साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Wednesday, April 17, 2024

सदियों से लाईलाज बीमारी का डॉक्टर-मुकेश वाळके

  कविता   
मुकेश वाळके
बंगाली कैम्प, मूल रोड, 
शांतिनगर, चंद्रपुर(महाराष्ट्र)
442401


डॉक्टर
मै फिर से खोज रहा हु 
तुम्हारा राष्ट्र मन जांचनेवाला टेटस्कोप
तुमने जो इजात किया था
जाति उन्मूलन का टीका-
और उसे लगाने के लिए इस्तेमाल की थी जो सिरिंज.

डॉक्टर
आज फिर से गर्व के साथ संक्रमित हुआ है-
जाति धर्म के द्वेष का चौमुखी वायरस 
कुरेद रहा सौहार्द्र रहित 
संवेदनशील मस्तिष्क का 
मानवतावादी ढांचा 
तुम्हारे मरीज का भटक रहा ध्यान और दिशाहीन,
हो रही तुमने जो सीधी कर दी वो गर्दन 
संविधान की फार्मसी देकर 
जहां तुमने उंगली दिखा कर लिखा था आर एक्स 
उस निरामय संसद की ओर 
दूसरो के कंधो पर जा रहें तुम्हारे 
स्वार्थ भावना से लापरवाह हुए मरीज, 
कोई पागलखाने भर्ती हो रहा हो जैसे!
पढ़ो, संघर्ष करो और संगठित रहो!
यह सब तुम्हारी जालीम टैबलेट्स खोज रहा हूँ, 
मै फिर से-
आजादी, समानता, न्याय और भाईचारे के 
सद्धम्म की स्थाई आराम देनेवाली सलाईन कहा खो गई है डॉक्टर?
चिंता करते करते ही तुमने बुनियाद रख छोड़ी,
दीक्षाभूमि के ग्लोबल मेडिकल कॉलेज की.
तुम्हारा मरीज ज्यादा समय दर्द और मर्ज से तड़पता ना रहें 
इसलिए ...  
लेकिन अब फिर अस्पताल के सामने दिखने लगी है कतार 
मरीजों की किसी महामारी की तरह. 
अब तुम ही बताओ डॉक्टर!
वो तुमने खोजा हुआ टीका कहा है?
तुम्हारा वो टेटस्कोप कहा है?
वो टैबलेट्स, और सलाइन कहा है?

Wednesday, September 20, 2023

मोदी सरकार का आधा-अधूरा और विसंगतिपूर्ण " नारी शक्ति वंदन बिल"-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


            "इस बिल को महिला आरक्षण बिल या सवर्ण महिला आरक्षण बिल कहें .....पढ़िए इस पुरे लेख में आखिर क्या है यह महिला आरक्षण बिल ?....महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं........बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं"
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

    ✍️महिला आरक्षण बिल एक संविधान संशोधन विधेयक है, जो भारत में लोकसभा और सभी राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण देने की बात करता है। यह बिल 1996 में पहली बार पेश किया गया था, लेकिन अब तक पारित नहीं हो पाया है। महिला आरक्षण बिल भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और सशक्तिकरण की दिशा में उठाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण कदम है। भारत में, महिलाओं की लोकसभा में 2023 में भागीदारी केवल 14.5% है, जो विश्व में सबसे कम में से एक है। महिला आरक्षण बिल के पारित होने से उम्मीद है कि महिलाओं की प्रतिनिधित्व में वृद्धि होगी और वे नीति निर्माण में अधिक प्रभावी भूमिका निभा सकेंगी। हालांकि, सोमवार को चली कैबिनेट बैठक को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी सामने नहीं आई है,लेकिन इस बात की चर्चा तेज है कि केंद्रीय कैबिनेट ने महिला आरक्षण बिल को मंजूर कर दिया है।विपक्ष कई बिन्दुओं को लेकर इस महिला आरक्षण बिल पर सरकार को घेरने की रणनीति बना रहा है। वह सवाल उठा रहा है कि जब सभी पार्टियां बिल के समर्थन में थीं, तो फिर 10 साल तक इंतजार करने की क्या जरूरत पड़ी और ओबीसी महिलाओं के आरक्षण पर सरकार अपनी मंशा क्यों नही जता रही है? उनका कहना है कि ऐसा कुछ राज्यों के सन्निकट चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर महिला वोट बैंक तैयार करने की दिशा में यह उपक्रम किया जा रहा है। 
✍️इस महिला आरक्षण बिल के समर्थकों का तर्क है कि यह महिलाओं के सशक्तिकरण और समानता स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा। उनका मानना है कि इस आरक्षण से महिलाओं को राजनीति में प्रवेश करने और अपनी नेतृत्व क्षमता की भूमिकाओं को हासिल करने के लिए एक समान अवसर उपलब्ध होगा,जबकि इस बिल में एससी-एसटी महिलाओं के लिए क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण की बात कही जा रही है और ओबीसी महिलाओं के बारे में इस बिल में कोई जगह नहीं दी गयी है, तो फिर ऐसी स्थिति में यह बिल सशक्तिकरण और समानता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम कैसे साबित होगा? तुलनात्मक रूप से सामान्य वर्ग की महिलाएं एससी-एसटी और ओबीसी की महिलाओं से प्रत्येक क्षेत्र में आगे हैं और वर्तमान में महिला राजनीति की भागीदारी की बात की जाए तो सामान्य वर्ग की महिलाओं की ही अधिकतम भागीदारी दिखाई देती है,एससी -एसटी और ओबीसी महिलाओं की भागीदारी नाममात्र की दिखती है। महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं। फिलहाल, सरकार लोकसभा में दो तिहाई बहुमत से और राज्यसभा में राजनीतिक प्रबंधन से बिल पास कराने की स्थिति में सक्षम दिखती है। बिल पास होने के बाद इसकी विसंगतियों को लेकर विपक्ष या सामाजिक न्याय का कोई संगठन सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। विधि विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ओबीसी महिला आरक्षण के बिंदु पर सरकार के निर्णय से परे राय देते हुए निर्णय दे सकती है।
✍️नए संसद भवन में देश की आधी आबादी नारी शक्ति को राजनैतिक रूप से सशक्तिकरण की दिशा में लोकसभा और विधान सभा में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए विगत दो दशकों से अधिक समय से लंबित महिला आरक्षण विधेयक मोदी सरकार राज्यों और लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर लेकर लायी है। इस बिल की विषय सामग्री का अध्ययन करने के बाद ही पता चल पाएगा कि बिल की वास्तविक विषयवस्तु क्या है। कहा जा रहा है कि यदि यह बिल पारित होकर कानून बन जाता है तो भी उसके लागू होने की संभावना 2029 तक पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती है। परिसीमन और जनगणना एक जटिल प्रक्रिया मानी जाती है। इस बिल की विसंगतियों और संभावना पर शुरुआती दौर में ही तरह- तरह की उंगलियां उठने लगी हैं। बताया जा रहा है कि एससी-एसटी की तरह लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं को 33% आरक्षण दिए जाने की बात कही गई है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को उनको मिलते आ रहे 15 % और 7.5 % राजनीतिक आरक्षण के भीतर ही आरक्षण दिया जाएगा,यह भी सुनने में रहा है। तो इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि बाकी आरक्षण अन्य एक विशिष्ट वर्ग (सामान्य वर्ग) की महिलाओं को 33% आरक्षण का लाभ दिए जाने की बात है। ओबीसी की महिलाओं के राजनैतिक आरक्षण की बात इस बिल में कहीं नहीं है, ऐसा तथ्य सामने निकलकर आ रहा है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को तो क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण का लाभ मिल जाएगा क्योंकि उनके वर्ग को पहले से ही राजनैतिक आरक्षण मिलता आ रहा है, लेकिन ओबीसी महिलाओं को आरक्षण कैसे मिल पायेगा, ओबीसी को तो राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है जबकि 1953 में गठित काका कालेलकर आयोग और 1979 में गठित मंडल आयोग की सिफारिशों में ओबीसी को राजनैतिक आरक्षण की भी सिफारिश है। चूंकि एससी और एसटी को केवल लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में ही आरक्षण मिल रहा है, उनके लिए राज्यसभा तथा राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण की व्यवस्था अभी भी नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस बिल में एससी और एसटी की महिलाओं को राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण देने की बात कही गयी है,कि नही ? और यदि ऐसा नहीं है तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के संगठनों ,राजनीतिक दलों और उनके बौद्धिक मंचों से लंबित इस अधूरे राजनैतिक आरक्षण की मांग नए सिरे से उठना लाज़मी होगा। 
✍️चूंकि ओबीसी को वर्तमान में राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है, इस आधार पर अनुमान लगाया जा रहा है कि उनकी महिलाओं को एससी-एसटी की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण कैसे मिल सकता है? यदि ओबीसी की महिलाओं के लिए आरक्षण की बात इस बिल में है तो फिर उन्हें एससी-एसटी वर्ग की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण नहीं मिल पायेगा। ऐसी स्थिति में महिलाओं में दो भिन्न कैटेगिरी हो जाने से उनके बीच एक नई तरह की खाई पैदा होती दिखेगी जो कि नैसर्गिक न्याय के खिलाफ़ होगी। परिस्थितियों से यह सम्भव लग रहा है कि पहले एससी-एसटी की तर्ज पर ओबीसी के नए राजनैतिक आरक्षण की बात नए सिरे से उठे। अभी तक ओबीसी को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थाओं में 27% आरक्षण सीमा और क्रीमीलेयर की शर्त के साथ ही आरक्षण मिल रहा है। 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण के बाद ओबीसी को मिल रहे 27% आरक्षण सीमा की शर्त को लगातार खारिज किया जा रहा है, क्योंकि ओबीसी आरक्षण पर निर्णय देते समय सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा 50% निर्धारित की थी। ईडब्ल्यूएस पर 2023 में आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से यह सीमा टूट गई है,ऐसा माना जा रहा है। अब एक बड़ा सवाल यह उठता है कि महिला आरक्षण में यदि ओबीसी महिलाओं को शामिल नही किया जाता है तो मोदी जी के " नारी शक्ति वंदन " नारे और बिल की व्यावहारिकता और सार्थकता कैसे सिद्ध होगी? सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक मंचों से इस बिल को कई तरह की विसंगतियों से भरा हुआ बताया जा रहा है और यह भी कहा जा रहा है कि सन्निकट राज्य विधासभाओं और 2024 के लोकसभा चुनाव के भविष्य को लेकर जल्दबाजी में लाया गया यह बिल मोदी जी का एक और जुमला साबित हो सकता है।
✍️2019 में जब सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10% आरक्षण के लिए संविधान संशोधन बिल पास हुआ था तो उसके बाद से ही ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ाने और जातिगत जनगणना की मांग जोर शोर से उठ रही है। महिलाओं को 33% राजनैतिक आरक्षण देने के लिए लाए गए इस बिल के बाद जातिगत जनगणना और उसके हिसाब से आरक्षण दिए जाने की एक सामाजिक और राजनीतिक मांग उठने का एक और माक़ूल मौका मिलता हुआ दिख रहा है। यदि सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियां इस बिल पर बहस के दौरान यह मांग उठाती हैं और विसंगतियों के कारण बिल के पास होने या लागू होने में कोई अड़चन पैदा होती है तो यह स्थिति बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं, अर्थात विपक्ष की राजनैतिक एकता के गठबंधन का दायरा और बड़ा होने के साथ पहले से अधिक मजबूत बन सकता है। इस बिल से विपक्ष को सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना कराने का एक और सुअवसर मिलने की संभावना जताई जा रही है। यदि ओबीसी महिलाओं को आरक्षण की परिधि में नहीं लाया गया तो 2024 के लोकसभा चुनाव सरकार के लिए भारी पड़ सकता है। जरा इस पर गम्भीरतापूर्वक सोचिएगा!

