साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Friday, July 12, 2024

बड़े चोरों के भरोसे-सुरेश सौरभ

  (व्यंग्य)   
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

बाढ़ के पानी से तमाम गांव लबालब भर चुके थे। बाढ़ सब बहा ले गयी, अब सिर्फ लोगों की आंखों में पानी ही पानी बचा था। रात का वक्त है-भूख से कुत्तों का रुदन राग बज रहा है। वहीं पास में बैठे कुछ चोर अपने-अपने दुःख का राग अलाप रहे हैं।
एक चोर बोला-सारा धंधा चौपट कर दिया इस पानी ने, सोचा था दिवाली आने वाली है कहीं लम्बा हाथ मारूंगा, पर अब तो भूखों मरने की नौबत आ गई। 
दूसरा चोर लम्बी आह भर कर बोला-लग रहा, आकाश से पानी नहीं मिसाइलें बरसीं हैं, हर तरफ पानी बारूद की तरह फैला हुआ नजर आ रहा है। 
उनके तीसरे मुखिया चोर ने चिंता व्यक्त की-हम टटपूंजिये चोरों के दिन गये। अब तो बड़े-बड़े चोरों के दिन बहुरने वाले हैं। कल गांव में टहल रहा था। बाढ़ में फंसे लोग आपस में बातें कर रहे थे कि सरकार ऊपर से राहत सामग्री बहुत भेज रही है, पर नीचे वाले  बंदर, बंदरबांट में लगे हैं, यही आपदा में अवसर, अफसरों का माना जाता है।
चौथा चोर दार्शनिक भाव में बोला-अब हम बाढ़ में फंसे पीड़ित, परेशान लोगों को क्या लूटें? चलो सुबह उन बड़े चोरों के पास चलें, जो राहत समग्री बांटते हुए गरीबों का हक जोकों की तरह चूस रहे हैं और गांव के भोले-भाले लोग उन्हें अपना भगवान मान कर उनके भक्त बने हुए हैं।
 सुबह वे चोर सरकारी राहत सामग्री पाने के लिए कतार बद्ध भीड़ में खड़े थे। उनके सामने एक अधिकारी अपने हाथ में भोंपू लिए ऐलान कर रहा था-सब लोग लाइन से ही राहत समग्री लें और जिन्हें  कल कूपन दिये गये थे उन्हें ही आज राशन मिलेगा। जिनके पास कूपन नहीं है, वे यहां फालतू में न खडे हो। हमारी टीम बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा कर रही है जो प्रभावित होंगे उन्हें ही कूपन मिलेंगे। और जो डेट कूपन पर होगी, उसी डेट पर उन्हें राहत सामग्री मिलेंगी। यह ऐलान सुन वह सारे चोर हैरत से एक दूसरे का मुंह ताकने लगे, क्योंकि किसी के पास कूपन नहीं थे। तब तीसरा मुखिया चोर बोला-कल लोग इसी के कूपन-उपन बांटने जैसी कुछ चर्चा कर रहे थे, कल यही अपने लोगों से वसूली करा रहा था। फिर उनकी इशारों से मंत्रणा हुई। सारे चोर कतारों से हट लिए। रास्ते में उनका मुखिया चोर बोला-अब हमसे बड़े-बडे़ पढ़े-लिखे चोर गांवों में आ गये हैं। अब हमें चोरी छोड़ कर नेतागीरी करनी चाहिए, शहरों में कुछ बड़े-बड़े नेता-मंत्री  हमारी पहचान के मित्र हैं, उनका यही कहना हैं। क्योंकि चोरी छोड़ कर ही, वे माननीय बने और करोड़पति भी । 
   अब सारे चोर माननीय बनने की तरतीब में बतियातें हुए जा रहे थे।  

Wednesday, March 30, 2022

भैया जी ने इण्टर के बाद एम.ए. किया-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य)  
सुरेश सौरभ

