साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Tuesday, February 27, 2024

अमीन सयानी ने मनोरंजन की दुनिया में रेडियो का मधुर व्याकरण रचा-अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०
अमीन सयानी यानी आवाज की दुनिया के सुपर स्टार। बचपन में जब अमीन सयानी का हर दिल अजीज कार्यक्रम ‘बिनाका गीतमाला’ सुनते तो लगता था कि ये आवाज किसी दूसरी दुनिया से आती है। ऐसी आवाज जो मानो रेडियो के लिए ही बनी है और रेडियो अमीन सयानी के लिए। कल के रेडियो उद्घोषक और आज के रेडियो जाॅकी अमीन सयानी की जानदार आवाज और अदायगी को के प्रति श्रोताअों की जबर्दस्त दीवानगी को शायद ही समझ पाएं। वो जमाना था जब बड़े बड़े फिल्म स्टार भी अमीन सयानी से मिलने को बेताब हुआ करते थे। दरअसल अमीन सयानी ने आजाद भारत में मनोरंजन की दुनिया में रेडियो एक नया और मधुर व्याकरण रचा। शुष्क समाचार, धीर गंभीर सूचनाअों और शास्त्रीय संगीत से परे जाकर आम आदमी की जबान में आम आदमी से सहज और दिलकश संवाद की नींव अमीन सयानी ने अपनी युवावस्था में रखी। उसी नींव पर आज टी.वी. चैनल्स और एफएम रेडियो की दुनिया खड़ी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि अमीन सयानी भारतीय रेडियो की दुनिया के ‘पितृ पुरूष’ थे। 
अमीन सयानी को सिर्फ इसलिए याद नहीं किया जाएगा कि उन्होंने बिनाका गीतमाला के रूप में हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता का पैमाना तय करने वाला कार्यक्रम 42 साल तक होस्ट किया, बल्कि इसलिए भी याद किया जाएगा कि उन्होंने रेडियो की जनोन्मुखी, संवादात्मक और सहज सम्प्रेषणीय भाषा भी रची। अमीन सयानी जिस भाषा में उद्घोषणा करते थे, इसके माध्यम से रोचकता का संसार रचते थे,  वह हिंदी और उर्दू का मीठा मिश्रण होता था। खास बात यह है कि अमीन सयानी ने अंग्रेजी उद्घोषक के रूप में कॅरियर की शुरूआत की थी। लेकिन बाद में वो हिंदी उद्घोषणा के मील का पत्थर बन गए। अपनी सरल लेकिन प्रभावी शब्द संपदा के साथ हिंदी उर्दू के कठिन शब्दों का शुद्ध और नफासत भरा उच्चारण, स्वराघात, लय और प्रांजल सम्प्रेषणीयता अमीन सयानी की जुबान की ऐसी खूबियां थीं कि लोग उनकी सामान्य बातचीत पर भी मोहित हो जाते थे। बीती सदी में साठ और सत्तर के दशक में हर युवा उद्घोषक अमीन सयानी की नकल करने की कोशिश करता था और वैसा ही बनना चाहता था। अभी भी विविध भारती के नामी उद्घोषक युनूस खान की उद्घोषण शैली में इसकी झलक देखी जा सकती है। उन दिनो हिंदी उद्घोषणा जगत में तीन आवाजें मानक समझी जाती थीं। समाचार वाचन में आकाशवाणी के देवकी नंदन पांडे, हाॅकी कमेंट्री में जसदेवसिंह तथा मनोरंजन के क्षेत्र में अमीन सयानी। इन सभी ने जनसंचार के क्षेत्र में रेडियो माध्यम की महत्ता और चुनौतियों को बखूबी समझा तथा उसे एक नई परिभाषा दी। इन तीनों में भी अमीन सयानी का नाम तो हर घर में पहुंच चुका था। उन्होंने सार्वजनिक संबोधन में भी एक बुनियादी बदलाव किया था। तब तक किसी भी कार्यक्रम में वक्ता आम तौर पर ‘भाइयो और बहनो’ से बोलने की शुरूआत करते थे। लेकिन इससे लैंगिक विषमता की गंध आती थी। अमीन सयानी ने अपने कार्यक्रम में ‘बहनो और भाइयों’ कहना शुरू किया, जो बेहद लोकप्रिय हुआ और स्त्री शक्ति की महत्ता को रेखांकित करता था।
ये सुखद संयोग ही है कि 20 साल की उम्र में अमीन सयानी ने रेडियो सीलोन से भारतीय फिल्म संगीत, जो उस वक्त अपने सुनहरे दौर में कदम रख रहा था, को घर- घर पहुंचाने और उत्कृष्टता की प्रतिस्पर्द्धा में लोकप्रियता को एक मानदंड के रूप में स्थापित करने का सफल प्रयास किया। यही वो दौर था, जब देश की पुरानी पीढ़ी हिंदी फिल्मों के संगीत को बाजारू मानकर उसे खारिज या अनदेखा करने की कोशिश कर रही थी। देश के तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री बी.वी. केसकर ने तो आकाशवाणी से हिंदी फिल्म संगीत का प्रसारण यह कहकर बंद करवा दिया था कि इससे देश की युवा पीढ़ी बिगड़ रही है। जबकि हकीकत में उसी दौर में हिंदी सिने संगीत के स्वर्णिम काल का द्वार भी खुल रहा था। देश की नई पीढ़ी सुरों की उन्मुक्त दुनिया का आस्वाद ले रही थी। लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, मन्ना डे, गीता दत्त, आशा भोसले, तलत महमूद, मुकेश, किशोर कुमार जैसे महान गायक अपनी कला से सुगम संगीत के नए प्रतिमान रच रहे थे। इन गायकों को महान बनाने का काम असाधारण रूप से प्रतिभाशाली कई संगीतकार कर रहे थे। युवा पीढ़ी इन गायकों की आवाज की दीवानी थी। लेकिन तत्कालीन सरकार की नजर में यह सब बेकार की बातें थीं। (हालांकि बाद में इस गलती को आकाशवाणी से विविध भारती कार्यक्रम शुरू करके सुधारा गया।) लेकिन इसमें निहित संकेत साफ था कि संगीत की स्वर लहरियां अभिजात्य शास्त्रीय संगीत की संकुचित दुनिया से बाहर निकल कर लोक विश्व में तैरने को बेताब थीं। मानो देश के साथ संगीत भी आजाद हो गया था। उधर  रेडियो सीलोन (जो एक श्रीलंकाई कंपनी थी) ने आजादी के बाद बदलती लोक रूचि को ध्यान में रखकर बिनाका गीतमाला कार्यक्रम शुरू किया, जिसके उद्घोषक बने अमीन सयानी। अमीन साहब के सामने ऐसे कार्यक्रम का कोई तयशुदा माॅडल नहीं था। लिहाजा उन्होंने अपना खुद का माॅडल तैयार किया, शैली गढ़ी। हालांकि उन दिनो देश भर में रेडियो स्टेशनो की संख्या एक दर्जन से भी कम थी और रेडियो की पहुंच मुश्किल से 15 फीसदी आबादी तक रही होगी, लेकिन ‘बिनाका गीतमाला’ सुनने के लिए लोग रेडियो खरीदने लगे। रेडियो के प्रसार के साथ ही बिनाका गीतमाला भी लोकप्रिय होता चला गया। हर हफ्ते बुधवार को रात आठ बजे प्रसारित होने वाले इस कार्यक्रम को सुनने वालों में शर्त बदी जाती कि इस हफ्ते कौन सा गाना नंबर एक पर रहने वाला है। ‘पायदान, हिट परेड, सरताज जैसे शब्दों को अमीन साहब ने ही लोकप्रिय बनाया। कौन सा गीत कौन सी पायदान पर रहने वाला है, इसको लेकर देश भर में उत्सुकता रहती। लोग रात आठ बजे सारे काम छोड़कर रेडियो से कान लगाए रहते। 1954 में साल भर में नंबर पर रहने वाला पहला गीत था फिल्म ‘अनारकली’ का स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का गाया ‘ ये जिंदगी उसी की है, जो किसी का हो गया।‘ इसी कड़ी में सन 2000 में आखिरी सर्वाधिक लो‍कप्रिय गीत था फिल्म मोहब्बतें का ‘हमको हमी से चुरा लो।‘ संयोग देखिए कि यह गीत भी लता मंगेशकर ने ही गाया था। या यूं कहें ‍कि सिने संगीत के मेलोडी की शुरूआत भी लताजी  से होती है और शायद समापन भी उन्हीं की आवाज से होता है।  
बिनाका गीतमाला में चयनित गीतों का मानदंड क्या था, यह खुद अमीन सयानी ने एक इंटरव्यू में बयान किया था। उन्होंने कहा था कि बिनाका गीतमाला का प्रसारण रेडियो सीलोन से 1952- 53 में शुरू हुआ। आरंभ में गीतों को पायदान के अनुसार क्रम देने का चलन नहीं था। पहली बार 1954 में गीत को उसकी लोकप्रियता के आधार पर क्रम देने की शुरूआत हुई। इसका मुख्य मापदंड उस गीत की लोकप्रियता थी। यह लोकप्रियता उस गीत के रिकाॅर्ड की बिक्री के आंकड़ों तथा श्रोताअों की वोटिंग के आधार पर तय होती थी। हालांकि बाद में वोटिंग सिस्टम बंद कर दिया गया।  

बिनाका गीतमाला की सर्वाधिक लोकप्रियता उसकी रजत जयंती तक रही। हालांकि बाद में भी यह कार्यक्रम प्रसारित होता रहा, लेकिन टीवी के आगमन के बाद कानों की दुनिया की जगह आंखों की दुनिया ने ली। गायको के सामने गीत के भाव को अपनी आवाज के माध्य म से विजुलाइज करने की चुनौती घटने लगी। गाना संगीत के सागर में तैरने की जगह परफार्म करने का विषय बन गया। 
ये अमीन सयानी ही थे, जो रेडियो के उत्तर काल में भी अपनी आवाज के दम पर अपनी पहचान कायम रख सके। इस कार्यक्रम के एक जमाने में 20 लाख से ज्यादा श्रोता हुआ करते थे। अमीन साहब ने रेडियो पर लगभग 54 हजार प्रोग्राम प्रोड्यूस और कम्पेयर किए थे। 19 हजार स्पॉट/जिंगल में भी उनका आवाज सुनाई दी थी। अमीन सयानी कई फिल्मों में भी रेडियो अनाउंसर के तौर पर नजर आए। 2009 में उन्हें रेडियो के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा। 
आजकल रेडियो एनांउसर को रेडियो जाॅकी कहा जाता है। एफ एम रेडियो ने इस पेशे को कुछ अलग चमक दी है। लेकिन एक अच्छा और अनोखा रेडियो जाॅकी बनना अभी भी आसान नहीं है। अमीन सयानी कहते थे कि हर रेडियो जाॅकी को अपने आप में अलग होना चाहिए। यह उसकी आवाज के अनोखेपन से ही संभव है। वरना सभी की आवाज और अदायगी एक सी होगी तो कौन सुनेगा। साथ ही रेडियो जाॅकी को लोगों को अपने जैसा महसूस होना चाहिए। अमीन सयानी रेडियो जाॅकी के लिए एक समृद्ध विरासत छोड़ गए हैं।  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी श्रद्धांजलि में कहा कि अमीन सयानी अपने काम के जरिए वे भारतीय ब्रॉडकास्टिंग की दुनिया में क्रांति लाए और अपने श्रोताओं के साथ खास बॉन्ड बनाया। कुछ लोग अमीन सयानी को भारतीय रेडियो का ‘ग्रैंड अोल्ड मैन’ भी कहते हैं। अमीन सशरीर भले जुदा हुए हों, लेकिन उनकी रेशमी आवाज हमेशा हमारे साथ रहेगी। आमीन। 
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 22 फरवरी 2024 को प्रकाशित)

