साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Wednesday, July 24, 2024

हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता-सुरेश सौरभ

   पुस्तक समीक्षा  
                         


पुस्तक- हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता
संपादक- डॉ. मिथिलेश दीक्षित
प्रकाशक-शुभदा बुक्स साहिबाबाद उ.प्र.
मूल्य-300/
पृष्ठ-112 (पेपर बैक)
    
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

                डॉ. मिथिलेश दीक्षित साहित्य जगत में एक बड़ा नाम है। शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि साहित्य और समाज सेवा में भी आपका उल्लेखनीय योगदान है। हिंदी की तमाम विधाओं में आपका रचना कर्म है। विभिन्न विधाओं में आप की लगभग  अस्सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं। हाल ही में इनकी किताब हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता के नाम से सुभदा बुक्स साहिबाबाद से प्रकाशित हुई है, जो हिंदी लघुकथा के पाठकों, लेखकों और शोधार्थियों- विद्याथिर्यों  के लिए पठनीय और वंदनीय है। संपादकीय में डॉ.मिथिलेश दीक्षित लिखती हैं- हिंदी साहित्य की गद्यात्मक विधाओं में लघुकथा सबसे चर्चित विधा है। आज के विधागत परिपेक्ष्य में लघुकथा के स्वरूप को देखते हैं, तो लगता है इसके स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है, इसका मूल प्रयोजन भी बदल गया है। अब उपदेशात्मक या कोरी काल्पनिक लघुकथाओं में विशेष पत्रों के स्थान पर सामान्य जन का प्रतिनिधित्व करने वाले सामान्य पात्रों का समयगत परिस्थितियों में चित्रण होता है.....और वे आगे लिखतीं हैं..संक्षिप्तता गहन संवेदन, प्रभाव सृष्टि और संप्रेषण क्षमता लघुकथा की विशिष्ट गुण है। "लघुकथाकार का गहन संवेदन जब लघुकथा में समाहित हो जाता है, तब शिल्प में सघनता आ जाती है, भाषा में सहजता और पात्रों में जीवन्तता आ जाती है‌।"
      डॉ.ध्रुव कुमार, अंजू श्रीवास्तव निगम, इंदिरा किसलय, डॉ.कमल चोपड़ा, कल्पना भट्ट, कनक हरलालका, डॉ.गिरीश पंकज, निहाल चंद्र शिवहरे, बी. एल. अच्छा, डॉ,भागीरथ परिहार, मुकेश तिवारी, मीनू खरे, रजनीश दीक्षित, शील कौशिक, डॉ. शैलेश गुप्ता 'वीर' ,डॉ.शोभा जैन, सत्या  सिंह, डॉ.स्मिता मिश्रा, डॉ. सुरंगमा यादव, डॉ.सुषमा सिंह, संतोष श्रीवास्तव के बहुत ही शोधपरक लेखों  को इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया हैं।  लेखों में लघुकथा के शिल्प, संवेदना, और लघुकथा के  वर्तमान, अतीत और भविष्य पर बड़ी सहजता, सूक्ष्मता और गंभीरता से विमर्श किया गया है। पुस्तक में हिंदी लघुकथा के बारे में डॉक्टर मिथिलेश दीक्षित से डॉ.लता अग्रवाल की बातचीत भी कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर की गई है, जिसमें लघुकथा की प्रासंगिकता, उसकी उपयोगिता, उसका आकार-प्रकार व मर्म, उसमें व्यंग्य तथा शिल्पगत विविधता आदि। 

         प्रसिद्ध साहित्यकार  गिरीश पंकज पुस्तक में अपने आलेख में लिखते हैं-" कुछ लेखक लघुकथा को लघु कहानी समझ लेते हैं जिसे अंग्रेजी में 'शॉर्ट स्टोरी' कहते हैं, जबकि वह लघु नहीं पूर्ण विस्तार वाली सुदीर्घ कहानी ही होती है। लघुकथा के नाम पर 500 या 1000 शब्दों वाली भी लघुकथाएं मैंने देखी हैं और चकित हुआ हूं ।ये किसी भी कोण  से लघुकथा के मानक में फिट नहीं हो सकती। मेरा अपना मानना है कि लघुकथा 300 शब्दों तक ही सिमट जाएं तो बेहतर है। तभी सही मायने में उसे हम संप्रेषणीय में लघुकथा कहेंगे। अगर वह 500 या उससे अधिक शब्दों तक फैल जाती है तो उसे लघु कहानी के श्रेणी में रखना उचित  होगा।"
         मिथिलेश जी ने बहुत श्रमसाध्य कार्य किया है,  लघुकथा पर कालजयी विमर्श की पहल की है उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। 



Monday, June 17, 2024

पापा पिस्तौल ला दो(लघु चलचित्र समीक्षा)-रमेश मोहन शुक्ल

  लघु चलचित्र समीक्षा  

    'पापा पिस्तौल ला दो' कुल सात मिनट छ: सेकेंड की यह लघु फिल्म पिता और पुत्री के रिश्तों की हृदय स्पर्शी प्रेरणादायक  कहानी है, जो आजकल बेहद चर्चा का विषय बनी हुई है, माधव (आर. चंद्रा) अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद तीन बेटियों को गरीबी में पाल-पोस रहा है। एक दिन शाम होने को, माधव बाज़ार जाने को तैयार हो रहा है। मगर उसकी बड़ी बेटी निम्मी (ऋचा राजपूत) अभी तक घर नहीं आई है। इस बात को लेकर माधव थोड़ा चिंतित है। 

   
 अपनी साइकिल के पास बाजार जाने के लिए तैयार है, वह  अपनी दोनों बेटियों पिहू और भूमि से बाज़ार से क्या लाना है, पूछता है, तभी माधव की बड़ी बेटी निम्मी स्कूल से वापस आ जाती है। मगर वो  बेहद गुस्से में हैं, और आते ही, अपने पापा से पिस्तौल लाने को कहती है।  माधव पहले तो भयभीत होता है। मगर निम्मी से पिस्तौल मांगने की वजह पूछता है। तब निम्मी समाज के कुछ अराजक तत्वों से परेशान होने की बात करती है, जिससे माधव निम्मी को आत्मरक्षा के लिए एक एकेडमी ले जाता।  वहाँ निम्मी ताईकांडो की ट्रेनिंग लेती है,और फिर एक दिन उन बदतमीज शोहदों को सबक सिखाती है जो उसे रोज परेशान करते रहते थे। ऐसे निम्मी की ज़िन्दगी ही बदल जाती है, एक कमजोर लड़की ताकतवर बन जाती है। माधव की सोच समाज को एक नई सीख देती है। दिशा देती है। कम समय में बड़ी ही स्पष्टता से कहानी बहुत कुछ कह जाती है। 
    फिल्म के कई दृश्य सिहरन पैदा करते हैं। केंद्रीय भूमिका में ऋचा राजपूत ने अपने अभिनय से सबका मन मोह लिया है। 
पिता की भूमिका में आर. चंद्रा खूब जमे हैं। कुछ और सहायक कलाकारों ने लघु फिल्म को अपनी मेहनत लगन से अच्छी बनाने का पूरा प्रयास किया है। फिल्म के निर्माता/ निर्देशक हैं शिव सिंह सागर, फिल्म की कहानी  चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ ने लिखी है। कैमरे पर पिंकू यादव ने उतारा है। इस फिल्म को आप लोग यूट्यूब पर अर्पिता फिल्म्स इंटरटेनमेंट पर देख सकते हैं। 

               रमेश मोहन शुक्ल 
   संपादक, संभावित संग्राम फतेहपुर

Friday, March 29, 2024

मन का फेर (अंधविश्वासों रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित साझा लघुकथा संग्रह)-मनोरमा पंत

पुस्तक समीक्षा

मनोरमा पंत 
वरिष्ठ  साहित्यकार
भोपाल (म०प्र०)

पुस्तक-मन का फेर (अंधविश्वासों रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित साझा लघुकथा संग्रह) 
प्रकाशन-श्वेत वर्णा प्रकाशन नोयडा
संपादक-सुरेश सौरभ 
मूल्य- 260 /
अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों के संपादक-लेखक सुरेश सौरभ, नवीन लघुकथा का साझा संग्रह ‘मन का फेर‘ लेकर पाठकों के बीच उपस्थित हुए हैं, अंधविश्वासों, रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित यह साझा लघुकथा संग्रह अपने आप में बेहद अनूठा है। जिसमें उनकी संपादन कला निखर कर आई है। बलराम अग्रवाल, योगराज प्रभाकर जैसे प्रमुख लघुकथाकारों ने  एक स्वर में कहा है कि लघुकथा का मुख्य उद्देश्य समाज की विसंगतियों को सामने लाना है।’ इस उदेश्य में सुरेश  सौरभ  का नवीनतम  लघुकथा-संग्रह  ‘मन का फेर’ खरा उतरा है। यह एक विडम्बना ही है कि विकसित देशों के समूह  में शामिल होने में अग्रसर  भारत का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी धर्म और परम्परा के नाम  पर ढोंगी महात्माओं और कथित मौलवियों के जाल में फँसा हुआ है। अभी भी स्त्री को डायन करार कर प्रताड़ित  किया जाता है, पिछड़े इलाकों में बीमार  व्यक्ति को, चाहे वह दो महीने का बच्चा ही क्यों न हो, नीम हकीम के द्वारा लोहे के छल्लों से दागा जाता है। ऐसे समाज  को जागरुक करने का बीड़ा  उठाने में यह लघुकथा-संग्रह  सक्षम  है ।
डॉ० राकेश माथुर
'मन का फेर' पुस्तक पढ़ते हुए.


