साहित्य
- जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
- लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
Wednesday, July 24, 2024
हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता-सुरेश सौरभ
Monday, June 17, 2024
पापा पिस्तौल ला दो(लघु चलचित्र समीक्षा)-रमेश मोहन शुक्ल
Friday, March 29, 2024
मन का फेर (अंधविश्वासों रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित साझा लघुकथा संग्रह)-मनोरमा पंत
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डॉ० राकेश माथुर 'मन का फेर' पुस्तक पढ़ते हुए. |
Friday, June 30, 2023
वेदनाओं की मुखर अभिव्यक्ति है किन्नर कथा-सत्य प्रकाश ‘शिक्षक
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Monday, June 26, 2023
इस दुनिया में तीसरी दुनिया से साक्षात्कार -डॉ.आदित्य रंजन
Tuesday, April 11, 2023
समसामयिक मुद्दों पर रंग बिखेरती सौरभ की "बेरंग"-नृपेन्द्र अभिषेक नृप
Tuesday, March 21, 2023
दो बड़े राजवंशों के बीच का काल, मौर्योत्तर काल का इतिहास-अखिलेश कुमार अरुण
समीक्षा
इतिहास गतिशील विश्व का अध्ययन है जिस पर भविष्य की नींव रखी जाती है, बीते अतीत काल का वह दर्पण है जिसमें वर्तमान पीढ़ी अपनी छवि देखती है और भविष्य को संवारती है। पृथ्वी पर जितने भी प्राणी पाए जाते हैं उन सब में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो अपने अतीत में घटी घटनाओं को याद रखता है। जिस क्रम में आज जो भी कुछ हम पढ़ने को पाते हैं वह पूर्व घटित घटनाओं का वर्णन होता है। जिसे विभिन्न समयकाल में शोध कर लिखा गया है और इतिहास लेखन में अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है। अतः इसी लेखन की अग्रेत्तर पीढ़ी में डॉ० आदित्य रंजन अपनी पुस्तक मौर्योत्तर काल में शिल्प-व्यापार एवं नगर विकास (200 ई०पू० से 300 ई०) लेकर आते हैं जो अपने विषयानुरूप एकदम अछूता विषय है जिस पर कोई सटीक पुस्तक हमें पढ़ने को नहीं मिलती। यह पुस्तक पांच अध्यायों में विभक्त है जिसमें मौर्योत्तर काल में शिल्प, व्यापर, नगर विकास और मुद्रा अर्थ व्यवस्था तथा माप-तौल पर सटीक लेखन किया गया है।
इतिहास के अध्येताओं और विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी साबित होगी और इसे अपने पूर्व पुस्तकों की पूरक कहना न्यायोचित होगा। इस पुस्तक में दो बड़े राजवंशों (मौर्य और गुप्त काल) के बीच में छिटपुट राजवंशों के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक जानकारी उपलब्ध कराती है तथा सामंतवाद के प्रारम्भिक चरण की शुरुआत में शिल्प-श्रेणियों तथा वर्ण व्यवस्था के समानांतर जाति व्यवस्था के विकास की कहानी को स्पष्ट करती है ।
पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है कि इस
काल के ग्रन्थों में शिल्पियों के जितने प्रकार प्राप्त होते हैं वह पूर्व
ग्रन्थों में नहीं मिलते...नि:सन्देह इस काल के धन्धों में दस्तकारों की अत्यधिक
बढ़त हुई शिल्पी लोग संगठित होते थे जिनको संगठित रूप में श्रेणी कहा जाता था।
पुस्तक के सन्दर्भ में यह कथन न्यायोचित है। वह सब कुछ इतिहास के अध्येता को इस
पुस्तक में पढ़ने को मिलेगा जिसकी आवश्यकता मौर्योत्तर काल के इतिहास को जानने के
लिए आवश्यक बन पड़ता है।
