साहित्य
- जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
- लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
Saturday, December 18, 2021
अशोक दास पत्रकार के साथ बहुजन साहित्य के साधक संपादक भी हैं-
Tuesday, June 22, 2021
Asmita a ray of hope - Akhilesh Arun
Editorial
Created Asmita (Jan Ki
Baat) blog/page for her works. which
were disqualified from literary pen of news and editorial department of
magazines. Someone has said that creations are not bad. In the year 2019 or
2020, no major literary award (sorry can't remember, I will include
remembrance) was given to such a person whose composition (book) was returned
by not one but many editors saying that this book (manuscript) is meaningless.
And it's pointless.
Therefore, keep
writing, you should have a positive attitude towards the article that comes to
mind, and at the same time keep in mind that what we are writing is meaningful
in itself, it is necessary to evaluate it by ourselves.
In view of my writing interest, the first
suggestion to publish my articles on the blog was given by my own middle
brother Naval Kishore. Because he went to Dubai after completing his graduation
due to the financial condition of the house, it became necessary to get a smart
phone to talk to the family and us. As a result, the brother has already
entered the world of technology. We were able to join late due to our studies
and personal problems and financial condition etc. My reading and writing work
was going on, but the work of teaching in school would be in the month of
September or November, it would be the year 2010 or 2011, when I started teaching at
the end of the month, then we got 390 rupees as remuneration according to the
days taught. My own first earning was that money was used to get a jacket which
was probably worth Rs 590. Because of my single body, we got along with him for
10 or 11 years. In such a situation, getting smart mobile phones etc. was
outside my Transient.
The arrival of the laptop (Naval Kishor had
brought it from Dubai) paved the way to enter social media, in this world my
middle brother is my guru. Started using Facebook, Twitter, etc. from 2014. But
occasionally…… here the continuity continues from 2016, Since then till today I
have made some acquaintance in the field of writing. In writing, I am from
class six, in the writing of that time, the predominance of emotion and rhythm
was more and at the same time that writing was flawed. The first composition
story "The Unknown Attacker (agyat hamlavar)" appeared in the 2010/2011 issue of Saras
Salil. Since then the process of writing started, Facebook, Twitter are good
medium in the field of writing to create a global identity for new writers.....
become an international identity, overnight; what else do you want? Asmita Blog
Page From this year onwards, it has become an online platform for the works of
all your literary companions. 5 or 6 months ago from today a meeting was held
with my Teacher (guru ji) Mr. Rajkishor Gautam regarding literature. This is the place where we
first met Mr. Suresh Saurabh. We keep getting to read your creations on Facebook
etc. We were not fond of literary introduction, but the first meeting of both
of us took place here first face to face. The literary relationship deepened.
The idea of creating
an online web page in this area came to the
mind of Mr. Suresh Saurabh (leading litterateur of the our district), about which
discussions started taking place among-st us. A meeting in this regard was held
again at an interval of a month in which Mr. Rajkishor (Lecturer of English), Mr. Nandlal
Verma (Associate Professor), Mr. Suresh Saurabh (literary writer), Mr. Shyamkishore Bechain (poet), Mr. Ramakant Choudhary (advocate/poet) and
others were present.
In which it was decided that it will be
operated by me because I have some attachment in the online (internet) world...
I gladly accepted. The operation of this page is just an experiment in the
field of literature of the Our district and this experiment has also been
successful. We are happy that since the last month of May till now, there has
been a lot of support from literary colleagues and readers. While putting up
the compositions, it has also been seen that the budding litterateurs of the
district have also come out, whose works have been revised and published under
the 'Sahitya Ke Navankur' column and which give them the nuances related to
literature. Gladly accepted and reposted his compositions, which showed a lot
of improvement in them. We, on behalf of the editorial board, wish and
congratulate these Navankur literary colleagues for their bright future. In the
field of literature, sharpen your writing at uninterrupted speed and become the
voice of the public.
