साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Saturday, December 18, 2021

अशोक दास पत्रकार के साथ बहुजन साहित्य के साधक संपादक भी हैं-

व्यक्तित्व
साभार-बहुजन एवं बहुजन हितैषी महापुरुष एवं महामाताएं फेसबुक पेज से 
अशोक दास (संपादक)
दलित-दस्तक, दास पब्लिकेशन
न्यूज-दलित दस्तक (यूट्यूब)


(जन्म-17 दिसंबर)
अशोक दास का जन्म बुद्ध भूमि बिहार के गोपालगंज जिले में हुआ। उन्होंने गोपालगंज कॉलेज से ही राजनीतिक विज्ञान में स्नातक (आनर्स) करने के बाद 2005-06 में देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान 'भारतीय जनसंचार संस्थान, जेएनयू कैंपस दिल्ली' (IIMC) से पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, हरियाणा से पत्रकारिता में एमए किया। 

वे 2006 से मीडिया में सक्रिय हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।

अशोक दास ने जब मीडिया का जातिवादी रवैया देखा तो उन्होंने अपनी पत्रिका निकालने ठान ली। उन्होंने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से 27 मई 2012 से ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। दलित मुद्दों और अभिव्यक्ति को संबोधित करती इस पत्रिका ने हिंदी पट्टी में अपनी उपस्थिति का अहसास कराया है। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है।

वे अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।

विषम से विषम परिस्थितियों में आप डिगे नहीं दलित पत्रकारिता को आपने एक नया आयाम दिया है। जन की बात को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रिन्ट मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर बिना एक दिन क्या एक पल नागा किए सक्रीय रहते हैं और देश-दुनिया की ख़बरें पहुंचाते रहते हैं। जुझारू और कर्मठ अपने कर्म के प्रति कर्तव्यनिष्ठ जो वंचित समाज की आवाज बनकर उनकी समस्याओं को जगजाहिर कर रहे हैं। 

प्रासंगिक : दलित पत्रकार होने का अर्थ

भडास4मीडिया के संपादक-संचालक यशवंत सिंह को ‘दलित दस्तक’ के संपादक बता रहे हैं कि वे पत्रकारिता में कैसे आये और उन्होंने मीडिया की मुख्यधारा को अलविदा क्यों कहा?-जून 2015

मैं बिहार के गोपालगंज जिले का रहने वाला हूं। आज जब सोचता हूं कि पत्रकारिता में कैसे चला आया तो लगता है कि हमने तो बस चलने की ठानी थी, रास्ते अपने आप बनते चले गए। पत्रकारिता में आना महज एक इत्तेफाक था। छोटे शहर में रहने का एक नुकसान यह होता है कि हमारे सपने भी छोटे हो जाते हैं क्योंकि हमारे परिवार, मित्रों के बीच बड़े सपनों की बात ही नहीं होती। सच कहूं तो मुझे एक बात शुरू से ही पता थी और वह यह कि मुझे सरकारी नौकरी नहीं करनी है। नौकरी करनी पड़ती है, जब इसकी समझ आयी तो मैंने मन ही मन तीन बातें तय कीं। एक, बंधी-बंधाई तनख्वाह वाली नौकरी नहीं करनी। दो, सुबह दस से शाम पांच बजे वाली नौकरी नहीं करनी और तीन, कोई ऐसा काम करना है, जिसमें मुझमें जितनी क्षमता हो, मैं उतना ऊंचा उड़ सकूं। मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिए थी जिसमें मैं सुबह दस बजे टिफिन लेकर ऑफिस के लिए निकलूं, बीवी बालकनी में खड़ी होकर बाय-बाय करे और शाम को खाना खाकर सो जाऊं। एक बेचैनी-सी हमेशा बनी रहती थी। मैंने कभी किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं किया। हां, लिखना बहुत पसंद था।

अखबार से लेकर किताबों तक – जो मिल जाये उसे पढऩे का शौक बचपन से था। मेरे जिले में जितनी भी किताबें उपलब्ध थी, सब पढ़ गया। एक दिन, ऐसे ही अखबार उलटते-पलटते हुए, आईआईएमसी के विज्ञापन पर नजऱ पड़ी। मैं साधारण ग्रेजुएट था और वहां दाखिले के लिए यही चाहिए था। दिल्ली में बड़े भाई राजकुमार रहते थे। उन्होंने फार्म भेज दिया और मैंने उसे भर दिया। तब तक मुझे भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) की मीडिया के क्षेत्र में धाक और रुतबे के बारे में कुछ पता नहीं था। पटना में लिखित परीक्षा देने के लिए बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में उम्मीदवार परीक्षा केंद्र आये। लगा कि यार कुछ तो है इस संस्थान में। लिखित परीक्षा पास करने के बाद इंटरव्यू के लिए दिल्ली से बुलावा आया। मुझे विश्वविद्यालय में पढऩे का कभी मौका नहीं मिला था इसलिए आईआईएमसी सपने जैसा लगा। इंटरव्यू में पास नहीं हो पाया लेकिन यह तय कर लिया कि अब तो यहीं पढऩा है। हां, लिखने का शौक शुरु से था। डायरी के पन्नों में अपनी भड़ास निकाला करता था। यह कुछ वैसा ही था जैसे कोई गायक बाथरूम में गाकर अपना शौक पूरा करता है। फिर, 2005-06 में आईआईएमसी में मेरा दाखिला हो गया। यह मेरे पत्रकार बनने की शुरुआत थी।

