साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Friday, May 10, 2024

मेरी पहली हवाई यात्रा-नयनी डी.वर्मा

   एक यात्रा-वृत्तांत   
"नई धारा " द्वारा आयोजित "यात्रा-वृत्तांत" लेखन प्रतियोगिता:2024 में "मेरी पहली हवाई यात्रा" को वरीयता क्रम में प्रथम स्थान से पुरस्कृत रचना.
नयनी डी० वर्मा
लखीमपुर खीरी उ० प्र०
            ✍️अगर कोई मुझसे बचपन मे पूछता कि यात्रा क्या होती है,तो मेरे पास इसका जवाब नहीं होता और यदि होता भी तो कैसे? क्योंकि हम 90दशक के लोगों के बचपन से ही हम जैसे लोगों की यात्रा उनके घरवाले ही डिसाईड करते हैं, हम लोगों को नहीं बताया जाता है कि यात्रा का मतलब क्या होता है ? खुद की यात्रा तो भूल ही जाइए आप, यह तक पता नहीं होता कि घूमने जा कहां जा रहे और कैसे ? बताया जाता भी है तो बस यह कि कब और कितने बजे निकलने के लिए तैयार रहना है और घूमने के नाम पर तब बस ददिहाल-ननिहाल ही होता अपना बस, तो मेरे साथ भी ऐसा ही रहा है बचपन मेरा लेकिन बचपन से ही जब भी कहीं जाने को कहती तो पापा जी कहते अभी पढ़ाई करो,बारहवीं के बाद जहां भी जाना हो,जाना। मैंने भी बहस नहीं की। आखिर, करती भी तो कैसे और क्यों? क्योंकि यात्रा होती क्या है? यह खुद मुझे नही पता था I अपनी दुनिया घर और उस घर के एक कमरे से दूसरे कमरे टहलना ही आपकी यात्रा होती है। जब भी किसी जगह का नाम सुनती किसी का, तब कहती कब मैं भी जाऊँगी वहां? हमेशा की तरह पापा जी का जवाब होता अभी पढ़ो,उसके बाद घूमना,जहां मन हो, वहाँ जाना। घूमने वाली जगह को Exam.सेंटर फॉर्म मे भर देना,Exam. देने जाना और वहां घूम भी आना। बस, उनके कहे ये शब्द मन और दिमाग के किसी फ़ोल्डर में रह गए। शायद, रिसाईकल बिन वाले फ़ोल्डर में,वहां से डिलीट नहीं हुए। जब बड़े हुए तब याद आए उनके कहे ये शब्द,फिर से एक बार,आते भी तो कैसे नहीं, क्योंकि मन और दिमाग झट से फ्लैश बैक मे चला जाता है,मेरा आज भी। जीवन का पहला प्यार,पहली नौकरी,पहली हवाई यात्रा कैसे कोई भूल सकता है,आख़िर !! मै भी नहीं भूली अपनी पहली हवाई यात्रा,क्योंकि बचपन से हमेशा छत के ऊपर से निकलते हवाई जहाज जो देखती थी,सच बताऊँ तो कभी नहीं सोचा था कि हवाई यात्रा करेंगे,केवल देखती थी,जब हवाई जहाज की आवाज आती कमरे से बाहर निकलकर-भागकर बाहर आती, आसमान में खोजती,कई बार बादल में गुम हुए जहाज को जब नहीं देख पाती,तब बस बादल देखकर खुश हो जाती। बादल को निहारना बचपन से ही पसंद रहा है,मुझे। आज भी घण्टों अकेले मैं बादल और एक पेड़ देख,चेहरे ढूंढा करती हूँ,उसमें।  आज भी ठीक वैसे ही जैसे अभी यह यात्रा वृतांत लिखते समय सरकते बादल को सामने देखकर खो जा रही हूँ। क्या गजब का संयोग है,अभी जहां बैठकर लिख रही हूँ,वहाँ भी सामने बादल है और हर दो-तीन मिनट पर हवाई जहाज निकल रहा है और वो भी सिर के ऊपर से।