इस पुस्तक में मौर्योत्तर कालीन विकसित शिल्प एवं शिल्पियों तथा उनके व्यवसाय सम्बंधित शुद्धता (सोने-चांदी जैसे धातुओं में मिलावट आदि) के अनुपात को भी निश्चित किया गया है निर्धारित अनुपात से अधिक अंश होने पर शिल्पी को दण्ड देने का प्रावधान है। इस पुस्तक में कहा गया है कि कौटिल्य सोना (स्वर्ण) पर राज्य का एकाधिकार स्थापित करता है। यहां तक कि धोबी (रजक) को वस्त्र धोने के लिए चिकने पत्थर और काष्ट पट्टिका का वर्णन भी मिलता है और यह भी निर्धारित है कि धोबी को जो कपड़े धुलने के लिए मिलते थे उसको किसी को किराए पर देता है अथवा फाड़ देता है तो उसे 12 पड़ का दण्ड देना होता था। मौर्योत्तर काल में पोत निर्माण का भी कार्य किया जाता था जिसका वर्णन इस पुस्तक में किया गया है सामान्यतः इन सब बातों का वर्णन इतिहास की पूर्ववर्ती पुस्तकों में पढ़ने को नहीं मिलता है इस लिहाज से यह पुस्तक अत्यन्त महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध होती है।
मौर्यकालीन राज्य और व्यापार से संबंधित राजाज्ञा और वस्तुओं के क्रय विक्रय से सम्बंधित अनुज्ञप्ति-पत्र, थोक भाव पर बेचे जानी वाली वस्तुओं का मूल्य निर्धारण वाणिज्य अधीक्षक के द्वारा किया जाना तथा मिलावट तथा घटतौली आदि के सन्दर्भ में कठोर से कठोर दण्ड का विधान आदि सामान्यतः बाजार नियंत्रण अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल की महान उपलब्धि है किन्तु इस में वर्णित बाजार व्यवस्था को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि खिलजी का बाजार नियंत्रण मौर्य और मौर्योत्तर कालीन व्यवस्था का विकसित स्वरूप है।
पुस्तक के अंतिम अध्याय में मुद्रा अर्थव्यवस्था तथा माप-तौल पर मौर्योतर कालीन सिक्के और माप के परिणाम को विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है। सिक्कों के वर्णित प्रकारों में अग्र, अर्जुनायन, अश्वक, औदुम्बर, क्षुद्रक, कुतूल, कुनिंद, मालव, शिबि, औधेय (काल विभाजन के आधार पर १. नंदी तथा हाथी प्रकार के सिक्के, 2.कार्तिकेय ब्रहामंड देव लेख युक्त सिक्के, ३. द्रम लेखयुक्त सिक्के, ४. कुषाण सिक्कों की अनुकृति वाले सिक्के तथा माप-तौल के लिए निर्धारित माप के परिमाणों यथा-रक्तिका, माशा, कर्ष, पल, यव, अंगुल, वितास्ति, हस्त, धनु, कोस, निमेष, काष्ठ आदि का उल्लेख पुस्तक उपयोगिता को सिद्ध करते हैं।
Wednesday, February 08, 2023
घनीभूत संवेदनाओं का प्रगटीकरण-डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
Tuesday, January 03, 2023
दर्द का जीवंत दस्तावेज--वर्चुअल रैल-विनोद शर्मा ‘सागर’
Tuesday, August 16, 2022
युगीन दस्तावेज तालाबंदी-रंगनाथ द्विवेदी
Tuesday, October 19, 2021
बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती है लघु फ़िल्म कबाड़ी-डॉ.शैलेष गुप्त 'वीर'
सुरेश सौरभ कृत 'पक्की दोस्ती' एक बाल कथा संग्रह-मुकेश कुमार सिन्हा
कृतिकार: सुरेश
सौरभ
प्रकाशकः श्वेतवर्णा
प्रकाशन
232,
बी 1, लोक नायक पुरम
नई
दिल्ली-110041
पृष्ठः 64 मूल्यः
80/-
समीक्षकः मुकेश
कुमार सिन्हा
बाल साहित्य का सृजन चुनौती भरा काम है। रचनाकार को ‘बच्चा’ बनना पड़ता है, ‘बच्चा’ की तरह सोचना पड़ता है, समझना पड़ता है। यदि बाल साहित्य के सृजन के क्रम में रचनाकार ‘बच्चा’ नहीं बनते हैं, तो उनकी लेखनी सार्थक नहीं मानी जा सकती है। परिपक्व कलम जब बच्चों के लिए लिखेगी, तो निश्चित तौर पर बच्चों को समझने में परेशानी होगी और बच्चों के लिए यह अरुचि का विषय हो जायेगा। बच्चों के मनोभाव की जब तक परख नहीं होगी, मुश्किल होगा बच्चों के लिए कुछ लिख पाना!