ऐसा नहीं है कि आईआईएमसी में दलितों के साथ भेदभाव नहीं था। मुझे वहां भी जातीय दुराग्रह का सामना करना पड़ा। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म तरीके का भेदभाव था जो तब तो मुझे समझ में नहीं आया लेकिन आज समझ पाता हूं। मसलन, मैंने महसूस किया कि कुछ ‘खास’ लोगों को आगे बढ़ाया जाता था। यहां विचारधारा को लेकर भी गोलबंदी थी – वामपंथी, दक्षिणपंथी आदि। तब तक तो मुझे विचारधारा के बारे में कुछ भी पता नहीं था। सब वहीं भेदभाव झेलते हुए सीखा। मेरे साथ जो हुआ, उसे ‘माइक्रो डिसक्रिमिनेशन’ कहा जा सकता है। जाति ने ‘अमर उजाला’ समेत कई अन्य मीडिया हाउसों में भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा। आईआईएमसी से निकलने के बाद मेरी सबसे पहली नौकरी ‘लोकमत’ ग्रुप में लगी। मेरी नियुक्ति महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हुई। जब तक मैं वहां रहा, मैंने झूठ बोलकर जाति के मसले से बचने की कोशिश की। एक डर, एक आशंका हमेशा बनी रहती थी। मुझे वहां घुटन होने लगी। लगता था कि कुछ बाहर आना चाहता है लेकिन आ नहीं पा रहा है। फिर मुझे ‘अमर उजाला’ (अलीगढ़, यूपी) में बतौर रिपोर्टर नौकरी मिल गई। यहां जाति का सवाल फिर मेरे सामने था। इस बार मैंने जवाबी हमला कर दिया। बिना किसी लाग-लपेट के बता दिया कि मैं दलित हूं। मुझे याद है कि हम दस नए लड़के एक साथ बैठे थे। सब सन्न रह गए। सब अलीगढ के लिए नए थे। एक-दूसरे के साथ शिफ्ट हो रहे थे लेकिन मुझे साथ रखने के लिए कोई तैयार नहीं था। बाद में संपादक के हस्तक्षेप के बाद मैं भी उनमें से एक के साथ रह पाया। लेकिन वहां कुछ दिन रहने के बाद मैं श्रीनारायण मिश्रा के साथ रहने लगा। वे उम्र में मुझसे बड़े थे और हम दोनों के बीच एक स्नेह का रिश्ता बन गया था। लोगों ने उसकी भी खूब खिंचाई की लेकिन उसने मेरा पक्ष लिया। वहां मृत्युंजय भैया ने भी बहुत साथ दिया। हां, जब पदोन्नति की बारी आई तो प्रधान संपादक शशि शेखर द्वारा नियुक्ति के समय किये गए वायदे के बावजूद, संपादक गीतेश्वर सिंह ने मेरा प्रमोशन नहीं किया। मुझे साथ रखने की सजा श्रीनारायण मिश्रा को भी मिली। उसका भी प्रमोशन नहीं हुआ, जबकि वो सभी से सीनियर और ज्यादा योग्य था। यह खुला भेदभाव था। दलित होने के कारण मेरे साथ और एक दलित का साथ देने के कारण श्रीनारायण मिश्रा के साथ। लेकिन मैं वहां कभी दबा नहीं। प्रमोशन नहीं होने के सवाल पर मैंने अपने संपादक की शिकायत दिल्ली में प्रधान संपादक तक से की और सबको सीधी चुनौती दी।

बाद में मैंने ‘अमर उजाला’ एक गुस्से, एक आवेग और एक वृहद सोच के कारण छोड़ दिया। मेरे दिल में गुस्सा था। यह प्रतिक्रिया थी, उस प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदभाव की, जिसका सामना मुझे वर्षों से करना पड़ रहा था। मैं अंदर ही अंदर सुलग रहा था। एक रात जब मैं कमरे पर आया तो टीवी पर राज ठाकरे के गुंडों द्वारा बिहार और यूपी के लोगों के साथ मारपीट की खबर चल रही थी। वे दृश्य परेशान करने वाले थे। मैंने विरोध करने की ठानी। मुझे नहीं पता था कि इससे कुछ होगा भी या नहीं लेकिन मैं चुप नहीं बैठना चाहता था। मैं विरोध करने के लिए, चिल्लाने के लिए, छटपटा रहा था और इस घटना ने मुझे मौका दे दिया। मैं अपने संपादक के पास गया और मुझे यह करना है, कहकर छुट्टी मांगी। उन्होंने कहा कि इस्तीफा दे दो। मैंने कहा कि आपको निकालना हो तो निकाल देना, मैं इस्तीफा नहीं दूंगा। फिर मैं अलीगढ़ के ही चार अन्य छात्रों के साथ देश के तमाम विश्वविद्यालयों में राज ठाकरे के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाने के लिए निकल पड़ा। इसमें प्रेमपाल और अमित चौधरी ने काफी सहयोग किया। अलीगढ़, लखनऊ, बनारस (बीएचयू), गोरखपुर, पटना, मेरठ, दिल्ली (दिल्ली विवि, जेएनयू) आदि जगहों पर बीस दिनों तक घूमने के बाद दिल्ली में तकरीबन पांच सौ लड़कों के साथ रेलवे स्टेशन से जंतर-मंतर तक मार्च निकाल कर राष्ट्रपति और चुनाव आयोग को ज्ञापन सौंपा।

मेरे हस्ताक्षर अभियान को भड़ास4मीडिया डाट काम नाम की वेबसाइट ने कवर किया। तब तक मेरा आपसे (यशवंत सिंह) से परिचय हो गया था। मेरा हौसला बढ़ाने वालों में आप भी थे। इस अभियान के बाद मैंने अलीगढ़ छोड़ दिया और दिल्ली आ गया। तब तक नौकरी से मन हट गया था, कुछ अलग करने की चाह जाग गई थी। मैं भड़ास4मीडिया डाट काम के साथ काम करने लगा। दलितमत डाट कॉम का विचार वहीं से निकल कर आया। इस दौरान देवप्रताप सिंह, जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार और बौद्ध चिंतक आनंद जी के संपर्क में आया। इनसे मुलाकातों ने मेरी जिंदगी को दिशा दी। इस तरह ‘दलित दस्तक’ अस्तित्व में आयी।

