साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Tuesday, February 08, 2022

खत नहीं आते-रमाकान्त चौधरी

संस्मरण के बहाने
रमाकांत चौधरी
"क्या हुआ है आजकल खत का आना बंद है, डाकिया मर गया या डाकखाना बंद है" आशिकों की ये शायरियां या पंकज उधास का "गीत चिट्ठी आई है, आई है चिट्ठी आई है"  यह सब बातें गुजरे जमाने की लगती हैं।  एक समय होता था, जब दूर गए साजन की चिट्ठी का सजनी  या फिर सजनी के मायके जाने पर साजन उस तरफ निगाहें रखता था जिधर से डाकिया खाकी वर्दी में कंधे पर झोला लटकाए, साइकिल की घंटी टनटनाता हुआ आता दिखाई पड़ता था। जैसे ही डाकिया सामने से गुजरता और आवाज तक न देता था, तो फिर मन में बहुत गुस्सा आता  कि क्या उन्हें एक चिट्ठी भी लिखने की फुर्सत नहीं है ।  कई-कई दिन इंतजार में गुजर जाते थे और तब डाकिए से पूछना पड़ता था, काका अबकी मेरी चिट्ठी नहीं आई क्या? और अचानक डाकिया झोले से निकाल कर जब चिट्ठी देता तो फिर खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। आंखों में खुशी के आंसू छल छला पड़ते थे और फिर वह चिट्ठी साजन या सजनी की होती तो बात ही कुछ अलग होती, पढ़ने का आनंद ही कुछ अलग होता, एक-एक शब्द इत्मिनान से कई-कई बार पढ़ा जाता और हर एक शब्द पर होठों की मुहर लगाई जाती, फिर सीने से लिपटाया जाता। उसके बाद उठती कलम और कागज ,खत का जवाब लिखने के लिए। प्रेमियों का तो अंदाज ही सबसे जुदा होता था, उनकी चिट्ठी ले जाने के लिए तो उनका डाकिया भी अलग यानी निजी होता था। और उनकी चिट्ठी के ऊपर लिखा होता था 'चला जा पत्र चमकते-चमकते, मेरे महबूब से कहना नमस्ते-नमस्ते' या फिर 'पढ़ने वाले पत्र छुपा के पढ़ना, तुझे कसम है मेरी जरा मुस्कुरा के पढ़ना, वह खत वाकई प्रेमी-प्रेमिका छुपा के पढ़ते थे, अपने महबूब की निशानी समझकर किताबों में छुपा कर रखते थे। जब प्रेमियों का बिछोह होता तो आशिकों की जुबां पर यह शायरी 'जवाबे खत नहीं आता लहू आंखों से जारी है, न जीते हैं न मरते हैं अजब किस्मत हमारी है'  मचलने लगती थी। कई-कई बार तो ऐसा भी होता था कि खत के सहारे ही सारी जिंदगी प्रेम अथवा दोस्ती चलती रहती थी दो दोस्त या प्रेमी कभी एक दूसरे की शक्ल से ताउम्र परिचित नहीं हो पाते थे किंतु विचारों का आदान-प्रदान खतों के जरिए ही होता था। खत पाने का या फिर खत भेजने का जो आनंद था वह जुबान से बयां कर पाना संभव ही नहीं है। 

जब किसी मां का बेटा या फिर सजनी का साजन देश की रक्षा के लिए सीमा पर लड़ने जाता था और वहां से जब चिट्ठी लिखता था,  वह दृश्य जब शाम गोधूलि के वक्त डाकिया चिट्ठी लेकर आता था। जब मोहल्ले वाले सुनते की फौजी की चिट्ठी आई है तो सभी उसका हाल पता जानने के लिए इकट्ठे हो जाते कि क्या लिखा है? कैसा है फौजी? फिर डाकिया बाबू उस चिट्ठी को खोलकर पढ़ता तो सबसे पहले ही लिखा होता 'पूजनीय माता-पिता को सादर चरण स्पर्श' उस वक्त माता-पिता की आंखें खुशी से भर जाती, सीना फूलकर गदगद हो जाता। तत्पश्चात तमाम बातें लिखी होती, फिर मोहल्ले में बच्चों से लेकर बूढ़ी ताई तक का हाल-चाल अगले जवाबी खत में लिखने के लिए लिखा होता। उस वक्त सभी मोहल्ले वाले खुशी से फूले नहीं समाते थे। और फिर खतों का सिलसिला न थमने की गति से चलता रहता था।