Saturday, January 06, 2024

मोहन यादव सरकार: अपनी लकीर बड़ी करने की पुरजोर कोशिश... अजय बोकिल

राजनीतिक चर्चा
वरिष्ठ  संपादक
सुबह सवेरे, म०प्र०


मध्यप्रदेश में नई भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में डाॅ. मोहन यादव को शुरू में भले ही ‘डार्क हाॅर्स’ माना जा रहा हो, लेकिन अपने 20 दिन के कार्यकाल में उन्होंने जिस तेजी से और जिस संकल्प शक्ति के साथ फैसलों की झड़ी लगा दी है, उससे राज्य में साफ संदेश गया है कि कोई उन्हें ‘हल्के’ में न ले। यह अपनी लकीर बड़ी करने की कोशिश भी है। खास बात यह है कि डाॅ.मोहन यादव के कुछ फैसलों में कई छोटी- छोटी लेकिन गंभीर जमीनी समस्याअों की निदान की चिंता भी दिखाई पड़ती है। यानी ये समस्याएं तो बरसों से चली आ रही हैं, लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री ने इन्हें अब तक बहुत संजीदगी से नहीं लिया। दूसरे, यादव सरकार के फैसलों में राजनीतिक दूरदर्शिता के साथ- साथ प्रशासनिक कसावट का आग्रह भी साफ नजर आती है। 
मप्र में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की चौथी बार बंपर जीत के बाद बहुतों का कयास था कि अब पार्टी को राज्य में नया चेहरा प्रोजेक्ट करना आसान नहीं होगा। लेकिन भाजपा आलाकमान ने सरकार का चेहरा मोहरा बदलने की ठान ली थी। इसी के तहत बहुत कम चर्चित लेकिन भगवान महाकाल की नगरी के बाशिंदे डाॅ. मोहन यादव को मुख्‍यमंत्री पद की कमान सौंपी गई। हालांकि आला कमान द्वारा सुनियोजित तरीके से दरकिनार ‍िकए गए पूर्व मुख्यमंत्री‍ शिवराजसिंह चौहान ने एक अलग रणनीति अपनाते हुए एक बार फिर से अपनी दावेदारी जताने का कोई मौका नहीं छोड़ा  और वो अभी भी यह बताने में लगे हैं कि भूमिका कोई सी भी हो, वो जन सेवा से पीछे हटने वाले नहीं है। शिवराज की यह कसक समझी जा सकती है, क्योंकि उन्होंने लगभग 17 साल तक देश के इस ह्रदय प्रदेश की कमान संभाली और राजनीति का अपना अलग नरेटिव गढ़ा। लेकिन लगातार सत्ता में बने रहने के अपने दुष्परिणाम भी होते हैं। सरकार में एक काकस और निरंकुशता का भाव बन जाता है। यूं शिवराज भावनात्मक और भौतिक रूप से जनता से जुड़े रहे, लेकिन प्रशासनिक तंत्र जनता से दूर होता चला गया। उसमे मगरूरी का भाव घर कर गया। इसके अलावा खुद शिवराज का बढ़ता कद भी भाजपा आला कमान को असहज करने वाला था। इसलिए माना गया कि अब राज्य में बदलाव का सही समय है। 
नए मुख्‍यमंत्री डाॅ मोहन यादव के सामने वही चुनौतियां थीं, जो किसी भी नए नवेले और अचर्चित मुख्यमंत्री के सामने होती है। उन्हें तय करना था कि वो शिवराज सरकार की छाया और प्रशासनिक शैली से बाहर निकलकर नई पिच पर कैसी बैटिंग करते हैं। जनता देख रही है कि उनमें उनकी अपनी सोच, संघ से तालमेल, भाजपा के एजेंडे को क्रियान्वित करने का संकल्प, नौकरशाही में धमक कायम करने का जज्बा और प्रशासनिक तंत्र को नए नई और सही दिशा में हांकने की क्षमता कितनी है। इस दृष्टि से इतना तो कहा ही जा सकता है कि सीएम डाॅ.मोहन यादव ने इस वन डे मैच के शुरूआती अोवर दमदारी से और सधे हाथों से खेले हैं।
और इस बात के पुष्ट प्रमाण भी हैं। मसलन मुख्‍यमंत्री बनने के तत्काल बाद जारी उनका पहला आदेश प्रदेश में धार्मिक स्थानों पर जोर से लाउड स्पीकर बजाने और खुले में मांस और अंडे की बिक्री पर सख्‍ती से रोक। इस फैसले को यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार के दूसरे कार्यकाल के मंगलाचरण की नकल के रूप में भी देखा गया, लेकिन धार्मिक स्थलों और अन्य कार्यक्रमों में कई बार बहुत ज्यादा शोर और कानफोड़ू लाउड स्पीकर आम जनता की परेशानी का सबब बन गए थे। चूंकि मामला धार्मिक था, इसलिए इसके खिलाफ कोई बोलने की हिम्मत नहीं कर पाता था। विपक्षी कांग्रेस  ने इस आदेश में भाजपा और आरएसएस का साम्प्रदायिक एजेंडा देखा और इस आदेश को परोक्ष रूप से मुसलमानों के खिलाफ बताने की कोशिश भी हुई, लेकिन मोटे तौर पर आम जनता ने इसका स्वागत ही ‍िकया, क्योंकि यह नियम किसी धर्म विशेष के स्थलों के लिए न होकर सभी धार्मिक स्थलों  के लिए था। इसी तरह खुले में मांस व अंडों की बिक्री पर रोक से उन छोटे दुकानदारों और ठेले वालों को जरूर परेशानी हुई है, जो सरेआम सड़क किनारे दुकान लगा कर ये सामग्री बेचकर अपना पेट भरते हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों ने इसे इसलिए सही माना, क्योंकि खुले में मांस बिक्री वैसे भी स्वास्थ्य के लिए हानिकर है। ऐसी कुछ अवैध दुकानों को तोड़ा भी गया। यही नहीं सरकार ने ध्वनि प्रदूषण के मामलों की जांच के लिए फ्लाइंग स्क्वॉड भी गठित किया है, जो निर्धारित सीमा से अधिक ध्वनि प्रदूषण की शिकायत मिलने पर क्षेत्र में जाकर कार्रवाई करेगा। धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकरों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण की हर हफ्ते समीक्षा की जाएगी। इसका असर दिखने भी लगा है।  भाजपा नेता उमा भारती यादव सरकार  के इस फैसले से गदगद दिखी। उन्होंने सोशल मीडिया पर इसे ‘यादव सरकार की संवेदनशीलता’ निरूपित किया। 
यादव सरकार का दूसरा अहम फैसला राज्य में विस चुनाव नतीजों के बाद भोपाल में एक भाजपा कार्यकर्ता पर हमला कर उसकी कलाई काटने के आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलाने का था। अल्पसंख्यक समुदाय के आरोपियों के घर बुलडोजर चलवाकर यादव ने यह संदेश दिया कि अपराध नियंत्रण और आरोपी को सबक सिखाने के मामले में वो योगी सरकार की नीति पर चलेंगे। हालांकि बुलडोजर को ‘त्वरित न्याय’ का उपाय मानने और इंसाफ की वैधानिक प्रक्रिया को दरकिनार करने के भाजपाई सोच पर प्रश्नचिन्ह भी लगता रहा है, लेकिन इससे जनाक्रोश को तत्काल कम करने का संदेश भी जाता है। एक और निर्णायक फैसला  प्रदेश की राजधानी भोपाल में विवादित बीआरटीएस ( बस रैपिड ट्रासंपोर्ट सिस्टम) के खात्मे का था। देश के कुछ दूसरे शहरों की नकल पर भोपाल में ‍िनर्मित बीआरटीएस शुरू से विवादों में रहा। करीब 13 पहले शिवराज सरकार के कार्यकाल में बना यह बीआरटीएस 360 करोड़ रू. खर्चने  के बाद भी न तो पूरी तरह बन सका और न ही राजधानी के यातायात को सुगम बनाने का इसका मूल उद्देश्य पूरा हो सका। इसे हटाने की बात बीच में सवा साल के लिए सत्ता में आई कमलनाथ सरकार के कार्यकाल में भी उठी थी, लेकिन अफसरों ने उस सरकार को भी इस बारे में कोई ठोस निर्णय लेने से रोक दिया था। हकीकत में बीआरटीएस जी का जंजाल ज्यादा बन गया था। यह बात अलग है कि इस बीआरटीएस को हटाने में भी अफसर और नेताअों की चांदी होने वाली है, क्योंकि हाथी मरा भी तो सवा लाख का। बताया जा रहा है कि इसे हटाने पर भी 40 करोड़ का खर्च अनुमानित है। 
 लेकिन यादव सरकार के  जिस फैसले ने मोहन यादव सरकार की धमक कायम की वो गुना बस हादसे के समूची नौकरशाही को जिम्मेदार मानते हुए  ‘पूरे घर के बदल डालने’ का था। एक निजी बस और डंपर की टक्कर के बाद लगी आग में 13 यात्रियों की जलकर मौत हो गई थी। जांच में सामने आया कि दोनो ही वाहन अवैध तरीके से चल रहे थे। इसके बाद सीएम मोहन यादव ने गुना जिले के कलेक्टर, एसपी के साथ साथ  ट्रांसपोर्ट कमिश्नर और प्रमुख सचिव परिवहन को भी पद से हटा कर समूची नौकरशाही में कड़ा संदेश ‍िदया।  यह मौका देखकर चौका मारने वाली बात भी थी, क्योंकि आगे पीछे शिवराज सरकार में प्रमुख पदों पर बैठे अफसरों को हटना ही था, लेकिन सड़क हादसा इसका निमित्त बन गया। वैसे भी किसी सड़क हादसे में सरकार द्वारा अब तक की गई यह सबसे बड़ी कार्रवाई है, हालांकि जिस बस के यात्रियों की अकाल मौत हुई, वो एक भाजपा  नेता की है और उसके खिलाफ कार्रवाई का अभी लोगों को इंतजार है।  
जन समस्याअों से जुड़ा एक और मुद्दा जिलों, तहसीलों और थानों की सीमा के पुनर्निधारण का है। इसके लिए एक कमेटी बनाने का फैसला हुआ है, जो इसका अध्ययन कर सरकार को रिपोर्ट देगी। शुरुआत पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इंदौर संभाग से की जाएगी। यह सही है कि राज्य में कई तहसीलों और थानों की भौगोलिक सीमाएं ऐसी हैं, जो स्थानीय नागरिकों की पहुंच से प्रशासन को दूर करती हैं। इनके युक्तियुक्तकरण की बेहद आवश्यकता थी। मसलन किसी गांव से जिला मुख्यालय 10 किमी है तो किसी दूरस्थ तहसील से इसकी  दूरी सौ किमी तक है। जबकि पड़ोस का जिला मुख्यालय वहां से बहुत पास है। यही स्थिति थानों  की भी है। किसी गांव से पुलिस थाना बहुत पास है तो किसी गांव से बहुत दूर। इस विसंगति को मिटाने  के लिए तहसील और थानों की सरहदों का पुनर्निधारण बेहद जरूरी था। यादव सरकार ने इस बारे में निर्णय लेकर एक बुनियादी मसले के हल की दिशा में कदम उठाया है। प्रशासन की लोगों तक सुगम पहुंच के इस फैसले पर अगर सही ढंग से अमल हुआ तो इसका सकारात्मक असर जरूर दिखाई देगा। ताजा तरीन फैसला ड्राइवरों की औकात को लेकर की गई घटिया टिप्पणी के बाद शाजापुर कलेक्टर किशोर कन्याल को ताबड़तोड़ पद से हटाना है। संदेश यही कि ड्राइवर जैसे छोटे कर्मियों का भी सरकार की नजर में बड़ा महत्व है। इसके अलावा उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के उद्देश्य से हर जिले में प्रधानमंत्री एक्सीलेंस काॅलेज खोलने का निर्णय भी अहम है। लेकिन इसी के साथ राज्य में पहले से चल रहे काॅलेज आॅफ एक्सीलेंस और सीए राइज स्कूलों की दुर्दशा पर भी सरकार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। कुल मिलाकर नई सरकार का आगाज तो अच्छा है, लेकिन इसके अनुकूल राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक परिणाम कैसे और कितने आते हैं, इस पर यादव सरकार का भविष्य काफी कुछ निर्भर करेगा।
( सुबह सवेरे’ में दि. 4 जनवरी 2023 को प्रकाशित)


Monday, June 26, 2023

फिल्म आदिपुरुष के संवाद और भाषा की सीमाएं: आखिर ‘आज की हिंदी’ अथवा आज की भाषा’ किसे कहेंगे हम-अजय बोकिल

अजय बोकिल
वरिष्ट संपादक

मनोज मुंतशिर ने जो वाक्य प्रयोग किए हैं, क्या वो सचमुच आज के उस समाज की भाषा है, जो सभ्यता के दायरे में आते हैं। वैसे मनोज मुंतशिर कोई महान गीतकार या लेखक हैं भी नहीं। उन्हें कुछ पुरस्कार जरूर मिले हैं, लेकिन उनका लिखा कोई गीत कालजयी हो और लोगों के होठों पर सदा कायम रहा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। उन्होंने अपना नाम मनोज शुक्ला से ‘मुंतशिर’ सिर्फ इस वजह से कर लिया कि उन्हें यह शब्द भा गया था। 

यह भाषा एक खास वर्ग को मानसिक संतुष्टि प्रदान करती है और सहजता व निर्लज्जता के भेद को मिटाती है। 
विस्तार
रामकथा से प्रेरित विवादित फिल्म ‘आदिपुरूष’ उसके संवाद लेखक मनोज मुंतशिर द्वारा जन दबाव में सिनेमा के डायलॉग बदले जाने के बाद भी हिट होने की पटरी से उतर गई लगती है। जो संवाद बदले गए हैं उनमें भी बदलाव क्या है? ‘तू’ से ‘तुम’ कर दिया गया है या फिर ‘लंका लगाने’ (यह भी विचित्र प्रयोग है) की जगह ‘लंका जला देंगे’ अथवा शेषनाग को ‘लंबा’ करने के स्थान पर ‘समाप्त’ कर देंगे, कर दिया गया है। लेकिन इस विवाद की शुरुआत में संवाद लेखक, गीतकार मनोज मुंतशिर ने एक बात कही थी।  जिस पर व्यापक बहस की गुंजाइश है।

दरअसल, मनोज ने जिन टपोरी संवादो पर आपत्ति हुई थी, उनके बचाव में कहा था- मैंने ये संवाद ‘आज की भाषा’ में लिखे हैं। मनोज की बात मानें तो ‘जो हमारी बहनों...उनकी लंका लगा देंगे’ जैसे वाक्य ‘आज की हिंदी’ है।

अब सवाल यह है कि ‘आज की हिंदी’ अथवा आज की भाषा’ हम किसे कहेंगे? यह कैसे तय होगा कि जो लिखी या बोली जा रही है,  वह आज की हिंदी ही है? हर समाज में अमूमन भाषा तीन तरह से प्रचलन में होती हैं।
 

पहली, वो लिखी जाने वाली व्याकरण सम्मत, विचार सम्प्रेषण और सृजन की भाषा होती है।
दूसरी वो जो हम आम बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं और जिसका व्याकरणिक नियमों से बंधा होना अनिवार्य नहीं है तथा जिसमें अर्थ सम्प्रेषण ज्यादा अहम है
तथा तीसरी वो जो आपसी बोलचाल में अथवा समूह विशेष में प्रयुक्त होती है, और अभद्रता-भद्रता के भेद को नहीं मानती।
 
आमतौर पर इसे लोकमान्य होते हुए भी टपोरी, फूहड़ अथवा बाजारू भाषा कहते हैं। सभ्य समाज इसके सार्वजनिक उपयोग से परहेज करता है और प्रयोग करता भी है तो किसी विशिष्ट संदर्भ में ही। अंग्रेजी में इसे ‘स्लैंग’ कहा जाता है। 

यह वो भाषा है जिसमें स्थानीय रूप से उपजे या गढ़े गए शब्दों की भरमार होती है। गालियां और उनके अभिनव प्रयोग इस भाषा का वांछित हिस्सा होते हैं। सभ्य समाज में वर्जित शब्दों का  टपोरी भाषा में धड़ल्ले से प्रयोग होता है और इसे कोई अन्यथा भी नहीं लेता।