हमारी वेबसाइट 12 देशों में पढ़ी जाती है। पत्रिका भी निरंतर आगे बढ़ रही है। हमें 30 महीने हो चुके हैं और हम दस हजार प्रतियाँ प्रकाशित कर रहे हैं। हमारा प्रसार देश के 15 राज्यों के 135 जिलों तक हो चुका है। यह सामूहिक प्रयास है और हमारी पूरी टीम ईमानदारी से लगी है। हमारे लिए यह एक मिशन है। डॉ. अंबेडकर, जोतिबा फुले और तथागत बुद्ध सहित तमाम बहुजन नायकों की विचारधारा को लोगों के बीच पहुंचाना और उन्हें दलित समाज के वर्तमान हालात के बारे में बताना ही हमारा मकसद है।

संदर्भ
1.अखिलेश कुमार अरुण
2.सोशल मिडिया
3.फारवर्ड प्रेस जून, 2015 अंक
https://www.forwardpress.in/2015/07/being-a-dalit-journalist_hindi/?amp
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=301204955352934&id=100063902943052

Tuesday, June 22, 2021

Asmita a ray of hope - Akhilesh Arun

  Editorial  

Created Asmita (Jan Ki Baat) blog/page for her works.  which were disqualified from literary pen of news and editorial department of magazines. Someone has said that creations are not bad. In the year 2019 or 2020, no major literary award (sorry can't remember, I will include remembrance) was given to such a person whose composition (book) was returned by not one but many editors saying that this book (manuscript) is meaningless. And it's pointless. Therefore, keep writing, you should have a positive attitude towards the article that comes to mind, and at the same time keep in mind that what we are writing is meaningful in itself, it is necessary to evaluate it by ourselves.

 

In view of my writing interest, the first suggestion to publish my articles on the blog was given by my own middle brother Naval Kishore. Because he went to Dubai after completing his graduation due to the financial condition of the house, it became necessary to get a smart phone to talk to the family and us. As a result, the brother has already entered the world of technology. We were able to join late due to our studies and personal problems and financial condition etc. My reading and writing work was going on, but the work of teaching in school would be in the month of September or November, it would be the year 2010 or 2011, when I started teaching at the end of the month, then we got 390 rupees as remuneration according to the days taught. My own first earning was that money was used to get a jacket which was probably worth Rs 590. Because of my single body, we got along with him for 10 or 11 years. In such a situation, getting smart mobile phones etc. was outside my Transient.

 

The arrival of the laptop (Naval Kishor had brought it from Dubai) paved the way to enter social media, in this world my middle brother is my guru. Started using Facebook, Twitter, etc. from 2014. But occasionally…… here the continuity continues from 2016, Since then till today I have made some acquaintance in the field of writing. In writing, I am from class six, in the writing of that time, the predominance of emotion and rhythm was more and at the same time that writing was flawed. The first composition story "The Unknown Attacker (agyat hamlavar)" appeared in the 2010/2011 issue of Saras Salil. Since then the process of writing started, Facebook, Twitter are good medium in the field of writing to create a global identity for new writers..... become an international identity, overnight; what else do you want? Asmita Blog Page From this year onwards, it has become an online platform for the works of all your literary companions. 5 or 6 months ago from today a meeting was held with my Teacher (guru ji) Mr. Rajkishor Gautam regarding literature. This is the place where we first met Mr. Suresh Saurabh. We keep getting to read your creations on Facebook etc. We were not fond of literary introduction, but the first meeting of both of us took place here first face to face. The literary relationship deepened. The idea of ​​creating an online web page in this area came to the mind of Mr. Suresh Saurabh  (leading litterateur of the our district), about which discussions started taking place among-st us. A meeting in this regard was held again at an interval of a month in which Mr. Rajkishor (Lecturer of English), Mr. Nandlal Verma (Associate Professor), Mr. Suresh Saurabh (literary writer), Mr. Shyamkishore Bechain (poet), Mr. Ramakant Choudhary  (advocate/poet) and others were present.

In which it was decided that it will be operated by me because I have some attachment in the online (internet) world... I gladly accepted. The operation of this page is just an experiment in the field of literature of the Our district and this experiment has also been successful. We are happy that since the last month of May till now, there has been a lot of support from literary colleagues and readers. While putting up the compositions, it has also been seen that the budding litterateurs of the district have also come out, whose works have been revised and published under the 'Sahitya Ke Navankur' column and which give them the nuances related to literature. Gladly accepted and reposted his compositions, which showed a lot of improvement in them. We, on behalf of the editorial board, wish and congratulate these Navankur literary colleagues for their bright future. In the field of literature, sharpen your writing at uninterrupted speed and become the voice of the public.

 

On this page, we are getting the support of great thinkers, writers, litterateurs, companions (gurus for me) of literature, we are very grateful to them and hope that your cooperation and guidance in literature will always be available. With this, we stop this writing here.

translated on 22.06.2021 

sub-editorial

Asmita Blog/Page

https://anviraj.blogspot.com

Tuesday, June 15, 2021

परिवर्तन की बात, सूरजपाल चौहान-अखिलेश कुमार अरुण

भावपूर्ण श्रृद्धांजलि

Surajpal Chauhan
अभी-अभी फेसबुक खोले सरसरी निगाह से देख ही रहे थे कि कौशल पवांर, अशोकदास, उर्मिलेश, सुमन कुमार सुमन आदि लोग जो दलित साहित्य और आन्दोलन के मुखर आवाज हैं, एक के बाद एक आप सभी के  फेसबुकवाल श्रद्धांजलि से पटा पड़ा है, पिछला साल और यह साल बहुत बुरा रहा, एक-एक कर हमने-जिसमें शांति स्वरूप बौद्ध, दीनानाथ निगम, अखिलेश कृष्णा मोहन आदि और आज सूरजपाल चैहान को खो दिया। यह दलित साहित्य के लिए अपूर्णीय क्षति है...जिसकी भरपाई नहीं हो सकेगी, शायद कभी नहीं। 

