साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Friday, April 01, 2022

भ्रष्टाचार का अंत नहीं-अखिलेश कुमार अरुण

व्यंग्य कहानी

अखिलेश कुमार अरुण
तकनिकी/उपसम्पादक
अस्मिता ब्लॉग
मेवालाल जी स्थानीय छुटभैये नेताओं में सुमार किये जाते हैं। उनकी पुश्तैनी नहीं अपनी पहचान है, जिसे अपने खून-पसीने की खाद-पानी को डालकर पल्लवित-पोषित किया है। हर एक छोटे-बड़े प्रस्तावित कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह किसी के खास नहीं और सबके खास हैं। ऊपर से कहीं-कहीं तो उनही उपस्थिति कुछ खास लोगों को खलने लगती है। इनकी उपमा उन लोगों के लिये राहु-केतु या काले नाग से कम की न होगी विचारे तिलमिला के रह जाते हैं पर कुछ कर नहीं पाते हैं। इनकी जान-पहचान आला-अफ़सरों से लेकर गाँव-घर के नेताओ से, सांसद तक है।

छोटी-बड़ी सभी चुनाव में हाथ आज़माते हैं, जीतने के लिये नहीं हारने के लिये ही सही एक पहचान तो बने, जहाँ जनता इनके खरे-खोटे बादों से तंग आकर चैथी-पाँचवीं जगह पर पहुँचा देती है, कुछ चुनावों का परिणाम तो ऐसा है कि जमानत जब्त करवा कर मुँह की खाये बैठे हैं। मानों वह चुनाव ही चिढ़कर मुँह फिरा लिया हो ‘क्या यार! हमारी भी रेपोटेशन की ह्वाट लगा देता है, सो इनका अब भविष्य में चुनाव जीतना तो मुष्किल ही है पर यह हार कहाँ मानने वालों में से हैं। समाजसेवी विचारधारा के हैं हर एक दुखिया का मदद करना अपना परम्कत्र्तव्य समझते हैं। और तो और इनका सुबह से शाम का समय समाज के कामों में ही गुजर जाता है। परिणामतः इनके तीन बच्चों में से कोई ढंग से पढ़-लिख न सके, गली-मोहल्ले, चैराहों की अब शान कहे जाते हैं।

इनका अपना स्वप्न यह है कि अपने जीवन काल में भारत से भ्रष्टाचार मिटा देना चाहते हैं। इस स्वप्न को साकार करने के लिये जहाँ कहीं जब भी मौका मिलता है अन्ना हजारे आन्दोलन के कर्णधार बन बैठते हैं। उन्हें अपना आदर्ष मानकर आन्दोलन करते हैं, भूख हड़ताल इनका अपना पसंदीदा आन्दोलन है, गले तक खाये-पीये हों वह अलग बात है, जिले का हर अधिकारी इनको अपने कार्यकाल में मुसम्मी, अनार का जूस पिला चुका होता है। उसका कार्यकाल क्यों न चार दिन का ही रहा हो, पहचान बनाने का उनका अपना यह तरीका अलग ही है।

अपने कार्यक्रमों में चीख-चीख कर चिल्लाते हैं न लेंगे न लेने देंगे यह हमारा नारा है। भाईयों-बहनों हम गरीब-मज़लुमों पर अत्याचार होने नहीं देंगे, ‘‘सत्य का साथ देना हमारा जन्मसिध्द अधिकार है।’’ इनका अपना सिध्दान्त है जिसे एक सच्चे वृत्ति के तरह धारण किये हुये हैं।

सेवा का चार्ज लेने के बाद यह मेरे सेवाकाल की दूसरी पोस्टिंग थी। विभाग में नये होने के चलते जगह बदल-बदल कर मुझे मेरे अपने क्षे़त्र में पारंगत किया जा रहा था। मुझसे मेरे विभाग को बड़ी आषा थी, जो मेरे से अग्रज थे वह तो नर्सरी का बच्चा समझकर हर एक युक्ति को सलीके से समझा देना चाहते थे। कक्षा में कही गई गुरु जी की बातंे एक-एक कर अब याद आ रहीं थी कि व्यक्ति को पूरे जीवन कुछ न कुछ सीखना पड़ता है, इसी में जीवन के पैतीस बंसत पूरे हो गये पता ही नहीं चला पर जो आज सीखने को मिला वह जीवन के किसी भी पड़ाव पर शायद भूल नहीं पाऊँगा।

मैं अपने काम में व्यस्त किसी मोटी सी फाईल में खोया था तभी एक आवाज आई, ‘नमस्ते बाबू जी।’

‘हाँ नमस्ते।’

‘पहचाना सर, मुझे। सफेद कुर्ता-पाजामें में एक फ़रिस्ता मुस्करा रहा था, शायद......... एक कुटिल मुस्कान।

मुझे पहचानने में देर न लगी, अरे! मेवालाल जी, आप?’

