साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Saturday, April 09, 2022

राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर-कँवल भारती

सन्दर्भ- बौद्धधर्म
कंवल भारती
प्रख्यात-दलित चिन्तक व साहित्यकार

 भारत में आधुनिक बौद्धधर्म तीन महान व्यक्तियों का ऋणी है। यानी, जिस बौद्धधर्म को ब्राह्मणवाद ने भारत की धरती से खदेड़ दिया था, उन्नीसवीं शताब्दी में उसका पुनरुद्धार तीन महान लोगों ने किया। ये महान लोग थे- अनागरिक धर्मपाल, महापंडित राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर। धर्मपाल श्री लंका के थे। वे 1891 में भारत आये थे और यहां सारनाथ और बोधगया की दुर्दशा देख कर उनके उद्धार के लिये यहीं रुक गये थे। उन दिनों बौद्धों के तीर्थ स्थल ब्राह्मण महन्तों के कब्जे में थे। लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ कर उन्होंने कई बौद्ध मन्दिरों को ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराये और बौद्धों को सौंपे थे। सारनाथ में उन्हीं के नेतृत्व में खुदाई कार्य किया गया था और उसी खुदाई के परिणाम स्वरूप आज के धम्मेख स्तूप का अस्तित्व सामने आया था। बोध गया का मन्दिर बौद्धों को सौंपे जाने की लड़ाई भी उन्होंने ही लड़ी थी, जो अभी तक जारी है। यही धर्मपाल जी 1893 में शिकागो में होने वाली विश्वधर्म संसद में स्वामी विवेकानन्द को अपने साथ लेकर गये थे। धर्मपाल जी दर्शन और इतिहास के लेखक नहीं थे, पर भारत में प्राचीन बौद्ध स्थलों को खोजने और उनका पुनरुद्धार करने का एक मात्र श्रेय उन्हीं को जाता है।
 आधुनिक भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार पर जब भी चर्चा चलती है, तो धर्मपाल जी का नाम राहुल और आंबेडकर से पहले आता है। धर्मपाल जी ने यदि बौद्ध स्तूपों, विहारों और मन्दिरों का उद्धार और निर्माण कराया, तो राहुल सांकृत्यायन को लुप्त बौद्ध साहित्य की खोज करने का श्रेय जाता है। उन्होंने तिब्बत की यात्रा की और वहां से 18 खच्चरों पर लाद कर बौद्ध साहित्य भारत लाये, जो पटना के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है। यह साहित्य तिब्बती भाषा में है, जिसका उन्होंने संस्कृत और फिर हिन्दी में अनुवाद किया। आज हिन्दी में अधिकांश त्रिपिटक राहुल जी की ही देन है। यदि राहुल जी ने यह महत्वपूर्ण कार्य न किया होता, तो भारत में हिन्दी में बौद्ध साहित्य का सचमुच अभाव होता।
 लेकिन बौद्ध साहित्य और विहारों का तब तक कोई महत्व नहीं है, जब तक उनकी सुरक्षा के लिये आस्थावान बौद्ध समुदाय का अस्तित्व न हो। भारत में बौद्ध समुदाय के अभाव की पूर्ति डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने की। उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्धधर्म में धर्मान्तरण करके लाखों दलितों को बौद्धधर्म में दीक्षित होने की प्रेरणा दी। इसी प्रेरणा के परिणाम स्वरूप आज भारत में बौद्धों की संख्या एक करोड के लगभग है।
 