✍️साल 2019 का फरवरी का महीना,मैं घर पर ही थी। काम खोज रही थी,तभी गूगल सर्च में Geology jobs खोजते समय दिखा प्रोजेक्ट असिस्टेंट का काम National Institute of Oceanography, गोवा में। पापा जी की कही बात याद आ गई कि जहां घूमना हो उस जगह को एग्जाम या इंटरव्यू का सेंटर बना लो। बस याद आया और झट से टिकट बुक कर दी Paytm से,केवल जाने की। मेरे घर में हवाई जहाज में बैठने का अनुभव बस मेरे भैया नीशू को था। मिडिल क्लास वालों के लिए हवाई यात्रा हमेशा से ही ख़ास रहती है और हमेशा रहेगी भी। भैया को कॉल किया,मैने फोन पर कहा बता दो कि फ्लाइट का कैसे होता है, सब कुछ शार्ट में। मुझे तो यह भी नहीं पता था कि बोर्डिंग पास होता क्या है,आख़िर ? खैर, भैया ने सब बताया कैसे ,कहां क्या करना है। बताया बहुत कुछ था उन्होंने,लेकिन सब कुछ भूल गई मैं। मुझे याद रही तो बस एक लाइन कि जहां जो लिखा हो उसे देखते जाना सामने और उसको पढ़ती रहना और कान खुला रखना बस। इयर फोन तब तक मत लगाना,जब तक फ्लाइट के अंदर अपनी सीट पर न बैठ जाना। बस,फिर क्या,पहुंच गयीं लखनऊ एयर पोर्ट। बिना कोई परेशानी के बैठ गई अपनी सीट पर,सीट थी विंडो वाली नंबर 19. सच बताऊँ, तो मुझे डर बिल्कुल नहीं लग रहा था,क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि बीएचयू में पढ़ाई के दौरान अकेले रहने से और बनारस से घर (लखीमपुर-खीरी) की यात्रा ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ा दिया था। डर को भगाने मे सबसे बड़ा हाथ तो मां के हाथ के खाने का भी रहा,जो हर यात्रा में मेरे साथ रहता,हर एक कौर के साथ मेरा डर कब निकल गया, पता ही नहीं लगा और पापा जी का हैप्पी-हैप्पी कहकर सी ऑफ करना। फिर क्या सीट पर बैठकर सीट बेल्ट पहनकर फोन एयरोप्लेन मोड पर लगाकर उड़ान भरने से पहले घर और भैया को बोल दिया बैठ गई हूँ,अपनी सीट पर। अब सोचती हूँ तो अज़ीब लगता है कि वो यात्रा मेरी अकेले की तो थी नहीं ,भले ही टिकट एक लिया था,मैंने। मेरे साथ इस पहली हवाई यात्रा में मेरे घरवाले साथ थे, मेरे दिल और दिमाग में। 
नयनी डी० वर्मा अपने पिता जी के साथ 
        ✍️कितना अच्छा है न, दिल और दिमाग भौतिक रुप से बाहर नहीं दिखता वरना तो उन सब का भी टिकट लेना पड़ता, मुझे भी और आपको भी,वो भी हर एक यात्रा में। मेरी बगल वाली सीट पर थे,एक 50 साल के उम्र के पड़ाव पार कर चुके जिंदादिल इंसान.... नाम मुझे पता नहीं,क्योंकि नाम पूछा नहीं था मैंने उनका और न ही उन्होंने मेरा। खैर,जो भी हो, मैंने उन्हें सर जी बोला,क्योंकि मुझे झट से हर किसी को अंकल जी बोल देना मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लगता। मैं हमेशा से ही अपने से उम्र मे बड़े लोगों को सर जी और मैम जी बोलकर ही संबोधित करती रहीं जोकि सामने वाले को हमेशा से अजीब ही लगा होगा, क्योंकि हमारे देश में ज़्यादातर लोगों की आदत नहीं होती सर और मैम सुनने की। 
