जाने लगा था।
 दरअसल जुकाम के कारण उनकी नाक के दोनों छेंद नगरपालिका के गटर की तरह बारहों महीने उफनाया करते थे। इससे प्रभावित होकर मोहल्ले के एक खुराफाती बच्चे ने एक बार उन्हें ‘जुकामी चाचा’ कह दिया। लोगों को यह नाम इतना पसंद आया कि उनका यही नाम रख दिया गया। 

  जुकामी चाचा गुणों की खान थे। उनके किस गुण को गिनवाया जाये और किसको नहीं, यह तय कर पाना मुश्किल था। कंजूसी के क्षेत्र में तो जुकामी चाचा ने ऐसे-ऐसे रिकार्ड बनाये हैं कि ‘गिनीज़ बुक्स’ के एक से लेकर दस नंबर तक के रिकार्ड पर उन्हीं का कब्जा पक्का समझिये। अपनी कंजूसी के चलते उनका अक्सर तमाशा बन जाता लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। मोहल्ले के बड़े-बुजर्गो ने भी कई बार समझाया कि इतनी कंजूसी ठीक नहीं मगर जुकामी चाचा का कहना था कि पैसे बचाना कंजूसी नहीं बल्कि एक आर्ट है जो सबके बस की बात नहीं। पैसे बचाने के लिए उनके पास एक से बढ़कर एक नुस्खे थे।

  अब सिर के बालों को ही लीजये। ज्यादातर लोग इन्हें बढ़ाने के लिये पहले मंहगे-मंहले तेलों और शेम्पुओं पर पैसा खर्च करते हैं फिर उन्हें कटवाने के लिये भी पैसा बर्बाद करते हैं। जुकामी चाचा की नजर में यह पक्की मूर्खता थी। जब हर महीने बाल कटवा कर फेंकने ही हैं तो उन्हें बढ़ाने के लिये तेल और शेम्पू पर पैसा बर्बाद करने की क्या जरूरत? जुकामी चाचा का दावा था कि युगों-युगों से चली आ रही इस मूर्खता पर अब तक जितना पैसा बर्बाद हो चुका है उतने में देश की अर्थव्यवस्था सुधर सकती थी।

 जुकामी चाचा का रिकार्ड था कि बाल कटवाने के लिये उन्होंने आज तक एक चवन्नी भी खर्च नहीं की थी। वह उन्हें बढ़ने देते फिर मौके की तलाश में रहते। आस-पास के मोहल्ले में जब भी कोई आदमी उपरवाले का प्यारा होता वह झट से वहां मुंडन संस्कार करवाने पहुंच जाते। मातम-पुर्सी भी हो जाती और चार पैसे भी बच जाते। 

 एक बार कई महीनों तक आस-पास के मोहल्लों में भी किसी की मौत नहीं हुयी। इससे जुकामी चाचा के बाल और दाढ़ी झाड़ियों जैसे लंबे हो गये थे। उनमें पड़े जुओं ने खुजली मचा-मचा कर उनकी नाक में दम कर दिया था। बेचारे हर बीमार और बूढ़े को बड़ी हसरत से देखते किन्तु बुरा हो दिनो-दिन उन्नति हो रही मेडिकल सांईंस का जिसके चलते कई गंभीर मरीजों की अंतिम यात्रायें रद्द हो गयी थीं। वैसे कुछ मनचलों का मानना था कि यमदूत खुराफाती हो गये हैं। वे षरारतन जुकामी चाचा के मोहल्ले से किसी को बिदा नहीं करा रहे हैं।
 
 जुओं ने जुकामी चाचा के बालों में गदर काट रखी थी। खुजली के चलते बेचारों को न दिन में चैन मिलता था न रात में। लग रहा था कि पल्ले से खर्च कर मुंडन कराये बिना राहत न मिलेगी। अतः एक दिन मुटठी में 2 रूपये के सिक्के को थाम वह कल्लन नाई की दुकान की ओर चल पड़े। सोचा पुरानी ब्लेड से मुंडन करवा लेगें। मामला सस्ते में निबट जायेगा। 

 मगर इन्सान का सोचा हुआ सच कहां होता है। किस्मत की मार कि उस दिन कल्लन कहीं बाहर गया हुआ था और उसका बेटा झुल्लन सैलून संभाले हुये था। उसने जुकामी चाचा को देखते ही फर्शी सलाम ठोंका,‘‘अस्लाम, चचा मिंया अस्लाम। सुबह-सुबह तशरीफ का टोकरा लेकर कहां चल दिये?’’