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 राहुल सांकृत्यायन सनातनी हिन्दू साधु (रामोदार स्वामी) के रूप में घुमक्कड़ी करते हुए, आर्य समाजी हो गये थे। एक आर्य समाजी के रूप में वे वेद और निराकार ईश्वर में सारी समस्याओं का हल देखते थे। इस सम्बन्ध में उनके विचार इस प्रकार थे- ‘‘उस समय मैं आर्य समाज के गर्मदली विचारों का समर्थक था, इसके सिवाय वेद के ईश्वरीय होने में किसी की आपत्ति को मैं सहन करने के लिये तैयार न था। वेद में रेल, तार, विमान की बातें मुझे सच्ची मालूम होतीं, यद्यपि अभी तक मैंने उनकी पूरी छानबीन न की थी। आर्य समाजी को अपने लिये हिन्दू कहना मैं शर्म की बात समझता था। आर्य धर्म हिन्दूधर्म से उतना ही दूर है, जितना ईसाई और इस्लामधर्म, यह मैं बराबर कहा करता। भारत पर आर्यधर्म का विशेष अधिकार है। उसकी उन्नति और स्वतन्त्रता आर्यधर्म और एक जातीयता की स्थापना से ही हो सकती है, इसके साथ मैं यह भी समझता था कि आज यद्यपि सभी धर्मानुयायियों का एक हो जाना असम्भव मालूम होता है, किन्तु आर्यधर्म की सत्यता को रोका नहीं जा सकता। विज्ञान के साथ कुछ झूठे विज्ञान भी संसार में खोटे सिक्कों की भांति चल रहे हैं, ऐसे ही झूठे विज्ञानों में डार्विन के विकासवाद को भी मैं समझता था। जब पंडित आत्माराम अमृतसरी की विकासवाद के खण्डन पर लिखी गयी पुस्तक मिली, तो मुझे बड़ी खुशी हुई।’’ वे आर्यसमाज के सिद्धान्त को ध्रुव सत्य और दयानन्द के एक-एक वाक्य को वेदवाक्य मानते थे।
 ये विचार 22 वर्ष के एक तरुण (1915) के थे, पर 27 वर्ष के होते-होते बौद्धधर्म को जानने की जिज्ञासा उनमें पैदा हो गयी थी। उन्हीं के शब्दों में, (1921) ‘‘आर्य समाज का प्रभाव रहने से सिद्धान्त में मैं द्वैतवादी हो रामानुज का समर्थक रहा। इसी दार्शनिक ऊहापोह में बौद्ध दर्शन के लिये अधिक जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी, रामानुज और शंकर की ओर से, अन्ततः वर्णाश्रम धर्म का श्राद्ध करके दार्शनिक खंडन द्वारा ही बौद्धों का विरोध किया जाता था। और दार्शनिक सिद्धान्तों में रामानुजीय शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध कहते थे, फिर बौद्ध दर्शन क्या है, इधर ध्यान जाना जरूरी था, और पूर्वपक्ष के तौर पर उद्धृत कुछ वाक्यों से मेरी तृप्ति नहीं हो सकती थी।’’
 यह जिज्ञासा और तृप्ति 34 वर्ष की अवस्था में तब पूरी हुई, जब वे (1927) लंका गये और वहां के विद्यालंकार विहार में 19 मास तक रहे। वहां उन्हें पाली त्रिपिटक में बुद्ध वचनों को पढ़ने का अवसर मिला। उस मनः स्थिति का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘फिर राख में छिपे अंगारों या पत्थरों से ढँके रत्न की तरह बीच-बीच में आते बुद्ध के चमत्कारिक वाक्य मेरे मन को बलात् अपनी ओर खींच लेते थे। जब मैंने कालामों को दिये गये बुद्ध के उपदेश- किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल कर उसे मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करके उस पर आरूढ़ हो- को सुना, तो हठात् दिल ने कहा- यहां है एक आदमी, जिसका सत्य पर अटल विश्वास है, जो मनुष्य की स्वतन्त्र बुद्धि के महत्व को समझता है। जब मैंने मज्झिम निकाय में पढ़ा- बेड़े की भाँति मैंने तुम्हें धर्म का उपदेश किया है, वह पार उतरने के लिये है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिये नहीं; तो मालूम हुआ, जिस चीज को मैं इतने दिनों से ढूँढ़ता फिर रहा था, वह मिल गयी।’’
 अब ईश्वर और वेद भी उनसे छूट गये थे। मन की इस दशा पर उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘अब मेरे आर्य सामाजिक और जन्मजात विचार छूट रहे थे। अन्त में, इस सृष्टि का कर्ता भी है, सिर्फ इस पर मेरा विश्वास रह गया था। किन्तु अब तक मुझे यह नहीं मालूम था कि मुझे बुद्ध और ईश्वर में से एक को चुनने की चुनौती दी जायगी। मैंने पहिले पहिल कोशिश की, ईश्वर और बुद्ध दोनों को एक साथ ले चलने की, किन्तु उस पर पग-पग पर आपत्तियां पड़ने लगीं। दो-तीन महीने के भीतर ही मुझे यह प्रयत्न बेकार मालूम होने लगा। ईश्वर और बुद्ध साथ नहीं रह सकते, यह साफ हो गया, और यह भी स्पष्ट मालूम होने लगा कि ईश्वर सिर्फ काल्पनिक चीज है, बुद्ध यथार्थवक्ता हैं। तब, कई हफ्तों तक हृदय में एक दूसरी बेचैनी पैदा हुई- मालूम होता था, चिरकाल से चला आता एक भारी अवलम्ब लुप्त हो रहा है। किन्तु मैंने हमेशा बुद्ध को अपना पथप्रदर्शक बनाया था, और कुछ ही समय बाद उन काल्पनिक भ्रान्तियों और भीतियों का ख्याल आने से अपने भोलेपन पर हँसी आने लगी। अब मुझे डारविन के विकासवाद की सच्चाई मालूम होने लगी, अब मार्क्सवाद की सच्चाई हृदय और मस्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी।’’
 इस प्रकार राहुल जी 1915 से 1927 तक आर्य समाजी रहे। पर, लंका में रहते ही वे बुद्ध के अनुयायी हो गये थे। उनमें तिब्बत जाकर बौद्ध साहित्य को खोज कर लाने की भी जिज्ञासा पैदा हो गयी थी। अतः तिब्बत में सवा वर्ष बिताने के बाद, जब वे 1930 में दूसरी बार लंका गये, तो वे विधिवत उपसम्पदा लेकर बौद्धधर्म में प्रब्रजित हो गये थे। अपनी प्रब्रज्या का वर्णन उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘उपसम्पदा के लिये कांडी जाने से पहले विद्यालंकार विहार में नायकपाद के उपाध्यायत्व में मेरी प्रब्रज्या (22 जून) हुई। मैं लंका में रामोदार स्वामी के नाम से प्रसिद्ध था, और लंका छोड़ने से पूर्व ही अपने गोत्र को जोड़कर अपने को रामोदार सांकृत्यायन बना चुका था। मैं समझता था, यही नाम बना रहेगा, क्योंकि इस नाम से मैं साहित्यिक क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुका था, किन्तु प्रब्रज्या संस्कार शुरु होने के चन्द ही मिनट पहले नायकपाद की आज्ञा हुई नये नामकरण की। समय होता, तो मैं समझाने की कोशिश करता, किन्तु अब कुछ करना आज्ञा भंग होता। नाम शायद एकाध और पेश किये गये थे, किन्तु मैंने रामोदार के ‘रा’ की साम्यता के देखते हुए राहुल नाम का प्रस्ताव किया और वह स्वीकृत हुआ। इस प्रकार राहुल सांकृत्यायन के नाम से मैं प्रब्रजित (श्रामणेर) हुआ।’’
 ऊपर राहुल जी का वक्तव्य बताता है कि उन्हें बुद्ध के दर्शन ने इतना प्रभावित किया कि न केवल डार्विन के विकासवाद में उनको सच्चाई नजर आने लगी थी, बल्कि माक्र्सवाद की सच्चाई भी उनके हृदय और मस्तिष्क में पेबस्त जान पड़ने लगी थी। उस समय तक वे समाजवादी व्यवस्था के महत्व को समझने लगे थे और बद्ध उन्हें स्वतन्त्रता, समानता और करुणा (भ्रातृत्व) के समर्थक एवं जनतन्त्र के पक्षधर के रूप में दिखायी देने लगे थे। वे बुद्ध के प्रजातांत्रिक विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे। उन्होंने एक जगह लिखा है- ‘‘बुद्ध का जन्म एक प्रजातन्त्र (शाक्य) में हुआ था, और मृत्यु भी एक प्रजातन्त्र (मल्ल) ही में हुई। प्रजातन्त्र प्रणाली उनको कितनी प्रिय थी, यह इसी से मालूम है कि अजातशत्रु के साथ अच्छा सम्बन्ध होने पर भी उन्होंने उसके विरोधी वैशाली के लिच्छवियों की प्रशंसा करते हुए राष्ट्र को अपराजित रखने वाली (ये) सात बातें बतलायीं- (1) बराबर एकत्रित हो सामूहिक निर्णय करना, (2) निर्णय के अनुसार कर्तव्य को एक हो करना, (3) व्यवस्था (कानून और विनय) का पालन करना, (4) वृद्धों का सत्कार करना, (5) स्त्रियों पर जबरदस्ती नहीं करना, (6) जातीय धर्म का पालन करना, (7) धर्माचार्यों का सत्कार करना।’’
 लेकिन राहुल मार्क्सवादी दर्शन का भी इस काल में बराबर अध्ययन कर रहे थे और बुद्ध का विचार-स्वतान्त्रय इस अध्ययन में उनकी सहायता कर रहा था। इसलिये, उन्होंने बौद्धधर्म का द्वन्द्वात्मक अध्ययन किया और वे मार्क्सवाद की ओर मुड़ गये। हालांकि, बुद्ध और उनके धर्म के प्रति उनका अनुराग कभी खत्म नहीं हुआ था, पर भिक्षुवेश उन्होंने त्याग दिया था। भदन्त बोधानन्द के प्रति अपने संस्मरण लेख में इसका जिक्र उन्होंने इन शब्दों में किया है- ‘‘त्रिपिटक में कुछ अधिक प्रवेश करते ही वेद, ईश्वर और आर्यसमाज ने साथ छोड़ दिया, मैं अनीश्वरवादी नास्तिक बन गया। बुद्ध और उनकी शिक्षाओं के प्रति मेरा अनुराग हो गया। उसके बाद तो कोई धर्म मुझे आकृष्ट नहीं कर सका। बुद्ध से अगली मंजिल में मार्क्स मुझे मिले। भौतिकवाद मेरा दर्शन हो गया। पर, बुद्ध के मधुर व्यक्तित्व का आकर्षण मेरे मन से कभी नहीं गया।’’
 राहुल की जीवन-यात्रा एक स्थान या एक विचार पर स्थिर रहने वाली नहीं थी। वे ऐसे प्रगतिशील थे, जो खूंटे से बँधकर नहीं रह सकते थे। अतः बौद्धधर्म के प्रति अपने लगाव के भविष्य को वे जानते थे। इसलिये, जब अनागारिक धर्मपाल ने उन्हें धर्म प्रचारक बनाने के लिये उन पर दबाव डालने के लिये कई पत्र लिखे, तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उस स्थिति का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी ‘जीवन यात्रा’ में लिखा है- ‘‘कोई समय था कि जब मैं धर्मप्रचारक बनने का तीव्र अनुरागी था, लेकिन अब अवस्था बिल्कुल बदल गयी थी। बौद्धधर्म के साथ भी मेरा कच्चे धागे का ही सम्बन्ध था। हाँ बुद्ध के प्रति मेरी श्रद्धा कभी कम नहीं हुई। मैं उन्हें भारत का सबसे बड़ा विचारक मानता रहा हूँ और मैं समझता हूँ कि जिस वक्त दुनिया के धर्म का नामोनिशान न रह जायगा, उस वक्त भी लोग बड़े सम्मान के साथ बुद्ध का नाम लेंगे।’’ उन्होंने आगे लिखा है- ‘‘मैंने उनके वचनों को पढ़ने के बाद समझा कि वह भी दुनिया के साम्यवादी बनने का सपना देखते थे।’’
 राहुल ने बुद्ध के धर्म का बेड़े की तरह पार उतरने के लिये ही उपयोग किया। वे विचारों से मार्क्सवादी हो चुके थे, पर अभी भिक्षुवेश उन्होंने नहीं त्यागा था। उसका उपयोग उन्होंने लन्दन, नेपाल और बौद्ध देशों की यात्राओं के लिये किया और उसके बाद भिक्षुवेश भी त्याग दिया था।
 वे सामन्तवाद और पूंजीवाद की चक्की में पिस रही आम जनता की मुक्ति के दृष्टिकोण से धर्म को देखने लगे थे। इस दृष्टिकोण से बौद्धधर्म के भी अनेक सिद्धांतों से भी उनकी असहमति बन गयी थी। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि बुद्ध तत्कालीन समाज व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। उनका मत था कि ‘‘(बुद्ध ने) दुःख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये, राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों, सारी दुनिया को झगड़ते मरते-मारते देख भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की।’’
 बुद्ध के क्षणिकवाद के दर्शन से राहुल जी सहमत थे, पर उनकी टिप्पणी थी कि इस क्षणिकवाद को उन्होंने समाज की आर्थिक व्यवस्था पर लागू नहीं किया था। वे इसका कारण बताते हैं कि ऐसा उन्होंने राजाओं और सेठों को अप्रसन्न करने के उद्देश्य से नहीं किया। वे लिखते हैं- ‘‘पुरोहित वर्ग के कूटदंत, सोणदंत जैसे धनी प्रभुताशाली ब्राह्मण उनके (बुद्ध के) अनुयायी बनते थे, राजा लोग उनकी आवभगत के लिये उतावले दिखायी पड़ते थे। उस वक्त का धन कुबेर व्यापारी-वर्ग तो उससे भी ज्यादा उनके सत्कार के लिये अपनी थैलियाँ खोले रहता था, जितने कि आज के भारतीय महासेठ गाँधी के लिये। दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत के साथ व्यापार के महान केन्द्र कौशाम्बी के तीन भारी सेठों ने तो विहार बनवाने में होड़ सी कर ली थी। सच तो यह है कि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने सहायता की। यदि बुद्ध तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ जाते, तो यह सुभीता कहाँ से हो सकता था।’’