Tuesday, September 12, 2023

लिखा नहीं जाता और कलम है कि मानती नहीं-डॉ० हरिवंश शर्मा


      नजरिया
डॉ हरिवंश शर्मा (प्राचार्य)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली, लखीमपुर-खीरी 
        यात्रा की थकान अभी उतर नही पाई थी । अचानक याद आया कि जरूरी काम एक बाकी है । मैंने मोबाइल उठाया और हमारे सहयोगी कम्प्यूटर सहायक डी के जी से पूछा, " आज आफिस आओगे क्या ? 
    "सर जी, वैसे तो मुझे दवा लेने जाना है हॉ अगर कोई जरूरी काम हो तो आ जाते है। 
    "किस समय बता दो" मैने पूछा। बोले," कहिए अभी आ जाऊं ।" 
    "तब ठीक है, मैं बस कपड़े बदलकर तुरन्त आता हू ।"
    मैने पत्नी से कहा ,"आफिस कुछ जरूरी काम है थोड़ा वक्त लगेगा ।"
    "खाना कब खाओगे ? पत्नी ने पूछा । 
    "दो - ढाई तो बज ही जाएगा ।"
    वैसे भी इस समय बच्चों के हास्टल जाने के बाद घर आधा सन्नाटा ही रहता है । ऐसे में अगर मोबाइल भी साथ छोड़ दे तो संसार ही अधूरा हो जाये । खैर छोडिए बात ये नही है कुछ और है ।
    स्कूटी लेकर मै घर से निकला था । जल्दी भी थी क्यों किसी को इन्तजार कराना मेरी आदत नही । ख्यालों में था कि कुछ बैंक का काम भी निपटा ही लेते है । बच्चों को कुछ पैसे भेजने है पर ये क्या बैक खुली भी है बन्द भी है सबसे सरल उपाय - सर्वर नही आ रहा । चेक तो जमा हो जाएगी मैंने पूछा तो हिकारत भरे स्वर में बोला नही आज वह भी नही हो पाएगा । मै मन ही बुदबुदाया सीधे मेन्टीनेन्स की बन्दी नही बोल रहे । फिर याद आया कि डाकघर में भी एक खाता है वहां चलते है । वैसे तो अमूमन यहाॅ के कर्मचारी तो बैंक से ज्यादा बेढंगे है । कभी सीधे मुह बात छोडिये जनाब चाल भी तिरछी रहती है । शायद मेरे साथ ही ऐसा हो क्योंकि न पान पुड़िया खाकर बतियाते है और न ही भौकाल बनाने के लिए धत् तेरी करते है । खैर मै पहुचा तो जमा निकासी वाले राना बाबू नही थे । मिश्रा जी भी नही दिखे । एक बैठा था उससे पूछा तो बताया . मिश्रा जी बीमार है । उनकी जगह एक नये सज्जन बैठे थे । उनसे मालूम किया तो बोले - मिश्रा जी बीमार है ऐसे जमा निकासी सब कुछ बन्द । पास में बैठे एक एजेन्ट महाशय मुझे तरह तरह के ज्ञान देने लगे । पिण्ड छुड़ाकर मै बाहर आया । मन में गुस्से का गुब्बार जरूर था । यह मनोदशा लेकर मैं स्कूटी से आगे बढ़ा तो बायें साइड की तरफ पड़ने वाली कोतवाली से एक्टिवा पर सवार एक नौजवान पुलिस वाला जिसकी पीठ पर आज के चलन का पिट्ठू बैग था । वह सरपट चौरहे की तरफ बढ़ा । जन्माष्टमी के चलते शहर के चौराहों पर लगने वाली पटरी थी दुकानों के चलते सदा सर्वदा कहने को ही फुटपाथ है । पुलिस वाले के पीछे उसकी बगल एक साइकिल वाला चल रहा था । उसकी उम्र कुछ अधेड होगी । यह क्या अचानक वह पुलिसवाला - साले हरामखोर आदि सहित मा बहन की दो चार गालियां उस साइकिल वाले देने लगा | साले मारुगा थप्पड़ । भीड थी । ऐसे किसी से साइकिल मोटर साइकिल लड़ जाना स्वाभाविक था । इसी के फलस्वरूप वह गालियां खा रहा था चुपचाप बड़े प्रेम से । कसूर था कि साइकिल उस महापुरुष से कैसे छू गई तो इतना प्रसाद जरूरी था । थोड़ा पीछे मै था । मुझे लगा कहीं मेरी स्कूटी उसकी स्कूटी से लड गई होती तो क्या होता? खैर उनको वर्दी ऐसी ही जनरक्षा सुरक्षा के मद्देनजर मिली है । भीड की धक्कम धक्का के चलते सब इधर उधर जा रहे थे । में भी अपने रास्ते चला गया 1 मन सिफ रह गया अफसोस कि हर जगह मनुष्य के ये कौन कौन से रुप देखने को मिल रहे । वाह री ये दुनिया ।  चाहते हुये भी कलम नही रुकी ।

Saturday, September 02, 2023

यदि संविधान बदला तो एससी-एसटी और ओबीसी की गति उस लोहार जैसी ही होगी जिसे भेंट में मिले चंदन के बाग-नन्द लाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)

चिंतनीय_आलेख
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

         एक बार एक राजा ने एक लोहार की कारीगरी से खुश होकर उसे चंदन का बाग इसलिए भेंट कर दिया कि वह चंदन की बेशकीमती लकड़ी बेचकर धनवान बन जाये।
उस लोहार को चंदन के पेड़ की कीमत और उपयोगिता का कोई अंदाजा नहीं था। इसलिए उसने अपने पेशे की उपयोगिता के हिसाब से चंदन के पेड़ो को काटकर उन्हें भट्टी में जलाकर कोयला बनाकर अपने काम में और अपने पेशेवर साथियों को बेचना शुरू कर दिया। ऐसा करते-करते, धीरे-धीरे एक दिन बेशकीमती चंदन का पूरा बाग कोयला के रूप में तब्दील होकर बिक और उसकी भट्टी में जल गया।
          एक दिन राजा घूमते हुए उस लोहार के घर के बाहर से गुजर रहे थे तो राजा ने सोचा अब तो लोहार चंदन की लकड़ी बेच-बेचकर बहुत अमीर हो गया होगा। सामने देखने पर लोहार की स्थिति जैसे की तैसी ही बनी हुई नजर आई। यह देखकर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। अनायास राजा के मुँह से निकला यह कैसे हो सकता है! राजा ने अपने जासूसों से सच का पता लगावाया तो पाया चंदन के बाग की बेशकीमती लकडी को तो उसने कोयला बनाकर बेच दिया और अपनी भट्टी में प्रयोग कर लिया है। यह सुनकर राजा ने अपना माथा पीटते हुए कहा कि उपहार,भेंट और दान किसी पात्र व्यक्ति को ही देना चाहिए। तब राजा ने लोहार को बुलाकर पूछा,तुम्हारे पास चंदन की एकाध लकडी बची है या सबका कोयला बनाकर बेच दिया? लोहार के पास कुल्हाडी में लगे चंदन के बेंट के अलावा कुछ भी नहीं था,उसने वह लाकर राजा को दे दिया।
          राजा ने लोहार की कुल्हाड़ी का बेंट लेकर लोहार को चंदन के व्यापारी के पास भेज दिया, वहाँ जाकर लोहार को कुल्हाड़ी के बेंट के बदले अच्छे खासे पैसे मिल गये। यह देखकर लोहार भौचक रह गया, उसकी आंखो में आंसू आ गये। उसकी स्थिति " अब पछताये होत क्या,जब चिड़ियां चुंग गयी खेत " जैसी हो गयी थी। वह बहुत पछताया और फिर उसने रोते हुए आँसू पोछकर राजा से एक और बाग देने की विनती की। तब राजा ने उससे कहा कि " ऐसी भेंट जीवन में बार-बार नहीं मिलती हैं बल्कि, एक बार ही मिलती है।"
         अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को संविधान प्रदत्त अधिकार विशेषकर मतदान का अधिकार चंदन के बाग की भेंट की तरह मिले हुए हैं। इन्हें पांच किलो मुफ्त राशन, सब्सिडी पर मिल रही घरेलू गैस,शौचालय एवं किसान सम्मान निधि के नाम पर मिल रही चन्द आर्थिक सहायता के लालच में बेचा जा रहा है। अगर संविधान प्रदत्त अधिकारों के संरक्षण के लिए एकजुट होकर सड़क से लेकर संसद तक विरोध-प्रदर्शन नहीं किया गया तो एससी-एसटी और ओबीसी की हालत उस लोहार जैसी होने में देर नहीं लगेगी। लोकतंत्र के आवरण में छुपी वर्तमान तानाशाह प्रवृत्ति की सत्ता की नीयत साफ नहीं लग रही है। यदि 2024 के लोकसभा चुनाव में आरएसएस से निकले मनुवादी भाजपाई एक बार फिर संसद में कब्जा करने में सफल हो जाते हैं तो डॉ आंबेडकर का न्याय पर आधारित संविधान बदलना तय है। डॉ.भीमराव आंबेडकर जी के अथक प्रयासों से पिछड़े समाज को जो सांविधानिक अधिकार मिले हैं जिनकी वजह से उसका एक बड़ा हिस्सा सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक सशक्त मध्यम वर्ग बनकर उभरा है। यह वर्ग अच्छा खा रहा है, उनके बच्चे देश विदेश की प्रतिष्ठित संस्थाओं में पढ़ और रिसर्च कर रहे हैं, सूट,बूट और टाई पहनकर मूछों पर ताव देकर आज़ादी से घूम रहा है, घोड़ी पर चढ़कर बारात निकाल रहा है, अच्छे मकानों और हवेलियों में रह रहा है, बड़ी बड़ी कारों में घूम रहा है, शिक्षित होकर बौद्धिक वर्ग विभिन विषयों और मुद्दों पर सड़क से लेकर उच्च संस्थाओं में सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ सीना तानकर लिख और दहाड़ रहा है, जिन्हें आज़ादी से पहले चारपाई पर बैठने का अधिकार नहीं था, वे आरक्षण की वजह से बड़े-बड़े अधिकारी बन रहे हैं, ऐसा होने से मनुवादियों को लग रहा है कि वे उनके सिर पर बैठ रहे हैं, ये सब मनुवादियों को अच्छा नहीं लग रहा है। संविधान बदलने के बाद वही पुरानी मनुस्मृति की व्यवस्था लागू होने की पूरी सम्भावना है जो सामाजिक व्यवस्था में ऊंच-नीच और भेदभाव से भरी जाति व्यवस्था फिर से कायम होने की पूरी सम्भावना दिख रही है। डॉ.आंबेडकर की सोच की दूरदर्शिता की वजह से राजनैतिक आरक्षण के माध्यम से जो एससी और एसटी के 131 सांसद हर लोकसभा में पहुंच रहे हैं, संविधान बदलने के बाद एससी और एसटी एक भी सांसद बनाने के लिए तरस जाएगा। बहुजन समाज को मिल रहे चुनावी प्रलोभनों से निजात पानी होगी। बहुजन समाज (एससी- एसटी और ओबीसी) की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि सारे सामाजिक और राजनीतिक द्वेष और दुराग्रह दरकिनार कर 2024 के लोकसभा चुनाव में संविधान,लोकतंत्र और उसके सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों के गठबंधन को ही जिताने में अपनी सारी राजनीतिक ऊर्जा लगाएं और समाज को भी प्रेरित व जागरूक करें।
        जब डॉ.आंबेडकर ने भारतीय संविधान की रचना की थी,वह मनुवाद पर आंबेडकर द्वारा किया गया करारा प्रहार था। इसलिए मनुवादी आंबेडकर और उनके संविधान से घोर नफ़रत करते हैं और उन्होंने ऐलानिया तौर पर भारतीय संविधान को स्वीकार करने से मना भी कर दिया था। सांविधानिक व्यवस्थाओं को देखकर मनुवादियों को सांप सूंघ गया था। संविधान ने एससी -एसटी और ओबीसी को केवल आरक्षण ही नहीं दिया,उसने बहुजन समाज को बहुत कुछ दिया है, जैसे आठ घण्टे का कार्य दिवस, महिलाओं को मातृत्व अवकाश और महिलाओं को तो डॉ आंबेडकर ने इतना दिया है, जितना उन्हें देश के सारे समाज सुधारक नहीं दे पाए। इसके बावजूद देश की 50प्रतिशत आबादी को डॉ.आंबेडकर के योगदान का एहसास नहीं है। देश के वंचित वर्ग के जीवन में जो भी बदलाव आया है वह सिर्फ डॉ.आंबेडकर और उनकी सांविधानिक व्यवस्थाओं से ही सम्भव हो पाया है। जिन्हें डॉ.आंबेडकर और उनके संविधान से प्रेम या लगाव नहीं है,अर्थात उससे नफ़रत करते हैं तो वे संविधान के माध्यम से डॉ.आंबेडकर द्वारा दी गयी सारी सुविधाओं और लाभों को त्याग दें,तब उन्हें संविधान की अहमियत पता चल जाएगी। इसलिए वर्तमान सत्ता द्वारा संविधान के बदलाव की संभावना से उपजने वाले गम्भीर दुष्प्रभावों को भांपते हुए बहुजन समाज को समय रहते ही सावधान और सजग हो जाना चाहिए और उस लोहार को मिली चंदन की लकड़ी की कीमत की तरह अपने सांविधानिक अधिकारों की कीमत पहचान कर संविधान की रक्षा करने की दिशा में आज से ही गम्भीर विचार-विमर्श के माध्यम से सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर सार्थक प्रयास शुरू कर देना चाहिए अन्यथा लोहार की तरह बेशकीमती चीज खो जाने के बाद पछतावे और हाथ मलने के सिवा कुछ हासिल नहीं होने वाला। भारतीय संविधान की अनमोल विरासत देश के हर वर्ग और नागरिक के हित में है। इसलिए इसके सरंक्षण की जिम्मेदारी भी सभी नागरिकों की बनती है। वर्तमान सत्त्तारुढ़ दल द्वारा बिना एजेंडे के संसद का विशेष सत्र बुलाने के गूढ़ निहितार्थ को समझने की जरूरत है। राजनीतिक और बौद्धिक गलियारों में संभावित बिंदुओं पर प्रकाश डालने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है, लेकिन इस सत्र के एजेंडों की असलियत सत्र शुरू होने के बाद ही सामने आ पाएगी।

Tuesday, August 16, 2022

सम्पूर्ण विपक्ष की सामाजिक - राजनीतिक भूमिका पर उठता एक बेहद स्वाभाविक सवाल-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

            सामाजिक न्याय के पक्षधर और विचारक लगभग सभी लोग यह जान चुके हैं कि देश मे जातिगत जनगणना वर्ण व्यवस्था के जातीय वर्चस्व और सामाजिक अन्याय की खड़ी सनातनी इमारत को ढहाने का एक मजबूत ढांचा मुहैया करा सकता है। जातिगत जनगणना डॉ.आंबेडकर के सामाजिक न्याय,समता,स्वतंत्रता और बंधुता आधारित लोकतांत्रिक भारत के निर्माण में मील का पत्थर साबित हो सकता है,एक ऐसे राष्ट्र निर्माण में कारगर सिद्ध होगा जिसकी समृद्धि और विकास में सभी नागरिकों का अधिकार और सहभाग होगा। भारत में सबके लिए न्याय और विशेष रूप से ऐतिहासिक सामाजिक अन्याय और शोषण के शिकार बहुजन समाज के एक विशेष तबके जिसे शूद्र और अछूत समझा जाता है, के सामाजिक न्याय का प्रबल समर्थक और पक्षधर देश का हर नागरिक जातिगत जनगणना के निहितार्थ को अच्छी तरह समझता है, क्योकि इससे सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में समान अवसर और संसाधनों में समान भागीदारी का मार्ग प्रशस्त होता है। इसलिए आज़ादी के बाद सामाजिक और राजनीतिक बहुजन चिन्तक समय-समय पर जातिगत जनगणना के पक्ष में ठोस तर्क और तथ्य देते रहे हैं।

