साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Saturday, December 18, 2021

भोजपुरी लोक-संगीत के पर्याय हैं भिखारी ठाकुर-अखिलेश कुमार अरुण

  व्यक्तित्व   

(दैनिक पूर्वोदय, आसाम और गुहावटी के सभी संस्करणों में २१ दिस्मबर २०२१ को प्रकाशित)

भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर का आज ही के दिन यानि 18 दिसंबर 1887 को नाई परिवार में जन्म हुआ था कबीर दास जी कि तरह यह भी शिक्षा के मामले में मसि कागद छुओ नहीं कलम गहि नहीं हाथ को स्पष्ट करते हुए  अपने गीतों में कहते हैं-

भिखारी ठाकुर

जाति के हजाम मोर कुतुबपुर ह मोकाम

छपरा से तीन मील दियरा में बाबु जी।

पूरुब के कोना पर गंगा किनारे पर

जाति पेशा बाटे विद्या नहीं बाबू जी।

इनकी साहित्य विधा व्यंग्य पर आधारित थी सटीक और चुटीले अंदाज में अपनी बात कह जाने की कला इनकी स्वयं की अपनी थी जिसकी कल्पना साहित्य का उत्कृष्ट समाजविज्ञानी भी नहीं कर सकता भोजपुरी के इस शेक्सपियर ने अपने लोकगीतों में जन-मानस की  आवाज को बुलंद करते हुए एक से बढकर एक कालजई रचनाओं को हम सब के बीच छोड़कर 10 जुलाई 1971 को इस दुनिया से रुख्सत हो गया. किन्तु भोजपुरी भाषी लोगों के बीच अजर और अमर हैं। भिखारी के साहित्य में बिदेशिया भाई-बिरोध, बेटी-बियोग या बेटि-बेचवा, कलयुग प्रेम, गबर घिचोर, गंगा स्नान (अस्नान), बिधवा-बिलाप, पुत्रबध, ननद-भौजाई, बहरा बहार, कलियुग-प्रेम, राधेश्याम-बहार, बिरहा-बहार, नक़ल भांड अ नेटुआ के एक अथाह संग्रह है। साल २०२१ इसलिए भी ख़ास हो जाता है कि इन्ही के मंडली (विदेशिया गायकी ग्रुप) के आखिरी लवंडा नाच करने वाले रामचंद्र माझी को पद्मश्री पुरुस्कार से नवाजा जाता है।

भोजपुरी नृत्य विधा में विदेशिया आज भी अपनी अलग पहचान रखती है वस्तुतः लोकमानस में विदेशिया का चलन अब धीरे-धीरे ख़तम हो चला है किन्तु भोजपुरी सिनेमा जगत में यह अपने नए स्वरूप में आज भी गयी और बजायी जाती है। विदेशिय के बारे में हमने सुन बहुत रखा था किन्तु पहला साक्षात्कार दिनेश लाल यादव  (निरहुआ) की भोजपुरी फिल्म विदेशिया (२०१२) से हुआ था इससे पहले विदेशिया के भावों को समेटे हुए एक फिल्म १९८४-१९९४ में भी आ चुकी थी , निरहुआ के इस फिल्म को देखने का अवसर शायद हमें २०१४ या १५ में मिला जिसमें निरहुआ घर-परिवार से दूर कोलकाता जैसे शहर में कमाने के लिए जाता है. प्रतीकात्मक तौर पर पत्नी की बिरह वेदना को उद्घाटित करने वाला यह नृत्य विधा अपने में कई भावों को सहेजे हुए है। एक गीत देखिये-

सईयां गईले कलकतवा ए सजनी

हथवा में छाता नईखे गोड़वा में जुतवा ए सजनी

कईसे चलिहें रहतवा ए सजनी.....

भिखारी ठाकुर का वह समय था जब देश अंग्रेजों का गुलाम था और भारत के पुरबी क्षेत्रों बंगाल-बिहार की जनता रोजी-रोटी के लिए घर-परिवार से सालोंसाल दूर रहकर कमाई करने के लिए जाया करते थे। उन्हीके वेदनाओं को प्रकट करने का यह सहज माध्यम था। कोयलरी के खान के मजदूरों की दशा, कलकत्ता में हाथ-गाड़ी वालों की दशा और वे जो मजदूरी के नाम पर मरिसस्, जावा, सुमात्रा जाकर ऐसा फंसे कि घूमकर अपने देश नहीं लौटे, उसमे से कुछ तो मर-बिला गए जो बचे सो वहीँ के होकर रह गए परिणामतः मरिसस् पूरा का पूरा भोजपुरी बोलने वालों से पटा पड़ा क्या? भोजपुरी वालों ने उसे बसाया ही है उनकी अपने मातृ-भूमि की व्यथा भी विदेशिया में देखने को मिलता है।

भिखारी ठाकुर क्रांतिकारी कलाकर रहे हैं जिन्होंने शोषितों-वंचितो की पीड़ा को अपने साहित्य का आधार स्वीकार किया है और उसी के अनुरूप गीत और नाटक की प्रस्तुति आजीवन देते रहे । वे कहते थे- "राजा महाराजाओं या बड़े-बड़े लोगों की बातें ज्ञानी, गुणी, विद्धान लोग लिखेंगे, मुझे तो अपने जैसे लोगों की बाते लिखनी है।" भिखारी ठाकुर की अपनी अलग विधा थी जिसे नाच/तमाशा कहा जाता था और है। जिन नाटकों में उन्होंने लड़कियों, विधवाओं, अछूत-पिछड़ों और बूढ़ों की पीड़ा को जुबान दी जिस कारण द्विज उनसे बेहद नफ़रत करते थे। अपनी तमाम योग्यता के बावजूद भिखरियाकहकर पुकारे जाने पर वो बिलबिला जाते। 'सबसे कठिन था जाति अपमाना", ‘नाई-बहार नाटक  में जाति दंश की पीड़ा उभर कर आमने आती है जो उनकी अपनी व्यथा थी। 

उस समय का समाजिक ताना-बाना भी उनके नाट्य साहित्य के लिए किसी उपजाऊ खेत से कम न था। उन दिनों दहेज से तंग आकर द्विजों में बेटी बेचने की प्रथा का  प्रचलन अपने चरम पर था। बूढ़े या बेमेल दूल्हों से शादी कर दी जाती थी। जिसके दो-दो हाथ करने की हिम्मत भिखारी ठाकुर ने दिखाई अपने जान की परवाह किये बगैर उन्होंने इसका खुला विरोध करते हुए बेटी बेचवाके नाम से नाटक लिखा। उन दिनों बिहार में यह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि कई स्थानों पर बेटियों ने शादी करने से मना कर दिया और कई जगहों पर ग्रामीणों ने ही लड़की खरीदने वाले और बेमेल दूल्हों को गांव के बाहर खदेड़ दिया। इसी नाटक का असर था कि 1964 में धनबाद जिले के कुमारधुवी के लायकडीह कोलियरी में प्रदर्शन के दौरान हजारीबाग जिले के पांच सौ से ज्यादा लोगों ने रोते हुए सामूहिक शपथ ली कि वे आज से बेटी नहीं बेचेंगे। 

उनकी नाट्य मंडली में ज्यादातर कलाकार निम्न वर्ग से थे जैसे बिंद, ग्वाला, नाई, लोहार, कहार, मनसुर, चमार, माझी, कुम्हार, बारी, गोंड, दुसाध आदि जाति से थे। आज का भोजपुरी गीत-संगीत सबको मौका दिया चाहे वह कुलीन हो या निम्न किन्तु भिखारी ठाकुर का बिदेसिया गायन विधा निम्नवर्गीय लोगों का एक सांस्कृतिक आंदोलन के साथ-साथ अभिव्यक्ति का माध्यम थी जिसके चलते अपनी व्यथाओं को संगीत में पिरोकर जनजाग्रति का काम करते थे और अपमान के अमानवीय दलदलों से ऊपर उठकर इन उपेक्षित कलाकारों ने गीत-संगीत और नृत्य में अपने समाज के आँसुओं को बहने के लिए एक धार दी जो युगों-युगों तक उनको सींचता रहेगा।