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 लेनिन के इस सिद्धान्त को कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है या उसे निजी मामला होना चाहिए, हम आम आदमी पर तो लागू कर सकते हैं, पर विशिष्ट व्यक्ति पर इस सिद्धान्त को लागू नहीं किया जा सकता और लागू किया जाना चाहिए भी नहीं, क्योंकि विशिष्ट व्यक्ति या वह व्यक्ति, जिससे लाखों करोड़ों लोग प्रेरणा लेते हों, जिसके अनुयायी हों, अगर वह धर्मगुरु नहीं है और दुनिया को बदलने की शिक्षा देता है, तो वह, धर्म को अपना निजी मामला नहीं बना सकता। राहुल सांकृत्यायन एक धर्मगुरु या धर्मप्रचारक की भूमिका त्याग कर दुनिया को बदलने की भूमिका में उतरे थे, तो धर्म को देखने की उनकी दृष्टि वही नहीं रह गयी थी, जो एक सनातनी और आर्य समाजी प्रचारक की होती है। वे लाखों दीन-दुखियों के हित में धर्म के सिद्धान्तों को अलौकिक नहीं, लौकिक आधार पर परखने लगे थे। इसलिये जनता के सामाजिक और आर्थिक शोषण पर जीवित रहने वाले धर्म उनके लिये घृणास्पद थे।
 डा. आंबेडकर भी धर्म को अछूतों की दृष्टि से देखते थे। वे हिन्दूधर्म का विरोध इसी आधार पर करते थे कि वह सामाजिक अलगाववाद का समर्थन करता है और मानवता के एक विशाल समुदाय को समस्त मानवाधिकारों से वंचित रखता है। वे दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार करने की शिक्षा देने वाले हिन्दूधर्म को धर्म के नाम पर कलंक मानते थे। उन्होंने लिखा है, ‘‘अछूतों की समस्या का सीधा सम्बन्ध हिन्दुओं के सामाजिक व्यवहार से है। अस्पृश्यता तभी मिटेगी, जब हिन्दू अपनी मनोवृत्ति बदलेंगे। समस्या यह है कि वह कौन सा तरीका है, जिससे हिन्दू जीवन-शैली को भुला दें। यह कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं है कि कोई समूचा राष्ट्र अपनी बंधी-बंधाई जीवन-शैली को त्याग दे। हिन्दू जिस जीवन-शैली के आदी हैं, वह ऐसी है, जिसे उनका धर्म प्रमाणित करता है। अतः उनकी जीवन-शैली को बदलना उनके धर्म को बदलने जैसा ही है।’’
 यहां आंबेडकर स्पष्ट रूप से इस मत के हैं कि हिन्दूधर्म को सुधारा नहीं जा सकता, उसे छोड़ा जा सकता है। उन्होंने हिन्दूधर्म में सुधार के लिये लम्बे समय तक संघर्ष किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली और अन्ततः उन्हें हिन्दूधर्म को छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी। उन्होंने 1935 में (15 अक्टूबर) बम्बई में कहा, ‘‘हमने अभी यह तय नहीं किया है कि कौन सा धर्म हम अपनायेंगे, पर यह हमने तय कर लिया है कि हिन्दूधर्म हमारे लिये अच्छा नहीं है।’
 यह निर्णय आंबेडकर ने कवीठा काण्ड के प्रतिरोध में लिया था। पूना-पैक्ट के तीन साल बाद 1935 में यह काण्ड हुआ। बम्बई सरकार ने उस समय सार्वजनिक स्कूलों में अछूतों के बच्चों को प्रवेश देने के आदेश जारी किये थे। 8 अगस्त 1935 को कवीथा गांव के अछूत अपने चार बच्चों को स्कूल में दाखिल कराने के लिये ले गये। इसके विरोध में सभी हिन्दुओं ने अपने बच्चों को स्कूल से हटा लिया और रात में घात लगा कर अछूतों की बस्ती पर डंडों, भालों और तलवारों से हमला कर दिया। बाद में हिन्दुओं ने सभी अछूतों का सामाजिक बहिष्कार भी कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि अछूत पीने के पानी तक के लिये तरस गये। इसके विरुद्ध अछूतों ने मजिस्ट्रेट के यहां मुकदमा दायर कर दिया। इस घटना ने अछूतों में दहशत भर दी। वल्लभ भाई पटेल हिन्दुओं को यह समझाने गये कि वे अछूतों पर जुल्म न करें, पर उन्होंने उनकी एक न सुनी। गांधी जी ने अछूतों को यह सलाह दी कि वे गांव छोड़ दें। इस प्रकार, इस संघर्ष में अछूतों को ही दबाया गया। आंबेडकर लिखते हैं कि जब भी हिन्दू अराजकता पर उतर आते हैं, तो अछूत हमेशा ही असहाय हो जाते हैं।
 आंबेडकर की घोषणा की प्रतिक्रिया में गांधी ने नासिक में कहा कि धर्म कोई मकान या वस्त्र नहीं है, जिसे बदला जा सके, धर्म आदमी का जरूरी अंग है। इसका उत्तर आंबेडकर ने इन शब्दों में दिया, ‘‘मैं गांधी जी से सहमत हूँ कि धर्म जरूरी है, परन्तु मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि आदमी को अपने उस पुश्तैनी धर्म से चिपटा रहना चाहिए, जो उसके लिये घृणास्पद हो, अपमानजनक हो और उसे आगे बढ़ने की कोई प्रेरणा न देता हो।’’ उन्होंने आगे कहा कि कवीथा में जो हुआ, वह अनोखी घटना नहीं है, वह हिन्दुओं के पुश्तैनी धर्म में मौजूद व्यवस्था पर आधारित है। इस धर्म को दलितों को छोड़ना ही होगा।
 राहुल के सामने उनका कोई जातीय समाज नहीं था, जिसे वे बदलना चाहते थे। वे ब्राह्मण थे, पर ब्राह्मणों को सुधारने या उनकी मुक्ति के (किसी कार्यक्रम के) दायित्व से मुक्त थे। किन्तु आंबेडकर इस दायित्व से मुक्त नहीं थे। उनके सामने उनका विशाल अछूत समाज था, जिसे हिन्दुओं और उनके धर्म ने मानवीय गरिमा और अधिकारों से वंचित करके रखा था। इसलिये, आंबेडकर आरम्भ से ही इस खोज में रहे कि धर्म का अर्थ क्या है, हिन्दूधर्म से अछूत समुदाय का क्या सम्बन्ध है? और कोई दूसरा धर्म उनकी स्थिति को बदल सकता है या नहीं?
 राहुल भले ही यह नहीं देख सके थे कि ब्राह्मण हिन्दूधर्म और उसकी व्यवस्था को क्यों पसन्द करते थे और क्यों उसमें कोई सुधार नहीं चाहते थे? किन्तु, आंबेडकर ने यह अच्छी तरह देख लिया था कि हिन्दुओं की वर्णव्यवस्था ब्राह्मणों के लिये स्वर्ग की व्यवस्था है, जिसमें वे सबसे श्रेष्ठ और सबसे पूज्य बने हुए हैं। वे यह भी देख रहे थे कि हिन्दू अछूतों पर इसलिये अत्याचार नहीं करते हैं कि वे क्रूर हैं, बल्कि इसलिये करते हैं, क्योंकि उनका धर्म उन्हें ऐसा करने की शिक्षा देता है। एक स्थान पर आंबेडकर ने लिखा है, ‘‘हिन्दू चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह जो कुछ करता है, धर्म के अनुसार करता है। वह खाता धर्म के अनुसार है, पीता धर्म के अनुसार है, नहाता धर्म के अनुसार है, पहनता धर्म के अनुसार है, उसका जन्म धर्म के अनुसार होता है, विवाह धर्म के अनुसार होता है और धर्म के अनुसार ही उसे जलाया जाता है। उसके सारे कार्य धर्मानुसार होते हैं। धर्मनिरपेक्षता के दृष्टिकोण से ये काम गलत हो सकते हैं, पर ये इसलिये पापपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि ये धर्म द्वारा स्वीकृत हैं। इसलिये यदि कोई हिन्दू पाप का अभियुक्त होता है, तो वह गर्व से कहता है कि यदि मैं पाप करता हूँ तो पाप भी धर्म के अनुसार कर रहा हूँ।’’
 आंबेडकर अपने अध्ययन में इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि अछूतों के लिये हिन्दूधर्म इसलिये अमानवीय है, क्योंकि अछूत हिन्दू समाज के अंग नहीं हैं। दूसरे शब्दों में वे हिन्दूधर्म के बाड़े से बाहर के हैं। आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘हिन्दुओं और अछूतों के बीच क्या सम्बन्ध है, इसकी सटीक व्याख्या बम्बई के एक सम्मेलन में सनातनी हिन्दुओं के नेता ऐनापुरे शास्त्री ने की है। उन्होंने कहा कि हिन्दुओं के साथ अछूतों का सम्बन्ध वैसा ही है, जैसा किसी मनुष्य का उसके जूतों के साथ होता है। आदमी जूते पहनता है, इस दृष्टि से वह मनुष्य के साथ है और कहा जा सकता है कि वह मनुष्य के हैं। लेकिन जूते शरीर का अंग नहीं है, क्योंकि जिन दो चीजों को किसी इकाई से अलग किया जा सकता है, उन्हें उस इकाई का अंग नहीं कहा जा सकता।’’
 आंबेडकर की दृष्टि में यह एक अत्यन्त सटीक उपमा थी। उनके पास इसका मजबूत आधार भी है। उनके अनुसार, अछूत वर्णव्यवस्था के अंग नहीं है। वे उसके बाहर के हैं, अर्थात् अवर्ण हैं। वे लिखते हैं, ‘‘हिन्दू विधान के निर्माता मनु ने अपने नियम में कहा है कि वर्ण केवल चार हैं और पांचवाँ वर्ण नहीं होगा। मनु अछूतों को उस भवन में प्रवेश दिलाने को तैयार नहीं थे, जिसे प्राचीन हिन्दुओं ने वर्णव्यवस्था में विस्तार कर उसे पांच वर्णों के लिये बनाना चाहा था। मनु ने अछूतों को वर्ण-बाह्य कहकर वर्णव्यवस्था से बाहर रखा है। आदिम और जरायम पेशा जातियों के विरुद्ध हिन्दू समाज में प्रवेश के लिये कोई निश्चित वर्जना नहीं है। वे कालान्तर में उसके सदस्य बन सकते हैं। फिलहाल वे हिन्दू समाज से जुड़े हैं और उसके बाद वे उसमें घुलमिल सकते हैं तथा उसका अंग बन सकते हैं। लेकिन अछूतों की स्थिति अलग है। हिन्दू समाज में उनके विरुद्ध निश्चित वर्जना है। उसके सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्हें अलग-थलग ही रहना होगा और वे हिन्दू समाज का अंग न हैं और न बन सकते हैं।’’ वे अन्यत्र कहते हैं हिन्दू भी यह जानते हैं कि अछूत उनके समाज के अंग नहीं हैं। यही कारण है कि हिन्दुओं में नैतिक दृष्टि से अछूतों के प्रति कोई चिन्ता या ममत्व नहीं होता है।’’
 आंबेडकर की सबसे बड़ी चिन्ता थी कि अछूत अनेकों जातियों-उपजातियों में विभाजित हैं और उनके बीच मौजूद सामाजिक भेदभाव उन्हें एक नहीं होने देता। हिन्दू समाज में ब्राह्मण एक वर्ग है, क्षत्रिय एक वर्ग है और वैश्य एक वर्ग है। प्रत्येक वर्ग में अनेक जातियाँ होने के बावजूद उनके बीच सामाजिक अलगाव नहीं है, वरन् रोटी-बेटी का सम्बन्ध है। इनमें से प्रत्येक वर्ग में अपनी ही जाति में विवाह वर्जित है। (मिश्रा-मिश्रा में नहीं, शुक्ला में विवाह करेगा।) किन्तु यही वर्ण चेतना शूद्रों और अछूतों में नहीं है, जिसके कारण उनमें सामाजिक एकता का सदैव अभाव रहता है।
 इसलिये आंबेडकर ऐसे धर्म की तलाश में थे, जो निम्न जातियों को एक वर्ग में संगठित कर दे और उनका सांस्कृतिक विकास करे। वे इस मत के नहीं थे, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं कि धर्म समाज के लिये आवश्यक नहीं है। वे जीवन और सामाजिक आचरण के लिये धर्म को आवश्यक मानते थे। वे कहते थे कि धर्म अफीम नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है। पर, वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं थे। वे कहते थे कि आदमी सिर्फ रोटी खाकर जीवित नहीं रह सकता। उसके पास एक मन भी है, जिसे विचार के लिये आहार चाहिए। यह आहार उसे धर्म से ही मिलता है। धर्म ही उसे आशावादी बनाता है और आगे बढ़ने की शक्ति देता है। उनकी दृष्टि में धर्म और दासता दो परस्पर विरोधी चीजें थीं। कोई भी धर्म, जो आदमी को दास बनाता है, वह उनके लिये धर्म नहीं था।
 आंबेडकर ने अपने सिद्धान्त के आधार पर सभी धर्मों पर विचार किया- न केवल ईसाई और इस्लाम धर्मों पर, बल्कि आर्य समाज और सिख धर्म के बारे में भी। मई 1936 में कोलम्बो से एक इटैलियन बौद्ध भिक्षु लोकनाथ ने भारत आकर आंबेडकर से भेंट की और उन्हें इस बात पर सहमत करने की कोशिश की कि यदि अछूत लोग बौद्धधर्म ग्रहण कर लेते हैं, तो वे समाज में नैतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से उच्चतर स्तर प्राप्त कर लेंगे। यद्यपि आंबेडकर ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया था, पर बौद्धधर्म के प्रति उनमें सम्मान का भाव पहले ही से था।
 इस विषय पर आंबेडकर का अध्ययन निरन्तर चल रहा था। वे अस्पृश्यता के उद्गम के ऐतिहासिक आधार को भी देखना चाहते थे, ताकि जिस धर्म को वे स्वीकार करें, उसमें अछूतों की ऐतिहासिक संगति भी बैठ सके। शीघ्र ही उन्होंने अपना एक लम्बा साक्षात्कार ‘दि बाम्बे क्रानिकल’ को दिया, जो उसके 24 फरवरी 1940 के अंक में प्रकाशित हुआ। इस साक्षात्कार में उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि वैदिक काल में और उसके बाद शताब्दियों तक अस्पृश्यता का अस्तित्व नहीं मिलता है। इसका उद्गम बहुत बाद में हुआ और इसका सम्बन्ध बौद्धधर्म के बाद परिवर्तनों से पैदा हुई परिस्थितियों से है। उन्होंने उस युग का उल्लेख किया, जब कुछ लोग अपने ऋषि आधारित जीवन के लिये एक जगह बस गये थे, पर बहुत से दूसरे लोग अपने पशुओं के चारे के लिये जगह-जगह घूमते रहते थे। बसे हुए किसानों को अपनी भूमि, मकान और फसल की सुरक्षा घुमन्तु लोगों से करनी होती थी। इससे बचने और शान्ति पूर्ण जीवन जीने के लिये उन्होंने कुछ घुमन्तु लोगों की सेवाएं लीं। उन्हें कुछ जमीनें और घर देकर गांव के बाहर बसा दिया और उनको गांव की सुरक्षा का काम सौंप दिया। वे पीढि़यों तक इस काम को करते रहे। गांव के भीतर और गांव के बाहर किनारों पर रहने वाले इन लोगों के बीच सामान्य मानवीय सम्बन्ध थे- किसी तरह की अस्पृश्यता नहीं थी। तब, अस्पृश्यता कैसे पैदा हुई? आंबेडकर कहते हैं कि इसके लिये भारत में बौद्धधर्म के उदय को देखना होगा।
 आंबेडकर के अनुसार, भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब बौद्धधर्म ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था। देश की जनता और सारा व्यापारी वर्ग बौद्धधर्म में चला गया था। ब्राह्मणवाद का पतन हो गया था, जो शताब्दियों से राज कर रहा था। बुद्ध ने तीन शिक्षाएं दीं- सामाजिक समानता की, वर्णव्यवस्था के उन्मूलन की और अहिंसा के सिद्धान्त की, जिसमें धर्म के नाम पर पशु बलि वर्जित थी। आंबेडकर ने कहा कि उस समय तक ब्राह्मण शाकाहारी नहीं हुए थे, वे गौओं और अन्य पशुओं की बलि देते थे और उनका मांस खाते थे। जब बुद्ध ने बलि का निषेध किया और गाय को ऋषि और दूध के लिये उपयोगी पशु बताते हुए उसकी सुरक्षा की शिक्षा दी, तो जनता ने उसे अपना लिया। तब, ब्राह्मणों के सामने शाकाहारी बनने के सिवा कोई चारा नहीं था।
 आगे आंबेडकर लिखते हैं कि ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को बौद्धधर्म में जाने से रोकने के मकसद से उन्हें समानता का दर्जा देने की पेशकश की और दोनों ने मिलकर वैश्य और शूद्रों को रोकने के लिये उन दो पुलिस वालों की तरह काम किया, जो कैदी के दोनों तरफ खड़े होकर उसे भागने से रोकते हैं। अब गाय पवित्र हो गयी थी और उसकी बलि देने की प्रथा समाप्त हो गयी थी। बहुत सारी बुद्ध शिक्षाएं हिन्दूधर्म में समाहित कर लीं गयी थीं। जो जनता बौद्धधर्म में चली गयी थी, वह भी धीरे-धीरे वापिस आने लगी थी। बुद्ध की जो सबसे बड़ी शिक्षा ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं की, वह थी समानता की शिक्षा और वर्णव्यवस्था का उन्मूलन। पर, उन्होंने यह जरूर किया कि कुछ समय के लिये क्षत्रियों को अपने समान दर्जा दिया और ब्राह्मण देवताओं को हटा कर उनके स्थान पर क्षत्रिय देवताओं को स्थापित कर उनके साथ अन्य समयानुकूल समझौते कर लिये।
 आगे आंबेडकर कहते हैं, न तो बुद्ध ने और न ब्राह्मणों ने मृतक पशु के मांस को खाने पर रोक लगायी थी। रोक सिर्फ जीवित गाय का वध करने पर थी। पर, आज के अछूतों का एक बड़ा अपराध यह है कि वे गरीबों में सबसे गरीब और सामाजिक रूप से सबसे निचले स्तर के होने के कारण बौद्धधर्म में लम्बे समय तक बने रहे और मृतक पशु का मांस खाते रहे। उनको सुधारने के लिये एक बड़ी शक्ति की जरूरत थी, जो उनके लिये लम्बे समय तक काम करती। पर ऐसा कोई काम तो नहीं हुआ, उलटे, सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता उन पर लागू कर दी गयी।
 आंबेडकर का निष्कर्ष था कि उनकी मृतक गाय का मांस खाने की आदत ही उनके शोषण का कारण बनी। यही वह चीज थी, जिससे स्वाभाविक रूप से हिन्दुओं को उनसे घृणा हुई। इसी वजह से उस पूरे वर्ग पर अस्पृश्यता थोप दी गयी। यह वास्तव में वह दण्ड था, जो ब्राह्मणों ने उन्हें बौद्धधर्म में बने रहने के लिये दिया था, जबकि अन्य लोगों ने बौद्धधर्म छोड़ दिया था। आंबेडकर कहते हैं कि इसलिये शिक्षा और स्वतन्त्रता तथा सामाजिक समानता के सभी आधुनिक विचारों के बावजूद आज तक अस्पृश्यता बनी हुई है।
 आंबेडकर ने अपने इस शोध को ‘दि अनटचेबिल्स’ नाम से प्रकाशित कराया, जो अछूतपन के ऐतिहासिक आधार को रेखांकित करने वाली एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह सिद्ध करने के बाद कि आज के अछूत किसी समय बौद्ध थे, उनका बौद्धधर्म में जाने का रास्ता आसान हो गया था। अतः आंबेडकर ने 2 मई 1950 को नयी दिल्ली में, बुद्ध जयन्ती के अवसर पर भारत के अछूतों से बौद्धधर्म ग्रहण करने की अपील की। इस अपील पर दूसरे दिन 15 अछूतों ने दिल्ली में बौद्धधर्म ग्रहण किया। इस अवसर पर, डा. आंबेडकर ने हिन्दी में तीस मिनट का संक्षिप्त व्याख्यान दिया, जिसमें उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत में पुनः बौद्धधर्म का उदय होगा। उन्होंने आगे कहा कि न राम और न ही कृष्ण बुद्ध का मुकाबला करते हैं, बुद्ध के बराबर कोई भगवान नहीं है और न आगे ऐसा कोई महान धर्मगुरु और शास्ता पैदा होगा। 6 जून 1950 को उन्होंने कोलम्बो में कहा, ‘‘यह आम धारणा बन गयी है कि बौद्धधर्म भारत से लुप्त हो गया है। मैं मानता हूँ कि यह भौतिक रूप में लुप्त हुआ है, पर एक अमूर्त (बौद्धिक) शक्ति के रूप में यह अभी भी अस्तित्व में है।’’
 आंबेडकर ने देश के बहुत से भागों में जाकर अछूतों की सभाएं कीं और उन्हें बौद्धधर्म के विषय में जानकारी दी। उन्होंने स्वयं को पूरी तरह बौद्धधर्म के विस्तार के लिये समर्पित कर दिया था। अन्ततः उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को विजया दशमी के दिन नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ पूज्य महास्थविर चन्द्रमणि जी के नेतृत्व में बौद्धधर्म की दीक्षा ली और भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार का झण्डा गाड़ दिया। बाद में, उन्होंने बाइबिल और कुरान की तरह बौद्धों के लिये भी एक धर्मग्रन्थ की रचना की, जो ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नाम से प्रसिद्ध है।

