साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Wednesday, June 09, 2021

ऐसे में बापू किसकी प्रतिमा के आगे बैठकर प्रायश्चित करते ?

 

अजय बोकिल
  एक विमर्श  

यह शायद इस सदी की सबसे ज्यादा चौंकाने वाली खबरों में से एक थी कि महात्मा गांधी की पड़पोती आशीष लता को दक्षिण अफ्रीका एक अदालत ने धोखाधड़ी के मामले में सात साल की सजा सुनाई। धोखाधड़ी की यह भारतीय रूपयों में करीब सवा तीन करोड़ की होती है। अगर रकम की ही बात हो तो जिस भारत में 14 हजार करोड़ की बैंक धोखाधड़ी करने वाले मेहुल चोकसी और नीरव मोदी तथा 9 हजार करोड़ की धोखाधड़ी कर विदेश भागने वाले विजय माल्या की तुलना में आशीष लता के घोटाले की रकम तो कुछ भी नहीं है। लेकिन दक्षिण अफ्रीका की न्याय व्यवस्था शायद ज्यादा चुस्त दुरूस्त है। एक भारतीय के नाते हमें यह खबर इसलिए क्षुब्ध करने वाली है कि आशीष लता उस बापू की पड़पोती है, जिसने जीवन भर सत्य के प्रयोग किए, जो सत्य की रक्षा के लिए लड़ा और सत्य के लिए जिया। समूचे गांधी परिवार ने इस खबर को‍ किस रूप में लिया, यह अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन इतना तय है कि गांधीउपनाम होना या उससे रक्त सम्बन्ध होना सच्चरित्रता की गारंटी नहीं है। 

 

इस देश में गांधीउपनाम से अमूमन दो परिवारों को ही लोग जानते हैं। पहले स्वयं राष्ट्रपिता यानी मोहनदास करमचंद गांधी और दूसरा है देश का शीर्ष राजनीतिक गांधी परिवार।पूर्व प्रधानमंत्री श्री मती इंदिरा गांधी के पति फीरोज जहांगीर का असल उपनाम घांडी था। वो पारसी थे। लेकिन कहते हैं कि  महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने अंग्रेजी में अपने नाम की स्पेलिंग घांडीसे बदलकर गांधीकर ली थी। जवाहरलाल नेहरू के बाद से ही यह गांधी परिवार कांग्रेस पार्टी की धुरी बना हुआ है। स्व. इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया और अब राहुल गांधी तक का सफर तो हमें अच्छे से पता है। उनके चारित्रिक बदलाव और प्रतिबद्धता का ग्राफ भी हमारे सामने है, लेकिन महात्मा गांधी के वंशज असलीगांधियों के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते। सिवाय इक्का-दुक्का नामो के, जैसे इला गांधी, गोपाल कृष्ण गांधी या तुषार गांधी आदि। गांधी परिवार के सभी लोग, जो अब दुनिया के कई देशों में फैले हैं, मोटे तौर पर अपने प्रेरणा पुरूष बापू के विचारों के इर्द गिर्द ही जिंदगी जीते रहे हैं। लेकिन यह कोई मठवादी परंपरा नहीं है। कुछ ‍परिजन समाज सेवा और मानव सेवा से जुड़े हैं तो कुछ किताबें लिख रहे हैं। यानी जो जहां भी हैं, ‘गांधीउपनाम की आभा उन्हें किसी न किसी रूप में प्रकाशित करती रहती है।

 

आशीष लता रामगोबिन भी उन्हीं महात्मा गांधी की पड़पोती हैं और दक्षिण अफ्रीका में रहती हैं। गांधीजी के चार बेटों में से मणिलाल 1917 में वापस दक्षिण अफ्रीका लौट गए थे और बाद में वहीं रहे। उन्हें गांधी के आज्ञाकारी बेटों में गिना जाता था। मणिलाल ‍दक्षिण अफ्रीका में बापू द्वारा स्थापित फिनिक्स आश्रम में रहते थे और इंडियन अोपिनियननामक द्विभाषी ( अंग्रेजी व गुजराती) पत्र का संपादन करते थे। उनका निधन भी बापू की हत्या के 9 साल बाद दक्षिण अफ्रीका में हुआ। उन्हीं मणिलाल की एक बेटी हैं, इला गांधी रामगोबिन। ख्यात मानवाधिकार कार्यकर्ता इला ने मेवा रामगोबिन से शादी की थी। इला की बेटी है 56 वर्षीय आशीष लता रामगोबिन।

 

यूं बापू के वशंज भी कभी-कभार विवादों में घिरते रहे हैं, लेकिन कोई धोखाधड़ी के आरोप में जेल जाएगा, यह सोचना भी वैसा ही है कि जैसे सेना में भर्ती होने गया कोई जवान अचानक किसी आंतकी संगठन में शामिल हो जाए। आशीष लता पर आरोप था कि उन्होंने एक  उद्योगपति एस.आर. महाराज के साथ कारोबार में धोखाधड़ी की। कोर्ट ने पाया कि एसआर महाराज ने लता को कथित रूप से भारत से एक ऐसी खेप के आयात और सीमा-शुल्क के क्लियरिंग के लिए 62 लाख रैंड ( अफ्रीकी मुद्रा)  दिए थे, जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। इसमें उन्हें लाभ का एक हिस्सा देने का भी वादा किया गया था। यह मामला वर्ष 2015 का है। उस वक्त दक्षिण अफ़्रीका के राष्ट्रीय अभियोजन प्राधिकरण (एनपीए) के ब्रिगेडियर हंगवानी मूलौदजी ने कहा था कि आशीष लता ने संभावित निवेशकों को यकीन दिलाने के लिए कथित रूप से फर्जी चालान और दस्तावेज़ दिए थे कि भारत से लिनेन के तीन कंटेनर आ रहे हैं।‍ तब लता को 50 हजार रैंड ( दक्षिण अफ्रीकी मुद्रा) की जमानत पर रिहा किया गया था।

आशीष लता ने 'न्यू अफ़्रीका अलायंस फ़ुटवेयर डिस्ट्रीब्यूटर्स' के निदेशक एसआर महाराज से अगस्त 2015 में मुलाक़ात की थी। महाराज की कंपनी कपड़े, लिनेन, जूते-चप्पलों का आयात, निर्माण और बिक्री करती है। उनकी कंपनी प्रॉफिट मार्जिन के तहत दूसरी कंपनियों की आर्थिक मदद भी करती है।

 