अखिलेश कुमार अरुण
जय-भोजपुरी, जय-भिखारी।


पता-ग्राम-हजरतपुर, लखीमपुर-खीरी

मोबाइल-8127698147


अशोक दास पत्रकार के साथ बहुजन साहित्य के साधक संपादक भी हैं-

व्यक्तित्व
साभार-बहुजन एवं बहुजन हितैषी महापुरुष एवं महामाताएं फेसबुक पेज से 
अशोक दास (संपादक)
दलित-दस्तक, दास पब्लिकेशन
न्यूज-दलित दस्तक (यूट्यूब)


(जन्म-17 दिसंबर)
अशोक दास का जन्म बुद्ध भूमि बिहार के गोपालगंज जिले में हुआ। उन्होंने गोपालगंज कॉलेज से ही राजनीतिक विज्ञान में स्नातक (आनर्स) करने के बाद 2005-06 में देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान 'भारतीय जनसंचार संस्थान, जेएनयू कैंपस दिल्ली' (IIMC) से पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, हरियाणा से पत्रकारिता में एमए किया। 

वे 2006 से मीडिया में सक्रिय हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।

अशोक दास ने जब मीडिया का जातिवादी रवैया देखा तो उन्होंने अपनी पत्रिका निकालने ठान ली। उन्होंने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से 27 मई 2012 से ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। दलित मुद्दों और अभिव्यक्ति को संबोधित करती इस पत्रिका ने हिंदी पट्टी में अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है।

वे अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।

विषम से विषम परिस्थितियों में आप डिगे नहीं दलित पत्रकारिता को आपने एक नया आयाम दिया है। जन की बात को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रिन्ट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर बिना एक दिन क्या एक पल नागा किए सक्रीय रहते हैं और देश-दुनिया की ख़बरें पहुंचाते रहते हैं। जुझारू और कर्मठ अपने कर्म के प्रति कर्तव्यनिष्ठ जो वंचित समाज की आवाज बनकर उनकी समस्याओं को जगजाहिर कर रहे हैं। 

प्रासंगिक : दलित पत्रकार होने का अर्थ

भडास4मीडिया के संपादक-संचालक यशवंत सिंह को ‘दलित दस्तक’ के संपादक बता रहे हैं कि वे पत्रकारिता में कैसे आये और उन्होंने मीडिया की मुख्यधारा को अलविदा क्यों कहा?-जून 2015

मैं बिहार के गोपालगंज जिले का रहने वाला हूं। आज जब सोचता हूं कि पत्रकारिता में कैसे चला आया तो लगता है कि हमने तो बस चलने की ठानी थी, रास्ते अपने आप बनते चले गए। पत्रकारिता में आना महज एक इत्तेफाक था। छोटे शहर में रहने का एक नुकसान यह होता है कि हमारे सपने भी छोटे हो जाते हैं क्योंकि हमारे परिवार, मित्रों के बीच बड़े सपनों की बात ही नहीं होती। सच कहूं तो मुझे एक बात शुरू से ही पता थी और वह यह कि मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी है। नौकरी करनी पड़ती है, जब इसकी समझ आयी तो मैंने मन ही मन तीन बातें तय कीं। एक, बंधी-बंधाई तनख्वाह वाली नौकरी नहीं करनी। दो, सुबह दस से शाम पांच बजे वाली नौकरी नहीं करनी और तीन, कोई ऐसा काम करना है, जिसमें मुझमें जितनी क्षमता हो, मैं उतना ऊंचा उड़ सकूं। मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिए थी जिसमें मैं सुबह दस बजे टिफिन लेकर ऑफिस के लिए निकलूं, बीवी बालकनी में खड़ी होकर बाय-बाय करे और शाम को खाना खाकर सो जाऊं। एक बेचैनी-सी हमेशा बनी रहती थी। मैंने कभी किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं किया। हां, लिखना बहुत पसंद था।

अखबार से लेकर किताबों तक – जो मिल जाये उसे पढऩे का शौक बचपन से था। मेरे जिले में जितनी भी किताबें उपलब्ध थी, सब पढ़ गया। एक दिन, ऐसे ही अखबार उलटते-पलटते हुए, आईआईएमसी के विज्ञापन पर नजऱ पड़ी। मैं साधारण ग्रेजुएट था और वहां दाखिले के लिए यही चाहिए था। दिल्ली में बड़े भाई राजकुमार रहते थे। उन्होंने फार्म भेज दिया और मैंने उसे भर दिया। तब तक मुझे भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) की मीडिया के क्षेत्र में धाक और रुतबे के बारे में कुछ पता नहीं था। पटना में लिखित परीक्षा देने के लिए बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में उम्मीदवार परीक्षा केंद्र आये। लगा कि यार कुछ तो है इस संस्थान में। लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू के लिए दिल्ली से बुलावा आया। मुझे विश्वविद्यालय में पढऩे का कभी मौका नहीं मिला था इसलिए आईआईएमसी सपने जैसा लगा। इंटरव्यू में पास नहीं हो पाया लेकिन यह तय कर लिया कि अब तो यहीं पढऩा है। हां, लिखने का शौक शुरु से था। डायरी के पन्नों में अपनी भड़ास निकाला करता था। यह कुछ वैसा ही था जैसे कोई गायक बाथरूम में गाकर अपना शौक पूरा करता है। फिर, 2005-06 में आईआईएमसी में मेरा दाखिला हो गया। यह मेरे पत्रकार बनने की शुरुआत थी।

ऐसा नहीं है कि आईआईएमसी में दलितों के साथ भेदभाव नहीं था। मुझे वहां भी जातीय दुराग्रह का सामना करना पड़ा। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म तरीके का भेदभाव था जो तब तो मुझे समझ में नहीं आया लेकिन आज समझ पाता हूं। मसलन, मैंने महसूस किया कि कुछ ‘खास’ लोगों को आगे बढ़ाया जाता था। यहां विचारधारा को लेकर भी गोलबंदी थी – वामपंथी, दक्षिणपंथी आदि। तब तक तो मुझे विचारधारा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। सब वहीं भेदभाव झेलते हुए सीखा। मेरे साथ जो हुआ, उसे ‘माइक्रो डिसक्रिमिनेशन’ कहा जा सकता है। जाति ने ‘अमर उजाला’ समेत कई अन्य मीडिया हाउसों में भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा। आईआईएमसी से निकलने के बाद मेरी सबसे पहली नौकरी ‘लोकमत’ ग्रुप में लगी। मेरी नियुक्ति महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुई। जब तक मैं वहां रहा, मैंने झूठ बोलकर जाति के मसले से बचने की कोशिश की। एक डर, एक आशंका हमेशा बनी रहती थी। मुझे वहां घुटन होने लगी। लगता था कि कुछ बाहर आना चाहता है लेकिन आ नहीं पा रहा है। फिर मुझे ‘अमर उजाला’ (अलीगढ़, यूपी) में बतौर रिपोर्टर नौकरी मिल गई। यहां जाति का सवाल फिर मेरे सामने था। इस बार मैंने जवाबी हमला कर दिया। बिना किसी लाग-लपेट के बता दिया कि मैं दलित हूं। मुझे याद है कि हम दस नए लड़के एक साथ बैठे थे। सब सन्न रह गए। सब अलीगढ के लिए नए थे। एक-दूसरे के साथ शिफ्ट हो रहे थे लेकिन मुझे साथ रखने के लिए कोई तैयार नहीं था। बाद में संपादक के हस्तक्षेप के बाद मैं भी उनमें से एक के साथ रह पाया। लेकिन वहां कुछ दिन रहने के बाद मैं श्रीनारायण मिश्रा के साथ रहने लगा। वे उम्र में मुझसे बड़े थे और हम दोनों के बीच एक स्नेह का रिश्ता बन गया था। लोगों ने उसकी भी खूब खिंचाई की लेकिन उसने मेरा पक्ष लिया। वहां मृत्युंजय भैया ने भी बहुत साथ दिया। हां, जब पदोन्नति की बारी आई तो प्रधान संपादक शशि शेखर द्वारा नियुक्ति के समय किये गए वायदे के बावजूद, संपादक गीतेश्वर सिंह ने मेरा प्रमोशन नहीं किया। मुझे साथ रखने की सजा श्रीनारायण मिश्रा को भी मिली। उसका भी प्रमोशन नहीं हुआ, जबकि वो सभी से सीनियर और ज्यादा योग्य था। यह खुला भेदभाव था। दलित होने के कारण मेरे साथ और एक दलित का साथ देने के कारण श्रीनारायण मिश्रा के साथ। लेकिन मैं वहां कभी दबा नहीं। प्रमोशन नहीं होने के सवाल पर मैंने अपने संपादक की शिकायत दिल्ली में प्रधान संपादक तक से की और सबको सीधी चुनौती दी।