किसना “परिवर्तन की बात” कहानी का पात्र ही नहीं था। बल्कि वह प्रतिनिधित्वकर्ता था, दकियानूसी समाज के नियमों की अवहेलना करने वाला जो सूरज पाल चैहान के कहानी में चीख कर कहता है, "अब हमने और हमारे समाज के लोगों ने मरी गाय उठाना बंद कर दिया है" प्रतिशोध में नाग की तरह फुंफकारते हुए कहानी के अंत में ठाकुर कहता है, “ साले मारे लाठिय के घुटना तोड़ दूंगा............।, परिवर्तन हो रहा है ठाकुर साहब आप क्या चाहते हैं कि हम आज भी मरे हुए गायों को ही ठिकाने लगायें......... ।”  रघु ठाकुर “साले लीडर बनता है....चमारों का लीडर...... ।" यह कहानी, कहानी नहीं है अपने में बहुत कुछ सत्यता को समेटे हुए है। देश आजाद होने और संविधान लागू होने से लेकर आज तक के वंचित, दलित समुदाय के प्रतीकात्मक परिवर्तन के सच का आईना है।  देखिये परिवर्तन कहाँ हुआ है।  राजनैतिक परिवर्तन अधुरा है जब तक की सामाजिक परिवर्तन नहीं होता और जब तक लोग यह नहीं मान लेते कि व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान है।  जो कर्म परिवर्तन करना चाहता है उसे सम्मान दिया जाए और उसके प्रति हमारे बौद्धिक दृष्टिकोण भी परिवर्तित होने चाहिए। 

सूरजपाल चैहान को दलित साहित्य का अग्रदूत कहे जाने में अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए। आप दलित साहित्य को गति प्रदान करने वाले सामन्तवादी सोच के खिलाफ विगुल बजाने वाले साहित्यकार हैं, वर्तमान साहित्य को अपनी मुट्ठी में करने वाले विलक्षण साहित्यकार हैं। आपकी लेखनी जाति व्यवस्था पर करारा व्यंग्य के साथ ही साथ एक साहित्यिक क्रांति है। सूरजपाल चैहान के ‘हैरी कब आयेगा’ (1999), ‘नया ब्राह्मण’ (2009), ‘धोखा’ (लघुकथा संग्रह, 2011)  के साथ साहित्य जगत में देखते ही देखते छा जाते हैं। सूरजपाल चैहान अपने कथा लेखन में बड़ी सहजता से जाति व्यवस्था की भयकंर दुश्वारियों को सामने लाते हैं। ‘छूत कर दिया’, ‘घाटे का सौदा’, ‘साजिश’, ‘घमण्ड जाति का’,  सूरजपाल चैहान ‘आपबीती’ और ‘जगबीती’ अनुभवों से जातिवाद के बीहड़ इलाकों की शिनाख्त बड़ी ही सहजता और स्पष्टता से करते हैं। मैंने जितना पढ़ा उतने में आपको समेटने का एक छोटा सा प्रयास है, लिखूंगा दिल खोल के लिखूंगा तल्लीनता से लिखूंगा आपके बोये बीज को खाद-पानी देने का काम अब हम सबके सिर-माथे है। यही आपके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

-अखिलेश कुमार अरुण

ग्राम-हजरतपुर, पोस्ट मगदापुर

जिला-लखीमपुर(खीरी)


Sunday, June 13, 2021

अस्मिता एक आशा की किरण-अखिलेश अरुण

  सम्पादकीय  
स्मिता (जन की बात) ब्लॉग/पेज का निर्माण अपनी उन रचनाओं के लिए किया था जो समाचार के साहित्यिक कलम और पत्रिकाओं के सम्पादकीय विभाग से अयोग्य करार दे दी जाति थीं. किसी ने कहा है की रचनाये कोई ख़राब नहीं होतीं. साल 2019 या 2020 में  साहित्य का कोई बड़ा पुरस्कार (क्षमा करें याद नहीं आ रहा, याद आते सम्मिलित कर दूंगा) ऐसे को मिला जिसकी रचना (पुस्तक) को एक नहीं कई सम्पादकों ने यह कहते हुए लौटा दिया की यह पुस्तक (पाण्डुलिपि) बेअर्थ और निरर्थक है. इसलिए लिखते रहिये जो मन में आये उस लेख प्रति आपका सकारात्मक दृष्टिकोण होना चाहिए और साथ ही साथ यह भी ध्यान में रखिये जो हम लिख रहे हैं वह अपने आप में कितना सार्थक है उसका मूल्याङ्कन स्वयं के द्वारा किया जाना जरुरी है.

मेरे लेखकीय रूचि को देखते हुए ब्लॉग पर अपने लेखों का प्रकाशन करने का पहला सुझाव मेरे ही मझले भाई नवल किशोर ने दिया था. क्योंकि वह स्नातक की पढ़ाई पूरी कर घर की आर्थिक स्थिति के चलते दुबई चला गया, घर-परिवार और हम लोगों से बात करने के लिए स्मार्ट फोन लेना आवश्यक हो गया था. परिणामतः भाई तकनीकी की दुनिया में पहले ही आ गया. हम अपनी पढ़ाई-लिखाई और निजी समस्याओं तथा आर्थिक स्थिति आदि के चलते देर से जुड़ पाए. मेरे पढ़ने और लिखने का काम जारी था किन्तु पढ़ते हुए स्कूल में पढाने का काम सितम्बर या नवम्बर का महिना होगा, साल 2010 की बात होगी, महीने के अंत में पढ़ाना शुरू किया था तब हमें पढाये गए दिनों के हिसाब से 390 रूपये मेहनताना में मिले थे. मेरे स्वयं की पहली कमाई थी उस रूपये का सदुपयोग एक जाकेट लेने में किया जो शायद 590 रूपये का मिला था. मेरे सिंगल बॉडी होने के चलते उसका साथ हमे 10 या 11 वर्षों तक मिला. ऐसे में स्मार्ट मोबाइल फोन आदि लेना मेरे बस के बहार की बात थी. लेपटॉप (नवल किशोर दुबई से लेकर आया था) के आ जाने से सोशल मिडिया में आने का रास्ता प्रसस्त हुआ, इस दुनिया में मेरा मझला भाई ही मेरा गुरु है. 2014 से फेसबुक, ट्विटर, आदि का उपयोग करने लगा था. किन्तु कभी कभार......यहाँ  निरंतरता 2016 से जारी है, तबसे लेकर आज तक ल्रेखन के क्षेत्र में थोड़ी-बहुत जान-पहचान बना लिया हूँ. लेखन में, मैं कक्षा छः से ही हूँ, उस समय के लेखन में भाव और लय  की प्रधानता अधिक थी और साथ ही साथ वह लेखन दोष-पुंज भी था . पहली रचना कहानी "अज्ञात हमलावर" सरस सलिल २०१० या २०११ के अंक में छपी थी. तबसे लेखन का सिलसिला चल पड़ा, लेखन के क्षेत्र में फेसबुक, ट्विटर अच्छा माध्यम है नए लेखकों के लिए वैश्विक पहचान बनाने के लिए.....उससे भी एक कदम आगे बढ़कर है ब्लॉग/वेबपेज/ वेबसाइट पर लेखन करना देखते ही देखते आप एक अंतराष्ट्रीय पहचान बन जाते हैं, रातोंरात; और क्या चाहिए?