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 हमने देखा कि राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर दोनों बौद्धधर्म तक पहुंचे, पर अलग-अलग रास्तों से और अलग-अलग कारणों से। राहुल भारत में बौद्ध समाज नहीं बना पाये। पर, आंबेडकर ने इसी कमी को पूरा किया। लेकिन इस बात को लेकर दोनों एक मत थे कि बौद्धधर्म हिन्दूधर्म का अंग नहीं है। राहुल की दृष्टि में बौद्ध हिन्दू नहीं थे। किन्तु, बुद्ध के जीवन, सिद्धान्तों और दर्शन के सम्बन्ध में दोनों विद्वानों के विचार समान नहीं हैं। उदाहरण के लिये आंबेडकर ने बुद्ध के जीवन और दर्शन को उसी रूप में स्वीकार नहीं किया, जिस रूप में वह परम्परा में मौजूद था। किन्तु, राहुल काफी हद तक परम्परा में प्रचलित बुद्ध के जीवन-दर्शन को ही स्वीकार करते हैं। बुद्ध के जन्म की इस कहानी पर राहुल और आंबेडकर एक मत हैं कि बुद्ध ने अपने जन्म के बारे में सोच कर यह तय किया कि कपिलवस्तु में राजा शुद्धोधन मेरे पिता होंगे और मेरी माता महामाया नामक देवी होंगी। तब उन्होंने महामाया को स्वप्न में आकर बताया कि क्या तुम मेरी माता बनना स्वीकार करोगी? उसका उत्तर था, बड़ी प्रसन्नता से। और उसी समय बोधिसत्त्व ने महामाया के गर्भ में प्रवेश किया।
 लेकिन बुद्ध के गृहत्याग की कहानी पर राहुल के विचार परम्परागत हैं, जबकि आंबेडकर उसको तर्क की कसौटी पर कसते हैं और उसके मूल में राजनैतिक कारण मानते हैं। राहुल का वही (परम्परागत) मत है- ‘‘वृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित (संन्यासी) के चार दृश्यों को देखकर उनकी (सिद्धार्थ की) संसार से विरक्ति पक्की हो गयी और एक रात वह चुपके से घर से भाग निकले।’’ राहुल सांकृत्यायन भी घर छोड़कर भागे थे, अपने पिता, माँ और ब्याहता किसी का भी मोह उन्होंने नहीं पाला था। पर, आंबेडकर को बुद्ध का इस तरह पलायन करना ठीक नहीं लगा था। यह उनके गले भी नहीं उतरा था। वे लिखते हैं- ‘‘जिस समय सिद्धार्थ (बुद्ध) ने प्रव्रज्या (गृहत्याग) ग्रहण की, उस समय उनकी आयु 29 वर्ष की थी। यदि सिद्धार्थ ने इन्हीं तीन दृश्यों (वृद्ध, रोगी और मृतक) को देखकर प्रव्रज्या ग्रहण की, तो यह कैसे हो सकता है कि 29 वर्ष की आयु तक सिद्धार्थ ने कभी किसी बूढ़े, रोगी तथा मृत व्यक्ति को देखा ही न हो? ये जीवन की ऐसी घटनाएं हैं, जो रोज ही सैकड़ों, हजारों की संख्या में घटती रही हैं और सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु होने से पहले भी इन्हें देखा ही होगा। इस परम्परागत मान्यता को स्वीकार करना असम्भव है कि 29 वर्ष की आयु होने तक सिद्धार्थ ने एक बूढ़े, रोगी और मृत व्यक्ति को देखा ही नहीं था और 29 वर्ष की आयु होने पर ही प्रथम बार देखा। यह व्याख्या तर्क की कसौटी पर कसने पर खरी उतरती प्रतीत नहीं होती।’’
 डा. भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है कि वृद्ध, रोगी और मृत व्यक्ति को देखकर गृहत्याग की मान्यता ‘‘वे अट्टकथाएँ हैं, जिन्हें बुद्धघोष तथा अन्य आचार्यों ने भगवान बुद्ध के एक हजार वर्ष बाद परम्परागत सिंहल अट्टकथाओं का आश्रय ग्रहण कर पाली भाषा में लिखा।’’ उनके अनुसार त्रिपिटक के किसी भी ग्रन्थ में गृहत्याग के इस कथानक का कहीं उल्लेख नहीं है।
 आंबेडकर ने परम्परागत मान्यता के विरुद्ध ‘खुद्दक निकाय’ के ‘सुत्तनिपात’ के अट्ठकवग्ग में अत्तदण्डसुत्त की इन गाथाओं को बुद्ध के गृहत्याग का आधार बनाया- ‘‘शस्त्र धारण भयावह लगा। मुझमें वैराग्य उत्पन्न हुआ, यह मैं बताता हूँ। अपर्याप्त पानी मैं जैसे मछलियां छटपटाती हैं, वैसे एक-दूसरे से विरोध करके छटपटाने वाली प्रजा को देखकर मेरे मन में भय उत्पन्न हुआ। चारों ओर का जगत असार दिखायी देने लगा, सब दिशाएं काँप रही हैं, ऐसा लगा और उसमें आश्रय का स्थान खोजने पर निर्भय स्थान नहीं मिला, क्योंकि अन्त तक सारी जनता को परस्पर विरुद्ध हुए देखकर मेरा जी ऊब गया।’’
 आंबेडकर का मत है कि शाक्यों और कोलियों में रोहिणी नदी के पानी को लेकर झगड़े होते थे। शाक्य संघ ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध का प्रस्ताव पारित किया, जिसका सिद्धार्थ गौतम ने विरोध किया। शाक्य संघ के नियम के अनुसार बहुमत के विरुद्ध जाने पर दण्ड का प्राविधान था। संघ ने तीन विकल्प रखे-(1) सिद्धार्थ सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लें, (2) फांसी पर लटक कर मरने या देश छोड़कर जाने का दण्ड स्वीकार करें या (3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिये राजी हों। संघ का बहुमत सिद्धार्थ के विरुद्ध था। सिद्धार्थ के लिये सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेने की बात को स्वीकार करना असम्भव था। अपने परिवार के सामाजिक बहिष्कार पर भी वह विचार नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने दूसरे विकल्प को स्वीकार किया और वे स्वेच्छा से देश त्याग कर जाने के लिये तैयार हो गये।
 राहुल सांकृत्यायन ने इसी परम्परागत मान्यता के साथ लिखा कि सिद्धार्थ गौतम ने अपनी पत्नी और बच्चे को सोता हुआ छोड़कर चुपके से गृहत्याग किया था। किन्तु, आंबेडकर इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, उन्होंने पूरी तरह अपने पिता शुद्धोधन, अपनी माता प्रजापति गौतमी और पत्नी यशोधरा से सहमति और अनुमति लेकर घर से अभिनिष्क्रमण किया था। राहुल ने सिद्धार्थ की परिवार-विमुखता को गम्भीरता से नहीं लिया, शायद इसलिये कि वे स्वयं भी परिवार-विमुख थे। पर, आंबेडकर ने इसे बहुत गम्भीर प्रश्न माना था। उनकी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति, जो परिवार-विमुख है, समाज-विमुख भी होगा, वह समाज-उन्मुख नहीं हो सकता। इसलिये आंबेडकर ने इस बात को रेखांकित करना ज्यादा जरूरी समझा कि सिद्धार्थ जैसा जनवादी और जागरूक व्यक्ति परिवार-विमुख कैसे हो सकता है? वह परिवार के सदस्यों को धोखा देकर घर छोड़ ही नहीं सकते थे। इस तरह के विश्वासघात की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती थी। आंबेडकर ने लिखा है कि जब सिद्धार्थ ने कपिलवस्तु छोड़ा, तो अनोमा नदी तक जनता उनके पीछे-पीछे आयी थी, जिसमें उनके पिता शुद्धोधन और उनकी माता प्रजापति गौतमी भी उपस्थित थे।