हम प्रायः देखते हैं कि परिपक्व कलम बच्चों के लिए लिखती तो है, मगर रचनाएँ बाल मन की सोच से दूर हो जाती है। जो कलम बच्चों के लिए सोचे और समझे, वैसी कलम की कृति को पढ़कर बच्चे झूम उठते हैं। यूँ कहिए कि ‘कृति’ को हाथों में लेकर बेहद चाव से पढ़ने को बैठ जाते हैं। जब तक अक्षर-अक्षर न पढ़ लें, चैन नहीं मिलता है मन को!
बच्चों के लिए लिखना जरूरी है। बच्चों की रुचि के अनुसार लिखना हर साहित्यकार का धर्म है। साहित्यकार सही राह दिखाते हैं। समाज में उनकी भूमिका अग्रगण्य है। वो जो लिखते हैं, समाज उसी का अनुकरण करता है, इसलिए साहित्यकार की जवाबदेही बढ़ जाती है।
बच्चों का मन बेहद कोमल होता है। बच्चों को जिस रूप में ढाल दिया जाये, ढल जाते हैं। इसलिए, साहित्यकार की नैतिक जिम्मेदारी है कि वो बच्चों के लिए वैसी रचना का सृजन करें, जिससे उनका मन-मस्तिष्क स्वस्थ हो। बच्चों को अपने कर्तव्यों का बोध हो। देश प्रेम की भावना मन में जगे। ऊँच-नीच और अमीरी-गरीबी की सोच से ऊपर उठकर सबको गले लगायें। निडर बनें, साहसी हों। पढ़ाई की अहमियत को समझें। खेलें-कूदें। रचनात्मक गतिविधियों में भाग लें, बड़ों का सम्मान करें। लक्ष्य के प्रति वफादार हों।
है न मुश्किल भरा काम! बावजूद साहित्यकार अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं। साहित्य के प्रति बच्चों की अभिरुचि सुखद है, किंतु मोबाइल और कम्प्यूटर युग में उसे साहित्य, खासकर किताब के साथ जोड़े रखना चुनौती है। यदि बच्चों की रुचि के अनुसार रचनाएँ रचीं जाये, तो इस चुनौती का मुकाबला डटकर किया जा सकता है।
बच्चों की रुचि के अनुसार रचनाएँ गढ़ना समय की माँग है, ताकि भारत का भविष्य सुरक्षित हाथों में हो। ‘भविष्य’ को सशक्त बनाने का बीड़ा साहित्यकारों ने उठा लिया है। साहित्यकारों की लंबी सूची में एक नाम है-सुरेश सौरभ, जिनकी कलम चौदह साल की उम्र से ही लेखन में सक्रिय है। लघुकथा, उपन्यास, हास्य-व्यंग्य से होते हुए उनकी कलम बच्चों के लिए भी लिखती है। दस साल पहले बाल कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ-'नंदू सुधर गया'। पुनः उनकी कलम ‘पक्की दोस्ती’ (बाल कथा संग्रह) लेकर हाजिर है, जिनमें 19 कहानियाँ हैं।
लेखक सुरेश सौरभ बच्चों को कहते हैं-‘जब भी आपको मौका मिले, तो बाल साहित्य अवश्य पढे़ं, इससे न सिर्फ़ आज का भविष्य मज़बूत होगा बल्कि वर्तमान भी सुदृढ़ होगा।’ वो बच्चों को समझाते हैं-‘बहुत से लोग कहते हैं कि कविता-कहानी पढ़ने से समय नष्ट होता है, पर यह सरासर ग़लत है, इससे कल्पना शक्ति तेज और भाषा शैली प्रखर होती है, साथ ही जीवन जीने की असली कला भी पता चलती है।’
प्रस्तुत संग्रह में संग्रहित कहानियों की भाषा बेहद सरल है। कहानियों के माध्यम से बच्चों को शिक्षा दी गयी है। बच्चों को जंगली जानवर वाले पात्र बेहद पसंद होते हैं। बच्चों की रुचि का ख्याल करते हुए कहानीकार ने जानवरों के माध्यम से अच्छी-अच्छी बातें कहने की कोशिश की है, जो बच्चों को किताब से जोड़ती है।