✍️मेरी सीट के पीछे वाली सीट पर थी एक नव विवाहित महिला और सर की सीट के पीछे था उस महिला का पति। सही शब्दों मे कहें तो एक नव-विवाहिता जोड़ा जोकि हनीमून के लिए गोवा जा रहा था। दोनों सेल्फ़ी ले रहे थे बार-बार,फ्लाइट की उड़ान भरने से पहले ही वे 50 तो सेल्फ़ी ले ही चुके होंगे! लेते भी क्यूं नहीं!आख़िर, उस महिला की पहली हवाई यात्रा जो थी और भी हमसफर के साथ। उड़ान के दौरान जैसे ही हवाई जहाज ऊपर-नीचे होता,वह महिला एक हाथ से मेरी सीट को और दूसरे हाथ से अपने पति का हाथ कसकर पकड़ती,बार-बार तेज चिल्लाती...और मेरी सीट हिला देती। उसका पति बार-बार बोलता कि कुछ नही होगा। प्लीज धीरे बोलो न तुम...। मैं बस चुप-चाप अपनी सीट पर बैठ सुन रही थी उनकी सब बातें। मेरे बगल वाले सर भी सुन ही रहै होंगे उनकी बातें,क्योंकि सो तो वह भी नहीं रहे थे,इतना मुझे अच्छे से याद है। काफ़ी बार महिला के चिल्लाने की आवाज सुनने के बाद सर जी बोले लग रहा पहली हवाई यात्रा है,इनकी। मैं बोलती भी क्या ? आखिर मैं खुद अपनी पहली हवाई यात्रा कर रही थी। सर ने बोला और मैं मुस्कुरा दी,नहीं बोल पाई उनको तब कि सर मेरी भी तो यह पहली हवाई यात्रा है!
✍️मैं किताब पढ रही थी "आजादी मेरा ब्रांड "। हमेशा की तरह दो-तीन किताबें मेरी अकेले की हर यात्रा में मेरे साथ रहती हैं। कितना अजीब है न ,सफर में मिलने वाले लोग उन किताबों से ही आपको जज कर लेते हैं कि कैसे इंसान हैं,आप और आपकी पसंद-नापसंद भी !!! खैर,मुझे लगता है सर ने सामने टेबल पर रखी किताब से मुझे जज कर लिया होगा कि पक्का ही यह लड़की अकेले घूमती रहती होगी !!! सर ने वह किताब मांगकर कुछ देर पढ़ी,जब वह किताब पढ़ रहे थे,मेरी आँख लग गई, जब मैं जागी तो किताब की याद नहीं रही। अंकल ने तो वो किताब लौटाई ही नहीं मुझे! जैसे ही फ्लाइट गोवा में लैंड हुई , सब लोग उतरने लगे I बस और हवाई जहाज में आज भी जब सब उतर जाते हैं,सबसे आख़िरी में मैं उतरती हूँ I मुझे अच्छा लगता है कि फिर से सारी खाली सीटों को यात्रा खत्म होने से पहले देखना। पीछे वाला जोड़ा उतरने से पहले बोला सॉरी,मैंने कहा अरे!कोई बात नहीं। हवाई जहाज की यात्रा में ये सब होता है,इतना चलता है, यही सब तो यादें बनेगी जब कभी आप लोग जीवन में इस हनीमून यात्रा को याद करेंगे और कहा एंजॉय हनी मून। बस इतनी बात हुई तब मेरी उनसे,लेकिन नहीं बोल पाई उनको भी कि मेरी भी यह पहली हवाई यात्रा है और जीवन में पहली बार समुद्र देखूंगी आज...।

✍️सारे यात्रियों में सबसे आखिर में,मैं उतरकर जब लगेज काउंटर पर सामान लेने पहुँची तो देखा वो जिंदादिल इंसान अपना सामान लेने के बाद मेरा इंतजार कर रहे थे,किताब जो उन्हें रिटर्न करनी थी मुझे। वह बोले नयनी जी आपकी किताब,अभी याद आया तो मैं रुक गया कि लौटा देता हूँ आपकी किताब आपको। मैं चौक गई कि आख़िर, इस इंसान को मेरा नाम कैसे पता लग गया?! मैं बोल ही दी कि सर आपको मेरा नाम कैसे पता?