नई तकनीकी के विकास से जहां पर हालचाल जानने के लिए इंतजार नहीं करना पड़ता है, वहीं पर सम्मानजनक शब्दों का विलोपन होता चला गया है। खतों में जहाँ पुत्र अपने माता-पिता को 'पूजनीय सादर चरण स्पर्श'  व अपनी पत्नी को 'मेरी प्यारी प्राण प्रिया' इत्यादि शब्दों को प्यार के साथ लिखता था, उसकी  जगह अब सिर्फ नमस्ते और हाय-हेलो ने ग्रहण कर ली है। नई तकनीक ने वह प्यार, मोहब्बत, बेचैनी, बेकरारी, इंतजार सब का विलोपन कर दिया अब किसी को फुर्सत कहां है जो चिट्ठी लिखने वाला झंझट का काम करें। बेटा फौज में है तो माता-पिता से बात करने की आवश्यकता ही नहीं है, पत्नी के पास ही सारी जानकारियां पहुंच जाती हैं और फिर माता-पिता बहू से ही बेटे का हाल मालूम कर लेते हैं। भाई बहनों का प्यार भी चिट्ठी में बंद होता था, बहन के घर जब चिट्ठी भाई की पहुंचती तो वह फूले नहीं समाती थी।अब नई तकनीक ने वह भी रीति खत्म कर दी।  अब तो प्रेमी प्रेमिकाओं का रूठना  मनाना मोबाइलों के सहारे होता है। पहले जो बात लबों से नहीं हो पाती थी वह खतों के जरिए हो जाती थी, किंतु अब उसकी जगह एसएमएस यानी शॉर्ट मैसेज संदेश ने ले ली है। शॉर्ट होने के कारण उस पर दिल के हालात पूर्णतया बयां नहीं किये जा सकते। इसका परिणाम यह होता है कि शॉर्ट मैसेज संदेश के चक्कर में प्यार भी शॉर्ट होता चला गया  और एक दिन ऐसा भी आता है कि मोबाइल पर ही प्यार की आहूति चढ़ जाती है ।  नए सिम की तरह नया प्रेमी भी आ जाता है । रही डाकिया बाबू की बात तो वह सिर्फ सरकारी चिट्ठियां ढोते हैं जो किसी बैंक से कर्ज जमा करने हेतु भेजी जाती हैं या फिर किसी मोहकमे  में रिक्त पदों हेतु फार्म भरे जाते हैं, उनकी रजिस्ट्री रिटर्न इत्यादि ।  अब किसी को किसी की चिट्ठी का इंतजार नहीं होता है। अब तो बस इतना है कि कब किसकी घंटी बज जाए और जेब से निकलकर छोटा सा इंस्ट्रूमेंट किस समय कान से चिपक जाए और कब कोई भयानक दुर्घटना घटित हो जाए किसी को कुछ नहीं पता। इस छोटे से इंस्ट्रूमेंट ने जहां एक और लंबे इंतजार को खत्म करके फेस टू फेस बात करने जैसी सुविधा प्रदान की है वहीं पर वह खत पढ़ने का, लिखने का, सीने से छुपाने का आनंद खत्म कर दिया है। अब पत्नी अपने  जाते हुए पति से ये शायद कभी ना कहेगी कि 'जाते हो परदेस पिया, जाते ही खत लिखना।'
पता- गोला गोकर्णनाथ, लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश 2622701

Sunday, September 05, 2021

शिक्षा तो दूर सार्वजनिक कुएं से पानी पीने को मोहताज थे-अखिलेश कुमार अरुण

साथियों हम तो उस समाज से आते हैं जहां सार्वजनिक कुएं, तालाब, नदी-नाले से पानी पीना भी गुनाह था; ऐसे में हम शिक्षा कैसे प्राप्त कर सकते थे। मिट्टी का पुतला बनाकर शिक्षा लेने लगा तो अंगूठा कटवा लिया गया, ज्ञान देने लगा तो सर कटवा लिया गया, अध्यात्म के तरफ गए निर्गुण की उपासना करने लगे तो छल से मार दिया गया क्योंकि शिक्षा का अधिकार तो हमें था ही नहीं, तो हम शिक्षा कैसे प्राप्त करते शुक्र है अपने उस रहनुमा का जिसने हमें यह अधिकार दिया #भारतीय संविधान की धारा 29,30 और 21 क, जिसमें #शिक्षा संस्कृति और शिक्षा का मूल अधिकार समाहित किया गया है।

