साहित्य

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Thursday, June 17, 2021

धार्मिक आडंबरों के चलते सामाजिक जागरूकता संभव नही- नन्द लाल वर्मा

विमर्श ज्ञान-विज्ञान और सामाजिक-धार्मिक आडम्बरों-कुरीतियों पर

एन०एल० वर्मा

"भारतीय समाज में बचपन से ही धर्म और भगवान नाम की एक अद्भुत अदृश्य किस्म की घुट्टी पिला दी जाती है जिससे पढ़ाई-लिखाई और नौकरी करने के बावजूद धर्म या ईश्वर के विरुद्ध जा पाना आम आदमी के लिए संभव नहीं हो पाता है। इसी के चलते लाभ-हानिजीवन-मरण,अर्थ-अनर्थस्वर्ग-नरकमंगल-अमंगल,शगुन-अपशगुन आदि अवधारणाओं ने आम जनमानस के मन-मष्तिष्क को कुंद कर दिया है।"

        ज्ञान-विज्ञान की इक्कीसवीं सदी के दौर में भी भारतीय जनमानस खुद को कथित धर्म,धार्मिक कर्मकांडों और धार्मिक गुरुओं की चंगुल से अपने को अलग नहीं कर सका है। धर्मगुरुओं पर लगने वाला कोई भी आरोप चाहे उसमे कितनी भी सच्चाई क्यों न हो, उनके समर्थकों के विश्वास को खंडित या डिगा नही सकता है। गुरुओं और भक्तों की भक्ति पर उँगली उठाना उनकी भावनाओं को चोट पहुँचाता है। ऐसा किसी एक धर्म के साथ नहीं बल्कि यह स्थिति सभी धर्मों के सन्दर्भ में लगभग एक जैसी ही है। किसी भी धर्मगुरु के प्रति उसके भक्तों की अगाध श्रद्धा को सभी धर्मगुरु भलीभाँति जानते-समझते हैं और गाहे-बगाहे इसका अनुचित लाभ भी उठाते रहते हैं। भारतीय समाज में बचपन से ही धर्म और भगवान नाम की एक अद्भुत अदृश्य किस्म की घुट्टी पिला दी जाती है जिससे पढ़ाई-लिखाई और नौकरी करने के बावजूद धर्म या ईश्वर के विरुद्ध जा पाना आम आदमी के लिए संभव नहीं हो पाता है। इसी के चलते लाभ-हानि, जीवन-मरण,अर्थ-अनर्थ, स्वर्ग-नरक, मंगल-अमंगल,शगुन-अपशगुन आदि अवधारणाओं ने आम जनमानस के मन-मष्तिष्क को कुंद कर दिया है।

          तथाकथित धर्मगुरुओं के अनगिनत और रसूखदार अन्यायी होने के कारण जहाँ ये बाबा अकूत संपत्ति के मालिक बन बैठते हैं वहीं धर्म की आड़ में बलात्कार,आर्थिक-यौन शोषण के साथ राजनैतिक सत्ता और आपराधिक गतिविधियों का संचालन भी करने लगते हैं। इधर हाल में कुछ धर्म गुरुओं के प्रकरण खुलासा होने से और देश के विभिन्न धर्मों के  गुरुओं ने अपने क्रियाकलापों से धार्मिक विश्वास को बुरी तरह खंडित किया है। धार्मिक उपदेश देते और प्रवचन करते हुए इन कथित बाबाओं को अपने भक्तों का विश्वास खंडित करने से और धार्मिक पाखण्ड फैलाने से भले ही कोई न रोक पाए,किन्तु इनकी अंध-भक्ति में डूबे इनके भक्तों को समझना होगा कि धार्मिक आवरण के पीछे की हकीकत क्या है३इन धर्म-गुरुओं की असलियत क्या है? हालाँकि, सामाजिक-धार्मिक आडम्बरों-कुरीतियों की अंध-दौड़ में शामिल समाज से ऐसी जागरूकता दिख पाना हाल-फिलहाल तो संभव नहीं लगती।

         हर काम आर्थिक फायदे के लिए नहीं किया जाता हैं बहुत सारे ऐसे सामाजिक जनजागरूकता के काम भी होते हैं जो प्रत्यक्ष आर्थिक फायदा न मिलते हुए भी समाज को बहुत कुछ अप्रत्यक्ष फायदा दे जाते हैं। शूद्र समाज (ओबीसी,एससी और एसटी) में पाखंड-अंधविश्वास भयंकर रूप में फैला है, तभी तो बाबरी मस्जिद ढहाने जैसे धार्मिक व राजनैतिक उपक्रम सफल हो जाते हैं। इस देश में कभी मंदिर के नाम पर तो कभी गाय के नाम पर हत्याएं होती हैं। आज हर कोई बड़े से बड़ा देशभक्त बनने की कोशिश कर रहा है। जातीय श्रेष्ठता और कट्टरता तो इतनी है कि उसकी कोई मिसाल ही नहीं है। धार्मिक आयोजनों की तो बाढ़ सी आई हुई है जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि धर्म ने उन्हें अछूत तक बना कर छोड़ा है। हद हो गयी है, जो व्यवस्था सौ फीसदी उनके खिलाफ है ,उसे ही वो अपने गले में लटकाए घूम रहे हैं।