लता ने महाराज को भरोसा दिलाया कि भारत से  मंगवाए लिनेन के 3 कंटेनरों को साउथ अफ्रीकन हॉस्पिटल ग्रुप नेट केयरको डिलीवर करना है। इसके लिए उन्हें पैसों की जरूरत है। लता ने महाराज को नेट केयर कंपनीसे जुड़े दस्तावेज भी दिखाए। इस पर महाराज ने लता के साथ डील कर पैसे दे दिए। जबकि हकीकत में लिनेन का कोई कंटेनर भारत से नहीं आया। इस फर्जीवाड़े का पता चलने के बाद महाराज की कंपनी के डायरेक्टर ने लता के खिलाफ कोर्ट में केस दायर कर दिया। जिस पर फैसला अब हुआ है। गौरतलब है कि आशीष लता 'इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर नॉन-वायलेंस' नामक एक गैर सरकारी संगठन के एक प्रोग्राम की संस्थापक और कार्यकारी निदेशक थीं, जिन्होंने ख़ुद को पर्यावरण, सामाजिक और राजनीतिक हितों का ध्यान रखने वाली कार्यकर्ता बताया था। लेकिन हकीकत में वो यह सब फर्जीवाड़ा  कर रही थीं। लता ऐसा क्यों कर रही थीं? क्या उन्हें अपने गांधी परिवार से रक्त सम्बन्धों का ध्यान नहीं था? यदि था तो धोखाधड़ी के इस कृत्य से बापू के नाम पर लगने वाले बट्टे का उन्होंने कभी विचार किया भी था या नहीं, कहना मुश्किल है।

 

दरअसल हर वंश या कुल में एक दो कीर्ति पुरूष/ महिला ही होते/होती हैं। बाकी पीढि़यां केवल उनके पुरूषार्थ की जुगाली और विरासत की रोटियां खाकर जिंदा रहती हैं और यदा-कदा इतराती रहती हैं। क्योंकि उच्च और असाधारण आदर्शों के लिए जीना, अपने उसूलों पर डटे रहना और समूची मानवता के लिए खुद को समर्पित कर देना एवरेस्ट की उस चढ़ाई जैसा है, जिसका रास्ता भी खुद ही बनाना होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो महामानवों के वंशज सामान्य मनुष्य ही होते हैं, आम गुण-दोषों से युक्त और जीवन को इच्छाअों और मोह के वशीभूत जीते हुए। बापू को हम महामानव की तरह पूजतें हैं, लेकिन ईश्वर का अंशावतार माने जाने वाले राम और कृष्ण के वंशजों की भी इतिहास रचने या उसे आगे बढ़ाने में कोई विशेष भूमिका रही हो,  हमें याद नहीं है। इस दृष्टि से आशीष लता का चरित्र एक आम इंसान और कुटिलताअों को जिंदगी की अनिवार्य शर्त मानने वाली महिला का चरि‍त्र है। ऐसे लोगों के लिए अपने कुल के आदर्श पुरूष का महान चरित्र भी किसी सजे मंच के बैक ड्राॅप से ज्यादा अहमियत नहीं रखता।

 

यहां एक सवाल जरूर मन को मथता है ‍कि आज अगर बापू जिंदा होते ( हालांकि उनके एक बेटे ने बापू के जीते जी उनसे बगावत कर दी थी) तो इस घटनाक्रम पर क्या सोचते? अपने मूल्यों और नैतिक आदर्शो की वास्तविकता को किस चश्मे से देखते? अपने अहिंसा के अडिग आग्रह ( बापू की निगाह में भ्रष्टाचार भी हिंसा ही होती) को किस तराजू पर तौलते? छल बल से परे आत्म बल से साधारण इंसान को भगवान बनाने के अपने आध्यात्मिक प्रयोग का औचित्य किस रूप में आकते? इस बारे में सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। हम लोग तो अमूमन अतंर्द्वद्व और आत्मग्लानि के मौकों पर बापू की प्रतिमा के आगे मौन धरकर आत्म‍‍शुद्धि के लिए बैठ जाते हैं। लेकिन बापू अपनी पड़पोती की यह खबर पढ़कर किसकी प्रतिमा के आगे और कैसे प्रायश्चित करते ? क्योंकि आशीष लता का कृत्य तो सत्यनिष्ठा में ही सुरंग लगाने जैसा है। क्या यह दीया तले अंधेरे जैसी स्थिति नहीं  है? आप क्या सोचते हैं? 

 

(वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मप्र-9893699939)

Monday, June 07, 2021

सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती जी के प्रति रणदीप हुड्डा की कलुषित मानसिकता

-अखिलेश कुमार 'अरुण'
मिस मायावती 2 बच्चों के साथ गली में जा रही थीं। वहां खड़े एक व्यक्ति ने उनसे पूछा- क्या ये दोनों बच्चे जुड़वां हैं? इसके जवाब में उन्होंने कहा- नहीं, यह 4 साल का है और वह 8 साल का है। इसके बाद उस आदमी ने कहा- मुझे विश्वास नहीं होता कि कोई आदमी वहां दो बार भी जा सकता है।'


सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए लोग किस हद तक गिर सकते हैं. यह हम रणदीप हुड्डा से सीख सकते हैं. इन लोगों का बस चले तो आज भी दलित/वंचितों को पैर का धूल बना कर रखें, यह आज जो सेलिब्रिटी बना हुआ है वह वंचितों की देन है. मजदूर,रिक्सा चालक, फेरीवाला, आदि अपने दिन भर के कामों से थक हार कर आज भी सस्ते/महंगे मोबाइल के यूट्यूब पर इनकी अभिनीत फिल्मो को देखकर इन्हें स्टार बनाते हैं उनका व्यूवर बढ़ाते हैं ....यह यहीं तक सिमित नहीं रहा है गाँव के परिवेश टीवी,वीसीआर/डीवीडी/वीसीडी से लेकर शहर के सिनेमा हाल तक में वंचित तबके की ही भीड़ होती है. जहाँ पर फिल्म के एक-एक दृश्य पर हूटिंग और तालियों की गड़गड़ाहट सुनाने को मिलता है वह यही काले और नस्लीय जाति भेद के लोग हैं जिनकी इज्जत यह सरे आम तार-तार कर रहा है.

पुराने वायरल अंग्रेजी वीडियो का हिंदी सार जिसमे यह शख्स कहता है' मिस मायावती 2 बच्चों के साथ गली में जा रही थीं। वहां खड़े एक व्यक्ति ने उनसे पूछा- क्या ये दोनों बच्चे जुड़वां हैं? इसके जवाब में उन्होंने कहा- नहीं, यह 4 साल का है और वह 8 साल का है। इसके बाद उस आदमी ने कहा- मुझे विश्वास नहीं होता कि कोई आदमी वहां दो बार भी जा सकता है।' जातीय और रंगभेद पर यह तंज है, विडिओ लिंक https://youtu.be/_0VOcRSbVAE हिसार (हरियाणा) में ऍफ़ आई आर दर्ज की जा चुकी है पर इतने से कुछ नहीं होगा जब तक की कोई ठोस कानून नहीं बनाया जाता जिस सेलिब्रेटी के मन में जो आये वंचित समुदाय के प्रतिष्ठित नेताओं पर अनाप-शनाप बोलकर रातों-रात स्टार बन जाता है. जितनी छवि अभिनेता अपने काम को लेकर नहीं बना पता है उसे कहीं ज्यादा बाबा साहब, कांशीराम, मायावती, मुलायम सिंह, लालू यादव के साथ साथ जातिसूचक चोरी-चमारी, भंगी जैसा नहीं दिखाना चाहती, अहीर समझ रखे हो का, आदि-आदि शब्दों का इस्तेमाल कर लोग चमक जाते हैं. और हम प्राथमिकी दर्ज कराकर बस खुश हो जाते हैं ऐसे में हमारी और हमारे समाज की छवि कभी भी नहीं सुधर सकती और नहीं सुधारी जा सकती है.