भैया जी को हल्के में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह हल्के नेता नहीं है। उनके भारी-भरकम शरीर की तरह उनका ज्ञान और विज्ञान भी बहुत भारी और भरकम है। जहां जाते हैं, बस वहीं अपनी अमिट छाप छोड़ कर चले आते हैं और चर्चा-ए-आम हो जाते हैं। बचपन में उन्होंने पहले कक्षा आठ पास किया था, बाद में लोगों के कहने पर कक्षा पांच भी पास कर लिया। मंचों पर वह अक्सर कहते थे, मैं वह एमए फर्स्ट डिवीजन पास हूं। उनकी लच्छेदार बातों पर लोगों को जब शक होने लगा, तब एक दिन विपक्षियों ने उनसे डिग्री मांगी, कहा, दिखाओ तब माने, फिर तो उन्होंने टालमटोली करनी शुरू कर दी। जब विरोधियों ने उनकी नाक में नकेल डाल कर बहुत परेशान करना शुरू किया, तो एक दिन बाकायदा उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके, अपने 'नक्षत्र विज्ञान' से एमए पास करने की डिग्री, उस समय की दिखाई जब नक्षत्र विज्ञान का कोर्स किसी विश्वविद्यालय में न था। जब इस पर, पत्रकारों ने उनसे सवाल उठाए तो वह बोले कि बस वही इतने काबिल छात्र थे जिनकी काबिलियत के दम पर फलां विश्वविद्यालय ने अकेले उनके लिए वह कोर्स चलाया था और फिर उनके कोर्स कम्पलीट करने के बाद, वह कोर्स बंद कर दिया। इसलिए उस समय वह डिग्री पाने वाले, वही एक मात्र छात्र हैं। यह भी बताया कि उन्होंने कि वह डिग्री जब हासिल की, तब इंटर के बाद डायरेक्ट एमए होता था। अब वह मंत्री पद पर रहते हुए खूब मन लगा कर, पढाई करके आगे बीए भी कर लेंगे। उनकी दूरदर्शी दृष्टि पर सभी अभिभूत हुए। आजकल वह नेता जी सत्ता की चाशनी दिन-रात चाटते हुए स्कूल कॉलेज के नौनिहालों को, युवकों को और देश की एडवाइजरी विभाग को अपने दुर्लभलतम ज्ञान से आलोकित करते हुए, अपने मन की बातों और विचारों से देश का बहुत उद्धार करने वाले सबसे टॉप क्लास के नेता बन चुकें हैं।


निर्मल नगर लखीमपुर खीरी पिन-262701
मो-7376236066

Tuesday, June 15, 2021

कोई तो बचाओ हम ऑक्सीजन उत्सर्जकों को-मधुर कुलश्रेष्ठ

व्यंग्य
प्राकृतिक ऑक्सीजन उत्सर्जक वृक्ष, घर के बड़े बूढ़ों की तरह निगाहों में खटक रहे थे। आधुनिकता की चमकीली रपटीली सड़क पर अवांछनीय तत्वों की तरह जड़ें जमाए हटने के लिए तैयार ही नहीं थे। ऐसी भी क्या परोपकारिता कि बदले में कुछ नहीं चाहिए। बस देते ही रहना व्यक्तित्व का दुर्लभ गुण। “गिव एंड टेक” वाले युग में ऐसे कुलक्षण वाले सड़क या घरों में नहीं अजायबघरों में ही अच्छे लगते हैं। कम से कम वहां टिकट के नाम पर कुछ तो धनोपार्जन हो जाता है। वृक्ष बचाओ, जंगल बचाओ के कवच में पीठ पर छुरा सहते सहते आखिर वृक्ष और वृद्ध दम तोड़ गए।

अब विकास ने चैन की सांस ली। सारे अवरोधक खत्म। फर्राटे से गाड़ी दौड़ाई जा सकेगी। गाड़ी दौड़ेगी तो न, न करते हुए भी बहुत कुछ लॉकर में समा ही जाएगा। पर हाय रे कोरोना, तुच्छ सी ऑक्सीजन के लिए हाय हाय करवा दी। पर्यावरण संरक्षण वालों, गरीबों की हिमायत वालों, एक्टिविस्टों की दुकानें चमकने लगीं। आपदा में कृत्रिम ऑक्सीजन से फेफड़े भी अघा-अघा कर दम तोड़ गए। लॉकर गले गले तक अफरा गए। लोग 99 को 100 बनाने की ललक में तरह-तरह के मंसूबे पलने लगे। हर अस्पताल में ऑक्सीजन संयत्र पर संयत्र लगाने की गंगा में डुबकियां लगीं। संयत्र बने तब तक कोरोना दम तोड़ चुका।
रात गई बात गई। ऑक्सीजन संयंत्र उपेक्षित होकर अपनी दुर्दशा पर आँसू बहाने को मजबूर। मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं। उपेक्षा से तंग आकर वृक्षों और संयत्रों दोनों ने गुहार लगाई कोई तो बचाओ हम ऑक्सीजन उत्सर्जकों को।