On this page, we are getting the support of
great thinkers, writers, litterateurs, companions (gurus for me) of literature,
we are very grateful to them and hope that your cooperation and guidance in
literature will always be available. With this, we stop this writing here.
translated on 22.06.2021
sub-editorial
Asmita Blog/Page
https://anviraj.blogspot.com
Tuesday, June 15, 2021
परिवर्तन की बात, सूरजपाल चौहान-अखिलेश कुमार अरुण
भावपूर्ण श्रृद्धांजलि
![]() |
Surajpal Chauhan |
किसना “परिवर्तन की बात” कहानी का पात्र ही नहीं था। बल्कि वह प्रतिनिधित्वकर्ता था, दकियानूसी समाज के नियमों की अवहेलना करने वाला जो सूरज पाल चैहान के कहानी में चीख कर कहता है, "अब हमने और हमारे समाज के लोगों ने मरी गाय उठाना बंद कर दिया है" प्रतिशोध में नाग की तरह फुंफकारते हुए कहानी के अंत में ठाकुर कहता है, “ साले मारे लाठिय के घुटना तोड़ दूंगा............।, परिवर्तन हो रहा है ठाकुर साहब आप क्या चाहते हैं कि हम आज भी मरे हुए गायों को ही ठिकाने लगायें......... ।” रघु ठाकुर “साले लीडर बनता है....चमारों का लीडर...... ।" यह कहानी, कहानी नहीं है। अपने में बहुत कुछ सत्यता को समेटे हुए है। देश आजाद होने और संविधान लागू होने से लेकर आज तक के वंचित, दलित समुदाय के प्रतीकात्मक परिवर्तन के सच का आईना है। देखिये परिवर्तन कहाँ हुआ है। राजनैतिक परिवर्तन अधुरा है जब तक की सामाजिक परिवर्तन नहीं होता और जब तक लोग यह नहीं मान लेते कि व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान है। जो कर्म परिवर्तन करना चाहता है उसे सम्मान दिया जाए और उसके प्रति हमारे बौद्धिक दृष्टिकोण भी परिवर्तित होने चाहिए।
सूरजपाल चैहान को दलित साहित्य का अग्रदूत कहे जाने में अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। आप दलित साहित्य को गति प्रदान करने वाले सामन्तवादी सोच के खिलाफ विगुल बजाने वाले साहित्यकार हैं, वर्तमान साहित्य को अपनी मुट्ठी में करने वाले विलक्षण साहित्यकार हैं। आपकी लेखनी जाति व्यवस्था पर करारा व्यंग्य के साथ ही साथ एक साहित्यिक क्रांति है। सूरजपाल चैहान के ‘हैरी कब आयेगा’ (1999), ‘नया ब्राह्मण’ (2009), ‘धोखा’ (लघुकथा संग्रह, 2011) के साथ साहित्य जगत में देखते ही देखते छा जाते हैं। सूरजपाल चैहान अपने कथा लेखन में बड़ी सहजता से जाति व्यवस्था की भयकंर दुश्वारियों को सामने लाते हैं। ‘छूत कर दिया’, ‘घाटे का सौदा’, ‘साजिश’, ‘घमण्ड जाति का’, सूरजपाल चैहान ‘आपबीती’ और ‘जगबीती’ अनुभवों से जातिवाद के बीहड़ इलाकों की शिनाख्त बड़ी ही सहजता और स्पष्टता से करते हैं। मैंने जितना पढ़ा उतने में आपको समेटने का एक छोटा सा प्रयास है, लिखूंगा दिल खोल के लिखूंगा तल्लीनता से लिखूंगा आपके बोये बीज को खाद-पानी देने का काम अब हम सबके सिर-माथे है। यही आपके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
-अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट मगदापुर
जिला-लखीमपुर(खीरी)
Sunday, June 13, 2021
अस्मिता एक आशा की किरण-अखिलेश अरुण
Monday, June 07, 2021
Sunday, May 30, 2021
बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं पर बाबूलाल को मिली यातनाएं.......सुल्तानपुर
“महज बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं को शादी कार्ड पर छपवाने के चलते 4 दिन तक वृद्ध बाबूलाल को जेल के हवालात में बंद रखा। सामंती सोच के चलते ऐसा निर्णय लेन कहाँ तक उचित है, आखिर क्या मंशा है स्थानीय थाना प्रभारी देवेन्द्र सिंह की........”