बाद में मैंने ‘अमर उजाला’ एक गुस्से, एक आवेग और एक वृहद सोच के कारण छोड़ दिया। मेरे दिल में गुस्सा था। यह प्रतिक्रिया थी, उस प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदभाव की, जिसका सामना मुझे वर्षों से करना पड़ रहा था। मैं अंदर ही अंदर सुलग रहा था। एक रात जब मैं कमरे पर आया तो टीवी पर राज ठाकरे के गुंडों द्वारा बिहार और यूपी के लोगों के साथ मारपीट की खबर चल रही थी। वे दृश्य परेशान करने वाले थे। मैंने विरोध करने की ठानी। मुझे नहीं पता था कि इससे कुछ होगा भी या नहीं लेकिन मैं चुप नहीं बैठना चाहता था। मैं विरोध करने के लिए, चिल्लाने के लिए, छटपटा रहा था और इस घटना ने मुझे मौका दे दिया। मैं अपने संपादक के पास गया और मुझे यह करना है, कहकर छुट्टी मांगी। उन्होंने कहा कि इस्तीफा दे दो। मैंने कहा कि आपको निकालना हो तो निकाल देना, मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। फिर मैं अलीगढ़ के ही चार अन्य छात्रों के साथ देश के तमाम विश्वविद्यालयों में राज ठाकरे के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाने के लिए निकल पड़ा। इसमें प्रेमपाल और अमित चौधरी ने काफी सहयोग किया। अलीगढ़, लखनऊ, बनारस (बीएचयू), गोरखपुर, पटना, मेरठ, दिल्ली (दिल्ली विवि, जेएनयू) आदि जगहों पर बीस दिनों तक घूमने के बाद दिल्ली में तकरीबन पांच सौ लड़कों के साथ रेलवे स्टेशन से जंतर-मंतर तक मार्च निकाल कर राष्ट्रपति और चुनाव आयोग को ज्ञापन सौंपा।

मेरे हस्ताक्षर अभियान को भड़ास4मीडिया डाट काम नाम की वेबसाइट ने कवर किया। तब तक मेरा आपसे (यशवंत सिंह) से परिचय हो गया था। मेरा हौसला बढ़ाने वालों में आप भी थे। इस अभियान के बाद मैंने अलीगढ़ छोड़ दिया और दिल्ली आ गया। तब तक नौकरी से मन हट गया था, कुछ अलग करने की चाह जाग गई थी। मैं भड़ास4मीडिया डाट काम के साथ काम करने लगा। दलितमत डाट कॉम का विचार वहीं से निकल कर आया। इस दौरान देवप्रताप सिंह, जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार और बौद्ध चिंतक आनंद जी के संपर्क में आया। इनसे मुलाकातों ने मेरी जिंदगी को दिशा दी। इस तरह ‘दलित दस्तक’ अस्तित्व में आयी।

हमारी वेबसाइट 12 देशों में पढ़ी जाती है। पत्रिका भी निरंतर आगे बढ़ रही है। हमें 30 महीने हो चुके हैं और हम दस हजार प्रतियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। हमारा प्रसार देश के 15 राज्यों के 135 जिलों तक हो चुका है। यह सामूहिक प्रयास है और हमारी पूरी टीम ईमानदारी से लगी है। हमारे लिए यह एक मिशन है। डॉ. अंबेडकर, जोतिबा फुले और तथागत बुद्ध सहित तमाम बहुजन नायकों की विचारधारा को लोगों के बीच पहुंचाना और उन्हें दलित समाज के वर्तमान हालात के बारे में बताना ही हमारा मकसद है।

संदर्भ
1.अखिलेश कुमार अरुण
2.सोशल मिडिया
3.फारवर्ड प्रेस जून, 2015 अंक
https://www.forwardpress.in/2015/07/being-a-dalit-journalist_hindi/?amp
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=301204955352934&id=100063902943052

Friday, December 17, 2021

अशोक दास और दलित-दस्तक (मासिक-पत्रिका) बनाम दरकिनार किये गए लोग-अखिलेश कुमार अरुण

जन्मदिन विशेष

अशोक दास (संपादक)
दलित-दस्तक, दास पब्लिकेशन
न्यूज-दलित दस्तक (यूट्यूब)
       आज अशोक दास का जन्मदिन है। उन्हें बहुत-बहुत हार्दिक बधाइयाँ और असीम मंगलकामनाएँ बिहार के एक छोटे से गाँव से दिल्ली पहुँचकर IIMC जैसी महत्वपूर्ण संस्था से अशोक ने पत्रकारिता की पढ़ाई की। अशोक निजी करियर के लिए मीडिया के चकाचौंध में नहीं फँसे, बल्कि वंचित जमात के लिए अपना मीडिया शुरू करने का साहस दिखाया। यह आसान काम नहीं था। लेकिन अशोक के पास वैचारिक चेतना थी और 'पे बैक टू सोसाइटी' का जज़्बा भी। पहले 'दलित मत' की ऑनलाइन शुरुआत की, फिर 'दलित दस्तक' पत्रिका छापना शुरू किया, जो आज भी नियमित रूप से निकल रही है और बहुजन वैचारिकी की लोकप्रिय पत्रिका बन चुकी है। फिर 'नेशनल दस्तक' यू-ट्यूब चैनल शुरू करके बहुजन मीडिया के क्षेत्र में एक बड़ी कमी को पूरा किया। आज अशोक 'दलित दस्तक' का अपना यू-ट्यूब चैनल बेहतर तरीके से संचालित कर रहे हैं। तमाम सारी विपरीत आर्थिक परिस्थितियों से जूझते-लड़ते हुए अशोक बिना रुके, बिना थके अपने रास्ते में डटे हुए हैं। असहमति की हिम्मत भी रखते हैं और सच कहने का माद्दा भी। 'दास पब्लिकेशन' की शुरुआत करके अशोक ने बहुजन समाज में पुस्तक-कल्चर को बढ़ाने का संकल्प लिया है। हमारी शुभकामनाएँ हैं कि अशोक दास ऐसे ही वैचारिकी प्रतिबद्धता और समर्पण के साथ अंबेडकरी कारवां को आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहें.
-डॉ.सुनील कुमार 'सुमन'
(असिस्टेंट प्रोफेसर)
वर्धा विश्वविद्यालय (महाराष्ट्र)
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        आज 17 दिसम्बर है सम्पादक महोदय आपके जन्मदिन पर आपको बहुत-बहुत मंगलकामनाएं, आप दीर्घायु और स्वस्थ रहें तथा समाज की आवाज को मुखर करते रहें। अशोकदास जी (संपादक-दलित दस्तक) एक नाम है आज के दौर में दरकिनार किए लोगों की आवाज का, आपके अदम्य साहस और दृढ़ आत्मविश्वास की हम खुले दिल से जितनी प्रशंसा करें वह कम है।

