साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, June 11, 2021

छोकरी के आगे गगनचुंबी शिक्षा व्यापारियों के हाथ -सुरेश सौरभ

  एक विमर्श शिक्षा के क्षेत्र में  

    छह साल की छोकरी/भर कर लाई टोकरी/टोकरी में आम हैं/नहीं बताती दाम है/दिखा-दिखा कर टोकरी/हमें बुलाती छोकरी..एनसीईआरटी के कक्षा एक के पाठ्यक्रम में लगी इस कविता पर काफी दिनों से बवाल मचा है, इस संदर्भ अपनी फेसबुक वाल पर फिल्म स्टार आशुतोष राणा लिखतें हैं एक तरफ़ हम हिंदी भाषा के गिरते स्तर और हो रही उपेक्षा पर हाय-तौबा मचातें हैं और दूसरी ओर इतने निम्न स्तर की रचना को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना देते हैं? ऐसी रचना को निश्चित ही पाठ्यक्रम में नहीं रखा जाना चाहिए क्योंकि जैसे सिंह की पहचान उसकी दहाड़ होती है, हाथी की पहचान उसकी चिंघाड़ होती है, वैसे ही मनुष्य की पहचान उसकी भाषा होती है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बच्चे राष्ट्र की आत्मा होतें हैं। यही हैं, जिनके मस्तिष्क में अतीत सोया हुआ है। यही हैं, जिनके पहलुओं में वर्तमान करवटें ले रहा है और यही हैं जिनके क़दमों के नीचे भविष्य के अदृश्य बीज बोये जातें हैं।