सुल्तानपुर में थाना कोतवाली की पुलिस ने
गांव अभिया खुर्द के निवासी दलित समाज के बाबूलाल को महज इसलिए गिरफ्तार कर हवालात
में डाल दिया, क्योंकि उन्होंने अपनी पोती की शादी के कार्ड में बाबासाहेब की उन 22
प्रतिज्ञाओं को प्रिंट करवा दिया था,
जो स्थानीय लोगों और नाते-रिश्तेदारों के बीच बांटा गया,
जिस पर स्थानीय ब्राहमणवादी के लोगों ने आपत्ति जताई और इसकी शिकायत
जिले के स्थानीय कोतवाली देहात, दोमुंहा थाने में कर दी गई। देखिये पुलिस का रवैया कितनी संगीनता से
इस आपत्ति को संज्ञान में लेकर त्वरित कार्यवाही करती है। जहाँ बाबा साहब का उपासक
बाबूलाल देखते ही देखते अपराधी बन जाता है और बेवजह चार दिन हवालात में अपने को यह
साबित करने के लिए बिता देता है कि वह निर्दोष है।
बाबा साहब के उपदेश वास्तव में देश में
अशांति का माहौल पैदा करता है तो बाबा साहब को दोषसिद्ध करने के लिए कोर्ट में स्थानीय
थाना प्रभारी देवेन्द्र सिंह को अपील करनी चाहिए और उसके लिए एक लम्बी कानूनी लड़ाई
लड़नी चाहिए जहाँ वह यह साबित कर सके कि बाबा साहब के द्वारा दी गयीं यह 22
प्रतिज्ञाएँ देश हित में उचित नहीं हैं।।।।ऐसा कर इन मनुवादियों द्वारा कर लिया
जाता है तो उनके धर्म और समाज के लिए उनका यह बहुत बड़ा परोपकार होगा।
![]() |
बाबूलाल, अपराधी |
उत्तर प्रदेश की पुलिस की मनमानी कहें
अथवा इसे सामन्ती वर्ग का शासन, संविधान और कानून के साथ ही साथ वंचित समुदाय पर
दादागिरी, महज बाबा साहब 22 प्रतिज्ञाओं को शादी कार्ड पर छपवाने के चलते 4 दिन तक
वृद्ध को जेल के हवालात में बंद रखा। जहाँ घर में विवाहोत्सव की घर में चार दिन
बाद खुशिया ही क्खुशियाँ थीं, वहां पुलिस की मनमानी रवैया के चलते परिवार के लोग
थाने के चक्कर लगते घूम रहे हैं। ऐसा क्या है बाबा साहब की उन प्रतिज्ञाओं में जिसके
चलते वृद्ध को पोती की विदाई के तीसरे दिन ही गिरफ्तार कर लिया। उन्हें 24
मई से 28 मई तक हवालात में रखा गया। स्थानीय थाना प्रभारी देवेन्द्र सिंह ने
बिना यह देखे कि यह मामला कानून तोड़ने का है या नहीं,
करीब 70 साल के बाबूलाल को किस आधार पर बंद किया यह आपने आप में एक बड़ा प्रश्न
है। क़ानून की अंधेर नगरी ऐसे हावी रही तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन बाबा साहब की उन
सभी शिक्षाओं और उपदेशों को गैरकानूनी ठहरा दिया जाएगा जो आज तक तर्क की कसौटी पर
खरी उतरती रहीं हैं।
बाबा साहब ने उन 22 प्रतिज्ञाओं का संकलन
बिना सोचे-समझे नहीं किया था। उनके जीवन का एक बड़े शोध का परिणाम हैं ये
प्रतिज्ञाएँ जो बौद्ध अनुयायियों को उनके जीवन में मार्गदर्शित करती हैं। इन
प्रतिज्ञाओं को बाबा साहब ने सन् 1956 में बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद अपने अनुयायियों को