यह भाषा एक खास वर्ग को मानसिक संतुष्टि प्रदान करती है और सहजता व निर्लज्जता के भेद को मिटाती है। इसमें  भी एक ‘किन्तु’ यह है कि जो व्यक्ति अपनी टपोरी भाषा में दूसरे के लिए हल्के और गाली युक्त शब्दों का बेहिचक प्रयोग करता है, वही व्यक्ति खुद उसके लिए इसी भाषा का प्रयोग करने पर आक्रामक भी हो सकता है। अर्थात् ऐसी भाषा कितनी भी सहज हो, लेकिन मानवीय गरिमा के अनुकूल नहीं होती।  

बदलता समाज और बदलती हुई भाषा 
इसमें दो राय नहीं कि हर एक-दो दशक में भाषा बदलने लगती है। उसमें नए भावों के साथ नए शब्द आते हैं तो पुराने शब्दों को नए तेवर देने  की गरज पड़ती है, कई शब्द चलन से बाहर भी होते हैं, उनकी जगह नए शब्द और मुहावरे रूढ़ होने लगते हैं। सभ्यता और संस्कृति का बदलाव, टकराव और परिवर्तित सामाजिक चेतना भी नए शब्दों की राह आसान करती है। कई बार शब्द वही होते हैं,  लेकिन उनके अर्थ संदर्भ बदल जाते हैं।  

अगर ‘आज की भाषा’ की बात की जाए तो हम उस भाषा की बात कर रहे होते हैं, जिसे अंग्रेजी में मिलेनियल जनरेशन, जनरेशन जेड या फिर अल्फा जनरेशन कहा जाता है। मिलेनियल ( सहस्राब्दी) पीढ़ी उसे माना गया है, जिसका जन्म 1986 से लेकर 1999 के बीच हुआ है। इसी पीढ़ी को ‘जनरेशन जेड’ भी कहा गया है।

21 वीं सदी के आरंभ से लेकर इस सदी के पहले दशक में जन्मी पीढ़ी को ‘अल्फा जनरेशन’ नाम दिया गया है। मिलेनियल और अल्फा जनरेशन की भाषा में बुनियादी फर्क यह है कि अल्फा जनरेशन की भाषा पर इंटरनेटी शब्दावली का असर बहुत ज्यादा है और वो पारंपरिक शब्दों के संक्षिप्तिकरण में ज्यादा भरोसा रखती है। इसे हम माइक्रो मैसेजिंग, व्हाट्सएप मैसेज में युवाओं द्वारा प्रयुक्त भाषा से समझ सकते हैं। 

इस पीढ़ी की भाषा में भाषाई शुद्धता और लिपि की अस्मिता का कोई आग्रह नहीं है। हिंदी रोमन लिपि में अपने ढंग और शब्दों तो तोड़-मरोड़ कर धड़ल्ले से लिखी जा रही है। यही उनके सम्प्रेषण की भाषा है। जिसे एक ने कही, दूजे ने समझी’ शैली में इस्तेमाल किया जाता है। इस भाषा में अभी साहित्य सृजन ज्यादा नहीं हुआ है ( हुआ हो तो बताएं)। क्योंकि इस भाषा का सौंदर्यशास्त्र अभी तय होना है। कई लोगों को यह कोड लैंग्वेज जैसी भी प्रतीत हो सकती है। यानी शब्दों के संक्षिप्त रूप धड़ल्ले से प्रयोग किए जा रहे हैं, नए रूप गढ़े भी जा रहे हैं, लेकिन उनका अर्थ पारंपरिक ही हो यह आवश्यक नहीं है। अलबत्ता जैसे-जैसे अल्फा जेनरेशन वयस्क होती जाएगी, उसकी अपनी भाषा में साहित्य सृजन  भी सामने आएगा। तब पुरानी पीढ़ी उसे कितना समझ पाएगी, यह कहना मुश्किल है।  

जहां तक मिलेनियल जनरेशन की बात है तो यह पीढ़ी पुरानी और नई पीढ़ी के संधिकाल में पली बढ़ी है, इसलिए इसे हिंदी का संस्कार अपने पूर्वजों की भाषा से विरासत में मिला हुआ है तथा उस विरासत में इस पीढ़ी ने अपनी सृजन शैली का तड़का लगाया है। इसलिए इस पीढ़ी की भाषा का तेवर पूर्ववर्तियों  की तुलना में अलग, ज्यादा संवेदनशील और जमीनी लगता है। बावजूद इसके इस पीढ़ी की भाषा पर प्रौद्योगिकी और इंटरनेट का (दु) ष्प्रभाव बहुत कम है।

इसमें अलग लिखने और दिखने की चाह तो है, लेकिन परंपरा से हटने का बहुत अधिक आग्रह नहीं है। मिलेनियल  जनरेशन अब अधेड़ावस्था में है और 20 सदी के संस्कारों और 21वीं सदी के नवाग्रहों के बीच अपना रचनात्मक और अभिव्यक्तिगत संतुलन बनाए रखने में विश्वास करती है।          

अब देखें कि मनोज मुंतशिर ने जो वाक्य प्रयोग किए हैं, क्या वो सचमुच आज के उस समाज की भाषा है, जो सभ्यता के दायरे में आते हैं। वैसे मनोज मुंतशिर कोई महान गीतकार या लेखक हैं भी नहीं। उन्हें कुछ पुरस्कार जरूर मिले हैं, लेकिन उनका लिखा कोई गीत कालजयी हो और लोगों के होठों पर सदा कायम रहा हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। उन्होंने अपना नाम मनोज शुक्ला से ‘मुंतशिर’ सिर्फ इस वजह से कर लिया कि उन्हें यह शब्द भा गया था।
 
मुंतशिर अरबी का शब्द है और इसके मानी हैं अस्त-व्यस्त अथवा बिखरा हुआ। ‘आदिपुरूष’ के विवादित संवादों में मनोज का ‘मुंतशिर’ चरित्र ही ज्यादा उजागर हुआ लगता है। वरना ‘लंका लगा देंगे’ जैसा वाक्य प्रयोग तो अल्फा जनरेशन की हिंदी में भी शायद ही होता होगा।  

वैसे भाषा में नया प्रयोग कोई गुनाह नहीं है, बशर्ते वह मूर्खतापूर्ण और अनर्थकारी न हो। कई बड़े लेखकों ने भी अपने गढ़े हुए चरित्रों को यथार्थवादी बनाने के लिए आम बोलचाल की भाषा कहलवाई है। यदा-कदा फिल्मों (ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो यह खूब हो रहा है) में भी शुद्ध गालियों का इस्तेमाल हुआ है। लेकिन ऐसे चरित्रों के लिए किया गया है, जो समाज के बहुत बड़े वर्ग की आस्था का विषय नहीं है, जो समाज से उठाए गए आम  मानवीय चरित्र हैं। लेकिन ‘आदिपुरूष’ के साथ तो ऐसा नहीं है। इसे बताया भले ही रामायण से प्रेरित हो, लेकिन हकीकत में यह कुछ बदले हुए रूप में ‘रामायण’ ही है। यह रामायण सदियों से लोगों के मन में इस कदर बैठी हुई है, उसके चरित्र इतने स्पष्ट तथा समाज को संदेश देने वाले हैं कि उनसे किसी भी तरह की छेड़छाड़ सामूहिक मन को विचलित करने वाली है। 

राम को आदिपुरुष कहना भी सही नहीं 
वैसे भी राम को आदिपुरुष कहना भी सही नहीं है। राम रघुवंश में जन्मे थे। और गहराई मे जाएं तो भगवान राम इक्ष्वाकु वंश के 39 वें वंशज  थे। इसलिए ‘आदिपुरूष’ कोई होंगे तो इक्ष्वाकु होंगे। राम नहीं। भारत में जनमानस में राम की छवि मर्यादा पुरूषोत्तम की है और कई आक्षेपों के बाद भी यथावत है।

मनोज मुंतशिर ने एक नया ज्ञान यह भी दिया कि हनुमान स्वयं भगवान नहीं, बल्कि राम के भक्त हैं। तकनीकी तौर पर यह बात सही हो सकती है, लेकिन निराभिमानी हनुमान ने स्वयं पराक्रमी होते हुए भी स्वामी भक्ति की उस बुलंदी की मिसाल कायम की है, जहां भक्त स्वयं भगवान की पंक्ति में बैठने का हकदार हो जाता है। जन आलोचना और बाजार के दबाव में डायलॉग बदलने को तैयार हो जाने वाले मुंतशिर इसे कभी समझ नहीं पाएंगे। वरना इस देश में साहिर लुधियानवी जैसे शायर भी हुए हैं, जो अपने गीत में एक शब्द का हेरफेर करने से भी साफ इंकार कर देते थे।

दरअसल, लेखक की रचना और शब्द संसार में कहीं न कहीं उसका अपना चरित्र भी परिलक्षित होता है। इसके लिए किसी उधार ली गई कथा का आश्रय लेना जरूरी नहीं होता। एक तर्क दिया जा सकता है कि अगर रामायण आज लिखी जाती तो उसमें संवाद किस भाषा में होते?
 
वाल्मीकि की भाषा में, तुलसी की भाषा में, रामानंद सागर की भाषा में या फिर मनोज मुंतशिर की भाषा में? ज्यादातर लोग तीसरा विकल्प चुनते, जहां आधुनिक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक भाषा में धार्मिक पौराणिक चरित्रों को उनकी शाश्वत मर्यादा के साथ रचा गया है, उनसे संवाद कहलवाए गए हैं। लेकिन कहीं भी फूहड़ता को आधुनिकता का जामा नहीं पहनाया गया है।

दरअसल मनोज के लिखे विवादित डायलॉग तो उससे भी घटिया हैं, जो किसी गांव में होने वाली रामलीला में कोई स्थानीय गुमनाम सा संवाद लेखक लिखता है और जिनके जरिए भी  दर्शक रामकथा से अपना सहज तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। ऐसे संवादों में अनगढ़पन हो सकता है, लेकिन फूहड़पन नहीं होता।  बहरहाल अगर बॉक्स ऑफिस की बात करें तो ‘आदिपुरूष’ का खुमार अब उतार पर है। फिल्म के इस हश्र ने साबित किया कि अब सोशल मीडिया ही बॉलीवुड फिल्मों का सबसे बड़ा नियंता है।

दूसरे, प्रयोगशीलता का अर्थ दर्शकों को हर कुछ परोसना नहीं है। इस फिल्म को लेकर राजनीति भी हुई। यहां तक दावे हुए कि ‘आदिपुरूष’ के पीछे छिपे राजनीतिक एजेंडे को हिंदूवादी संगठनों ने ही पलीता लगा दिया। और यह भी राम कथा के परिष्कार की गुंजाइश तो है, लेकिन उसे मनगढ़ंत तरीके से पेश करने की नहीं है।

(अमर उजाला डाॅट काॅम पर दि. 22 जून 2023 को प्रकाशित)

Tuesday, January 17, 2023

प्रभुदा से जुड़े सवाल और जवाब एक साथ तलाशता ‘कथादेश’-अजय बोकिल

कथादेश के बहाने
अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०

साहित्य, संस्कृति और कला की मासिकी ‘कथादेश’ का कथाकार, चित्रकार, पत्रकार, चिंतक या कहूं कि अपनी मिसाल आप प्रभु जोशी ( जिन्हें मैं प्रभुदा ही कहता आया) पर एकाग्र यह एक यादगार और जरूरी अंक है। यादगार इसलिए कि शायद पहली बार प्रभु जी के जीवन पर हर कोण से प्रकाश डालता यह शाब्दिक कोलाज है तो जरूरी इसलिए कि प्रभुदा जैसे नितांत ‘अस्त व्यस्त’ रचनाकार को समझने के लिए अभी ऐसे और अंकों की गरज है। मुझे इस अंक की जानकारी प्रभुदा के अनुज हरि जोशी के फोन से मिली। हालांकि हरिजी से मेरा भी यह पहला परिचय ही था। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने वह अंक देखा कि नहीं? मैं तब गाड़ी ड्राइव कर रहा था। जवाब में इतना ही कहा कि अच्छा..मैं देखता हूं। बाद में मित्रवर कैलाश मंडलेकर से बात हुई तो उसने कहा कि हां, तुम जरूर देखना। इसमें मेरा भी लेख है। काश, तुम भी कुछ भेजते।‘ 
सही है। मैं इस अंक के लिए कुछ नहीं भेज सका। इसलिए सोचा कि अंक ही पढ़ डालूं। पढ़ा तो लगा कि मानो प्रभुदा को ही नए सिरे से पढ़ रहा हूं। खासकर इसलिए कि प्रभुदा से मेरे नईदुनिया में उप संपादक के रूप में जुड़ने के बाद अग्रज-अनुज का जो अटूट रिश्ता बना, वो आखिरी वक्त तक कायम रहा। डेढ़ साल पहले जब क्रूर कोरोना ने प्रभु दा को असमय लील लिया तब मैंने बेहद तनाव प्रभुदा को शाब्दिक श्रद्धांजलि देने का प्रयास किया था।   
बीती 12 दिसंबर प्रभुदा की जन्मतिथि थी। यानी वो आज अगर होते तो 72 के होते। बीते 35 साल में प्रभु जोशी को मैं जितना आंक सका, उसका कुल जोड़ यह है कि उनके भीतर कई व्यक्तित्व और रचनाकार थे। लेकिन वो आपस में गड्ड मड्ड नहीं थे। प्रभु दा में एक बड़े लेखक, अनूठे चित्रकार या चिंतक होने का लेश मात्र भी गुरूर नहीं था। वो कई बार निजी जीवन की बातें भी वैसे ही शेयर करते थे, जैसे वो विश्व साहित्य पर साधिकार बात करते थे । एक बार उन्होंने मुझसे फोन पर कहा भी’ अजय इतने साल बाद भी हम एक दूसरे की पारिवारिक जिंदगी के बारे में कितना कम जानते हैं, यह हमने कभी सोचा ही नहीं।‘ मुझसे कई बार कहते, तुम कहानी लिखना बंद मत करना। जब मैं पत्रकारिता में रमा तो मेरे लेखन को लेकर भी बहुत बारीकी से विश्लेषण कर दिशा निर्देश देते रहे। 

