साहित्य
- जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
- लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
Sunday, April 24, 2022
संतू जाग गया, पक्की दोस्ती का विमोचन सम्पन्न हुआ
Thursday, November 25, 2021
वर्तमान दौर की लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति की स्थिति-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
Sunday, November 21, 2021
नन्दी लाल की ग़ज़ल
Wednesday, June 09, 2021
ग़ज़ल ( नन्दी लाल)
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नन्दी लाल |
तुम्हारे होंठ पर बिखरी हुई हँसी के लिए।।
रहेगा याद बहुत साल बेरुखी के लिए,
मसाला खूब मिला यार शायरी के लिए।।
हसीन ख्वाब ,सँजोए हुए खुशी के लिए,
उधार माँग कर लाया हूँ जिंदगी के लिए।।
दिलों में प्यार का दीपक सदा जलाए रहे,
यह जरूरी नहीं है आज आदमी के लिए।।
मिटा दे लाख अँधेरे सभी राहों के यहाँ,
चिराग एक ही काफी है रोशनी के लिए।।
करो न और भरोसा बड़ा चालाक है वह,
खड़ा है द्वार पे दरबान तस्करी के लिए।।
बताएँ किस से कहें क्या क्या कहें कैसे कहें,
गए हैं भाग जो परदेस कलमुही के लिए।।
छिनी मजदूर के हाथों की रोटियाँअब तो ,
बहुत निराश हो बैठा है खुदकशी के लिए।।
पता-गोला, लखीमपुर-खीरी
ग़ज़ल (नन्दी लाल)
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नन्दी लाल |
भूल जायेंगे किए वादे सयाने शाम तक।।
आके चोटी से पसीना एड़ियां छूता है जब,
तब कहीं पाता है पट्ठा चार आने शाम तक।।
भोर है सो कर उठे हैं जो कहे सच मान लो,
याद आयेंगे कहीं फिर से बहाने शाम तक।।
पेट है या फिर किसी वैश्या का पेटीकोट है,
खा गए लाखों नहीं फिरभी अघाने शाम तक।।
देख लें जिसको वही मर जाए अपने आप में
और कितने कत्ल कर देंगे न जाने शाम तक।।
लूट की हैं इसलिए वह धूप से बचती रहें,
तान देंगे कुर्सियों पर शामियाने शाम तक।।
नासमझ कुछ यार अपना दिल बदलते ही रहे,
रूप बदले रंग बदले और बाने शाम तक ।।
पता-गोला गोकर्णनाथ खीरी
Tuesday, June 08, 2021
ग़ज़ल-(नन्दी लाल)
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नन्दी लाल |
कबतलक जुल्म यह सहा जाए।।
पूण्य सब
पाप सँग बहा जाए।।
कुछ तो अखबार में लिखा जाए।।
आप से और क्या कहा जाए।।
दुखते पाँवों से कब चला जाए।।
क्या पता कौन बरगला जाए।।
उसकी गर्दन
कोई दबा जाए।।
आपको
मुफ्त में दवा जाए।।
बात ही बात में रुला जाए।।
पता-गोला गोकर्णनाथ खीरी
Sunday, June 06, 2021
ग़ज़ल (नन्दी लाल)
आँधियों में पार कर देना मुझे मझधार से।
नाव ने यह बात कर ली है नदी की धार से।।
वह कभी कीमत न समझे जान की पहचान की,
यह मुनाफा खोर चौड़े हो गए व्यापार से।।
भूख जब इन्सान की बर्दाश्त से बाहर हुई,
सर पटक कर मर गया तब आदमी दीवार से।।
मौत का मंजर नजर में, फर्श पर लेटा हुआ ,