‘हाँ बाबू जी’ कहते हुये कुरसी पर आ विराजे, मैं श्रृध्दा से मन ही मन उनको नमन किया। और शब्दों में शालीनता का परिचय देते हुये कहा, ‘कहिये।’

बोले कुछ बोले बगैर, एक फाईल मेज पर सरकाते हुये मुस्करा रहे थे, ‘साहब देख लीजियेगा, मेरा अपना ही काम है।’

और अगले ही पल आॅफिस से जा चुके थे, कौतुहलवश फाईल खोलकर जल्दी से जल्दी देख लेना चाहता, आखिर काम क्या है? जिसे लेकर एक ईमानदार छवि का व्यक्ति मेरे सामने आया है। जिसमें गाँधी, अन्ना हजारे जैसे उन तमाम तपस्वियों की झलक दिखती है जो भ्रष्टाचार को मिटाने के लिये एक पैर पर खड़े रहते हैं। उसके लिये मेरा काम करना तो किसी बड़े यज्ञ में आहुति देने के समान है, मैं अपने छात्र जीवन में ऐसी ही क्रान्ति करना चाहता था। जहाँ भ्रष्टाचार का नाम नहो ऐसे मेरे देश की विष्व में पहचान बने। इसी विचारमग्नावस्था में फाईल को खोला तो लगा जैसे किसी ने मेरे स्वप्न पर एकाएक ताबड़तोड़ प्रहार कर दिये हों, उसमें से दो हजार के रुपये वाला गाँधी जी का चित्र बेतहासा मुझ पर हंसे जा रहा था।
(पूर्व प्रकाशित रचना 'भ्रष्टाचार' मरू-नवकिरण, राजस्थान से वर्ष 2018 और मध्यप्रदेश  से इंदौर समाचार पत्र में 4 अप्रैल 2022 को प्रकशित)

ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर(खीरी) उ प्र २६२८०४
दूरभाष-8127698147