‘कथादेश’ का यह विशेषांक प्रभु जोशी के व्यक्तित्व के विविध और विरोधाभासी आयामो को पूरी ईमानदारी से बयान करता है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह प्रभु जोशी की समूची शख्सियत को लेकर कई सवाल खड़े करता है तो उन सवालों के कई जवाब भी इसी में मिलते हैं। पत्रिका के संपादक ओमा शर्मा ने अपने संपादकीय प्रभु जोशी होने के मायने’ में ठीक ही लिखा है ‘लेखन के शैशवकाल में ही उन्होंने ( प्रभु जोशी) पाठकों लेखको के बीच जो मुकाम हासिल कर लिया था, वह नितांत अभूतपूर्व था। बाद में वे चित्रकला में एकाग्र हो गए, लेकिन वहां भी अपनी शिखर पहचान कायम रखी। एक जनबुद्धिजीवी के बतौर उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति, स्त्रीवाद और भूंडलीकृत व्यवस्था के प्रपंचों, यहां तक कि राजनीति की दुरभिसंधियों समेत दूसरे अनेक समकालीन मसलों की जांच परख में उत्तरोत्तर अपनी सोच निवेशित संप्रेषित की, जो किसी हिंदी लेखक के लिए कतिपय दुस्साहसिक वर्जित इलाका है।‘
इस अंक के पहले खंड में प्रभु दा की अद्भुत और ‘पितृऋण’ जैसी कालजयी कहानियां व लेख हैं। लेकिन उनके चिंतक व्यक्तित्व को सामने लाने वाला अनूप सेठी का प्रभु दा से वह दुर्लभ साक्षात्कार है, जो प्रभु जोशी को प्रथम पंक्ति के कला व साहित्य चिंतको में शुमार करता है। इसमें उन्होंने शब्द, रंग, ध्वनि, कला और साहित्य की भाषा के बारे में बहुत गहरे तथा आत्म चिंतन से उद्भूत विचार रखे हैं। प्रभु जी की विशेषता यही थी कि उनके पास कला की लाजवाब भाषा और भाषा की अनुपम कला एक साथ थी। वो समान अधिकार के साथ रंगों की भाषा से खेल सकते थे और भाषा के रंगों को पूरी ताकत से उछाल सकते थे। इसी साक्षात्कार में एक सवाल के जवाब में प्रभुदा कहते हैं कि ‘हर शब्द का एक स्वप्न होता है कि वह दृश्य बन जाए।‘ अपनी कथा रचना प्रक्रिया ( हालांकि कहानी लेखन उन्होंने बहुत पहले बंद कर ‍िदया था) कहा कि मैं खुद भी कहानी का आरंभ लिखता हूं तो बार-बार बदलता हूं। ऐसा नहीं कि जो कहानी लिखी वह एक बार में ही हो गई।‘ लेकिन रचनाकार-कलाकार प्रभु जोशी के अलावा एक इंसान के रूप में प्रभु जोशी क्या थे, किन अतंर्दवद्वों से जूझ रहे थे, उनकी मानवीय कमजोरियां क्या थीं, जिन्हें उन्होंने अपनी बहुआयामी रचनात्मकता से ढंके रखने की हरदम कोशिश की। इन पहलुओंके बारे में बहुत शिद्दत से रोशनी प्रख्यात व्यंग्यकार और प्रभुदा के अनन्य मित्र ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने स्मृति लेख ‘कोरोना ने बचा लिया उसे’ में डाली है। यह समूचा लेख दरअसल प्रभु जी के कुछ विरोधाभासी, अजब लापरवाही भरे और खुद संकटो को न्यौतने के विचित्र आग्रहो और उसके कारण सतत तनावों में जीने की अभिशप्तताओं से भरा हुआ है। इस लेख में ज्ञानजी ने कई ऐसे खुलासे किए हैं, जिससे यह सवाल मन को मथता है कि प्रभु जोशी जैसा एक इतना बड़ा और प्रतिभाशाली रचनाकार एक आम मनुष्य की तरह जिंदगी सरल जिंदगी क्यों नहीं जी पाता? दूसरी तरफ शायद यही बात है जो उसे दूसरों से अलग और अन्यतम बनाती है। उनमें एक अलग तरह का ‘जिद्दीपन’ था, जिसे उनके चाहने वाले कभी अफोर्ड नहीं कर सकते थे। यानी कोरोना दूसरों के लिए भले मौत का कारण बना हो लेकिन अपने ही अंतर्विरोधो से जूझ रहे प्रभुदा के लिए ‘मोक्षदायी’ साबित हुआ, ऐसा कथित मोक्ष जिसके लिए हममे से शायद कोई भी मानसिक रूप से तैयार नहीं था। 
‘कथादेश’ के इस अंक में प्रभु जोशी के अनुज हरि जोशी ने उनके बचपन की यादों को संजोया है तो प्रभुजी के भतीजे अनिरूद्ध जोशी ने अपने काका को अलग अंदाज में सहेजा है। प्रभु जोशी के दो परम ‍मित्रों जीवन सिंह ठाकुर तथा प्रकाश कांत ने भी अपने दोस्त के स्वभाव और दोस्ती की निरंतरता के अजाने पहलुओं पर रोशनी डाली है। आकाशवाणी में उनके सहकर्मी और अभिन्न मित्र रहे कवि लीलाधर मंडलोई ने कहा कि प्रभु जोशी पक्के मालवी थे, इसलिए तमाम प्रलोभनो के बाद भी उन्होंने इंदौर नहीं छोड़ा। कैलाश मंडलेकर ने भी प्रभु जोशी के सहज व्यक्तित्व को अपनी नजर से देखा है। इनके अलावा मुकेश वर्मा, रमेश खत्री, मनमोहन सरल तथा अशोक मिश्र, ईश्वरी रावल, सफदर शामी, जय शंकर, डॉ कला जोशी के संस्मरण भी प्रभु दा की शख्सियत के नए आयाम खोलते हैं। प्रभुदा के सुपुत्र इंजीनियर और कला मर्मज्ञ पुनर्वसु जोशी का समीक्षात्मक लेख अपने पिता की जलरंग चित्रकारी पर है। वो लिखते हैं- ‘प्रभु जोशी ने कवितामय गद्य के अपने लेखन की विशिष्ट भाषा की तरह,पारदर्शी जलरंगों के माध्यम को साधते हुए जलरंगों में भी एक ‍कविता ही रची है।‘ 
यह सही है कि प्रभु जोशी की महासागर-सी प्रतिभा को वो सम्मान और प्रतिसाद नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे। इसका एक बड़ा कारण वो खुद भी थे। ‘कॅरियर’ और ‘ग्रोथ’ के लिए किसी किस्म का जोखिम उठाना उनकी फितरत में ही नहीं था। चाहे इसका कितना ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े। प्रभु जोशी का समूचा रचनाकर्म उनके अपने कठिन संघर्ष और मनुष्य की पीड़ाओं से उपजा नायाब खजाना है। प्रभु जोशी कथा और उपन्यास लेखन में तो अनुपम थे ही, जल रंगो में काम करने वाले वो ऐसे बिरले चित्रकार थे, जिन्होंने रंगों और रेखाओं से बिल्कुल नया आयाम‍ दिया। ‘कथादेश’ के इस अंक का अंतर्निेहित संदेश यही है कि साहित्य और चित्रकला के क्षेत्र में प्रभु जोशी के अवदान का समुचित मूल्यांकन होना आवश्यक है। ऐसा अब तक क्यों नहीं हुआ, यह चुप सवाल भी यह विशेषांक मन में छोड़ जाता है।

Tuesday, January 03, 2023

मोदी की प्रतिष्ठा पर फिर गुजरातियों की मोहर -अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०


गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा की प्रचंड जीत कई मायनो में खास है। एक तो यह जीत प्रतिशत के हिसाब से भाजपा को 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिली जीत से भी बड़ी है। दूसरा, गुजरातियों ने एक बार फिर सिद्ध कर ‍िदया कि रोजमर्रा के मुद्दों से भी ज्यादा अहम उनके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा है, तीसरे कांग्रेस राज्य में जनाधार की दृष्टि से अब तक से सबसे निचले स्तर पर चली गई है और चौथा ये कि महज 10 साल पहले वजूद में आई आम आदमी पार्टी अब राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बन गई है। हालांकि भाजपा ने इस चुनाव में एक और राज्य हिमाचल प्रदेश खो दिया है, लेकिन हिमाचल के नतीजे उसी परंपरा की पुष्टि हैं, जिसमें हर पांच साल बाद वहां राज बदल जाता है। भाजपा ने इस ‘रिवाज’ को बदलने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रही। दमदार रणनीति के अभाव और पार्टी के बागी उम्मीदवारों ने भाजपा के अरमानो पर पानी फेर दिया। 
लेकिन इन दो राज्यों के विस चुनाव में भी भाजपा और देश के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव की बहुत ज्यादा अहमियत थी। इसका पहला कारण तो यह है कि गुजरात लगभग तीन दशकों से भाजपा और आरएसएस के हिंदुत्व की अटल प्रयोगशाला बना हुआ है, जिसे वह विकास के माॅडल के रूप में पेश करते आए हैं। साथ ही वह देश के प्रधानमंत्री और हिंदुत्व के सबसे बड़े चेहरे नरेन्द्र मोदी का गृह राज्य है। इसीलिए गुजरात हारना भाजपा कभी गवारा नहीं कर सकती। लेकिन इस बार जिस तरह वोटरों ने तुलनात्मक रूप से कम वोटिंग के बाद भी भाजपा की झोली भरी है, वह असाधारण और देश की भावी राजनीति की दिशा तय करने वाली है। 
भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात में उसकी हालत खराब होने की तमाम खबरों के बावजूद इस चुनाव में न केवल 182 में से 156 सीटें जीतीं बल्कि कुल का 52.51 फीसदी वोट भी हासिल किया। यह पार्टी के उत्तर प्रदेश में 2017 के विस चुनाव में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन से भी बेहतर है। वहां भाजपा ने कुल 403 विधानसभा सीटों में 312 यानी 78 फीसदी सीटें जीती थीं, जबकि गुजरात में यह प्रतिशत 85 फीसदी होता है। तब यूपी में भाजपा का वोट शेयर ( प्रचंड विजय के बाद भी) 39.67 फीसदी ही था। 
एग्जिट पोल और अन्य स्रोतों से यह संकेत तो मिल रहे थे कि गुजरात में भाजपा सत्ता में लौट रही है। लेकिन तब भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र  मोदी द्वारा चुनाव सभाअों में किए गए दावे कि भाजपा इस बार जीत का रिकाॅर्ड बनाएगी, पर कम ही लोगों को भरोसा था। इसलिए भी कि चुनाव पर मोरबी हादसे की छाया थी, विपक्ष बिल्कीस बानो के दुष्कर्मियों को जेल से छोड़ने के फैसले को मुद्दा बना रहा था, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, जातिवाद और किसानों की परेशानी जैसे स्थायी मुद्दे तो थे ही। इससे भी बढ़कर यह माना जा रहा था कि गुजरात की जनता अब सत्ता का सारथी बदलना चाहती है। आखिर अच्छे-बुरे अनुभवों के साथ 27 साल कम नहीं होते। 
लगता है कि गुजरात का मतदाता ‍दुविधा में था। वो ये कि जमीनी मुद्दों या मुश्किलों के मद्देनजर सत्ता परिवर्तन के लिए वोट करे या‍ फिर गुजराती अस्मिता को ध्यान में रखते  हुए भाजपा को फिर से भगवा थमाकर नरेन्द्र मोदी का जलवा कायम रखे। दरसअल मोदी ने हिंदुत्व के साथ-साथ स्वयं को जैसे गुजराती अस्मिता से जोड़ लिया है, वह असाधारण है। वरना पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी भाई भी गुजराती थे और देश के प्रधानमंत्री रहे, लेकिन गुजराती अस्मिता उनके व्यक्तित्व से वैसी चस्पां नहीं हुई, जैसी कि मोदी के साथ है। इसके पहले यह गौरव केवल महात्मा गांधी को मिला है, जो गुजराती, भारतीय और वैश्विक अस्मिता को एक साथ धारण किए हुए थे। यह भी अहम है ‍कि गुजरात में भाजपा के संदर्भ में सीएम चेहरा कोई खास मायने नहीं रखता था। राज्य के मुख्‍यमंत्री भूपेन्द्र भाई पटेल एक गुमनाम सा चेहरा थे। बतौर सीएम भी उन्होंने खुद को बहुत ‘स्मार्ट मुख्यमंत्री’ के रूप में प्रोजेक्ट नहीं किया। वो चुपचाप काम करते रहे। जनता भूपेन्द्र भाई में भी शायद मोदी का चेहरा ही देख रही थी। भाजपा ने पिछले चुनाव में नाराज रहे उन पाटीदार मतदाताअोंको भी अपने खेमे में लाने में पूरी ताकत लगा दी, जो सत्ता का समीकरण बदलने की कूवत रखते हैं। इसका नतीजा सामने है। 
जानी मानी पत्रकार शीला भट्ट ने चुनाव के पहले अपने एक विश्लेषण में इस बात का खुलासा किया था कि तमाम अंतर्विरोधों के बीच एक आम गुजराती गहरे अंतर्द्वंद्व से गुजर रहा है। दूसरे तमाम मुद्दों को देखे या फिर मोदी की प्रतिष्ठा को देखे। चुनाव में भाजपा  को जिस तरह चौतरफा जीत मिली है, उससे जाहिर है कि गुजरातियों ने मोदी को एक स्वर से समर्थन दिया है, उनके हाथ और मजूबत किए हैं। इन नतीजों ने 2024 के लोकसभा चुनावो के परिणामों को अभी से रेखांकित कर दिया है। यानी सीटें भले कुछ कम ज्यादा हों, सत्ता का परचम मोदी के हाथ ही रहने वाला है। मुमकिन है कि इन परिणामों के बाद एनडीए छोड़ कर गए दल वापसी के बारे में सोचें। इसी चुनाव में भाजपा ने समान नागरिक संहिता का मुद्दा उछाल कर उसकी चुनावी टेस्टिंग भी कर ली है। तय मानिए कि अगले लोकसभा चुनावों में यह पार्टी का मुख्‍य एजेंडा होगा। 
यह सवाल भी उठ रहा है कि गुजरात में भाजपा  की इस भारी जीत का पड़ोसी राज्य मप्र में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों  पर क्या असर होगा? क्या यहां भी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और उनकी टीम एंटी इनकम्बेंसी को मात देकर ताज फिर भाजपा को सौंपेगी अथवा नहीं? बेशक मप्र और गुजरात की परिस्थिति में अंतर है। यहां मोदी की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा दांव पर नहीं हो सकती, क्योंकि यह उनका गृह राज्य नहीं है। अलबत्ता मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की हो सकती है, लेकिन वो भी पिछले विस चुनाव में पार्टी  की पराजय का स्वाद चख चुके हैं। ऐसे में मप्र में भाजपा की सत्ता में वापसी की कुशल रणनीति और एकजुटता के साथ चुनाव लड़ने पर निर्भर करती है। गुजरात चुनाव नतीजों का एक अहम मुद्दा भाजपा और संघ द्वारा आदिवासी वोटों को साधने का है। आदिवासी श्रीमती द्रौपदी मुर्मू देश की राष्ट्रपति बनाना एक बड़ा और दूरगामी कदम था। गुजरात विधानसभा में आदिवासियों के लिए 27 सीटें आरक्षित हैं। इनमें से भाजपा ने इस चुनाव में 25 सीटें जीत ली हैं। इस हवा का असर मप्र की आदिवासी सीटों पर भी हो सकता है। मप्र में आदिवासियों के लिए आरक्षित कुल 47 सीटें हैं। इनमें से भी 21 सीटें उस मालवा-निमाड़ क्षेत्र में हैं, जो या तो गुजरात सीमा से या उससे प्रभावित होने वाले इलाकों में हैं। अगर भाजपा इनमें से ज्यादातर सीटें जीत लेती है तो उसे पांचवी बार सत्ता में आने से रोकना मुश्किल होगा। 
उधर दिल्ली एमसीडी में हार के बाद हिमाचल प्रदेश गंवाना भाजपा के लिए झटका है। हिमाचल में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में लौट रही है। लेकिन पार्टी की इस जीत को राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का नतीजा बताकर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे ने जबरन एक नए विवाद को हवा दे दी है। क्योंकि राहुल गांधी का हिमाचल जाने कोई कार्यक्रम नहीं है। उल्टे गुजरात में भी वो या‍त्रा से छुट्टी लेकर एक दिन चुनाव प्रचार के लिए सूरत गए थे। वहां सूरत सहित जिले की सभी 16 सीटों पर भाजपा जीत गई है। सूरत ग्रामीण की एक सीट पहले उसके पास थी, वह भी कांग्रेस गंवा बैठी है। समझना मुश्किल है कि अगर खुद कांग्रेसी नेता बार-बार यह कह रहे हैं कि चुनावी राजनीति से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का कोई लेना-देना नहीं है तो हिमाचल की जीत का श्रेय राहुल गांधी को देने का क्या मतलब है? अगर श्रेय देना ही है तो हिमाचल की जनता और कांग्रेस के स्थानीय  नेता और कार्यकर्ताअो को देना चाहिए। 
इन बातों का अर्थ यह नहीं कि देश में मुद्दे ही नहीं बचे या फिर चारो तरफ हरा ही हरा है। जनता की समस्याएं तकरीबन जस की तस हैं, लेकिन एक बार फिर चुनाव उन मुद्दों पर सिमट रहे हैं जहां दूसरे जज्बात निर्णायक सिद्ध होते हैं।  गुजरात और दिल्ली में भी कांग्रेस अगर पिटी है तो इसका कारण यह है कि अभी भी पार्टी चुनावों को लेकर बहुत संजीदा नहीं है। पार्टी की अतंर्कलह पर भारत जोड़ो यात्रा भी मरहम नहीं लगा पा रही है। कांग्रेस व दूसरी पार्टियां चुनाव के शुरू में गुजरात में मोदी पर व्यक्तिगत हमले से बच रही थीं, लेकिन प्रचार के आखिरी दौर तक आते-आते वही गलती कर बैठीं, जिससे उन्हें बचना चाहिए था। मोदी की लाख आलोचना की जाए पर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि मोदी से ज्यादातर हिंदू और खासकर गुजराती अपनी अस्मिता को जोड़कर देखते हैं और यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। 