रणदीप हुड्डा की पहली फिल हाईवे देखे थी एक दो सीन को छोड़ दें तो और सब समान्य था कीन्तु अभिनय अच्छा लगा. पहली बार में ही उसके अभिनय का कायल हो गया था. लगे हाथ सर्वजीत भी देख लिये किन्तु उसके अभिनय में कहीं ऐसा नहीं लगा की यह ओछी मानसिकता का व्यक्ति है. यह भ्रम भी आज टूट  गया आखिर इसने अपनी जातीय मानसिकता को उजागर कर ही दिया. हमको ऐसे लोगों से घृणा क्यों हो जाती है?????? या ये सबके सब घृणा लायक ही होते हैं, नहीं ऐसा नहीं है सब एक जैसे नहीं हो सकते लेकिन इस अभिनेता से यह उम्मीद नहीं थी.
जाति है की जाती नहीं है, जाति तुम कब जाओगी हमारे दिल, दिमाग और देश से कर्म के आधार पर कब लोग यहाँ (भारत में) सम्मान पायेंगे?????????????????????????? अनंत तक यह एक अनुत्तरित प्रश्न बनकर ही रह जायेगा, शायद सदा के लिए.

UN ने ब्रांड अम्बेसडर के पद से हटाया, हमने अपने दिलोदिमाग से और आप?????? 


लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार/साहित्यकार हैं.
पता-ग्राम हजरतपुर, लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश-262804

Sunday, June 06, 2021

एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों के 'ईडब्ल्यूएस आरक्षण' पर उठने लगे गंभीर सवाल और साबित होने लगे आरोप- नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श

विडंबना:उप मुख्यमंत्री और उच्च शिक्षा मंत्री डॉ.दिनेश शर्मा (प्रोफेसर) राज्य विश्वविद्यालयों में भर्ती विज्ञापनों को देखकर इस विषय पर विचार करने की बात कह रहे हैं!


उच्च शिक्षा में ईडब्ल्यूएस में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया और कानूनों-मानकों की अनदेखी की आड़ में घोटाला करते विशेष वर्ग के शिक्षाविद

N.L.Verma 



         कपिलवस्तु-सिद्धार्थ नगर स्थित सिद्धार्थ विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग की एकमात्र रिक्ति पर राज्य के बेसिक शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. सतीश चंद्र द्विवेदी के भाई डॉ. अरुण कुमार द्विवेदी की ईडब्ल्यूएस(आर्थिक रूप से निर्बल सामान्य वर्ग) आरक्षण के तहत असिस्टेंट प्रोफेसर के पद हुई नियुक्ति का प्रकरण सोशल मीडिया और विपक्षी राजनैतिक गलियारों में शोर-शराबा मचने के बाद अपने भाई की राजनैतिक छवि बचाने की दुहाई देते हुए डॉ. अरुण द्विवेदी ने अपरिहार्य कारण का उल्लेख करते हुए कार्यभार ग्रहण करने के कुछ दिनों के बाद इस्तीफ़ा देकर प्रकरण का पटाक्षेप करने का प्रयास किया था। सोशल मीडिया से लेकर राजनैतिक विपक्षियों के ख़ेमे में भाई की नियुक्ति में विश्वविद्यालय और जिला प्रशासन के साथ भाई मंत्री  की संलिप्तता को उजागर कर उनके मंत्रित्वकाल काल मे खरीदी गई अचल संपत्तियों का भी खुलासा होने में देर नही लगी। ईडब्ल्यूएस प्रमाणपत्र बनाने से लेकर नियुक्ति और कार्यभार ग्रहण करने तक विश्वविद्यालय स्तर पर ईडब्ल्यूएस के मानदंडों की जानबूझकर जो अनदेखी और अनियमितता हुई हैं, सभी स्तरों पर बिंदुवार न्यायिक जांच का विषय है। ईडब्ल्यूएस के मानकों की जानबूझकर अनदेखी और शिथिलीकरण संविधान का उल्लंघन मानकर प्रकरण की प्रत्येक संलिप्त और दोषी को दंडित किया जाना बहुत जरूरी है जिससे कानून कायदों की आड़ में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने की दिशा में कारगर सिद्ध हो सके।अन्यथा ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मानकों की आड़ में विश्वविद्यालयों में बैठे जातीय घाघों का यह सिलसिला चलता रहेगा और गरीब लोगों का आरक्षण ऐसे छुपे भेड़िये गटकते रहेंगे।

         द्विवेदी भर्ती प्रकरण के बाद ईडब्ल्यूएस आरक्षण में क़ायदे-कानूनों के पालन में जानबूझकर की जा रही अनदेखी, अनियमितताओं और उपेक्षाओं पर ध्यानकेंद्रित होना शुरू हुआ है।दरअसल, ओबीसी,एससी और एसटी के तथाकथित शिक्षित और नौकरीपेशा तक के लोगों को  ईडब्ल्यूएस के मानकों की जानकारी नही है तो फिर वे ईडब्ल्यूएस आरक्षण में हुई अनियमितताओं पर सवाल और आपत्तियां कैसे कर सकते है? विडंबना देखिए सामान्य वर्ग के निर्बल वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के आरक्षण पर सवाल,आपत्तियां और कानूनी लड़ाई लड़ने वाला याचिकाकर्ता डॉ. एनके पाठक सामान्य वर्ग से ही ताल्लुक़ रखते हैं। उनका कहना है कि एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर बांछित सेवाकाल अनुभव वाला ईडब्ल्यूएस आरक्षण की परिधि में आय के दृष्टिकोण से कैसे आ सकता है? सातवें वेतन आयोग की अनुशंसा के आधार पर असिस्टेंट प्रोफेसर का मूल वेतन ₹57700 है।इस पर निर्धारित दर से डीए और एचआरए शामिल करते हुए नवनियुक्त को लगभग ₹75000 मासिक वेतन मिलता है, तो एसोसिएट प्रोफेसर पद पर आवेदन करने के लिए आठ साल और प्रोफेसर पद के लिए दस साल की सेवा काल की अनिवार्यता पूरी करने वाला अभ्यर्थी ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मानकों की परिधि में कैसे आ सकता है? ईडब्ल्यूएस को परिभाषित और मानक तय करते समय केंद्र सरकार की अधिसूचना के हिसाब से अभ्यर्थी के "परिवार" की समस्त स्रोतों से "वार्षिक आय आठ लाख रुपये" से अधिक नही होनी चाहिए।अधिसूचना में परिवार को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अभ्यर्थी के परिवार में "वह स्वयं,उसकी पत्नी/पति और उसके माता-पिता" को शामिल कर उस परिवार की कुल वार्षिक आय की गणना की जाएगी जो अन्य निर्धारित मानकों के साथ आठ लाख रुपये से अधिक नही होनी चाहिए।