Friday, December 10, 2021

बलमा-लेखाकृति

कहानी

            बलमा आज से पांच बरिस पहिले गांव के रमेसर चा के साथे बहरा कमाने गया था।रमेसर चा पेपर मील में काम करते थे त बलमा को भी वहीं काम पर रखवा दियें। 
घरे अनकर खेत में बनिहारी करे वाला बलमा, बाबूजी के साथ सालो भर देह झोंके के बाद भी घर की हालत में कोई सुधार न कर पाया था । जी तोड़ मेहनत करे वाला बलमा कभी दु कलम पढ़े पर ध्यान ही न दिया।उ त अब जब गांव से निकल के यहाँ आया है त देख रहा कि और सब लोग तो ओकरे जइसन है बाकी कुछ लोग अलगे झलक रहे।पहनावा,ओढावा, बोली सब कुछ उन्हें भीड़ से अलग कर रहा।
मतलब कौआ के झुंड में हंस जैसा सब झलक रहें।
रमेसर चा भी पढ़ल लिखल न हैं बाकी उनको दूसरा से जादे मतलब न हैं।
ईमानदारी से अपन काम करते हैं जे तनखा मिलता ओकरा में से अपन खर्चा रख के बाकी के पैसा घरे मनी ऑर्डर लगा देते।रमेसर चा को देखके बलमा के मन हुआ कि उ भी कुछ पैसा घरे लगा दें।फिर कुछ सोच के पोस्ट ऑफिस न गया।
उसको तो पढ़े लिखे बाबुओं जैसा बनना था।मतलब उसी तरह के कपड़े,उनके जैसी चाल ढाल आदि।
बस यही सोच वो अपनी कमाई खुद पर खर्च करने लगा।
देखते देखते बलमा एकदम से शहरी बाबू बन गया।हां पैसे से सब कुछ खरीद तो लिया बस एक ही चीज वो न कर सका।
वो था करिवा अक्षर से दोस्ती।
अब मील मजदूर को न तो उतनी फुर्सत ही कि पढ़ाई लिखाई कर सके और न ही घण्टों कमर पीठ सोझ और गर्दन टेढ़ करके पढ़े में बलमा की कभी कोई रुचि ही रही।न तो ई बाइस बरिस तक का ई अइसहीं रहता?
खैर साल भर में तो बलमा अपना हुलिया ही बदल लिया।
जब कभी पहन ओढ़ के निकलता तो अनचके तो उसे कोई पहचान ही न सकता।
झक सफेद कुर्ता,ब्रासलेट की धोती जिसकी खूंट कुर्ता के दायीं जेब में।
भींगे बालों में एक अंजुरी चमेली के तेल डाल जब रगड़ के बाल झटकता तो लगता कि इंद्र भगवान आज इत्र लगाके बरसे वाले हैं।
बालों में तेल अच्छे से जज्ब हो जाने पर दीवार पर टँगी छोटकी ऐनक में देख के कंघी से टेढ़की मांग फाड़ बालों को सटीयाता।कभी कभी तो पानी व तेल के मेल मिलाप के बाद भी चांदी पर के दु चार केश विद्रोह कर उठ खड़ा होता तो ऐसे में बलमा कंघी एक किनारे रख हाथों से ही खड़े बालों को सटीयाने लगता।
धूप रहे चाहे न , बदरी बुनी के आसार भी न हो तब भी बलमा बिन छाता के घर से न निकलता।
आंख पर चश्मा और दायीं कलाई की एच एम टी घड़ी में तो जैसे उसकी जान बसती थी।
अबकी तनखा में चमड़ा के एगो बैग भी खरीदा ई सोच के कि अबकी फगुआ घरे जाएंगे।
फगुआ में घरे जाए में कोई दिक्कत न हो यही से महीना भर पहिलहीं से सब तैयारी में लगल था।माई ला साड़ी, त बाबूजी ला धोती,कुर्ता के कपड़ा,गमछी और एक सुंदर सी साड़ी अपनी अनदेखी पत्नी के लिए जो बियाह में त न आई थी बाकी पांच बरिस पर बाबूजी फगुआ में गौना करा के घरे ले आये हैं।
रमेसर चा के घरे से आवे वाला चिठ्ठी में बलमा के लिए भी ई सन्देश था,
" बाबू बालम को मालूम हो कि समधी साहेब के बेर बेर कहे पर हम कनिया के गौना करा के ले आयल ही ।एहि से बाबू तोरा कहित ही कि फगुआ में जरूर से जरूर घरे चल अइह।"
              मील में छुट्टी तो अभी न हुआ है बाकी बलमा सप्ताह दिन पहिलही से सबके कह दिया था कि अबकी फगुआ उ घरे जा रहा। चार रोज दिन अछते बलमा घरे जायला गाड़ी धर लिया।रेल के सफर में ही दु रोज कट गया। जब टीसन पर उतरा त वहीं नहा धो के तैयार हुआ।परदेश से अपन जगह आयते बलमा का मन भर आया।यहाँ चहुं ओर होली की सुगबुगाहट थी।
अब इहाँ से घरे के बस पकड़ेगा त सांझ-सांझ ला घरे चहुँप ही जायेगा। उबड़ खाबड़ कच्ची राह और बस का सफर दु घण्टा के राह में छः घण्टा लगाएगा।
       बलमा बढ़िया से तैयार होके टीसन से निकला त राह चलते लोग ठहर से गये।
घीया रंग के सिल्क के कुर्ता, सुपर फाइन धोती,उसकी खूंट को दाहिनी जेब के हवाले किये ,दाहिनी कलाई में एच एम टी स्विस घड़ी बांध आंखों पर बिन पावर का चश्मा चढ़ाये एक हाथ में चमड़ा के करिया बैग त दूसरे में छाता थामे बस स्टैंड की ओर बढ़ा।
बस का टिकट ले निश्चिन्त होता तभी अखबार वाला दिखा।कुछ सोच अठन्नी जेब से निकाल एक अखबार खरीदा।
अखबार वाला बलमा के रूप रंग से इतना मोहित हुआ कि वो अंग्रेजी अखबार पकड़ा दिया।
वैसे भी बलमा के लिए का हिन्दी का अंग्रेजी?
सब धन तो बाइस पसेरी तो निर्विकार भाव से अंग्रेजी अखबार लिए बस में सवार हुआ।
अपनी सीट पर अब आराम से बैठ
बैग, छाता सब अच्छे से रख अखबार हाथ में लिया तो भरी बस की नजरें बलमा पर जा टिकी।
कम से कम ई बस जहां तक जाती है उसमें बैठे वाला कभी कोई किसी को अंग्रेजी अखबार पढ़ते तो अब तक न देखा।
बलमा के हाव भाव से लोग स्वतः दूरी बरत रहें।
बलमा में आत्मविश्वास तो बहुत है पर ....
बलमा अखबार खरीद तो लिया बाकी खोलकर पढ़ न रहा,पढ़ना तो वैसे भी न आता बाकी अखबार सीधा पकड़ाया है या उल्टा आखिर ई भी तो कोई बात है?
एक व्यक्ति थोड़ी मित्रता के ख्याल से आगे बढ़ कर पूछा.....
भाई जी कोई खास समाचार?
बलमा चश्मा के अंदर से झांक देखा,बिना प्रत्युत्तर अखबार उसकी ओर बढ़ा दिया।
पूछने वाला बिना अखबार लिए वापिस अपनी जगह जा बैठा।
बस हिचकोले खाती अपनी सफर पूरा की।सब लोग बस से उतर अपनी अपनी राह चले।बलमा को घर तक पहुंचने में करीब पांच कोस की दूरी तय करनी अब भी शेष थी। कलई में बंधी घड़ी से ज्यादा भरोसा बलमा ढलती दिन से अंदाजा लगा रहा कि शाम के चार बजे गए होंगे।
गांव तक जाने का रास्ता तो दो, तीन है।एक रास्ता नदी के किनारे किनारे से होकर है बलमा घर पहुंचने की जल्दी में आज उसे ही चुना।
हाँ रास्ते में छोटा मोटा बाजार भी मिला।जहां होली के सर सौदा लेते लोग बाग से बाजार गुलजार दिखा।कहीं बच्चा पिचकारी के लिए दादा से जिद कर रहा, तो कोई अपन पसन्द के कमीज न खरीदाय पर माई के अंगूरी छोड़ वहीं लोट पोट हो रहा । कहीं दुकान पर रेडियो बज रहा जिसमें होली के गीत सुन बलमा का मन मिजाज भी रंगीन हो रहा।
        भीड़ भरे बाजार से बलमा निकल पाता तभी पास के गांव की रघुआ की नजर उस पर पड़ी।
रघुआ कुछ सोच, भाग कर अपने मालिक के पास पहुंचा।उसको इस तरह हाँफते देख .....
का रे !!
हाँफइत काहेला हे?
रघुआ सुख चुके गले से थूक घोटते हुए....
मालिक !!
मालिक!!
उ पहुना !!!
मालिक घुड़कते हुए....
का कहित हे रे?
आजे से का चढ़ गेलउ?
रघुआ अपने गले में पड़ी कंठी पकड़ ....
ना मालिक सच्चो!!
पहुना आवित हथन!!
अभी त बाजरे में हथन!!
मालिक राम जतन बाबू जो अपनी बेटी का ब्याह चार बरिस पहिले तो किये हैं बाकी अभी गौना न किये हैं,यही अगहन करेला सोच रहे थे।
अब पहुना फगुआ में बिन गौने आ जाएंगे ई त कभी सोचबे न किये थे।
बिन गौने ससुरारी में कोई पहुना आवे त ई भारी शिकायत के बात हे।उ भी राम जतन बाबू जइसन रसूख वाला ही।
राम जतन बाबू....
देख रघुआ अभी कोई से हल्ला न करीहें न त तोरा....
रघुआ मुड़ी नीचे किये...
न मालिक!
रामजतन बाबू हलकान परेशान से जनानी किता में गयें।
असमय घर आये रामजतन बाबू को देख पत्नी गौरी भी हड़बड़ाई सी सम्मुख हुई।
गौरी......
का होएल?
रामजतन बाबू ड्योढ़ी लांघ अंदर कमरे में आये।पीछे पीछे गौरी भी कपार पर आँचरा सम्हारती आई।