      सुकेश सहानी, मीरा जैन, डॉ.पूरन सिंह, कल्पना भट्ट, डॉ. अंजू दुआ जैमिनी, गुलजार हुसैन, चित्तरंजन गोप 'लुकाठी', डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, रमाकान्त चौधरी, अखिलेश कुमार ‘अरूण’, डॉ. राजेंद साहिल, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, रश्मि लहर, विनोद शर्मा, सहित 60 लघुकथाकारों से सुसज्जित, 144 पृष्ठीय संग्रह में, आडम्बरों को, रूढ़ियों को बेधती मार्मिक लघुकथाएँ सहज, सरल, भाषा शैली में, पाठकों को आकर्षित करने में सफल है। हाल ही में इस संग्रह का विमोचन स्वच्छकार समाज और समाज सेवियों ने किया। सौरभ जी का प्रसास है कि समाज में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक साहित्य पहुँचे। संग्रह की भूमिका प्रसिद्ध पत्रकार लेखक अजय बोकिल ने लिखी है। संग्रह की लघुकथाएँ शोधपरक एवं पठनीय हैं। सुरेश  सौरभ  को  इस लघुकथा-संग्रह के लिए  बधाई।

Friday, June 30, 2023

वेदनाओं की मुखर अभिव्यक्ति है किन्नर कथा-सत्य प्रकाश ‘शिक्षक

पुस्तक समीक्षा



पुस्तक-इस दुनिया में तीसरी दुनिया 
(साझा लघुकथा संग्रह संपादक-डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर‘ एवं सुरेश सौरभ)  
मूल्य-249
प्रकाषन-श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली
प्रकाशन वर्ष-202

                संवेदनशील व्यक्ति आस-पास की घटनाओं को नजर अंदाज नहीं कर सकता, जो घटता है उसके मन पर गहरा असर डालता है। इस दुनिया में तीसरी दुनिया (‘किन्नर कथा) नामक लघुकथाओं के संकलन में रचनाकारों ने उन तमाम संवेदनाओं को अभिव्यक्त किया है जो प्रायः के अछूती रही हैं। घृणा, प्रेम, प्रतिशोध ग्लानि के ताने-बाने से चुनी संग्रह की लघुकथाओं में किन्नरों के प्रति जन सामान्य की, दुर्भावना साफ झलकती है। प्रस्तुत कृति मेें लेखक-लेखिकाओं ने अनुत्तरित मुद्दों को विमर्श प्रदान किया है। संग्रहीत 78 लघुकथाकारों की लघुकथायें जीवन के कटु सत्य को उजागर करती हैं। अंजू निगम की ‘आशीष‘ कथा में किन्नरों की सदाशयता प्रकट होती है-जब पता चलता है कि मुंडन संस्कार करा के लौटे परिवार का पर्स ट्रेन में चोरी हो चुका है, तो वे सोहर गा-बजाकर आशीष देते हुये बिना नेग लिये टोली के साथ बाहर निकल जाती हैं। अभय कुमार भारती की लघुकथा ‘फरिश्ते‘ में किन्नरों की टोली ट्रेन में जिस तरह जहर खुरानी के शिकार यात्री की मदद करती है, वह प्रशंसनीय है। दृष्टव्य है, जब सहयात्री एक-दूसरे का मुख ताकते रह जाते हैं तब किन्नरों की संवेदना काम आती है। इस प्रकार प्रस्तुत संकलन में योगराज प्रभाकर, डॉ. लता अग्रवाल, राहुल शिवाय, राम मूरत राही, विजयानंद विजय, राजेंद वर्मा, विभा रानी श्रीवास्तव,हर भगवान चावला, संतोष सुपेकर आदि रचनाकारों ने किन्नरों की संवेदनाओं का चित्रण एवं विश्लेषण उनके जीवन के विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखकर बहुत ही कायदे से किया है। समीक्ष्य साझा संग्रह ‘इस दुनिया में तीसरी दुनिया‘ के सफल संयोजन व संपादन के लिये डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर‘ एवं सुरेश सौरभ जी को बहुत-बहुत बधाई। नयी राहों का यह संग्रह अन्वेषी बने ऐसी कामना है।
समीक्षक-सत्य प्रकाश ‘शिक्षक‘
पता-कीरत नगर टेलीफोन एक्सचेन्ज के पीछे लखीमपुर-खीरी पिन-262701
मो-7985222074


Monday, June 26, 2023

इस दुनिया में तीसरी दुनिया से साक्षात्कार -डॉ.आदित्य रंजन

(पुस्तक समीक्षा)

पुस्तक-इस दुनिया में तीसरी दुनिया (साझा लघुकथा संग्रह)
संपादक -डॉ.शैलेष गुप्त 'वीर'/सुरेश सौरभ 
मूल्य-249
प्रकाषन-श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली को
प्रकाशन वर्ष-2023

किन्नर विमर्श पर आधारित ‘‘इस दुनिया में तीसरी दुनिया‘‘ के सम्पादक डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर‘ व सुरेश सौरभ जी ने किन्नरों के जीवन की हकीकतों-तकलीफों को परत-दर परत खोलने के लिए इस संग्रह में सामयिक-मार्मिक लघुकथाओं का साझा संकलन प्रस्तुत किया है। जहाँ हमारा सम्पूर्ण समाज स्त्री एवं पुरुष इन्हीं दो वर्गों को समाज की धुरी मान बैठा, है वहीं इन दोनों से पृथक एक ऐसा वर्ग भी है जो न तो पूर्ण स्त्री है और न ही पूर्ण पुरुष, यह वर्ग है किन्नर का, जिसे हमारे समाज में हिजड़ा, छक्का, खोजा और अरावली आदि नामों से जाना जाता है।
      परिवार और समाज से परित्यक्त यह किन्नर समुदाय लगातार अपने हक तथा अपने वजूद के लिए संघर्ष करता रहता है। समाज का यह वर्ग जो स्त्री एवं पुरुष के मध्यबिंदु पर खड़ा है, अपनी अपूर्णता के कारण समाज में हीन दृष्टि से देखा जाता है। अपनी अपूर्णता के दर्द को तिल-तिल सहते ये किन्नर कभी समाज में अपने हक के लिए तो कभी अपने वजूद की पूर्णता के लिए,कभी निज से तो कभी समाज से संघर्ष करते दीख पड़ते हैं।
       इस लघुकथाओं के संग्रह में किन्नर जीवन की त्रासदी, अकेलेपन, परिवार से परित्यक्त होने का दर्द और समाज के तिरस्कार को सहते किन्नरों के जीवन का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। संग्रह में विभिन्न लेखकों की लघुकथाओं के संकलन होने के नाते किन्नरों के विषय में बहुकोणीय दृष्टिकोण व विमर्श परिलक्षित होता है।
     इस संग्रह की प्रथम लघुकथा अंजू खरबंदा की ‘‘बुलावा‘‘ है, जिसमें संभ्रांत समाज द्वारा किन्नरों के प्रति सद्भावना दर्शायी गई है। डॉ. कुसुम जोशी द्वारा रचित ‘मैं भी हिस्सा हूँं‘ एक ऐसे किन्नर की कहानी है जिसे अपने कालेज की पढ़ाई के दौरान समाज से संघर्ष करके संभलते हुए दिखाया गया है। 
     ‘इस दुनिया में तीसरी दुनिया‘ में अठहत्तर बेहतरीन लघुकथाओं का समावेश किया गया है। लेकिन विशेष रूप से सुरेश सौरभ की ‘राखी का इंतजार‘, सीमा वर्मा की ‘बढ़ोत्तरी‘, सरोज बाला सोनी की ‘बहन कब आयेगी‘, रेखा शाह आरबी की ‘त्याग‘, माधवी चौधरी की ‘अधूरापन‘, प्रियंका श्रीवास्तव ‘शुभ्र‘ की ‘न्याय‘, गुलजार हुसैन की ‘चोट‘, दुर्गा वनवासी की ‘पीड़ा‘ आदि लघुकथाओं में किन्नरों के जीवन, समाज में स्थान और उनकी पहचान को बड़े ही अच्छे ढंग से, संजीदा तरीके से प्रस्तुत किया है। इन लघुकथाओं के माध्यम से समाज में एक नवीन दृष्टिकोण उजागर होगा और यह पुस्तक निश्चित तौर पर समाज में किन्नरों के प्रति लोगों की सोच में परिवर्तन लाने का कार्य करेगी। इसके लिए मैं इस पुस्तक के सम्पादक डा. शैलेष गुप्त वीर व सुरेश सौरभ को कोटि-कोटि बधाई देता है। साथ ही मै श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली को भी बधाई देता है, जिन्होंने इस पुस्तक के कवर डिजाइन से लेकर शब्द संयोजन तक में बेतरीन कार्य किया तथा आकर्षक और हार्ड बाउंड रूप में पुस्तक प्रकाशित करके पाठकों तक पहुँचाने का सुफल किया। संग्रह पठनीय संग्रहणीय है और किन्नर विमर्श के शोधकर्ताओं के लिए नये द्वार खोलेगा।

समीक्षक डॉ आदित्य रंजन
प्रवक्ता ( प्रा.भा.इतिहास)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली लखीमपुर खीरी