Monday, May 24, 2021

हमारे इंसानी रोबोट तुम्हारे रोबोट से कम हैं के

हमारे इंसानी रोबोट तुम्हारे रोबोट से कम हैं के

 

"हमारे रोबोट पाई-पाई का हिसाब होने तक कुंडली मारकर बैठे रहते हैं। चाहे कोई कितना भी गिड़गिड़ाए ऑक्सीजन सिलेंडर, दवाइयां, बेड, वेंटिलेटर देने से पहले भरपूर कालाबाजारी और अपना कमीशन वसूल करते हैं। मेरे देश के सबसे बड़े रोबोट का तो पूरे ब्रह्मांड में कोई सानी नहीं है। मन से चलता है। आदमी की नब्ज को पकड़ कर आँसुओं की धार भी लगा देता है।"

 

यहां तो इंसान ही रोबोट बना दिए। जापानी वैज्ञानिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से लैस अपने रोबोट के बारे में न केवल बता रहा था बल्कि उससे अपने निर्देशों का पालन भी करा रहा था। बहुत देर तक प्रदर्शन चलता रहा।वहां बैठे फोकटिया लाल से नहीं रहा गया। खड़े होकर बोलने लगा -ऐ भाई चुपकर, तुम और तुम्हारे रोबोट हमारे रोबोटों से क्या टक्कर लेंगे। हमारे रोबोटों का दुनियाँ भर में कोई मुकाबला नहीं है।

 Human robot head Stock Vector Image & Art - Alamy

हमारे रोबोट पाई-पाई का हिसाब होने तक कुंडली मारकर बैठे रहते हैं। हिसाब तो छोटा मोटा ही होता है मतलब केवल दस बीस लाख का। मरीज को डिस्चार्ज करना तो दूर, लाश तक परिजनों को नहीं देते हैं। चाहे कोई कितना भी गिड़गिड़ाए ऑक्सीजन सिलेंडर, दवाइयां, बेड, वेंटिलेटर देने से पहले भरपूर कालाबाजारी और अपना कमीशन वसूल करते हैं। सत्यवादी हरिश्चंद्र अपनी सत्यवादिता के कारण श्मशान में अडिग रहे थे। आधुनिक हरिश्चंद्र लाश दहन के लिए मुंहमांगी कीमत लेकर ही श्मशान में प्रवेश करने दे रहे हैं। कंधा लगाने से लेकर फूल गंगा मैया में विसर्जन करने तक, हरेक की मुंहमांगी वसूली जारी है। हर जगह मौका न चूक जाए के सिद्धांत पर अमल किया जा रहा है।

 Robots Will Now Help The Soldiers In Battlegrounds - बहुत जल्द सेना में  होगी रोबोट्स की भर्ती, यहां इस वजह से किया जा रहा है इनका निर्माण | Patrika  News

सरकारी रोबोट आदेशों का अक्षरशः पालन करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जरूरी कामों या दवाई लेने जाते हुए आम आदमी पर थप्पड़ व लाठी भांज रहे हैं। छोटे से लेकर बड़े सरकारी रोबोट, ठेकेदार, छुटभैये नेता अपने-अपने आकाओं के लिए वे छपाई मशीन बने हुए हैं। तुमने मशीन में नकली दिमाग लगाया। हमने अच्छे खासे दिमाग की कोडिंग कर भावशून्य कर दिया है। नोट की छाप तो इस कदर दिमाग में बिठा दी है कि हर जगह अवसर की तलाश रहती है, और सबसे बड़ी बात तुम्हारे रोबोट को बार बार निर्देश देने पड़ते हैं, हमारे रोबोट एक बार की कोडिंग से आजीवन चलते हैं।

 

मेरे देश के सबसे बड़े रोबोट का तो पूरे ब्रह्मांड में कोई सानी नहीं है। मन से चलता है। आदमी की नब्ज को पकड़ कर आँसुओं की धार भी लगा देता है।

मधुर कुलश्रेष्ठ


मधुर कुलश्रेष्ठ

जिला-गुना,मध्य प्रदेश

 