बौद्ध धर्म की दीक्षा देते हुए दिलवाई थी। जिस प्रकार से गौतम बुद्ध के त्रिशरण और
पंचशील का महत्त्व स्वीकार किया जाता है ठीक उसी प्रकार बाबा साहब के इन उपदेशों
को भी स्वीकार किया जाता है क्योंकि आधुनिक युग के बौद्ध धम्म उद्धारक कहे जाते
हैं। ऐसे में बाबा साहब के इन प्रतिज्ञाओं के खिलाफ पुलिस का यह कार्य निन्दनीय ही
नहीं घोर और एक दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है इसलिए सलिम्प्त पुलिस अधिकारिओं
के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करते हुए तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाना चाहिए
और हर्जाने-खर्चे के साथ ससम्मान बाबूलाल को उक्त प्रकरण में मुक्ति दिलवाई जानी
चाहिए। हमारे गाँव-क्षेत्र में इन 22 प्रतिज्ञाओं के कार्ड का चलन बहुतायत में
पाया जाता है आईये कोई इधर भी कानूनी कार्यवाही करने हमें अच्छा लगेगा ही नहीं
अपने समाज के लिए कुछ करने का जज्बा जागेगा।
उपसम्पादकीय
अस्मिता ब्लॉग (anviraj.blogspot.com)
Monday, November 24, 2014
पाटों के बीच में-अखिलेश के० अरुण
लिंग-विभेद विमर्श
ए०के०अरुण |
सौतेले बेटा-बेटी तो खाली बदनाम बदनाम भर हैं. उससे कहीं ज्यादा जहालियत की मारी है तो वह केवल एक लड़की है चाहे वह सगी ही क्यों न हो। इसका सहज अनुमान केवल वही लड़की लगा सकती है. जिसके परिवार में तीन-चार लड़कियाँ हों और माता पिता को एक बेटे की लालसा हो; आश लगाये परिवार नियोजन को ताख पर रखकर बस हर साल बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाएँ वह बात अलग है कि परिवार को एक जून का निवाले का एक कौर भी नसीब न हो पा रहा हो, लड़के की जगह पर लड़कियां धड़ा-धड़ पैदा हो रही हों.वहां एक लड़के की टीस तो बनी ही रहेगी. यह मानव व्यवहार का अंग बन गया है बेटा होना ही चाहिये और हो भी क्यों नहीं बेटी बाप के घर तो रह नहीं सकती उसे तो पिया घर जाना ही है. जिनके घर जा रही हैं वे महाशय किस आचार-विचार के होगें दूसरे के माता पिता को छोड़ो अपने ही माता-पिता का दुख दरद बाटेगें कि नहीं कहा नहीं जा सकता ऐसे में किसी लड़की का क्या दोष है? वह तो अपने जान की बाजी लगा देती एक दूसरे के सुख-दुख को बाँटने के लिये कुछ ही ऐसी होगीं जो अपने कर्तव्य मार्ग से भटक जाती हैं।