 अस्मिता ब्लॉग पेज इस साल से मेरा स्वयं का न रहकर अब यह आप सभी साहित्यिक साथियों के रचनाओं के लिए एक ऑनलाइन मंच बन गया है. आज से 5 या 6 माह पहले साहित्य को लेकर अपने गुरु जी राजकिशोर जी के यहाँ बैठक हुई. यह वही जगह है, जहाँ सुरेश सौरभ जी से हमारी पहली मुलाकात हुई. आपकी रचनाएँ फेसबुक आदि पर हमें पढ़ने को मिलती रहीं, साहित्यिक परिचय के हम मोहताज़ नहिं थे किन्तु हम दोनों लोगों की पहली मुलाकात आमने-सामने पहले यहीं पर हुई. साहित्यिक रिश्ते में गहराई आती गई. इस  क्षेत्र में ऑनलाइन वेबपेज बनाने का विचार सुरेश सौरभ जी (जिले के अग्रणी साहित्यकार) के मन में आया जिसको लेकर हम लोंगों में चर्चाएँ होने लगी.इस सम्बन्ध में एक बैठक महीने-भर के अन्तराल पर पुनः किया गया जिसमें राजकिशोर जी (प्रवक्ता) , नन्दलाल वर्मा जी (एसोसिएट प्रोफ़ेसर) सुरेश सौरभ जी (साहित्यकार), श्यामकिशोर बेचैन जी (कवि), रमाकांत चौधरी जी (अधिवक्ता/कवि) और अन्य लोग उपस्थित रहे. जिसमें निर्णय लिया गया की इसका सञ्चालन मेरे द्वारा किया जायेगा क्योंकि ऑनलाइन (अंतर्जाल) दुनिया में मेरा कुछ लगाव ज्यादा है...मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. इस पेज का संचालन महज एक प्रयोग है जिले के साहित्य के क्षेत्र में  और यह प्रयोग  सफल भी रहा है. हमें खुशी हो रही है कि मई के अंतिम महीने से लेकर अब-तक साहित्यिक साथियों और पाठकों का भरपूर सहयोग मिला है. रचनाओं को लगाते समय यह भी देखने को मिला है कि जिले के नवोद्भिद साहित्यकार भी निकलकर आयें हैं, जिनकी रचनाओं को वापस न कर संशोधित करते हुए 'साहित्य के नवांकुर' कालम के तहत प्रकाशित कर दिया गया और जो उन्हें साहित्य से सम्बंधित जिन बारीकियों को बताया गया सहर्ष स्वीकार कर अपनी रचनाएँ जो पुनः प्रेषित किये उसमें काफी सुधार दिखा. हम सम्पादकीय मंडल के तरफ से  इन नवांकुर साहित्यिक साथियों को उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं और बधाई देते हैं. साहित्य  के क्षेत्र में निर्वार्ध गति से अपनी लेखनी को धार दें और जन-मानस की आवाज बनें.

इस पेज पर साहित्य के धुरंधर विचारक, लेखक, साहित्यकार, साथिओं (मेरे लिए गुरुओं)  का का सहयोग प्राप्त हो रहा है हम उनके बहुत-बहुत आभारी हैं और आशा करते हैं की साहित्य में आपका सहयोग और मार्गदर्शन सदा मिलता रहेगा. इसी के साथ इस लेखनी को हम यहीं विराम देते हैं.
उपसम्पदाकीय
अस्मिता ब्लॉग/पेज
https://anviraj.blogspot.com  

Sunday, May 30, 2021

बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं पर बाबूलाल को मिली यातनाएं.......सुल्तानपुर

 

“महज बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाओं को शादी कार्ड पर छपवाने के चलते 4 दिन तक वृद्ध बाबूलाल को जेल के हवालात में बंद रखा। सामंती सोच के चलते ऐसा निर्णय लेन कहाँ तक उचित है, आखिर क्या मंशा है स्थानीय थाना प्रभारी देवेन्द्र सिंह की........”