Monday, November 24, 2014

पाटों के बीच में-अखिलेश के० अरुण

   लिंग-विभेद विमर्श  

ए०के०अरुण


सौतेले बेटा-बेटी तो  खाली बदनाम बदनाम भर हैं. उससे कहीं ज्यादा जहालियत की मारी है तो वह केवल एक लड़की है चाहे वह सगी ही क्यों न हो। इसका सहज अनुमान केवल वही लड़की लगा सकती है. जिसके परिवार में तीन-चार लड़कियाँ हों और माता पिता को एक बेटे की लालसा हो; आश लगाये परिवार नियोजन को ताख पर रखकर बस हर साल बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाएँ वह बात अलग है कि परिवार को एक जून का निवाले का एक कौर भी नसीब न हो पा रहा हो, लड़के की जगह पर लड़कियां धड़ा-धड़ पैदा हो रही हों.वहां एक लड़के की टीस तो बनी ही रहेगी. यह मानव व्यवहार का अंग बन गया है बेटा होना ही चाहिये और हो भी क्यों नहीं बेटी बाप के घर तो रह नहीं सकती उसे तो पिया घर जाना ही है. जिनके घर जा रही हैं वे महाशय किस आचार-विचार के होगें दूसरे के माता पिता को छोड़ो अपने ही माता-पिता का दुख दरद बाटेगें कि नहीं कहा नहीं जा सकता ऐसे में किसी लड़की का क्या दोष है? वह तो अपने जान की बाजी लगा देती एक दूसरे के सुख-दुख को बाँटने के लिये कुछ ही ऐसी होगीं जो अपने कर्तव्य मार्ग से भटक जाती हैं।

 

बड़े ही दुखों में दिन काटे हैं एक एक चीज के लिये तरस जाया करती थी, खुशी के दो पल गुजारना मुश्किल हो जाता था, यह भी कोई जिन्दगी है। पर जन्म मिला है तो निर्वाह करना ही है, क्यों? किसलिये? क्यों नहीं, ढेर सारे सवाल मेरे मन को कचोट जाते थे. छोटी सी उम्र में इनका उत्तर ढूढ़ पाना मुश्किल था. जैसे-जैसे बड़ी होती गयी कुछ सच्चाईयों से तो पर्दा खुद-ब-खुद ही उठ गया, कुछ आज भी अज्ञात हैं. यह हमारी लापरवाही भी हो सकती है और भलमनसाहत भी कि जान बुझकर भी पर्दा पड़ा रहने दिया। जब मैं 4 साल की (शायद में) होऊँगी तब हम तीन बहनों के अभिशापित बाप-महतारी के घर में खुशहाली की रौनक आयी थी नहीं तो कभी बाप के मुँह पर एक प्रसन्नता के लकीर तक को न देख सकी थी. हर वक्त भृकुटी तनी रहती, बात-बात पर झिड़क देते, ‘उठा के पटक दूँगा......,मार डालूँगा........,गला घोट दूँगा न जाने और क्या क्या ......।कुछ ही याद हैं और बहुत कुछ भूल चुकी हूँ नही तो भूला भी देती हूँ। उनकी आँखें हमेशा लाल रहती थीं याद नहीं आता कि कभी दुलार से एक प्यार के लब्ज भी बोले होगें पर अब उस छोटे बच्चे के साथ बहुत खुश रहते हैं इसका अन्दाजा उनकी कनपटी तक फैलती दंतपँक्ति से ही लगाया जा सकता है। मैं चाहती भी हूँ कि वे हमेशा इसी तरह खुश रहें दुख की वह काली घटा न छाये, नहीं तो कभी उनके चेहरे की सारी रेखायें मुँह में घुसती सी जान पड़ती थी. बड़ा ही विभत्स विकराल चेहरा अचानक कोई देख ले तो डरे बिना नहीं रह सकता था, आँखे साँझ के डूबते सूरज जैसी लाल और उस पर गर्मी भी, हम तीनों बहनों को हसंते-खेलते देखते तो सूर्यग्रहण के कोरोना बन बैठते थे। इसके विपरीत माता जी से प्रेम की कुछ आँकाक्षा रहती थी किन्तु वह भी तपती धरती पर आकाशीय बादल के छाया मात्र ही, क्षण भर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होने वाली, खड़ी दोपहरी में देखते रहो ज्येठ माह का वह छाया किस तरह राह चलते पथिक को छोड़ कर भागा जा रहा हैं। पिता के अनुपस्थिति में ही यह मौका कभी-कभी हांथ लगता था नहीं तो महीनों बीत जाते थे, मन की चीज खाने को न मिलता था। रबड़ी, मलाई, बरफी तो केवल-केवल सुनने के लिये ही थे, मुये सपने में भी नहीं आते कि देखकर संतुष्टि प्राप्त कर लें। स्वप्न भी हमारे निराले होते थे उसमें भी बाप पीछा नहीं छोड़ते थे, कहाँ है?..... मर गयी क्या?.......,बैठे-बैठे.....,कुछ नहीं सुझता..........।रातों की नींद हराम हो जाती थी. उनके डाँट-फटकार से नींन उचट जाती, कलेजा जोरो का धड़कने लगता साँसे लोहार की धौकनी सी चलती, सीना जोर से फूलता-पचकता, मारे डर के पसीना से तर-बतर। मन में विचार कौंध जाता सोते हुये बाप की सूरत को देखकर भी डर लगा करता था,‘ कितनी चैन की नींद सो रहें हैं भला दिन में भी डांटते -फटकारते ही रहते हैं. स्वप्न में तों न आया करो, रोज राते को एक नहीं दो-दो ,तीन-तीन बार ऐसा हुआ करता था। सो कर उठो तो सुबह वही हाल जिस प्रकार से छोटी चिडि़या को अपने घोसले में बाज को देखकर....., भय और सिकन की रेखायें हमारे चेहरे पर हमेशा के लिये डेरा जमा चुकी थी, चाह कर भी हंस नहीं सकते थे। देह और मस्तिष्क को प्रगति के लिये शुभ अवसर ही प्राप्त न हुआ सो सवा तीन सेर के रह गये, चार किमी0 प्रतिघंटा  के रफ्तार से गति करती पुरुवा बयार में छत पर जाने से डरती थी कि पता नहीं कब बिना जीना की सीढ़ी उतरे नीचे आ जाऊँ और फिर........भगवान जाने।