            देश मे यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि देश में ओबीसी की जातिगत जनगणना की मांग की जा रही है,जबकि ऐसा नही है। सच्चाई यह है कि जो जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं, वे देश मे सभी जातियों की जनगणना की मांग कर रहे हैं जिसमें कथित उच्च जातियों के साथ मुस्लिम, ईसाई और अन्य सभी धर्मावलंबियों के बीच की जातियों की जनगणना भी शामिल है। वर्तमान राजनीतिक सत्ता पर काबिज एक विशेष संस्कृति से संचालित और नियंत्रित केंद्र सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में शपथपत्र देकर जातिगत जनगणना कराने से साफ मना कर दिया है। इसमें केंद्र सरकार ने जानबूझकर जातिगत जनगणना के सवाल को ओबीसी की जातिगत जनगणना तक सीमित करते हुए  ओबीसी की जातिगत जनगणना कराने को एक लंबा और कठिन काम बताते हुए जातिगत जनगणना के अहम और आबश्यक मुद्दे से छुटकारा पाने का प्रयास किया है। हर दस साल बाद देश मे जनगणना की व्यवस्था है और आज की डिजिटल इंडिया में तो उसमें केवल जाति का एक अतिरिक्त कॉलम ही तो जोड़ना होगा। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मोदी जी की डिजिटल इंडिया और युग में जातिगत जनगणना कठिन कार्य कैसे हो गया और देश का यदि कोई कार्य कठिन है तो क्या वह कठिनाइयों की वजह से किया ही नही जाएगा? यह तो बड़ी विडंबना का विषय है। यह देश विभिन्न जातियों और समाजों से भरा देश है और देश के आंतरिक ढाँचे को समझने और उनके अनुकूल नीतियों के निर्माण के लिए जातिगत जनगणना एक अपरिहार्य विषय या मुद्दा है।

             वर्तमान राजनीतिक सत्ता के दौर में बीजेपी को छोड़कर अन्य कोई भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय राजनीतिक दल जातिगत जनगणना के खिलाफ दिखाई नही दे रहा है।इसके बावजूद जातिगत जनगणना के पक्ष में सड़क पर उतरकर एक बड़ा जनांदोलन करने की हिम्मत किसी भी विपक्षी दल में दिखाई नहीं दे रही है। उन्हें मुट्ठीभर कथित उच्च जातियों के नाराज़ होने का राजनीतिक भय सदैव सताता रहता है। इस देश मे शासक वर्ग सदैव उच्च जातियों से ही रहा है और आज भी है। 2014 के बाद एक बड़ा बदलाव जरूर देखने को मिल रहा है कि मुस्लिम समाज की उच्च जातियों को शासन सत्ता या व्यवस्था से लगभग बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। आज के दौर के शासक वर्ग में केवल उच्च जाति और उच्च वर्ग के ज्यादातर हिन्दू पुरूष ही दिखाई देते हैं।

             आज अधिकांश लिबरल बुद्धिजीवी वर्ग छिपे तौर पर और हाँ -हूँ-ना के साथ जातिगत जनगणना के विरोध में दिखाई देते हैं। वाममपंथी राजनीतिक विचारधारा के दल औपचारिक तौर पर तो जातिगत जनगणना के पक्ष में दिखाई देते हैं ,लेकिन वे भी इसे इतना बड़ा सामाजिक- राजनीतिक मुद्दा नही मानते हैं जिसके लिए जनांदोलन या जनसंघर्ष का रास्ता चुना जाए!इनमें भी कुछ तो भीतर ही भीतर मन से जातिगत जनगणना के खिलाफ ही हैं,भले ही उसे सार्वजनिक तौर पर ज़ाहिर नही कर पाएं। कांग्रेस तो सैद्धांतिक रूप से जातिगत जनगणना के पक्ष में दिखती है, लेकिन वह भी अदृश्य राजनीतिक नुकसान की बजह से इसे एक व्यापक और राष्ट्रीय सामाजिक- राजनीतिक मुद्दा बनाने का साहस नही जुटा पा रही है।

              उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज के सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दो प्रमुख दल हैं। ये दोनों दल भी  सवर्णों में मुट्ठीभर ब्राम्हणों को पटाने में ही अपनी पूरी राजनीतिक शक्ति झोंकते हुए दिखाई देते हैं। ये दोनों दल जातिगत जनगणना के मुद्दे को लेकर सड़क पर उतरकर जनांदोलन करने के लिए शायद सोच भी नही रहे हैं।

             इन परिस्थितियों में एक विकल्प यह दिखाई देता है कि सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी वर्ग और सामाजिक न्याय या लोकतंत्र के लिए कार्य करने वाले सामाजिक संगठन एक बैनर तले राष्ट्रव्यापी एकजुटता कायम कर एक बड़ा जनांदोलन और संघर्ष खड़ा कर सकते हैं और सरकार पर जातिगत जनगणना का सामाजिक - राजनीतिक दबाव बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास किए जा सकते हैं। इससे देश के राजनीतिक दलों पर सकारात्मक या अनुकूल प्रभाव पड़ने की संभावना हो सकती है। हो सकता है कि इससे राजनीतिक पार्टियां भी साथ आने के लिए सोचने के लिए विवश हों। अब यही एकमात्र रास्ता दिखाई देता है। यदि डॉ.आंबेडकर के संवैधानिक लोकतांत्रिक देश में देश का पचासी प्रतिशत बहुजन समाज जातिगत जनगणना के मुद्दे पर सफलता प्राप्त करने में सक्षम नही हो पाता है तो बहुजन समाज की एक और बहुत बड़ी ऐतिहासिक सामाजिक - राजनीतिक पराजय मानी जाएगी।


Tuesday, April 12, 2022

शोषितों- वंचितों के लिए निर्भीकता की मिसाल और मसाल हैं और विद्यार्थियों के लिए बेमिसाल आदर्श/प्रेरक व्यक्तित्व हैं डॉ.आंबेडकर:नन्द लाल वर्मा

"उनकी जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो पढ़ेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी.....आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा।"
एन०एल० वर्मा
एसोसियेट प्रोफ़ेसर
(युवराज दत्त महाविद्यालय)
         डॉ.भीम राव आंबेडकर एक ऐसा महान व्यक्तित्व है जो हर निराश,हताश और परेशान व्यक्ति की सामाजिक,धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति का मार्ग तैयार करते हुए आजीवन संघर्ष करते हुए नजर आते हैं। डॉ.भीमराव आंबेडकर को यदि 20 वीं सदी का महानतम व्यक्ति की संज्ञा दी जाए तो अतिशयोक्ति नही होनी चाहिए। जय भीम जय हिंद की तरह ही एक ऐसा नारा या उदघोष है जो हर वंचित- शोषित व्यक्ति के अंदर सतत संघर्ष के लिए एक अद्भुत ऊर्जा और शक्ति का संचार करता है। भीषण विषम परिस्थितियों से गुजर कर उन्होंने जो मुकाम हासिल किया है,वह दुनिया की ऐतिहासिक में एक अद्भुत मिसाल है। उनकी जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो पड़ेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी।
 
           आज कथित आंबेडकरवादी यह कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि सवर्ण दलितों को घोड़ी पर बैठने और बारात चढ़ाने नहीं देते हैं, चारपाई पर बैठे नहीं देते हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि डॉ. आंबेडकर साहब को क्या वे ऐसा करने से रोक पाए थे? बिल्कुल नहीं। डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को तपाकर जिस दिन समाज के बीच जाओगे, घोड़ी और खटिया पर बैठने की तो बात दूर , पूरा सवर्ण समाज आपको पूरे सम्मान के साथ अपने सिर पर बैठाने के लिए उतावला दिखेगा। पहले आंबेडकर की तरह बनने का ईमानदारी से प्रयास और संघर्ष तो करके देखो! जो भी आंबेडकर की विचारधारा पर चलकर शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं, वे आज घोड़ी- चारपाई तो छोड़ो पूरी दुनिया मे हवाई जहाज से उड़ रहे हैं। सबसे पहले शिक्षित होकर आंबेडकर की तरह ज्ञानी बनो, फिर बताना देश के ब्राम्हण या सवर्ण तुम्हारे साथ कैसा सलूक करते हैं? केवल जय भीम बोलने या नीला कपड़ा पहनने या मूंछ ऐंठने से कोई आंबेडकरवादी नही हो जाता है। आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा। जय भीम का नारा तभी बुलंद और सार्थक होगा जब बहुजन समाज के लोग आंबेडकर जी की वैचारिकी या दर्शन को व्यावहारिक जीवन में अर्थात आचरण में उतारेंगे। डॉ.भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के सामने दीपक,मोमबत्ती और अगरबत्ती जलाकर केवल उनका उपासक ही नहीं बनना है, बल्कि उनकी विचारधारा का संवाहक बनना होगा अर्थात उनकी वैचारिकी को खड़ा करना होगा। आंबेडकर जी खुद कहा करते थे कि मैं मूर्तियों और प्रतिमाओं में नहीं ,बल्कि क़िताबों में रहता हूँ। इसलिए आंबेडकरवादी बनने वाले हर इंसान को उनकी वैचारिकी-दर्शन को आत्मसात करना होगा और आंबेडकर जैसा विचारक - दार्शनिक बनकर उस पर आचरण करना होगा। बहुजनों को आंबेडकर जी  सवर्णों के सिर पर बैठने का ऐसा अद्भुत  सिद्धांत या हथियार (संविधान) देकर गए हैं जिसकी अकूत ताकत के साथ वह शान से सिर उठाकर चल सकता है। वह कहते थे "शिक्षा शेरनी का वह दूध है जिसे जो पिएगा वह दहाड़ेगा" और हम लोग अभी भी घोड़ी,बारात और चारपाई तक सिमटे हुए हैं। ऐसा वही कहते हैं जो दलित अशिक्षित और अज्ञानी हैं। ब्राह्मण जैसा बनने का प्रयास करिए और जैसे ही कोई सवर्ण या ब्राह्मण आपके सामने आए तो उसके सामने संस्कृत और मंत्रों का तेज-तेज उच्चारण कर पानी छिड़ककर ऐसे चिल्लाओ जिसे देखकर ब्राह्मण या सवर्ण देखकर भौचक रह जाए। ऐसा करने के लिए दलित समाज को तैयार करना होगा और फिर देखो तुम्हारी इस दशा को देखकर ब्राह्मण खुद न चिल्लाने लग जाए ,कि बाप रे बाप!


           एक शिक्षक बुद्ध जी थे जिनके किसी राज दरबार में प्रवेश करने पर राजा खुद सिंहासन से उतरकर नीचे मिलने आता था। ज्ञान या शिक्षा ऐसी शक्ति है जिसके सामने बड़ी-बड़ी हस्तियां झुकती हैं। इसलिए डॉ आंबेडकर की तरह शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने के लिए सतत प्रयास और अभ्यास करने की जरूरत है।

          आंबेडकर एक बात अच्छी तरह जान गए थे कि आखिर ब्राह्मण इतना शक्तिशाली और सम्मानित क्यों है अर्थात उनकी शक्ति का आधार क्या है? शक्ति का आधार है ज्ञान और ज्ञान का मतलब सूचना नहीं होता है बल्कि, तार्किकता के आधार पर विषय को कसौटी पर कसने की क्षमता और इसीलिए आंबेडकर ने शिक्षा के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने में अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। दुनिया के नामी- गिरामी  विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में गहन अध्ययन और शोध कार्य किए। सारे धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन करने के पश्चात उनकी सच्चाई जानी और उसके बाद ही मनुस्मृति को जलाने का साहस जुटा पाए थे। जाति व्यवस्था में ऊंच-नीच का भाव गलत होता है। हम किसी भी चर्मकार या जुलाहे को उतने सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाते हैं जितना बाटा या वुडलैंड या अन्य किसी चमड़े के शोरूम के मालिक को या कपड़े बेचने वाले पूंजीपति को सम्मान देते हैं। ब्राह्मण केवल शिक्षा या ज्ञान की बदौलत ही श्रेष्ठ नहीं बन जाता है, बल्कि ज्ञान का दान करने से श्रेष्ठ बनता है। मान लीजिए कि किसी के पास अपार ज्ञान है और उसके ज्ञान से समाज के किसी व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होता है,तो समाज उसका सम्मान क्यों करेगा और उसे श्रेष्ठ क्यों समझेगा? ऐसा करने से ही धीरे-धीरे वह व्यक्ति या समाज श्रेष्ठ बनता चला जाता है। ब्राह्मणों को एक भ्रम हो गया कि ज्ञान की वजह से ही वे श्रेष्ठ है,ऐसा नहीं है।

        डॉ.आंबेडकर को क्लास के बाहर बैठा दिया जाता था और वह बालक फिर भी किसी भी प्रकार की ग्लानि या अपमान महसूस न करते हुए अपने ज्ञान अर्जन के मार्ग पर पूरी हिम्मत और शिद्दत से चलता चला जाता है। कोलंबिया और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं में एक साधारण परिवार का एक असाधारण बालक स्वयं को एक सच्चा विद्यार्थी सिद्ध करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है और आज उन्हें  पूरी दुनिया में ज्ञान के प्रतीक अर्थात सिंबल ऑफ नॉलेज की संज्ञा से नवाज़ा जाता है। डॉ.आंबेडकर की शैक्षणिक ज्ञान की वजह से ही डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी -दर्शन को कोलंबिया विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल कर वहां के छात्रों को पढ़ाया और उन पर शोध कराया जा रहा है और हमारे देश में डॉ. आंबेडकर का बहुआयामी साहित्य और दर्शन लंबे समय तक आम लोगों के पास पहुंचने तक नही दिया गया। बहुजन समाज से निकले अन्य समाज सुधारकों और विचारकों की तरह डॉ. आंबेडकर को भी इतिहास के पन्नों में जानबूझकर इसलिए दबाए रखा जिससे देश का वंचित,शोषित और अशिक्षित एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग में सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक चेतना का संचार न हो सके। इसीलिए शिक्षित बनो और ज्ञानी बनो और ज्ञान को समाज में दान करो तभी आपको समाज में सम्मान मिलेगा और धीरे-धीरे श्रेष्ठता हासिल होती जाएगी।