 -अखिलेश कुमार अरुण

सुल्तानपुर में थाना कोतवाली की पुलिस ने गांव अभिया खुर्द के निवासी दलित समाज के बाबूलाल को महज इसलिए गिरफ्तार कर हवालात में डाल दिया, क्योंकि उन्होंने अपनी पोती की शादी के कार्ड में बाबासाहेब की उन 22 प्रतिज्ञाओं को प्रिंट करवा दिया था, जो स्थानीय लोगों और नाते-रिश्तेदारों के बीच बांटा गया, जिस पर स्थानीय ब्राहमणवादी के लोगों ने आपत्ति जताई और इसकी शिकायत जिले के स्थानीय कोतवाली देहात, दोमुंहा थाने में कर दी गई। देखिये पुलिस का रवैया कितनी संगीनता से इस आपत्ति को संज्ञान में लेकर त्वरित कार्यवाही करती है। जहाँ बाबा साहब का उपासक बाबूलाल देखते ही देखते अपराधी बन जाता है और बेवजह चार दिन हवालात में अपने को यह साबित करने के लिए बिता देता है कि वह निर्दोष है। बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर की 22 प्रतिज्ञाएं - 22 Vows of Dr. Ambedkar in Hindi  - DhammaGyan

 

बाबा साहब के उपदेश वास्तव में देश में अशांति का माहौल पैदा करता है तो बाबा साहब को दोषसिद्ध करने के लिए कोर्ट में स्थानीय थाना प्रभारी देवेन्द्र सिंह को अपील करनी चाहिए और उसके लिए एक लम्बी कानूनी लड़ाई लड़नी चाहिए जहाँ वह यह साबित कर सके कि बाबा साहब के द्वारा दी गयीं यह 22 प्रतिज्ञाएँ देश हित में उचित नहीं हैं।।।।ऐसा कर इन मनुवादियों द्वारा कर लिया जाता है तो उनके धर्म और समाज के लिए उनका यह बहुत बड़ा परोपकार होगा।

 

बाबूलाल, अपराधी

उत्तर प्रदेश की पुलिस की मनमानी कहें अथवा इसे सामन्ती वर्ग का शासन, संविधान और कानून के साथ ही साथ वंचित समुदाय पर दादागिरी, महज बाबा साहब 22 प्रतिज्ञाओं को शादी कार्ड पर छपवाने के चलते 4 दिन तक वृद्ध को जेल के हवालात में बंद रखा। जहाँ घर में विवाहोत्सव की घर में चार दिन बाद खुशिया ही क्खुशियाँ थीं, वहां पुलिस की मनमानी रवैया के चलते परिवार के लोग थाने के चक्कर लगते घूम रहे हैं। ऐसा क्या है बाबा साहब की उन प्रतिज्ञाओं में जिसके चलते वृद्ध को पोती की विदाई के तीसरे दिन ही गिरफ्तार कर लिया। उन्हें 24 मई से 28 मई तक हवालात में रखा गया। स्थानीय थाना प्रभारी देवेन्द्र सिंह ने बिना यह देखे कि यह मामला कानून तोड़ने का है या नहीं, करीब 70 साल के बाबूलाल को किस आधार पर बंद किया यह आपने आप में एक बड़ा प्रश्न है। क़ानून की अंधेर नगरी ऐसे हावी रही तो वह दिन दूर नहीं जिस दिन बाबा साहब की उन सभी शिक्षाओं और उपदेशों को गैरकानूनी ठहरा दिया जाएगा जो आज तक तर्क की कसौटी पर खरी उतरती रहीं हैं।

 

बाबा साहब ने उन 22 प्रतिज्ञाओं का संकलन बिना सोचे-समझे नहीं किया था। उनके जीवन का एक बड़े शोध का परिणाम हैं ये प्रतिज्ञाएँ जो बौद्ध अनुयायियों को उनके जीवन में मार्गदर्शित करती हैं। इन प्रतिज्ञाओं को बाबा साहब ने सन् 1956 में बाबासाहेब ने बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद अपने अनुयायियों को बौद्ध धर्म की दीक्षा देते हुए दिलवाई थी। जिस प्रकार से गौतम बुद्ध के त्रिशरण और पंचशील का महत्त्व स्वीकार किया जाता है ठीक उसी प्रकार बाबा साहब के इन उपदेशों को भी स्वीकार किया जाता है क्योंकि आधुनिक युग के बौद्ध धम्म उद्धारक कहे जाते हैं। ऐसे में बाबा साहब के इन प्रतिज्ञाओं के खिलाफ पुलिस का यह कार्य निन्दनीय ही नहीं घोर और एक दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है इसलिए सलिम्प्त पुलिस अधिकारिओं के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही करते हुए तत्काल प्रभाव से निलंबित किया जाना चाहिए और हर्जाने-खर्चे के साथ ससम्मान बाबूलाल को उक्त प्रकरण में मुक्ति दिलवाई जानी चाहिए। हमारे गाँव-क्षेत्र में इन 22 प्रतिज्ञाओं के कार्ड का चलन बहुतायत में पाया जाता है आईये कोई इधर भी कानूनी कार्यवाही करने हमें अच्छा लगेगा ही नहीं अपने समाज के लिए कुछ करने का जज्बा जागेगा।

 

उपसम्पादकीय

अस्मिता ब्लॉग (anviraj.blogspot.com)

 

 

 

 

Monday, November 24, 2014

पाटों के बीच में-अखिलेश के० अरुण

   लिंग-विभेद विमर्श  

ए०के०अरुण


सौतेले बेटा-बेटी तो  खाली बदनाम बदनाम भर हैं. उससे कहीं ज्यादा जहालियत की मारी है तो वह केवल एक लड़की है चाहे वह सगी ही क्यों न हो। इसका सहज अनुमान केवल वही लड़की लगा सकती है. जिसके परिवार में तीन-चार लड़कियाँ हों और माता पिता को एक बेटे की लालसा हो; आश लगाये परिवार नियोजन को ताख पर रखकर बस हर साल बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाएँ वह बात अलग है कि परिवार को एक जून का निवाले का एक कौर भी नसीब न हो पा रहा हो, लड़के की जगह पर लड़कियां धड़ा-धड़ पैदा हो रही हों.वहां एक लड़के की टीस तो बनी ही रहेगी. यह मानव व्यवहार का अंग बन गया है बेटा होना ही चाहिये और हो भी क्यों नहीं बेटी बाप के घर तो रह नहीं सकती उसे तो पिया घर जाना ही है. जिनके घर जा रही हैं वे महाशय किस आचार-विचार के होगें दूसरे के माता पिता को छोड़ो अपने ही माता-पिता का दुख दरद बाटेगें कि नहीं कहा नहीं जा सकता ऐसे में किसी लड़की का क्या दोष है? वह तो अपने जान की बाजी लगा देती एक दूसरे के सुख-दुख को बाँटने के लिये कुछ ही ऐसी होगीं जो अपने कर्तव्य मार्ग से भटक जाती हैं।