रामजतन बाबू.....
सुन!!
पहुना आवित हथन!!
अभी रघुवा देख के आवित हे!!
गौरी को भी कुछ न समझ आ रहा।
इज्जत के बात हे ,का कयल जाय।
फिर दोनों पति-पत्नी आपसी मन्त्रणा के बाद पहुना के स्वागत की तैयारी में जुट जाते हैं।
हाँ ख्याल इस बात का भी है कि बात बाहर न जाय इसलिए तय किया गया कि, जब पहुना बाजार पार करके आगे बढ़े और तनी धुंधलका हो जाय त दु आदमी भेजके बोलवा लेंगे आउर उ इहहिं जनानी किता में ही रहेंगे।
फगुआ का गहमागहमी था ही इसलिए थोड़ा और बदलाव ज्यादा किसी का ध्यान न खींचा।यहाँ तक कि रामजतन बाबू की इकलौती बेटी चन्द्रज्योति भी ई सब से अनजान थी।
वो तो सखियों संग होली के हुड़दंग की तैयारी में लगी थी।
इधर बलमा को भीड़ भरे बाजार से निकलते निकलते शाम का धुंधलका बढ़ने लगा।बलमा बैग में रखा टॉर्च निकालने सोच ही रहा था तभी पीछे से टॉर्च की रौशनी और किसी के कदमों की आहट से वो पीछे मुड़ा तो देखा कि,
दो आदमी हाथ में लाठी व टॉर्च लिए 
करीब आ रहे है।
बलमा कोई निर्णय ले पाता तब तक दोनों करीब आ उसके हाथ से छाता व बैग ले लिया।बलमा की घिघ्घी बन्ध गई।
वो गूंगा सा उनके पीछे पीछे चलने लगा।
थोड़ी देर के बाद बलमा किसी हवेलीनुमा घर के बाहर खड़ा था।पहले से तय योजनानुसार बलमा को हवेली के पीछे वाले दरवाजे से जनानी कित्ता में पहुंचा दिया गया।जहाँ पहले से ही कुछ महिलाएं पहुना के स्वागत में थी।
बलमा किससे क्या कहे तय न कर पा रहा?
जब तक मुंह खोलने सोचता कोई न कोई हंस कर उसे चुप करा देता।
अब तक चन्द्रज्योति को भी माँ से पता चल गया कि वो बिन गौने आ गए हैं....
चन्द्रज्योति के गुस्से का ठिकाना नहीं पर माँ उसे समझा बुझा के शांत की।
होली के रंग की खुशी जो उसके चेहरे पर चढ़ी भी न थी पल भर में उतर गई। 
उधर बलमा का स्वागत घर की पहुना की तरह हुआ।
कोई जूता खोलने में मदद कर रहा तो कोई परात में गोड़ धो रहा।
चन्द्रज्योति के कमरे को बढ़िया से बर बिछौना लगा के बलमा को वहीं पहुंचा दिया गया।
फागुन बीत रहा था दिन में गर्मी त रात थोड़ी ठंढी सिहरन भरी।बलमा को अब डर लगने लगा।कुछ बोलने की हिम्मत ही न जुटा पा रहा कि का पता असलियत जनला पर सब का करेगा?
बस मने मन गोरिया बाबा को मनौती भख रहा कि यहाँ से सही सलामत घरे चहुँप जाएंगे त ई होली में कबूतर चढ़ाएंगे।
बलमा के स्वागत सत्कार में कोई कमी न रखी गई।एक से बढ़कर एक मर मिठाई परोसा गया।बलमा तो डरे किसी चीज को हाथ भी न लगा रहा। जब तक नाश्ता को बलमा भर नजर देखता तब ला अगजा का बरी, बचका, कचरी पकौड़ी सब बलमा के सामने धरा गया।
बलमा को न खाते देख रिश्ते की सरहजें चुटकी भी ली....
खा ला पहुना!!
चन्द्रज्योति खियात्थु तब्बे का खयबअ?
अब ई नाम सुनकर बलमा का तो खून ही सुख गया।
डर के मारे उ क्या खाया उसे कुछ न पता न स्वाद न रंग।बस गटागट गिलास भर पानी पी गया।
सब हंसने लगीं।बलमा को कोई हाथ धोने तक न उठने दिया।सब कुछ सामने हाजिर।
बलमा का छाता व बैग कमरे में पहुंचा दिया गया। सरहजें बलमा को खाना पीना करवा आराम करने कह किवाड़ भिड़ा चली गई।
अभी तक बलमा जो कुर्सी पर बैठा था उसको हिम्मत न हो रही कि वो इस राजसी पलँग पर जाकर लेट जाय।
बहुत देर तक यूँ ही बैठा यहाँ से निकलने की जुगत भिड़ाता रहा।तत्काल तो कोई रास्ता न सूझ रहा ऊपर से सफर की थकान।नींद से हार वो पलँग के एक किनारे सहम कर पड़ गया।पड़े पड़े आहटों से अंदाजा लगाता रहा कि लोग अभी जगे हैं।
उधर चन्द्रज्योति को कितना कहने पर भी वो उस कमरे में जाने को तैयार नहीं।
गौरी को खराब भी लग रहा कि पहुना एक तो बिन गौने फगुआ में आयलन हे!
आउर ई लड़की बात न समझइत हे!
आखिर पहुना का सोचतन?
चन्द्रज्योति की रिश्ते की भौजाइयाँ जो अब तक बलमा की खातिरदारी में लगी थी....
वो चुहलबाजी कर करके रोती, ठुनकती चन्द्रज्योति को हंसा कर ही दम ली।
घर के पुरुष सब आगजा में शामिल होने गए थे। 
इधर बलमा सब से बेखबर नींद की पहलू में।
भौजाइयाँ चुहल करती चन्द्रज्योति को तैयार करने में लगी थी।
चन्द्रज्योति के नखरे उसके श्रृंगार को और भी निखार रहे।
अंततः पूनम की रात और चन्द्रज्योति का श्रृंगार।
चाँदनी भी उसकी खिड़की से झाँक उफ!! बोल गई।
दूर बजती डफ के बोल....