          आज डॉ.आंबेडकर , गांधी और भगत सिंह देश के ही नहीं, बल्कि विश्व के महान आदर्श बन चुके हैं। आंबेडकर को  जिन लोगों ने क्लास के बाहर बिठाया उन्हीं के बीच या सिर पर बैठकर अपने अकूत ज्ञान के बदौलत पूरी निर्भीकता के साथ ऐसा संविधान रच दिया जिसमें कहीं भी किसी भी प्रकार का भेदभाव ,प्रतिक्रिया या बदले की भावना नहीं झलकती है। आज तक उनकी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक मानववादी संवैधानिक व्यवस्था या विचारधारा पर कोई सवालिया निशान लगाना तो दूर उसमें नुक़्ता चीनी तक लगाने का साहस नहीं जुटा  पाया है। बहुजन समाज को संविधान रूपी ऐसा अस्त्र डॉ आंबेडकर दे गए हैं जिससे वह बोल सकता है, अपने सामाजिक, राजनीतिक और अन्य हक लेने के साथ उनके लिए कानूनी और लोकतांत्रिक रूप से लड़ाई भी लड़ सकता है। डॉ.आंबेडकर की आज की हैसियत का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की विभिन्न पार्टियों के बैनर-पोस्टर-भाषण डॉ.आंबेडकर का नाम के बिना और नारे लगाए अधूरे से माने जाते हैं। आज के दौर में राजनीतिक सत्ता के क्षितिज या कैनवस पर डॉ.आंबेडकर को इग्नोर करना असंभव सा हो गया है। ब्राह्मणवादी सोच की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों के आयोजन भी बिना आंबेडकर के चित्र,विचारों और भाषण के बिना पूरे नही माने जाते हैं।
 
          हम कह सकते हैं कि वर्तमान दौर की राजनीति में आंबेडकर साहब की वैचारिकी या दर्शन एक अपरिहार्य विषय बन चुका है। देश के हर नागरिक को डॉ.की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के मोटे-मोटे सिद्धांतों को जरूर पढ़ना चाहिए। आज के वैज्ञानिक और आर्थिक युग में यह दुर्भाग्य का विषय है कि समाज मे सोशल साइंस के विषय लेकर अध्ययन और शोध करने  वाले छात्र-छात्राओं का कमतर मूल्यांकन किया जा रहा है।
         आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर समाज का एक ऐसा वर्ग है जो यह कहता है कि आंबेडकर ने हमारी जिंदगी बर्बाद कर दी और दूसरा वर्ग दिल ठोककर जय भीम का उदघोष करते हुए कहता है कि डॉ.आंबेडकर हमारे भगवान हैं, मसीहा हैं और मुक्तिदाता हैं। समाज के दो छोरों पर बैठे लोगों की सोच के इस भारी अंतर से डॉ.आंबेडकर की सार्थकता और प्रासंगिकता का आभास किया जा सकता है। हम कह सकते हैं कि हर परेशान इंसान के मसीहा हैं, डॉ.आंबेडकर साहब!
पता-मोतीनगर कालोनी लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश 262701

Saturday, April 09, 2022

राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर-कँवल भारती

सन्दर्भ- बौद्धधर्म
कंवल भारती
प्रख्यात-दलित चिन्तक व साहित्यकार

 भारत में आधुनिक बौद्धधर्म तीन महान व्यक्तियों का ऋणी है। यानी, जिस बौद्धधर्म को ब्राह्मणवाद ने भारत की धरती से खदेड़ दिया था, उन्नीसवीं शताब्दी में उसका पुनरुद्धार तीन महान लोगों ने किया। ये महान लोग थे- अनागरिक धर्मपाल, महापंडित राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर। धर्मपाल श्री लंका के थे। वे 1891 में भारत आये थे और यहां सारनाथ और बोधगया की दुर्दशा देख कर उनके उद्धार के लिये यहीं रुक गये थे। उन दिनों बौद्धों के तीर्थ स्थल ब्राह्मण महन्तों के कब्जे में थे। लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ कर उन्होंने कई बौद्ध मन्दिरों को ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराये और बौद्धों को सौंपे थे। सारनाथ में उन्हीं के नेतृत्व में खुदाई कार्य किया गया था और उसी खुदाई के परिणाम स्वरूप आज के धम्मेख स्तूप का अस्तित्व सामने आया था। बोध गया का मन्दिर बौद्धों को सौंपे जाने की लड़ाई भी उन्होंने ही लड़ी थी, जो अभी तक जारी है। यही धर्मपाल जी 1893 में शिकागो में होने वाली विश्वधर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर गये थे। धर्मपाल जी दर्शन और इतिहास के लेखक नहीं थे, पर भारत में प्राचीन बौद्ध स्थलों को खोजने और उनका पुनरुद्धार करने का एक मात्र श्रेय उन्हीं को जाता है।
 आधुनिक भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार पर जब भी चर्चा चलती है, तो धर्मपाल जी का नाम राहुल और आंबेडकर से पहले आता है। धर्मपाल जी ने यदि बौद्ध स्तूपों, विहारों और मन्दिरों का उद्धार और निर्माण कराया, तो राहुल सांकृत्यायन को लुप्त बौद्ध साहित्य की खोज करने का श्रेय जाता है। उन्होंने तिब्बत की यात्रा की और वहां से 18 खच्चरों पर लाद कर बौद्ध साहित्य भारत लाये, जो पटना के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है। यह साहित्य तिब्बती भाषा में है, जिसका उन्होंने संस्कृत और फिर हिन्दी में अनुवाद किया। आज हिन्दी में अधिकांश त्रिपिटक राहुल जी की ही देन है। यदि राहुल जी ने यह महत्वपूर्ण कार्य न किया होता, तो भारत में हिन्दी में बौद्ध साहित्य का सचमुच अभाव होता।
 लेकिन बौद्ध साहित्य और विहारों का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक उनकी सुरक्षा के लिये आस्थावान बौद्ध समुदाय का अस्तित्व न हो। भारत में बौद्ध समुदाय के अभाव की पूर्ति डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने की। उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्धधर्म में धर्मान्तरण करके लाखों दलितों को बौद्धधर्म में दीक्षित होने की प्रेरणा दी। इसी प्रेरणा के परिणाम स्वरूप आज भारत में बौद्धों की संख्या एक करोड के लगभग है।
 
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 राहुल सांकृत्यायन सनातनी हिन्दू साधु (रामोदार स्वामी) के रूप में घुमक्कड़ी करते हुए, आर्य समाजी हो गये थे। एक आर्य समाजी के रूप में वे वेद और निराकार ईश्वर में सारी समस्याओं का हल देखते थे। इस सम्बन्ध में उनके विचार इस प्रकार थे- ‘‘उस समय मैं आर्य समाज के गर्मदली विचारों का समर्थक था, इसके सिवाय वेद के ईश्वरीय होने में किसी की आपत्ति को मैं सहन करने के लिये तैयार न था। वेद में रेल, तार, विमान की बातें मुझे सच्ची मालूम होतीं, यद्यपि अभी तक मैंने उनकी पूरी छानबीन न की थी। आर्य समाजी को अपने लिये हिन्दू कहना मैं शर्म की बात समझता था। आर्य धर्म हिन्दूधर्म से उतना ही दूर है, जितना ईसाई और इस्लामधर्म, यह मैं बराबर कहा करता। भारत पर आर्यधर्म का विशेष अधिकार है। उसकी उन्नति और स्वतन्त्रता आर्यधर्म और एक जातीयता की स्थापना से ही हो सकती है, इसके साथ मैं यह भी समझता था कि आज यद्यपि सभी धर्मानुयायियों का एक हो जाना असम्भव मालूम होता है, किन्तु आर्यधर्म की सत्यता को रोका नहीं जा सकता। विज्ञान के साथ कुछ झूठे विज्ञान भी संसार में खोटे सिक्कों की भांति चल रहे हैं, ऐसे ही झूठे विज्ञानों में डार्विन के विकासवाद को भी मैं समझता था। जब पंडित आत्माराम अमृतसरी की विकासवाद के खण्डन पर लिखी गयी पुस्तक मिली, तो मुझे बड़ी खुशी हुई।’’ वे आर्यसमाज के सिद्धान्त को ध्रुव सत्य और दयानन्द के एक-एक वाक्य को वेदवाक्य मानते थे।
 ये विचार 22 वर्ष के एक तरुण (1915) के थे, पर 27 वर्ष के होते-होते बौद्धधर्म को जानने की जिज्ञासा उनमें पैदा हो गयी थी। उन्हीं के शब्दों में, (1921) ‘‘आर्य समाज का प्रभाव रहने से सिद्धान्त में मैं द्वैतवादी हो रामानुज का समर्थक रहा। इसी दार्शनिक ऊहापोह में बौद्ध दर्शन के लिये अधिक जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी, रामानुज और शंकर की ओर से, अन्ततः वर्णाश्रम धर्म का श्राद्ध करके दार्शनिक खंडन द्वारा ही बौद्धों का विरोध किया जाता था। और दार्शनिक सिद्धान्तों में रामानुजीय शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, फिर बौद्ध दर्शन क्या है, इधर ध्यान जाना जरूरी था, और पूर्वपक्ष के तौर पर उद्धृत कुछ वाक्यों से मेरी तृप्ति नहीं हो सकती थी।’’
 यह जिज्ञासा और तृप्ति 34 वर्ष की अवस्था में तब पूरी हुई, जब वे (1927) लंका गये और वहां के विद्यालंकार विहार में 19 मास तक रहे। वहां उन्हें पाली त्रिपिटक में बुद्ध वचनों को पढ़ने का अवसर मिला। उस मनः स्थिति का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘फिर राख में छिपे अंगारों या पत्थरों से ढँके रत्न की तरह बीच-बीच में आते बुद्ध के चमत्कारिक वाक्य मेरे मन को बलात् अपनी ओर खींच लेते थे। जब मैंने कालामों को दिये गये बुद्ध के उपदेश- किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल कर उसे मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करके उस पर आरूढ़ हो- को सुना, तो हठात् दिल ने कहा- यहां है एक आदमी, जिसका सत्य पर अटल विश्वास है, जो मनुष्य की स्वतन्त्र बुद्धि के महत्व को समझता है। जब मैंने मज्झिम निकाय में पढ़ा- बेड़े की भाँति मैंने तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, वह पार उतरने के लिये है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिये नहीं; तो मालूम हुआ, जिस चीज को मैं इतने दिनों से ढूँढ़ता फिर रहा था, वह मिल गयी।’’
 अब ईश्वर और वेद भी उनसे छूट गये थे। मन की इस दशा पर उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘अब मेरे आर्य सामाजिक और जन्मजात विचार छूट रहे थे। अन्त में, इस सृष्टि का कर्ता भी है, सिर्फ इस पर मेरा विश्वास रह गया था। किन्तु अब तक मुझे यह नहीं मालूम था कि मुझे बुद्ध और ईश्वर में से एक को चुनने की चुनौती दी जायगी। मैंने पहिले पहिल कोशिश की, ईश्वर और बुद्ध दोनों को एक साथ ले चलने की, किन्तु उस पर पग-पग पर आपत्तियां पड़ने लगीं। दो-तीन महीने के भीतर ही मुझे यह प्रयत्न बेकार मालूम होने लगा। ईश्वर और बुद्ध साथ नहीं रह सकते, यह साफ हो गया, और यह भी स्पष्ट मालूम होने लगा कि ईश्वर सिर्फ काल्पनिक चीज है, बुद्ध यथार्थवक्ता हैं। तब, कई हफ्तों तक हृदय में एक दूसरी बेचैनी पैदा हुई- मालूम होता था, चिरकाल से चला आता एक भारी अवलम्ब लुप्त हो रहा है। किन्तु मैंने हमेशा बुद्ध को अपना पथप्रदर्शक बनाया था, और कुछ ही समय बाद उन काल्पनिक भ्रान्तियों और भीतियों का ख्याल आने से अपने भोलेपन पर हँसी आने लगी। अब मुझे डारविन के विकासवाद की सच्चाई मालूम होने लगी, अब मार्क्सवाद की सच्चाई हृदय और मस्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी।’’
 इस प्रकार राहुल जी 1915 से 1927 तक आर्य समाजी रहे। पर, लंका में रहते ही वे बुद्ध के अनुयायी हो गये थे। उनमें तिब्बत जाकर बौद्ध साहित्य को खोज कर लाने की भी जिज्ञासा पैदा हो गयी थी। अतः तिब्बत में सवा वर्ष बिताने के बाद, जब वे 1930 में दूसरी बार लंका गये, तो वे विधिवत उपसम्पदा लेकर बौद्धधर्म में प्रब्रजित हो गये थे। अपनी प्रब्रज्या का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘उपसम्पदा के लिये कांडी जाने से पहले विद्यालंकार विहार में नायकपाद के उपाध्यायत्व में मेरी प्रब्रज्या (22 जून) हुई। मैं लंका में रामोदार स्वामी के नाम से प्रसिद्ध था, और लंका छोड़ने से पूर्व ही अपने गोत्र को जोड़कर अपने को रामोदार सांकृत्यायन बना चुका था। मैं समझता था, यही नाम बना रहेगा, क्योंकि इस नाम से मैं साहित्यिक क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुका था, किन्तु प्रब्रज्या संस्कार शुरु होने के चन्द ही मिनट पहले नायकपाद की आज्ञा हुई नये नामकरण की। समय होता, तो मैं समझाने की कोशिश करता, किन्तु अब कुछ करना आज्ञा भंग होता। नाम शायद एकाध और पेश किये गये थे, किन्तु मैंने रामोदार के ‘रा’ की साम्यता के देखते हुए राहुल नाम का प्रस्ताव किया और वह स्वीकृत हुआ। इस प्रकार राहुल सांकृत्यायन के नाम से मैं प्रब्रजित (श्रामणेर) हुआ।’’
 ऊपर राहुल जी का वक्तव्य बताता है कि उन्हें बुद्ध के दर्शन ने इतना प्रभावित किया कि न केवल डार्विन के विकासवाद में उनको सच्चाई नजर आने लगी थी, बल्कि माक्र्सवाद की सच्चाई भी उनके हृदय और मस्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी थी। उस समय तक वे समाजवादी व्यवस्था के महत्व को समझने लगे थे और बद्ध उन्हें स्वतन्त्रता, समानता और करुणा (भ्रातृत्व) के समर्थक एवं जनतन्त्र के पक्षधर के रूप में दिखायी देने लगे थे। वे बुद्ध के प्रजातांत्रिक विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे। उन्होंने एक जगह लिखा है- ‘‘बुद्ध का जन्म एक प्रजातन्त्र (शाक्य) में हुआ था, और मृत्यु भी एक प्रजातन्त्र (मल्ल) ही में हुई। प्रजातन्त्र प्रणाली उनको कितनी प्रिय थी, यह इसी से मालूम है कि अजातशत्रु के साथ अच्छा सम्बन्ध होने पर भी उन्होंने उसके विरोधी वैशाली के लिच्छवियों की प्रशंसा करते हुए राष्ट्र को अपराजित रखने वाली (ये) सात बातें बतलायीं- (1) बराबर एकत्रित हो सामूहिक निर्णय करना, (2) निर्णय के अनुसार कर्तव्य को एक हो करना, (3) व्यवस्था (कानून और विनय) का पालन करना, (4) वृद्धों का सत्कार करना, (5) स्त्रियों पर जबरदस्ती नहीं करना, (6) जातीय धर्म का पालन करना, (7) धर्माचार्यों का सत्कार करना।’’
 लेकिन राहुल मार्क्सवादी दर्शन का भी इस काल में बराबर अध्ययन कर रहे थे और बुद्ध का विचार-स्वतान्त्रय इस अध्ययन में उनकी सहायता कर रहा था। इसलिये, उन्होंने बौद्धधर्म का द्वन्द्वात्मक अध्ययन किया और वे मार्क्सवाद की ओर मुड़ गये। हालांकि, बुद्ध और उनके धर्म के प्रति उनका अनुराग कभी खत्म नहीं हुआ था, पर भिक्षुवेश उन्होंने त्याग दिया था। भदन्त बोधानन्द के प्रति अपने संस्मरण लेख में इसका जिक्र उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘त्रिपिटक में कुछ अधिक प्रवेश करते ही वेद, ईश्वर और आर्यसमाज ने साथ छोड़ दिया, मैं अनीश्वरवादी नास्तिक बन गया। बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के प्रति मेरा अनुराग हो गया। उसके बाद तो कोई धर्म मुझे आकृष्ट नहीं कर सका। बुद्ध से अगली मंजिल में मार्क्स मुझे मिले। भौतिकवाद मेरा दर्शन हो गया। पर, बुद्ध के मधुर व्यक्तित्व का आकर्षण मेरे मन से कभी नहीं गया।’’
 राहुल की जीवन-यात्रा एक स्थान या एक विचार पर स्थिर रहने वाली नहीं थी। वे ऐसे प्रगतिशील थे, जो खूंटे से बँधकर नहीं रह सकते थे। अतः बौद्धधर्म के प्रति अपने लगाव के भविष्य को वे जानते थे। इसलिये, जब अनागारिक धर्मपाल ने उन्हें धर्म प्रचारक बनाने के लिये उन पर दबाव डालने के लिये कई पत्र लिखे, तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उस स्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी ‘जीवन यात्रा’ में लिखा है- ‘‘कोई समय था कि जब मैं धर्मप्रचारक बनने का तीव्र अनुरागी था, लेकिन अब अवस्था बिल्कुल बदल गयी थी। बौद्धधर्म के साथ भी मेरा कच्चे धागे का ही सम्बन्ध था। हाँ बुद्ध के प्रति मेरी श्रद्धा कभी कम नहीं हुई। मैं उन्हें भारत का सबसे बड़ा विचारक मानता रहा हूँ और मैं समझता हूँ कि जिस वक्त दुनिया के धर्म का नामोनिशान न रह जायगा, उस वक्त भी लोग बड़े सम्मान के साथ बुद्ध का नाम लेंगे।’’ उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘मैंने उनके वचनों को पढ़ने के बाद समझा कि वह भी दुनिया के साम्यवादी बनने का सपना देखते थे।’’
 राहुल ने बुद्ध के धर्म का बेड़े की तरह पार उतरने के लिये ही उपयोग किया। वे विचारों से मार्क्सवादी हो चुके थे, पर अभी भिक्षुवेश उन्होंने नहीं त्यागा था। उसका उपयोग उन्होंने लन्दन, नेपाल और बौद्ध देशों की यात्राओं के लिये किया और उसके बाद भिक्षुवेश भी त्याग दिया था।
 वे सामन्तवाद और पूंजीवाद की चक्की में पिस रही आम जनता की मुक्ति के दृष्टिकोण से धर्म को देखने लगे थे। इस दृष्टिकोण से बौद्धधर्म के भी अनेक सिद्धांतों से भी उनकी असहमति बन गयी थी। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बुद्ध तत्कालीन समाज व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। उनका मत था कि ‘‘(बुद्ध ने) दुःख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये, राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों, सारी दुनिया को झगड़ते मरते-मारते देख भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की।’’
 बुद्ध के क्षणिकवाद के दर्शन से राहुल जी सहमत थे, पर उनकी टिप्पणी थी कि इस क्षणिकवाद को उन्होंने समाज की आर्थिक व्यवस्था पर लागू नहीं किया था। वे इसका कारण बताते हैं कि ऐसा उन्होंने राजाओं और सेठों को अप्रसन्न करने के उद्देश्य से नहीं किया। वे लिखते हैं- ‘‘पुरोहित वर्ग के कूटदंत, सोणदंत जैसे धनी प्रभुताशाली ब्राह्मण उनके (बुद्ध के) अनुयायी बनते थे, राजा लोग उनकी आवभगत के लिये उतावले दिखायी पड़ते थे। उस वक्त का धन कुबेर व्यापारी-वर्ग तो उससे भी ज्यादा उनके सत्कार के लिये अपनी थैलियाँ खोले रहता था, जितने कि आज के भारतीय महासेठ गाँधी के लिये। दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत के साथ व्यापार के महान केन्द्र कौशाम्बी के तीन भारी सेठों ने तो विहार बनवाने में होड़ सी कर ली थी। सच तो यह है कि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने सहायता की। यदि बुद्ध तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ जाते, तो यह सुभीता कहाँ से हो सकता था।’’