वह गुजारिश कर रहा बहरी हुई सरकार से।।
बुझ गई जो झोपड़ी की आग दो सुलगा उसे,
आ गई फिर से खबर उस बेरहम दरबार से।।
काम में अपने बराबर वह खड़ा मुस्तैद है,
बेवजह की अब बहस करिए न चौकीदार से।।
कोन जहरीली कहाँ है कौन सेहत मंद हैं,
आ रही उड़कर हवाएँ यह समंदर पार से।।
नन्दी लाल
गोला गोकर्णनाथ खीरी
Thursday, June 03, 2021
गजल (नन्दी लाल)
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नन्दी लाल |
रोशनी में बैठकर के खो गया महताब में।
राज महलों
के झरोखे खूब देखे ख्वाब में।।
बाढ़ क्या आई , कहर टूटा
गरीबी पर मेरी,
मुश्किलें
बहकर हजारों आ गईँ सैलाब में।।
नाज नखरे नक्श उनकी जिंदगी में देखकर,
अक्श उनका
आ गया सारा दिले बेताब में।।
मार मौसम की पड़ी सब सूख कर बंजर हुआ,
मछलियाँ मरने लगी पानी बिना तालाब में।।
गिड़गिड़ाता फिर रहा है वह खुदा के नाम पर,
जल रहा था
कल दिया जिस शख्स के पेशाब में।।
जिंदगी के दाँव सारे भूल बैठा आजकल,
बाज आखिर आ गया उड़ती चिड़ी के दाब में।।
ज़ीस्त की जादूगरी में कैद होकर रह गया,
खो गया जो भीड़ में, इस दौर केअसबाब में ।।
गोला
गोकर्णनाथ खीरी
Wednesday, June 02, 2021
ग़ज़ल (नन्दी लाल)
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नन्दी लाल |
उम्र भर यह वबा का साल तुझे।
याद आएगा बहरहाल
तुझे।।
मर गया वह गरीब था घर का,
उसके मरने प क्या मलाल तुझे।।
रोज करता नए दिखावे है,
उसके अच्छे लगे कमाल तुझे।।
बैठकर काढ़ कसीदे उस पर,
दे गया वो नया रुमाल तुझे।।
क्यों खड़ा ताक रहा साहब को,
याद आया कोई सवाल तुझे।।
लोन खाता था रोज रोटी पर,
आज अच्छी न लगे दाल तुझे।।
राज महलों में क्या नहीं
होता,
झोपड़ी का दिखा बवाल तुझे।।
आँसुओं को सुखा के बैठा है,
पीटना आ गया है गाल तुझे।।
बेवजह शे'र लिख रहा ऐसी,
हो गया क्या है नंदीलाल
तुझे।।
निवास-गोला गोकर्णनाथ खीरी
Monday, May 31, 2021
नन्दी लाल की दो गज़लें
लिखे जाएँ हमारे इश्क पर यूँ ही रिसाले फिर।
मोहब्बत
से कोई आकर गले में हाथ डाले फिर।।
अदा अंदाज से आकर हमारा दिल चुरा ले फिर,
बहारों
में चमन की घूम कर ताजी हवा ले फिर।।
समझ
जाएँगे उनको इश्क हमसे हो गया है जो,
झुकाकर
नैन अँगुली यार होठों पर लगा ले फिर।।
बड़ा
चालाक आशिक जो कहीं मिलने से डरता है,
बहाना
कर कहीं कल की तरह से अब न टाले फिर।।
कहीं
जो बढ़ गया बर्बाद कर देगा तेरी हस्ती,
पुराना
रोग है जाकर उन्हीं से अब दवा ले फिर।।
बड़ी
मुश्किल से कुछ आशा जगी थी सिर छुपाने की
बड़े
होने से पहले पेड़ सारे काट डाले फिर।।
सभी
अब काटने को दौड़ते फुफकारते हैं जो,
यही
तो बात उसने आस्तीं मे नाग पाले
फिर।।
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मानता
हूँ आपका अपना बहाना ठीक है।
क्या
किसी की मौत पर हँसना हँसाना ठीक है।।
यह