Tuesday, April 11, 2023

समसामयिक मुद्दों पर रंग बिखेरती सौरभ की "बेरंग"-नृपेन्द्र अभिषेक नृप

 पुस्तक समीक्षा

हिन्दी साहित्य की दुनिया में अपनी पहचान बना चुके बहुमुखी प्रतिभा के धनी लखीमपुर खीरी निवासी, सुरेश सौरभ जी की कलम लघुकथाओं के साथ-साथ कविताओं, कहानियों और व्यंग्य लेखन में भी काफ़ी लोकप्रिय हो रही है। सुरेश जी अक्सर समसामयिक मुद्दों पर लिखते ही रहते हैं और देश के प्रसिद्ध समाचार पत्रों में छपते रहते हैं। उनकी रचनाएं यथार्थ का सच्चा आईना होती हैं, जो समाज के वंचित तबकों के लिए हक और हुकूक की वकालत करतीं रहतीं हैं।
       हाल ही में सुरेश सौरभ का लघुकथा संग्रह "बेरंग" प्रकाशित हो कर चर्चित हो रहा है, जिसमें उन्होंने समसामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर लघुकथाओं को संग्रहीत किया है। समाज में निरंतर पनप रही बुराइयों का भी उन्होंने सुंदर शब्दांकन किया है। लेखक ने पुस्तक में सरल एवं ओजस्वी भाषा शैली प्रस्तुत की है। संदेशप्रद लघुकथाओं के‌ इस संग्रह में कुल 78 लघुकथाएं संग्रहीत है।
      पुस्तक का नामकरण संग्रह की लघुकथा 'बेरंग' पर किया गया है, जिसमें लेखक ने हिंदुओं के प्रसिद्ध त्यौहार होली को विषय बनाया है। इस लघुकथा में लेखक ने होली के बहाने, महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहारों को मनौवैज्ञानिक ढंग से दर्शाया है।वे लिखते हैं. 'होली एक समरसता का त्योहार है। प्रेम और धार्मिक सौहार्द को बढ़ाता है।... कुछ आवारा शोहदों ने इसे बिलकुल घिनौना बना दिया है।... ऐसे होली को बेरंग करने वाले कथित लोगों से बचने की वे सीख देते हैं। सजग करते हैं।
    'बौरा' लघुकथा में लेखक ने एक मूक बधिर की प्रेम कथा को लिखा है, जिसमें वह अपनी प्रेमिका से मिलते हुए पकड़ा जाता है। समाज प्रेमिका को निर्दोष मान कर छोड़ देता है लेकिन बौरा जो कि मूक बधिर था, अपनी सफ़ाई में कुछ नहीं बोल सकता था, उसे जेल भेज दिया जाता है। उन्होंने इस लघुकथा में समाज की दोहरी मानसिकता को दिखाया है, जिसमें समाज प्रेम का दुश्मन बन बैठा है और उसकी नजर में प्रेमी युगल में, एक दोषी तो दूसरा निर्दोष दिख जाता हैं।
      एक बेटी को शादी के बाद ससुराल जाना पड़ता है और सारी जिंदगी वहीं रहना पड़ता है, अपने माँ और पिता से बहुत दूर। इस विषय पर सुरेश जी ने ' पीड़ाओं के पक्षी' लघुकथा लिखी है। एक छोटी सी बच्ची को जब पता चलता है कि उसे बड़ी होकर ससुराल जाना पड़ेगा, तो वो रोने लगती है। समाज के बनाये इस रस्म-रीति से वह अंजान है, छोटी बेटी को इसमें कुछ भी, ठीक नहीं लग रहा है क्योंकि जो बेटी अपने माँ-बाप की गोद में खेल कर बड़ी होती है, उसे एक दिन उनसे ही बिछड़ कर जाना पड़ता है। यह कथा मार्मिक है जो बेटी के प्रति मां-बाप के प्रेम और करूणा को दर्शाती है।
      आज का मानव अपने अहम की लड़ाई में एक-दूसरे के देशों पर हमला करने से बाज नहीं आता है। रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले को, विषय बना कर लिखी गई लघुकथा 'कुत्ते कीव के' में लेखक ने दो कुत्तों के वार्तालाप के माध्यम से कीव की अव्यवथा को दिखाया है। इसके अलावा लघुकथा 'रूस लौट न सके' में भी एक पक्षी को ले कर यूक्रेन के लोगों के कराहते जीवन को लेखक ने बरीकी से बयां किया है। वे लघुकथा 'युद्ध नहीं बुद्ध' के द्वारा शांति का संदेश देते हैं, तो वहीं लघुकथा 'बारूद की भूख ' में बम के धमाके से चीख़ते मजबूर प्रवासी लोगों के आँसूओं को  दर्शाते हैं। 
       इस पुस्तक में समाज के  सामाजिक, साम्प्रदायिक एवं बाह्य आडम्बरों पर लेखक ने गहरी चोटें कीं है।'कर्मकांड',  तेरा-मेरा मजहब' , 'बेकारी' , 'भरी जेब' , 'अनकहे आँसू' , 'ठेकेदारों का ठिकाना' जैसी लघुकथाओं के माध्यम से सुरेश जी ने समाज की विविधताओं भरे जीवन को  बेहतरीन ढंग  से लिखा है। लघुकथाओं में भाषा शैली और विषय की विविधताओं ने पुस्तक में चार चाँद लगा दिए है, जो कि  पाठकों को पढ़ने के लिए उत्सुक कर रही है। उन्हें लुभा रही है। वास्तव में यह पुस्तक गागर में सागर भर रही है, जिसमें 78 लघुकथाओं ने संग्रह 'बेरंग' में विविध रंग बिखेरें हैं।

समीक्षक : नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक : बेरंग
लेखक: सुरेश सौरभ
प्रकाशक: श्वेत वर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 200 रुपये।
मो- 99558 18270

Tuesday, March 21, 2023

दो बड़े राजवंशों के बीच का काल, मौर्योत्तर काल का इतिहास-अखिलेश कुमार अरुण

 समीक्षा 



पुस्तक परिचय
पुस्तक का नाम-मौर्योतर काल में शिल्प, व्यापर और नगर विकास
लेखक- डॉ० आदित्य रंजन
प्रकाशक- स्वेतवर्णा प्रकाशन (नई-दिल्ली)
मूल्य-199.00
प्रकाशन वर्ष- 2022

इतिहास गतिशील विश्व का अध्ययन है जिस पर भविष्य की नींव रखी जाती है, बीते अतीत काल का वह दर्पण है जिसमें वर्तमान पीढ़ी अपनी छवि देखती है और भविष्य को संवारती है। पृथ्वी पर जितने भी प्राणी पाए जाते हैं उन सब में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो अपने अतीत में घटी घटनाओं को याद रखता है। जिस क्रम में आज जो भी कुछ हम पढ़ने को पाते हैं वह पूर्व घटित घटनाओं का वर्णन होता है। जिसे विभिन्न समयकाल में शोध कर लिखा गया है और इतिहास लेखन में अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है। अतः इसी लेखन की अग्रेत्तर पीढ़ी में डॉ० आदित्य रंजन अपनी पुस्तक मौर्योत्तर काल में शिल्प-व्यापार एवं नगर विकास (200 ई०पू० से 300 ई०) लेकर आते हैं जो अपने विषयानुरूप एकदम अछूता विषय है जिस पर कोई सटीक पुस्तक हमें पढ़ने को नहीं मिलती। यह पुस्तक पांच अध्यायों में विभक्त है जिसमें मौर्योत्तर काल में शिल्प, व्यापर, नगर विकास और मुद्रा अर्थ व्यवस्था तथा माप-तौल पर सटीक लेखन किया गया है।

इतिहास के अध्येताओं और विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी साबित होगी और इसे अपने पूर्व पुस्तकों की पूरक कहना न्यायोचित होगा। इस पुस्तक में दो बड़े राजवंशों (मौर्य और गुप्त काल) के बीच में छिटपुट राजवंशों के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक जानकारी उपलब्ध कराती है तथा सामंतवाद के प्रारम्भिक चरण की शुरुआत में शिल्प-श्रेणियों तथा वर्ण व्यवस्था के समानांतर जाति व्यवस्था के विकास की कहानी को स्पष्ट करती है । 

पुस्तक के प्राक्कथन में लिखा है कि इस काल के ग्रन्थों में शिल्पियों के जितने प्रकार प्राप्त होते हैं वह पूर्व ग्रन्थों में नहीं मिलते...नि:सन्देह इस काल के धन्धों में दस्तकारों की अत्यधिक बढ़त हुई शिल्पी लोग संगठित होते थे जिनको संगठित रूप में श्रेणी कहा जाता था। पुस्तक के सन्दर्भ में यह कथन न्यायोचित है। वह सब कुछ इतिहास के अध्येता को इस पुस्तक में पढ़ने को मिलेगा जिसकी आवश्यकता मौर्योत्तर काल के इतिहास को जानने के लिए आवश्यक बन पड़ता है।

 

इस पुस्तक में मौर्योत्तर कालीन विकसित शिल्प एवं शिल्पियों तथा उनके व्यवसाय सम्बंधित शुद्धता (सोने-चांदी जैसे धातुओं में मिलावट आदि) के अनुपात को भी निश्चित किया गया है निर्धारित अनुपात से अधिक अंश होने पर शिल्पी को दण्ड देने का प्रावधान है। इस पुस्तक में कहा गया है कि कौटिल्य सोना (स्वर्ण) पर राज्य का एकाधिकार स्थापित करता है। यहां तक कि धोबी (रजक) को वस्त्र धोने के लिए चिकने पत्थर और काष्ट पट्टिका का वर्णन भी मिलता है और यह भी निर्धारित है कि धोबी को जो कपड़े धुलने के लिए मिलते थे उसको किसी को किराए पर देता है अथवा फाड़ देता है तो उसे 12 पड़ का दण्ड देना होता था। मौर्योत्तर काल में पोत निर्माण का भी कार्य किया जाता था जिसका वर्णन इस पुस्तक में किया गया है सामान्यतः इन सब बातों का वर्णन इतिहास की पूर्ववर्ती पुस्तकों में पढ़ने को नहीं मिलता है इस लिहाज से यह पुस्तक अत्यन्त महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध होती है।