          प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों में होने वाली भर्तियों में "एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर " के पदों पर सरकार द्वारा सामान्य वर्ग के 'ईडब्ल्यूएस को दिए जाने वाले 10% आरक्षण' में आय संबंधी मानकों की जानबूझकर की जा रही अनदेखी और भर्ती प्रक्रिया पर गंभीर सवाल और आरोप लगना शुरू हो गए हैं, क्योंकि एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर भर्ती के लिए वांछित अनिवार्य सेवाकाल (असिस्टेंट प्रोफेसर पद पर क्रमशः आठ और दस साल) का अनुभव रखने वाले अभ्यर्थी और उसके परिवार की वार्षिक आय ईडब्ल्यूएस के मानक की परिधि में नही आ सकती है अर्थात वह आरक्षण का हकदार कैसे हो सकता है? एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पद पर आवेदन की अनिवार्य शर्त है कि उसने असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कम से कम क्रमशःआठ साल और दस साल तक  अध्यापन कार्य या इसके समकक्ष पद पर किसी संस्थान में आठ/दस साल तक शोध कार्य कार्य किया हो।

            सातवें वेतन आयोग की अनुशंसा के अनुसार असिस्टेंट प्रोफेसर या उसके समकक्ष पद पर आठ /दस साल तक कार्य करने वाले व्यक्ति का वेतन इतना हो जाता है कि उसके ईडब्ल्यूएस में आने की कोई गुंजाइश या संभावना ही नही रह जाती है।ईडब्ल्यूएस आरक्षण का विवाद तब तूल पकड़ा जब राज्य विश्वविद्यालयों ने एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर भर्तियों के लिए विज्ञापन जारी कर दिए।दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर ने 6 मई,2021 को, जिसकी आवेदन करने की अंतिम तारीख सात जून है,ईडब्ल्यूएस आरक्षण में असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों के साथ एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों को भी विज्ञापित कर दिया। इससे पहले इसी तरह सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु-सिद्धार्थनगर ने भी ईडब्ल्यूएस आरक्षण में तीनों पदों पर भर्ती विज्ञापन जारी कर दिया था।यह सब अनजाने या ग़लतफ़हमी में नही हुआ बल्कि,उच्च शिक्षा जगत में लंबे समय से कब्जा जमाए बैठे एक विशिष्ट वर्ग की सोची-समझी साजिश और दूरगामी रणनीति के तहत जानबूझकर अनदेखी करने का षडयंत्र रचा गया प्रतीत होता है।सिद्धार्थ विश्वविद्यालय ने बाकायदा इन रिक्तियों पर भर्ती प्रक्रिया तक पूरी कर डाली थी।हांलाकि इस विज्ञापन के ईडब्ल्यूएस आरक्षण के पद नही भरे जा सके थे।लखनऊ विश्वविद्यालय में अभी रिक्तियों पर भर्ती प्रक्रिया ही शुरू नही हुई है।लखनऊ स्थित मोइनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय में तो असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर ईडब्ल्यूएस आरक्षण में एक नियुक्ति तक हो चुकी है।

लखीमपुर-खीरी (यूपी) 9415461224,8858656000

Saturday, June 05, 2021

जातीय ऊँच-नीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के दो छोरों/सिरों के बीच की प्रेम कहानी-(नन्दलाल वर्मा)

"औरत की कोई जात नहीं होती" कहानीकार-विपिन बिहारी (जातीय ऊँच-नीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के दो छोरों/सिरों के बीच की प्रेम कहानी)....

नारी-विमर्श (नन्दलाल वर्मा एसोसिएट प्रोफेसर) 

नन्द लाल वर्मा


कहानी-समीक्षा

    कहानीकार श्री विपिन बिहारी की  "डिप्रेस्ड एक्सप्रेस" के अप्रैल अंक में प्रकाशित उपर्युक्त शीर्षक की कहानी पढ़ी जिसमें अंतरजातीय विवाह के सामाजिक सरोकारों को झकझोरने के साथ छद्म आम्बेडकरवादियों की बेहतरीन मनोरंजक विधाओं/कथानकों के माध्यम से पोल खोलने का सटीक प्रयास किया गया है।कहानी जातीय ऊँच-नीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के दोनों छोरों/सिरों की कलई खोलती नज़र आती है।कहानी अत्यंत रोचकता और रोमांचकता के साथ सहज रूप से पठनीय है।इस कहानी में एक तथाकथित ब्राम्हण की लड़की (शालिनी) और एक दलित लड़का सुभाष के साथ कॉलेज अध्ययन के दौरान दोनों के बीच मानवीय संवेदना और आकर्षण की वजह से एक दूसरे की जाति जाने बगैर प्रेम हो जाता है। सुभाष पढ़ने में प्रखर और शारीरिक रूप से भी गठीला व सुंदर है और शालिनी भी किसी मामले में सुभाष से कमतर नही है। शालिनी के पास एक मानवतावादी और वैज्ञानिक आधुनिक सोच-समझ और निर्णय लेने की क्षमता और साहस है।ब्राम्हण परिवेश/पृष्ठभूमि में पैदा और पली-पढ़ी-बढ़ी शालिनी समाज और धर्म की आड़ में चल रही शोषणकारी कुरीतियों और आडंबरों की पोल-पट्टियों को भी अच्छी तरह समझती है।


          शालिनी द्वारा सुभाष के सामने विवाह प्रस्ताव आने पर एक दूसरे की सामाजिक पहचान का खुलासा होता हैं।सुभाष सामाजिक जातीय भेदभाव- संकटों की ओर आगाह करते हुए कहता है कि भारतीय समाज में विवाह के लिए प्रेम ही काफी नही है, जाति सबसे जरूरी है।यहां विवाह लड़का-लड़की के बीच ही नही होता है, बल्कि विवाह जाति के बीच भी होता है।दोनों मंदिर में विवाह करने के निर्णय के बजाय कोर्ट मैरिज का निर्णय लेते हैं।शालिनी और सुभाष की इस प्रेम और विवाह के निर्णय की कहानी 
की सुभाष के घरवालों ,गांववालों और नाते-रिश्तेदारों को भनक तक नही लगी है।

