साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Tuesday, April 05, 2022

धुंधलाहट-नूतन सिंधु

   लघुकथा   
डॉ नूतन सिन्धु
नारनौल,  हरियाणा
मम्मी....मम्मी....रोते-रोते सिया अंदर आकर सुधा से लिपट गई....मम्मी मुझे माँ ने आज फिर से बुरी तरह से डांटा।पापा... पापा करके सिया और दहाड़े मारकर रोने लगी।हद हो गई इन ऑन्टी की ,कितनी दफा बच्ची को इसी तरह रुला चुकी हैं।सुधा के दिमाग में पिछली सब बातें एकदम से कौंध गईं... गुस्सा धीर-धीरे हावी होने लगा,आज तो उन्हें कुछ न कुछ खरी-खरी सुनानी ही होगी।वो पहले भी एक बार बड़े ही आदर के साथ उन्हें कहकर आ चुकी है कि आंटी आप तो खुद इन पीड़ाओं से गुजर चुकी हैं। बच्ची आपके घर आपकी पोती के साथ खेलकर अपना बचपन जीना चाहती है।सोचते -सोचते सुधा ने आंटी के घर की डोर बेल बजाई।उन्होंने ही गेट खोला।देखते ही बोली कि मना कर दिया था इसे,नहीं खेलेगी अभी आभा।सुधा ने कहा ,आपने इसे बुरी तरह से क्यों झिड़का, आराम से कह देतीं।गुस्से से आगबबूला होकर बोली... झिड़का...क्या कर लेगी।सुधा ने फिर भी खुद को संयमित कर कहा कि आप आराम से कह सकती हैं...मगर वो अपनी बदमिजाजी पर कायम रहते हुए अभद्रता से बोली चल यँहा से...आज के बाद मेरी बेटी आपके घर नहीं आएगी,कहकर सुधा अनमने मन से घर की ओर चल दी।सिया रोये जा रही थी।तुम क्यों जाती हो वँहा जब वो ऐसा व्यवहार करती हैं तो ? माँ से भी दुत्कार खाकर सिया बुरी तरह सुबकने लगी और बड़ी ही मासूमियत से कहने लगी ...पापा भी भगवान के पास चले गए और न ही मेरा कोई भाई-बहन,मैं किस के साथ खेलूं ?उसकी ये बातें सुधा का हृदय बेध गई।अक्सर जब सिया किसी के डांटने पर रोती तो ऊपर की तरफ मुंह कर अपने पापा को पुकारती,ये सब सुधा को और दुखी कर जाता।उसने झट से गोदी में उठाकर उसे गले से लगाकर खूब प्यार किया।घर आकर सुधा सोचने लगी कि मैंने हमेशा ऑन्टी की सब बातों को नजरअंदाज किया कि बहुत ही कम उम्र में पति की मृत्यु और बाद में इकलौते जवान बेटे को खो देने से वो कुंठित हो गई होंगी,इसीलिए वो ऐसा व्यवहार करती हैं,मगर इसके कारण बेटी को तो रोज नहीं रुला सकती।खैर ,सिया फिर भी बाहर-अंदर खेलने जाती रही।
                        सिया का जन्मदिन आने वाला था।छोटे से सेलिब्रेशन के हिसाब से सब बच्चों  के साथ आभा को भी बुलाया गया।आभा को छोड़ने ऑन्टी ही आई थीं....ऑन्टी ने आभा को अंदर जाने को कहा। 'आप भी आ जाइए' सुधा ने कहा।केक काटा जाने लगा तो सुधा की दीदी के बेटे ने कहा माँ आप साथ में आकर कटवाइए।वो आयीं और केक कटवाकर सिया को आशीर्वाद दिया।खाना-पीना होने पर कुछ बच्चों ने डांस-वांस किया।तभी आयशा बहुत जिद करने लगी कि ऑन्टी आप बहुत अच्छा डांस करती हैं,एक पुराने गाने पर कीजिये ना।अरे! नहीं बेटा ,आप सब बच्चे इंजॉय कीजिये...सुधा की ना-नुकर से सिया फिर रुआंसी हो गई.....मम्मी आप करोगी डांस।गाना बजने लगा.....परदेसिया....परदेसिया...ये सच है पिया..... पैर एकदम से तो नहीं उठे,मगर अपनी स्वाभाविकता को रोक भी नहीं पाए।थोड़ी देर में सुधा के अंदर की नृत्यांगना कुशलता के साथ थिरकने लगी।इसके बाद सुधा किचन को व्यवस्थित करने में लग गई,उधर बच्चे अब भी डांस कर रहे थे।ऑन्टी भी उन्ही के साथ थीं।पार्टी खत्म हुई,सब चले गए।
                             मम्मी एक बात बताऊँ आपको ! रात में सिया ने बेड पर लेटी सुधा के पास आकर कहा।हाँ बोलो,आप जब डांस कर रही थी तब माँ आपको देखकर रोये जा रही थी।क्या ! हाँ, मम्मी वो रो रही थी।सुधा हैरान रह गई कि उससे क्या गलती हो गई।क्यूँ बेटा ? सिया बोली...आप डांस कर के चली गई तो वो रोते-रोते कहने लगी कि छोरी के साथ राम ने न्याय नहीं किया और फिर से रोने लगी। सुधा स्तब्ध थी।सिया बोली , मम्मी,माँ की बातों का आज के बाद मैं कभी बुरा नहीं मानूँगी।सुधा मानो सोते से जगी हो,बेटी की बात सुनकर अब वो अवाक थी।माँ के निस्वार्थ आंसुओं ने बालमन की धुंधलाहट धो दी थी और शायद सुधा की भी।
इति
                  

Sunday, May 30, 2021

भीम गीत, तुम्हारे ज्ञान का आलोक

 1 मई ,मज़दूर दिवस और अम्बेडकर – राष्ट्रीय सत्ता

तुम्हारे ज्ञान का आलोक

शब्दों की कारीगरी का अमिट उजास

जो पुस्तकों में छुपा था,

उसे चिन्हित कर

तुम खुद जगमगाए।

उस ज्ञान की लौ का

अपरिमित विस्तार

तुमने फैला दिया

अंधेरों में सिसकने वाले

निरीहों तक।

आँखों में पाकर उजले स्वप्न

ले हाथों में कलम की शक्ति

अपराजेय

जो ललकारती निर्भय होकर,

जो दहाड़ती निशंक होकर।

गूँज इस दहाड़ की

स्मरण करवाती

हर श्वास के साथ

तुम्हारा!

ओ!महामानव!

राह सुझाती हर दिशाहीन को।

तुम्हारी चेतना,

तुम्हारी सजगता,

तुम्हारा आह्वान,

तुम्हारा मानवाधिकारों के लिए क्रांति का स्फुरण,

आज

परिणति बनकर

जड़ों-जड़ों सा अनवरत

सुदूर फैल रहा विशाल बरगद की तरह।

इस बरगद की छांव में पनपा

हर बीज अपनी-अपनी सफलता की

स्वर्णिम हरीतिमा के साथ

दोहराए.....

अपनी यही परंपरा

किसी अन्य की स्वप्निल हरियाली के

यथार्थ बनने तक।

बाबा तुम्हारे मिशन के हर छोर तक... दूर - दूर तक........

बहुत

दूर - दूर तक....... ।

डॉ नूतन सिन्धु


डॉ नूतन सिन्धु (व्याख्याता)

नारनौल, हरियाणा

 

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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