 

बड़े ही दुखों में दिन काटे हैं एक एक चीज के लिये तरस जाया करती थी, खुशी के दो पल गुजारना मुश्किल हो जाता था, यह भी कोई जिन्दगी है। पर जन्म मिला है तो निर्वाह करना ही है, क्यों? किसलिये? क्यों नहीं, ढेर सारे सवाल मेरे मन को कचोट जाते थे. छोटी सी उम्र में इनका उत्तर ढूढ़ पाना मुश्किल था. जैसे-जैसे बड़ी होती गयी कुछ सच्चाईयों से तो पर्दा खुद-ब-खुद ही उठ गया, कुछ आज भी अज्ञात हैं. यह हमारी लापरवाही भी हो सकती है और भलमनसाहत भी कि जान बुझकर भी पर्दा पड़ा रहने दिया। जब मैं 4 साल की (शायद में) होऊँगी तब हम तीन बहनों के अभिशापित बाप-महतारी के घर में खुशहाली की रौनक आयी थी नहीं तो कभी बाप के मुँह पर एक प्रसन्नता के लकीर तक को न देख सकी थी. हर वक्त भृकुटी तनी रहती, बात-बात पर झिड़क देते, ‘उठा के पटक दूँगा......,मार डालूँगा........,गला घोट दूँगा न जाने और क्या क्या ......।कुछ ही याद हैं और बहुत कुछ भूल चुकी हूँ नही तो भूला भी देती हूँ। उनकी आँखें हमेशा लाल रहती थीं याद नहीं आता कि कभी दुलार से एक प्यार के लब्ज भी बोले होगें पर अब उस छोटे बच्चे के साथ बहुत खुश रहते हैं इसका अन्दाजा उनकी कनपटी तक फैलती दंतपँक्ति से ही लगाया जा सकता है। मैं चाहती भी हूँ कि वे हमेशा इसी तरह खुश रहें दुख की वह काली घटा न छाये, नहीं तो कभी उनके चेहरे की सारी रेखायें मुँह में घुसती सी जान पड़ती थी. बड़ा ही विभत्स विकराल चेहरा अचानक कोई देख ले तो डरे बिना नहीं रह सकता था, आँखे साँझ के डूबते सूरज जैसी लाल और उस पर गर्मी भी, हम तीनों बहनों को हसंते-खेलते देखते तो सूर्यग्रहण के कोरोना बन बैठते थे। इसके विपरीत माता जी से प्रेम की कुछ आँकाक्षा रहती थी किन्तु वह भी तपती धरती पर आकाशीय बादल के छाया मात्र ही, क्षण भर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होने वाली, खड़ी दोपहरी में देखते रहो ज्येठ माह का वह छाया किस तरह राह चलते पथिक को छोड़ कर भागा जा रहा हैं। पिता के अनुपस्थिति में ही यह मौका कभी-कभी हांथ लगता था नहीं तो महीनों बीत जाते थे, मन की चीज खाने को न मिलता था। रबड़ी, मलाई, बरफी तो केवल-केवल सुनने के लिये ही थे, मुये सपने में भी नहीं आते कि देखकर संतुष्टि प्राप्त कर लें। स्वप्न भी हमारे निराले होते थे उसमें भी बाप पीछा नहीं छोड़ते थे, कहाँ है?..... मर गयी क्या?.......,बैठे-बैठे.....,कुछ नहीं सुझता..........।रातों की नींद हराम हो जाती थी. उनके डाँट-फटकार से नींन उचट जाती, कलेजा जोरो का धड़कने लगता साँसे लोहार की धौकनी सी चलती, सीना जोर से फूलता-पचकता, मारे डर के पसीना से तर-बतर। मन में विचार कौंध जाता सोते हुये बाप की सूरत को देखकर भी डर लगा करता था,‘ कितनी चैन की नींद सो रहें हैं भला दिन में भी डांटते -फटकारते ही रहते हैं. स्वप्न में तों न आया करो, रोज राते को एक नहीं दो-दो ,तीन-तीन बार ऐसा हुआ करता था। सो कर उठो तो सुबह वही हाल जिस प्रकार से छोटी चिडि़या को अपने घोसले में बाज को देखकर....., भय और सिकन की रेखायें हमारे चेहरे पर हमेशा के लिये डेरा जमा चुकी थी, चाह कर भी हंस नहीं सकते थे। देह और मस्तिष्क को प्रगति के लिये शुभ अवसर ही प्राप्त न हुआ सो सवा तीन सेर के रह गये, चार किमी0 प्रतिघंटा  के रफ्तार से गति करती पुरुवा बयार में छत पर जाने से डरती थी कि पता नहीं कब बिना जीना की सीढ़ी उतरे नीचे आ जाऊँ और फिर........भगवान जाने।

 

,,,घ से दू....र का रिस्ता था. स्कूल का नाम भर ही सुने थे कैसा होता है पता नही, शायद होता भी है या नहीं किसी दूसरे लोक की बात जान पड़ती थी। घर के सामने से दो-चार,छः बच्चों की टोली बड़ी अजीब लगती थी. एक ही रंग की वेष-भुषा गले में लाल-पीली धारियों वाली रस्सी (टाई) मन में हलचल होती बाँधे जाते होंगें.........। गधें हैं सब के सब पीठ पर बोझ लादे, हमें क्या पता कि वे दुनिया की नयी युक्ति सीखने जाते हैं। हमें कभी मौका ही नहीं मिला बस हम तो खउराहा पिल्लों जैसे घर में ही दूबके रहते थे, दीवार के हर एक छोटे-बड़े चिन्हों से बाकिब जरूर थे. कहाँ गोल, कहाँ चैकोर और आड़ी तिरछी रेखायें हैं और हो भी क्यों नहीं वही तो बचपन से लेकर 16-17 वर्ष तक के उमर की साथी थीं, घण्टों कहीं खोये-खोये निहारा करते थे, रूखा-सूखा खाने-पीने के बाद यही दिन भर का काम था।