प्रसाद की दृष्टि में नारी का स्वरूप | डॉ॰ वसुन्धरा उपाध्याय | आरंभ        
शालिनी और सुभाष द्वारा कोर्ट मैरिज करने के निर्णय की जानकारी जब शालिनी के परिवार और नाते रिश्तेदारों को पता चलता है तो उन्हें सांप सूंघ जाता है,उनके ऊपर पहाड़ टूट पड़ता है और सारे नाते-रिश्तेदारों द्वारा ब्रम्हमुख से पैदा ब्राम्हण की कुलीन महत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा की दुहाई  देकर शादी करने के  निर्णय को बदलने के लिए हर संभव भरपूर कोशिश और दबाव बनाने के सभी प्रयास करने में कोई कोर-कसर नही छोड़ी जाती है। परिवार और समाज के लोगों के बीच शालिनी के ऊपर पारिवारिक और सामाजिक श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा के साथ जाति की कुलीनता की दुहाई देते हुए प्रताड़ित करने के प्रयास और हत्या की धमकी जैसे उपक्रम का भी प्रयोग किया जाता हैं। गांव के ब्राम्हणों और रिश्तेदारों की पंचायत में शालिनी के दुस्साहसिक अडिगता को देखकर उसे कमरे में बंद कर थोड़े दिनों में शादी का भूत उतर जाने की बात कहकर उसे डराने,धमकाने और अपने को सांत्वना देने की कवायद भी की जाती है।डराने की नीयत से शालिनी और सुभाष की हत्या जैसी बन्दर-घुड़कियां भी दी जाती है।लेकिन हत्याओं के बाद उपजने वाले पुलिस और कोर्ट के कानूनी पचड़ों और आर्थिक संकटों के डर से घरवाले अपनी ज़िद छोड़ देते हैं। शालिनी के अटल निर्णय को भांपते हुए और समाज के लोगों द्वारा दिये गया यह आश्वासन "कि शालिनी के अंतरजातीय विवाह से तुम्हारे सामाजिक मान-सम्मान के प्रति समाज की नज़र में कोई फर्क नही पड़ेगा" भरे और दुखी मन से शालिनी को उसके हाल पर छोड़ दिए जाने के निर्णय हेतु घरवालों को विवश होना पड़ता है। 


          कोर्ट मैरिज करने के बाद जब शालिनी और सुभाष अपने गांव -घर पहुंचते है तो सुभाष के माता-पिता के सामने दूसरे प्रकार के संकट खड़े दिखाई देते है। सुभाष की मां के मन मे उपज रहे कई तरह के आशंकाओं भरे प्रश्नों के तीरों की बौछार का सामना शालिनी अत्यंत समझदारी और शालीनता से मुस्कुराते हुए उनको निरुत्तर बना देती है। इकलौते बेटे की शादी में खूब दान-दहेज़ मिलने या मांगने के सपने देख रहे माता-पिता पर वज्रपात जैसा असर पड़ता दिखाई देता है। शुरुआत में शालिनी की जाति पर सभी लोग सशंकित दिख रहे हैं और जब पता चलता है कि शालिनी ब्राम्हण है तो गांव के सुभाष की बिरादरी के लोग शालिनी को टकटकी बांधकर आश्चर्यजनक ढंग से निहारते हुए नज़र आते हैं और जिसके मन मे जो आता है ,सहज भाव से अपनी-अपनी अभिव्यक्ति दिए जाने का सिलसिला जारी रखता हैं।कोई कहता है कि " सुभाष की अम्मा,अहो भाग्य तुम्हारा! जो तुम्हारे घर में बम्हनी बहू ने कदम रखे है! तुम्हारा घर-द्वार सब पवित्तर हो जाएगा और धन-धान्य से भर जाएगा।" उधर एक पिता के सारे सपने चकनाचूर होते नज़र आ रहे हैं और सुभाष की माता को एक अदृश्य भय सताने लगता है।उन्होंने कहीं यह सुन रखा है कि ऐसी बहुएं ससुराल-घर के साथ नही रहती है,पति को अपने कब्जे में कर लेती हैं और मायके से यह कसम खाकर आती हैं कि अपने माँ बाप की तरह पति को भी उसके मां - बाप से अलग कर देती हैं और रिश्तेदारी -बिरादरी तक छुड़वा देती है। उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई देता है।बिरादरी के समझाने पर सारी शंकाओं और आशंकाओं के बीच शालिनी को बहू स्वीकारते और पूरी मान्यता देते हुए ससम्मान विधि-विधान से घर मे प्रवेश कराया जाता है।


           शालिनी एक सुशिक्षित और समझदार लड़की है।दलित परिवार में भी नौ दुर्गा व्रत जैसे धार्मिक अनुष्ठानों और आडंबरों को देखकर वह और भी चकित होती है कि ब्राम्हण तो धर्म को जानता है और धर्म उसके लिए एक धंधा/आजीविका का साधन रहा है।इसलिए धार्मिक अनुष्ठानों/उपक्रमों के माध्यम से उसे ज़िंदा रखना उसका धर्म बनता है। किंतु यह भोला-भाला दलित समाज धर्म को न जानते हुए भी धर्म की चादर ओढ़े उसके भंवरजाल में फंसा हुआ है। वह ऐसे लोगों को छद्म अंबेडकरवादियों की संज्ञा देती है जिनके घर मे हिन्दू देवी- देवताओं की मूर्तियों के बीच में डॉ.आम्बेडकर की भी एक फोटो या मूर्ति रखी दिखती है। शालिनी अपनी शिक्षा और आधुनिक/मानवतावादी सोच से सुभाष के घर के माहौल को बदलने की सफलता के बाद उस दलित समाज मे डॉ.आंबेडकर के मानवतावादी और समतामूलक समाज की अवधारणा पर आधारित असली दर्शन और वैचारिकी के माध्यम से सामाजिक जागरूकता फैलाने का अभियान चलाने की इच्छा ज़ाहिर करती है,तो सुभाष और घरवाले उसे सहर्ष स्वीकार करते हुए उसे अपने पंखों से उड़ने और विचरने की पूरी आज़ादी देते है।शालिनी के इस सामाजिक जनजागरण अभियान में उसकी दोनों पढ़ी-लिखी ननदे भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं।


              हमारे समाज की ऊँच-नीच की जातीय व्यवस्था में भी अजीबोग़रीब क़ानून-कायदे होते हैं।जब कोई ब्राम्हण जाति की लड़की किसी दलित लड़के से प्रेम विवाह कर लेती है तो कथित उच्च जातियों और मीडिया में भूचाल सा आ जाता है और मीडिया को इससे ज्यादा टीआरपी बढ़ाने का दूसरा सर्वाधिक प्रभावकारी मिर्च-मसाला नही दिखता है।समाज, मीडिया और राजनीति में दिन-रात ऐसी बहसें छिड़ी रहती हैं और कोहराम मचता है जैसे कोई प्रलयकारी समुद्री तूफान से सामाजिक तानेबाने और जान-माल का खतरा पैदा हो गया हो।जाति की श्रेष्ठता रूपी सम्मान और उनकी राजनीति को ऐसा लगता है,जैसे लकबा मार गया हो। लेकिन जब कोई दलित लड़की किसी गैर दलित लड़के से प्रेम विवाह कर ले तो उस पर उतना हायतोबा क्यों नही मचता है ? यह एक सामाजिक साज़िश/रहस्य मेरी समझ से परे है।अंतरजातीय विवाह के भी कुछ अनसुलझे सवाल,समस्याएं और आशंकाएं हैं जिनका उत्तर ढूंढना आसान नही है।दलित लड़के के साथ किसी अन्य कथित श्रेष्ठ जाति की लड़की के प्रेम विवाह में दलित समाज के लड़के और घरवालों पर जानमाल का खतरा सदैव मंडराता रहता है।