"डफ काहे के बजाय,
ललचाये जियरा ,
डफ काहे के....
डफवा के बोली,
महलिया तक जाय...."

चन्द्रज्योति का मन तो गुस्से से भरा ही था पर अब दिल की धड़कन बढ़ गई।
भौजाइयाँ कुछ जबरन सी उसे उसके कमरे तक पहुंचा ही दीं।
चन्द्रज्योति अब भी दरवाजे पर खड़ी थी तभी भौजी हल्के धक्के से उसके कमरे में धकेल दी। इस अचानक हरकत से चन्द्रज्योति तो गिरते गिरते बची पर बलमा का नींद खुल गया।कमरे में लालटेन की मध्यम रौशनी और दरवाजे पर खड़ी रूपसी को देख बलमा का कलेजा रेल (जिससे आज भोरे भोरे उतरा) से भी तेज धड़कने लगा।
चन्द्रज्योति अपने कमरे में ही सहमी सी खड़ी रही इधर बलमा हड़बड़ा कर आंखे और जोर से बंद कर लिया।मन ही मन गोरिया बाबा और फगुआ में कबूतर की भखौती को दुहराता रहा।
चन्द्रज्योति भी कोई पहल न कर वहीं दीवार की ओट लिए बैठ रही।
बाहर ,ढोल,मंजीरा झाल की गूंज और फगुआ के बोल में चन्द्रज्योति डूबती उतराती रही...
" सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....
सेजिया.....
पच्छिम दिशा मोरे जइह नाहीं बालम,
पच्छिम की हवा ना जानी...
घुट-मुट,घुट-मुट बात करत हैं,
एको बात न जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

पुरुब दिशा मत जइह मोरे बालम,
पुरुब की नारी स्यानी......
रात सुलाये रंग महल में,
दिन भराये पानी....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी....

दक्षिण दिशा मत जइह मोरे बालम,
दक्षिण की हवा न जानी....
दाख, मुनाका, गड़ी छुहाड़ा
ई चारो धर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी.....

उत्तर दिशा तू जइह मोरे बालम,
उत्तर बहे गंगा धारा....
करी स्नानी,लौट घर अइह..
तीनों लोक तर जानी.....
सेजिया फूलों से कुम्हलानी...