        शूद्रों के दलित घरों में डॉ.आंबेडकर की मूर्ति या तस्वीर भी उनके बीच देखी जा सकती है जो हिंदू धर्म के देवी-देवता कहलाए जाते हैं। आंबेडकर का नाम लेते हैं,जय भीम का सामाजिक-राजनैतिक अभिवादन-नारा भी लगाते हैं और अन्य देवी-देवताओं के सामने धूप-अगरबत्तियां जलाकर घंटा और शंख भी बजाते हैं। यह कैसा आंबेडकरवाद है? जबकि उन्होंने तो हिंदू धर्म को सिरे से खारिज कर दिया था। शूद्र समाज अनंत और अपरमित सामाजिक जटिलताओं से भरा और जकड़ा हुआ है। इन जटिलताओं को शिक्षित,जागरूक और समझदार बनकर धीरे-धीरे दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। ईश्वर और धर्म को अपनाने और मानने से शूद्र समाज (ओबीसी,एससी और एसटी) का किसी भी तरह का फायदा नहीं हुआ है,उल्टे वे कई तरह के शोषण के शिकार अबश्य हुए हैं। शूद्र समाज का दलित जिन हालातों में जिंदगी बसर कर रहा हैं, क्या उसकी यही जिंदगी और नीयति है? जबकि वह ईश्वर और धर्म को अधिक सात्विकता, निष्ठा और विश्वास से मानता है जिससे उसको ऐसी नारकीय जिंदगी से मुक्ति मिल जानी चाहिए थी! लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

        समाज का एक कथित श्रेष्ठ समुदाय दलितों को जानवरों से बदतर अछूत तक मानता है। दलितों के पास किसी भी तरह के प्राकृतिक संसाधन नहीं है। जब ऐसी बात है तो उसके पास भी संसाधन होने चाहिए। दूसरा समुदाय है जो सारे संसाधनों पर कब्जा जमाए बैठा हुआ है। शूद्र वर्ण के दलित समाज को कभी नहीं लगता कि उन संसाधनों पर उनका भी कब्जा होना चाहिए? शूद्र जितना समय अदृश्य ईश्वर या कथित धर्म के नाम पर बर्बाद करता है यदि वह उसे अपने कल्याणध्उन्नति के लिए लगाए, तो मैं समझता हूं उसको फिर न कभी धर्म और धर्मगुरुओं की जरूरत पड़ेगी और न ही किसी देवी-देवता की।

        जहां तक जातीय श्रेष्ठता और कट्टरता की बात है,मैं तो समझता हूं कि शूद्रों में कोई जाति नहीं होनी चाहिए।शूद्र अनगिनत जातियों में बुरी तरह बंटा हुआ है और इस बंटवारे का फायदा किसी और को मिल रहा है,इस यथार्थध् मर्म को शिक्षित और समझदार शूद्र समझें। उच्च वर्ग कभी नही चाहता है कि शूद्रोंध्दलितों के बीच जातियां खत्म हो और समभाव पैदा हो। उन्हें निष्कंटक होने के लिए शूद्र समाज में फूट और विभाजन चाहिए। शूद्रों को अपने बच्चों की शादियां किसी अपनी विशिष्ट जाति में नहीं बल्कि शूद्र समाज में करनी चाहिए। फिर देखिये, कैसे ब्राह्मणों की जातीय श्रेष्ठता और राजनैतिक साम्राज्य ढहता हुआ नजर आता है! शूद्रध्दलित देश का राजा रहा है और आज भी राजा बनना चाहिए। लेकिन आपसी फूट या श्रेष्ठता का भाव ही उसके राजा बनने में सबसे बड़ी बाधा है। ष्शादियां जाति के बाहर होनी चाहिए,ऐसा करने से पहला फायदा यह होगा कि हमारे बीच जातीय श्रेष्ठता , कट्टरता और भेदभाव की भावना कम होगी ,दूसरा फायदा यह होगा कि संताने उच्च शंकर प्रजाति की होगी जिसके तेजतर्रार निकलने की संभावना है,उनकी सोचने-समझने की शक्ति में बदलाव आएगा और उनका आईक्यू लेवल भी ऊंचा होगा।ष् भारत के हर शिक्षित परिवार को अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन देना चाहिए।

एसोसिएट प्रोफेसर, लखीमपुर-खीरी(यूपी)

Ph.9415461224,8858656000

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