           इस कहानी में सामाजिक-धार्मिक विषयों के वे प्रसंग और संवाद बेहद मार्मिक और यथार्थपरक हैं जो सामाजिक/धार्मिक व्यवस्था की अभिन्न और अमिट मान्यताओं का जटिल रूप धारण किए हुए हैं।भारतीय समाज में प्रेम, वह भी अन्तरजातीय प्रेम और सामाजिक व्यवस्था में ऊँच-नीच के दो छोरों/सिरों के बीच प्रेम जैसी स्थिति को सामाजिक और धार्मिक संकट के रूप में देखा जाता है।सामाजिक व्यवस्था की तथाकथित नीच जाति और सर्वश्रेष्ठ जाति के बीच तो सामाजिक महासंकट ही नही कईयों के जीवन-मरण का संकट खड़ा दिखाई देता है और स्थिति तब और भयानक और विकराल रूप धारण किए हुए दिखाई देती है जब यह सब तथाकथित सबसे नीच जाति ( दलित) का लड़का और ब्रम्हमुख उत्पन्न सर्वश्रेष्ठ और कुलीन ब्राम्हण जाति की लड़की के बीच घटित होता है।कहानी में शालिनी-सुभाष का प्रेम प्रस्ताव और उसके बाद विवाह के निर्णय के सामाजिक व्यवस्थापरक संवाद,विवाह निर्णय की जानकारी के बाद उस ब्राम्हण परिवार में माता-पिता के सामने उपजे जातीय श्रेष्ठता,प्रतिष्ठा और धार्मिक संकट / उलझनें,शालिनी के सूझबूझ भरे विद्रोही तेवर से समाज के सामने खड़े होने वाले भावी सामाजिक संकट और उसके बाद घर पहुंचने पर अदभुत और अकल्पनीय अदृश्य भय और आशंकाओ के कथानकों में सामाजिक, दर्शन दिखाई देता है जो अंदर तक झकझोरता हैं। बहुजन पाठकों को इस कहानी को अवश्य पढ़ना चाहिए।मेरे विचार से आनंद और रोमांच से परिपूर्ण यह कहानी डॉ आंबेडकर की  वैचारिकी/दर्शन से काफी सन्निकट और उत्प्रेरित लगती है,क्योंकि अंत मे शालिनी अपनी ननदों को अंतरजातीय विवाह के फायदे(जातीय कट्टरता में कमी आना, संतान तेजतर्रार और सोचने-समझने की शक्ति में बदलाव के साथ उच्च आई.क्यू की पैदा होती है) बताते हुए उन्हें जाति के बाहर शादी करने के लिए प्रेरित करती है।
         

 लखीमपुर-खीरी (यूपी 9415461224, 8858656000

Friday, June 04, 2021

आरएसएस नियंत्रित बीजेपी सरकार में ओबीसी के वेलफेयर की उम्मीद/कल्पना करना सबसे बड़ी भूल:

एक विमर्श  वंचित समाज के लिए
नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर) 


             ज ओबीसी से संबंधित सोशल मीडिया/साइट्स पर एक ख़बर काफी तेजी से प्रचारित हो रही है। खबर यह है कि बीजेपी के यूपी पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के अध्यक्ष और सीतापुर लोकसभा मा.सांसद श्री राजेश वर्मा को संसद की "ओबीसी वेलफेयर संबंधी संसदीय समिति " का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है,इस पद को राज्यमंत्री स्तर का दर्जा प्राप्त है।ओबीसी विशेषकर कुर्मी/पटेल समाज के राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय सामाजिक संगठनों से भरपूर बधाईयों और शुभकामनाओं का अनवरत सिलसिला जारी है।ज़ारी भी रहना चाहिए,क्योंकि ओबीसी में कुर्मी/पटेल समाज की अपनी एक महत्वपूर्ण व निर्णायक जनसंख्या और राजनैतिक शक्ति और भागीदारी रही है।हमारी तरफ से हार्दिक बधाईयां और शुभकामनाएं इसलिये विशेष हो जाती हैं,क्योंकि श्री राजेश वर्मा हमारे जनपद खीरी से लगे जनपद सीतापुर के रहने वाले हैं और वहीं से बीजेपी से दोबारा सांसद चुने गए हैं और बीजेपी के उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रांतीय अध्यक्ष भी हैं।इससे पूर्व वह बीएसपी से सांसद रहे हैं। 