मौर्यकालीन राज्य और व्यापार से संबंधित राजाज्ञा और वस्तुओं के क्रय विक्रय से सम्बंधित अनुज्ञप्ति-पत्र, थोक भाव पर बेचे जानी वाली वस्तुओं का मूल्य निर्धारण वाणिज्य अधीक्षक के द्वारा किया जाना तथा मिलावट तथा घटतौली आदि के सन्दर्भ में कठोर से कठोर दण्ड का विधान आदि सामान्यतः बाजार नियंत्रण अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल की महान उपलब्धि है किन्तु इस में वर्णित बाजार व्यवस्था को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि खिलजी का बाजार नियंत्रण मौर्य और मौर्योत्तर कालीन व्यवस्था का विकसित स्वरूप है।

पुस्तक के अंतिम अध्याय में मुद्रा अर्थव्यवस्था तथा माप-तौल पर मौर्योतर कालीन सिक्के और माप के परिणाम को विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है। सिक्कों के वर्णित प्रकारों में अग्र, अर्जुनायन, अश्वक, औदुम्बर, क्षुद्रक, कुतूल, कुनिंद, मालव, शिबि, औधेय (काल विभाजन के आधार पर १. नंदी तथा हाथी प्रकार के सिक्के, 2.कार्तिकेय ब्रहामंड देव लेख युक्त सिक्के, ३. द्रम लेखयुक्त सिक्के, ४. कुषाण सिक्कों की अनुकृति वाले सिक्के तथा माप-तौल के लिए निर्धारित माप के परिमाणों यथा-रक्तिका, माशा, कर्ष, पल, यव, अंगुल, वितास्ति, हस्त, धनु, कोस, निमेष, काष्ठ आदि का उल्लेख पुस्तक उपयोगिता को सिद्ध करते हैं।

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर (खीरी) उ०प्र०

 

Wednesday, February 08, 2023

घनीभूत संवेदनाओं का प्रगटीकरण-डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

पुस्तक समीक्षा 


पुस्तक -बेरंग (लघुकथा संग्रह )
लेखक-सुरेश सौरभ
प्रकाशन-श्वेत वर्णा प्रकाशन नई दिल्ली।
मूल्य -२००
प्रकाशन वर्ष-2022
मानव समाज के उत्तम दिशा में उत्थान हेतु स्वस्थ व उत्तम मानवीय संस्कारों की आवश्यकता होती है और ऐसे मानवीय संस्कार हमें संस्कृति से ही प्राप्त हो सकते हैं। संस्कृति को उत्तम रखने में साहित्य की भूमिका महती होती है। उत्तम साहित्य, संस्कृति में मौजूद विषाणुओं को समाप्त कर रोगयुक्त संस्कारों में संजीवनी का संचार करने की क्षमता रखता है।
कहना न होगा कि प्रस्तुत लघुकथा संग्रह "बेरंग" में इसके रचयिता सुरेश सौरभ ने उक्त कथनों को ही मूर्तिमंत किया है। लेखक ने अटूट परिश्रम से सामयिक विविध विषयों की जीवंत झांकी को सरल एवं ओजस्वी भाषा शैली में प्रस्तुत किया है, वह श्लाघनीय है। यह अनुभवजन्य और सन्देशप्रद लघुकथाओं का संग्रह है, जिसमें 77 लघुकथाएँ विद्यमान हैं। ये रचनाएँ जीवन के दर्पण सरीखी हैं। 
साहित्य इन्द्रधनुषीय होता है, जिसमें जीवन के विविध रंग होते हैं, लेकिन इस संग्रह का शीर्षक बेरंग है, जो कि लेखक ने अपनी एक रचना पर रखा है। इस संग्रह की अन्य अग्रणीय व चर्चा योग्य लघुकथाओं में से एक 'बेरंग' लघुकथा ने होली सरीखे उत्तम त्यौहार पर महिलाओं के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार की वेदना को जो स्वर दिया है, वह विचारने को मजबूर करता है।
'कन्या पूजन' एक स्तब्ध कर देने वाला कथानक है। नवरात्र में कन्या पूजन के बहाने से किसी बालिका के साथ बलात्कार करना अमानवीयता की पराकाष्ठा है और इसी तरह के समाज-कंटक संस्कृति की उत्तमता को अपने घिनौने नकाब से ढक देने में कामयाब हो ही रहे हैं।
अछूती व नई कल्पनाशीलता से पगी रचनाएँ ही अधिकार पूर्वक अपना स्थान बना सकती हैं। 'धंधा' भी इसी तरह की एक लघुकथा है, इसकी भाषा शैली बहुत अच्छी है, इसमें एक मुहावरे का भी निर्माण हो रहा है- 'पचहत्तर आइटमों में छिहत्तर मसाले'। रचना समाज में फैली दिखावे की संस्कृति में छिपे धन की बचत के भाव को दर्शा पाने में पूर्ण सफल है।
'महँगाई में फँसी साइकिल' में चिंतन और मनन के माध्यम से जो ताना-बाना बुना गया, वह काबिले तारीफ है। उसे बिना लाग-लपेट के सरलता से व्यक्त करना उत्कृष्ट रचनाकार की गूढ़ चिन्तनशीलता को दर्शाता है।
लघुकथा संसार ने तो बहुत प्रगति की है, लेकिन लघुकथा संस्कार ने नहीं। इन दिनों कई सामयिक लघुकथाओं में लेखकीय पूर्वाग्रहों के कारण नकारात्मकता का पोषण दृष्टिगत हो रहा है। इस कथन के विपरीत, 'बादाम पक चुका' भारतीय संस्कृति के उस सत्य का समर्थन करती रचना है, जिसमें पति व पत्नी के मध्य विश्वास का रिश्ता होता है। 
'दावत का मज़ा' भूख और ग़रीबी से जूझते तबके की मजबूरियों और विडंबनाओं के सामने दावतों के रंग को बेरंग बना रही है। यह रचना लेखक की गहन-गंभीर चिंतनशीलता को प्रदर्शित करती है। 
'भरी-जेब' एक अलग ही धरातल पर आकार लेती है, जो धन की बजाय प्रेम और संवेदना की एक बारीक़ धुन में बंध कर स्वयं को धन्य समझने को बताती है। बड़ी ही सरलता से प्रेम और मनुष्य के संबंधों की बारीक़ियों को भी रेखांकित करती हैं।
'तेरा-मेरा मज़हब' चूड़ी और कंगन के प्रतीकों के जरिए साम्प्रदायिक सद्भाव का एक ऐसा चित्र खींचती है, जिसका शब्द-शब्द अपने आप में अनूठा है। यह रचना जर्मन संगीतकार बीथोवेन के गीत सरीखी एक नवाचार है।
'पूरा मर्द' में रचनाकार ने सरल और सहज शब्दों में बिना किसी शोशेबाज़ी और दिखावे के सशक्त व रोचक ढंग से अपने विषय को दर्शाया है। यही इसकी मुख्य विशेषता है। यह उम्दा व भावप्रधान रचना है। 
रचनाओं को पढ़कर यह समझ आता है कि, ये लघुकथाएँ महज लेखकीय सुख के लिए नहीं लिखी गई हैं, बल्कि इन्हें रचने का उद्देश्य घनीभूत संवेदना का प्रगटीकरण है। लेखक ने हमारे आसपास की ही दुनिया के कई बिखरे हुए बिंदुओं को जोड़कर एक मुकम्मल तस्वीर उभारने का सफल प्रयास किया है। इस संग्रह में मनुष्य की कमज़ोरियाँ हैं और उसे समझने का प्रयास करता लेखक भी है। यहाँ सपने हैं, तो उनसे पैदा हुई हताशाएँ भी हैं। कटु आलोचनाएँ हैं, तो प्रेम की सुगंध भी है। प्रशस्तियाँ हैं, तो गर्जनाएँ भी हैं। कुछ लघुकथाएँ पाठकों से कठोर प्रश्न करती मनुष्य के मनुष्य के प्रति दुर्व्यवहार को भी बारीक़ी से उकेरती हैं। 
लेखक ने कुछ रचनाओं में प्रतीकों को प्रवीणता-कुशलता के साथ स्पष्ट किया है लेकिन इस बात का ध्यान रखते हुए कि यथार्थपरक तथ्य कहीं ओझल न हो जाए, अपितु उनके महत्व को भी पाठकगण हृदयंगम कर सकें। संग्रह की एक अच्छी बात यह भी है कि लेखक अच्छे-बुरे का ज़्यादा आग्रह नहीं करते, वह सिर्फ़ अपनी बात कहभर देतेहैं, बाक़ी पाठक अपने तरीक़े से विचारते रहें। सहजता से समाज का यथार्थ सामने रख देना और बिना उपदेश के विमर्श इस संग्रह की ख़ूबी है। 
   इस संग्रह के मूल्यांकन का अधिकार तो पाठकों को है ही। मेरे अनुसार, समग्रतः इस संग्रह की रचनाएँ पाठकों को विचार करने के लिए धरातल देती हैं। प्रभावशाली मानवीय संवेदनाओं, उन्नत चिन्तन, सारभूत विषयों को आत्मसात करती जीवंत लघुकथाओं से परिपूर्ण यह संग्रह रोचक-रोमांचक कथ्य के कारण पठनीय और सुरुचिपूर्ण साहित्यिक कृति है। 
लेखक श्री सौरभ को अशेष मंगलकामनाएँ।

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर – 313 002, राजस्थान
मोबाइल: 9928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com

Tuesday, January 03, 2023

दर्द का जीवंत दस्तावेज--वर्चुअल रैल-विनोद शर्मा ‘सागर’

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक --वर्चुअल रैली( लघुकथा संग्रह)
लेखक-- सुरेश सौरभ
प्रकाशक-इण्डिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड नोएडा - 201301
प्रथम संस्करण-2021 
मूल्य --160रु 