        विषम से विषम परिस्थितियों में आप डिगे नहीं दलित पत्रकारिता को आपने एक नया आयाम दिया है। जन की बात को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रिन्ट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर बिना एक दिन क्या एक पल नागा किए सक्रीय रहते हैं और देश-दुनिया की उन खबरों को लोगों तक पहुंचाते हैं जिनको आज कि पत्तलकार मिडिया सिरे से ख़ारिज कर देती है, ऐसा कोई दिन हमें याद नहीं कि जब आपका व्हाट्सएप पर मैसेज न मिला हो, लेखन आदि से सम्बन्धित गाहे-बगाहे चर्चा भी हो जाती है आपका लेखकीय मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है किंतु दुःख इस बात का है कि हम अभी समय नहीं दे पा रहे हैं.. एकदिवसीय परीक्षाओं ने जीना हराम कर रखा है भविष्य अधर में लटका हुआ है इसलिए हम लेखन पर भी ध्यान नहीं दे पा रहे हैं।


        अपने समाज के सक्षम लोगों से अपील है कि आप जैसे जुझारू और कर्मठ अपने कर्म के प्रति कर्तव्यनिष्ठ जो वंचित समाज की आवाज बनकर उनकी समस्याओं को जगजाहिर कर रहे हैं उनका सहयोग तन-मन-धन से करें क्योंकि उत्कृष्ट साहित्य ही समाज का गौरवशाली इतिहास होता है और जिस कौम इतिहास नहीं होता उस समाज का आधार नहीं होता। दलित पत्रकारिता के आधार स्तंभों में गिनती की जाए तो आप #अशोकदास {दलित दस्तक (मासिक-पत्रिका), यूट्यूब चैनल (न्यूज चैनल) } दिल्ली से तो डी०के०भास्कर (डिप्रेस्ड एक्सप्रेस-मासिक पत्रिका) मथुरा से प्रकाशित कर रहे हैं कोरोना काल में जहां कादम्बिनी जैसी पत्रिकाएं बन्द हो गई वहां यह दोनों पत्रिकाएं सम्पादित हो रही हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जिस समाज के लिए यह पत्रिकाएं छपती हैं वह पत्र-पत्रिका पढ़ने से दूर रहता है पत्रिकाओं के आर्थिक सहयोग की बात ही अलग है। हमारे अभी कई मित्र सरकारी नौकरी पेशे में आए हैं किंतु साहित्य के नाम 50/60 रुपए खर्चने को कह दीजिए तो उनका साल का बजट गड़बड़ा जाता है पर एक बैठकी में हजार-पांच सौ का मदिरा-हवन हो जाएगा, गुटखा चबन सम्भव है। पत्र-पत्रिका नहीं पढ़ना है मत पढ़ो खरीद लो महिने की महिने और नाते-रिश्तेदारों, गली-मोहल्लों में बांट दो इतना तो किया जा सकता है न, नौकरी में आने के बाद वैसे भी कहां पढ़ाई-लिखाई होती है और गर्व से लोग कहते भी हैं कि अब पढ़ने में मन नहीं लगता का करेंगे पत्र-पत्रिका और उसकी सदस्यता और तो और पत्रिका के लिए विज्ञापन भी।

        ऐसी परिस्थिति में किसी पत्रिका का सम्पादन करना अपने आप में एक बहुत बड़ा और जिम्मेदारी का काम है मने केकरा पर करी सिंगार पुरुष मोर आन्हर!!! आपको पुनः जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई और मंगलकामनाएं।
जय भीम नमो बुद्धाय
अखिलेश कुमार अरुण
लखीमपुर-खीरी उप्र।


Monday, December 06, 2021

विनोद दुआ ...सत्ता की आंखों में आंखे डालकर सवाल पूछने वाला पत्रकार-नन्दलाल वर्मा (एशोसिएट प्रोफेसर)

विनम्र श्रद्धांजलि!
!एक युग का अंत....
नन्दलाल वर्मा 
         प्रख्यात टीवी एंकर विनोद दुआ का जाना टीवी पत्रकारिता के एक युग का अंत कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। टीवी पर हिंदी पत्रकारिता के ध्रुवतारा थे, वह! दरअसल, विनोद दुआ  का अपना एक विशिष्ट अंदाज़ था। प्रणय रॉय के साथ उनकी पत्रकारिता का जादू सिर चढ़कर बोला और उनके चुनावी जीवंत विश्लेषण ने उनको शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचाने का काम किया। अपनी बेबाक,दुस्साहसी और बेलागपन पत्रकारिता के लिए वह हमेशा याद किये जाते रहेंगे। मंत्रियों के साथ अपने कार्यक्रमों में जिस अंदाज में वह सवाल या टिप्पणियां करते थे, तब उनकी कल्पना करना तक संभव नही था और आज की पत्रकारिता में तो वे असंभव सी हो चुकी हैं। सरकार नियंत्रित दूरदर्शन पर सरकार या मंत्री के कामकाज का मूल्यांकन कर दस में तीन अंक देने की बात कह देना, उनके बड़े साहस और निर्भीकता का परिचायक है।
       पत्रकारिता जगत में आये उतार- चढ़ाव के बावजूद विनोद दुआ ने अपना विशिष्ट अंदाज़ कभी नही छोड़ा। आज के दौर में जब पत्रकारिता का एक बहुत बड़ा हिस्सा सत्ता- सरकार की चाटुकारिता और विज्ञापन करती नज़र आती है। दुआ जी सत्ता -सरकार से टकराने में कभी पीछे नही हटे। उन्हें कभी भी सत्ता का डर नही रहा। कोरोना काल मे केंद्र सरकार के फैसलों और नीतियों-कामकाजों की आलोचना करते हुए उन्होंने इसे सरकार का निकम्मापन करार देते हुए टिप्पणी की थी जिससे बौखलाई सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार ने उनके ऊपर राजद्रोह का आरोप लगाकर फंसाने की कोशिश की, किंतु उन्होंने  साहस दिखाते हुए अपनी लड़ाई लड़ी और सुप्रीम कोर्ट से जीत हासिल की। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह कहते हुए कि:"सरकार की आलोचना करना राजद्रोह नही है" और सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार के केस में दिये गए अपने ही आदेश: " सरकार की आलोचना के लिए एक नागरिक के खिलाफ राजद्रोह के आरोप नही लगाए जा सकते हैं, क्योंकि यह भाषण और अभिव्यक्ति  की संवैधानिक आज़ादी के अनुरूप नहीं है। राजद्रोह का केस तभी बनेगा जब कोई भी वक्तव्य ऐसा हो जिसमें हिंसा फैलाने की मंशा हो या हिंसा बढ़ाने का तत्व मौजूद हो " का हवाला देते हुए सरकार द्वारा दायर मुकदमें को खारिज़ कर दिया था। विनोद दुआ का यह कदम सम्पूर्ण मीडिया जगत के लिए भी एक बड़ी राहत देता हुआ दिखाई दिया। वह देश-दुनिया की सभी प्रकार की हलचलों के प्रति बहुत सजग रहते थे। समाचारों की बारीक समझ उनके सवालों में नुकीलापन और तेवरों में साफ दिखाई पड़ता था। उन्हें प्रकाशित खबरों की समीक्षा करने में बेमिसाल महारथ हासिल थी।
      बहरहाल, विनोद दुआ का ऐसे समय जाना पत्रकारिता जगत के लिए ही नही, अपितु देश के संविधान और लोकतंत्र के लिए भी एक बड़ी क्षति के रूप में देखी और आंकी जा रही है। उनकी उपस्थिति मात्र ही बहुत से पत्रकारों के लिए प्रेरणा बनी हुई थी। उन युवा पत्रकारों को सत्ता से लड़ने और टकराने की हिम्मत देती थी जो भारत के लोकतंत्र और उसकी साझी संस्कृति- विरासत को बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
      आज की पीढ़ी के कितने लोग विनोद दुआ को जानते हैं और किस रूप में पहचानते हैं? व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के ज्ञान और ट्रॉलिंग के इस दौर में किसी के अपरिमित व्यक्तित्व और योगदान को पल भर में नष्ट-भ्रष्ट कर लांछित और कलंकित करने की प्रवृत्ति  जोरों पर है,लेकिन जब कभी विनोद दुआ के व्यापक व्यक्तित्व का संपूर्णता में मूल्यांकन होगा तो उन्हें एक साहसी पत्रकार योद्धा के रूप में जरूर देखा जाएगा। आने वाली नस्लें तब जान पाएंगी कि विनोद दुआ नाम का भी कोई टीवी एंकर- पत्रकार हुआ था। दुआ जी को मेरा शत-शत नमन!
लखीमपुर -खीरी यू०पी०