इस संसदीय समिति का गठन इस उद्देश्य से है कि वह समय-समय पर देश के ओबीसी की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का आकलन और मूल्यांकन करना और बदले हुए परिवेश में उनके अपेक्षित कल्याण के लिए सरकार को सिफारिश करना।श्री राजेश वर्मा से पहले इसी संसदीय समिति के चेयरमैन बीजेपी के वरिष्ठ सांसद (2004 से अनवरत चौथी बार सांसद) श्री गणेश सिंह पटेल (मध्यप्रदेश की सतना लोकसभा सीट) थे जिनका कार्यकाल संभवतःवर्ष 2020 समाप्त होने से कुछ समय पूर्व खत्म हो गया था।यहां यह उल्लेख करना और याद दिलाना बहुत जरूरी है कि श्री गणेश सिंह पटेल ने अपने कार्यकाल में ओबीसी की क्रीमी लेयर की नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं के प्रवेश में आरक्षण के लिए संशोधित औसत वार्षिक आय सीमा आठ लाख रुपये से बढ़ाकर पंद्रह लाख रुपए की सिफारिश की थी और यह भी उल्लेख किया था कि इस "औसत वार्षिक आय सीमा" की गणना (कैल्कुलेशन) में अभ्यर्थी के माता-पिता की "कृषि और वेतन" से होने वाली आय शामिल नहीं की जाएगी जैसा कि 1992 में बना क्रीमी लेयर नियम जो 1993 से लागू हुआ,की आय सीमा तय करते समय मूल विशेषज्ञ समिति ने सिफारिश की थी।श्री गणेश सिंह जी की अन्य सिफारिशों के साथ यह सिफारिश कई महीने सरकारी पटल पर पेंडिंग में पड़ी रहीं और बीपी शर्मा(सेवानिवृत्त आईएएस) की अध्यक्षता में गठित डीओपीटी की समिति की क्रीमी लेयर की सिफारिश (औसत वार्षिक आय ₹12लाख जिसकी गणना में कृषि और वेतन से होनी वाली आय शामिल की गई थी) मानकर ओबीसी के बहुत से बच्चों को क्रीमी लेयर में शामिल होने की वजह से आरक्षण की परिधि से आज भी बाहर किया जा रहा है।बहुत से अभ्यर्थी आज भी न्यायिक प्रक्रिया से जूझ रहे हैं। श्री गणेश सिंह पटेल द्वारा बार- बार याद दिलाने के बावजूद जब उनकी सिफारिशों पर संसद या सरकार के पटल पर चर्चा तक नही हुई तो उन्होंने संसद के सभी 112 ओबीसी सांसदों को एक खुला आमंत्रण पत्र प्रेषित कर यह अनुरोध किया था कि इस विषय पर सभी ओबीसी सांसदों को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर मा. प्रधानमंत्री जी और गृहमंत्री को इन सिफारिशों को लागू करने के लिए पत्र लिखकर या ट्वीट करके, क्रीमीलेयर के माध्यम से नौकरीपेशा और किसानों को आरक्षण से लगभग बाहर करने की कोशिश का कड़ा विरोध करें।इस खुले पत्र के बाद चुनिंदा गैर बीजेपी सांसदों ने तो पीएम को पत्र लिखा।किंतु बीजेपी सरकार में शामिल सभी दलों के ओबीसी सांसदों को सांप सूंघ गया था।बीजेपी के जो ओबीसी सांसद इस समिति के सदस्य थे, वे भी उनके इस आमंत्रण पत्र पर अदृश्य राजनैतिक भयवश मौन व्रत धारण कर कन्नी काटते रहे। जनपद खीरी के गोला गोकर्णनाथ निवासी यूपी से समाजवादी पार्टी के तत्कालीन राज्यसभा सांसद श्री रवि प्रकाश वर्मा जी ने पीएम को इस संदर्भ में पत्र लिखकर जिस तत्परता, जीवंत सामाजिक चेतना और गौरव का परिचय दिया था,उसके लिए जनपद खीरी के ओबीसी संगठनों को उनके प्रति कृतज्ञता भाव से धन्यवाद। सामाजिक दिशा में उनके द्वारा की गई इस पहल/ प्रयास के लिए ओबीसी उन्हें सदैव सम्मान के साथ याद करता रहेगा श्री गणेश सिंह जी ने बीजेपी से सांसद होने के बावजूद ओबीसी के कल्याण की दिशा में वर्गीय चेतना से ओतप्रोत जो साहसिक कदम उठाया था, उसकी प्रशंसा या सपोर्ट में ओबीसी विशेषकर कुर्मी/पटेल समाज के विविध समूहों मंव इतनी चेतना,जोर-शोर और दमख़म और सभी ओबीसी सांसदों के प्रति आक्रोश नही दिखा था जितना आज नवनियुक्त अध्यक्ष की ताजपोशी पर दिख रहा है। धर्म की राजनीति के नशे में डूबा ओबीसी यह नही समझ पा रहा कि किस साज़िश से बीजेपी सरकार द्वारा व्यवस्था में परिवर्तन कर अप्रत्यक्ष तरीकों से उसके आरक्षण के प्रभाव को कैसे धीरे धीरे खत्म किया जा रहा है और दूसरी तरफ देश के 15% सामान्य वर्ग के निर्धन लोगों(ईडब्ल्यूएस) को संविधान संशोधन के माध्यम से 10% आरक्षण दिया जा रहा है? 

 दरअसल,ओबीसी में इतिहास पर गौर कर सीखने की आदत नही है।यदि ओबीसी को श्री गणेश सिंह पटेल के संघर्ष और योगदान और आरएसएस संचालित बीजेपी सरकार की सामाजिक और राजनैतिक संस्कृति की सही जानकारी होती तो नवनियुक्ति पर इतना जश्न जैसा माहौल नही दिखता! मूलतः सामाजिक विचारक और मंडल आंदोलन से जुड़े श्री गणेश सिंह पटेल के सामाजिक दिशा में किये गए योगदान/ऋण के लिए वे ओबीसी में सदैव सम्मान से याद किये जायेंगे।उनके कार्यकाल की सिफारिशें आज भी भारत सरकार के दफ्तर में धूल फांक रही हैं और इन सिफारिशों के लागू न होने के कारण ओबीसी के बहुत से बच्चे आरक्षण का लाभ न मिलने से आईएएस, आईपीएस और पीसीएस बनने से वंचित होकर उससे कमतर पदों पर चयनित होने के लिए बाध्य किये जा रहे हैं।

अपने अब तक के लोकसभा सांसद के कार्यकाल में गणेश सिंह पटेल ने ओबीसी के मुद्दों को हमेशा प्रमुखता और प्रखरता प्रदान की है। इसी वजह से उन्हें ओबीसी कल्याण की संसदीय समिति का अध्यक्ष बनाया गया था और इस नाते उनका जो सामाजिक-राजनैतिक कद बढ़ा, उसका सही इस्तेमाल करते हुए उन्होंने ओबीसी क्रीमीलेयर के नियमों में होने जा रहे अपनी ही सरकार के खतरनाक बदलावों का विरोध तो किया ही, साथ ही उसे राष्ट्रीय मुद्दा भी बना दिया।" 

आज स्थिति यह है कि क्रीमीलेयर में संशोधन की सिफारिश करने वाली डीओपीटी कमेटी के चेयरमैन बीपी शर्मा देशभर में ओबीसी तबके के बीच खलनायक बन चुके हैं और अब सरकार भी उनकी सिफारिशों पर आगे बढ़ने से पहले पुनर्विचार करती दिख रही है जैसा कि गृहमंत्री अमित शाह ने संकेत दिया है।अगर ओबीसी के लिए यह बात कुछ मायने रखती है तो इसका पूरा श्रेय समाजवादी पृष्ठभूमि और मंडल आयोग के प्रबल समर्थक सांसद गणेश सिंह पटेल को ही जाता है। 

सांसद श्री राजेश वर्मा को उसी संसदीय समिति का चेयरमैन बनाया गया है।ओबीसी के सभी सोशल साइट्स/मीडिया से मेरा अनुरोध है कि वे नवनियुक्त चेयरमैन को भरपूर मात्रा में और लंबे समय तक हार्दिक बधाईयां और शुभकामनाएं प्रेषित करने के साथ सोशल साइट्स/मीडिया के माध्यम से श्री गणेश सिंह जी के कार्यकाल की ठंडे बस्ते में पड़ी क्रीमी लेयर की सिफारिश को तत्काल लागू कराने की समय-समय पर याद दिलाते रहे और पूर्णसम्मान के साथ सामाजिक और राजनैतिक दबाव भी बनाते रहें जिससे हमारे ओबीसी के बच्चों का भविष्य अंधकारमय होने से बच सके।यही हमारी सामाजिक और राजनैतिक चेतना की परिचायक भी होगी।