वह बोले,इस किताब के पहले पन्ने पर ऊपर कोने में लिखा है न आपका नाम !! पूरी किताब तो पढ़ नहीं पाया अभी,मैंने किताब का नाम नोट कर लिया हैI मैं घर पहुँचकर ऑर्डर कर मँगाऊंगा यह किताब। आप सो रही थीं,इसलिए तब मैंने नहीँ लौटाई थी आपको,क्योंकि नींद बहुत लग्जरी चीज है मेरे हिसाब से,चाहे वह कैसी भी हो..। सच बताऊँ तो मैं कुछ बोल पाने की स्थिति मे नहीं थी,बस देख और सुन रही थी उनको। मैंने कहा कि आप रख लीजिए यह किताब। मेरे पास इस किताब का हार्ड कवर भी है। आप पढ़िएगा इसको आराम से अब और हां, सर मेरी भी यह पहली ही हवाई यात्रा थी। सर बोले,ओह ऐसा क्या! मैंने कहा जी ऐसा ही,मेरी पहली हवाई यात्रा गोवा की। वह बोले कि बेटा यह मेरा कार्ड है रखो,अगर कोई भी दिक्कत हो,यहां आ जाना। मेरे घर मैं अपनी पत्नी और तीन डॉगी के साथ जो मेरे हिसाब से हमारे बच्चे ही हैं,उनके साथ रहता हूँ Dona Paula एरिया में। 
✍️नियति देखिए समय और जगह की। जब मैं इंटरव्यू देने गई तो जो होटल मैंने बुक किया था वो Dona Paula एरिया में ही था और National institute of Oceanography के ठीक पास और वहीं वह नव विवाहित जोड़ा भी खाना खा रहा था। मैं उनके पास गई और बोली मेरी भी वो पहली ही हवाई यात्रा थी। यह सुनते ही वह महिला बहुत खुश हो गई और मैं बस मुस्करायी,ठीक वैसे ही जैसे आप इसे पढ़ते वक्त मुस्करा रहें हैं,क्योंकि मुझे लगता है कि पूरी दुनियां में लोग एक ही भाषा में एक ही तरह से मुस्कराते हैं और वह भाषा हर किसी को आती है। जब भी मैं अपनी पहली हवाई यात्रा याद करती हूँ तो बस, यही लोग आज भी याद आते हैं, मुझे। कितना अज़ीब है न, जब आप टिकट बुक करते हैं किसी यात्रा पर अकेले जाने के लिए,तभी बड़ी सी दुनिया के किसी हिस्से के बीच या किसी कोने मे कहीं कोई और भी अपनी यात्रा के लिए टिकट बुक करा रहा होता है। ट्रैन और बस की यात्रा में हम सभी अपनी यात्रा में होते हैं,सब साथ-साथ यात्रा करते हैं एक साथ और सभी को अलग-अलग जगह उतरना होता है,लेकिन हवाई यात्रा में हम सब एक जगह ही उतरते हैं,बशर्ते आपकी फ्लाइट Connecting फ्लाइट न हो। इसलिए कह सकते हैं,जैसे जीवन में भी सब मृत्यु के बाद आसमान या दूसरी दुनिया में कहीं मिलते ही होंगे, ठीक उसी तरह मैं भी मानती हूँ कि कुछ यात्राएं आप तय नहीं करते,कोई और कहीं दूर आपकी यात्रा की प्लानिंग का वेन्यू और मीटिंग पॉइंट डिसाइड करता है। आप और हम तो बस टिकट बुक करते हैं,पता होता है बस तो Arrival time of flight.भले ही आप अकेले निकलते है किसी यात्रा पर एक टिकट के साथ, लेकिन मैं नहीं मानती वह आपकी अकेले की यात्रा होती है,कहीं न कहीं उसी हवाई जहाज में आपकी किसी अनजान के साथ की यात्रा होती है,सभी ने अपना टिकट लिया हुआ है ...यात्रा साथ करते हैं सब,कुछ मिलते हैं जीवन यात्रा में फिर से कहीं और कुछ के साथ वह आपकी आख़िरी यात्रा होती है। इसलिए कह सकते हैं कि हर एक यात्रा में हर एक इंसान की अपनी एक अलग यात्रा होती है। जितने यात्री उतने ही अलग-अलग यात्रा-वृत्तांत होंगे,भले ही उन्होंने एक ही फ्लाइट में यात्रा क्यूं न की हो! 