3
 लेनिन के इस सिद्धान्त को कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है या उसे निजी मामला होना चाहिए, हम आम आदमी पर तो लागू कर सकते हैं, पर विशिष्ट व्यक्ति पर इस सिद्धान्त को लागू नहीं किया जा सकता और लागू किया जाना चाहिए भी नहीं, क्योंकि विशिष्ट व्यक्ति या वह व्यक्ति, जिससे लाखों करोड़ों लोग प्रेरणा लेते हों, जिसके अनुयायी हों, अगर वह धर्मगुरु नहीं है और दुनिया को बदलने की शिक्षा देता है, तो वह, धर्म को अपना निजी मामला नहीं बना सकता। राहुल सांकृत्यायन एक धर्मगुरु या धर्मप्रचारक की भूमिका त्याग कर दुनिया को बदलने की भूमिका में उतरे थे, तो धर्म को देखने की उनकी दृष्टि वही नहीं रह गयी थी, जो एक सनातनी और आर्य समाजी प्रचारक की होती है। वे लाखों दीन-दुखियों के हित में धर्म के सिद्धान्तों को अलौकिक नहीं, लौकिक आधार पर परखने लगे थे। इसलिये जनता के सामाजिक और आर्थिक शोषण पर जीवित रहने वाले धर्म उनके लिये घृणास्पद थे।
 डा. आंबेडकर भी धर्म को अछूतों की दृष्टि से देखते थे। वे हिन्दूधर्म का विरोध इसी आधार पर करते थे कि वह सामाजिक अलगाववाद का समर्थन करता है और मानवता के एक विशाल समुदाय को समस्त मानवाधिकारों से वंचित रखता है। वे दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार करने की शिक्षा देने वाले हिन्दूधर्म को धर्म के नाम पर कलंक मानते थे। उन्होंने लिखा है, ‘‘अछूतों की समस्या का सीधा सम्बन्ध हिन्दुओं के सामाजिक व्यवहार से है। अस्पृश्यता तभी मिटेगी, जब हिन्दू अपनी मनोवृत्ति बदलेंगे। समस्या यह है कि वह कौन सा तरीका है, जिससे हिन्दू जीवन-शैली को भुला दें। यह कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं है कि कोई समूचा राष्ट्र अपनी बंधी-बंधाई जीवन-शैली को त्याग दे। हिन्दू जिस जीवन-शैली के आदी हैं, वह ऐसी है, जिसे उनका धर्म प्रमाणित करता है। अतः उनकी जीवन-शैली को बदलना उनके धर्म को बदलने जैसा ही है।’’
 यहां आंबेडकर स्पष्ट रूप से इस मत के हैं कि हिन्दूधर्म को सुधारा नहीं जा सकता, उसे छोड़ा जा सकता है। उन्होंने हिन्दूधर्म में सुधार के लिये लम्बे समय तक संघर्ष किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली और अन्ततः उन्हें हिन्दूधर्म को छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी। उन्होंने 1935 में (15 अक्टूबर) बम्बई में कहा, ‘‘हमने अभी यह तय नहीं किया है कि कौन सा धर्म हम अपनायेंगे, पर यह हमने तय कर लिया है कि हिन्दूधर्म हमारे लिये अच्छा नहीं है।’
 यह निर्णय आंबेडकर ने कवीठा काण्ड के प्रतिरोध में लिया था। पूना-पैक्ट के तीन साल बाद 1935 में यह काण्ड हुआ। बम्बई सरकार ने उस समय सार्वजनिक स्कूलों में अछूतों के बच्चों को प्रवेश देने के आदेश जारी किये थे। 8 अगस्त 1935 को कवीथा गांव के अछूत अपने चार बच्चों को स्कूल में दाखिल कराने के लिये ले गये। इसके विरोध में सभी हिन्दुओं ने अपने बच्चों को स्कूल से हटा लिया और रात में घात लगा कर अछूतों की बस्ती पर डंडों, भालों और तलवारों से हमला कर दिया। बाद में हिन्दुओं ने सभी अछूतों का सामाजिक बहिष्कार भी कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि अछूत पीने के पानी तक के लिये तरस गये। इसके विरुद्ध अछूतों ने मजिस्ट्रेट के यहां मुकदमा दायर कर दिया। इस घटना ने अछूतों में दहशत भर दी। वल्लभ भाई पटेल हिन्दुओं को यह समझाने गये कि वे अछूतों पर जुल्म न करें, पर उन्होंने उनकी एक न सुनी। गांधी जी ने अछूतों को यह सलाह दी कि वे गांव छोड़ दें। इस प्रकार, इस संघर्ष में अछूतों को ही दबाया गया। आंबेडकर लिखते हैं कि जब भी हिन्दू अराजकता पर उतर आते हैं, तो अछूत हमेशा ही असहाय हो जाते हैं।
 आंबेडकर की घोषणा की प्रतिक्रिया में गांधी ने नासिक में कहा कि धर्म कोई मकान या वस्त्र नहीं है, जिसे बदला जा सके, धर्म आदमी का जरूरी अंग है। इसका उत्तर आंबेडकर ने इन शब्दों में दिया, ‘‘मैं गांधी जी से सहमत हूँ कि धर्म जरूरी है, परन्तु मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि आदमी को अपने उस पुश्तैनी धर्म से चिपटा रहना चाहिए, जो उसके लिये घृणास्पद हो, अपमानजनक हो और उसे आगे बढ़ने की कोई प्रेरणा न देता हो।’’ उन्होंने आगे कहा कि कवीथा में जो हुआ, वह अनोखी घटना नहीं है, वह हिन्दुओं के पुश्तैनी धर्म में मौजूद व्यवस्था पर आधारित है। इस धर्म को दलितों को छोड़ना ही होगा।
 राहुल के सामने उनका कोई जातीय समाज नहीं था, जिसे वे बदलना चाहते थे। वे ब्राह्मण थे, पर ब्राह्मणों को सुधारने या उनकी मुक्ति के (किसी कार्यक्रम के) दायित्व से मुक्त थे। किन्तु आंबेडकर इस दायित्व से मुक्त नहीं थे। उनके सामने उनका विशाल अछूत समाज था, जिसे हिन्दुओं और उनके धर्म ने मानवीय गरिमा और अधिकारों से वंचित करके रखा था। इसलिये, आंबेडकर आरम्भ से ही इस खोज में रहे कि धर्म का अर्थ क्या है, हिन्दूधर्म से अछूत समुदाय का क्या सम्बन्ध है? और कोई दूसरा धर्म उनकी स्थिति को बदल सकता है या नहीं?
 राहुल भले ही यह नहीं देख सके थे कि ब्राह्मण हिन्दूधर्म और उसकी व्यवस्था को क्यों पसन्द करते थे और क्यों उसमें कोई सुधार नहीं चाहते थे? किन्तु, आंबेडकर ने यह अच्छी तरह देख लिया था कि हिन्दुओं की वर्णव्यवस्था ब्राह्मणों के लिये स्वर्ग की व्यवस्था है, जिसमें वे सबसे श्रेष्ठ और सबसे पूज्य बने हुए हैं। वे यह भी देख रहे थे कि हिन्दू अछूतों पर इसलिये अत्याचार नहीं करते हैं कि वे क्रूर हैं, बल्कि इसलिये करते हैं, क्योंकि उनका धर्म उन्हें ऐसा करने की शिक्षा देता है। एक स्थान पर आंबेडकर ने लिखा है, ‘‘हिन्दू चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह जो कुछ करता है, धर्म के अनुसार करता है। वह खाता धर्म के अनुसार है, पीता धर्म के अनुसार है, नहाता धर्म के अनुसार है, पहनता धर्म के अनुसार है, उसका जन्म धर्म के अनुसार होता है, विवाह धर्म के अनुसार होता है और धर्म के अनुसार ही उसे जलाया जाता है। उसके सारे कार्य धर्मानुसार होते हैं। धर्मनिरपेक्षता के दृष्टिकोण से ये काम गलत हो सकते हैं, पर ये इसलिये पापपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि ये धर्म द्वारा स्वीकृत हैं। इसलिये यदि कोई हिन्दू पाप का अभियुक्त होता है, तो वह गर्व से कहता है कि यदि मैं पाप करता हूँ तो पाप भी धर्म के अनुसार कर रहा हूँ।’’
 आंबेडकर अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि अछूतों के लिये हिन्दूधर्म इसलिये अमानवीय है, क्योंकि अछूत हिन्दू समाज के अंग नहीं हैं। दूसरे शब्दों में वे हिन्दूधर्म के बाड़े से बाहर के हैं। आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘हिन्दुओं और अछूतों के बीच क्या सम्बन्ध है, इसकी सटीक व्याख्या बम्बई के एक सम्मेलन में सनातनी हिन्दुओं के नेता ऐनापुरे शास्त्री ने की है। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं के साथ अछूतों का सम्बन्ध वैसा ही है, जैसा किसी मनुष्य का उसके जूतों के साथ होता है। आदमी जूते पहनता है, इस दृष्टि से वह मनुष्य के साथ है और कहा जा सकता है कि वह मनुष्य के हैं। लेकिन जूते शरीर का अंग नहीं है, क्योंकि जिन दो चीजों को किसी इकाई से अलग किया जा सकता है, उन्हें उस इकाई का अंग नहीं कहा जा सकता।’’
 आंबेडकर की दृष्टि में यह एक अत्यन्त सटीक उपमा थी। उनके पास इसका मजबूत आधार भी है। उनके अनुसार, अछूत वर्णव्यवस्था के अंग नहीं है। वे उसके बाहर के हैं, अर्थात् अवर्ण हैं। वे लिखते हैं, ‘‘हिन्दू विधान के निर्माता मनु ने अपने नियम में कहा है कि वर्ण केवल चार हैं और पांचवाँ वर्ण नहीं होगा। मनु अछूतों को उस भवन में प्रवेश दिलाने को तैयार नहीं थे, जिसे प्राचीन हिन्दुओं ने वर्णव्यवस्था में विस्तार कर उसे पांच वर्णों के लिये बनाना चाहा था। मनु ने अछूतों को वर्ण-बाह्य कहकर वर्णव्यवस्था से बाहर रखा है। आदिम और जरायम पेशा जातियों के विरुद्ध हिन्दू समाज में प्रवेश के लिये कोई निश्चित वर्जना नहीं है। वे कालान्तर में उसके सदस्य बन सकते हैं। फिलहाल वे हिन्दू समाज से जुड़े हैं और उसके बाद वे उसमें घुलमिल सकते हैं तथा उसका अंग बन सकते हैं। लेकिन अछूतों की स्थिति अलग है। हिन्दू समाज में उनके विरुद्ध निश्चित वर्जना है। उसके सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्हें अलग-थलग ही रहना होगा और वे हिन्दू समाज का अंग न हैं और न बन सकते हैं।’’ वे अन्यत्र कहते हैं हिन्दू भी यह जानते हैं कि अछूत उनके समाज के अंग नहीं हैं। यही कारण है कि हिन्दुओं में नैतिक दृष्टि से अछूतों के प्रति कोई चिन्ता या ममत्व नहीं होता है।’’
 आंबेडकर की सबसे बड़ी चिन्ता थी कि अछूत अनेकों जातियों-उपजातियों में विभाजित हैं और उनके बीच मौजूद सामाजिक भेदभाव उन्हें एक नहीं होने देता। हिन्दू समाज में ब्राह्मण एक वर्ग है, क्षत्रिय एक वर्ग है और वैश्य एक वर्ग है। प्रत्येक वर्ग में अनेक जातियाँ होने के बावजूद उनके बीच सामाजिक अलगाव नहीं है, वरन् रोटी-बेटी का सम्बन्ध है। इनमें से प्रत्येक वर्ग में अपनी ही जाति में विवाह वर्जित है। (मिश्रा-मिश्रा में नहीं, शुक्ला में विवाह करेगा।) किन्तु यही वर्ण चेतना शूद्रों और अछूतों में नहीं है, जिसके कारण उनमें सामाजिक एकता का सदैव अभाव रहता है।
 इसलिये आंबेडकर ऐसे धर्म की तलाश में थे, जो निम्न जातियों को एक वर्ग में संगठित कर दे और उनका सांस्कृतिक विकास करे। वे इस मत के नहीं थे, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं कि धर्म समाज के लिये आवश्यक नहीं है। वे जीवन और सामाजिक आचरण के लिये धर्म को आवश्यक मानते थे। वे कहते थे कि धर्म अफीम नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है। पर, वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। वे कहते थे कि आदमी सिर्फ रोटी खाकर जीवित नहीं रह सकता। उसके पास एक मन भी है, जिसे विचार के लिये आहार चाहिए। यह आहार उसे धर्म से ही मिलता है। धर्म ही उसे आशावादी बनाता है और आगे बढ़ने की शक्ति देता है। उनकी दृष्टि में धर्म और दासता दो परस्पर विरोधी चीजें थीं। कोई भी धर्म, जो आदमी को दास बनाता है, वह उनके लिये धर्म नहीं था।
 आंबेडकर ने अपने सिद्धान्त के आधार पर सभी धर्मों पर विचार किया- न केवल ईसाई और इस्लाम धर्मों पर, बल्कि आर्य समाज और सिख धर्म के बारे में भी। मई 1936 में कोलम्बो से एक इटैलियन बौद्ध भिक्षु लोकनाथ ने भारत आकर आंबेडकर से भेंट की और उन्हें इस बात पर सहमत करने की कोशिश की कि यदि अछूत लोग बौद्धधर्म ग्रहण कर लेते हैं, तो वे समाज में नैतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से उच्चतर स्तर प्राप्त कर लेंगे। यद्यपि आंबेडकर ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया था, पर बौद्धधर्म के प्रति उनमें सम्मान का भाव पहले ही से था।
 इस विषय पर आंबेडकर का अध्ययन निरन्तर चल रहा था। वे अस्पृश्यता के उद्गम के ऐतिहासिक आधार को भी देखना चाहते थे, ताकि जिस धर्म को वे स्वीकार करें, उसमें अछूतों की ऐतिहासिक संगति भी बैठ सके। शीघ्र ही उन्होंने अपना एक लम्बा साक्षात्कार ‘दि बाम्बे क्रानिकल’ को दिया, जो उसके 24 फरवरी 1940 के अंक में प्रकाशित हुआ। इस साक्षात्कार में उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि वैदिक काल में और उसके बाद शताब्दियों तक अस्पृश्यता का अस्तित्व नहीं मिलता है। इसका उद्गम बहुत बाद में हुआ और इसका सम्बन्ध बौद्धधर्म के बाद परिवर्तनों से पैदा हुई परिस्थितियों से है। उन्होंने उस युग का उल्लेख किया, जब कुछ लोग अपने ऋषि आधारित जीवन के लिये एक जगह बस गये थे, पर बहुत से दूसरे लोग अपने पशुओं के चारे के लिये जगह-जगह घूमते रहते थे। बसे हुए किसानों को अपनी भूमि, मकान और फसल की सुरक्षा घुमन्तु लोगों से करनी होती थी। इससे बचने और शान्ति पूर्ण जीवन जीने के लिये उन्होंने कुछ घुमन्तु लोगों की सेवाएं लीं। उन्हें कुछ जमीनें और घर देकर गांव के बाहर बसा दिया और उनको गांव की सुरक्षा का काम सौंप दिया। वे पीढि़यों तक इस काम को करते रहे। गांव के भीतर और गांव के बाहर किनारों पर रहने वाले इन लोगों के बीच सामान्य मानवीय सम्बन्ध थे- किसी तरह की अस्पृश्यता नहीं थी। तब, अस्पृश्यता कैसे पैदा हुई? आंबेडकर कहते हैं कि इसके लिये भारत में बौद्धधर्म के उदय को देखना होगा।
 आंबेडकर के अनुसार, भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब बौद्धधर्म ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था। देश की जनता और सारा व्यापारी वर्ग बौद्धधर्म में चला गया था। ब्राह्मणवाद का पतन हो गया था, जो शताब्दियों से राज कर रहा था। बुद्ध ने तीन शिक्षाएं दीं- सामाजिक समानता की, वर्णव्यवस्था के उन्मूलन की और अहिंसा के सिद्धान्त की, जिसमें धर्म के नाम पर पशु बलि वर्जित थी। आंबेडकर ने कहा कि उस समय तक ब्राह्मण शाकाहारी नहीं हुए थे, वे गौओं और अन्य पशुओं की बलि देते थे और उनका मांस खाते थे। जब बुद्ध ने बलि का निषेध किया और गाय को ऋषि और दूध के लिये उपयोगी पशु बताते हुए उसकी सुरक्षा की शिक्षा दी, तो जनता ने उसे अपना लिया। तब, ब्राह्मणों के सामने शाकाहारी बनने के सिवा कोई चारा नहीं था।
 आगे आंबेडकर लिखते हैं कि ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को बौद्धधर्म में जाने से रोकने के मकसद से उन्हें समानता का दर्जा देने की पेशकश की और दोनों ने मिलकर वैश्य और शूद्रों को रोकने के लिये उन दो पुलिस वालों की तरह काम किया, जो कैदी के दोनों तरफ खड़े होकर उसे भागने से रोकते हैं। अब गाय पवित्र हो गयी थी और उसकी बलि देने की प्रथा समाप्त हो गयी थी। बहुत सारी बुद्ध शिक्षाएं हिन्दूधर्म में समाहित कर लीं गयी थीं। जो जनता बौद्धधर्म में चली गयी थी, वह भी धीरे-धीरे वापिस आने लगी थी। बुद्ध की जो सबसे बड़ी शिक्षा ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं की, वह थी समानता की शिक्षा और वर्णव्यवस्था का उन्मूलन। पर, उन्होंने यह जरूर किया कि कुछ समय के लिये क्षत्रियों को अपने समान दर्जा दिया और ब्राह्मण देवताओं को हटा कर उनके स्थान पर क्षत्रिय देवताओं को स्थापित कर उनके साथ अन्य समयानुकूल समझौते कर लिये।
 आगे आंबेडकर कहते हैं, न तो बुद्ध ने और न ब्राह्मणों ने मृतक पशु के मांस को खाने पर रोक लगायी थी। रोक सिर्फ जीवित गाय का वध करने पर थी। पर, आज के अछूतों का एक बड़ा अपराध यह है कि वे गरीबों में सबसे गरीब और सामाजिक रूप से सबसे निचले स्तर के होने के कारण बौद्धधर्म में लम्बे समय तक बने रहे और मृतक पशु का मांस खाते रहे। उनको सुधारने के लिये एक बड़ी शक्ति की जरूरत थी, जो उनके लिये लम्बे समय तक काम करती। पर ऐसा कोई काम तो नहीं हुआ, उलटे, सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता उन पर लागू कर दी गयी।
 आंबेडकर का निष्कर्ष था कि उनकी मृतक गाय का मांस खाने की आदत ही उनके शोषण का कारण बनी। यही वह चीज थी, जिससे स्वाभाविक रूप से हिन्दुओं को उनसे घृणा हुई। इसी वजह से उस पूरे वर्ग पर अस्पृश्यता थोप दी गयी। यह वास्तव में वह दण्ड था, जो ब्राह्मणों ने उन्हें बौद्धधर्म में बने रहने के लिये दिया था, जबकि अन्य लोगों ने बौद्धधर्म छोड़ दिया था। आंबेडकर कहते हैं कि इसलिये शिक्षा और स्वतन्त्रता तथा सामाजिक समानता के सभी आधुनिक विचारों के बावजूद आज तक अस्पृश्यता बनी हुई है।
 आंबेडकर ने अपने इस शोध को ‘दि अनटचेबिल्स’ नाम से प्रकाशित कराया, जो अछूतपन के ऐतिहासिक आधार को रेखांकित करने वाली एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह सिद्ध करने के बाद कि आज के अछूत किसी समय बौद्ध थे, उनका बौद्धधर्म में जाने का रास्ता आसान हो गया था। अतः आंबेडकर ने 2 मई 1950 को नयी दिल्ली में, बुद्ध जयन्ती के अवसर पर भारत के अछूतों से बौद्धधर्म ग्रहण करने की अपील की। इस अपील पर दूसरे दिन 15 अछूतों ने दिल्ली में बौद्धधर्म ग्रहण किया। इस अवसर पर, डा. आंबेडकर ने हिन्दी में तीस मिनट का संक्षिप्त व्याख्यान दिया, जिसमें उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत में पुनः बौद्धधर्म का उदय होगा। उन्होंने आगे कहा कि न राम और न ही कृष्ण बुद्ध का मुकाबला करते हैं, बुद्ध के बराबर कोई भगवान नहीं है और न आगे ऐसा कोई महान धर्मगुरु और शास्ता पैदा होगा। 6 जून 1950 को उन्होंने कोलम्बो में कहा, ‘‘यह आम धारणा बन गयी है कि बौद्धधर्म भारत से लुप्त हो गया है। मैं मानता हूँ कि यह भौतिक रूप में लुप्त हुआ है, पर एक अमूर्त (बौद्धिक) शक्ति के रूप में यह अभी भी अस्तित्व में है।’’
 आंबेडकर ने देश के बहुत से भागों में जाकर अछूतों की सभाएं कीं और उन्हें बौद्धधर्म के विषय में जानकारी दी। उन्होंने स्वयं को पूरी तरह बौद्धधर्म के विस्तार के लिये समर्पित कर दिया था। अन्ततः उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को विजया दशमी के दिन नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ पूज्य महास्थविर चन्द्रमणि जी के नेतृत्व में बौद्धधर्म की दीक्षा ली और भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार का झण्डा गाड़ दिया। बाद में, उन्होंने बाइबिल और कुरान की तरह बौद्धों के लिये भी एक धर्मग्रन्थ की रचना की, जो ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नाम से प्रसिद्ध है।