 वाराणसी के ऋषिपतन मृगदाव (सारनाथ) में पंच वर्गीय ब्राह्मण भिक्षुओं को दिया गया बुद्ध का पहला धर्मोपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र’ के नाम से विख्यात है। इसमें बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की शिक्षा दी है। पहला आर्य सत्य ‘दुख है’, दूसरा आर्य सत्य ‘दुख का कारण है’, तीसरा आर्य सत्य ‘दुख का निरोध है’, और चौथा आर्य सत्य ‘दुख निरोध का उपाय है।’ दुख सत्य की व्याख्या करते हुए बुद्ध ने कहा है- ‘‘जन्म भी दुख है, बुढ़ापा भी दुख है, मरण, शोक, रूदन, मन की खिन्नता, हैरानगी दुख है। अप्रिय से संयोग भी, प्रिय से वियोग भी दुख है, इच्छा करके जिसे नहीं पाता, वह भी दुख है। संक्षेप में पांचों उपादान स्कन्ध (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) दुख हैं।’’ बुद्ध ने दुख का कारण तृष्णा को माना है और तृष्णा के निरोध (विनाश) को दुख का निरोध कहा है। तृष्णा से उपादान (वासना) पैदा होती है, उपादान से जन्म, जन्म से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक आदि पैदा होते हैं। दुख-निरोध का मार्ग है, आर्य आष्टांगिक मार्ग, जो ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयत्न, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि।
 राहुल और आंबेडकर दोनों ने चार आर्य सत्यों पर अपने-अपने ढंग से विचार किया है। बुद्ध ने दुख सत्य की जो लौकिक-अलौकिक व्याख्या की है, उसे उसी रूप में राहुल ने भी स्वीकार नहीं किया है और आंबेडकर ने भी। राहुल लिखते हैं, ‘‘यहां उन्होंने (बुद्ध ने) दुख और उसकी जड़ को समाज में न ख्याल कर व्यक्ति में देखने की कोशिश की। भोग की तृष्णा के लिये राजाओं, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, वैश्यों सारी दुनिया को झगड़ते, मरते-मारते देख कर भी उस तृष्णा को व्यक्ति से हटाने की कोशिश की। उनके मतानुसार मानो, काँटों से बचने के लिये सारी पृथ्वी को तो नहीं ढका जा सकता है, हाँ अपने पैरों को चमड़े से ढाँक कर काँटों से बचा जा सकता है। वह समय भी ऐसा नहीं था कि बुद्ध जैसे प्रयोगवादी दार्शनिक सामाजिक पापों को सामाजिक चिकित्सा से दूर करने की कोशिश करते। तो भी, वैयक्तिक सम्पत्ति की बुराइयों को वह जानते थे, इसीलिये जहाँ तक उनके अपने भिक्षु-संघ का सम्बन्ध था, उन्होंने उसे हटा कर भोग में पूर्ण साम्यवाद स्थापित करना चाहा।’’
 राहुल ने बुद्ध के दुख-विनाश के मार्ग की भौतिकवादी व्याख्या की है। उनके अनुसार, ‘‘बुद्ध तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ इसलिये नहीं गये, क्योंकि बुद्ध के धर्म को फैलाने में राजाओं से भी अधिक व्यापारियों ने उनकी सहायता की थी।’’
 किन्तु डा. आंबेडकर ने इस तरह की भौतिक व्याख्या नहीं की है। उनका मत है कि बुद्ध ने परिनिर्वाण के बाद बुद्ध वचनों में ब्राह्मणों ने भारी हेर-फेर की है। उन्होंने बुद्ध और उनके वचनों को अपने अनुकूल बनाने का काम इसलिये किया, ताकि आम जनता के लिये वे दुष्कर हो जायें। उन्होंने बुद्ध वचनों को ही अलौकिक नहीं बनाया, वरन् बुद्ध को भी लोकोत्तर सत्ता का रूप दिया। जैसा कि भदन्त आनन्द कौसात्यायन का मत है, ‘‘भगवान बुद्ध के बारे में एक बात बड़े ही विश्वास के साथ कही जा सकती है कि वे कुछ नहीं थे, यदि उनका कथन बुद्धिसंगत, तर्क-संगत नहीं होता था। आंबेडकर ने इसी आधार पर बुद्ध वचनों को स्वीकार किया। उन्होंने स्वयं लिखा है कि जब हम पाली ग्रन्थों के आधार पर बुद्ध का जीवन चरित्र लिखने का प्रयास करते हैं, तो हमें यह कार्य सहज प्रतीत नहीं होता और उनकी शिक्षाओं की सुसंगत अभिव्यक्ति तो और भी कठिन हो जाती है। वे लिखते हैं कि बुद्ध की चर्या का लेखा-जोखा हमारे सामने कई ऐसी समस्याएं पैदा करता है, जिनका निराकरण यदि असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है। इसलिये, उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि उन समस्याओं पर खुल कर विचार किया जाय। ऐसी उन्होंने चार समस्याओं को रेखांकित किया, जिनमें हम पहली समस्या बुद्ध के गृहत्याग पर ऊपर चर्चा कर चुके हैं। दूसरी समस्या चार आर्य सत्यों से उत्पन्न होती है। इस समस्या पर विचार करते हुए आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘जीवन स्वभावतः दुख है, यह सिद्धान्त जैसे बुद्धधर्म की जड़ पर ही कुठाराघात करता प्रतीत होता है। यदि जीवन भी दुख है, मरण भी दुख है, पुनरुत्पत्ति भी दुख है, तब तो सभी कुछ समाप्त है। न धर्म ही किसी आदमी को इस संसार में सुखी बना सकता है और न दर्शन ही। यदि दुख से मुक्ति ही नहीं है तो फिर धर्म भी क्या कर सकता है और बुद्ध भी किसी आदमी को दुख से मुक्ति दिलाने के लिये क्या कर सकते हैं, क्योंकि जन्म ही स्वभावतः दुखमय है? ये चारों आर्यसत्य, जिनमें प्रथम आर्यसत्य ही दुख-सत्य है, अबौद्धों द्वारा बौद्धधर्म ग्रहण किये जाने के मार्ग में बड़ी बाधा है। ये उनके गले आसानी से नहीं उतरते। ये सत्य मनुष्य को निराशावाद के गढ़े में ढकेल देते हैं। ये सत्य बुद्ध के धम्म को एक निराशावादी धर्म के रूप में उपस्थित करते हैं।’’आंबेडकर चार आर्यसत्यों को बुद्ध की मूल शिक्षा के विपरीत और परवर्ती भिक्षुओं द्वारा किया गया प्रक्षिप्तांश मानकर पूरी तरह अस्वीकार कर देते हैं।
 आंबेडकर की तीसरी समस्या आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को लेकर है। किन्तु, पहले हम यह देखेंगे कि इस सम्बन्ध में राहुल सांकृत्यायन का मत क्या है? बुद्ध अनात्मवादी और अनीश्वरवादी थे। अर्थात् वे आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व को नहीं मानते थे। इस सम्बन्ध में ‘प्रतीत्य-समुत्पाद’ (क्षणिकवाद) बुद्ध का बहुत ही क्रान्तिकारी दर्शन है। पर, राहुल लिखते हैं, ‘‘तो भी इस क्रान्तिकारी दर्शन ने अपने भीतर से उन तत्वों (धर्म) को हटाया नहीं था, जो समाज की प्रगति को रोकने का काम देते हैं। पुनर्जन्म की यद्यपि बुद्ध ने नित्य आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में आवागमन के रूप में मानने से इनकार किया था, तो भी दूसरे रूप में परलोक और पुनर्जन्म को माना था। जैसे इस शरीर में जीवन विच्छिन्न प्रवाह (नष्ट-उत्पत्ति-नष्ट-उत्पत्ति) के रूप में एक तरह की एकता स्थापित किये हुए है, उसी तरह वह शरीरान्त में भी जारी रहेगा। पुनर्जन्म के दार्शनिक पहलू को और मजबूत करते हुए पुनर्जन्म का पुनर्जन्म प्रतिसन्धि के रूप में किया अर्थात् नाश और उत्पत्ति की संधि (श्रृंखला) से जुड़कर जैसे जीवन-प्रवाह इस शरीर में चल रहा है, उसी तरह उसकी प्रतिसन्धि (जुड़ना) एक शरीर से अगले शरीर में होती है। अविकारी ठोस आत्मा में पहले के संस्कारों को रखने का स्थान नहीं था, किन्तु क्षणपरिवर्तनशील तरल विज्ञान (जीवन) में उसके वासना या संस्कार के रूप में अपना अंग बनकर चलने में कोई दिक्कत न थी। क्षणिकता सृष्टि की व्याख्या के लिये पर्याप्त थी, किन्तु ईश्वर का काम संसार में व्यवस्था, समाज में व्यवस्था (शोषित को विद्रोह से रोकने की चेष्टा) कायम करना भी है। इसके लिये बुद्ध ने कार्य के सिद्धान्त को और मजबूत किया। आवागमन, धनी-निर्धन का भेद उसी कर्म के कारण है, जिसके कर्ता कभी तुम खुद थे, यद्यपि आज वह कर्म तुम्हारे लिये हाथ से निकला तीर है।’’
 राहुल आगे लिखते हैं, ‘‘बुद्ध के प्रतीत्य-समुत्पाद को देखने पर, जहां तत्काल प्रभुवर्ग भयभीत हो उठता, वहां प्रतिसंधि और कर्म का सिद्धान्त उन्हें बिल्कुल निश्चिन्त कर देता था। यही वजह थी, जो कि बुद्ध के झण्डे के नीचे हम बड़े-बड़े राजाओं, सम्राटों, सेठ-साहूकारों को आते देखते हैं, और भारत से बाहर लंका, चीन, जापान, तिब्बत में तो उनके धर्म को फैलाने में राजा सबसे पहले आगे बढ़े। वे समझते थे कि यह धर्म सामाजिक विद्रोह के लिये नहीं, बल्कि सामाजिक स्थिति को स्थापित रखने के लिये बहुत सहायक साबित होगा।’’ राहुल ने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था। इसलिये उन्होंने कहा, ‘‘वर्गदृष्टि से देखने पर बौद्धधर्म शासक वर्ग के एजेन्ट की मध्यस्थता जैसा था, वर्ग के मौलिक स्वार्थ को बिना हटाये वह अपने को न्याय-पक्षपाती दिखलाना चाहता था।’’
 डा. आंबेडकर ने बौद्धधर्म का अध्ययन इस दृष्टि से नहीं किया था। उनका देखने का नजरिया यह था कि बौद्धधर्म का उदय, उसका विकास और प्रभाव ब्राह्मणवाद के लिये घातक था। इसलिये, बौद्धधर्म को विकृत करने का काम ब्राह्मणवाद की विजय के लिये उन ब्राह्मणों ने किया, जो छद्म रूप से बौद्धधर्म में चले गये थे। आत्मा, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त भी उन्हीं छद्म बौद्धों की देन हैं। इसलिये आंबेडकर लिखते हैं, ‘‘बुद्ध ने आत्मा के अस्तित्व से इनकार किया। लेकिन साथ ही उन्होंने कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त का भी समर्थन किया है। प्रश्न पैदा हो सकता है कि आत्मा ही नहीं, तो कर्म कैसा? आत्मा ही नहीं, तो पुनर्जन्म कैसा? ये सचमुच टेढ़े प्रश्न हैं। बुद्ध ने ‘कर्म’ तथा ‘पुनर्जन्म’ शब्दों का प्रयोग किन विशिष्ट अर्थों में किया है? क्या बुद्ध ने इन शब्दों का किन्हीं ऐसे विशिष्ट अर्थों में प्रयोग किया, जो अर्थ उन अर्थों से सर्वथा भिन्न थे, जिन अर्थों में बुद्ध के समकालीन ब्राह्मण इन शब्दों का प्रयोग करते थे? यदि हां, तो वह अर्थभेद क्या था? अथवा, उन्होंने उन्हीं अर्थों में इन शब्दों का प्रयोग किया, जिन अर्थों में ब्राह्मण जन इनका प्रयोग करते थे? यदि हां, तो क्या ‘आत्मा’ के अस्तित्व को अस्वीकार करने तथा ‘कर्म’ और ‘पुनर्जन्म’ के सिद्धान्त को मान्य करने में भयानक असंगति नहीं है?’’
 आंबेडकर ने कर्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है, पर उसे कर्म के हिन्दू सिद्धान्त से अलग रखा है। उनका कहना है कि कर्म का बौद्ध सिद्धान्त और कर्म का हिन्दू सिद्धान्त न एक है और न एक हो सकता है। उन्होंने इस शाब्दिक मायाजाल से सावधान रहने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनके अनुसार, कर्म का हिन्दू सिद्धान्त शरीर से पृथक एक आत्मा पर निर्भर करता है, शरीर मरता है तो आत्मा उसके साथ नहीं मरती। आत्मा फुर्र से उड़ जाती है। किन्तु, बुद्ध के कर्म के सिद्धान्त का सम्बन्ध मात्र कर्म से है और वह भी वर्तमान जन्म के कर्म से।
 आबेडकर ने बुद्ध के पुनर्जन्म के सिद्धान्त की व्याख्या इस प्रकार की है, ‘‘बुद्ध के अनुसार चार भौतिक पदार्थ हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। जब शरीर का मरण होता है, तो क्या वे भी मर जाते हैं? बुद्ध ने कहा कि ‘नहीं’। आकाश में जो समान भौतिक पदार्थ सामूहिक रूप से विद्यमान हैं, वे उनमें मिल जाते हैं। इस विद्यमान राशि में से जब इन चारों भौतिक पदार्थों का पुनर्मिलन होता है, तो पुनर्जन्म होता है।’’ आगे आंबेडकर इस प्रश्न पर विचार करते हुए कि क्या मृत आदमी का ही पुनर्जन्म होता है, लिखते हैं, ‘‘यदि मृत आदमी के देह के सभी भौतिक अंश पुनः नये सिरे से मिलकर एक नये शरीर का निर्माण कर सकें, तभी यह मानना सम्भव है कि उसी आदमी का पुनर्जन्म हुआ। यदि भिन्न-भिन्न मृत शरीरों के अंशों के मेल से एक नया शरीर बना, तो यह पुनर्जन्म तो हुआ, लेकिन यह उसी आदमी का पुनर्जन्म नहीं हुआ।’’ इस प्रकार, आंबेडकर ने बुद्ध के कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को खारिज नहीं किया, वरन् उसकी वैज्ञानिक व्याख्या की, अलौकिक व्याख्या से बचते हुए, जो त्रिपिटक के ग्रन्थों में मिलती है।
 राहुल और आंबेडकर की वैचारिक असमानताएं इस कारण से हैं कि राहुल ने एक मार्क्सवादी आलोचक के रूप में धर्म की व्याख्या की है। वे इतिहास के आलोचक थे और भारत में समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करने के स्वप्न-द्रष्टा। किन्तु, डा. आंबेडकर इतिहास के आलोचक के साथ-साथ इतिहास के निर्माता भी थे। भारत में बौद्धधर्म का पुनरुद्धार और बौद्ध समाज का निर्माण उनकी सबसे बड़ी चिन्ता थी। बीसवीं सदी की वैज्ञानिक विचारधारा और मार्क्सवादी आर्थिक व्याख्याओं की चुनौतियाँ भी उनके सामने थीं। राहुल धर्म को मनुष्य के लिये अनावश्यक कह सकते थे, पर आंबेडकर, जो बौद्धधर्म के पुनरुद्धारक होने जा रहे थे, धर्म को अनावश्यक कैसे ठहरा सकते थे? उन्होंने धर्म की भी धर्म, अधर्म और सद्धर्म के रूपों में व्याख्या की और बुद्ध वचनों को भी, जो विकृत हो चुके थे, झाड़-पोंछ कर तर्कसंगत और वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया। वे एक विशाल मानव समुदाय को अधार्मिक बनाये जाने के पक्ष में नहीं जा सकते थे। नैतिक दृष्टि से भी किसी समुदाय का धर्म-विमुख होना उनके लिये अनुचित था। वे बौद्धधर्म को एक क्रान्ति मानते थे। उनके अनुसार, ‘‘यह उतनी ही महान क्रान्ति थी, जितनी कि फ्रान्स की क्रान्ति थी। यद्यपि यह धार्मिक क्रान्ति के रूप में आरम्भ हुई, तथापि यह धार्मिक क्रान्ति से बढ़कर थी। यह सामाजिक और राजनैतिक क्रान्ति बन गयी थी।’’ वे लिखते हैं कि इस क्रान्ति के महत्व को तभी समझा जा सकता है, जब क्रान्ति से पहले के भारतीय समाज की भयानक स्थिति और सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से निकृष्ट, विलासिता में डूबे हुए बुद्धकालीन आर्य समुदाय का चित्र आपके सामने होगा।