बड़े ही दुखों में दिन काटे हैं एक एक चीज के लिये तरस जाया करती थी, खुशी के दो पल गुजारना मुश्किल हो जाता था, यह भी कोई जिन्दगी है। पर जन्म मिला है तो निर्वाह करना ही है, क्यों? किसलिये? क्यों नहीं, ढेर सारे सवाल मेरे मन को कचोट जाते थे. छोटी सी उम्र में इनका उत्तर ढूढ़ पाना मुश्किल था. जैसे-जैसे बड़ी होती गयी कुछ सच्चाईयों से तो पर्दा खुद-ब-खुद ही उठ गया, कुछ आज भी अज्ञात हैं. यह हमारी लापरवाही भी हो सकती है और भलमनसाहत भी कि जान बुझकर भी पर्दा पड़ा रहने दिया। जब मैं 4 साल की (शायद में) होऊँगी तब हम तीन बहनों के अभिशापित बाप-महतारी के घर में खुशहाली की रौनक आयी थी नहीं तो कभी बाप के मुँह पर एक प्रसन्नता के लकीर तक को न देख सकी थी. हर वक्त भृकुटी तनी रहती, बात-बात पर झिड़क देते, ‘उठा के पटक दूँगा......,मार डालूँगा........,गला घोट दूँगा न जाने और क्या क्या ......।’ कुछ ही याद हैं और बहुत कुछ भूल चुकी हूँ नही तो भूला भी देती हूँ। उनकी आँखें हमेशा लाल रहती थीं याद नहीं आता कि कभी दुलार से एक प्यार के लब्ज भी बोले होगें पर अब उस छोटे बच्चे के साथ बहुत खुश रहते हैं इसका अन्दाजा उनकी कनपटी तक फैलती दंतपँक्ति से ही लगाया जा सकता है। मैं चाहती भी हूँ कि वे हमेशा इसी तरह खुश रहें दुख की वह काली घटा न छाये, नहीं तो कभी उनके चेहरे की सारी रेखायें मुँह में घुसती सी जान पड़ती थी. बड़ा ही विभत्स विकराल चेहरा अचानक कोई देख ले तो डरे बिना नहीं रह सकता था, आँखे साँझ के डूबते सूरज जैसी लाल और उस पर गर्मी भी, हम तीनों बहनों को हसंते-खेलते देखते तो सूर्यग्रहण के कोरोना बन बैठते थे। इसके विपरीत माता जी से प्रेम की कुछ आँकाक्षा रहती थी किन्तु वह भी तपती धरती पर आकाशीय बादल के छाया मात्र ही, क्षण भर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होने वाली, खड़ी दोपहरी में देखते रहो ज्येठ माह का वह छाया किस तरह राह चलते पथिक को छोड़ कर भागा जा रहा हैं। पिता के अनुपस्थिति में ही यह मौका कभी-कभी हांथ लगता था नहीं तो महीनों बीत जाते थे, मन की चीज खाने को न मिलता था। रबड़ी, मलाई, बरफी तो केवल-केवल सुनने के लिये ही थे, मुये सपने में भी नहीं आते कि देखकर संतुष्टि प्राप्त कर लें। स्वप्न भी हमारे निराले होते थे उसमें भी बाप पीछा नहीं छोड़ते थे, ‘ कहाँ है?..... मर गयी क्या?.......,बैठे-बैठे.....,कुछ नहीं सुझता..........।’ रातों की नींद हराम हो जाती थी. उनके डाँट-फटकार से नींन उचट जाती, कलेजा जोरो का धड़कने लगता साँसे लोहार की धौकनी सी चलती, सीना जोर से फूलता-पचकता, मारे डर के पसीना से तर-बतर। मन में विचार कौंध जाता सोते हुये बाप की सूरत को देखकर भी डर लगा करता था,‘ कितनी चैन की नींद सो रहें हैं भला दिन में भी डांटते -फटकारते ही रहते हैं. स्वप्न में तों न आया करो, रोज राते को एक नहीं दो-दो ,तीन-तीन बार ऐसा हुआ करता था। सो कर उठो तो सुबह वही हाल जिस प्रकार से छोटी चिडि़या को अपने घोसले में बाज को देखकर....., भय और सिकन की रेखायें हमारे चेहरे पर हमेशा के लिये डेरा जमा चुकी थी, चाह कर भी हंस नहीं सकते थे। देह और मस्तिष्क को प्रगति के लिये शुभ अवसर ही प्राप्त न हुआ सो सवा तीन सेर के रह गये, चार किमी0 प्रतिघंटा के रफ्तार से गति करती पुरुवा बयार में छत पर जाने से डरती थी कि पता नहीं कब बिना जीना की सीढ़ी उतरे नीचे आ जाऊँ और फिर........भगवान जाने।