भारत जोड़ो यात्रा: राहुल के इस प्रयास से अब तक क्या हासिल?-अजय बोकिल


अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०


सार
राहुल की यात्रा अभी भावुकता के दौर में है। असली चुनौतियां तो उसके बाद शुरू होंगी। राहुल ने जिम्मेदारी उठाने की तैयारी दिखाई है, निभाएंगे कैसे, इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा।

विस्तार
कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी की बहुचर्चित ‘भारत जोड़ो यात्रा’ आधी से ज्यादा पूरी हो चुकी है। राहुल अब मध्यप्रदेश से राजस्थान की सीमा में प्रवेश करने वाले हैं। इस कुल 3 हजार 570 किमी लंबी पैदल यात्रा में से राहुल और उनके सहयात्री 2 हजार किमी से ज्यादा भारत नाप चुके हैं। जिन 13 राज्यों से यह यात्रा गुजर रही है और गुजरेगी, उनमें से 9 राज्य पूरे हो चुके हैं। इस दौरान लोगों ने राहुल की अब तक बना दी गई ‘पप्पू’ छवि से हटकर उनमें एक नए राहुल को देखने और समझने की कोशिश की है।

खुद राहुल ने भी देश के सर्वाधिक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार के ‘मनमौजी बेटे’ से हटकर एक अलग राहुल गांधी  के रूप में जनता से संवाद करने की कोशिश की है और इस बात को उनके घोर-विरोधी भी मानने लगे हैं। यही तत्व देश की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी की चिंता का सबब भी है। 

यहां असल सवाल यह है कि अब तक सुचारू रूप से सम्पन्न इस यात्रा से राहुल गांधी को क्या हासिल हुआ, उन्होंने अपनी स्थापित छवि को बदलने में कितनी कामयाबी पाई और सबसे अहम सवाल कि उनकी पार्टी कांग्रेस के प्रति जनविश्वास किस हद तक लौटा है या लौटेगा? या फिर यह यात्रा भी महज राहुल गांधी की इमेज बिल्डिंग प्रोजेक्ट बनकर रह जाएगी?

बेशक, इन सवालों के जवाब इतनी जल्दी नहीं मिलेंगे, लेकिन कुछ संकेत जरूर मिल रहे हैं, जो एक परिपक्व राजनेता राहुल गांधी को तराशने के लिहाज से अहम हैं। 

पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी का राजनीति में प्रवेश अपने पिता की तरह अकस्मात नहीं था, लेकिन बतौर सक्रिय राजनीतिज्ञ अपने 18 साल से राजनीतिक कॅरियर में राहुल ज्यादातर समय एक युवा, ईमानदार लेकिन अंगभीर राजनेता के रूप में ही जाने जाते रहे हैं। उनके क्रियाकलापों से यह संदेश बार-बार जा रहा था कि राजनीति तो दूर किसी भी काम के प्रति उनमें कोई संकल्पबद्धता और निरतंरता का अभाव है।

राजनीति ‘स्वांत: सुखाय’ की जपमाला नहीं

राजनीतिक परिवार का वारिस होने के बाद भी वो राजनीति भी मजबूरी या विरासती दबाव के कारण कर रहे हैं। भलामानुस होना निजी तौर पर अच्छी बात है, लेकिन राजनीतिज्ञ बनने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की निपुणता भी उतनी ही मायने रखती है। जो यह सब करने का इच्छुक नहीं है, उसे कम से कम सियासत या किसी राजनीतिक तंत्र का नेतृत्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि राजनीति केवल ‘स्वांत: सुखाय’ की जपमाला नहीं है। नेता के सुखों, विजन, साहस, निर्णय क्षमता और दूरदृष्टि में करोड़ो लोगों भाग्य भी निहित होता है।

राहुल गांधी अब तक अपेक्षाओं के पहाड़ की तलहटी पर ही टहलते नजर आते थे। जब देश में राजनीतिक घटनाक्रम अपने उरूज पर होता, वो विदेशों में छुट्टियां मनाने चल पड़ते। यूपीए-2 सरकार के समय प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सरकार द्वारा प्रस्तावित दागी नेताओं और विधायकों को बचाने वाला अध्यादेश सार्वजनिक रूप से फाड़ना राहुल की अगंभीरता की पराकाष्ठा थी।

इस घटनाक्रम से आहत बेचारे तत्कालीन प्रधानमंत्री इस्तीफा देने का साहस भी नहीं जुटा सके थे, जबकि अध्यादेश राहुल गांधी की जानकारी  के बगैर जारी हुआ होगा, इस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। राहुल अगर उस अध्यादेश से अहसमत थे तो उसे पहले ही रुकवा सकते थे। लेकिन उन्होंने अपनी ही सरकार को शर्मसार करने का तरीका चुना।

इसके अलावा राहुल की राजनीतिक, सामाजिक और सामान्य ज्ञान की समझ पर भी तंज होते रहे हैं। उनकी भाषण शैली भी ऐसी है कि वो वहां पाॅज देते हैं, जहां उन्हें धारावाहिक बोलना चाहिए। गलत जगह पाॅज से कई बार अर्थ का अनर्थ या बात की गलत व्याख्या होने की पूरी गुंजाइश होती है। भाजपा के प्रचार तंत्र के लिए यह हमेशा दमदार ईंधन ही साबित हुआ है। इन क्रिया कलापों से आम जनता में यही संदेश जाता रहा है कि राहुल नेता बनना ही नहीं चाहते, उन्होंने जबरिया नेता बनाया जा रहा है। इसके पीछे एक मां का पुत्रमोह तो है ही कांग्रेस जैसी सवा सौ साल पुरानी राजनीतिक पार्टी का वैचारिक असमंजस और नेतृत्वविहीनता भी है।   

भारत जोड़ो यात्रा से का प्रभाव

तो फिर राहुल की इस यात्रा का हासिल क्या है? केवल इतनी लंबी पदयात्रा का रिकाॅर्ड बनाना? पहली बार प्रतिष्ठा की ऊंची मीनारों से उतरकर आम भारतीय से रूबरू होना? लोगों के दुख-दर्द में शामिल होने का संदेश देने  की कोशिश करना या फिर नरेन्द्र मोदी जैसे दबंग राजनेता के आभामंडल और राजनीतिक शैली को खुली चुनौती देने का साहस दिखाना?

भावनात्मक मुद्दों से परे जमीनी मुद्दों को चुनाव जिताऊ मुद्दे साबित करने की गंभीर कोशिश करना अथवा ‘नामदार’ से ‘आमदार’ होने का संदेश देना? या फिर यह संदेश देना कि सत्ता की तमाम कोशिशों के बाद भी देश में ‘प्रतिरोध’ के स्वर को दबाना या खारिज करना नामुमकिन है, क्योंकि भारत एक लोकतंत्र है, जो समानता और सौहार्द में विश्वास रखता है। 

यकीनन सवाल बड़े हैं, लेकिन इतना तय है कि इन तीन महीनों में राहुल गांधी ने अपनी स्थापित छवि को काफी हद तक बदलने की कोशिश की है और यह केवल ‘क्लीन शेव्ड राहुल’ से ‘दढि़यल राहुल’ तक सीमित नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि राहुल ने यात्रा के अपने संकल्प को अब तक पूरी निरतंरता के साथ पूरा किया है।

सावरकर जैसे कतिपय विवादित बयानों को छोड़ दें तो वो बवालों से दूर रहकर समर्पित यात्री की तरह बात कर रहे हैं। गरीबी, बेरोजगारी, सुरक्षा, सर्वसमावेशिता, भय का वातावरण समाप्त करने जैसे मुद्दों को उठा रहे हैं और अपनी ओर से आश्वस्त करने का प्रयास कर रहे हैं कि अगर कांग्रेस लौटी तो देश का माहौल बदलेगा। हालांकि यह कैसे बदलेगा, इसका कोई ठोस रोड मैप उनके पास नहीं है, केवल एक भरोसे की लाठी है। 

राहुल के साथ जुड़े लोग

एक और अहम बात यह है कि राहुल लगातार  पैदल चल रहे हैं। हालांकि अभी भी बहुत से लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा है कि हमेशा ‘जेड’ सिक्योरिटी में घिरा रहने वाला यह शख्स दो हजार किमी का फासला पैदल नाप सकता है? लेकिन यह हो रहा है। इस दौरान वो लोगों के साथ ढोल भी बजा रहे हैं, देव दर्शन के लिए जा रहे हैं, महाकाल को साष्टांग दंडवत कर रहे हैं, लोगों से हाथ मिला रहे हैं, कहीं कहीं सभाओं को सम्बोधित भी कर रहे हैं।

उनकी यात्रा में कई खिलाड़ी (राजनीतिक नहीं), अभिनेता, अमीर-गरीब भी खुद होकर शामिल हो रहे हैं। इससे आम लोगों में एक कौतूहल का माहौल तो यकीनन बना है कि आखिर इस बंदे को यह सब करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? 