 ‘‘सलाम वालेकुम। बरर्खुदार, वालेकुम सलाम। मैं कहीं जा नहीं रहा बल्कि तुम्हारी ही दुकान पर आ रहा हूं’’ जुकामी चाचा ने पूरे जोशो-खरोश से सलाम कबूल किया फिर अपनी सुराहीदार गर्दन को चक्करघिन्नी की तरह इधर-उधर घुमाते हुये बोले,‘‘ तुम्हारे वालिद साहब नजर नहीं आ रहे हैं?’’

 ‘‘वे बाहर गये हैं। अगर मुझ नाचीज़ के लायक कोई सेवा हो तो हुक्म करें। बंदा हाजिर है’’ झुल्लन ने कहा।

 ‘‘बेटा, क्या तुम मेरा मुंडन कर दोगे?’’ जुकामी चाचा ने हिचकिचाते हुये वहां आने का मकसद बताया।

 ‘‘आपने मेरी पाक दुकान पर अपने नापाक कदम....’’ झुल्लन ने आंखे मटकायीं।

  ‘‘क्या कहा?’’ जुकामी चाचा की त्योरियां चढ़ गयी।

  ‘‘माफ करना चचा, ये चमड़े की जुबान है, जरा फिसल गयी थी। मेरा मतलब था कि मेरी नापाक दुकान पर आपने अपने पाक कदम रख कर जो इज्जत बख्शी है उससे मेरा सिर फख्र से उंचा हो गया है’’ झुल्लन ने मुंह में भरी पान की पीक को निगला फिर किसी दरबारी की तरह झुकते हुये बोला,‘‘जिस काम को करने का शबाब मेरे बाप-दादा तक को नहीं मिला वह आप मुझे दे रहे हैं। मैं खुशी-खुशी कलम करूंगा आपका सिर।’’

 ‘‘मेरा सिर?’’ जुकामी चाचा चिहुंक कर पीछे हट गये। 

 ‘‘सिर नहीं, सिर के बाल’’ झुल्लन ने पिच्च से मुंह में भरा पान वहीं रखे कूड़ेदान में थूका फिर मुंह पोंछते हुये बोला,‘‘बुरा हो तंबाकू का। इसके कारण चमड़े की जुबान बार-बार फिसल जाती है। पर आप इत्मिनान रखिये। मैं ऐसा शानदार मुंडन करूंगा कि आप जिंदगी भर भूल न पायेगें।’’

 ‘‘बेटा, पैसे कितने लोगे?’’ जुकामी चाचा ने धड़कते दिल से पूछा।

 ‘‘आप घर के आदमी हैं। मुंडन करवाईये। बाद में वाजिब दाम लगा दूंगा’’ झुल्लन ने मंजे हुये नेता की तरह आष्वस्त किया।

 ‘‘भैया, हिसाब पहले से साफ रहे तो ज्यादा अच्छा रहता है’’ जुकामी चाचा ने अपना तर्जुबा बताया।

 ‘‘ठीक है। आप 502 रूपये दे दीजयेगा।’’

   ‘‘502 रूपये किस बात के?’’ जुकामी चाचा यूं उछले जैसे कहीं बम फट गया हो।

 ‘‘ दो रूपये मुंडन के और......’’ झुल्लन ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

 ‘‘बाकी 500 रूपये किस बात के?’’ जुकामी चाचा ने उसे घूरा।

 ‘‘आपकी बहती हुई बदबूदार नाक देख कर बाकी के जो ग्राहक भाग जायेगें 500 रूपये उसके हर्जाने के’’ झुल्लन ने पूर्ण गंभीरता के साथ कीमत का खुलासा किया।