4
 हमने देखा कि राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर दोनों बौद्धधर्म तक पहुंचे, पर अलग-अलग रास्तों से और अलग-अलग कारणों से। राहुल भारत में बौद्ध समाज नहीं बना पाये। पर, आंबेडकर ने इसी कमी को पूरा किया। लेकिन इस बात को लेकर दोनों एक मत थे कि बौद्धधर्म हिन्दूधर्म का अंग नहीं है। राहुल की दृष्टि में बौद्ध हिन्दू नहीं थे। किन्तु, बुद्ध के जीवन, सिद्धान्तों और दर्शन के सम्बन्ध में दोनों विद्वानों के विचार समान नहीं हैं। उदाहरण के लिये आंबेडकर ने बुद्ध के जीवन और दर्शन को उसी रूप में स्वीकार नहीं किया, जिस रूप में वह परम्परा में मौजूद था। किन्तु, राहुल काफी हद तक परम्परा में प्रचलित बुद्ध के जीवन-दर्शन को ही स्वीकार करते हैं। बुद्ध के जन्म की इस कहानी पर राहुल और आंबेडकर एक मत हैं कि बुद्ध ने अपने जन्म के बारे में सोच कर यह तय किया कि कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन मेरे पिता होंगे और मेरी माता महामाया नामक देवी होंगी। तब उन्होंने महामाया को स्वप्न में आकर बताया कि क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था, बड़ी प्रसन्नता से। और उसी समय बोधिसत्त्व ने महामाया के गर्भ में प्रवेश किया।
 लेकिन बुद्ध के गृहत्याग की कहानी पर राहुल के विचार परम्परागत हैं, जबकि आंबेडकर उसको तर्क की कसौटी पर कसते हैं और उसके मूल में राजनैतिक कारण मानते हैं। राहुल का वही (परम्परागत) मत है- ‘‘वृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित (संन्यासी) के चार दृश्यों को देखकर उनकी (सिद्धार्थ की) संसार से विरक्ति पक्की हो गयी और एक रात वह चुपके से घर से भाग निकले।’’ राहुल सांकृत्यायन भी घर छोड़कर भागे थे, अपने पिता, माँ और ब्याहता किसी का भी मोह उन्होंने नहीं पाला था। पर, आंबेडकर को बुद्ध का इस तरह पलायन करना ठीक नहीं लगा था। यह उनके गले भी नहीं उतरा था। वे लिखते हैं- ‘‘जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या (गृहत्याग) ग्रहण की, उस समय उनकी आयु 29 वर्ष की थी। यदि सिद्धार्थ ने इन्हीं तीन दृश्यों (वृद्ध, रोगी और मृतक) को देखकर प्रव्रज्या ग्रहण की, तो यह कैसे हो सकता है कि 29 वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बूढ़े, रोगी तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो? ये जीवन की ऐसी घटनाएं हैं, जो रोज ही सैकड़ों, हजारों की संख्या में घटती रही हैं और सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु होने से पहले भी इन्हें देखा ही होगा। इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असम्भव है कि 29 वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बूढ़े, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और 29 वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम बार देखा। यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती।’’
 डा. भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है कि वृद्ध, रोगी और मृत व्यक्ति को देखकर गृहत्याग की मान्यता ‘‘वे अट्टकथाएँ हैं, जिन्हें बुद्धघोष तथा अन्य आचार्यों ने भगवान बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद परम्परागत सिंहल अट्टकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पाली भाषा में लिखा।’’ उनके अनुसार त्रिपिटक के किसी भी ग्रन्थ में गृहत्याग के इस कथानक का कहीं उल्लेख नहीं है।
 आंबेडकर ने परम्परागत मान्यता के विरुद्ध ‘खुद्दक निकाय’ के ‘सुत्तनिपात’ के अट्ठकवग्ग में अत्तदण्डसुत्त की इन गाथाओं को बुद्ध के गृहत्याग का आधार बनाया- ‘‘शस्त्र धारण भयावह लगा। मुझमें वैराग्य उत्पन्न हुआ, यह मैं बताता हूँ। अपर्याप्त पानी मैं जैसे मछलियां छटपटाती हैं, वैसे एक-दूसरे से विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर मेरे मन में भय उत्पन्न हुआ। चारों ओर का जगत असार दिखायी देने लगा, सब दिशाएं काँप रही हैं, ऐसा लगा और उसमें आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भय स्थान नहीं मिला, क्योंकि अन्त तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध हुए देखकर मेरा जी ऊब गया।’’
 आंबेडकर का मत है कि शाक्यों और कोलियों में रोहिणी नदी के पानी को लेकर झगड़े होते थे। शाक्य संघ ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध का प्रस्ताव पारित किया, जिसका सिद्धार्थ गौतम ने विरोध किया। शाक्य संघ के नियम के अनुसार बहुमत के विरुद्ध जाने पर दण्ड का प्राविधान था। संघ ने तीन विकल्प रखे-(1) सिद्धार्थ सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लें, (2) फांसी पर लटक कर मरने या देश छोड़कर जाने का दण्ड स्वीकार करें या (3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिये राजी हों। संघ का बहुमत सिद्धार्थ के विरुद्ध था। सिद्धार्थ के लिये सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेने की बात को स्वीकार करना असम्भव था। अपने परिवार के सामाजिक बहिष्कार पर भी वह विचार नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने दूसरे विकल्प को स्वीकार किया और वे स्वेच्छा से देश त्याग कर जाने के लिये तैयार हो गये।
 राहुल सांकृत्यायन ने इसी परम्परागत मान्यता के साथ लिखा कि सिद्धार्थ गौतम ने अपनी पत्नी और बच्चे को सोता हुआ छोड़कर चुपके से गृहत्याग किया था। किन्तु, आंबेडकर इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, उन्होंने पूरी तरह अपने पिता शुद्धोधन, अपनी माता प्रजापति गौतमी और पत्नी यशोधरा से सहमति और अनुमति लेकर घर से अभिनिष्क्रमण किया था। राहुल ने सिद्धार्थ की परिवार-विमुखता को गम्भीरता से नहीं लिया, शायद इसलिये कि वे स्वयं भी परिवार-विमुख थे। पर, आंबेडकर ने इसे बहुत गम्भीर प्रश्न माना था। उनकी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति, जो परिवार-विमुख है, समाज-विमुख भी होगा, वह समाज-उन्मुख नहीं हो सकता। इसलिये आंबेडकर ने इस बात को रेखांकित करना ज्यादा जरूरी समझा कि सिद्धार्थ जैसा जनवादी और जागरूक व्यक्ति परिवार-विमुख कैसे हो सकता है? वह परिवार के सदस्यों को धोखा देकर घर छोड़ ही नहीं सकते थे। इस तरह के विश्वासघात की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती थी। आंबेडकर ने लिखा है कि जब सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु छोड़ा, तो अनोमा नदी तक जनता उनके पीछे-पीछे आयी थी, जिसमें उनके पिता शुद्धोधन और उनकी माता प्रजापति गौतमी भी उपस्थित थे।

 वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में पंच वर्गीय ब्राह्मण भिक्षुओं को दिया गया बुद्ध का पहला धर्मोपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र’ के नाम से विख्यात है। इसमें बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी है। पहला आर्य सत्य ‘दुख है’, दूसरा आर्य सत्य ‘दुख का कारण है’, तीसरा आर्य सत्य ‘दुख का निरोध है’, और चौथा आर्य सत्य ‘दुख निरोध का उपाय है।’ दुख सत्य की व्याख्या करते हुए बुद्ध ने कहा है- ‘‘जन्म भी दुख है, बुढ़ापा भी दुख है, मरण, शोक, रूदन, मन की खिन्नता, हैरानगी दुख है। अप्रिय से संयोग भी, प्रिय से वियोग भी दुख है, इच्छा करके जिसे नहीं पाता, वह भी दुख है। संक्षेप में पांचों उपादान स्कन्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) दुख हैं।’’ बुद्ध ने दुख का कारण तृष्णा को माना है और तृष्णा के निरोध (विनाश) को दुख का निरोध कहा है। तृष्णा से उपादान (वासना) पैदा होती है, उपादान से जन्म, जन्म से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक आदि पैदा होते हैं। दुख-निरोध का मार्ग है, आर्य आष्टांगिक मार्ग, जो ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयत्न, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।
 राहुल और आंबेडकर दोनों ने चार आर्य सत्यों पर अपने-अपने ढंग से विचार किया है। बुद्ध ने दुख सत्य की जो लौकिक-अलौकिक व्याख्या की है, उसे उसी रूप में राहुल ने भी स्वीकार नहीं किया है और आंबेडकर ने भी। राहुल लिखते हैं, ‘‘यहां उन्होंने (बुद्ध ने) दुख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों सारी दुनिया को झगड़ते, मरते-मारते देख कर भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की। उनके मतानुसार मानो, काँटों से बचने के लिये सारी पृथ्वी को तो नहीं ढका जा सकता है, हाँ अपने पैरों को चमड़े से ढाँक कर काँटों से बचा जा सकता है। वह समय भी ऐसा नहीं था कि बुद्ध जैसे प्रयोगवादी दार्शनिक सामाजिक पापों को सामाजिक चिकित्सा से दूर करने की कोशिश करते। तो भी, वैयक्तिक सम्पत्ति की बुराइयों को वह जानते थे, इसीलिये जहाँ तक उनके अपने भिक्षु-संघ का सम्बन्ध था, उन्होंने उसे हटा कर भोग में पूर्ण साम्यवाद स्थापित करना चाहा।’’
 राहुल ने बुद्ध के दुख-विनाश के मार्ग की भौतिकवादी व्याख्या की है। उनके अनुसार, ‘‘बुद्ध तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ इसलिये नहीं गये, क्योंकि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने उनकी सहायता की थी।’’
 किन्तु डा. आंबेडकर ने इस तरह की भौतिक व्याख्या नहीं की है। उनका मत है कि बुद्ध ने परिनिर्वाण के बाद बुद्ध वचनों में ब्राह्मणों ने भारी हेर-फेर की है। उन्होंने बुद्ध और उनके वचनों को अपने अनुकूल बनाने का काम इसलिये किया, ताकि आम जनता के लिये वे दुष्कर हो जायें। उन्होंने बुद्ध वचनों को ही अलौकिक नहीं बनाया, वरन् बुद्ध को भी लोकोत्तर सत्ता का रूप दिया। जैसा कि भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है, ‘‘भगवान बुद्ध के बारे में एक बात बड़े ही विश्वास के साथ कही जा सकती है कि वे कुछ नहीं थे, यदि उनका कथन बुद्धिसंगत, तर्क-संगत नहीं होता था। आंबेडकर ने इसी आधार पर बुद्ध वचनों को स्वीकार किया। उन्होंने स्वयं लिखा है कि जब हम पाली ग्रन्थों के आधार पर बुद्ध का जीवन चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं, तो हमें यह कार्य सहज प्रतीत नहीं होता और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है। वे लिखते हैं कि बुद्ध की चर्या का लेखा-जोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्याएं पैदा करता है, जिनका निराकरण यदि असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। इसलिये, उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि उन समस्याओं पर खुल कर विचार किया जाय। ऐसी उन्होंने चार समस्याओं को रेखांकित किया, जिनमें हम पहली समस्या बुद्ध के गृहत्याग पर ऊपर चर्चा कर चुके हैं। दूसरी समस्या चार आर्य सत्यों से उत्पन्न होती है। इस समस्या पर विचार करते हुए आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘जीवन स्वभावतः दुख है, यह सिद्धान्त जैसे बुद्धधर्म की जड़ पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन भी दुख है, मरण भी दुख है, पुनरुत्पत्ति भी दुख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है। न धर्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही। यदि दुख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धर्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुख से मुक्ति दिलाने के लिये क्या कर सकते हैं, क्योंकि जन्म ही स्वभावतः दुखमय है? ये चारों आर्यसत्य, जिनमें प्रथम आर्यसत्य ही दुख-सत्य है, अबौद्धों द्वारा बौद्धधर्म ग्रहण किये जाने के मार्ग में बड़ी बाधा है। ये उनके गले आसानी से नहीं उतरते। ये सत्य मनुष्य को निराशावाद के गढ़े में ढकेल देते हैं। ये सत्य बुद्ध के धम्म को एक निराशावादी धर्म के रूप में उपस्थित करते हैं।’’आंबेडकर चार आर्यसत्यों को बुद्ध की मूल शिक्षा के विपरीत और परवर्ती भिक्षुओं द्वारा किया गया प्रक्षिप्तांश मानकर पूरी तरह अस्वीकार कर देते हैं।
 आंबेडकर की तीसरी समस्या आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को लेकर है। किन्तु, पहले हम यह देखेंगे कि इस सम्बन्ध में राहुल सांकृत्यायन का मत क्या है? बुद्ध अनात्मवादी और अनीश्वरवादी थे। अर्थात् वे आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते थे। इस सम्बन्ध में ‘प्रतीत्य-समुत्पाद’ (क्षणिकवाद) बुद्ध का बहुत ही क्रान्तिकारी दर्शन है। पर, राहुल लिखते हैं, ‘‘तो भी इस क्रान्तिकारी दर्शन ने अपने भीतर से उन तत्वों (धर्म) को हटाया नहीं था, जो समाज की प्रगति को रोकने का काम देते हैं। पुनर्जन्म की यद्यपि बुद्ध ने नित्य आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में आवागमन के रूप में मानने से इनकार किया था, तो भी दूसरे रूप में परलोक और पुनर्जन्म को माना था। जैसे इस शरीर में जीवन विच्छिन्न प्रवाह (नष्ट-उत्पत्ति-नष्ट-उत्पत्ति) के रूप में एक तरह की एकता स्थापित किये हुए है, उसी तरह वह शरीरान्त में भी जारी रहेगा। पुनर्जन्म के दार्शनिक पहलू को और मजबूत करते हुए पुनर्जन्म का पुनर्जन्म प्रतिसन्धि के रूप में किया अर्थात् नाश और उत्पत्ति की संधि (श्रृंखला) से जुड़कर जैसे जीवन-प्रवाह इस शरीर में चल रहा है, उसी तरह उसकी प्रतिसन्धि (जुड़ना) एक शरीर से अगले शरीर में होती है। अविकारी ठोस आत्मा में पहले के संस्कारों को रखने का स्थान नहीं था, किन्तु क्षणपरिवर्तनशील तरल विज्ञान (जीवन) में उसके वासना या संस्कार के रूप में अपना अंग बनकर चलने में कोई दिक्कत न थी। क्षणिकता सृष्टि की व्याख्या के लिये पर्याप्त थी, किन्तु ईश्वर का काम संसार में व्यवस्था, समाज में व्यवस्था (शोषित को विद्रोह से रोकने की चेष्टा) कायम करना भी है। इसके लिये बुद्ध ने कार्य के सिद्धान्त को और मजबूत किया। आवागमन, धनी-निर्धन का भेद उसी कर्म के कारण है, जिसके कर्ता कभी तुम खुद थे, यद्यपि आज वह कर्म तुम्हारे लिये हाथ से निकला तीर है।’’
 राहुल आगे लिखते हैं, ‘‘बुद्ध के प्रतीत्य-समुत्पाद को देखने पर, जहां तत्काल प्रभुवर्ग भयभीत हो उठता, वहां प्रतिसंधि और कर्म का सिद्धान्त उन्हें बिल्कुल निश्चिन्त कर देता था। यही वजह थी, जो कि बुद्ध के झण्डे के नीचे हम बड़े-बड़े राजाओं, सम्राटों, सेठ-साहूकारों को आते देखते हैं, और भारत से बाहर लंका, चीन, जापान, तिब्बत में तो उनके धर्म को फैलाने में राजा सबसे पहले आगे बढ़े। वे समझते थे कि यह धर्म सामाजिक विद्रोह के लिये नहीं, बल्कि सामाजिक स्थिति को स्थापित रखने के लिये बहुत सहायक साबित होगा।’’ राहुल ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था। इसलिये उन्होंने कहा, ‘‘वर्गदृष्टि से देखने पर बौद्धधर्म शासक वर्ग के एजेन्ट की मध्यस्थता जैसा था, वर्ग के मौलिक स्वार्थ को बिना हटाये वह अपने को न्याय-पक्षपाती दिखलाना चाहता था।’’
 डा. आंबेडकर ने बौद्धधर्म का अध्ययन इस दृष्टि से नहीं किया था। उनका देखने का नजरिया यह था कि बौद्धधर्म का उदय, उसका विकास और प्रभाव ब्राह्मणवाद के लिये घातक था। इसलिये, बौद्धधर्म को विकृत करने का काम ब्राह्मणवाद की विजय के लिये उन ब्राह्मणों ने किया, जो छद्म रूप से बौद्धधर्म में चले गये थे। आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त भी उन्हीं छद्म बौद्धों की देन हैं। इसलिये आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व से इनकार किया। लेकिन साथ ही उन्होंने कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त का भी समर्थन किया है। प्रश्न पैदा हो सकता है कि आत्मा ही नहीं, तो कर्म कैसा? आत्मा ही नहीं, तो पुनर्जन्म कैसा? ये सचमुच टेढ़े प्रश्न हैं। बुद्ध ने ‘कर्म’ तथा ‘पुनर्जन्म’ शब्दों का प्रयोग किन विशिष्ट अर्थों में किया है? क्या बुद्ध ने इन शब्दों का किन्हीं ऐसे विशिष्ट अर्थों में प्रयोग किया, जो अर्थ उन अर्थों से सर्वथा भिन्न थे, जिन अर्थों में बुद्ध के समकालीन ब्राह्मण इन शब्दों का प्रयोग करते थे? यदि हां, तो वह अर्थभेद क्या था? अथवा, उन्होंने उन्हीं अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग किया, जिन अर्थों में ब्राह्मण जन इनका प्रयोग करते थे? यदि हां, तो क्या ‘आत्मा’ के अस्तित्व को अस्वीकार करने तथा ‘कर्म’ और ‘पुनर्जन्म’ के सिद्धान्त को मान्य करने में भयानक असंगति नहीं है?’’
 आंबेडकर ने कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है, पर उसे कर्म के हिन्दू सिद्धान्त से अलग रखा है। उनका कहना है कि कर्म का बौद्ध सिद्धान्त और कर्म का हिन्दू सिद्धान्त न एक है और न एक हो सकता है। उन्होंने इस शाब्दिक मायाजाल से सावधान रहने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनके अनुसार, कर्म का हिन्दू सिद्धान्त शरीर से पृथक एक आत्मा पर निर्भर करता है, शरीर मरता है तो आत्मा उसके साथ नहीं मरती। आत्मा फुर्र से उड़ जाती है। किन्तु, बुद्ध के कर्म के सिद्धान्त का सम्बन्ध मात्र कर्म से है और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से।
 आबेडकर ने बुद्ध के पुनर्जन्म के सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की है, ‘‘बुद्ध के अनुसार चार भौतिक पदार्थ हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। जब शरीर का मरण होता है, तो क्या वे भी मर जाते हैं? बुद्ध ने कहा कि ‘नहीं’। आकाश में जो समान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप से विद्यमान हैं, वे उनमें मिल जाते हैं। इस विद्यमान राशि में से जब इन चारों भौतिक पदार्थों का पुनर्मिलन होता है, तो पुनर्जन्म होता है।’’ आगे आंबेडकर इस प्रश्न पर विचार करते हुए कि क्या मृत आदमी का ही पुनर्जन्म होता है, लिखते हैं, ‘‘यदि मृत आदमी के देह के सभी भौतिक अंश पुनः नये सिरे से मिलकर एक नये शरीर का निर्माण कर सकें, तभी यह मानना सम्भव है कि उसी आदमी का पुनर्जन्म हुआ। यदि भिन्न-भिन्न मृत शरीरों के अंशों के मेल से एक नया शरीर बना, तो यह पुनर्जन्म तो हुआ, लेकिन यह उसी आदमी का पुनर्जन्म नहीं हुआ।’’ इस प्रकार, आंबेडकर ने बुद्ध के कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को खारिज नहीं किया, वरन् उसकी वैज्ञानिक व्याख्या की, अलौकिक व्याख्या से बचते हुए, जो त्रिपिटक के ग्रन्थों में मिलती है।
 राहुल और आंबेडकर की वैचारिक असमानताएं इस कारण से हैं कि राहुल ने एक मार्क्सवादी आलोचक के रूप में धर्म की व्याख्या की है। वे इतिहास के आलोचक थे और भारत में समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करने के स्वप्न-द्रष्टा। किन्तु, डा. आंबेडकर इतिहास के आलोचक के साथ-साथ इतिहास के निर्माता भी थे। भारत में बौद्धधर्म का पुनरुद्धार और बौद्ध समाज का निर्माण उनकी सबसे बड़ी चिन्ता थी। बीसवीं सदी की वैज्ञानिक विचारधारा और मार्क्सवादी आर्थिक व्याख्याओं की चुनौतियाँ भी उनके सामने थीं। राहुल धर्म को मनुष्य के लिये अनावश्यक कह सकते थे, पर आंबेडकर, जो बौद्धधर्म के पुनरुद्धारक होने जा रहे थे, धर्म को अनावश्यक कैसे ठहरा सकते थे? उन्होंने धर्म की भी धर्म, अधर्म और सद्धर्म के रूपों में व्याख्या की और बुद्ध वचनों को भी, जो विकृत हो चुके थे, झाड़-पोंछ कर तर्कसंगत और वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। वे एक विशाल मानव समुदाय को अधार्मिक बनाये जाने के पक्ष में नहीं जा सकते थे। नैतिक दृष्टि से भी किसी समुदाय का धर्म-विमुख होना उनके लिये अनुचित था। वे बौद्धधर्म को एक क्रान्ति मानते थे। उनके अनुसार, ‘‘यह उतनी ही महान क्रान्ति थी, जितनी कि फ्रान्स की क्रान्ति थी। यद्यपि यह धार्मिक क्रान्ति के रूप में आरम्भ हुई, तथापि यह धार्मिक क्रान्ति से बढ़कर थी। यह सामाजिक और राजनैतिक क्रान्ति बन गयी थी।’’ वे लिखते हैं कि इस क्रान्ति के महत्व को तभी समझा जा सकता है, जब क्रान्ति से पहले के भारतीय समाज की भयानक स्थिति और सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से निकृष्ट, विलासिता में डूबे हुए बुद्धकालीन आर्य समुदाय का चित्र आपके सामने होगा।