 

खाने-पीने की कमी नहीं थी नसीब में ही नही था। बाप लाखों के मालिक थे पर हम बहनों को नून ही चटाते कहते कौन ये घर को संभालेगीं, हैं तो दूसरे के घर की बसना ही, लाना तो है नहीं इनको लेके ही जाना है सो जो कुछ बच जाये वही बहुत है। वहीं छोटे भाई के लिये किसिम-किसिम के फल फलहार, मेवा-मिष्ठान और ना जाने क्या-क्या आते रहते थे (ज्यादा खिलाने-पीलाने के फेर में बिमार ही रहता था उसका दोष भी हम लोगों के मत्थे ही मढ़ा जाता, देखा नहीं जाता है न उन सबको नजर लगा दिये होगें) सुगधं भर ही नसीब होता था. बच्चे को नजर न लगे सो हम सब से चुराकर खिलाया जाता था. कभी मौका हांथ लगा था ठीक-ठीक याद नहीं केले के छिलके को उठाकर चखने का क्या गजब का मधुर स्वाद था सुगधं तो तन-मन दोनों को संतर्पित कर गया था. बाद  छिपा के रख लिया था हफ्तों सूंघती रही जब-तब वह दुर्गन्ध न देने लगा था, एक दिन चोरी पकड़ी गयी मार पड़ी सो अलग, ‘चुराकर खाती है..... यही सब सीखेगी.....जहाँ जायेगी वहाँ भी नाम रोशन.........।मार-पीट सब कुछ भूल गयी, कहाँ जाना है यही दिमाग में बैठ गया, बाप के हाथों मारी-पीटी जाना तो रोज का हमारे लिये खेल ही था चाहे जो भी कुछ हो अपना अधिकार तो हम पर जताते थे. यही बाप-बेटी का रिस्ता क्या कम था।

 

बीते उन्ही दिनों की बात है पापा किसी रिस्तेदार के घर गये थे, जब कभी ऐसा मौका हांथ लगता तो हम भी खूब मस्ती करते थे. बिना खाये-पीये ही गाल उग जाते थे. मारे खुशी के दिन भर चहकते रहते थे, मम्मी भी नहीं टोकती थी. उनमे यह परिवर्तन अच्छा लगता था, ‘कर लो आज ही भर कल से मरना बे-मौत। उस दिन खेलते-खेलते सो रहे बाबू के पास जाने का मौका मिला था। क्या खूब रंग पाया है बिल्कुल आंटे की गुथी लोई की तरह होंठ गुलाब की पँखुड़ी जैसे फूल से लाल रस चूने को हो। पहली बार तो उसे छूने को मन नही किया एक टक निहारती रही कहीं गन्दा न हो जाये. इसिलिये तो बाबूजी पास फटकने नहीं देते मन में विचार आया था। महिनों बाद आज मौका मिला था कैसे चूक जाती मारे वात्सल्य प्रेम के मैने झट से सोते उस बच्चे को चूम लिया उसके पूरे शरीर को छूआ आहिस्ता -आहिस्ता हांथ फिराया, पर उसके एक जगह के छूअन से हमे कुछ अजीब सा लगा, यह  क्या है? सोचे कुछ सूझ नहीं रहा था. मस्तिष्क अस्थिर भाव शून्य हो गया, किसी परिणाम पर नहीं जा सका, दुनिया की ढेर सारी उलझने दिमाग में कौंधने लगे फिर मैने शंका समाधान हेतु अपने पाटों के बीच में हांथ रखा खाली-खली सा आभास हुआ, मन जोरों का धड़क उठा नहीं ऐसा नहीं हो सकता अपना ही मन अपने से कई सवाल करने लगा। अतिसुक्ष्म निरीक्षण करने हेतु मैने बारी -बारी से उसको और अपने को स्पर्श किया पर परिणाम वही रहा ढाक के तीन पात उभार और खाली.....? मैं चुपचाप वहाँ से उठकर चली गयी घण्टों सोचती रही, क्या? कहीं यही तो नहीं बाप के गुस्से का कारण है। इससे उनके गुस्सा होने से क्या मतलब, अगले क्षण मैने सोचा केवल मेरे साथ ही ऐसा है या फिर दोनों बहनों के पास भी........। अन्ततोगत्वा दोपहर की नींद में सो रही उन दोनों बहनों को भी मैनें स्पर्श किया. वे भी दोनों खाली-खाली अब तो एक बात निश्चित थी कि हम लोगों के जहालत का प्रमुख करण यही था जो अब तक हमारे लिये राज.......एक... गहरा राज था जिसे अब तक मैं न जान पायी थी. अब मैं सब कुछ समझ चुकी थी  और देख भी...। हु-ब-हू तो था सब कुछ उस बच्चे जैसा ...हम बहनों के पास कुछ नहीं है तो उभार और उसके पास खाली......वह भी पाटों के बीच में....यही एक अंतर था. हम बहनों और भाई के बीच जिसका पूरा लाभ भाई को मिला खाने-पिने से लेकर पापा के लाड़-दुलार तक पर इसका मतलब यह तो नहीं कि हम और हमारी जैसी बहनों को जीने का हक़ नहीं है लडको की तरह आजादी नहीं है. हम भी  उनके आधी आबादी के हकदार हैं फिर वह मान-सम्मान क्यों नहीं....यह सवाल आज भी हमारे जेहन में गूँजता रहता है।

-इति-

ग्राम-हजरतपुर,पोस्ट-मगदापुर

जिला-लखीमपुर-खीरी,उ०प्र०

Kherinorth6@gmail.com

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