Saturday, September 02, 2023

अपना-अपना अहसास-डॉ हरिवंश शर्मा

डॉ हरिवंश शर्मा (प्राचार्य)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली, लखीमपुर-खीरी 
यात्रा-वृतांत

       आज मुझे 6:50 की ट्रेन से लखनऊ जाना था । स्लीपर का टिकट बेटे ने यह कहते हुए ऑनलाइन बुक कर दिया कि गर्मी का सीजन है साधारण कम्पार्टमेन्ट में यात्रा करना कठिन है । ऊपर से भीड़ का अपना आलम । हालांकि खुद की पढ़ाई के दिनों र्में खूब यात्रा की है वह भी साधारण रेल के डिब्बे में ही । तब कोयले वाला इंजन हुआ करता था जो अक्सर जेम्सवाट की  केतली वाला किस्सा खूब याद दिलाता था । ग्रेजुएशन पूरा करते . करते छोटी लाइन पर पर एक सुबह की ट्रेन डीजल वाले इन्जन से दौडने लगी थी । वकालत की पढ़ाई के दौरान भी खूब आना - जाना ट्रेनो से ही हुआ । आज की यह यात्रा कुछ अलग सा अहसास कराने वाली थी । मुझे इसका कतई अन्दाजा नही था । स्टेशन पर पहुंचा तो जी आर पी वाला बोला कहा जाना है ? मैने उससे पूछा कि एस . 2 किधर लगेगा । उसने कहा बस यही खड़े रहिये इधर ही लगेगा । छोटी लाइन  को अब बड़ी लाइन में तब्दील कर  दिया गया है ।  लेकिन स्टेशन वही जिन्दगी जी रही है । कहने को भर कि नई बिल्डिंगें बन गई है पर लोग तो वैसे ही ख्यालों से लबरेज  छोटी लाइन जैसे I कोई जानकारी नही रहती कौन सा कम्पार्टमेन्ट किधर लगेगा । यात्रियों को अपना डिब्बा दूंढने में खूब इधर से उधर कसरत करनी पड़ती है । यह रोज बरोज होता है । ट्रेन आई मेरा डिब्बा आगे के बजाय  बिल्कुल पीछे था । यदि दौड़कर न जाता तो ट्रेन का छूटना तय था । खैर डिब्बे तक पहुचने में इतना वक्त नही लगा जितना उसके अन्दर घुसने में | खचाखच भरी ट्रेन में बड़ी मसक्कत करके गेट पर ही बडी मुश्किल से खड़े होने की जगह मिल पायी । लोग चिल्ला रहे थे । औरतें चीख रही थी । बच्चे रो रहे थे । कुछ खो गए थे और कुछ खोज रहे थे । तभी एक ग्रामीण औरत चिल्लाती - रोती  भीड को चीरती हुई गेट की तरफ आती दिखाई दी । हाय ! मेरा बेटा  बाहर रह गया है । मेरे आदमी ( हसबैण्ड ) भी बाहर है ट्रेन चल दी है । कोई मेरे बेटे को ला दो । कोई उन्हें बता दो । हाय हम क्या करे ! अरे ! वह तो धीरे धीरे चलती ट्रेन से कूदने ही जा रही थी तभी एक महिला ने बाहर  से  उसके बेटे को गेट थी तरफ बढ़ाया । लोगों ने झट से खीचकर उस महिला के हवाले कर दिया । बेटे को पाकर उसके चेहरे पर शान्ति के भाव थे । वह फिर जोर जोर से चिल्लाने लगी । इनके पापा स्टेशन पर ही रह गये । अब हम का करी । ऐसे में कुछ की हैसी भी छूट गई। कुछ ने उसे ढाँढ़स बंधाया।
