लघुकथा
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डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' |
अभी श्याम ऑफ़िस से लौटा ही था कि उसकी पत्नी
रेनू उस पर बिलबिला उठी- "सुनो जी! आज मैंने तुम्हारी पासबुक देखी है। पिछले
एक साल से हर महीने दस हज़ार रुपये किसे ट्रान्सफर कर रहे हो?
सच-सच बता दो।" "अरे वो मम्मी-पापा
आजकल काफ़ी परेशान रहते हैं। दोनो बीमार चल रहे हैं और इधर कुछ मकान का भी लफड़ा
है।" रेनू ने झगड़ने के अंदाज़ में कहा- "यह बकवास मुझे नहीं सुननी।
तुम्हीं ने ठेका ले रखा है क्या इन बुड्ढों का। और दूसरे बेटों की कोई ज़िम्मेदारी
नहीं है क्या!" "हा,
जब उनके बेटे अपनी ज़िम्मेदारी से मुकर गये हैं,
तो मेरी ही ज़िम्मेदारी बनती है।"
"मतलब", "
मतलब यह कि मैं तुम्हारे मम्मी-पापा की बात कर रहा हू। मेरे पापा तो
पेंशनर हैं। हर महीने मुझे ही कुछ न कुछ देते रहते हैं। रेनू का चेहरा खिलखिला उठा
और एक साँस में बोल गयी- "ओह श्याम! मेरे जानू! कितने अच्छे हो तुम! बैठो न!
बहुत थके लग रहे हो। मैं अभी कॉफ़ी बनाकर लाती हूँ।"
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