बड़े लोगों के घर की बात है झूठी सही,
यार
इनका रोज का खाना खजाना ठीक है।।
मौत
से लड़कर अकेला आज अपनों के लिए,
गा
रहा सुनसान में बैठा तराना ठीक है।।
ठीक
है जो भी हुआ अच्छा हुआ इस मुल्क में,
आपका
क्या इस तरह से मुँह छुपाना ठीक है।।
माँगकर
लाई पड़ोसी से सही अपने लिए,
लीजिए
खा लीजिए बासी है खाना ठीक है।।
यार
तू पाबंदियों से अब जरा बाहर निकल ,
दिन
बहुत अच्छे लगे अब तो जमाना ठीक है।।
दर्द
के दो घूँट पीकर बैठ जा सिर पीट अब,
आँख
में ऑंसू लम्हों का थरथरना ठीक है।।
आज
के इस दौर में बेदर्द हाकिम के लिए ,
यार
दुखते घाव पर मरहम लगाना ठीक है।।
चार
दाने की जरूरत है अगर इस पेट को,
मिल
गया मेहनत से तुझको एक दाना ठीक है।।
नन्दी
लाल
गोला
गोकर्णनाथ खीरी
Thursday, May 27, 2021
नन्दीलाल के दोहे
नन्दीलाल के
दोहे
कविता का प्रारूप हो, ज्यों वनिता का रूप।।
मेघ घिरे पुरवा चली, रिमझिम पड़ी फुहार ।
तपती वसुधा का जहाँ, कुछ कम हुआ बुखार।।
ज्यों-ज्यों बैरी दिन चढ़े, जेठ सताये खूब।
सराबोर अँगिया हुई, गई स्वेद से डूब।।
रुचि- रुचि कर एड़ी रँगे, वर माँगे भर कोछ।
लत्ता धरे सँभाल कर, पाँव महावर पोछ।।
मोम हृदय पर पीय का, लेती चित्र उकेर।
बहुत कठिन है दिल जहाँ, हो पत्थर का ढेर।।
खत में उनकी ओर से, लिख करके पैगाम।
डाल दिया फिर डाक में, खुद ही अपने नाम।।
यह समाज का बन गया, कुत्सित कलुषित रोग।
हो हल्ला कर चार दिन, चुप हो जाते लोग।।
पहले से ही तंग थी, और हो गई तंग।
भीग श्वेद में कंचुकी, चिपक गई सब अंग।।
पूनम की आभा कभी, लगे भोर की धूप।
निर्मल निर्झर सा झरे, तरुणाई में रूप।।
मैं कितना धनहीन हूँ, वह कितने धनवान।
उनके भी भगवान हैं, अपने भी भगवान।।
रूपवती का रात में, लख श्रृंगार अनूप।
गजब गुजारे शशि प्रभा, नखत निहारें रूप।।
घी की चुपड़ी रोटियाँ, थाली भर-भर भात।
घर की परसन हार फिर, हो अँधियारी रात।।
को पहिचानै पीर का, समझै कौनु सुभाव।
मूरुखु मनई कै रहा, चाँटि- चाँटि फिरि घाव।।
सब विधि से संपूर्ण है, दे यश वैभव ज्ञान।
मंदिर के भगवान से, भीतर का भगवान।।
अंतर्मन निर्मल रखे, दे मेहनत पर ध्यान।
अपने पावन देश का, है भगवान किसान।।
होता है मजदूर भी, एक सहज इंसान।
मंदिर मस्जिद सब जगह, है उसका भगवान।।
एक लिखो, अच्छा लिखो, घोंचो नहीं पचास।
कुछ तो कविता से नया, हो मन को आभास।।
जंगल में चारों तरफ, धूम मच गई धूम।
हँसकर लिया बिलार ने, केहर का मुख चूम।।
अलग-अलग संसार का अलग-अलग व्यवहार।
कोई सब कुछ जीतकर, सब कुछ जाता हार।।
धन के लालच में गया, सहज आदमी डूब।
हरियाली पर चल रहे, आज कुल्हाड़े खूब।।
सब पर है भारी प्रभू, एक आपका नाम।
संकट करिए दूर सब ,जग प्रति पालक राम।।
क्या बतलाऊँ पीय को, कैसे लगी खरोंच।
छत पर थी,कल गाल पर, मार गया खग चोंच।।
खेल-कूद कर प्यार से, विभावरी के अंक।