   वर्तमान हिंदी साहित्य में लघुकथा एक चर्चित विधा है। जिसका लेखन व्यापक रूप से हो रहा है। लघुकथा उड़ती हुई तितली के परों के रंगों को देख लेने तथा उन्हें गिन लेने की यह कला जैसा है। साहित्य संवेदना,सान्त्वना,सुझाव शिक्षा एवं संदेश का सागर होता है, जिसमें समाज के एक छोटे से छोटे व्यक्ति से लेकर बड़े से बड़े व्यक्ति तक की व्यथा-कथा समाहित होती है। लघुकथा में बहुत बड़ी बात या संदेश को कम शब्दों में कहने की सामर्थ्य होती है। अत्यंत प्रभावी ढंग से महत्वपूर्ण विषय व संदेश को कह पाने की क्षमता के कारण ही लघुकथा पाठकों में अपनी विशेष पहचान पकड़ व पहुँच बनाने में सफल हुई है और सभी को अत्यंत पसंद है।
     विगत वर्षों कोरोना महामारी के दौरान जहाँ एक तरफ हमें अत्यधिक कष्ट व पीड़ा हुई। जिंदगी में तमाम कठिनाइयों को झेलना पड़ा। आम जिंदगी तहस-नहस हो गई। वहीं दूसरी तरफ साहित्य सृजन,आत्ममंथन तथा आत्म विश्लेषण इत्यादि के लिए पर्याप्त अवसर भी प्राप्त हुए। इस दौरान एक तरफ पर्यावरण प्रदूषण कम हुआ तो दूसरी तरफ साहित्य समृद्ध हुआ।
      चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ जी का लघुकथा संग्रह ‘वर्चुअल रैली‘ अपने आप में अप्रतिम है, जिसमें कोरोना महामारी के दौरान हमारे समाज तथा जीवन की दशा के सजीव चित्र संग्रहित हैं। आमजन की पीड़ा व परेशानियों का मार्मिक सजीव चित्रण है। सौरभ जी की लघुकथाएँ जीवन से जुड़ी तमाम विसंगतियों व विषमताओं  की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करातीं हैं। समाज के सबसे निचले पायदान पर गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति चाहे वह अखबार वाला हो, कबाड़ी वाला हो, रिक्शावाला हो या मजदूर हो सबकी पीड़ाओं का खाका खींचती  दिखाई देती हैं।
       ये लघुकथाएँ सदैव यह सिखाती हैं कि मानव धर्म ही सर्वोच्च व शाश्वत है। इनकी लघुकथाओं को पढ़ना जीवन के असली रंगों से परिचित होना एवं पीड़ाओं तथा परेशानियों को करीब से पढ़ने जैसा है। इनकी कथाओं के पात्र एवं विषय हमारे आस-पास के समाज व आमजन की जिंदगी से जुड़े हुए लोग हैं। जिनमें जिंदगी की जद्दोजहद, जख्म और जरूरतें साफ देखे जा सकते हैं।
    104 पृष्ठ के इस लघुकथा संग्रह में कुल 71 लघुकथाओं से गुजरने के दौरान आपको विषम परिस्थितियों में कर्तव्य बोध, साहस व समाज की सत्यता का आभास होगा। ये बेबाक लघुकथाएँ हर स्तर पर हमें प्रखरता के साथ समाज की सच्चाई मानवता की सीख तथा परपीड़ा की पहचान कराती हैं। ये लघुकथाएँ प्रकाशकों के मनमाने रवैये पर भी तीखा प्रहार भी करती हैं। किन्नरों की सामाजिक अवहेलना एवं वेश्यावृत्ति की विवशता को उजागर करती हैं । सुरेश सौरभ की कलम यहीं ही नहीं रुकती है बल्कि समाज में सोशल मीडिया की क्रूरता व निजता के वायरल होने के गंभीर मामले को भी उठाती हैं।अव्यवस्था जनित परेशानियों की प्रतिलिपि और आमजन-मन की पीड़ाओं की प्रतिनिधि हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी के चाल-चलन चेहरे का सही रूप भी हमें दिखाती हैं। जीवन में अपनों का साया जब हटता है तो अबोध नौनिहाल पौधों का क्या होता है, इसका सोदाहरण दृश्य देखने को इन कथाओं में मिलता है । आत्मीय संबंध की उलझन की तरंगें कभी-कभी त्वरित तनाव के साथ आए तूफान उसके बाद सुखद सन्नाटें से गुनगुनाती खुशी के दर्शन, मन मोह लेते हैं। रिश्तों में बढ़ती अविश्वासनीयता,पतंगों के माध्यम से धरती पर मानव मन में जाति धर्म की झाड़ियों में फँसी मानवता व गरीबी में विवश स्त्री का दर्द और फर्जी मुठभेड़ की असलियत से रूबरू कराती हैं।
      आधुनिक बेतार जिंदगी में संबंधों के धागों की मजबूती व उनकी महक व महत्व को लघुकथाएँ रेखांकित करती हैं। गरीब बेबस विधवा तक को, जुगाड़ की बैसाखी से पहुँचती सुविधाएँ और नोटबंदी से उपजी दुश्वारियों के दृश्य, तालाबंदी से मासूम हृदय की माँग तथा गरीबों का उपहास करती योजनाओं पर तीखे व्यंग्य को उद्घाटित करती हैं। इस लघुकथा संग्रह में आमजन मन शोषित, पीड़ित वंचित व बेसहारा की पीड़ा को जुबान तो दी ही है साथ ही बेजुबान जानवरों की पीड़ा को भी स्वर प्रदान किया है। दहेज जैसी प्राचीन,अर्वाचीन विकराल कुप्रथा पर भी हृदयस्पर्शी प्रहार किया है। भूख प्यास से टूटी एक बच्ची की आत्मा के शब्द लॉकडाउन में घर से दूर-दराज फँसे परिजनों की घर वापसी की गुहार को भी हमारे दिल तक पहुँचाने का प्रयास किया है जो अव्यवस्था व भेदभाव को कोस रही है। लॉकडाउन में बंद वाहनों के साथ बंद मंदिरों व विद्यालयों से जुड़े हर व्यक्ति का ये लघुकथाएँ अनुवाद करती हैं।
      लेखक ने एक तरफ गरीबी भूख जनित अव्यवस्थाओं  को सामने रखा है तो वहीं दूसरी ओर अमीरों की विकृत मानसिकता व सोच पर भी करारा प्रहार किया है ।महानायक के दर्द के जरिए समाज को यह संदेश प्रेषित किया है कि ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त कोई सर्व शक्तिमान नहीं है। कोरोना के कारण जेलों की व्यवस्था का असली दृश्य भी प्रस्तुत किया है। महामारी की मार खाए पुलिस, वकील, वेश्या, मजदूर भिखारी के साथ-साथ आम जनमानस की चीख तथा  बेबसी को भी लघुकथाओं ने भाव भरे शब्द दिए हैं। इस संग्रह की अधिकाँश लघुकथाएँ देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकीं हैं। जिनका मूल उद्देश्य एक समतामूलक समाज की स्थापना है, जिनके नायक समाज में सबसे निम्न स्तर का जीवन यापन करने वाले लोग जैसे मजदूर, रिक्शावाला, मोची भिखारी, पेपर वाला इत्यादि हैं।
   यह सत्य है कि अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति जब तक समाज की मुख्यधारा से जुड़ कर प्रगतिशील नहीं बनता तब तक एक उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। साहित्य का मुख्य मकसद सवाल खड़े करना ही नहीं बल्कि समाधान सुझाना भी होता है। इन सबके साथ समाज में व्याप्त ढोंग, आडंबर, छुआछूत भेदभाव जातिवाद एवं विडंबना पर भी ये लघुकथाएँ निःसंकोच चोट करती हुई प्रतीत होती हैं। इस संग्रह में कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में विवश मानवता, सड़कों पर असहाय रेंगते जीवन के दीन-हीन दृश्य,भूख प्यास की पराकाष्ठा आदि का जमीनी चित्रण किया गया है।
     वर्चुअल रैली आमजन मन के दर्द का जीवंत दस्तावेज है। कोरोना काल में यह कर्तव्यबोध रिश्तों की विवशता, दुष्कर्म, दुर्दांतता के दर्दनाक दृश्य, ऑनलाइन शिक्षा की दुश्वारियाँ व दुविधाएँ दिखाता है। आपदा की आँड़ में हो रहे शोषण व अत्याचार व दुबक रही जिन्दगी को समेटती ये कथाएँ प्रभावी ढंग से पाठकों से जुड़ने में समर्थ हैं। तालाबंदी के दौरान भूख से तड़पते गरीबों तथा मजदूरों की पीड़ाओं का मार्मिक कोलाज सौरभ जी लघुकथाएँ प्रस्तुत करतीं हैं। इसके साथ ही परंपराओं के पराधीन धागों में बुने रिश्तों की घुटन व दुष्परिणाम का प्रभावी छायांकन भी करती हैं। एक तरफ जहाँ इस संग्रह में तालाबंदी(लाकडाउन)के दौरान दिहाड़ी मजदूरों पर पुलिस की बर्बरता, आवागमन बंद होने से वाहनों के लिए भटकते लोग और उनके रास्ता नापते पाँवों के छालों की कराह को समेटे हुए, सार्वजनिक स्वर प्रदान कर रही हैं तो दूसरी तरफ एक शहीद की माँ के गर्वित आँसू भी छलकते हैं। महामारी के दौरान मनुष्य का बदला जीवन व दुर्गंध मारती व्यवस्था की पोल खोलती हुई ये कथायें लघुकथा साहित्य में बेजोड़ हैं। इसलिए पाठकों के लिए यह लघुकथा संग्रह अतीत के गवाक्ष की तरह है। अतः इसे सभी को अवश्य पढ़ना चाहिए।

             समीक्षक-विनोद शर्मा ‘‘सागर’‘‘
                     हरगाँव -- सीतापुर 
                     उत्तर प्रदेश 
     सम्पर्क सूत्र-- 9415572588