फगुआ के बोल में डूबती उतराती चन्द्रज्योति ई न समझ पाई कि ई जब अइबे किये त अइसे मुंह काहे मोड़ रहें।
खैर कुछो हो उ त न जाएगी।
हाँ यदि उ पास आएं त आज खरी खोटी सुनाने से भी न चुकेगी।
अइसहीं बैठी सोचती उसकी भी आंख लग गई।
बलमा की नींद तो कब की उड़ गई।बहुत देर तक यूँ ही पड़ा रहा। जब उसे किसी की कोई आहट न मिली तब धीरे से आंखे खोला। कमरे में बस किसी की सांसो की आहट ही अब शेष थी।खिड़की से उतरती चांद रात बीतने के संकेत कर गया।बलमा धीरे से बिस्तर से उठा, मेज पर रखा फुलही लोटा उठा दरवाजे की ओर बढ़ा।
दीवार से लग कर बैठी निर्विघ्न सोई चन्द्रज्योति पर भर नजर डालने की हिम्मत भी उसमें न हुई। यहाँ तक कि उसकी धानी गोटेदार साड़ी पर पैर न पड़ जाए इतना बच बचा के डेग बढ़ाता किसी तरह भिड़े दरवाजे को हल्का सा खोल बाहर निकला व दरवाजे को पुनः भिड़ा, नंगे कदमों, दबे पांव, आंगन पार किया।
जैसा उसे अंदाजा था कि कोई न कोई तो जरूर भेटायेगा बस इसलिए फुलही लोटा साथ रख लिया था।
ज्योंहि ड्योढ़ी लांघता घर के बाहर पहरेदारी में लगा आदमी .....
जी मालिक एती घड़ी?
बलमा पेट पकड़ इशारा किया।
वो समझा कि, पहुना के पेट खराब हई ।
बस वो आगे बढ़ कर उसे हवेली नुमा घर से बाहर निकलने में मदद कर दिया।
जब वो सुरक्षित वहाँ से निकल गया तब सर पर पांव रख कर अनजानी दिशा में भागा। घण्टों बदहवाश भागने के बाद फूटती किरण के साथ गांव का सीमाना देख हारे सैनिक सा पछाड़ खाके गिर पड़ा।
सुबह सुबह मर मैदान को निकले लोग इस तरह गिरे पड़े राहगीर को देख पानी का छींटा दे होश में लाये।
बलमा बोलने की स्थिति में न है पर अपने गांव के लोग वर्षो बाद भी अपने लोग को पहचान ही लेते हैं।
बस सब बलमा को उसके घर ले गए ,सबने अंदाजा लगाया कि ई राहजनी का शिकार हुआ है।
घर पर फगुआ के आस में बलमा के घरवाले बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
इस तरह थके हारे बलमा को देख बाबूजी सीने से लगा कलप उठे। अइसे बदहवास घर आये बेटा को देख मइया भी रोवे लगी।नयकी कनिया बस मन ही मन खुश है कि उ घरे आ गयें।
वहाँ सुबह होली के हुड़दंग से चन्द्रज्योति की नींद टूटी तो कमरे में कोई न था।बैग व छाता वैसे ही पड़ा था।
रामजतन बाबू,गौरी कोई भी न समझ पाएं कि पहुना कहाँ चल गयें।
गौरी तो चन्द्रज्योति को ही घूर कर देखी कि यही कुछ कहलक हे पहुना के।
खैर पहुना का बैग खुला ,जिसमें सबके पसन्द के कपड़े थे।जिसे सबने सहज स्वीकार किया।बस मलाल रहा कि पहुना बिन कहले काहे चल गयें।।
-लेखा कृति

Friday, August 06, 2021

हिरोशिमा, शिन और उसकी तिपहिया साइकिल-तत्सुहारू कोडामा

सभ्य मानव की बर्बर कहानी
हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरने के ठीक 4 दिन पहले शिन को उसके तीसरे जन्मदिन पर चटक लाल रंग की तिपहिया साइकिल उसके चाचा ने दी थी। उस समय बच्चों के लिए साइकिल बहुत बड़ी चीज़ थी, क्योंकि उस वक़्त जापान में लगभग सभी उद्योग युद्ध-सामग्री बनाने में लगे हुए थे। 
शिन दिन भर साइकिल पर सवार रहता। सोते समय भी वह साइकिल का हत्था पकड़ कर ही सोता। 6 अगस्त की सुबह वह रोते हुए उठा। शायद उसने सपने में देखा कि उसकी साइकिल चोरी हो गयी है। बगल में हंसती साइकिल को देखकर वह अचानक चुप होकर मुस्कुराने लगा और तुरन्त साइकिल पर सवार हो गया। 
सुबह 8 बजकर 15 मिनट पर जब परमाणु बम गिरा तो शिन अपनी तिपहिया साइकिल से एक शरारती तितली का पीछा कर रहा था।
बाद में जब मलबे से शिन का शव निकाला गया तो उस वक़्त भी शिन साइकिल के हत्थे को मजबूती से पकड़े हुए था, मानो साइकिल चोरी का डर अभी भी उसे सता रहा हो।
साइकिल के प्रति शिन के इस लगाव को देखते हुए उसके पिता ने जली हुई साइकिल को भी शिन के साथ दफना दिया।
कुछ वर्षों बाद शिन के पिता को लगा कि शिन की कहानी दुनिया के सामने आनी चाहिए। उसके बाद उसने कब्र से साइकिल निकाल कर म्यूज़ियम (Hiroshima Peace Memorial Museum ) में रखवा दिया। तब दुनिया को शिन के बारे में पता चला। 
इसी म्यूज़ियम में शिन की साइकिल के बगल में एक घड़ी भी रखी है, जो ठीक 8 बजकर 15 मिनट पर बन्द हो गयी थी। 
हमने सुना था कि समय कभी रुकता नहीं। लेकिन 6 अगस्त को 8 बजकर 15 मिनट पर समय वास्तव में रुक गया था।
म्यूज़ियम की यह रुकी घड़ी मानो इस जिद में रुकी हो कि जब तक शिन वापस आकर इस घड़ी में चाभी नहीं भरेगा, वह आगे नहीं बढ़ेगी। ठीक शिन की साइकिल की तरह जो अभी भी म्यूज़ियम में उदास खड़ी शिन का इंतज़ार कर रही है।
हिरोशिमा-नागासाकी में तमाम लोग ही नहीं मारे गए, उनसे जुड़ी असंख्य कहानियां भी मारी गयी। यानी शिन के साथ वह तितली भी 1000 डिग्री सेल्शियस में जल कर 'अमूर्त' हो गयी, जिसका पीछा शिन कर रहा था।
'सभ्य' समाज की 'सभ्यता' का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है।