क,ख,ग,घ से दू....र का रिस्ता था. स्कूल का नाम भर ही सुने थे कैसा होता है पता नही, शायद होता भी है या नहीं किसी दूसरे लोक की बात जान पड़ती थी। घर के सामने से दो-चार,छः बच्चों की टोली बड़ी अजीब लगती थी. एक ही रंग की वेष-भुषा गले में लाल-पीली धारियों वाली रस्सी (टाई) मन में हलचल होती बाँधे जाते होंगें.........। गधें हैं सब के सब पीठ पर बोझ लादे, हमें क्या पता कि वे दुनिया की नयी युक्ति सीखने जाते हैं। हमें कभी मौका ही नहीं मिला बस हम तो खउराहा पिल्लों जैसे घर में ही दूबके रहते थे, दीवार के हर एक छोटे-बड़े चिन्हों से बाकिब जरूर थे. कहाँ गोल, कहाँ चैकोर और आड़ी तिरछी रेखायें हैं और हो भी क्यों नहीं वही तो बचपन से लेकर 16-17 वर्ष तक के उमर की साथी थीं, घण्टों कहीं खोये-खोये निहारा करते थे, रूखा-सूखा खाने-पीने के बाद यही दिन भर का काम था।
खाने-पीने की कमी नहीं थी नसीब में ही नही था। बाप लाखों के मालिक थे पर हम बहनों को नून ही चटाते कहते कौन ये घर को संभालेगीं, हैं तो दूसरे के घर की बसना ही, लाना तो है नहीं इनको लेके ही जाना है सो जो कुछ बच जाये वही बहुत है। वहीं छोटे भाई के लिये किसिम-किसिम के फल फलहार, मेवा-मिष्ठान और ना जाने क्या-क्या आते रहते थे (ज्यादा खिलाने-पीलाने के फेर में बिमार ही रहता था उसका दोष भी हम लोगों के मत्थे ही मढ़ा जाता, देखा नहीं जाता है न उन सबको नजर लगा दिये होगें) सुगधं भर ही नसीब होता था. बच्चे को नजर न लगे सो हम सब से चुराकर खिलाया जाता था. कभी मौका हांथ लगा था ठीक-ठीक याद नहीं केले के छिलके को उठाकर चखने का क्या गजब का मधुर स्वाद था सुगधं तो तन-मन दोनों को संतर्पित कर गया था. बाद छिपा के रख लिया था हफ्तों सूंघती रही जब-तब वह दुर्गन्ध न देने लगा था, एक दिन चोरी पकड़ी गयी मार पड़ी सो अलग, ‘चुराकर खाती है..... यही सब सीखेगी.....जहाँ जायेगी वहाँ भी नाम रोशन.........।’ मार-पीट सब कुछ भूल गयी, कहाँ जाना है यही दिमाग में बैठ गया, बाप के हाथों मारी-पीटी जाना तो रोज का हमारे लिये खेल ही था चाहे जो भी कुछ हो अपना अधिकार तो हम पर जताते थे. यही बाप-बेटी का रिस्ता क्या कम था।