Tuesday, August 16, 2022

युगीन दस्तावेज तालाबंदी-रंगनाथ द्विवेदी

पुस्तक समीक्षा 

तालाबंदी

नई दिल्ली, श्वेत वर्णा प्रकाशन से प्रकाशित देश के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले लघुकथाकारों का एक अविस्मरणीय संकलन तालाबंदी  हैं जो कोरोना काल के हर दर्द और पीड़ा की उन असंख्य सांसों पर लिखी गई हैं जिसे खुद लघुकथा लेखकों ने देखा व जिया है‌। यह कोरोना काल की वह "तालाबंदी" है जो कहीं ना कहीं सरकार की नाकामी के कालर को भी जनहित में पकड़ने और झिझोड़ने से बाज नहीं आती,शायद ऐसे ही कुछ बागी बेटे हर युग में, यह कलम पैदा करती रहती है।
     इस लघुकथाओं साझा संग्रह का संपादन खुद राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित युवा लघुकथाकार सुरेश सौरभ ने किया है। ये कोरोना काल के अब तक प्रकाशित सारे पुस्तक संकलनों में ऐसा संकलन है जिसकी हर लघुकथा को आप इस विश्व-विभीषिका के उस "आंसूओं" की तरह पढ़ सकते हैं जैसे छायावाद में जय शंकर प्रसाद के आंसू को लोग पढ़ते है।
इतनी बेहतरीन प्रिटिंग और छपाई के साथ कोई अन्य प्रकाशक होता तो मेरा दावा है कि वह इस संपादित पुस्तक की कीमत कम से कम अपने पाठकों  से पांच सौ रुपए वसूलता, लेकिन संपादक और प्रकाशक की इच्छा थी कि,इस विभीषिका के दर्द और पीड़ा से कुछ कमाने से बेहतर है कि यह संकलन सर्वाधिक लोगों के द्वारा खरीदा और पढ़ा जाए इसके लिए उन्होंने इस लघुकथा संकलन की कीमत मात्र 199/ रुपए निर्धारित की है।
   आने वाली हमारी पीढ़ियां जब भी कभी लघुकथा के रुप में संकलित हमारी इस पुस्तक रुपी वसीयत के पन्ने पलटेगी, तो उन्हें लगेगा की हमारे देश ने एक ऐसा हादसा भी कभी जिया था, जब मानवीय संवेदना से भी कहीं ज्यादा  लाशें इस देश के स्वार्थ संवेदना की पड़ी थी।इस लघुकथा संकलन में कुल 68 लघुकथा लेखकों की लघुकथाएं शामिल हैं।
              सौरभ जी लिखी संपादकीय विचारोत्तेजक और भावनात्मक शैली से लबरेज है।

पुस्तक -तालाबंदी
प्रकाशन श्वेत वर्णा प्रकाशन नई दिल्ली।
 मूल्य -199

जज कॉलोनी, मियापुर
जिला--जौनपुर 222002 (U P)
mo.no.7800824758
rangnathdubey90@gmail.com

Tuesday, October 19, 2021

बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती है लघु फ़िल्म कबाड़ी-डॉ.शैलेष गुप्त 'वीर'


सुरेश सौरभ की लघुकथा कबाड़ी पर बनी लघु फ़िल्म। शिव सिंह सागर ने किया है इस लघु फ़िल्म का निर्देशन
जिस प्रकार वर्तमान में साहित्य में लघु विधाएँ बहुत तेज़ी से लोकप्रिय हो रही हैं, ठीक उसी प्रकार लघु फ़िल्में भी दर्शकों को बहुत रास आ रही हैं। छोटी-छोटी कहानियाँ और लघुकथाओं पर बनी ये फ़िल्में समाज में एक सार्थक संदेश छोड़कर जाती हैं और बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती हैं। यदि कम में अधिक बात हो जाये, तो फिर विस्तार की क्या आवश्यकता है और यही साबित कर रही हैं लघु विधाएँ और लघु फ़िल्में। 

लखीमपुर के चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ की लघुकथा #कबाड़ी पर बनी लघु फ़िल्म #कबाड़ी यही साबित करती है। तेज़ी से बदल रहे परिवेश में मूल्य और संस्कार कहीं खोते जा रहे हैं। यहाँ तक कि विरासत भी आज के मनुष्य को बोझ लगने लगी है। वह वही विरासत सँभालना चाहता है, जिसका आर्थिक मूल्य हो। पैसे की ताक़त के आगे सारी चीज़ें गौड़ हो गयी हैं। मनुष्य की सोच बेहद संकुचित हो गयी है। सब कुछ पैसा, पैसा, पैसा। 'कबाड़ी' के माध्यम से समाज को यही संदेश दिया गया है। धरोहर पुरखों की निशानी होती है। वे पूर्वज, जिन्होंने हमको बहुत कुछ सौंपा है और हम उनकी बची हुई निशानियाँ भी नहीं सँभाल सकते हैं। 'कबाड़ी' में बाप-दादाओं की 'ख़रीदी हुई' और अब 'पड़ी हुई' पुस्तकों को वह व्यक्ति बेकार समझता है और उन्हें रद्दी के भाव बेच देना चाहता है। उसकी दृष्टि में इन पुस्तकों का वर्तमान में कोई मूल्य नहीं है। सच तो यह है कि पुस्तकों का मूल्य हमेशा रहता है जब तक कि पढ़ने वाले के अन्दर ललक होती है और जानने वाला कुछ जानना चाहता है। सात मिनट से भी कम समय की इस फिल्म में सीधा-सीधा सार्थक एवं पुष्ट संदेश दिया गया है। कबाड़ी, जिसके बाप-दादाओं का दिया हुआ तराज़ू आज भी सही-सलामत कार्य कर रहा है, वह नहीं बदलना चाहता और टोकने पर स्पष्ट कहता है कि नहीं, मैं इसे नहीं बदल सकता। कहीं न कहीं किताबें बेचने वाले को बहुत अन्दर तक झकझोर देता है और उसके भीतर गहरा क्षोभ उत्पन्न होता है। वह वास्तविकता से रूबरू होता है। अपनी विरासत कबाड़ के भाव बेचने से मना कर देता है। 

यह लघु फ़िल्म देखने वाले के मस्तिष्क पर सीधा असर करती है। इसे अवश्य देखना चाहिए। ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहित करना हम सबका दायित्व है। जयन्त फ़िल्म्स इन्टरटेनमेन्ट, फतेहपुर के बैनर तले बनी इस लघु फ़िल्म 'कबाड़ी' का निर्देशन युवा निर्देशक शिव सिंह सागर ने किया है। महेन्द्र सिंह यादव, प्रतिभा पाण्डेय, वसीक़ सनम, बेबी साहू के शानदार अभिनय से सजी इस लघु फ़िल्म के निर्माता जयन्त श्रीवास्तव हैं। लेखक सुरेश सौरभ की लिखी 'कबाड़ी' लघुकथा पर बनी इस लघु फ़िल्म की पटकथा शिव सिंह सागर एवं वसीक़ सनम की है। इसे अंजली स्टूडियो यूट्यूब चैनल पर इस लिंक [ https://youtu.be/omcjTSsRrRo] पर क्लिक करके देखा जा सकता है।

सम्पर्क: 
24/18, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
पिनकोड- 212601
वार्तासूत्र : 9839942005
ई-मेल : doctor_shailesh@rediffmail.com

सुरेश सौरभ कृत 'पक्की दोस्ती' एक बाल कथा संग्रह-मुकेश कुमार सिन्हा

कृति:               पक्की दोस्ती (बाल कथा संग्रह)

कृतिकार:            सुरेश सौरभ
प्रकाशकः            श्वेतवर्णा प्रकाशन
                   232, बी 1, लोक नायक पुरम
                   नई दिल्ली-110041    
पृष्ठः 64            मूल्यः 80/-
समीक्षकः            मुकेश कुमार सिन्हा
 

       बाल साहित्य का सृजन चुनौती भरा काम है। रचनाकार को बच्चाबनना पड़ता है, ‘बच्चाकी तरह सोचना पड़ता है, समझना पड़ता है। यदि बाल साहित्य के सृजन के क्रम में रचनाकार बच्चानहीं बनते हैं, तो उनकी लेखनी सार्थक नहीं मानी जा सकती है। परिपक्व कलम जब बच्चों के लिए लिखेगी, तो निश्चित तौर पर बच्चों को समझने में परेशानी होगी और बच्चों के लिए यह अरुचि का विषय हो जायेगा। बच्चों के मनोभाव की जब तक परख नहीं होगी, मुश्किल होगा बच्चों के लिए कुछ लिख पाना!

हम प्रायः देखते हैं कि परिपक्व कलम बच्चों के लिए लिखती तो है, मगर रचनाएँ बाल मन की सोच से दूर हो जाती है। जो कलम बच्चों के लिए सोचे और समझे, वैसी कलम की कृति को पढ़कर बच्चे झूम उठते हैं। यूँ कहिए कि कृतिको हाथों में लेकर बेहद चाव से पढ़ने को बैठ जाते हैं। जब तक अक्षर-अक्षर न पढ़ लें, चैन नहीं मिलता है मन को!