 ‘‘लाहौल बिला कूबत। सत्यानाश हो इस बदलते जमाने का। आज कल के लौंडो में तमीज नाम की कोई चीज़ ही नहीं बची है। न उम्र का ख्याल, न पेशे का इखलाक और न मोहल्ले की अदब। जिसका चाहेगें पैजामा उतार कर सड़क पर उछाल देगें’’ जुकामी चाचा का पारा सीधे सातवें आसमान पर चढ गया।ं 

 ‘‘चचा, जरा मुहावरा तो ढंग से बोलिये। पैजामा नहीं पगड़ी उछाली जाती है और वह आप पहनते नहीं हैं’’दुकान पर बैठे एक ग्राहक ने टोंका। 

 ऐसा लगा जैसे बर्र के छत्ते पर हाथ रख दिया गया हो। जुकामी चाचा हत्थे से उखड़ गये। अपने हाथ झटक-झटक और लंबी गर्दन को उचका-उचका कर उन्होने झुल्लन और उस ग्राहक को इतना कोसा, इतना कोसा कि कोसने का वल्र्ड रिकार्ड भी टूट गया होगा।  

  कल्लन की दुकान के आस-पास मुफ्त का तमाशा देखने वालों की अच्छी खासी भीड़ जमा हो गयी थी। कुछ लोगों ने तो बकायदा जुकामी चाचा के एक्षन की वीडियो भी बना ली। थोड़ी देर बाद जब जुकामी चाचा के इंजिन की बैटरी डिस्चार्ज होने लगी तब वे बड़बड़ाते हुये घर लौट पड़े। 

  कल्लन की दुकान से थोड़ा आगे जहां से गली घूमती है वहीं चुन्नू पनवाड़ी की दुकान है। संयोगवश आज उसका बेटा मुन्नू वहां बैठा था। उसने जुकामी चाचा को उछलते-कूदते आते देखा तो उसका दिल भी मचल उठा। उसने पान का बीड़ा उठाया और जुकामी चाचा की ओर बढ़ाते हुये बोला,‘‘चचा, लगता है किसी मरदूद ने सुबह-सुबह आपका दिल दुखा दिया है। मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताईयेगा।’’ 

 पान वह भी मुफ्त का! जुकामी चाचा ने लपक कर उसे मुंह में दाबा फिर पूरा किस्सा बता कर झुल्लन को कोसने लगे।

 ‘‘यह तो खुल्लम-खुला डकैती का मामला है। अगर वह मुझसे इतने पैसे मांगता तो मैं तो पुलिस में रिपोर्ट लिखा देता’’ मुन्नू ने समझाया।

 ‘‘मैनें सोंचा मोहल्ले का बच्चा है। पुलिस के चक्कर में फंस कर झेल जायेगा इसलिये छोड़ दिया’’ जुकामी चाचा ने दरियादिली दिखायी।  

 ‘‘खैर, जो हुआ सो हुआ। मैं बिल्कुल सस्ते में आपके मुंडन का जुगाड़ करवा दूंगा’’ मुन्नू ने सांत्वना दी फिर किसी शुभ-चिन्तक की तरह पूछा,‘‘पैसे कितने हैं आपके पास?’’

 ‘‘दो रूपये’’ जुकामी चाचा ने मुट्ठी खोल कर दो का सिक्का दिखाया।

 ‘‘ये तो बहुत ज्यादा हैं’’ मुन्नू ने दो का सिक्का लेकर अपने गल्ले में डाला फिर माचिस की एक डिब्बी और डेढ़ रूपये के सिक्के जुकामी चाचा के हाथ पर रखते हुये बोला,‘‘इसे ले जाईये आपका काम हो जायेगा।’’

 ‘‘ये क्या है?’’ जुकामी चाचा ने पलकें झपकायीं।

 ‘‘डेढ़ रूपये से मिट्टी का तेल खरीद कर बालों में लगा लीजये। फिर माचिस दिखा दीजयेगा, सेकेंडो में सारे बाल साफ हो जायेगें। उसके बाद वे दोबारा निकलेगें भी नहीं। हमेशा-हमेशा के लिए झंझट खत्म हो जाएगा’’ मुन्नू ने पूर्ण गंभीरता के साथ मुंडन का आसान रास्ता समझाया। 