Tuesday, July 20, 2021

‘महेशचंद्र देवा’ अभिनय दुनिया के उभरते हुए सितारे-अखिलेश कुमार ‘अरुण’

साक्षात्कार

महेशचंद्र देवा (अभिनेता)

आप अपने काम को लेकर बहुत ही उत्साहित हैं, आपसे हमारी मुलाकात 2015-16 के दौरान हुई थी। वह मुलाकात एक औपचारिक मुलाकात थी बस परिचय भर हो सका कि आप महेश चन्द्र देवा है और मैं अखिलेश कुमार अरुण। आप अपने चबूतरा पाठशाला पर 15 या 20 बच्चों में व्यस्त थे किसी को चित्रकारी तो किसी को एबीसीडी का ककहरा सिखा रहे थे। आपके काम की तल्लीनता ही आपके सफलता का द्योतक है और आप अपनी पहचान बना पाने में सफल हो सके है एक अभिनेता ही नहीं शिक्षक और गुरु के रूप में भी। लखनऊ को अपना कर्मभूमि बनाने वाले अभिनेता बनने के  साथ ही साथ मलिनबस्तियों से उठाकर बच्चों को रंगमंच की दुनिया से होते हुए फिम्ली जगत में अब तक 40 से 50 बच्चों को लाने वाले जो हजारों-हजार बच्चों और उनके माता-पिता को मान-सम्मान से जीवन जीने के लिए उत्त्साहित करती हैं पल-प्रतिपल। मदर सेवा संस्थान ने 8 साल पहले चबूतरा थियेटर पाठशाला की नींव रखी थी जिसका मकसद था बच्चों के अंतर्निहित प्रतिभाओं को मंच देना हर साल चबूतरा थियेटर फेस्टिवल का आयोजन कर प्रतिभाओं को मंच तक पहुँचाने के साथ-साथ उनके सपनों को भी साकार किया है। आज हिंदी फिल्म जगत में तमाम बच्चे जैसे- आर्यन चौधरी, नीलमा चौधरी, शिखा बाल्मीकि, नैंसी बाल्मीकि, खुशी गौतम, मोनू गौतम, काजल गौतम,मोहम्मद अमन, मोहम्मद सैफ, मोहम्मद आरिफ, सोनाली वाल्मीकि, मानस वाल्मीकि, जितेंद्र शर्मा , हर्ष गौतम, प्रीति वर्मा, सिया सिंह कृतिका सिंह सतप्रीत सरन, समीक्षा सरन जैसी गौतम, पूर्णिमा सिद्धार्थ, दीपक सिद्धार्थ, श्रीकांत गौतम आदित्य कुमार, लकी गौतम आदि बच्चों को रुपहले परदे से रूबरू कराया और संस्थान ने उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाया। एक मिशाल हैं आप, अपने आप में। आपके कार्य की जितनी सरहना की जाये वह कम ही होगा। महेश चंद्र देवा जी से बातचीत के आधार पर आइए जान ते हैं-उनकी जीवनी, उनका कार्यक्षेत्र, और अभिनय की दुनिया के साथ-साथ उनके भविष्य की उन योजनाओं के बारे में-

 

मैं- सबसे पहला प्रश्न मेरा क्या यह होगा कि आपकी शिक्षा कितनी रही है आपका शैक्षिक परिवेश कैसा रहा है, गांव से हैं  या शहर से हैं?

महेशचंद्र देवा जी- स्मृतियों में जाते हुए महेश चंद्र देवा जी बताते हैं कि उनका परिवार मध्यमवर्गीय परिवार रहा था जहां आपके पिताजी सचिवालय में सरकारी नौकरी करते थे जिससे परिवार का खर्च-भर ही चल सकता था, शहरी परिवेश में पले-बढ़ें हैं किंतु आपका लगाव झुग्गी झोपड़ियों के बीच में रहने वाले लोगों से ज्यादा रहा है। अपनी शिक्षा के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अपनी पढ़ाई के दौरान ही पढ़ाई के साथ साथ रंगमंच से जुड़ गए थे. आपकी  शिक्षा-दीक्षा सरकारी विद्यालयों, कॉन्वेंट स्कूल और शिया इंटर कॉलेज से लखनऊ यूनिवर्सिटी तक का सफर रहा है, जिसमें उन्होंने शिक्षा परास्नातक तक की शिक्षा प्राप्त किए हैं, कला में रुचि के चलते उन्होंने कला को अधिक महत्व दिया। रंगमंच की कोई विधिवत शिक्षा न लेकर इस क्षेत्र के विख्यात लोगों के सानिध्य में रख नुक्कड़ नाटक और अन्य नाट्य कार्यशालाओं से अपने अभिनय को निखारा है।

मैं- रंगमंच से आपका बचपन से ही लगाव था जिसमें आप स्कूल स्तर पर नाटकों में भाग लेते रहे किंतु आपको कब ऐसा लगा कि नहीं हमको रंगमंच के दुनिया में जाना चाहिए?

आप कहते हैं कि यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण सवाल है, हमारे जीवन से जुड़ा हुआ.एक बार की बात है  रंगमंच से जुड़ा हुआ बच्चों के द्वारा नाटक प्रस्तुत किया जा रहा था जो लखनऊ में ही था. जहां पर हम को सबसे पहले रंगमंच को करीब से देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहीँ से मन में लालसा जागी कि अब हमें रंगमंच के क्षेत्र में जाना है, आगे आप बताते हुए कहते हैं कि वह पहला अवसर था कि मैं विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भारत की सर्वोच्च रंगमंच संस्था इप्टा में संपर्क किया जहां यह कहते हुए हम को अयोग्य करार दे दिया गया कि आप बहुत दुबले-पतले हैं आपके लिए यह  क्षेत्र उचित नहीं है किंतु हम हिम्मत नहीं हारे उसके बाद दो बार हमने एनएसडी में भी प्रयास किया किन्तु असफल रहे, एक जगह बच्चों का कार्यशाला हो रहा था उसको देख कर हमें लगा कि यही हमारे लिए ठीक रहेगा कुछ शुल्क जमा करके उस कार्यशाला से जुड़ गए जहां से हमारी रंगमंच शिक्षा प्रारंभ होती है।

मैं- क्या आपने रंगमंच की विधिवत शिक्षा ली है अथवा छोटी-छोटी कार्यशालायें ही आपके रंगमंचीय कला को निखारने का माध्यम रही हैं?