श्री राजेश वर्मा जी को ओबीसी के समस्त सामाजिक और राजनैतिक संगठनों की ओर से इस अनुरोध के साथ एक बार पुनः बधाईयां और शुभकामनाएं कि ओबीसी की क्रीमी लेयर से संबंधित सिफारिश को यथाशीघ्र लागू करवाने में भरसक प्रयास करें जिससे हमारे समाज के बच्चे कमतर पदों पर जाने की मजबूरी से बच सकें। 

 
लखीमपुर-खीरी (यूपी) 9415461224,8858656000

Thursday, June 03, 2021

पियरे और जोसेफ़ के जैसा है मेरा और मेरे साईकिल का रिश्ता-अखिलेश कुमार अरुण


पर्यावरण के अनुकूल है और यह ज्यादा खर्चीला भी नहीं है इसलिए हमें साइकिल की तरफ लौटना चाहिए कुछ लोग तो अभी से कहने लगे हैं आएगा तो साईकिल ही, अब साइकिल आए या हाथी पर कमल नहीं आना चाहिए, का बुरा कह दिए।

 

2014

आज विश्व साइकिल दिवस है, 3 जून 2018 को संपूर्ण विश्व में पहली बार विश्व साइकिल दिवस मनाया गया था, आज तक के वैज्ञानिक आविष्कारों में एक यही ऐसा अविष्कार है जो सस्ता होने के साथ-साथ पर्यावरण के अनुकूल है और यह ज्यादा खर्चीला भी नहीं है इसलिए हमें साइकिल की तरफ लौटना चाहिए कुछ लोग तो अभी से कहने लगे हैं आएगा तो साईकिल ही, अब साइकिल आए या हाथी पर कमल नहीं आना चाहिए, का बुरा कह दिए।

 

ऊपर चित्र में यही हमारी साईकिल है, कभी हमने अपनी साईकिल को साईकिल नहीं कहा हमेशा गाड़ी कहते थे...इससे सम्बन्धित एक बाकया है हम  हमारा मित्र रविन्द्र कुमार गौतम सरकारी अस्पताल में अपने मित्र का हाल-चाल लेने पहुंचे थे ...साईकिल अस्पताल गेट पर खड़ी किये और अस्पताल में जो भर्ती थे उनके तीमारदार बाहर ही मिल गए पर साईकिल से उतरते नहीं देखा था यह हमें बाद में पता चला........गाड़ी खड़ी बा तनी देखत रहिह....कहते हुए अस्पताल के अन्दर गए हाल-चाल लिया कुछ देर बाद लौटना हुआ तब तक आप हमारी गाड़ी देखते रहे उनसे मिलकर साईकिल का ताला जब खोलने लगे तब ऊ बोले ई का हो .....गाडी से आईल रहल ह न......फिर बहुत हंसी हुई हम कहे, “इहे हमार गाडी ह।” अब जब भी मुलाकात उनसे होती है ठहाका लग ही जाता है।

 

साइकिल से हमारा बहुत पुराना नाता है सन 1998-99 की बात होगी। जब हमारे लिए पापा जी सेकंड हैंड साइकिल लेकर आए थे, 11 या 12 सौ की थी। उसका कलर नीला है तब से लेकर आज तक हम नीले रंग के दीवाने हो गए हमें लगता है कि नीला हमारा अपना रंग है जो हमेशा आसमान की उचाई को छूने के लिए प्रेरित करता रहता है। वह साइकिल आज भी हमारे प्रयोग में लाई जाती है पर कम दूरी के लिए या बाजार तक कभी हम पूरा लखीमपुर उसी से छान मारते थे, हमारा मोटरसाईकिल चलना उसको खलता होगा, लम्बी दुरी पर जो नहीं जाती सजीव होती तो शिकायत जरुर करती। 22/23 साल का हमारा उसका पुराना सम्बन्ध है,  उसके एक-एक पुर्जे से हम बाकिब हैं, और हो भी क्यों ना चलाते कम उसको बनाने का काम ज्यादा करते थे, पढ़ाई के दौरान महीने का दो रविवार साइकिल के नाम ही रहता था। हमारे साइकिल में टायर-ट्यूब का प्रयोग इतना जबरदस्त तरीके से किया जाता था कि बच्चों के खेलने लायक भी नहीं रह जाता। जगह-जगह टायर की सिलाई और ट्यूब में पंचर लगाने का काम तब तक जारी रहता था जब तक की वह लुगदी-लुगदी न हो जाए। हमारी साइकिल इतना वफादार थी कि वह छमाही या वार्षिक परीक्षा होने के पूर्व ही बयाना फेर देती उसका सीधा-सीधा संकेत था कि हम इतना कंडम हो गए हैं हमको सुधरवालो नहीं तो तुम्हारा पेपर हम दिलवा नहीं पाएंगे फिर तीन-चार सौ का खर्चा होना तय था... पीछे का टायर आगे, आगे किसी काम का नहीं ऐसा भी नहीं था टायरों में गोट (कत्तल) रखने के काम आता था। मूलरूप में साईकिल में अब केवल फ्रेम और पीछे का करिएर ही शेष हैं नहीं तो सब कुछ बदल चूका है। मेरे और साइकिल के बीच का सम्बन्ध पियरे और उसके घोड़ा जोसेफ़ के जैसा है हम दोनों एक दुसरे की भावनाओं को आसानी से समझ लेते हैं। हमारी साईकिल को देखकर हमारे होने का सहज अनुमान लोग आज भी लगा लेते हैं।

 जब हम छोटे थे तब साईकिल दुसरे को अपनी साईकिल देने में आना-कानी करते थे। जिसका फायदा उठाकर हमारे चाचा लोग चिढ़ाने का काम करते थे, कभी लेकर चले जाते तो गुस्सा भी बहुत आता था जब साईकिल आ जाती तब चुपके से उसका निरिक्षण करने जाते कहीं कुछ गड़बड़ी तो नहीं है................चोरी पकड़ी जाती हाँ-हाँ देख लो कुछ घिस तो नहीं गया ......हमारा भी जबाब होता आउर नाहीं त का????

 अंत में आएगा तो साईकिल ही की उपयोगिता के लिए एक जयकारा तो बनता है .........जय साईकिल जिंदाबाद साईकिल अब कुछ लोग हमको सपाई होने की भूल भी कर बैठेंगे ऐसे में हम राजनीति से दूर हैं, आएगा साईकिल से तात्पर्य बस इतना है की पेट्रोल-डीजल आसमान छू रहे हैं ऐसे में लोग साईकिल की तरफ़ जा सकते हैं......बहुत कोशिश कर रहा हूँ इस पैराग्राफ में पर पता नहीं क्यों इसमें राजनीति की बू आ रही है हमको राजनीति से दूर रखियेगा वैसे हाथी भी ठीक रहेगा......राजनीति अपनी जगह साहित्य अपनी जगह, चलते है

ए०के०अरुण
नमस्ते


ग्राम-हजरतपु, जिला खीरी

उ०प्र० 262701

8127698147

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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