 दोस्ती की आंड़ में दुश्मनी? जुकामी चाचा का गुस्सा सांतवे आसमान के भी उस पार जा पहुंचा। वे दांत पीसते हुये वह मुन्नू की ओर लपके। वह उछल कर भागा। अब मुन्नू आगे-आगे और जुकामी चाचा पीछे-पीछे। घंटो तमाशा चला। मगर जुकामी चाचा मुन्नू को छू तक नहीं पाये। आखिर में थक-हार कर वे घर लौट आये।
 
 मुंडन भी नहीं हुआ और अट्ठनी मुफ्त में चली गयी। अब बचे हुये डेढ रूपये में मुंडन कैसे करवाये जाये? जुकामी चाचा काफी देर तक दिमागी घोड़े दौड़ाते रहे। अचानक एक जबरदस्त आईडिया दिमाग में आया तो वे खुशी से उछल पड़े।

 ‘‘वाह जुकामी, वाह! तू तो बड़ा समझदार है’’ उन्होने खुद की पीठ थपथपायी फिर खिड़की से बाहर झंाका। दोपहरी के कारण सड़क पर सन्नाटा छाया हुआ था। 

 अपनी टांगो से सड़क नापते हुये वे अपने लक्ष्य की ओर चल दिये। पहला मोहल्ला, दूसरा मोहल्ला, तीसरा मोहल्ला और चौथा मोहल्ला पार करते हुये वह दो घंटे में शहर के बाहरी हिस्से में बस रही एक नयी कालोनी में पहुंच गये। वहां उन्हें कोई नहीं पहचानता था।

 बस स्टैंड के पास बने पब्लिक टेलीफोन बूथ पर सन्नाटा पसरा हुआ था। जुकामी चाचा ने एक रूपये का सिक्का टेलीफोन में डालते हुये पुलिस चौकी का नंबर मिलाया,‘‘एक खूंखार आतंकवादी साधुओं की तरह दाढ़ी और बाल बढ़ाये नयी कालोनी में टहल रहा है। उसे पकड़ कर उसका मुंडन करवाईये तो आप पहचान जायेगें। उसकी फोटो कई बार टी.वी. पर दिखायी जा चुकी है।’’

 ‘‘आप कौन बोल रहे हैं और आपको यह सब कैसे पता?’’ उधर से आवाज आयी।

 ‘‘मैं पुलिस का शुभचिन्तक हूं। जल्दी कीजये वरना वह आतंकवादी कोई वारदात करके निकल जायेगा और आप टापते रह जायेगें’’ जुकामी चाचा ने डपटा और फोन काट दिया।

 इसके बाद वे इत्मिनान से कालोनी में टहलने लगे। थोड़ी ही देर में पुलिस ने उन्हें घेर लिया। जुकामी चाचा ने भागने का नाटक किया। अपनी तोंद संभालते हुये दरोगा ने उन्हें दौड़ाया तो फिसल कर गिर पड़ा लेकिन उसके सिपाहियों ने जुकामी चाचा को दबोच कर जीप में लाद लिया। दरोगा को काफी चोट आयी थी इसलिये वह रास्ते भर ताव खाता रहा।

 पुलिस चैकी का मुंशी एक नाई को पहले से ही पकड़ लाया था। दरोगा ने उसे जुकामी चाचा का मुंडन करने का आदेश दिया।

 शहर के सारे नाई जुकामी चाचा को पहचानते थे। उसने बताने की कोशिश की,‘‘हुजूर, यह तो.....’’