महेशचंद्र देवा जी- एनएसडी और इप्टा जैसी बड़े रंगमंच के संस्थाओं से न जुड़ पाने का मलाल था किंतु हमने इसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया, देश के प्रतिष्ठित रंगमंच निर्देशकों के देखरेख में हमने कार्यशालायें की और जहां भी जैसे हमको मौका मिला अभिनय की बारीकियों को सीखता गया। हमारे जीवन में अभिनय को निखारने का सहयोग जिन लोगों से प्राप्त हुआ उनमें प्रमुख नाम है जैसे रंगमंच के जगतगुरु पदम श्री राज बिसारिया जी, राबिन दास, देवेंद्र राज अंकुर, सत्यव्रत रावत, सुधीर कुलकर्णी, ललित सिंह पोखरिया आदि मेरे गुरु रहे हैं, रंगमंच के अतिरिक्त हमने कुछ दिनों तक कत्थक की भी शिक्षा प्राप्त की जिसके गुरु रहे हैं कपिला महराज। उक्त लोगों से रंगमंच शिक्षा में हमने रंगमंच से जुड़े हुए रूप सज्जा, मंच सज्जा, लाइटिंग, अभिनय आदि को सीखा जाना और समझा उनकी बारीकियों को, नुक्कड़ नाटक के गुरु अनिल मिश्रा जी रहे हैं।

मैं- अगला प्रश्न यह कि आपको रंगमंच करते हुए कभी ऐसी परिस्थितियां का समना करना पड़ा कि नहीं यह क्षेत्र अब हमारे बस का नहीं है, इसे छोड़ देना चाहिए?

महेशचंद्र देवा जी- आप अपने पिछले दौर को याद करते हुए कहते हैं कि संघर्ष के दिनों में हमारे पास पैसे नहीं होते थे तो पैदल ही थिएटर से लेकर के नुक्कड़ फिल्म सिटी, जहां तक बन पड़ता था उससे भी आगे तक जाना होता था। अपने काम के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा थी जो हमें हमारी मुकाम देकर गई है। आप कहते हैं कि मैं अपने संघर्ष के दिनों में साइकिल से ज्यादा चलता था। जेब में ऑटो और रिक्शा के लिए पैसे नहीं होते थे, एक दो रूपये जेब में पड़े होते थे साइकिल पंचर हो गई या कुछ बिगड़ गया उसके लिए। मैं विषम से विषम परिस्थितियों में मजबूती के साथ खड़ा रहा। रंगमंच व्यक्ति को जीवन के रंगमंच पर कैसे खुश रहना है और दूसरे को खुश रखना है यह सिखा देता है। रंगमंच के प्रति मेरी जो दृढ़ इच्छा कहिये या त्याग, उसके चलतेहमने सरकारी नौकरी को रंगमंच के लिए त्याग दिया और रंगमंच को ही अपने जीवन का एक मुख्य उद्देश्य बना दिया था। राजश्री पुरुषोत्तम टंडन  मुक्त विश्वविद्यालय से महामहिम द्वारा दिया जाने वाला प्रमाण पत्र  हम लेने इसलिए नहीं गए क्योंकि हमें कबीर जी के जीवन पर नाटक करना था सम्मान से ज्यादा हमारे लिए काम जरुरी था।

मैं- चबूतरा पाठशाला और मदर सेवा संस्थान में पहले किस को स्थापित किया गया था और इसे स्थापित करने का विचार क्यों और कैसे आया आपके मन में इस का उद्देश्य क्या है?

महेशचंद्र देवा जी-रंगमंच जब से व्यवसायिक स्तर पर आया है तब से लेकर के आज तक के समय में बहुत परिवर्तन हो गया है. राजा-महाराजाओं के काल में वंचित समुदाय (भांट,चारण, बहुरुपिया, नट, मदारी आदि)  के जीवन-यापन का साधन रहा है किन्तु अब यही तबका आज अपने इस पुस्तैनी पेशा से दूर हो गया है, १९१३ में दादा साहब फाल्के को राजा हरिश्चंद्र फिल्म में काम करने के लिए कोई महिला कलाकार नहीं मिली थी और आज देखिये..... हमारे चबूतरा पाठशाला का भी यही उद्देश्य है जिनके रगो में रंगमंच का खून दौड़ रहा है उनको इस मुख्यधारा से जोड़ना है जो वास्तव में रंगमंच के कलाकार थे. इसलिए अपने संघर्ष के दिनों में ही मैंने इन वंचित बच्चों के लिए जिसमें रिक्शा चालकों, मजदूर आदि जो दिनभर कुछ न कुछ करके अपना जीवन यापन करते हैं। उनको रंगमंच से जोड़ने के लिए इस मदर  सेवा संस्थान की स्थापना सन 2004 में की गई जिसकी प्रेरणास्रोत इतिहास प्रसिद्ध महिलाएं ज्योतिबा फुले, माता रमाबाई, मदर टेरेसा आदि रही हैं और यह संस्थान सफल भी रहा। आज केवल महेशचंद्र देवा जी प्रदेश ही नहीं देश-विदेश में यह संसथान जाना पहचाना जाता है। 2013 में, मैं अपनी माता जी के प्रेरणा से ‘चबूतरा पाठशाला’ की स्थापना की जो रंगमंच का रेगुलर क्लास करता है, यह पाठशाला वास्तव में प्रकृति के बीच, पेड़ के नीचे, खुले आसमान में जो बच्चे अनाथ हैं, जिनके माता-पिता जेल में बंद हैं, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के बच्चे, रेल की पटरियों से लेकर के रेलवे की कंपार्टमेंट में काम करने वाले बच्चों के लिए उनको साक्षर करने के उद्देश्य से ककहरा सिखाने के लिए इसकी नीव रखी गई. धीरे धीरे रंगमंच का ककहरा कब सीखने लगे पता ही न चला, उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए इसकी शाखाएं-लखनऊ में गोमती नगर, डालीगंज, और विकास नगर में भी स्थापित गया. उनका जो विषय होता था वह इन्हीं लोगों के जीवन पर होता था जैसे- बाल मजदूरी, अशिक्षा, दहेज, नशा पान-पुड़िया आदि को अपने कार्यशाला का मुद्दा बनाया, जिसमें बच्चों ने खूब बढ़-चढ़कर भाग लिया हमें खुशी होती है कि आज 40 से 45 बच्चे हिंदी सिनेमा जगत में काम कर रहे हैं। जिनके पिता  ठेला, रिक्शा चलाते हैं, सब्जी बेचते हैं, आदि. वे फिल्में जिनमें बच्चों ने काम किया है ‘आर्टिकल-15, (फिल्म) मीर नायर की ‘अ सुटेबल ब्याय’, (बीबीसी लन्दन के लिए) ‘जैक्सन’, ‘भोकाल’ (बेवसीरिज) आदि में भी काम कर रहे हैं और अपने अभिनय का लोहा मनवा रहे हैं। मेरा सन 2017 में एक और थिएटर के क्षेत्र में प्रयास रहा ‘थिएटर इन एजुकेशन’ अर्थात पढ़ाई पढ़ाई में रंगमंच कला का ज्ञान, की स्थापना की। लखनऊ के लगभग 100 से 150 स्कूलों में हमने 10,000 से अधिक बच्चों को रंगमंच का ककहरा सिखाया उन लोगों को बताया कि क्या होता है रंगमंच, जिसमें बच्चे अपने भविष्य का सुनहरा अवसर तलाश सके और एक ताना-बाना बुन सकें।

मैं- आप वंचित समुदाय से आते हैं, फिलहाल कलाकारों की कोई जाति नहीं होती। किन्तु क्या?आपने कभी अनुभव किया कि आपको जातीयता का दंस झेलना पड़ा हो?