        साधारण डिब्बे की भीड को मात देता हुआ स्लीपर कोच की खीसे निकल रही थी । कई बार मन हुआ यह स्लीपर कोच कोई पुरुष होता तो मैं इसकी बतीसी तोड देता ।
        बगल में खड़ी एक  महिला का बच्चा भूख से व्याकुल था । वह उसे दूध पिलाने के लिए आंचल की तरक हाथ ले जाती फिर संकोच वश रुक जाती । लोग सिर्फ देख रहे  थे । बीच गलियारे में खड़ी वह महिला परेशान थी कि क्या करे और कैसे अपने बच्चे को दूध पिलाये । इस पर भी सामने बैठे 40 साला आदमी की नजर नही हट रही थी । उसकी नजर सिर्फ दो जगह पर अटकी थी एक तो अपनी दोनों टांगे इस कदर चौड़ी करके बैठा था कि कोई वहाँ बैठ न जाये | दूसरे कि वह अपने बच्चे को कब और कैसे दूध पिलाएगी | मेरी रिजर्व 71 नम्बर वाली बर्थ पर भी कुछ ऐसे ही दुष्ट कब्जा किये बैठे थे । उसके पति भी मजबूर वही मेरे पास खड़े थे । मैने पूछा कि क्या आप इन सबको धक्का मारते हुये भीड को चीरकर मेरी वाली बर्थ तक जा सकते हो । बच्चे का रोना उनसे भी देखा न जा रहा था | बोले और क्या कर सकते है । मैने उन्हे टिकट दिपा कहा जाकर उनको खड़ा कर दो और कहो मेरी सीट बुक है हटो यहाँ से | बस फिर क्या एक बाप अपने बच्चे के लिए जो कर सकता है किया और लड - झगड़ कर मेरी बताई सीट पर जा बैठा । लोग उसे धक्का दे रहे थे उसे जोरो से चिल्लाकर कहा ये मेरी सीट है 71 नम्बर वाली यहाँ से हटिए । उन दोनों ने अपने बैठने भर की जगह बना ली थी। मै भीड मे दबा कसमसा रहा था । लेकिन सन्तुष्टि थी मेरे स्लीपर के टिकट का पैसा अब वसूल हो गया था । टांगे फैलाये बैठे उस आदमी को पीटने का मन हो रहा था । आसपास के लोग भी खफा थे । तभी उस महिला ने मेरी तरफ हाथ हिलाकर बुलाया । भैया जगह है आप भी आकर बैठ लो काफी देर से खड़े हो । भीड में बडी मुश्किल से मै वहाँ पहुचा तो दोनो बहुत प्रसन्न थे । मुझे उनकी दुआ का  अहसास हो रहा था ।
वही  बगल थी सीट पर बैठे एक सिख युवक व युवती पर मेरी नजर पड़ी युवक ने बताया वह मेरे ही शहर के एक विद्यालय का छात्र रहा है और दिल्ली में नौकरी करता है । जिसे वह दीदी -दीदी कह रहा था । मैने पहचाना वह कोई और नही उन्नीस वर्ष पहले वह कक्षा दो की मेरी स्टूडेन्ट सिमरन कौर बजाज थी जो दिल्ली में ही जॉब करती है । एक शिक्षक के लिए इससे बड़ा कुछ नही । मुझे ऐसे में कई प्रकार के अहसास हो रहे थे जो मुझे रोमांचित कर रहे थे जो अकथनीय है।

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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