बच्चों के लिए लिखना जरूरी है। बच्चों की रुचि के अनुसार लिखना हर साहित्यकार का धर्म है। साहित्यकार सही राह दिखाते हैं। समाज में उनकी भूमिका अग्रगण्य है। वो जो लिखते हैं, समाज उसी का अनुकरण करता है, इसलिए साहित्यकार की जवाबदेही बढ़ जाती है।

बच्चों का मन बेहद कोमल होता है। बच्चों को जिस रूप में ढाल दिया जाये, ढल जाते हैं। इसलिए, साहित्यकार की नैतिक जिम्मेदारी है कि वो बच्चों के लिए वैसी रचना का सृजन करें, जिससे उनका मन-मस्तिष्क स्वस्थ हो। बच्चों को अपने कर्तव्यों का बोध हो। देश प्रेम की भावना मन में जगे। ऊँच-नीच और अमीरी-गरीबी की सोच से ऊपर उठकर सबको गले लगायें। निडर बनें, साहसी हों। पढ़ाई की अहमियत को समझें। खेलें-कूदें। रचनात्मक गतिविधियों में भाग लें, बड़ों का सम्मान करें। लक्ष्य के प्रति वफादार हों।

       है न मुश्किल भरा काम! बावजूद साहित्यकार अपनी महती भूमिका निभा रहे हैं। साहित्य के प्रति बच्चों की अभिरुचि सुखद है, किंतु मोबाइल और कम्प्यूटर युग में उसे साहित्य, खासकर किताब के साथ जोड़े रखना चुनौती है। यदि बच्चों की रुचि के अनुसार रचनाएँ रचीं जाये, तो इस चुनौती का मुकाबला डटकर किया जा सकता है।

       बच्चों की रुचि के अनुसार रचनाएँ गढ़ना समय की माँग है, ताकि भारत का भविष्य सुरक्षित हाथों में हो। भविष्यको सशक्त बनाने का बीड़ा साहित्यकारों ने उठा लिया है। साहित्यकारों की लंबी सूची में एक नाम है-सुरेश सौरभ, जिनकी कलम चौदह साल की उम्र से ही लेखन में सक्रिय है। लघुकथा, उपन्यास, हास्य-व्यंग्य से होते हुए उनकी कलम बच्चों के लिए भी लिखती है। दस साल पहले बाल कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ-'नंदू सुधर गया'। पुनः उनकी कलम पक्की दोस्ती’ (बाल कथा संग्रह) लेकर हाजिर है, जिनमें 19 कहानियाँ हैं।

       लेखक सुरेश सौरभ बच्चों को कहते हैं-जब भी आपको मौका मिले, तो बाल साहित्य अवश्य पढे़ं, इससे न सिर्फ़ आज का भविष्य मज़बूत होगा बल्कि वर्तमान भी सुदृढ़ होगा।वो बच्चों को समझाते हैं-बहुत से लोग कहते हैं कि कविता-कहानी पढ़ने से समय नष्ट होता है, पर यह सरासर ग़लत है, इससे कल्पना शक्ति तेज और भाषा शैली प्रखर होती है, साथ ही जीवन जीने की असली कला भी पता चलती है।

       प्रस्तुत संग्रह में संग्रहित कहानियों की भाषा बेहद सरल है। कहानियों के माध्यम से बच्चों को शिक्षा दी गयी है। बच्चों को जंगली जानवर वाले पात्र बेहद पसंद होते हैं। बच्चों की रुचि का ख्याल करते हुए कहानीकार ने जानवरों के माध्यम से अच्छी-अच्छी बातें कहने की कोशिश की है, जो बच्चों को किताब से जोड़ती है।

       ममतामयी माँ बच्चों को कभी भी मुसीबत में पड़ने नहीं देतीं। अपनी जान की परवाह किये बगैर माँ शत्रुओं से बच्चों को बचाती हैं। माँ की बहादुरीमें लेखक ने स्पष्ट इशारा किया कि माँ हर मुसीबत में ढाल बन जाती हैं। ऐसे में क्या माँ के प्रति हमारा कोई कर्तव्य नहीं बनता है? माँ की आँखों में आँसू न आये, इसका ख्याल जरूरी है।

       बच्चों को चाहिए कि वो बड़ों की बात मानें। बड़ों की बातों को नहीं मानने से हम दुविधा में पड़ जाते हैं, अपना ही नुकसान कर बैठते हैं। चुन्नू-मुन्नू को माँ-पिता की बातों को नहीं मानने और झूठ बोलने का जब फल मिला, तब उसे एहसास हुआ। हमें शैतानियाँ नहीं करनी चाहिए। माना हम नादान हैं, तो क्यों न कोई काम करने से पहले बड़ों से पूछ लें। यही नसीहत है चुन्नू-मुन्नू की शैतानीमें।

       मोटू राम को सुई ऐसे थोड़ी ही लगी। सर्दी में आइसक्रीम खाइएगा, तो क्या होगा? इसलिए बड़ों की बातों को हर हाल में माननी चाहिए। माता-पिता थोड़े बुरा चाहेंगे। माँ-पिता सदैव अपनी औलाद की बेहतरी ही चाहते हैं।

       राहुल को उसकी माँ ने कितनी अच्छी बात कही-

बेटे! यह बुद्धिमानी नहीं, बल्कि बेईमानी से कमाया गया धन है। इससे न सिर्फ़ बुद्धि क्षीण होती है, बल्कि व्यक्ति की कलई खुलने पर जगहँसाई भी होती है। फिर वह न घर का रहता है न घाट का।

जाने-अनजाने में औलाद गलती कर बैठता है। ऐसे वक्त में माता-पिता की जवाबदेही बनती है कि वो अपनी औलादों को समझाएं। छोटी-छोटी बुरी आदतों का खामियाजा फिर भविष्य में भुगतना पड़ता है। हम समय रहते बच्चों को बुरी आदतों से मुक्ति दिला सकते हैं। आवारागर्दी करने पर डम्पू की माँ ने डम्पू को समझाया था-

बेटा सुधर जाओ तो अच्छा है। आज हमने तुम्हें बचा लिया, पर हर बार तुम्हें कहाँ-कहाँ बचाती फिरूँगी। अपने चरित्र, अपने भविष्य के तुम खुद भाग्य विधाता हो।

डम्पू का चालान कट गयामें नसीहत है कि हमें आवारागर्दी नहीं करनी चाहिए। यातायात के नियमों का पालन करना चाहिए। लाइसेंस, कागजात, हेलमेट के साथ-साथ गाड़ी चलाने के लिए बालिग होना आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं करते हैं, तो दंडित होना लाजिमी है।

       चोर पकड़ा गयामें सत्य की जीत हुई है। माना राहुल को परेशानी हुई। अपनी बेगुनाही साबित करने में मशक्कत झेलनी पड़ी, किंतु अंततः वह बेगुनाह साबित हुआ। यह कहानी हमें शिक्षा देती है कि हमें सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। समस्याएँ आती हैं, इसलिए घबराने की जरूरत नहीं है, बल्कि उससे मुकाबला करने की दरकार है। बच्चों को एक नसीहत-

बेटा जीवन में जो भी समस्या आए उसका सही समाधान निकालना चाहिए। समस्याओं से बाधाओं से मुँह मोड़कर जितना भागोगे उतनी ही तुम्हारे गले पड़ेगी। समझे बेटा राहुल।

आज की पीढ़ी मेहनत करना ही नहीं चाहती है। यदि करना भी चाहती है, तो बस रस्मअदायगी। और, लाभ अधिक पाना चाहती है। शाॅर्टकट तरीके से ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, उसके लिए सतत मेहनत की जरूरत है। क्या कोई एक दिन में सफल हो सकता है? क्या कोई एक दिन में गायक बन सकता है? यह तो कल्लू की नादानी ही थी, जिसकी वजह से उसे बेइज्जती उठानी पड़ी। गुरु ने मना किया, लेकिन वो कहाँ माना? इसलिए, हमें गुरु की हर बातें माननी चाहिए और सफलता का तरीका बिल्कुल भी शाॅर्टकट न हो।

मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है। मेहनत से इतर प्राप्त फल फीका लगता है। वो तो शुक्र है रामू का, जिसने चिंकू को पुलिस के हवाले नहीं किया और सुधरने का मौका दिया। चिंकू भी समझ गया कि मेहनत और ईमानदारी से कमाकर खाने में जो सुख है, वह अन्यत्र नहीं है। यदि ईमानदारीपूर्वक मेहनत की जाये, तो हम क्या नहीं कर सकते हैं? चोरी से प्राप्त पकवान से अच्छा है सूखी रोटी खाना। कहानी मेहनत का सुखबच्चों को सही राह दिखाती है।

नकल करना बुरी बात है, यह कोई नकलची सोनू से सीखे। वो न नकल करता, न उसकी ऐसी दशा होती। लेखक ने नकलची सोनूमें नकल न करने की नसीहत तो दी ही है, साथ ही आयुर्वेद के सेवन की वकालत भी की है। यह सच है कि हम आयुर्वेद से दूर भाग रहे हैं, लेकिन जब अंग्रेजी दवाइयाँ नहीं थी, तो आयुर्वेद ही एकमात्र सहारा था। नयी पीढ़ी यह जान और समझ ले।

बच्चों को निडर होना चाहिए। उसे ऐसा माहौल देने की जरूरत है, ताकि वो बहादुर कहलाये। कमजोर, आलसी और डरपोक का कौन नाम लेता है? भगत, राजगुरु, सुखदेव, सुभाष आज भी प्रेरणापुंज हैं। जो बहादुर होते हैं, उस पर दुनिया नाज करती है। हमें ऐसा होना चाहिए कि हर कोई यह कहने को मचल उठे कि मैं ऐसा बहादुर बेटा पाकर स्वयं को धन्य समझता हूँ, जिसने माँ-बाप का नाम पूरी दुनिया में रोशन कर दिया।बहादुर हो तो अभिनंदन जैसा, जो आज बच्चों के सुपरहीरोहैं। शौर्यता और वीरता का परिचय देने वाले अभिनंदन की जांबाजी को लेखक ने मैं अभिनंदन बनना चाहता हूँमें प्रस्तुत किया है। अभिनंदन जैसा होना आसान नहीं है। हाँ, उनसे प्रेरणा लेकर उन-सा बनने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए।

       क्या हम पशु के बिना रह सकते हैं? क्या हम नदी-पेड़ और तालाब के बिना रह सकते हैं? नहीं न, फिर हम प्रकृति और खूबसूरत बस्ती में आग क्यों लगा रहे हैं? यह केवल पंक्ति नहीं, बल्कि दर्द है और मानव जाति को संभल जाने की नसीहत-

       देखो चिंकू की मम्मी अब हम यहाँ शहर में नहीं रहेंगे। पहले तो इन शहरी लोगों ने पेड़ काट-काट कर हमारे घोंसले उजाड़े और जब हम कहीं इनकी बेकार जगहों पर घोंसला बनाकर सुकून से रहते हैं तो वहाँ भी ये हमारा जीना हराम कर देते हैं। चलों अब हम ऐसी जगह चलें जहाँ ये निर्दयी मनुष्य न हों। फिर तीनों चल पड़े। दूर आशियाने की तलाश में...।

माना कबूतर चिंकू के परिवार की तलाश पूरी हो जाये, लेकिन यह गंभीर बात है। हम मनुष्यता को क्यों छोड़ रहे हैं? हमने दानवी प्रवृति क्यों अपना रखा है? मनन करने की आवश्यकता है। काश! हम संभल जायें। ऐसी बस्ती तैयार की जाये कि कबूतर भी साँस ले और बाज भी। केवल बाज का राजन हो!