वैसे भी इस तरह की यात्राएं व्यक्ति की संकल्पनिष्ठा का परिचायक होती हैं। उसे पूरा करने पर एक सकारात्मक संदेश तो जाता ही है। राहुल भी उसके हकदार हैं। हालांकि जिस भारत के टूटने की वो बात कर रहे हैं, उस पर बहस हो सकती है।

बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा

ध्यान रहे कि प्रख्यात समाजसेवी बाबा आमटे ने भी 1986 में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकाली थी। उस वक्त देश की सत्ता कांग्रेस और राजीव गांधी के हाथों में थी। तब पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद सुलग रहा था। हिंदू-सिखों में दरार डालने की पुरजोर कोशिश हो रही थी। उस वक्त बाबा आमटे को लगा था कि देश टूट रहा है, उसे बचाना जरूरी है। सो राष्ट्रीय एकात्मता के नारे के साथ यह यात्रा शुरू हुई थी ( राहुल भी तकरीबन वही बात कर रहे हैं)।

बाबा आमटे की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ राहुल की यात्रा से भी लंबी यानी 5 हजार 42 किमी थी, जो कन्याकुमारी से शुरू होकर कश्मीर तक गई थी। इनमें वृद्ध बाबा आमटे के साथ 116 युवा साथी (जिनमे 16 महिलाएं थीं) भी साइकल  पर चल रहे थे ( राहुल के साथ भी लगभग इतने ही सहयात्री चल रहे हैं)। उस यात्रा को लेकर भी लोगों में कौतूहल था। रास्ते में कई लोग बाबा की यात्रा में अपनी साइकिलें लेकर शामिल होते। 

यात्रा का जगह- जगह स्वागत होता, बाबा के भाषण होते। भारत को जोड़े रखने  की कमसें खाई जातीं। जब तक यात्रा चली, उसकी चर्चा रही। बाद में मुद्दे और राजनीति ही बदल गई। तमिल आंतकवाद ने राजीव गांधी की जान ले ली तो पंजाब में आतंकवाद समाप्त होने में 11 साल लग गए। फिर भी बाबा आमटे की यात्रा को इतना श्रेय जरूर मिला कि उन्होंने टूटे मनों को जोड़ने के लिए एक भागीरथी कोशिश तो की। जबकि बाबा आमटे न तो राजनेता थे और न ही सत्ता पाना उनका उद्देश्य था।

राहुल की महत्वाकांक्षा

राहुल गांधी न तो बाबा आमटे हैं और न ही राजनीतिक फकीर हैं। वो स्वयं जो भी चाहते हों, लेकिन उनकी पार्टी कांग्रेस उनसे बहुत कुछ अपेक्षा रखती है। और किसी भी राजनीतिक दल का अंतिम लक्ष्य सत्ता पाना ही होता है, धूनी रमाना नहीं। क्या राहुल इस अरमान को पूरा कर पाएंगे? क्या वो कांग्रेसनीत यूपीए का वोट बैंक 19.49 प्रतिशत और कांग्रेस की लोकसभा सीटें 52 से आगे बढ़ा पाएंगे या यह आंकड़ा भी बचाना मुश्किल होगा?

बेशक कुटिलता और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा राजनीति का अनिवार्य तत्व है, लेकिन सियासत अब ज्यादा शातिर और बहुआयामी हो गई है। प्रचार और दुष्प्रचार के साधन अब पहले से ज्यादा और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऐसे में नेता को स्थापित होने के लिए कई स्तरों पर जूझना होता है, उस पर अपना आधिपत्य सिद्ध करना होता है। उसे समय पर निर्णय लेने होते हैं और उनका औचित्य भी सिद्ध करना होता है।

राहुल की यात्रा अभी भावुकता के दौर में है। असली चुनौतियां तो उसके बाद शुरू होंगी। राहुल ने जिम्मेदारी उठाने की तैयारी दिखाई है, निभाएंगे कैसे, इस सवाल का जवाब तो बाद में मिलेगा।
( अमर उजाला डाॅट काॅम पर दि. 1 ‍िदसंबर 2022 को प्रकाशित)

ईडब्ल्यूएस आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खींच दी हैं भविष्य की राजनीतिक रेखाएं-अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०

सार-
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भविष्य की राजनीतिक रेखाएं भी खींच दी हैं। अनारक्षित वर्ग को आर्थिक आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रख दी है।

विस्तार-
देश की सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्लूएस) वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण देने संबंधी 103वें संविधान संशोधन को बहुमत से सही ठहराए जाने के बाद अनारक्षित वर्ग के गरीबों को आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है। अधिकांश राजनीतिक दलों ने इसका स्वागत किया है, लेकिन इस फैसले के साथ कई अहम सवाल भी उठ रहे हैं।

 
पहला तो यह कि क्या आर्थिक आरक्षण देश में समानता के सिद्धांत का विरोधी है, दूसरा, आर्थिक आधार पर आरक्षण अनारक्षित वर्ग को ही क्यों, तीसरे क्या भविष्य में आरक्षण का मुख्य आधार आर्थिक पिछड़ापन ही बनेगा, चौथा क्या इससे सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले कि 'देश में आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता' का यह उल्लंघन है और पांचवा यह कि इस देश में आरक्षण की बैसाखी आखिर कब तक कायम रहेगी?

ये तमाम सवाल संविधान की पीठ में शामिल जजों ने भी उठाए हैं, जिनके उत्तर हमें खोजने होंगे और कल को देश का सामाजिक ताना बाना और राजनीतिक दिशा भी उसी से तय होगी।

इस दूरगामी फैसले में पांचो जजों में एक बात पर सहमति दिखी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं है। पीठ में शामिल जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने अपने निर्णय में कहा-
 
103वें संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे को भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण समानता संहिता या संविधान के मूलभूत तत्वों का उल्लंघन नहींऔर 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण सीमा का उल्लंघन बुनियादी ढांचे का उल्लंघन भी नहीं करता है, क्योंकि यहां आरक्षण की उच्चतम सीमा केवल 16 (4) और (5) के लिए है।

जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी की राय में 103वें संविधान संशोधन को भेदभाव के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। ईडब्लूएस कोटे को संसद द्वारा की गई एक सकारात्मक कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे अनुच्छेद 14 या संविधान के मूल ढांचे का कोई उल्लंघन नहीं होता।

ईडब्ल्यूएस कोटा आरक्षित वर्गों को इसके दायरे से बाहर रखकर उनके अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है। आरक्षण जाति व्यवस्था द्वारा पैदा की गई असमानताओं को दूर करने के लिए लाया गया था। आजादी के 75 वर्षों के बाद हमें परिवर्तनकारी संवैधानिकता के दर्शन को जीने के लिए नीति पर फिर से विचार करने की जरूरत है।’

जस्टिस जेबी पारदीवाला ने भी अपने फैसले में दोनों के विचारों से सहमति जताई और संशोधन की वैधता को बरकरार रखा। आरक्षण व्यवस्था पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में जस्टिस पारदीवाला ने कहा
आरक्षण अंत नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुरक्षित करने का साधन है, इसे निहित स्वार्थ नहीं बनने देना चाहिए। आरक्षण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रहना चाहिए, जिससे निहित स्वार्थ बन जाए।’

गौरतलब है कि केंद्र की मोदी सरकार ने दोनों सदनो में 103वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दी दी। इसके तहत अनारक्षित वर्ग के लोगों को शैक्षणिक संस्थानों में और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया था। 

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला महत्वपूर्ण
12 जनवरी 2019 को राष्ट्रपति ने इस कानून को मंजूरी दी, लेकिन इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में यह कहकर चुनौती दी गई थी कि इससे संविधान के समानता के अधिकार और पचास प्रतिशत तक आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है। अत: इस कानून को अवैध माना जाए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून को वैध माना। कानून में सालाना 8 लाख से कम आय वाले परिवारों को इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन्स (ईडब्लूएस) मानते हुए सरकारी और निजी शैक्षिक तथा सरकारी नौकरी में भी 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है।

लेकिन संविधान पीठ के ही जस्टिस एस. रवींद्र भट ने अपने निर्णय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन पर असहमति जताते हुए उस रद्द कर दिया। जस्टिस भट ने अन्य तीन न्यायाधीशों के फैसले पर असहमति जताते हुए कहा 103 वां संशोधन संवैधानिक रूप से प्रतिबंधित भेदभाव की वकालत करता है। आरक्षण पर निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा के उल्लंघन की अनुमति देने से और अधिक उल्लंघन हो सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप विभाजन हो सकता है।

जस्टिस रवींद्र भट ने अपने फैसले में आर्थिक आधार पर आरक्षण को खारिज करते हुए कई सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि जिस तरह एससी, एसटी और ओबीसी को इस आरक्षण से बाहर किया गया है, उससे भ्रम होता है कि समाज में उनकी स्थिति काफी बेहतर है, जबकि सबसे ज्यादा गरीब इसी वर्गों में हैं। यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है।

हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि अकेले आर्थिक आधार पर किया गया आरक्षण वैध है। कुल मिलाकर इसका अर्थ यही है कि जस्टिस भट और जस्टिस यू.यू. ललित ने  आर्थिक आधार पर आरक्षण को तो सही माना, लेकिन उसके तरीके पर असहमति जताई। 

इस बारे में सरकारी पक्ष का कहना है कि नए प्रावधान से सुप्रीम कोर्ट द्वारा लागू आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा का कहीं से उल्लंघन नहीं हुआ है, क्योंकि यह वास्तव में कोटे के भीतर कोटा ही है। यह दस प्रतिशत आरक्षण अनारक्षित वर्ग (जिसमें हिंदुओं की अगड़ी जातियां व गैर हिंदू धर्मावलंबी शामिल हैं) के बाकी पचास फीसदी कोटे में से ही दिया गया है। 

राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया
बेशक, इससे समाज के सामान्य वर्ग के उस गरीब तबके को राहत मिली है, जो केवल गरीब होने के कारण अपने ही वर्ग के सम्पन्न तबके से प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ रहा था। भाजपा और एनडीए में शामिल दलों ने इसे अपनी जीत बताया है। भाजपा को इसका कुछ लाभ आगामी चुनावों में हो सकता है, हालांकि ज्यादातर राज्यों में अगड़ी जातियां भाजपा समर्थक ही हैं।

इस मामले में कांग्रेस का रवैया थोड़ा ढुलमुल दिखा। उसने एक तरफ अगड़ों को आर्थिक आरक्षण का समर्थन यह कहकर किया कि संसद में उनकी पार्टी ने संविधान संशोधन के पक्ष में वोट दिया था तो दूसरी तरफ अपने ही एक दलित नेता उदित राज से इसका यह कहकर विरोध करा दिया कि यह संशोधन आरक्षण की सीमा लांघता है और यह भी कि न्यायपालिका की मानसिकता ही मनुवादी है। हालांकि कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने स्पष्ट कहा कि उनकी पार्टी शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत करती है।

उन्होंने कहा कि यह संविधान संशोधन 2005-06 में डाॅ. मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा सिन्हा आयोग के गठन से शुरू की गई प्रक्रिया का ही नतीजा है। सिन्हा आयोग ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी। केवल तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने फैसले का यहकर विरोध किया कि इससे लंबे समय से जारी ‘सामाजिक न्याय के संघर्ष को झटका’ लगा है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले का स्वागत करते हुए देश में जातीय जनगणना  की मांग दोहराई। जाहिर है कि अधिकांश दल राजनीतिक कारणों से फैसले का खुलकर विरोध नहीं कर रहे हैं, क्योंकि अगड़ों के वोट सभी को चाहिए। 

खिंच गई हैं भविष्य की राजनीतिक रेखाएं
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भविष्य की राजनीतिक रेखाएं भी खींच दी हैं। अनारक्षित वर्ग को आर्थिक आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रख दी है ( ओबीसी वर्ग में तो वैसे भी क्रीमी लेयर का नियम लागू है) क्योंकि आरक्षित वर्गों में भी विभिन्न जातियों के बीच आरक्षण का लाभ उठाने को लेकर प्रतिस्पर्द्धा तेज हो गई है। (भारत में करीब 3 जातियां और 25 हजार उप जातियां हैं)।

यह भी बात जोरों से उठ रही है कि जब एक परिवार का तीन पीढि़यों से आरक्षण का लाभ लेते हुए आर्थिक-सामाजिक उत्थान हो गया फिर उन्हें आरक्षण क्यों मिलते रहना चाहिए तथा देश में सामाजिक और आर्थिक समता का सर्वमान्य पैमाना क्या है, क्या होना चाहिए?

विभिन्न जातियों और समाजों में आरक्षण का लाभ उठाकर पनप और प्रभावी हो रहे नए किस्म के ब्राह्मणवाद को अभी से नियंत्रित करना कितना जरूरी है? और यह कैसे होगा? वोट आधारित राजनीति इसे कितना होने देगी?

जाहिर है कि बदलते सामाजिक समीकरणो के चलते यह मांग आरक्षित वर्गों में से ही उठ सकती है। यानी सामाजिक न्याय का संघर्ष एक नए दौर में प्रवेश कर सकता है। ये बदले सामाजिक समीकरण ही राजनीति की चाल भी बदलेंगे और राजनीति के साथ व्यवस्था भी बदलेगी। क्षीण रूप में इसकी आहट सुनाई भी देने लगी है। 

(अमर उजाला डाॅट काॅम  पर 10 नवंबर 2022 को प्रकाशित )