सन्दर्भ-ग्रन्थ 
 1. अंधकार में ज्योति (अनागरिक धर्मपाल का जीवनवृत्त तथा उपदेश), लेखक-महास्थविर संघरक्षित, नौरफोक (इंगलैण्ड), अनुवादक- कँवल भारती, प्रकाशक-त्रिरत्न ग्रन्थमाला, पुने, संस्करण: 1991 (प्रथम)
 2. मेरी जीवन यात्रा, प्रथम खण्ड, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1946, 
 3. वही, द्वितीय खण्ड, संस्करण 1950,
 4. दर्शन-दिग्दर्शन- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण 1998,
 5. जिनका मैं कृतज्ञ- राहुल सांकृत्यायन, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-1957 
6.. डा. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङमय, खण्ड-7, 9,10,14, डा. आंबेडकर प्रतिष्ठान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नयी दिल्ली, 
7. सोर्स मेटेरियल आन डा. बाबा साहेब आंबेडकर एण्ड दि मूवमेन्ट आफ दि अनटचेबुल्स, वाल्यूम-1, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, बम्बई, संस्करण प्रथम, दिसम्बर 6, 1982, 
8. डा. बाबा साहेब आंबेडकर- राइटिंगस एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-12, एजूकेशन डिपार्टमेंन्ट, महाराष्ट्र गर्वनमंन्ट, संस्करण पहला 1993, 
9. धनंजय कीर, आंबेडकरः लाइफ एण्ड मिशन, पापुलर प्रकाशन, बम्बई, दूसरा संस्करण, 1961, 
10.राहुल सांकृत्यायन की ‘बुद्धचर्या’ (भारतीय बौद्ध समिति, लखनऊ, संस्करण 1995) 
11. डा. आंबेडकर की पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’, समता प्रकाशन, नागपुर, 
12. ‘सुत्तनिपात’, मूलपाली तथा हिन्दी अनुवाद, भिक्षु धमरत्न, प्रकाशक महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस, संस्करण प्रथम 1951, 
13.‘धम्मचक्कपवत्तन सुत्त’, अनुवाद एवं व्याख्या : कँवल भारती, बोधिसत्त्व प्रकाशन, रामपुर,