हमें कभी कमजोर को नहीं सताना चाहिए, उसका उपहास नहीं उड़ाना चाहिए। वक्त सबका फिरता है। वक्त से ज्यादा कोई बलवान नहीं। वक्त का ही कमाल है कि नन्दू सुधर गया, अन्यथा शरारत करने से वो कहाँ बाज आता? एक सीख है कि अगर कोई मुसीबत में हो, तो उसकी मदद करनी चाहिए, चाहे वो दोस्त हो अथवा दुश्मन। हर पीड़ित-परेशान प्राणी की मदद करना दूसरे प्राणियों का कर्तव्य है। ऐसा करने से शत्रु का भी हृदय परिवर्तन हो जायेगा, उसे जरूर अफसोस होगा कि मैं जिन पर अत्याचार करता रहा, आज वही लोग मेरी जिंदगी बचा रहे हैं।

बच्चों के मन की अभिलाषा है-पापा जल्दी आ जाना। यह भावुक कर देने वाली कहानी है। बिट्टू पापा को चिट्ठी लिखने बैठती है। पत्र में वह दिल की सारी बातें लिख डालती है। पापा से नयी फ्राॅक की अपेक्षा करती है, अच्छी मिठाई लाने को कहती है। साइकिल की जिद पर अड़ी है। पिता से नाराजगी भी है। यह कहानी पत्र शैली में है। मोबाइल के जमाने में अब कहाँ कोई पत्र लिखता? पत्र में प्यार हुआ करता है, अपनत्व का भाव हुआ करता है। सोचनीय विषय है कि वर्तमान पीढ़ी को कहाँ मालूम कि अंतर्देशीय पत्र और पोस्टकार्ड क्या होता है?

पत्र लेखन की शैली को बढ़ावा देने की जरूरत है, ताकि इस शैली को लुप्त होने से बचाया जा सके। पहले हाल-चाल जानने का एकमात्र माध्यम था पत्र, लोग बड़ी बेचैनी से पत्र का इंतजार किया करते और चाव से एक-एक शब्द पढ़ते। अब इसका अभाव है। पत्र लेखन से भाषा मजबूत होती है, बड़ों के प्रति सम्मान का भाव जगता है, इसे बचाये रखना हमारी जवाबदेही है। साहित्यकार ने शिद्दत से अपना फर्ज निभाया है।

बच्चे कई बार सोचने को विवश कर देते हैं, बड़ों का हृदय परिवर्तन कर देते हैं। बबली के पिता को चिढ़ हो गयी थी, उसे खुलेआम चंदा माँगते देख। दरअसल, वो सुनामी पीड़ितों की मदद के लिए चंदा इकट्ठा कर रही थी। बबली की भावना को लेखक ने यूँ लिखा-

...आप हजारों रुपये अकेले दे सकते हैं, पर जिस धन में दया और धर्म न हो, वह धन किसी काम का नहीं होता। पैसों से आप किसी की भावनाएँ, संवेदनाएँ नहीं खरीद सकते। लोगों के दिलों में दया और दान की भावनाएँ जीवित रहे, तभी समाज के संस्कारों की गाड़ी सुचारू रूप से चल सकेगी।

निश्चित तौर पर मुसीबत में फँसे लोगों के लिए चिंता होनी चाहिए। हम चिंता नहीं करेंगे, तो कौन करेगा? समाज को नसीहत देती पंक्ति-

आप जैसे प्रेम को दौलत से खरीदने वालों ने ही हिन्दुस्तान की तमाम आबादी को भूखों मरने के लिए छोड़ रखा है, अगर आप जैसा हर हिन्दुस्तानी एक रुपये रोज़ किसी भूखे के लिए निकाल दे तो कोई भूखा आत्महत्या न करे और न कोई गरीब लाइलाज होकर बीच सड़क पर तड़प-तड़प कर न मरे।

संजीदा लेखक की एक और संजीदगी से भरी पंक्ति देखिए-

सबकी ज़िन्दगी की चरखी में कितनी लम्बी डोर है किसी को नहीं पता, पर जीते जी हर आदमी को कुछ ऐसा नेक काम कर लेना चाहिए जिससे अंतिम सफ़र का रास्ता सुकून से कट जाए।

पक्की दोस्तीसंदेश छोड़ रही है। आखिर धर्म को लेकर भेदभाव क्यों? नये मास्टर साहेब की दृष्टि से भेदभाव के बादल का छँटना स्वाभाविक था। रामानंद के पिता ने ठीक ही कहा नये मास्टर साहेब से-

'आप एक गुरु हैं और गुरु का दर्जा भगवान से भी बढ़कर होता है और भगवान की नज़र में न कोई हिन्दू होता न कोई मुसलमान। उसकी नज़र में सभी एक समान हैं। फिर आपकी नज़र में भेदभाव क्यों?'

कलाम और रामानंद शास्त्री की दोस्ती में नये मास्टर साहेब ने दरार डालने की भरसक कोशिश की, मगर उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया। जात-पात और धर्म में भेदभाव का सिलसिला अब समाप्त होना चाहिए। यह दंश है, जिससे बचना हमारा फर्ज है। जात-धर्म के फेरे में पड़कर हम उन्नति की राह में दीवार खड़ी कर रहे हैं, इसलिए इस दीवार को ढाहने की जरूरत है। दीवार को ढाहने की दिशा में यह कहानी बेहतरीन भूमिका निभा रही है।

गलती तो अध्यापक रामकृष्ण अय्यर ने भी की। हालाँकि उन्हें पश्चाताप हुआ तब, जब उनकी नजर में आवारा-निकम्मा लड़का गणित में पूरे के पूरे अंक प्राप्त किये। उन्हें अफसोस हुआ और खुले मंच से यह बात कही। इतने बड़े़ शिक्षक होकर भी अध्यापक रामकृष्ण ने अफसोस जताया, फिर हम अपनी गलती पर माफी माँगने में संकोच क्यों करते हैं? हमें तुरंत जजनहीं बनना चाहिए, बल्कि स्थिति-परिस्थिति की जानकारी ले लेनी चाहिए।

पढ़ाई बहुत जरूरी है। चिम्पू की शादीकहानी शिक्षा जागरूकता को लेकर रची गयी है। समाज में अनपढ़ों को ठग लिया जाता है, क्योंकि उनके पास न अक्षर का ज्ञान होता है और न ही अंकों का। चिम्पू भी वैसा ही था, लेकिन जब पढ़-लिख गया, तो उसे मैनेजरी की नौकरी मिल गयी। चिम्पू के पास जब अक्षर ज्ञान नहीं था, तो उसकी हालत क्या थी? इस पंक्तियों से समझा जा सकता हैै-

पापा आजकल समाज में अनपढ़ों की न कोई बात होती है, न औकात। जब मैं अनपढ़ था, तब अक्सर पढ़े-लिखे मुझे बेवकूफ और भोंदू समझते थे और बात करने से ऐसे कतराते थे, जैसे मुझे कोई छूत की बीमारी हो। तभी मैंने निर्णय किया कि अब पूर्ण साक्षर बनकर ही दम लूंगा।

सरकार ने अनपढ़ों को विद्यालयों से जोड़ने के लिए योजनाएँ बना रखी हैं। मध्याह्न योजना, छात्रवृति, पोशाक योजना, साइकिल योजना उदाहरण है, ऐसा इसलिए ताकि हर कोई पढ़ सके। पढ़ाई का जीवन में अहम् योगदान है, इसलिए पढ़ना जरूरी है। भले दो रोटी कम खाइए, लेकिन स्कूल जरूर जाइए।

युद्ध में कभी भी किसी को कमतर आँकना नहीं चाहिए। युद्ध को जीतने के लिए बल के साथ-साथ बुद्धि चाहिए। यदि चील बुद्धिमता का परिचय देती, तो उसकी हार नहीं होती, किंतु उसने धामन को कमजोर समझने की भूल कर बैठी और उसे पराजित होना पड़ा। इसलिए, युद्ध में हमेशा सजग रहने की आवश्यकता है।

सरल और सहज भाषा में रची गयी कहानियों में प्रवाहमयता है। बच्चे जब कहानियों को पढ़ेंगे, तो उबेंगे नहीं। कहानियाँ केवल मनोरंजन नहीं करती, बल्कि संदेश छोड़ती है। ऐसे में कहा जा सकता है कि सुरेश सौरभ की लेखनी से उपजी कहानियाँ बच्चों को अच्छा नागरिक बनने की सलाह दे रही है। सच पूछिए, यदि बच्चों को सही पटरीपर ला दिया जाये, तो भारत का भविष्य सशक्त और उज्ज्वल होगा। बच्चों को सही राह दिखाती है सुरेश सौरभ की पक्की दोस्ती

सिन्हा शशि भवन कोयली पोखर,
गया-823001
चलितवार्ताः 9304632536

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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