 

,,,घ से दू....र का रिस्ता था. स्कूल का नाम भर ही सुने थे कैसा होता है पता नही, शायद होता भी है या नहीं किसी दूसरे लोक की बात जान पड़ती थी। घर के सामने से दो-चार,छः बच्चों की टोली बड़ी अजीब लगती थी. एक ही रंग की वेष-भुषा गले में लाल-पीली धारियों वाली रस्सी (टाई) मन में हलचल होती बाँधे जाते होंगें.........। गधें हैं सब के सब पीठ पर बोझ लादे, हमें क्या पता कि वे दुनिया की नयी युक्ति सीखने जाते हैं। हमें कभी मौका ही नहीं मिला बस हम तो खउराहा पिल्लों जैसे घर में ही दूबके रहते थे, दीवार के हर एक छोटे-बड़े चिन्हों से बाकिब जरूर थे. कहाँ गोल, कहाँ चैकोर और आड़ी तिरछी रेखायें हैं और हो भी क्यों नहीं वही तो बचपन से लेकर 16-17 वर्ष तक के उमर की साथी थीं, घण्टों कहीं खोये-खोये निहारा करते थे, रूखा-सूखा खाने-पीने के बाद यही दिन भर का काम था।

 

खाने-पीने की कमी नहीं थी नसीब में ही नही था। बाप लाखों के मालिक थे पर हम बहनों को नून ही चटाते कहते कौन ये घर को संभालेगीं, हैं तो दूसरे के घर की बसना ही, लाना तो है नहीं इनको लेके ही जाना है सो जो कुछ बच जाये वही बहुत है। वहीं छोटे भाई के लिये किसिम-किसिम के फल फलहार, मेवा-मिष्ठान और ना जाने क्या-क्या आते रहते थे (ज्यादा खिलाने-पीलाने के फेर में बिमार ही रहता था उसका दोष भी हम लोगों के मत्थे ही मढ़ा जाता, देखा नहीं जाता है न उन सबको नजर लगा दिये होगें) सुगधं भर ही नसीब होता था. बच्चे को नजर न लगे सो हम सब से चुराकर खिलाया जाता था. कभी मौका हांथ लगा था ठीक-ठीक याद नहीं केले के छिलके को उठाकर चखने का क्या गजब का मधुर स्वाद था सुगधं तो तन-मन दोनों को संतर्पित कर गया था. बाद  छिपा के रख लिया था हफ्तों सूंघती रही जब-तब वह दुर्गन्ध न देने लगा था, एक दिन चोरी पकड़ी गयी मार पड़ी सो अलग, ‘चुराकर खाती है..... यही सब सीखेगी.....जहाँ जायेगी वहाँ भी नाम रोशन.........।मार-पीट सब कुछ भूल गयी, कहाँ जाना है यही दिमाग में बैठ गया, बाप के हाथों मारी-पीटी जाना तो रोज का हमारे लिये खेल ही था चाहे जो भी कुछ हो अपना अधिकार तो हम पर जताते थे. यही बाप-बेटी का रिस्ता क्या कम था।