Friday, November 26, 2021

डॉ.अंबेडकर के लोकतांत्रिक समाजवाद से क्यों असहमत थी संविधान सभा-कंवल भारती

संविधान दिवस 26 नवंबर पर विशेष
15.3.1947 को डॉ.अंबेडकर ने संविधान में कानून के द्वारा ‘राज्य समाजवाद’ को लागू करने के लिए संविधान सभा को ज्ञापन दिया। उन्होंने मांग की थी कि भारत के संविधान में यह घोषित किया जाए कि उद्योग, कृषि, भूमि और बीमा का राष्ट्रीयकरण होगा तथा खेती का सामूहिकीकरण। लेकिन संविधान सभा ने ऐसा होने नहीं दिया।

डॉ.अंबेडकर दुनिया भर के संविधान के ज्ञाता थे और मानते थे कि किसी भी देश की प्रगति में उस देश के संविधान की बड़ी भूमिका होती है। संविधान की भूमिका को रेखांकित करते हुए वे एक जगह लिखते हैं-“सारी सामाजिक बुराईयां धर्म-आधारित होती हैं।

एक हिन्दू स्त्री या पुरुष, वह जो कुछ भी करता है, अपने धर्म का पालन करने के रूप में करता है। एक हिन्दू का खाना, पीना, नहाना, वस्त्र पहिनना, जन्म, विवाह और मरना सब धर्म के अनुसार होता है। उसके सारे कार्य धार्मिक हैं। हालांकि धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण से वे बुराइयां हैं, पर हिन्दू के लिए वे बुराइयां नहीं हैं, क्योंकि उन्हें उसके धर्म की स्वीकृति मिली हुई है। यदि कोई हिन्दू पर पाप करने का आरोप लगाता है, तो उसका उत्तर होता है, ‘यदि मैं पाप कर रहा हूं, तो धर्म के अनुसार कर रहा हूं’।”

“समाज हमेशा अनुदार और रूढ़िवादी होता है। यह तब तक नहीं बदलता है, जब तक कि इसे बदलने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है और वह भी धीरे–धीरे। जब भी परिवर्तन शुरू होता है, तो हमेशा पुराने और नये के बीच संघर्ष होता है, और इस संघर्ष में अगर नए को बचाने के लिए उसका समर्थन न किया जाय तो नये के खत्म होने का हमेशा खतरा बना रहता है। सुधार के माध्यम से एक निश्चित तरीका उसे कानून द्वारा समर्थन देना है। कानून की सहायता के बिना, कभी भी किसी बुराई को नहीं सुधारा जा सकता। और जब बुराई धर्म पर आधारित हो, तो कानून की भूमिका बहुत बड़ी होती है।”

हिन्दू समाज की बहुत सी बुराइयां बेहद अमानवीय थीं, जो ब्रिटिश काल में कानून के दबाव से धीरे-धीरे समाप्त हुईं। परन्तु क्या कारण है कि दलितों के प्रति अस्पृश्यता और भेदभाव की बुराई खत्म नहीं हुई। डॉ. आंबेडकर ने इसका कारण यह बताया कि जो बुराइयां दूर हुईं, उन्हें हिन्दू स्वयं दूर करना चाहते थे, क्योंकि वे हिन्दू परिवार की बुराइयां थीं, जिनमें सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा आदि थीं। किन्तु अस्पृश्यता की बुराई हिन्दू समाज की संरचनात्मक व्यवस्था है, जिसे हिन्दू आज भी सही मानते हैं और खत्म करना नहीं चाहते।

डॉ.अंबेडकर ने महसूस कर लिया था कि हिन्दू अपनी जाति व्यवस्था का त्याग नहीं कर सकते, और कानून बन जाने के बावजूद वे दलित वर्गों की प्रगति में बाधक बने रहेंगे। इसलिए, वे कानून की, ऐसी अवधारणा पर विचार कर रहे थे, जहां अल्पसंख्यक वर्ग स्वतंत्र भारत के संविधान में अपने अधिकारों को सहजता से प्राप्त कर सकें। भारत स्वतंत्र हो चुका था और स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण होने जा रहा था। ऐसी स्थिति में डॉ. आंबेडकर की चिन्ता बढ़ गई थी, क्योंकि शासन सत्ता कांग्रेस के हाथों में आई थी, जिसमें ब्राह्मणों का वर्चस्व था। वे महसूस कर रहे थे कि ‘भारत सम्पूर्ण रूप से हिन्दुओं की मुट्ठी में है, उस पर उनका एकाधिकार है। ऊपर से नीचे तक सब उन्हीं के नियन्त्रण में है। ऐसा कोई विभाग नहीं है, जिस पर वे हावी न हों। पुलिस, अदालत तथा सरकार सेवाएं, दरअसल प्रशासन की प्रत्येक शाखा उनके कब्जे में है। परिणाम यह है कि अछूत लोग एक ओर हिन्दू जनता, तो दूसरी ओर हिन्दू बहुल प्रशासन नामक दो पाटों के बीच में पिस रहे हैं, एक उन पर अत्याचार करता है, तो दूसरा उनकी मदद करने के बजाए, अत्याचार करने वालों को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करता है।’

ऐसी स्थिति में डॉ.अंबेडकर ने संविधान के एक ऐसे माॅडल पर विचार किया, जो समाजवादी था। उनका विश्वास था कि समाजवादी माॅडल को स्वीकार किए बिना भारत के अछूतों की दशा को नहीं सुधारा जा सकता, क्योंकि किसी का भी सामाजिक स्तर तभी ऊंचा उठता है, जब उनका आर्थिक स्तर सुधरता है। आर्थिक स्तर सरकार के नियन्त्रण वाली व्यवस्था से ही सुधर सकता है, निजीकरण की व्यवस्था से नहीं। इसलिए वे समाज कल्याण के यूरोपीय माडल को पसन्द नहीं करते थे, जिसके तहत सरकारें यह मानकर चलती हैं कि अधिकांश लोगों को सरकारी सुविधाओं की जरूरत नहीं है, बस थोड़े से गरीब लोग हैं, जिन्हें सुविधाएं चाहिए। सरकारों की लोकलुभावन योजनायें इसी माॅडल के तहत आती हैं। यह माॅडल दलित वर्गों का भला नहीं कर सकता, हालांकि आज की सरकारें इसी माडल पर काम कर रही हैं, और गरीबों की स्थिति जस की तस बनी हुई है। यह पूंजीवादी माॅडल है। इसलिए डॉ.अंबेडकर ने यह मानते हुए कि पूंजीवाद अमीरों का दर्शन है, गरीबों के हित में और देश के औद्योगिक विकास के हित में समाजवाद को आवश्यक माना। 17 दिसम्बर 1946 को उन्होंने संविधान सभा में पंडित नेहरू के प्रस्ताव पर बोलते हुए साफ-साफ शब्दों में कहा था कि ‘भारत को लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए संविधान में कैसे प्राविधान किए जायें, इसका कोई जिक्र पंडित नेहरू के प्रस्ताव में नहीं है। इसलिए मैं कुछ ऐसे प्राविधानों को रखना चाहूंगा, जो वास्तव में भारत में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय स्थापित करेंगे। इस दृष्टि से यह तभी सम्भव होगा, जब देश में उद्योग और भूमि का राष्ट्रीयकरण किया जायेगा। मैं नहीं समझता कि किसी भी भावी सरकार के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को समाजवादी बनाए बगैर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय में विश्वास करना सम्भव हो सकता है?’