कंझावला क्रूरता: यह तो समूची इंसानियत की बेशर्म हत्या है-अजय बोकिल

अजय बोकिल
 वरिष्ठ संपादक, दैनिक सुबह सवेरे म०प्र०
देश की राजधानी दिल्ली के बाहरी इलाके में नए साल की रात में स्कूटी पर घर लौटती एक युवती की नशे में चूर युवकों की कार में घसीट कर जिस रोंगटे खड़े कर देने वाले ढंग से मौत का मामला हुआ है, वह दरअसल समूची इंसानियत की ही बेशर्म हत्या है। इस मामले में दिल्ली पुलिस की अब तक की कहानी पर भरोसा करना उतना कठिन है, जितना कि यह मान लेना कि ये दुनिया अपने आप से चल रही है। इस प्रकरण में पूरा घटनाक्रम इस बात को काले अक्षरों में रेखांकित करता है कि क्रूरता, नृशंसता और पैशाचिकता में हम दस साल पहले दिल्ली में हुए निर्भया प्रकरण की तुलना में मीलो आगे बढ़ गए हैं और मनुष्यता के पैमाने पर मीलों नीचे गिर गए हैं। इस बात पर भरोसा कैसे करें कि एक कार में एक युवती मय स्कूटी के फंसी और उस कार में सवार नशे में डूबे पांच उच्छ्रंखल युवा उसकी लाश को 15 किमी तक घसीटते रहें, उस युवती का शरीर तार-तार हो जाए, वो युवती बचाने के लिए ठीक से चीख भी न सके और चीखी भी हो तो दिल्ली में किसी ने वो चीख न सुनी हो, सरे आम सड़क पर घिस-घिस कर उसका निर्वस्त्र जिस्म टुकड़े टुकड़े बिखरता किसी ने न देखा हो, एक-दो संवेदनशील राहगीरों ने इस भयानक ‘मोबाइल मर्डर’ की सूचना पुलिस को दी तो पुलिस ने भी उन नराधमो को पकड़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। वो तो थर्टी फर्स्ट की रात सेलिब्रेशन में जुटे लोगों की निगरानी में व्यस्त थी।  यानी जो हुआ, वो सोचकर भी रोंगटे खड़े कर देता है। उससे भी ज्यादा क्षुब्ध करने वाली दिल्ली पुलिस की यह थ्योरी कि मामला शराब पीकर गाड़ी चलाने और महज एक हादसे का है। 
 दरअसल नए साल की रात दिल्ली की सड़कों पर जो हुआ, वो उस आफताब द्वारा लिव इन में रहने वाली अपनी प्रेमिका की हत्याकर 35 टुकड़े कर जंगल में सुकून के साथ फेंकने, एक पत्नी द्वारा अपने बेटे के साथ मिलकर पति की हत्याकर टुकड़े फ्रीज में रखने, एक नाबालिग बेटी द्वारा अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपनी ही मां की तकिए से मुंह दबाकर हत्या करने तथा इसका कोई अफसोस भी होने, एक उदीयमान युवा अभिनेत्री द्वारा सेट पर ही फांसी लगा लेने या फिर काल्पनिक स्वर्ग में जाने के लिए एक परिवार के एक दर्जन सदस्यों द्वारा शांति के साथ खुदकुशी कर लेने से भी भयानक और समूचे समाज के जमीर को झिंझोड़ने वाला है। क्योंकि कांझीवला मामले में जो हुआ है, उसमें कोई निजी खुन्नस, दुराग्रह, प्रतिशोध या राक्षसी सोच भले न थी लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा भयावह और चिंताजनक वो अमानवीयता, बेपरवाही तथा आत्मकेन्द्रिकता थी, जहां मनुष्य सिर्फ और सिर्फ अपने सुख, स्वार्थ और भोग के बारे में सोचता है, उसे सर्वोपरि मानता है। बाकी उसे किसी से कोई मतलब नहीं। इतने खुदगर्ज तो शायद पशु भी नहीं होते। 
राजनीतिक पार्टियां इस वीभत्स हादसे पर भी राजनीति भले कर लें, लेकिन इस सवाल का जवाब तो पूरे समाज को, हमारी संस्कृति को और सभ्यता को देना होगा कि आखिर हम जी किस समय में रहे हैं? तकनीकी तौर पर यह केस संभव है कि सिर्फ हादसे का साबित हो, क्योंकि पीकर शराब चलाते हुए उन्होंने घर लौटती युवती को टक्कर मार दी। टक्कर मारने के बाद दारू के नशे में मदहोश कार में सवार युवाअों ने एक क्षण के लिए भी यह न सोचा कि कम से कम गाड़ी की रफ्तार धीमी कर यह तो देख लें कि गाड़ी किससे और कैसे टकराई है। कई बार एक थप्पड़ भी नशा उतार देता है, यहां तो सीधे-सीधे एक गाड़ी दूसरे को कुचल रही थी। लेकिन उन संवेदनहीन युवाअों ने ऐसा कुछ करना तो दूर नए साल की मदहोशी में कार को घुमाना जारी रखा, मानो कुछ हुअा ही नहीं। इक्का दुक्का राहगीरों ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वो युवा मदमस्त अपने में ही व्यस्त थे। कोई मरे, कोई जीए, इससे उन्हें क्या। जिसने अपनी जान इतने वीभत्स तरीके से गंवाई, उसका दोष केवल इतना था कि वो बीते साल की आखिरी रात में अकेले यह सोच कर लौट रही थी कि आने वाले साल की सुबह उसकी जिंदगी में शायद कोई नया सपना या संदेशा लेकर  आएगी। 
इस मामले में कानूनी तौर पर क्या होगा, कैसे होगा, यह आगे  की बात है। पर इस कांड ने देश तो क्या दुनिया को भी झकझोर दिया है। यह सवाल फिर उछाल दिया है कि एक मनुष्य इतना बेरहम और बेपरवाह कैसे हो सकता है? इस बात की पूरी संभावना है कि नशे में चूर युवकों को युवती की मौत की बात पता चल गई हो तो उन्होंने उसे पूरी तरह मिटाने की सोच ली हो। युवती की जान जाने से ज्यादा उन्हें अपनी जान बचाने की ज्यादा चिंता थी। 
ऐसा नहीं कि क्रूरता की मिसालें पहले नहीं थीं। लेकिन उनके पीछे कभी वैचा‍रिक तो कभी निजी कारणों से प्रतिशोध अथवा अवसाद  का तत्व ज्यादा काम करता रहा है। लेकिन कंझावाला में विशुद्ध निर्ममता और संवेदनहीनता थी। ऐसी संवेदनहीनता जो मानवीयता को ही खारिज करती है। दुर्भाग्य से समूची दुनिया में मनुष्य को जानवर से भी ज्यादा क्रूर प्राणी बनाने में आज इंटरनेट का बड़ा हाथ है। आफताब ने अपनी प्रेमिका के टुकड़े-टुकड़े कर सुकून के साथ जंगल में फेंकने और घर में खून के धब्बे मिटाने  के तरीके गूगल से सीखे थे। आज इंटरनेट पर देखकर उस उम्र के बच्चे भी सफाई से फांसी लगाकर जान गंवा रहे है, जिस उम्र में कभी लोगों को फांसी शब्द का सही सही मतलब भी मालूम नहीं होता था, उसे लगाना तो बहुत दूरी की बात है। थोड़ी भी मनमर्जी के खिलाफ बात होने पर लोग उस तरह खुदकुशी कर रहे हैं, मानो आत्महत्या न हुई, रोजमर्रा की सब्जी काटना हो गया। 
ऐसा लगता है कि इंटरनेट हमारे ज्ञान की सीमाएं उस हद तक बढ़ा रहा है, जहां दरअसल कंटीले तारों की बाड़ होनी चाहिए थी। नेट ने दुनिया को करीब ला‍ दिया है, लेकिन मनुष्यता की मूल तत्व को दफनाने में भी कसर नहीं छोड़ी है। वरना कोई कारण नहीं था कि दिल्ली की सर्द रात में भी एक भी शख्स किसी तरह उस मीलो घिसटती जा रही युवती की देह में प्राण ज्योत बचा पाता।
विडंबना तो यह है ‍िक यह हादसा उस रात घटा, जब दिल्ली तो क्या लगभग पूरे देश की पुलिस अलर्ट पर थी।  कैसे थी, यह इस हादसे ने बेनकाब कर दिया है। पुलिस कह रही है कि जो हुआ, वह सेक्सुअल असाॅल्ट (यौनिक हमला) या सुविचारित मर्डर नहीं है। मान लिया, लेकिन जो हुआ है, वह इन अपराधों से भी ज्यादा भयानक और संवेदनाअों को सुन्न करने वाला है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपराधिक मानसिकता ने अब हत्या का एक बिल्कुल नया तरीका ईजाद किया हो, जिसे अदालत में इरादतन हत्या साबित करना भी मुश्किल हो। आरोपियों के मुता‍िबक कार में तेज संगीत बजाने के कारण वह मृतका की चीख नहीं सुन सके। ऐसा संगीत भी किस काम का ? तो क्या हमारी युवा पीढ़ी के लिए संगीत भी मौत का नया नुस्खा है, जिसकी आड़ में कुछ भी किया सकता है?     
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वरिष्ठ संपादक
( 'सुबह सवेरे' में दि 3 जनवरी 2023 को प्रकाशित)

Sunday, April 10, 2022

मध्यप्रदेश के अब ‘भेडि़या राज्य’ बनने के निहितार्थ...अजय बोकिल

अजय बोकिल
मध्यप्रदेश ‘टाइगर स्टेट’ तो पहले से था ही, अब ‘वुल्फ स्टेट’ यानी ‘भेडि़या राज्य’  भी बन गया है। यानी बीते कुछ सालों में राज्य में ‘भे़डि़यों की तादाद खासी बढ़ी है। जंगल के हिसाब से यह अच्छी और मानव समाज की दृष्टि से यह चिंताजनक खबर है। क्योंकि भौतिक रूप से भेडि़यों की संख्या के साथ साथ ‘भेडि़या प्रवृत्ति’ भी बढ़ रही है। भेडि़यों  का बढ़ना वन्य जीव संरक्षण के हिसाब से बेशक यह बड़ी उपलब्धिय है, लेकिन लाक्षणिक दृष्टि से इस कामयाबी पर गर्व करें या न करें, संवेदनशील मन तय नहीं कर पा रहा। 
बहरहाल, मध्यप्रदेश के वन विभाग द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अब देश के सबसे ज्यादा भेडि़ए बसते हैं। इसके पहले मप्र टाइगर, लेपर्ड (तेंदुआ), घडि़याल और वल्चर (गिद्ध) स्टेट का दर्जा हासिल कर चुका था। इसी चैनल को भेडि़ये आगे बढ़ाएंगे, यह उम्मीद जरा कम थी। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अब भेडि़यों की कुल संख्या 772 है। जबकि  राजस्थान में 532, गुजरात में 494, महाराष्ट्री में 396 तथा छत्तीसगढ़ में 320 भेडि़ए ही हैं। वन विभाग ने अपनी पोस्ट में मप्र को "वुल्फ स्टेट" लिखा है। यह अलग बात है कि इस खबर के दूसरे ही दिन यह शोक समाचार भी मिला कि इंदौर वहां अब दो भेडि़ए ही बचे हैं। 
मन में यह सवाल तो तब ही तरंगें ले रहा था कि जब मप्र में गिद्ध बढ़ रहे हैं तो भेडि़ए रेस मे पीछे क्यों छूट रहे हैं। क्योंकि दोनो का अपना प्राकृतिक और सांस्कृतिक महत्व है। गिद्धों की अपनी दृष्टि है और भेडि़यों की अपनी सृष्टि है। दोनो अपना काम करते रहते हैं, लोक लाज की चिंता नहीं पालते। यूं प्राणि शास्त्र के अनुसार भेडि़ए कुत्तों के पूर्वज हैं। रंगरूप में। लेकिन कुत्तों की तासीर वक्त के हिसाब से बदल गई। वो इंसानों के वफादार दोस्त हो गए। लेकिन भेडि़यों को जंगल ही रास आया। क्योंकि भेडि़या चरित्र पर उंगली उठाने वाला वहां कोई नहीं है। 
 वैसे मध्यप्रदेश में भेडि़यों की बढ़ती आबादी के पीछे वन विभाग द्वारा वन्य प्राणी संरक्षण के व्यापक प्रयास तो हैं ही कुछ प्रवृत्तिगत कारक भी हो सकते हैं, ‍जिनकी वजह में मप्र में भेडि़यों को पनपने का सर्वथा अनुकूल वातावरण मिल रहा है। मप्र में भेडि़यों की संख्या बढ़ने की खबर को टाइगरों ने किस रूप में लिया, यह अभी साफ नहीं है, क्योंकि भेडि़यों  को ‘जंगल का राजा’ तो क्या खुद महाबुद्धिमान समझने वाले मनुष्य भी अच्छे भाव में नहीं लेते। ‘भेडि़या’ होना ‘कुत्ता’ होने से भी ज्यादा खराब माना जाता है। इसका कारण भेडि़यों का स्वभाव और चरित्र है। वह चालाक होने के साथ साथ क्रूर भी है। यही कारण है कि शेर, सांप, बंदर और कुत्तों के अलावा हमारे यहां सबसे ज्यादा मुहावरे किसी पर बने हैं तो वो शायद भेडि़या ही है। फिर चाहे वो ‘भेडि़या धसान’ हो या ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ की झूठी पुकार अथवा ‘भेड़ की खाल में भेडि़या’ होने की बात। भेडि़ए शिकार के लिए कुछ भी कर सकते हैं। भेडिया शब्द सुनते ही एक चालाक और अविश्वनीय प्राणी की तस्वीर आंखों में तैरने लगती है। यूं कहने को भेडि़ए इस दुनिया में आठ लाख साल से हैं। उन्हे कुत्तों  का पूर्वज माना जाता है। हालांकि कुत्तों ने खुद को इतना सुधार लिया कि वो मनुष्य के चहेते और वफादार प्राणियों में शामिल हो गए। लेकिन भेडि़यों ने ऐसी सकारात्मकता कभी नहीं दिखाई। वो केवल अपने झुंड के प्रति वफादार होते हैं। यहां तक कि मौका मिले तो कुत्तों को भी नहीं छोड़ते। पालतू पशुअों के साथ मौका लगे तो इंसान के बच्चों को भी उठा ले जाते हैं। भेडि़ये और कुत्ते के बीच एक बुनियादी फर्क यह है कि लड़ते समय भेडि़ए कुत्तों की तरह जोर-जोर से भौंकने में वक्त नहीं गंवाते। काम दिखाकर चुपचाप चलते बनते हैं। बीच में खबर आई थी कि राज्य के नौरादेही अभयारण्य में शेरों ने भेडि़यों को बेदखल कर ‍िदया है। सुनकर अच्छा लगा। लेकिन यही हाल रहा तो एक दिन मप्र में ‘भेडि़या अभ्यारण्य’ ( वुल्फ सेंक्चुरी) भी स्थापित करना पड़ सकता है।  
वन विभाग माने न माने, समाजशास्त्री 
इसकी प्रामाणिकता पर भले शक करें, लेकिन  सामाजिक हकीकत यह है कि राज्य में ‘भेड़ की खाल में भेडि़ये’ बढ़ रहे हैं। यानी दिखने में भले भोले हों, लेकिन कब काम दिखा दें, कहा नहीं जा सकता। ऐसे भेडि़यों की संख्या जीवन के हर क्षेत्र में ‍िदन दूनी बढ़ रही है। लेकिन इनकी कोई आधिकारिक  गणना नहीं होती। इन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है। 
यूं भेडि़ये जंगलों मे तो बढ़ ही रहे हैं, इंसानी बस्तियों में ‘मनुष्य की खाल में’ भी बढ़ रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल सोशल मीडिया का है। वहां सूचनाअों के मामले में ‘भेडि़या 
धसान’ का आलम है। फर्जी खबर भी पूरे इत्मीनान के साथ तमाम व्हाट्स ग्रुपो में एक सी आस्था के साथ डलती जाती है। हालांकि भेडि़या समाज में व्हाट्स एप ग्रुप नहीं होते। लेकिन मानव समाज में समाज सेवा का नया टोटका व्हाट्स एप ग्रुप चलाना है। इसमें कोई भी सूचना का आगा-पीछा देखने की जहमत नहीं उठाता। बल्कि कई बार तो झूठी खबर बिना पांव के ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ की पुकार के माफिक दौड़ने लगती है। लेकिन असलियत का पता लगते ही खबर फारवर्ड करने वाला भेडि़यों का पूरा झुंड ही गायब हो जाता है। 
भेडि़यों के बारे में माना जाता है कि वो कभी किसी के सगे नहीं होते। उन्हें खुद से और अपने झुंड से मतलब होता है। शायद  इसीलिए मनुष्य ने उन्हें पालने की जुर्रत नहीं की। भेडि़यों की इमेज आदिकाल से ही खराब है। प्राचीन सभ्यताअों में भी भेडि़यों को नकारात्मकता का प्रतीक  माना गया है। हालांकि चीनी ज्योतिष में भेडि़ये को ‘स्वर्ग के द्वार का रक्षक’ कहा गया है। हमारे यहां वैदिक काल में भेडि़ये को रात्रि का प्रतीक बताया गया है तो तांत्रिक बौद्ध धर्म में भेडि़या कब्रिस्तान का रखवाला माना गया है। ईसप की कहानियों और बाइबल में भी भेडि़ये को खतरनाक प्राणी बताया गया है। रूडयार्ड किपलिंग ने मोगली के रूप में भेडि़ए द्वारा पाले गए एक बच्चे की कल्पना की है। 
बाॅलीवुड में भेडि़ये को केन्द्र में रखकर फिल्मे शायद ही बनी हो, लेकिन हाॅलीवुड में भेडि़या प्रवृत्ति पर दर्जनों फिल्में बनी हैं। मसलन ‘द वुल्फ आॅफ वाॅल स्ट्रीट’, काॅल आॅफ द वुल्फ’, क्राइंग वुल्फ आदि। यानी भेडि़ये के चरित्र में मनुष्य की काफी ‍िदलचस्पी रही है। लेकिन भेडि़ए इससे नावाकिफ हैं। उनकी तादाद और तासीर का दायरा बढ़ रहा है, वो इसी में खुश हैं। साथ में अपना मध्यप्रदेश भी। 
वरिष्ठ संपादक 
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में ‍िद. 5 अप्रैल 2022 को प्रकाशित)