 

बीते उन्ही दिनों की बात है पापा किसी रिस्तेदार के घर गये थे, जब कभी ऐसा मौका हांथ लगता तो हम भी खूब मस्ती करते थे. बिना खाये-पीये ही गाल उग जाते थे. मारे खुशी के दिन भर चहकते रहते थे, मम्मी भी नहीं टोकती थी. उनमे यह परिवर्तन अच्छा लगता था, ‘कर लो आज ही भर कल से मरना बे-मौत। उस दिन खेलते-खेलते सो रहे बाबू के पास जाने का मौका मिला था। क्या खूब रंग पाया है बिल्कुल आंटे की गुथी लोई की तरह होंठ गुलाब की पँखुड़ी जैसे फूल से लाल रस चूने को हो। पहली बार तो उसे छूने को मन नही किया एक टक निहारती रही कहीं गन्दा न हो जाये. इसिलिये तो बाबूजी पास फटकने नहीं देते मन में विचार आया था। महिनों बाद आज मौका मिला था कैसे चूक जाती मारे वात्सल्य प्रेम के मैने झट से सोते उस बच्चे को चूम लिया उसके पूरे शरीर को छूआ आहिस्ता -आहिस्ता हांथ फिराया, पर उसके एक जगह के छूअन से हमे कुछ अजीब सा लगा, यह  क्या है? सोचे कुछ सूझ नहीं रहा था. मस्तिष्क अस्थिर भाव शून्य हो गया, किसी परिणाम पर नहीं जा सका, दुनिया की ढेर सारी उलझने दिमाग में कौंधने लगे फिर मैने शंका समाधान हेतु अपने पाटों के बीच में हांथ रखा खाली-खली सा आभास हुआ, मन जोरों का धड़क उठा नहीं ऐसा नहीं हो सकता अपना ही मन अपने से कई सवाल करने लगा। अतिसुक्ष्म निरीक्षण करने हेतु मैने बारी -बारी से उसको और अपने को स्पर्श किया पर परिणाम वही रहा ढाक के तीन पात उभार और खाली.....? मैं चुपचाप वहाँ से उठकर चली गयी घण्टों सोचती रही, क्या? कहीं यही तो नहीं बाप के गुस्से का कारण है। इससे उनके गुस्सा होने से क्या मतलब, अगले क्षण मैने सोचा केवल मेरे साथ ही ऐसा है या फिर दोनों बहनों के पास भी........। अन्ततोगत्वा दोपहर की नींद में सो रही उन दोनों बहनों को भी मैनें स्पर्श किया. वे भी दोनों खाली-खाली अब तो एक बात निश्चित थी कि हम लोगों के जहालत का प्रमुख करण यही था जो अब तक हमारे लिये राज.......एक... गहरा राज था जिसे अब तक मैं न जान पायी थी. अब मैं सब कुछ समझ चुकी थी  और देख भी...। हु-ब-हू तो था सब कुछ उस बच्चे जैसा ...हम बहनों के पास कुछ नहीं है तो उभार और उसके पास खाली......वह भी पाटों के बीच में....यही एक अंतर था. हम बहनों और भाई के बीच जिसका पूरा लाभ भाई को मिला खाने-पिने से लेकर पापा के लाड़-दुलार तक पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम और हमारी जैसी बहनों को जीने का हक़ नहीं है लडको की तरह आजादी नहीं है. हम भी  उनके आधी आबादी के हकदार हैं फिर वह मान-सम्मान क्यों नहीं....यह सवाल आज भी हमारे जेहन में गूँजता रहता है।

-इति-

ग्राम-हजरतपुर,पोस्ट-मगदापुर

जिला-लखीमपुर-खीरी,उ०प्र०

Kherinorth6@gmail.com

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चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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