ममतामयी माँ बच्चों को कभी भी मुसीबत में पड़ने नहीं देतीं। अपनी जान की परवाह किये बगैर माँ शत्रुओं से बच्चों को बचाती हैं। ‘माँ की बहादुरी’ में लेखक ने स्पष्ट इशारा किया कि माँ हर मुसीबत में ढाल बन जाती हैं। ऐसे में क्या माँ के प्रति हमारा कोई कर्तव्य नहीं बनता है? माँ की आँखों में आँसू न आये, इसका ख्याल जरूरी है।
बच्चों को चाहिए कि वो बड़ों की बात मानें। बड़ों की बातों को नहीं मानने से हम दुविधा में पड़ जाते हैं, अपना ही नुकसान कर बैठते हैं। चुन्नू-मुन्नू को माँ-पिता की बातों को नहीं मानने और झूठ बोलने का जब फल मिला, तब उसे एहसास हुआ। हमें शैतानियाँ नहीं करनी चाहिए। माना हम नादान हैं, तो क्यों न कोई काम करने से पहले बड़ों से पूछ लें। यही नसीहत है ‘चुन्नू-मुन्नू की शैतानी’ में।
मोटू राम को सुई ऐसे थोड़ी ही लगी। सर्दी में आइसक्रीम खाइएगा, तो क्या होगा? इसलिए बड़ों की बातों को हर हाल में माननी चाहिए। माता-पिता थोड़े बुरा चाहेंगे। माँ-पिता सदैव अपनी औलाद की बेहतरी ही चाहते हैं।
राहुल को उसकी माँ ने कितनी अच्छी बात कही-
‘बेटे! यह बुद्धिमानी नहीं, बल्कि बेईमानी से कमाया गया धन है। इससे न सिर्फ़ बुद्धि क्षीण होती है, बल्कि व्यक्ति की कलई खुलने पर जगहँसाई भी होती है। फिर वह न घर का रहता है न घाट का।’
जाने-अनजाने में औलाद गलती कर बैठता है। ऐसे वक्त में माता-पिता की जवाबदेही बनती है कि वो अपनी औलादों को समझाएं। छोटी-छोटी बुरी आदतों का खामियाजा फिर भविष्य में भुगतना पड़ता है। हम समय रहते बच्चों को बुरी आदतों से मुक्ति दिला सकते हैं। आवारागर्दी करने पर डम्पू की माँ ने डम्पू को समझाया था-
‘बेटा सुधर जाओ तो अच्छा है। आज हमने तुम्हें बचा लिया, पर हर बार तुम्हें कहाँ-कहाँ बचाती फिरूँगी। अपने चरित्र, अपने भविष्य के तुम खुद भाग्य विधाता हो।’
‘डम्पू का चालान कट गया’ में नसीहत है कि हमें आवारागर्दी नहीं करनी चाहिए। यातायात के नियमों का पालन करना चाहिए। लाइसेंस, कागजात, हेलमेट के साथ-साथ गाड़ी चलाने के लिए बालिग होना आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं करते हैं, तो दंडित होना लाजिमी है।
‘चोर पकड़ा गया’ में सत्य की जीत हुई है। माना राहुल को परेशानी हुई। अपनी बेगुनाही साबित करने में मशक्कत झेलनी पड़ी, किंतु अंततः वह बेगुनाह साबित हुआ। यह कहानी हमें शिक्षा देती है कि हमें सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। समस्याएँ आती हैं, इसलिए घबराने की जरूरत नहीं है, बल्कि उससे मुकाबला करने की दरकार है। बच्चों को एक नसीहत-
‘बेटा जीवन में जो भी समस्या आए उसका सही समाधान निकालना चाहिए। समस्याओं से बाधाओं से मुँह मोड़कर जितना भागोगे उतनी ही तुम्हारे गले पड़ेगी। समझे बेटा राहुल।’