 ‘‘हम जानते हैं कि यह कौन है। तू बस चुपचाप इसका मुंडन कर’’ दर्द से कराहते हुये दरोगा ने नाई को डपटा।

 नाई चुपचाप जुकामी चाचा का मुंडन करने लगा। सिर घुटने के बाद उनकी दाढ़ी-मूंछ भी साफ हो गयी पर कोई भी पुलिस वाला उनके चेहरे का मिलान टी.वी. पर दिखायी गयी फोटुओं से नहीं कर सका।

 ‘‘अबे, जल्दी बता कौन है तू?’’ दरोगाा ने चिंघाड़ते हुये पूछा।

 ‘‘हुजूर, मैं तो जुकामी चाचा हूं’’ जुकामी चाचा ने इत्मिनान से नाक सुड़कते हुये बताया।

 ‘‘अबे पुलिस से झूठ बोलता है। मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तू खूंखार आतंकवादी है। बता अब तक कितने कत्ल किये हैं?’’ दरोगा बुक्का फाड़ कर चीखा।

 ‘‘हुजूर, यह कोई आतंकवादी नहीं बल्कि वाकई में जुकामी चाचा ही हैं। लगता है आप लोगों को कोई गलतफहमी हुयी है’’ नाई ने हिम्मत बटोरते हुये मुंह खोला।

 ‘‘तू इसे कैसे जानता है?’’ दरोगा ने उसे घूरा।

 ‘‘पूरा शहर जानता हैं कि आज तक बाल कटवाने के लिये इस महाकजूंस ने एक धेला भी खर्च नहीं किया है। यह सिर्फ किसी के मौत पर ही मुंडन करवाते हैं मगर बहुत दिनों से इनके आस-पास के मोहल्लों से भी कोई आदमी उपर नहीं गया है इसीलिये इनके दाढ़ी और बाल इतने बड़े हो गये थे’’ नाई ने खुलासा किया।

 ‘‘तूने यह बात पहले क्यों नहीं बतायी?’’ दरोगा गुस्से से भड़क उठा।

 ‘‘सरकार, मैने तो कोशिश की थी पर आपने ही डपट दिया था’’ नाई ने कहा फिर मुस्कराते हुये बोला,‘‘लगता है कि जुकामी चाचा ने आज भी मुफ्त में ही मुंडन करवाने का जुगाड़ कर लिया है।’’

 बात दरोगा की समझ में आ गयी। उसकी खोपड़ी का फ्यूज उड़ गया और वह जुकामी चाचा की गर्दन दबोच कर चीख उठा,‘‘कमीने, पुलिस से मजाक करता है। जेल में सड़ा दूंगा तुझे।’’

 ‘‘हुजूर, वहां खाना तो मुफ्त का मिलेगा?’’ जुकामी चाचा ने अपनी आंखो को टिमटिमाते हुये पूछा।

 दरोगा का आज तक ऐसे आदमी ने कभी पाला नहीं पड़ा था। वह समझ गया कि ऐसे महाकंजूस से उलझना बेकार है। अतः जुकामी चाचा की गर्दन छोड़ उनकी कमर पर लात जमाते हुये दहाड़ा,‘‘भाग जा यहां से। दोबारा अगर आस-पास भी नजर आया तो टांगे तोड़ दूंगा।’’

 जुकामी चाचा सरपट भाग लिये। एक लात जरूर खानी पड़ी थी लेकिन मुंडन होने के साथ-साथ अट्ठन्नी भी बच गयी थी। अतः सौदा बुरा नहीं था। 

 मोहल्ले में पहुंच कर उन्होंने नमक-मिर्च लगा कर इस किस्से का बयान किया तो किसी भले आदमी ने इसको कहानी बना कर एक पत्रिका में छपवा दिया। जुकामी चाचा को जब पता लगा तो उनकी छाती और चौड़ी हो गयी। मोहल्ला स्तर से बढ़ कर उनका कद अब राष्ट्रीय स्तर का हो गया था। वह क
ई दिनों तक खुशी से झूमते रहे। वह बात दीगर है कि मोहल्ले के भले आदमी शर्मशार होते रहे कि उनकी मूर्खताओं के चलते शहर में पूरे मोहल्ले की बदनामी हो रही है।
यह कहानी 'पायस' पत्रिका के दिसंबर 2021 के अंक में प्रकाशित हुई है!

पता- लखनऊ उत्तर प्रदेश

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