डॉ. आंबेडकर ने 15 मार्च 1947 को संविधान में कानून के द्वारा ‘राज्य समाजवाद’ को लागू करने के लिए संविधान सभा को ज्ञापन दिया। इस ज्ञापन में उन्होंने मांग की कि भारत अपने संविधान के कानून के अंग के रूप में यह घोषित करे कि उद्योग, कृषि, भूमि और बीमा का राष्ट्रीयकरण तथा खेती का सामूहिकीकरण हो।

इस ज्ञापन को पढ़कर कांग्रेस को लगा कि यदि संविधान के निर्माण में डाॅ. आंबेडकर की सेवाएं नहीं ली गईं, तो यह व्यक्ति भारत में क्रान्ति पैदा कर देगा, जिसे संभालना मुश्किल हो जायगा। अतः कांग्रेस और गांधी जी ने डॉ. आंबेडकर को, जिन्हें वे सदन में देखना नहीं चाहते थे, और जिन्हें बंगाल से चुनकर आना पड़ा था, बम्बई से तुरन्त चुनकर भेजने के लिए 30 जून 1947 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने बम्बई के प्रधानमंत्री बी. जी. खेर को पत्र लिखा। फलतः वे बम्बई से चुनकर सदन में पहुंचे, क्योंकि विभाजन के बाद बंगाल की उनकी सीट समाप्त हो गई थी। अतः तुरंत ही पंडित नेहरू ने उन्हें 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत का प्रथम कानून मंत्री और संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बना दिया। संविधान सभा में 296 सदस्य थे, जिन्होंने विभिन्न समितियों के माध्यम से तैयार किए गए, संविधान के प्रारूप को संविधान सभा में भारी वाद-विवाद के बाद पास किया था। अतः दलित वर्गों के लोग ऐसा सोचते हैं कि वर्तमान संविधान डॉ. आंबेडकर के मनमाफिक संविधान हैं. तो गलत सोचते हैं। अगर संविधान डॉ. आंबेडकर मनमाफिक बना होता तो उसमें ‘राज्य समाजवाद’ की व्यवस्था को संविधान में कानूनी प्रावधान के रूप में जरूर शामिल करते, जिसे उन्होंने ज्ञापन में प्रस्तुत किया था। पर, संविधान में राज्य समाजवाद का कहीं भी प्राविधान नहीं है। इसके विपरीत, जैसा कि डॉ. राजाराम कहते हैं, ‘भारतीय संविधान में मूल अधिकारों में संपत्ति का व्यक्तिगत स्वामित्व जोड़कर वर्ण–व्यवस्था को ही कायम किया गया, जिससे संपत्ति का न बंटवारा हो, और न उस पर किसी तरह का अंकुश हो। ये मूल अधिकार अनुच्छेद 12 से 35 में आते हैं। संपत्ति के अधिकार को कड़ाई से स्थापित करने के लिए मूल अधिकारों में अनुच्छेद 19 च, छ और अनुच्छेद 31 यानी दो अनुच्छेद भी इसमें जोड़े गए। अनुच्छेद 19 च और छ में अपनी संपत्ति को इकट्ठा करने, उसका व्यापार आदि कुछ भी करने की पूर्ण स्वत्रन्त्रता दी गई है। धन खर्च करने की कोई सीमा नहीं, कोई कितना भी खर्च कर सकता है। अनुच्छेद 31 एक स्वतन्त्र अनुच्छेद है, जिसमें संपत्ति का व्यक्तिगत स्वामित्व रखा गया है। सार्वजनिक उद्देश्य के लिए सरकार किसी की भी संपत्ति को ले सकती है, परन्तु उसका मुआवजा दिए बिना नहीं। मूल अधिकारों को पवित्र और अपरिवर्तनीय बना दिया गया, ताकि उससे छेड़छाड़ न हो। इसलिए अलग से एक अनुच्छेद 13 मूल अधिकारों में रखा गया है। मूल अधिकारों के हनन पर अनुच्छेद 32 रखा गया है, जिसके द्वारा मूल अधिकार के हनन के विरुद्ध न्यायालय में शिकायत दर्ज हो सकती है। ये मूल अधिकार संविधान की तीसरी सूची में दर्ज है।’

क्या यह डाॅ. आंबेडकर की इच्छा से हुआ था। राज्य समाजवाद की वकालत करने वाले डाक्टर क्या निजी संपत्ति का कानून बना सकते थे? उत्तर है, कदापि नहीं। स्वयं भी संपत्ति को मूल अधिकार बनाने के पक्ष में नहीं थे। पर, सदन में बहुमत उन्हीं लोगों का था, जिनके पास भारी संपत्तियां थीं। वे अपनी संपत्ति को खोना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने समाजवाद को अपने पास तक नहीं फटकने दिया। उन्होंने न उद्योगों का राष्ट्रीयकरण होने दिया और न भूमि का। उन दिनों बालिग मताधिकार नहीं था। केवल वही लोग वोटर हुआ करते थे, जो शिक्षित होते थे या जिनके पास इतनी कर योग्य संपत्ति होती थीI जाहिर है कि ऐसे लोगों से, जिनमें ज्यादातर राजे-महाराजे, नवाब और जमींदार ही थे, समाजवाद के समर्थन की आशा नहीं की जा सकती थी. इसलिए भूस्वामियों को मुआवजा देकर उनसे जमीन लेने के सवाल पर जब संविधान सभा में अनुच्छेद 31 पर बहस चल रही थी, तो सदन में अकेले डॉ. आंबेडकर ही उसके विरोध में बालने वाले थे। डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि यह उनका ड्राफ्ट नहीं है। उनके अनुसार, जब अनुच्छेद 31 बनाया जा रहा था, तो उसको लेकर कांग्रेस में तीन गुट हो गए थे। जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और जी. बी. पन्त में गहरे मतभेद थे। किन्तु, इस विवाद का निपटारा भूमि सुधारों की हत्या पर हुआ। तब डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि यह अनुच्छेद इतना बदसूरत है कि ‘मैं उसकी तरफ देखना भी पसन्द नहीं करता।’

डॉ. आंबेडकर पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र को आदर्श व्यवस्था नहीं मानते थे। राज्य के नीति-निर्देशक तत्व भी, जो संविधान की चौथी सूची में हैं, डॉ. आंबेडकर के विचारों के अनुरूप नहीं है। ये अनुच्छेद 36 से 51 के अंतर्गत आते हैं। ये सिद्धांत राज्यों को कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए राज्यों को कानून बनाने का निर्देश देते हैं, परन्तु अनुच्छेद 37 में यह प्राविधान है कि राज्य द्वारा बनाए गए कानून को न्यायालय में मान्यता प्राप्त नहीं है। ये वैसे ही हैं, जैसे बिना दांत और नाखून वाला शेर। ये तत्व समाजवाद का दिखावा हैं, जबकि असल में ये पूंजीवाद के ही उपक्रम हैं।

इसीलिए डाॅ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में संविधान पर अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि जिस व्यक्ति को वास्तव में इस संविधान का ड्राफ्ट तैयार करने का श्रेय दिया जाना चाहिए, वह बी. एन. राव हैं। इसके बाद जिसे सबसे ज्यादा श्रेय मिलना चाहिए, वह संविधान के मुख्य शिल्पी एस. एन. मुखर्जी है। इससे यह बेहतर समझा जा सकता है कि अकेले डाॅ. आंबेडकर ने संविधान नहीं लिखा था, बल्कि उसके तैयार करने में ब्राह्मणों का हाथ और हित सर्वोपरि था। इसलिए इसी भाषण में उन्होंने कहा था-

‘26 जनवरी को हम विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हमें समानता प्राप्त होगी, परन्तु सामाजिक और आर्थिक जीवन मे हम असमानता से होंगे। राजनीति में हमारी पहिचान एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य की होगी, परन्तु हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करते रहेंगे, जिसका मुख्य कारण संविधान का सामाजिक और आर्थिक ढांचा है। अग़र हमने इस विरोधाभास को लम्बे समय तक बनाए रखा, तो राजनीतिक लोकतन्त्र खतरे में पड़ जायेगा।’


दरअसल, डाॅ. आंबेडकर अपने राज्य समाजवाद की क्रान्ति को संविधान में शामिल नहीं कर सके थे। हम इसके पीछे की राजनीतिक परिस्थितियों को समझते हैं। डाॅ. आंबेडकर के साथ बहुमत नहीं था। उस समय बहुजन समाज शिक्षित और जागरूक भी नहीं था। किन्तु आज बहुजन समाज शिक्षित भी है और जागरूक भी है। क्या ही अच्छा होगा कि वह राज्य समाजवाद की मांग के लिए आन्दोलन करे और उसे संविधान का अंग बनाने के लिए संसद पर दबाव बनाए।

संदर्भ 26.11.2018
कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क
लेखन : कंवल भारती
https://www.forwardpress.in/2018/11/buy-forward-press-books-86/

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