आज की पीढ़ी मेहनत करना ही नहीं चाहती है। यदि करना भी चाहती है, तो बस रस्मअदायगी। और, लाभ अधिक पाना चाहती है। शाॅर्टकट तरीके से ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, उसके लिए सतत मेहनत की जरूरत है। क्या कोई एक दिन में सफल हो सकता है? क्या कोई एक दिन में गायक बन सकता है? यह तो कल्लू की नादानी ही थी, जिसकी वजह से उसे बेइज्जती उठानी पड़ी। गुरु ने मना किया, लेकिन वो कहाँ माना? इसलिए, हमें गुरु की हर बातें माननी चाहिए और सफलता का तरीका बिल्कुल भी शाॅर्टकट न हो।
मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है। मेहनत से इतर प्राप्त फल फीका लगता है। वो तो शुक्र है रामू का, जिसने चिंकू को पुलिस के हवाले नहीं किया और सुधरने का मौका दिया। चिंकू भी समझ गया कि मेहनत और ईमानदारी से कमाकर खाने में जो सुख है, वह अन्यत्र नहीं है। यदि ईमानदारीपूर्वक मेहनत की जाये, तो हम क्या नहीं कर सकते हैं? चोरी से प्राप्त पकवान से अच्छा है सूखी रोटी खाना। कहानी ‘मेहनत का सुख’ बच्चों को सही राह दिखाती है।
नकल करना बुरी बात है, यह कोई नकलची सोनू से सीखे। वो न नकल करता, न उसकी ऐसी दशा होती। लेखक ने ‘नकलची सोनू’ में नकल न करने की नसीहत तो दी ही है, साथ ही आयुर्वेद के सेवन की वकालत भी की है। यह सच है कि हम आयुर्वेद से दूर भाग रहे हैं, लेकिन जब अंग्रेजी दवाइयाँ नहीं थी, तो आयुर्वेद ही एकमात्र सहारा था। नयी पीढ़ी यह जान और समझ ले।
बच्चों को निडर होना चाहिए। उसे ऐसा माहौल देने की जरूरत है, ताकि वो बहादुर कहलाये। कमजोर, आलसी और डरपोक का कौन नाम लेता है? भगत, राजगुरु, सुखदेव, सुभाष आज भी प्रेरणापुंज हैं। जो बहादुर होते हैं, उस पर दुनिया नाज करती है। हमें ऐसा होना चाहिए कि हर कोई यह कहने को मचल उठे कि ‘मैं ऐसा बहादुर बेटा पाकर स्वयं को धन्य समझता हूँ, जिसने माँ-बाप का नाम पूरी दुनिया में रोशन कर दिया।’ बहादुर हो तो अभिनंदन जैसा, जो आज बच्चों के ‘सुपरहीरो’ हैं। शौर्यता और वीरता का परिचय देने वाले अभिनंदन की जांबाजी को लेखक ने ‘मैं अभिनंदन बनना चाहता हूँ’ में प्रस्तुत किया है। अभिनंदन जैसा होना आसान नहीं है। हाँ, उनसे प्रेरणा लेकर उन-सा बनने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए।
क्या हम पशु के बिना रह सकते हैं? क्या हम नदी-पेड़ और तालाब के बिना रह सकते हैं? नहीं न, फिर हम प्रकृति और खूबसूरत बस्ती में आग क्यों लगा रहे हैं? यह केवल पंक्ति नहीं, बल्कि दर्द है और मानव जाति को संभल जाने की नसीहत-
‘देखो चिंकू की मम्मी अब हम यहाँ शहर में नहीं रहेंगे। पहले तो इन शहरी लोगों ने पेड़ काट-काट कर हमारे घोंसले उजाड़े और जब हम कहीं इनकी बेकार जगहों पर घोंसला बनाकर सुकून से रहते हैं तो वहाँ भी ये हमारा जीना हराम कर देते हैं। चलों अब हम ऐसी जगह चलें जहाँ ये निर्दयी मनुष्य न हों। फिर तीनों चल पड़े। दूर आशियाने की तलाश में...।’
माना कबूतर चिंकू के परिवार की तलाश पूरी हो जाये, लेकिन यह गंभीर बात है। हम मनुष्यता को क्यों छोड़ रहे हैं? हमने दानवी प्रवृति क्यों अपना रखा है? मनन करने की आवश्यकता है। काश! हम संभल जायें। ऐसी बस्ती तैयार की जाये कि कबूतर भी साँस ले और बाज भी। केवल बाज का ‘राज’ न हो!