महेशचंद्र देवा जी- आप रंगमंच के माध्यम से स्पष्ट संकेत देते हैं की सामाजिक बुराई के स्वरूप में जो जाति व्यवस्था है। इसको खत्म करने के लिए तमाम साहित्यकारों और महापुरुषों ने समय-समय पर अपनी लेखनी चलाई है और लोगों को जागरूक किया है। ऐसे में संघर्ष के दौरान जातीयता रूपी जहर का असर नाम मात्र के लिए हुआ होगा, इसका कोई स्पष्ट अंकन हमारे दिमाग में अभी तक नहीं है क्योंकि रंगमंच से जुड़ा हुआ हर एक कलाकार अपने कार्य को महत्व देता है। अपने कार्य के अनुरूप ही वह सफलता प्राप्त करता है, वह अलग बात है कि उसके जीवन में कभी ऐसा भी पल आया हो या इसको झेला हो यह उसके लिए बस चलते हवा का झोंका जैसा है। अपने काम पर ध्यान देना चाहिए आपका परिश्रम आपके सफलता का बिगुल बजाने लगे, आप देखेंगे की एक से एक कलाकार जो वंचित समुदाय से रहें वह फिल्म दुनिया में आज नाम कमा रहे हैं और अपने नाम से जाने और पहचाने जाते हैं।

मैं-आपको रंगमंच से अलग हटकर फिल्मी जगत पहला ब्रेक कब और कैसे मिला?

महेशचंद्र देवा जी-इस प्रश्न पर आप कहते हैं कि फिल्म जगत में अपनी पहचान बनाने के लिए या अपने काम को लेकर के ढेर सारे लोगों से भिन्न-भिन्न जगहों पर मिलना पड़ता है। अपनी बात रखनी पड़ती है और आपका काम, आपका व्यवहार कब किसको पसंद आ जाए और आपको एक मौका दे दे। आपके जीवन का वह सबसे बड़ा सुनहरा पल होता है। हमें पहला जो ब्रेक फिल्म में मिला वह दुर्भाग्य से हमारा जो कैरेक्टर था किसी दूसरे को दे दिया गया और उसके बाद जो दूसरी फिल्म आई वह भोजपुरी फिल्म थी जिसमें हम बतौर गीतकार अपना चरित्र निभा रहे थे, जहाँ से अभिनय का सफर शुरू होकर हिंदी बॉलीवुड से लेकर के हॉलीवुड तक हमने फिल्म की सभी में छोटे-मोटे रोल हैं। लगभग 30 से 35 फिल्मों की की लिस्ट है जिसमें हमने काम किया है जैसे-मीलियन डालर आर्मस् (हालीवुड), कोरिया की द प्रिंसेस आफ अयोध्या अभी-अभी कागज फिल्म आई है जिसमें हम एक टाइपिस्ट की भूमिका में हैं इसके साथ-साथ अवधी, भोजपुरी, हिंदी भाषाओँ की फिल्मों में हमें चरित्र अभिनय करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जो आज भी अनवरत जारी है।

मैं-आपकी भविष्य में आने वाले कौन-कौन सी फिल्में हैं उसकी जानकारी मिल जाए तो......?

महेशचंद्र देवा जी-इस पर आप हंसते हुए कहते हैं यह सौभाग्य है जो वर्तमान समय में हमें खूब काम मिल रहा है। उनमें से से कुछ फिल्में हैं प्रयागराज,  चूना वेबसीरिज (नेट क्लिप्स), हुड़दंग जो मंडल कमीशन पर बनी है जो 90 के दशक की फिल्म है जिसमें हम इंस्पेक्टर की भूमिका में हैं, कीड़ा घर वेब सीरीज, डब्ल्यू बैचलर हरमन जोशी के साथ इस प्रकार से 10 या 15 फिल्में हैं जो इस साल के अंत तक  आ जाएंगी। टीवी सीरियल में ‘और भाई क्या चल रहा है’ सावधान इंडिया में ‘क्राइम अलर्ट’ आदि।

मैं- आज तक के अपने रंगमंचीय सफर और सिनेमा जगत मैं प्राप्त उपलब्धियों से अपने को कितना संतुष्ट पाते हैं इसके बारे में कुछ बताएं?

महेशचंद्र देवा जी- हमारे लिए हमारा कार्य है हमें संतुष्टि प्रदान करता है क्योंकि हम अपने कार्य के प्रति जितना ईमानदार रहेंगे उतना ही हम अपनी पहचान बनाने में सफल रहेंगे। अपने कार्य से ज्यादा हमको संतुष्टि उनमें मिलती है जो बच्चे आज झुग्गी झोपड़ी और मलिन बस्तियों से निकलकर बड़े-बड़े सिनेमा जगत के कलाकारों के साथ काम करते हैं, बदले में उन्हें पैसे भी मिलते हैं। उनके साथ रहने खाने का मौका मिलता है। जो बरबस आंखों में आंसू ला देते हैं किन्तु ये आंसू खुशी के आंसू होते हैं यह हमारे लिए सबसे बड़ी संतुष्टि और संतोष है।

मैं-अब चलते चलते अंतिम प्रश्न की आप फिल्मी दुनिया या रंगमंच से जुड़े हुए युवकों के लिए जो अपना भविष्य तलाश रहे हैं उनको आपका क्या संदेश है?

महेशचंद्र देवा जी-वास्तव में आज के युवा वर्ग बहुत जल्दी सफलता की सीढ़ी चढ़ना चाहते हैं।सफल न हो पाने पर अपने को ठगा हुआ पाकर अवसाद में चले जाते हैं जिसका परिणाम बहुत बुरा होता है। इसलिए हमारा कहना होगा की इस क्षेत्र में कलाकार को धैर्य के साथ अपने कार्य के प्रति इमानदार रहते हुए अपना कार्य करते रहना चाहिए यानी ‘संघर्ष जितना बड़ा होगा मुकाम भी उतना बड़ा होगा’ बस यही आपके सफलता का सूत्र है जो आपको एक सफल कलाकार बना सकता है।

बहुत-बहुत धन्यवाद।।।

शुक्रिया।।।।

डिप्रेस्ड एक्सप्रेस अगस्त अंक २०२१ में प्रकाशित

साक्षात्कार/लेखक-
अखिलेश कुमार ‘अरुण’
ग्राम-हजरतपुर,पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर(खीरी) उ०प्र० 
262804 मोबाइल-8127698147

 

Friday, June 11, 2021

चित्त रंजन गोप, लिये लुकाठी हाथ -सुरेश सौरभ


   साक्षात्कार  

चित्तरंजन गोप
आज हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में चित्तरंजन गोप एक चर्चित एवं सुपरिचित नाम है। मील आज हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में चित्तरंजन गोप एक चर्चित एवं सुपरिचित नाम है। मील का पत्थर है। देश की प्राय: समस्त लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं छप रहीं हैं। सबसे बड़ी बात, वे पहले लघुकथाकार हैं जिन्हें लघुकथा के लिए किसी पत्रिका में स्थाई स्तंभ मिला हो। प्रखर गूंज प्रकाशन नई दिल्ली की पत्रिका 'विचार वीथिका' में उन्हें 'लिये लुकाठी हाथ' नामक लघुकथा का एक स्थाई स्तंभ दिया गया है। प्रस्तुत है, पिछले दिनों उनसे हुई बातचीत के मुख्य अंश :


*
सर, सबसे पहले आपको लघुकथा का स्थाई स्तंभ मिलने के लिए बधाई। इस स्तंभ के बारे में कुछ बताएं?