बीते उन्ही दिनों की बात है पापा किसी रिस्तेदार के घर गये थे, जब कभी ऐसा मौका हांथ लगता तो हम भी खूब मस्ती करते थे. बिना खाये-पीये ही गाल उग जाते थे. मारे खुशी के दिन भर चहकते रहते थे, मम्मी भी नहीं टोकती थी. उनमे यह परिवर्तन अच्छा लगता था, ‘कर लो आज ही भर कल से मरना बे-मौत। उस दिन खेलते-खेलते सो रहे बाबू के पास जाने का मौका मिला था। क्या खूब रंग पाया है बिल्कुल आंटे की गुथी लोई की तरह होंठ गुलाब की पँखुड़ी जैसे फूल से लाल रस चूने को हो। पहली बार तो उसे छूने को मन नही किया एक टक निहारती रही कहीं गन्दा न हो जाये. इसिलिये तो बाबूजी पास फटकने नहीं देते मन में विचार आया था। महिनों बाद आज मौका मिला था कैसे चूक जाती मारे वात्सल्य प्रेम के मैने झट से सोते उस बच्चे को चूम लिया उसके पूरे शरीर को छूआ आहिस्ता -आहिस्ता हांथ फिराया, पर उसके एक जगह के छूअन से हमे कुछ अजीब सा लगा, यह क्या है? सोचे कुछ सूझ नहीं रहा था. मस्तिष्क अस्थिर भाव शून्य हो गया, किसी परिणाम पर नहीं जा सका, दुनिया की ढेर सारी उलझने दिमाग में कौंधने लगे फिर मैने शंका समाधान हेतु अपने पाटों के बीच में हांथ रखा खाली-खली सा आभास हुआ, मन जोरों का धड़क उठा नहीं ऐसा नहीं हो सकता अपना ही मन अपने से कई सवाल करने लगा। अतिसुक्ष्म निरीक्षण करने हेतु मैने बारी -बारी से उसको और अपने को स्पर्श किया पर परिणाम वही रहा ढाक के तीन पात उभार और खाली.....? मैं चुपचाप वहाँ से उठकर चली गयी घण्टों सोचती रही, क्या? कहीं यही तो नहीं बाप के गुस्से का कारण है। इससे उनके गुस्सा होने से क्या मतलब, अगले क्षण मैने सोचा केवल मेरे साथ ही ऐसा है या फिर दोनों बहनों के पास भी........। अन्ततोगत्वा दोपहर की नींद में सो रही उन दोनों बहनों को भी मैनें स्पर्श किया. वे भी दोनों खाली-खाली अब तो एक बात निश्चित थी कि हम लोगों के जहालत का प्रमुख करण यही था जो अब तक हमारे लिये राज.......एक... गहरा राज था जिसे अब तक मैं न जान पायी थी. अब मैं सब कुछ समझ चुकी थी और देख भी...। हु-ब-हू तो था सब कुछ उस बच्चे जैसा ...हम बहनों के पास कुछ नहीं है तो उभार और उसके पास खाली......वह भी पाटों के बीच में....यही एक अंतर था. हम बहनों और भाई के बीच जिसका पूरा लाभ भाई को मिला खाने-पिने से लेकर पापा के लाड़-दुलार तक पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम और हमारी जैसी बहनों को जीने का हक़ नहीं है लडको की तरह आजादी नहीं है. हम भी उनके आधी आबादी के हकदार हैं फिर वह मान-सम्मान क्यों नहीं....यह सवाल आज भी हमारे जेहन में गूँजता रहता है।
-इति-
ग्राम-हजरतपुर,पोस्ट-मगदापुर
जिला-लखीमपुर-खीरी,उ०प्र०
Kherinorth6@gmail.com
पढ़िये आज की रचना
मौत और महिला-अखिलेश कुमार अरुण
(कविता) (नोट-प्रकाशित रचना इंदौर समाचार पत्र मध्य प्रदेश ११ मार्च २०२५ पृष्ठ संख्या-1 , वुमेन एक्सप्रेस पत्र दिल्ली से दिनांक ११ मार्च २०२५ ...

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