हमें कभी कमजोर को नहीं सताना चाहिए, उसका उपहास नहीं उड़ाना चाहिए। वक्त सबका फिरता है। वक्त से ज्यादा कोई बलवान नहीं। वक्त का ही कमाल है कि नन्दू सुधर गया, अन्यथा शरारत करने से वो कहाँ बाज आता? एक सीख है कि अगर कोई मुसीबत में हो, तो उसकी मदद करनी चाहिए, चाहे वो दोस्त हो अथवा दुश्मन। हर पीड़ित-परेशान प्राणी की मदद करना दूसरे प्राणियों का कर्तव्य है। ऐसा करने से शत्रु का भी हृदय परिवर्तन हो जायेगा, उसे जरूर अफसोस होगा कि मैं जिन पर अत्याचार करता रहा, आज वही लोग मेरी जिंदगी बचा रहे हैं।
बच्चों के मन की अभिलाषा है-‘पापा जल्दी आ जाना’। यह भावुक कर देने वाली कहानी है। बिट्टू पापा को चिट्ठी लिखने बैठती है। पत्र में वह दिल की सारी बातें लिख डालती है। पापा से नयी फ्राॅक की अपेक्षा करती है, अच्छी मिठाई लाने को कहती है। साइकिल की जिद पर अड़ी है। पिता से नाराजगी भी है। यह कहानी पत्र शैली में है। मोबाइल के जमाने में अब कहाँ कोई पत्र लिखता? पत्र में प्यार हुआ करता है, अपनत्व का भाव हुआ करता है। सोचनीय विषय है कि वर्तमान पीढ़ी को कहाँ मालूम कि अंतर्देशीय पत्र और पोस्टकार्ड क्या होता है?
पत्र लेखन की शैली को बढ़ावा देने की जरूरत है, ताकि इस शैली को लुप्त होने से बचाया जा सके। पहले हाल-चाल जानने का एकमात्र माध्यम था पत्र, लोग बड़ी बेचैनी से पत्र का इंतजार किया करते और चाव से एक-एक शब्द पढ़ते। अब इसका अभाव है। पत्र लेखन से भाषा मजबूत होती है, बड़ों के प्रति सम्मान का भाव जगता है, इसे बचाये रखना हमारी जवाबदेही है। साहित्यकार ने शिद्दत से अपना फर्ज निभाया है।
बच्चे कई बार सोचने को विवश कर देते हैं, बड़ों का हृदय परिवर्तन कर देते हैं। बबली के पिता को चिढ़ हो गयी थी, उसे खुलेआम चंदा माँगते देख। दरअसल, वो सुनामी पीड़ितों की मदद के लिए चंदा इकट्ठा कर रही थी। बबली की भावना को लेखक ने यूँ लिखा-
...आप हजारों रुपये अकेले दे सकते हैं, पर जिस धन में दया और धर्म न हो, वह धन किसी काम का नहीं होता। पैसों से आप किसी की भावनाएँ, संवेदनाएँ नहीं खरीद सकते। लोगों के दिलों में दया और दान की भावनाएँ जीवित रहे, तभी समाज के संस्कारों की गाड़ी सुचारू रूप से चल सकेगी।
निश्चित तौर पर मुसीबत में फँसे लोगों के लिए चिंता होनी चाहिए। हम चिंता नहीं करेंगे, तो कौन करेगा? समाज को नसीहत देती पंक्ति-
‘आप जैसे प्रेम को दौलत से खरीदने वालों ने ही हिन्दुस्तान की तमाम आबादी को भूखों मरने के लिए छोड़ रखा है, अगर आप जैसा हर हिन्दुस्तानी एक रुपये रोज़ किसी भूखे के लिए निकाल दे तो कोई भूखा आत्महत्या न करे और न कोई गरीब लाइलाज होकर बीच सड़क पर तड़प-तड़प कर न मरे।’
संजीदा लेखक की एक और संजीदगी से भरी पंक्ति देखिए-
‘सबकी ज़िन्दगी की चरखी में कितनी लम्बी डोर है किसी को नहीं पता, पर जीते जी हर आदमी को कुछ ऐसा नेक काम कर लेना चाहिए जिससे अंतिम सफ़र का रास्ता सुकून से कट जाए।’
‘पक्की दोस्ती’ संदेश छोड़ रही है। आखिर धर्म को लेकर भेदभाव क्यों? नये मास्टर साहेब की दृष्टि से भेदभाव के बादल का छँटना स्वाभाविक था। रामानंद के पिता ने ठीक ही कहा नये मास्टर साहेब से-
'आप एक गुरु हैं और गुरु का दर्जा भगवान से भी बढ़कर होता है और भगवान की नज़र में न कोई हिन्दू होता न कोई मुसलमान। उसकी नज़र में सभी एक समान हैं। फिर आपकी नज़र में भेदभाव क्यों?'