सन्दर्भ-ग्रन्थ 
 1. अंधकार में ज्योति (अनागरिक धर्मपाल का जीवनवृत्त तथा उपदेश), लेखक-महास्थविर संघरक्षित, नौरफोक (इंगलैण्ड), अनुवादक- कँवल भारती, प्रकाशक-त्रिरत्न ग्रन्थमाला, पुने, संस्करण: 1991 (प्रथम)
 2. मेरी जीवन यात्रा, प्रथम खण्ड, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1946, 
 3. वही, द्वितीय खण्ड, संस्करण 1950,
 4. दर्शन-दिग्दर्शन- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1998,
 5. जिनका मैं कृतज्ञ- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-1957 
6.. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-7, 9,10,14, डा. आंबेडकर प्रतिष्ठान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, 
7. सोर्स मेटेरियल आन डा. बाबा साहेब आंबेडकर एण्ड दि मूवमेन्ट आफ दि अनटचेबुल्स, वाल्यूम-1, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, बम्बई, संस्करण प्रथम, दिसम्बर 6, 1982, 
8. डा. बाबा साहेब आंबेडकर- राइटिंगस एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-12, एजूकेशन डिपार्टमेंन्ट, महाराष्ट्र गर्वनमंन्ट, संस्करण पहला 1993, 
9. धनंजय कीर, आंबेडकरः लाइफ एण्ड मिशन, पापुलर प्रकाशन, बम्बई, दूसरा संस्करण, 1961, 
10.राहुल सांकृत्यायन की ‘बुद्धचर्या’ (भारतीय बौद्ध समिति, लखनऊ, संस्करण 1995) 
11. डा. आंबेडकर की पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’, समता प्रकाशन, नागपुर, 
12. ‘सुत्तनिपात’, मूलपाली तथा हिन्दी अनुवाद, भिक्षु धमरत्न, प्रकाशक महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, संस्करण प्रथम 1951, 
13.‘धम्मचक्कपवत्तन सुत्त’, अनुवाद एवं व्याख्या : कँवल भारती, बोधिसत्त्व प्रकाशन, रामपुर,

Tuesday, April 05, 2022

मेडिकल किडनैपिंग ये होती है... कैसे बचें और बचाएं अपनों को

  सोशल मिडिया से                                                                                           बुराई, मेडिकल लूट     
अभिनव वर्मा की माँ ,जो सिर्फ 50 बरस की थीं , पेट में दर्द उठा ,नज़दीक ही फोर्टिस अस्पताल बनेरघट्टा, बंगलौर है ! डा कनिराज ने माँ को देखा और अल्ट्रा साउंड कराने को कहा ! फोर्टिस में ही अल्ट्रा साउंड हुआ और डा कनिराज ने बताया कि गाल ब्लैडर में पथरी है ! एक छोटा सा ऑपरेशन होगा,माँ स्वस्थ हो जाएंगी ! अभिनव माँ को घर लेकर आ गए और पेन-किलर के उपयोग से दर्द खत्म भी हो गया !!
कुछ दिन बाद अभिनव वर्मा को फोर्टिस से फोन कर डा कनिराज ने हिदायत दी कि यूँ पथरी का गाल ब्लैडर में रहना खतरनाक होगा,अतः अभिनव को अपनी माँ का ऑपरेशन तुरंत करा लेना ज़रूरी है ! अभिनव जब अपनी माँ को फोर्टिस बंगलौर लेकर पहुचे तो एक दूसरे डॉक्टर मो शब्बीर अहमद ने अटेंड किया ,जो एंडोस्कोपी के एक्सपर्ट थे,उन्होंने बताया कि एहतियात के लिए ERCP करा ली जाय , डा अहमद को पैंक्रियास कैंसर का .05 % शक था ! अभिनव मजबूर थे, डॉक्टर भगवान होता है, झूठ तो नहीं बोलेगा, सो पैंक्रियास और गाल ब्लैडर की बायोप्सी की गई !! रिपोर्ट नेगेटिव आई मगर बॉयोप्सी और एंडोस्कोपी की प्रक्रिया के बाद माँ को भयंकर दर्द शुरू हो गया ! गाल ब्लैडर के ऑपरेशन को छोड़, माँ को पेट दर्द और इंटर्नल ब्लीडिंग के शक में ICU में पंहुचा दिया गया ! आगे पढ़ने के लिए धैर्य और मज़बूत दिल चाहिए !!
जब अभिनव की माँ अस्पताल में भर्ती हुई थीं तो लिवर,हार्ट,किडनी और सारे ब्लड रिपोर्ट पूरी तरह नार्मल थे ! डॉक्टरों ने बताना शुरू किया कि अब लिवर अफेक्टेड हो गया है, फिर किडनी के लिए कह दिया गया कि डायलिसिस होगा ! एक दिन कहा अब बीपी बहुत 'लो' जा रहा है तो पेस मेकर लगाना पड़ेगा, पेस मेकर लग गया मगर हालात बद से बदतर हो गए ! पेट का दर्द भी बढ़ता जा रहा था और शरीर के अंग एक-एक कर साथ छोड़ रहे थे ! अब तक अभिनव की माँ को फोर्टिस ICU में एक माह से ऊपर हो चुका था !
एक दिन डॉक्टर ने कहा कि बॉडी में शरीर के ऑक्सीजन सप्लाई में कुछ गड़बड़ हो गई अतः ऑपरेशन करना होगा ! ऑपरेशन टेबल पर लिटाने के बाद डॉक्टर, ऑपरेशन थिएटर के बाहर निकल कर तुरंत कई लाख की रकम जमा कराने को कहता है और उसके बाद ही ऑपरेशन करने की बात करता है ! अभिनव तुरंत दौड़ता है और अपने रिश्तेदारों ,मित्रों के सामने गिड़गिड़ाता है,रकम उसी दिन इकट्ठी कर फोर्टिस में जमा कराई गई,पैसे जमा होने के बाद भी डॉक्टर ऑपरेशन कैंसिल कर देते हैं !
हालात क्यों बिगड़ रहे हैं, इंफेक्शन क्यों होते जा रहे थे, डॉक्टर अभिनव को कुछ नहीं बताते ! सिर्फ दवा, ड्रिप, खून की बोतलें और माँ की बेहोशी में अभिनव स्वयं आर्थिक और मॉनसिक रूप से टूट चुका था ! डॉक्टरों को जब अभिनव से पैसा जमा कराना होता था तब ही वह अभिनव से बात करते थे ! 
माँ बेहोशी में कराहती थी ! अभिनव माँ को देख कर रोता था कि इस माँ को कभी -कभी हलके पेट दर्द के अलावा कोई तकलीफ न थी ! उसकी हॅसमुख और खूबसूरत माँ को फोर्टिस की नज़र लग गई थी ! 50 दिन ICU में रहने के बाद दर्द में कराहते हुए मां ने दुनिया से विदा ले ली ! खर्चा-अस्पताल का बिल रु 43 लाख ,दवाइयों का बिल 12 लाख और 50 यूनिट खून ! अभिनव की माँ की देह को शवग्रह में रखवा दिया गया और अभिनव को शेष भुगतान जमा कराने के लिए कहा गया और शव के इर्द गिर्द बाउंसर्स लगा दिए गए ! अभिनव ने सिर्फ एक छोटी सी शर्त रखी कि मेरी माँ की सारी रिपोर्ट्स और माँ के शरीर की जांच एक स्वतंत्र डॉक्टरों की टीम द्वारा कराइ जाए ! फोर्टिस ने बमुश्किल अनुमति दी !!!

रिपोर्ट आई ............... अभिनव वर्मा की माँ के गाल ब्लैडर में कभी कोई पथरी नहीं थी ..............!

सोशल मीडिया से साभार 

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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