 *जी धन्यवाद, प्रखर गूंज प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित मासिक पत्रिका 'विचार वीथिका' ने स्वत: संज्ञान लेते हुए मुझे यह स्थाई स्तंभ ( लिये लुकाठी हाथ ) दिया है। मैं उनका शुक्रगुजार हूं। खुश हूं कि मैं अपनी लघुकथाओ से इस स्तंभ को मजबूती देने के लिए हमेशा तत्पर रहूंगा।

*आपका लेखन किस उम्र में शुरू हुआ?

*जब मैं पांचवीं श्रेणी में पढ़ता था, उस समय बांग्ला में कविताएं (बच्चों की तरह ही) लिखा करता था। मुझे याद है, मैंने कविताओं से एक कॉपी भर दिया था। उसे देखकर पिताजी ने डांटते हुए कहा था, "पहले अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। बाद में, रवीन्द्र नाथ ठाकुर बनना।" उस दिन मैंने रवीन्द्र नाथ ठाकुर का नाम पहली बार सुना था।

*आपको लेखन में किस-किस ने प्रेरित किया?

*जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था, तब बांग्ला रामायण एवं महाभारत का पाठ किया करता था। कृत्तिवास ओझा की रामायण और काशीराम दास का महाभारत अद्भुत ग्रंथ हैं। इन्हीं दो ग्रंथों ने मुझे साहित्य लेखन की कलम पकड़ा दी।

* क्या आपकी पढ़ाई बांग्ला माध्यम से हुई है?

* जी नहीं, हिंदी माध्यम से। बांग्ला मैंने घर में सीखी है। रामायण-महाभारत के अध्ययन ने इसे परिष्कृत किया है। बाद में, शौक से बांग्ला साहित्य का भी अध्ययन किया है।

* रामायण एवं महाभारत को आप किस रूप में देखते हैं?

*ये दोनों मिथक हैं। रामायण पूर्णत: काल्पनिक एवं महाभारत अल्प-सत्य महाकाव्य हैं। इनमें इतिहास का बीज है। ये इतिहास का पूरा आभास देते हैं। इनमें तत्कालीन समाज की पूरी रूपरेखा मिलती है। हां, यदि पाठक ,ज्ञान सचेतन न हो, तो इनके अध्ययन से वह गुलाम जरूर हो जाएगा।

* आपके पसंदीदा लेखक और लेखिका कौन कौन है?

*इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए कठिन है क्योंकि किसी भी लेखक को मैंने समग्रता से नहीं पढ़ा है। वैसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर, शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, महाश्वेता देवी, प्रेमचंद, रामवृक्ष बेनीपुरी, तस्लीमा नसरीन, रमाशंकर यादव विद्रोही, मलखान सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि, धूमिल आदि का नाम ले सकता हूं।

*आपके लेखन का मूल उद्देश्य क्या है?

* सच कहूं तो कोई उद्देश्य लेकर नहीं लिखता हूं। जब कोई बात या कोई घटना मेरे भीतर को झकझोर देती है, तो स्वत: कुछ लिखा जाता है। बाद में, सोचता हूं कि इस रचना के माध्यम से मैं समाज को क्या संदेश दे सकता हूं और उस संदेश को उसमें प्रतिस्थापित कर देता हूं।

* हिंदी साहित्य की किन-किन विधाओं में लिखते हैं?

*फिलहाल तो केवल लघुकथा और कविता।

* आपकी पहली प्रकाशित लघुकथा कौन सी है?

*अकाल जन्म। दैनिक जागरण की 'पुनर्नवा' में 3 दिसंबर 2012 को यह लघुकथा छपी थी। हालांकि मेरी लिखी हुई पहली लघुकथा 'दस दहाई सौ' है जो हाल में लघुकथा कलश के जुलाई-दिसंबर 2019 अंक में छपी है।

*आपकी प्रकाशित कुछ प्रमुख लघुकथाओं के नाम?

*दस दहाई सौ, अकाल जन्म, हरामखोर, एक ठेला स्वप्न, परिवार के सदस्य, कंधे पर लाश, हजार साल बाद, सरस्वती पूजा, ऐतिहासिक भ्रातृ मिलन, मरहम आदि।

*और प्रमुख कविताएं?

*खरीदारी, पूजा की साड़ी, माटी से दूर, क्या कभी देखा है आपने, कासगंज की उस गली से होकर, आदमखोर : आदमी और शेर आदि।

*पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएं।

*मेरा जन्म एक किसान परिवार में हुआ है। गाय-भैंस का कारोबार था। दूध बिक्री जीविकोपार्जन का मुख्य आधार थी। मगर मेरा काम केवल पढ़ना था। मुझे इन सब कामों में हाथ बंटाने के लिए किसी ने कभी नहीं कहा बल्कि मना ही किया। परिवार में मां, पिताजी, पत्नी, एक बेटा और दो बेटियां हैं। पिताजी किसान हैं और एक अध्ययनशील व्यक्ति भी। पत्नी मेरी तरह ही रवीन्द्रानुरागिनी हैं।

* क्या आप सामाजिक संगठनों से भी जुड़े हैं?

*नहीं। बस, चलते-फिरते किसी की कोई मदद करने का मौका मिलता है, तो कर देता हूं।

* आज के समय में स्त्री और दलित विमर्श कितना सफल और कितना असफल रहा है? इसकी क्या प्रासंगिकता है?

*आज स्त्री और दलित विमर्श पर खूब लिखा जा रहा है। लिखा जाना भी चाहिए क्योंकि उनका हजारों सालों से शोषण होता आ रहा है। वे आज भी बदतर स्थिति में हैं। हां, लेखन तो खूब हो रहा है मगर जिनके लिए लिखा जा रहा है, बात उन तक पहुंच नहीं रही है। वे जागृति से कोसों दूर है। इस पर विशेष रूप से सोचने की जरूरत है।

* आपकी रचनाएं लीक से हटकर होती है, ऐसा क्यों?

*क्योंकि मेरी सोच ही लीक से हटकर है।

*आप देश और समाज के उत्थान के लिए क्या सोचते हैं?

* मैं सोचता हूं कि दुनिया के अधिकांश देशों की तरह हमारे देश में भी जन्म लेने वाला बच्चा केवल और केवल एक मानव-शिशु के रूप में जन्म ले।

*किसी कहानी पर कोई फिल्म या धारावाहिक का निर्माण हुआ है?

*नहीं भाई। मैं उस योग्य हूं भी नहीं।

* अभी तक आपको कौन-कौन से पुरस्कार और सम्मान मिले हैं?

*उल्लेख करने लायक तो कोई सम्मान या पुरस्कार नहीं मिला है। शायद उस योग्य भी मैं नहीं बन पाया हूं।

*आप अपनी जन्म तिथि एवं जन्म स्थान का कुछ विवरण दें।

* मेरी जन्म तिथि 9 अप्रैल 1973 है। झारखंड के बोकारो जिले के चंदनकियारी क्षेत्र में जंगल से घिरा एक छोटा-सा गांव है-- बांसगाड़ी। वही मेरा जन्म स्थान है। फिलहाल मैं धनबाद के निरसा में अध्यापक के पद पर कार्यरत हूं। महीने में एक-दो बार गांव जाता हूं।

* लेखन में आगे की कोई योजना?

*कोई योजना नहीं क्योंकि मैं थोक में लिखने वाला नहीं हूं। मन के उफान को शांत करने के लिए कभी-कभार लिख लेता हूं। मगर हां, ठोक बजाकर लिखता हूं।



-सुरेश सौरभ

निर्मल नगर लखीमपुर खीरी

पिन-262701

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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