कलाम और रामानंद शास्त्री की दोस्ती में नये मास्टर साहेब ने दरार डालने की भरसक कोशिश की, मगर उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया। जात-पात और धर्म में भेदभाव का सिलसिला अब समाप्त होना चाहिए। यह दंश है, जिससे बचना हमारा फर्ज है। जात-धर्म के फेरे में पड़कर हम उन्नति की राह में दीवार खड़ी कर रहे हैं, इसलिए इस दीवार को ढाहने की जरूरत है। दीवार को ढाहने की दिशा में यह कहानी बेहतरीन भूमिका निभा रही है।
गलती तो अध्यापक रामकृष्ण अय्यर ने भी की। हालाँकि उन्हें पश्चाताप हुआ तब, जब उनकी नजर में आवारा-निकम्मा लड़का गणित में पूरे के पूरे अंक प्राप्त किये। उन्हें अफसोस हुआ और खुले मंच से यह बात कही। इतने बड़े़ शिक्षक होकर भी अध्यापक रामकृष्ण ने अफसोस जताया, फिर हम अपनी गलती पर माफी माँगने में संकोच क्यों करते हैं? हमें तुरंत ‘जज’ नहीं बनना चाहिए, बल्कि स्थिति-परिस्थिति की जानकारी ले लेनी चाहिए।
पढ़ाई बहुत जरूरी है। ‘चिम्पू की शादी’ कहानी शिक्षा जागरूकता को लेकर रची गयी है। समाज में अनपढ़ों को ठग लिया जाता है, क्योंकि उनके पास न अक्षर का ज्ञान होता है और न ही अंकों का। चिम्पू भी वैसा ही था, लेकिन जब पढ़-लिख गया, तो उसे मैनेजरी की नौकरी मिल गयी। चिम्पू के पास जब अक्षर ज्ञान नहीं था, तो उसकी हालत क्या थी? इस पंक्तियों से समझा जा सकता हैै-
‘पापा आजकल समाज में अनपढ़ों की न कोई बात होती है, न औकात। जब मैं अनपढ़ था, तब अक्सर पढ़े-लिखे मुझे बेवकूफ और भोंदू समझते थे और बात करने से ऐसे कतराते थे, जैसे मुझे कोई छूत की बीमारी हो। तभी मैंने निर्णय किया कि अब पूर्ण साक्षर बनकर ही दम लूंगा।’
सरकार ने अनपढ़ों को विद्यालयों से जोड़ने के लिए योजनाएँ बना रखी हैं। मध्याह्न योजना, छात्रवृति, पोशाक योजना, साइकिल योजना उदाहरण है, ऐसा इसलिए ताकि हर कोई पढ़ सके। पढ़ाई का जीवन में अहम् योगदान है, इसलिए पढ़ना जरूरी है। भले दो रोटी कम खाइए, लेकिन स्कूल जरूर जाइए।
युद्ध में कभी भी किसी को कमतर आँकना नहीं चाहिए। युद्ध को जीतने के लिए बल के साथ-साथ बुद्धि चाहिए। यदि चील बुद्धिमता का परिचय देती, तो उसकी हार नहीं होती, किंतु उसने धामन को कमजोर समझने की भूल कर बैठी और उसे पराजित होना पड़ा। इसलिए, युद्ध में हमेशा सजग रहने की आवश्यकता है।
सरल और सहज भाषा में रची गयी कहानियों में प्रवाहमयता है। बच्चे जब कहानियों को पढ़ेंगे, तो उबेंगे नहीं। कहानियाँ केवल मनोरंजन नहीं करती, बल्कि संदेश छोड़ती है। ऐसे में कहा जा सकता है कि सुरेश सौरभ की लेखनी से उपजी कहानियाँ बच्चों को अच्छा नागरिक बनने की सलाह दे रही है। सच पूछिए, यदि बच्चों को सही ‘पटरी’ पर ला दिया जाये, तो भारत का भविष्य सशक्त और उज्ज्वल होगा। बच्चों को सही राह दिखाती है सुरेश सौरभ की ‘पक्की दोस्ती’।
पढ़िये आज की रचना
मौत और महिला-अखिलेश कुमार अरुण
(कविता) (नोट-प्रकाशित रचना इंदौर समाचार पत्र मध्य प्रदेश ११ मार्च २०२५ पृष्ठ संख्या-1 , वुमेन एक्सप्रेस पत्र दिल्ली से दिनांक ११ मार्च २०२५ ...

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