(नोट: तत्सुहारू कोडामा (Tatsuharu Kodama) ने अपनी पुस्तक 'SHIN'S TRICYCLE' में विस्तार से इस कहानी को लिखा है।)

#मनीष आज़ाद, Amita Sheereen जी की वाल से साभार

Friday, May 28, 2021

बाल-कहानी,

      

नकलची सोनू 

 -सुरेश सौरभ

        सोनू खरगोश पूरे सुन्दर वन में नकलची बन्दर के नाम से मशहूर था। वह सारे काम निबटाने के बाद वन में निकल पड़ता, जिसे भी खाते-पीते या कोई काम करते देखता, तो वह फौरन उसकी नकल उतार कर चिढ़ाता और जब कोई उसे क्रोधित होकर रपटाता, तो वह फौरन सर्र से भाग जाता।

       एक बार सन्टू और बन्टू नाम के दो कुत्तों के बीच झगड़ा हो गया, मात्र एक बोटी को लेकर। बोटी में खूब मांस चिपटा था और ताजी भी थी।

सन्टू बोला-बन्टू मेरे आगे से हट जाओ, बड़े दिनों के बाद यह ताजी बोटी मिली है और तुम बेवजह बीच में टांग अड़ा रहे हो।

     बन्टू गुस्से में बोला-पहले बोटी मैंने देखी थी। तूने आगे आकर झपट लिया, तो इसका मतलब ये थोड़ी कि रास्ते में शेर द्वारा गिराई गई बोटी तेरे बाप की हो गई। ये सार्वजनिक माल है इस पर मेरा भी हक बनता है।

    सन्टू देखो ज्यादा बात न बढ़ाओ तो अच्छा है। मेरी जीभ इस बोटी को खाने के लिए लिए मचल रही है और तुम खामख्वाह भिड़े पड़े हो।

    उनकी तू-तू-मैं-मैं काफी देर तक चलती रही और अब नौबत लिपटा-लिपटी तक आ पहुंची। सन्टू देशी नस्ल का छका कुत्ता था और बन्टू किसी विदेशी नस्ल का कसरती बदन वाला कुत्ता था।

    दोनों में खूब दे-दनादन जारी हुई। आखिरकार देशी के दांच-पेंच के आगे विदेशी पानी मांग गया और अपनी टांगें फरकाता हुआ, पो-पो..ऽ..ऽ...ऽ..करता हुआ भागा।

    बोटी पर सन्टू ने हक पाया।

    निराश खरगोश - हिंदी विवेक 

न्टू कुत्ता पों-पों करता हुआ भागा जा रहा था। रास्ते में सोनू ने उसे देखा और फौरन उसकी नकल उतारने लगा। पों-पों करने और टांगें उचकाने की हरकत जारी की। अब तो बन्टू के पूरे तन-बदन में आग लग गई। उसने सोनू को रपटाया, सोनू बड़े फुर्तीलेपन से भागा, पर बन्टू ने लपक कर उसकी टांग पकड़

ली। अब सोनू बचाओ-बचाओ! चिल्लाने लगा। सोचा था, आज भी भाग जाऊंगा मजा लेकर, पर आज आया ऊंट पहाड़ के नीचे।

    उधर से पिंकी लोमड़ी कहीं जा रही थी। सोनू की करुण पुकार सुनकर उसे दया आ गई। वह बन्टू के पास फौरन पहुंची। बन्टू से बड़े प्यार से कहा-भैया क्यों एक छोटे से जीव की हत्या करने पर तुले हो। भगवान के लिए इस पर थोड़ी दया करो। पिंकी के बहुत समझाने पर बन्टू ने सोनू की टांग छोड़ दी, पर सोनू की टांग में बन्टू के गहरे दांत धंस गये और खून टप-टप चूने लगा।