Thursday, March 31, 2022

क्या काॅमेडी और कमेडियन सचमुच खतरे में है-अजय बोकिल


अजय बोकिल
दुनिया के प्रतिष्ठित 94 वें आॅस्कर अर्वाड्स समारोह में हाॅलीवुड के जाने-माने अभिनेता विल स्मिथ ने अपनी पत्नी के गंजेपन को लेकर मंच पर की गई टिप्पणी पर कमेडियन क्रिस राॅक को थप्पड़ मारने के बाद अब माफी जरूर मांग ली है। लेकिन सोशल मीडिया पर यह मुद्दा जिंदा है और इस ‘अभूतपूर्व’ वाकए’ पर फिल्म जगत दो भागों में बंट गया है। कुछ का मानना है कि स्मिथ की जगह और कोई भी होता तो वही करता जो स्मिथ ने किया तो कुछ अन्य का मानना है कि क्रिस ने जेनेट के गंजेपन पर महज मजाक किया था और उसे उसी रूप में लिया जाना चाहिए था। क्योंिक कमेडी का मकसद तंज के साथ मनोरंजन करना ही है। उसमें दुर्भावना को तलाशना सही नहीं है। इस बीच बाॅलीवुड के जाने-माने अभिनेता, पूर्व भाजपा सांसद और अच्छे कमेडियन परेश रावल ने स्मिथ-क्रिस प्रकरण पर ट्वीट किया कि आज पूरे विश्व में कमेडियन खतरे में हैं। फिर चाहे क्रिस राॅक हों या यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की। इसे कुछ और बढ़ा दें तो इनमें भारत के कमेडियन कुणाल कामरा और मुनव्वर फारूकी का नाम भी शामिल किया जा सकता है। थप्पड़ खाने वाले क्रिस तो मशहूर स्टैंड अप कमेडियन हैं। पूरे प्रकरण का निहितार्थ यही है कि अब दुनिया में मजाक करना भी खतरे से खाली नहीं रहा। लोगो की भावनाएं इतनी नाजुक और कांच के माफिक  हो गई हैं कि कब कहां, और किस वजह से किसकी भावना आहत हो जाए, कहा नहीं जा सकता। राजनीतिक, धार्मिक और नस्ली दुराग्रहों ने हंसी की उदात्त दुनिया को और तंग कर दिया है। अब तो खुद पर हंसना भी दूभर है। हालात ये हैं कि आप अगर हंसना- हंसाना भी चाहते हैं तो आपको‍ ‍िकसी एजेंडे के पोर्टल पर ही चलना होगा। वरना फांसी का फंदा आपके लिए तैयार है। 
गौरतलब है कि विल स्मिथ ने ‘किंग रिचर्ड’ में रिचर्ड विलियम्स की भूमिका के लिए अपना पहला सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर पुरस्कार जीता। पुरस्कार लेने जैसे ही स्मिथ मंच पर पहुंचे तो कॉमेडियन क्रिस रॉक ने उनकी पत्नी जेडा पिंकेट-स्मिथ के गंजेपन को लेकर चुटकुला सुनाया जिस पर स्मिथ भड़क गए और उन्होंने कॉमेडियन को थप्पड़ जड़ दिया।
बहुतों के मन में यह सवाल कौंध रहा है कि आॅस्कर अवाॅर्ड्स समारोह में मंच पर मौजूद क्रिस राॅक को विल स्मिथ की पत्नी के गंजेपन पर तंज करने की क्या जरूरत थी ? वो इससे बच भी सकते थे। क्योंकि विल की पत्नी जेडा पिंकेट का गंजापन की किसी दुसाध्य रोग के कारण है, शौकिया नहीं। लिहाजा यह कोई मजाक का विषय नहीं है। फिर भी क्रिस ने ये दुस्साहस क्यों किया ? किसी के जज्बात को आहत करना तो मजाक कमेडी नहीं हो सकती। हालांकि क्रिस के मजाक पर पहले तो स्मिथ ने महीन मुस्कान देकर अनदेखा करने की कोशिश की। लेकिन दूसरे ही क्षण उन्हें लगा कि यह उनकी पत्नी का अपमान है तो उनका पति धर्म जागा और उन्होंने ताड़ से क्रिस का गाल लाल कर दिया। इस हिंसक प्रतिक्रिया से भौंचक क्रिस ने कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की। अलबत्ता यह अप्रत्याशित सीन देखकर दुनिया हैरान रह गई और विश्व भर में कमेडियनों के दुर्दिनों पर बहस शुरू हो गई। गनीमत यह रही कि इस थप्पड़ कांड में शामिल दोनो व्यक्ति अमेरिकी अश्वेत हैं, वरना यह घटना नस्ली संघर्ष का नया शोला भी बन सकती थी। 
घटना के दूसरे दिन विल स्मिथ ने अपने किए पर अफसोस करते हुए बाकायदा माफी नामे के रूप में एक चिट्ठी जारी की। उसमें उन्होंने लिखा कि ‘हिंसा किसी भी रूप में सही नहीं है। मैंने क्रिस के साथ जो किया, वह अस्वीकार्य है। मैं इसके लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगता हूं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘प्यार आपको पागल कर देगा।‘ स्मिथ ने जो कहा उसका आशय ही था ‍िक उन्हें मंच पर ऐसा नहीं करना चाहिए था। बल्कि संयम बरतना था। उधर हर साल लाॅस एंजेल्स में आॅस्कर समारोह का आयोजन करने वाली संस्था एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज (एएमपीएएस) ने कहा कि अकादमी किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन नहीं करती है। 
इस घटना पर अमेरिकी कमेडियन और  एक्ट्रेस कैथी ग्रिफिन ने विल स्मिथ पर निशाना साधते हुए लिखा- स्टेज पर चलते हुए जाना और कॉमेडियन को मारना, यह बहुत बुरा है। अब हमे इस बात की चिंता करना चाहिए कि कॉमेडी क्लबों और थिएटर्स में अगला विल स्मिथ कौन बनना चाहेगा? यहां असल मुद्दा काॅमेडी और कमेडियनों के वजूद पर मंडराते खतरे का है। हंसना और हंसाना मनुष्य को ईश्वर से मिली अनुपम देन है। वरना अन्य प्राणियों में तो केवल डाॅल्फिन ही हंसना जानती है और वो भी समुद्र में रहते हुए। ऐसा लगता है कि हमारे जीवन से उन्मुक्त हंसी का स्पेस खत्म होता जा रहा है। हंसने का अर्थ अब मजाक के बजाए मजाक उड़ाना या फिर प्रतिशोध भर हो ने लगा है। जबकि हंसना-गुदगुदाना समाज को स्वस्थ रखने की एक सांस्कृतिक औषधि रहती आई है। भारतीय परंपरा में भी लोक नाट्यो और प्रहसनो में एक विदूषक जरूर हुआ करता था, जो राजा से लेकर प्रजा तक और देवताअों से लेकर प्रकृति तक हर मुद्दे पर तंज किया करता था। लोग पेट पकड़कर हंसते थे। विदूषक के साहस की दाद देते और फिर सब भूल जाते थे। मजाक को मजाक की तरह ही लिया जाता था। 
अब मजाक पहले खांचो में फिट कर देखा जाता है। उसके हिसाब उसकी स्वीकार्यता अस्वीकार्यता और प्रतिक्रिया तय होती है। क्रिस ने तो विल की पत्नी पिंकेट के गंजेपन पर ही तंज किया था। लेकिन कमेडियन कई बार राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक व्यंग्य भी करते हैं। आज सबसे मुश्किल राजनीतिक- धार्मिक कमेडी करने वालो की है। उनका धंधा बंद होने की कगार पर है। वैसे भी इस तरह की कमेडी की गुंजाइश सिर्फ लोकतांत्रिक देशों होती है। धार्मिक कट्टरपंथी, तानाशाह और कठोर वामपंथी देशों में इसकी कोई जगह नहीं है। लेकिन अब लोकतांत्रिक देशों में भी मजाक को प्रतिशोध के चश्मे से ज्यादा देखा जाने लगा है। उदारता प्रति-उदारता के तराजू में तौली जाने लगी है। एक तरह से हंसना हंसाना भी रिमोट कंट्रोल से संचालित होने लगा है। हमारे ही देश में कुणाल कामरा की कमेडी में वामपंथी रूझान तलाशा गया तो मुनव्वर फारूकी के कई शो इसीलिए रद्द हो गए क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पंजाब में रद्द हुई रैली पर तंज किया था। बंगाल जैसे कुछ राज्यों में कार्टूनिस्ट भी सत्ताधीशों के निशाने पर रहे हैं। 
यूं कलाकार राजनीति में भी अपने झंडे गाड़े, ऐसा कम ही होता है। क्योंकि कला और राजनीति की संवेदनाएं अलग अलग होती हैं। उनके तकाजे और चुनौतियां भी जुदा जुदा होती हैं। राजनीतिज्ञ भले ‘कलाकार’ हों, लेकिन कलाकारों को राजनेता के रूप में कम ही स्वीकारा जाता है। इस लिहाज से यूक्रेनी जनता का स्टैंड अप कमेडियन जेलेंस्की को राष्ट्रपति चुनना असाधारण बात है। 
जेलेंस्की आक्रामक पुतिन से जिस तरह लोहा ले रहे हैं, वो भी हैरान करने वाला है। यह शायद एक कमेडियन की ‍जिजीविषा है। जेलेंस्की नाटो की शह पर यह सब कर रहे हैं या यूक्रेन की संप्रभुता के लिए लड़ रहे हैं यह बहस का विषय है, लेकिन यह सवाल मार्के का है कि क्या एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में यूक्रेन को अपनी नीति तय करने का अधिकार भी नहीं है ? यकीनन जेलेंस्की अभी जो कर रहे हैं, वो यकीनन काॅमेडी तो नहीं ही है। 
इसमें संदेह नहीं कि दुर्भावना काॅमेडी की आत्मा नहीं हो सकती। वह जज्बात को छूती हुई निकल जाती है, पर घाव नहीं करती। वो गुदगुदाती है, गला नहीं पकड़ती। सच्ची काॅमेडी इंसान को संकीर्णताअों से सेनेटाइज करती है। लेकिन सब ऐसा नहीं सोचते। उनका मानना है कि स्मिथ के हाथों थप्पड़ खाने के बाद क्रिस आइंदा किसी की भी बीवी पर तंज कसने पर दो बार सोचेंगे। भीड़ का न्याय यही कहता है। बावजूद इसके कि काॅमेडी कोई चरित्र हत्या नहीं है। विल स्मिथ ने भी पत्नी पर तंज करने वाले क्रिस को तुरंत सबक तो सिखाया, लेकिन बाद में उन्हें अहसास हुआ कि काॅमेडी का जवाब प्रति काॅमेडी तो हो सकता है, थप्पड़ नहीं हो सकता। थप्पड़ प्रकरण में भी अभिनेता स्मिथ का अफसोस जताना पति स्मिथ से आगे की पायदान पर रखता है। उन्होंने ऐसा किसी के दबाव में किया या फिर अंतरात्मा के कहने पर किया, कहना मुश्किल है। लेकिन ऐसा करके उन्होंने मानवता के उस गुण को जरूर बचा लिया है, जो मनुष्य को दूसरे प्राकणियों से अलग करता है। विवेकशीलता को प्रतिष्ठित करता है।  
वरिष्ठ संपादक 
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 31 मार्च 2022 को प्रकाशित)

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