अगर हम चाहते हैं, हो क़दर हिंदी की पग-पग पर।

उठें जागें भरें हुंकार पहुँचा दें इसे नभ पर।

अगर भाषा मरी तो हम भी प्यारे बच नहीं सकते।

भले ही हो करोड़ों गुण, हम कुछ रच नहीं सकते।

महज़ भाषा नहीं, यह माँ हमारी हमको रचती है।

बचेगी लाज जब इसकी हमारी लाज बचती है।

-आशुतोष राना  

लखनऊ के वरिष्ठ बाल साहित्यकार जाकिर अली रजनीशइस कविता को बच्चों के मन की अनुकूल बतातें हैं। वही इस कविता के पक्ष में अपनी फेसबुक वाल पर उतरे, बाल साहित्यकार राम करन, के पक्ष पर कड़ी आपत्ति उठाते हुए जाने-माने लघुकथाकार चित्त रंजन गोप लुकाठीकहतें हैं, यह कविता अच्छी है, पर बच्चों के स्तर की नहीं। यानि इस आम की टोकरीकविता पर सोशल मीडिया में मचे बवाल पर कुछ लोग तो इस कविता के पक्ष में हैं तो कुछ इसकी भाषा और भाव पर दो अर्थी और अश्लीलता के आरोप लगा रहें हैं। इस कविता को लेकर साहित्यकारों, शिक्षा के नीति नियंताओं के मध्य सोशल मीडिया में घमासान जारी है, तो क्या ऐसे में यह जरूरी नहीं बन जाता है कि तमाम निजी स्कूलों-कालेजों में लगी पाठ्यक्रम से इतर जबदस्ती थोपी गई मंहगी तमाम निम्न स्तरीय पुस्तकों की चर्चा की जाए, उनकी कायदे से समीक्षा की जाए। संविधान के अनुसार धार्मिक शिक्षा देने की शिक्षालय में पाबंदी है, पर फिर भी कुछ अपने को नामचीन प्रगतिशील शत-प्रतिशत रिज़ल्ट देने का दंभ भरने वाले लाखों-हजारों की संख्या में संचालित स्कूलों,कालेजों में धार्मिक शिक्षा की व अन्य उजूल-फिजूल गैर जरूरी पाठ्येतर पुस्तकें लगीं हैं। लगभग चालीस सालों से अध्ययन-अध्यापन कार्य से जुड़े लखीमपुर के शिक्षाविद् सत्य प्रकाश शिक्षकसे जब इस बारे में मैंने बात की, तो उनका कहना है, जब सरकार ने निर्धारित पाठ्यक्रम तय कर रखा है, तब स्कूल कालेजों को पाठ्यक्रम से अलग की पुस्तकें नहीं लगानी चाहिए, इससे अभिभावकों की ही जेबें कटती हैं। मप्र के वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल का कहना है कि शिक्षण संस्थाओं में सरकार के मानक अनुसार ही बच्चों के लिए किताबें होनी चाहिए, अगर इसके विपरीत पाठ्यक्रम के साथ घटिया पुस्तकें चलाई जा रहीं हैं तो यह घोर  चिंता का विषय है।   युवा कवि और अधिवक्ता रमाकान्त चौधरी से जब मैंने इस बारे में बात की तब वह बेबाक कहते हैं कि पूरे देश में निजी शिक्षालय काली कमाई के गढ़ बन चुके हैं, नर्सरी के कोर्स पांच-पांच हजार तक के मिल रहें हैं। जिसमें भी बढ़िया पाठ्यक्रम की बात करना बेमानी है। हर निजी स्कूल की उसकी अपनी तय दुकान है, जहां से अभिभावकों की जेब कटनी तय है। विद्या भारती के एक स्कूल में पढ़ा रहे राहुल मिश्रा (बदला नाम) ने बताया कि पाठ्येतर पुस्तकें सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं हमारे लिए भी सिरदर्द बनी हुईं हैं, ऐसी पुस्तकों में इतने निम्न कोटि के लेखकों की क्लिष्ट रचनाएं रखीं गईं हैं, जो न तो बच्चों के मन के अनुकूल हैं, न मेरे, पर फिर भी जबरदस्ती बच्चों को घोट कर हमें पिलाना है। बस प्रबंधक प्रकाशक दुकानदारों की रिश्तेदारी हमेशा चलती रहे, इसलिए यह जरूरी है अभिभावकों की जेबें कटतीं रहें। शिक्षक और एक बेब पत्रिका अस्मिता के संपादन से जुड़े अखिलेश अरूण का इस बारे में कहना है कि आज छः साल की छोकरी कविता पर, तो खूब चर्चा हो रही है, पर स्वनामधन्य तमाम साहित्यकारों विद्वानों से अगर निजी स्कूलों में लगी पाठ्येतर सामग्री पर चर्चा करने को कहो तो उनकी जुबानें तालू से चिपक जातीं हैं। सरकारी गुणवक्ता युक्त पाठ्यक्रम के अतिरिक्त थोपी गई काली कमाई करने वाली पुस्तकों पर कौन चर्चा करेगा? हमारे नौनिहालों के भविष्य के साथ हो रहे खिलवाड़ पर यहां कोई चर्चा नहीं करना चाहता?

    कुल मिलाकर यह सच्चाई निकल कर आ रही हैं कि अंधाधुंध अवैध कमाई के  चक्कर में निजी स्कूल-कालेजों के तमाम प्रबंधक अथवा मालिक कमाई वाली ही पाठ्यक्रम से इतर पुस्तकें, निश्चित पाठ्यक्रम के साथ कमीशन बेस पर लगवातें हैं। जानकार कहते हैं, इसमें शासन-प्रशासन के बड़े आकाओं की मिलीभगत से इंकार नहीं किया जा सकता है। कमीशन का सारा खेला है। प्ले ग्रुप से लेकर इंटर कालेज तक के किसी भी प्राइवेट स्कूल-कालेज में आप चले जाएं और बच्चे का बस्ता उठाकर देख लें, आप को जमीनी सच्चाई पता चल जाएगी। आज सही अर्थों में काली कमाई करने वाले, फर्जी पुस्तकें पाठ्यक्रमों के साथ स्कूलों में लगाने वाले, सफेदपोशों पर चर्चा करने की नितान्त युगीन आवश्यकता है। अब वक्त आ चुका है कि शिक्षा की, किसिम-किसिम की दुकानों से करोड़ों की कमाई करने वाले माफियाओं की कारगुजारियों पर व्यापक चर्चा की जाए और परत दर परत उनकी सच्चाइयों को उधेड़ कर लोगों के सामने लाया जाए, ताकि अभिभावकों की जेबों को कटने से रोका जा सके और शिक्षा का स्वस्थ माहौल बनाया जा सके।



सुरेश सौरभ 

निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश  

मो-7376236066

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