   फिर पिंकी सोनू को रामू नाम के भालू डाक्टर के पास ले गई। रामू ने पहले सोनू की मरहम पट्टी की, फिर कहा-ये दवा बेटा तीन टाइम खा लेना। ठीक हो जाओगे, पर आइंदा ऐसी गलती न करना वर्ना जान से हाथ धो बैठोगे।

   सोनू-डाक्टर साहब यह मैं कैसे यकीन कर लूं कि इस दवा से मैं ठीक हो जाऊंगा। लोग कहतें हैं कि कुत्ता काटने के बाद चौदह इन्जेक्शन लगवाने जरूरी होते हैं और आप मुझे बस घास-फूस वाली दवाएं देकर टरका रहे हैं।

   रामू-देखो सोनू तुम्हारा सामान्य रोग है। कुत्ता पागल नहीं था इसलिए डरने की कोई बात नहीं। मैं आयुर्वेद का डाक्टर हूं। ये घास-फूस ही मेरी संजीवनी बूटियां हैं, जो अंग्रेजी दवाओं के मुकाबले हजार गुना फायदेमंद हैं। तुम एक बार आजमाकर तो देखो अंग्रेजी दवाओेें का इलाज बहुत मंहगा है और इसके दुष्परिणाम भी तुम भुगत सकते हो, पर मेरी दवाओं में ऐसा कुछ नहीं मात्र चार पुड़िया दो रुपये में खाओ और दो दिन में भले-चंगे हो जाओ।

   सोनू बोला-डाक्टर साहब मुझे इन्जेक्शन लगवाना है, चाहे जो हो मैं अपने जीवन में खतरा मोल नहीं लूंगा। अगर रेबीज मुझ पर हमला कर गया तो ?

   सोनू अपनी जिद पर अड़ गया। पिंकी ने उसे बहुत समझाया, पर वह न माना। सोनू के अक्खड़पन को देखकर पिंकी सोनू को छोड़कर चली गई।

  रामू बोला-सोनू ज्यादा जिद कर रहे हो, तो इन्जेक्शन मुझे मालूम हैं, लिखे दे रहा हूं। तुम मेडिकल से ले आओ मैं लगा दूंगा।

    सोनू पर्चा लेकर दवा लेने गया। वहां मालूम पड़ा सौ रुपये का एक इन्जेक्शन है। उसके पास इतने पैसे कहां धरे ? लिहाजा उसने शेरू कुत्ते से दस प्रतिशत ब्याज की दर से चौदह सौ रुपये लिए। शेरु बड़ा पक्का महाजन था। एक-एक पैसे कर्जदार से हर हाल में वसूल कर डालता था। फिर चाहे रास्ता उसे सीधेपन का अपनाना पड़े या टेढ़ेपन का।

     सोनू बाजार गया। इन्जेक्शन और सीरेन्ज लाकर रामू को दिए।

     रामू ने सीरेन्ज में दवा भरी। फिर सोनू से कहा-जरा शर्ट अपनी ऊपर उठाओ और पूरा पेट खोलो। सोनू ने अपना मोटा पेट खोल दिया और रामू ने सटाक से इन्जेक्शन सोनू के पेट में घुसेड़ दिया। वह उचका। रामू बोला-जरा भी महाशय हिले, तो पेट में गलत जगह सुई पहुंच जायेगी और दवा बेअसर हो जायेगी, दर्द भी बढ़ जायेगा। फिर सोनू ने रोते-रोते मोटी सुई का कष्ट मजबूरन झेला।

     सोनू के चौदह इन्जेक्शन लगे। उसका पूरा पेट छलनी हो गया। वह दर्द से खूब रोता-छटपटाता। अब पूरी-पूरी रातें जाग कर काट देता।

     पेट के दर्द के कारण उसका खेती का कार्य बिलकुल चौपट हो गया। जब कई माह घर पर ही पड़ा रहा, तब शेरू सोनू के घर जा पहुंचा। उसने अपने सूद और मूल की मांग की, पर सोनू खरगोश था फटेहाल। अब शेरु ने अपना असली रुप दिखाया। उसे जबरदस्ती पकड़ कर अपने खेत पर लगा दिया कहा-जब तक काम करके मेरी एक-एक पाई नहीं उतारोगे तब तक यही रहो।

     सोनू दर्द से छटपटाता कभी फावड़ा चलाता, कभी कुदाल से लगे-लगे अपना शरीर तोड़ता, कभी मेड़बन्दी में उसकी कमर टूटती। अब क्या जब चिड़िया चुग गई खेत ? अब वह अक्सर सोचता काश मैं पिकी की बात मान लेता, थोड़ा रामू की सलाह पर चला होता तो आज यूं मर-मर के न जीता। अब मेरा कर्ज इस जनम उतर पायेगा यह सम्भव नहीं और न ही मैं यह पूछने की हिम्मत कर सकता हूं। कि शेरू भैया मैं तुम्हारे यहां से कब आजाद हो जाऊंगा। जिस दिन यह पूछ बैठा उस दिन मेरी आखिरी हो जायेगी।


निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश

मो-7376236066

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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