शीश झुकाये प्रात में, छुपने चला मयंक।।
शगुन करे हँस हाथ से, चूड़ी धरे उतार।
कनक कलाई प्यार से, सहलाए मनिहार।।
काम निगोड़ा कब थका, करके जी भर तंग।
फागुन बीता खेल कर, खूब पिया सँग रंग।।
जीत गए तो जंग है,हार गए तो खेल।
धीरे धीरे चल रही, जीवन रूपी रेल।।
ऊँच-नीच छोटा-बड़ा, हो ब्रहमन या शेख ।
मेटे से मिटता नहीं, हाथ लिखा विधि लेख।।
लगते हैं थोड़े बहुत, कुछ लक्षण कुछ योग।
मैं इतना पागल नहीं, जितना समझें लोग।।
सूख गई बंधुत्व की, एक नीरदा और।
राजनीति तरु पर खिला कूटनीति का बौर।।
चाक देख डंडा हँसा ,माटी देख कुम्हार।
दोनों मिल रचने लगे ,एक नया संसार।।
बिन प्रीतम के पा रही, तरुणाई आनंद।
आँगन होली खेलती, भावज और ननंद।।
जिन्हें देख अच्छे भले, मन में जायें काँप।
धारण करके केचुली, बने केंचुए साँप।।
महुआरी की गंध से, कर फागुन अनुबंध।
कोयल के स्वर में लिखे, मधुरिम छंद प्रबंध।।
रंग न देखो रूप पर ,लगे हजारों शूल।
यौवन में अच्छे लगे,काँटेदार बबूल।।
रत्न जड़ित चूनर गया, कोई तन पर डाल।
है धरती की देह पर, प्राची मले गुलाल।।
भीगे तन सौंदर्य की, निखरी छटा अनूप।
अँजुरी में भर नीर जब, गोरी निरखे रूप।।
शंक्व,वृत्त,आयत,त्रिभुज, वर्ग, कोण, घन चित्र ।
है तन की रेखा गणित ,अपनी बड़ी विचित्र।।
पात- पात से रस चुये,अंग- अंग से प्यास।
तन झुलसाने आ गया ,फिर बैरी मधुमास।।
है फागुन करने लगा, पल छिन नये कमाल।
दाई बैठी धूप में, बाबा चूमें गाल।।
गोरी बैठी सेज पर, प्रात सँवारे रूप।
बाहर खिड़की खोल कर, झाँक रही है धूप।।
बंद लिफाफे में रखा, मन का प्रेम प्रसून।
बाँच सके तो बाँच ले ,तू खत का मजमून।।
अनियारे से नैन है, अलसाये सब अंग।
बिखरे बिखरे केस ज्यों, भरे रूप में रंग।।
जितने तेरे कर्म हैं, उतने तेरे रूप।
नारी तेरा विश्व में, हर किरदार अनूप।।
उछल कूद करता फिरे, इत उत मारे माथ।
मानो दर्पण लग गया ,जो बंदर के हाथ।।
अंगराग से हो गया, चंद्रप्रभा सा रूप।
मन पागल है देख कर, आनन अजब अनूप।।
शब्द शब्द से छंद की, झलक रही औकात।
वाह वाह की बात है, वाह वाह क्या बात।।
चाहे जितना मोल ले, चूड़ी का इस बार।
एक एक कर प्यार से, पहना रे मनिहार।।
अधिकारी को यश मिला, चपरासी को डाँट।
सरकारी धन का हुआ, खुल कर बंदर बाँट।।
आतुर है ऋतुराज जो, करने को अभिसार।
पतझड़ में पाकर खड़ी, तन से वस्त्र उतार।।
रूप -सिंधु में आ गई, सुंदरता की बाढ़।
देखे अपने आप को, फागुन आँखें काढ़।।
नन्दी लाल
पता-हनुमान
मंदिर के पीछे लखीमपुर रोड
गोला
गोकर्णनाथ खीरी,
991887993
पढ़िये आज की रचना
मौत और महिला-अखिलेश कुमार अरुण
(कविता) (नोट-प्रकाशित रचना इंदौर समाचार पत्र मध्य प्रदेश ११ मार्च २०२५ पृष्ठ संख्या-1 , वुमेन एक्सप्रेस पत्र दिल्ली से दिनांक ११ मार्च २०२५ ...

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