हमारी शिक्षा प्रारंभ होती है #चार्टर #एक्ट 1813 और  1833 से धीरे-धीरे ही सही हमें शिक्षा प्राप्त करने का मौका मिला तो, अंग्रेजों को जाति धर्म से अलग हटकर उन्हें एक नौकर चाहिए था ऐसा नौकर जो उनकी भाषा और शिक्षा को समझ कर कंपनी के कार्यप्रणाली के अनुसार अपने को तैयार कर सके किंतु हम यहां भी चूक गए, #मैकाले का विवरण पत्र #1835 के अनुसार शिक्षा का स्वरूप #निस्यंदन_सिद्धांत (filtration theory) की भेंट चढ़ गई क्योंकि उच्च वर्ग शिक्षित होकर नौकरी पेशा में जाने लगा उसका सामाजिक स्तर पहले से ही ऊंचा था और ऊंचा हो गया। अंग्रेजों के साथ उसका उठना बैठना हो गया, "अरे ओ साहब कहां इन मैले-कुचैले जाहिलों को शिक्षित करने की सोच रहे हैं।" छन-छन कर जो शिक्षा निचले तबके तक आने के लिए थी उसकी जालियां बंद कर दी गई शिक्षा छनने की बात अलग एक बूंद टपकना भी मयस्सर न रहा।

शिक्षा का स्वरूप वर्तमान समय में अत्यधिक विकृत हो गया है क्योंकि शिक्षा की धारा दो रूपों में प्रवाहित हो रही है-एक तरफ सुख सुविधाओं से संपन्न महंगी शिक्षा व्यवस्था और दूसरी तरफ गरीबों की शिक्षा जिसमें शिक्षा के न नए आयाम हैं और न ही सुविधाएं परिणामत: एक बहुत बड़ा तबका चाहे वह जिस जाति धर्म-मजहब का हो शिक्षा से वंचित है क्योंकि महंगी शिक्षा उसके बस की बात नहीं है। अभी हाल ही में #कानपुरयूनिवर्सिटी (गरीबों की यूनीवर्सिटी कह लीजिए) के अंतर्गत संचालित #सीतापुर, #लखीमपुर, #उन्नाव आदि जिलों के #महाविद्यालय संचालित हो रहे थे, यकायक इन्हें #लखनऊविश्वविद्यालय से संबद्ध कर दिया गया, जिसकी फीस 2 गुना ही नहीं 3 गुना है ऐसे में इन पिछड़े जिलों के अभिभावक अपने पाल्य को शिक्षा दिलाने के लिए महाविद्यालय की मोटी फीस अदा करने में अक्षम है। ऐसे में जनसामान्य की शिक्षा को कैसे साकार किया जा सकता है। हम फिर जहां से उठे थे धीरे धीरे वहीं और उससे भी बुरी स्थिति को प्राप्त हो रहे हैं।

वस्तुत: हम आखरी पीढ़ी होंगे अपने समाज में उच्च शिक्षा धारित करने वाले लोगों में से इसके बाद आने वाली पीढ़ी उच्च शिक्षा के लिए तरसेगी केवल एक स्वप्न बनकर रह जाएगा उनके शिक्षा की चाहत और उनके सामाजिक जीवन का उभरता स्तर, शिक्षा में मार्क्सवाद अपने चरम पर है पूंजीपति और सर्वहारा वर्ग की शिक्षा कहिए.... हमारे हाथ से शिक्षा की आधुनिकता के नाम पर हमारी पाटी, खड़िया, सरकंडे की कलम भी छीन लिया गया और अत्याधुनिक शिक्षा का साधन भी उपलब्ध नहीं कराया गया। प्राईमरी और जूनियर की स्कूलिंग में शिक्षा से ज्यादा सरकार को मिड-डे-मील का फीडबैक चाहिए। मास्टर जी पढ़ाने से ज्यादा सरकार को  मोबाइल पर एप्प से लेकर आफिस के रजिस्टर तक मिड-डे-मील को लेकर व्यस्त हैं....टूंटपूजिहे प्राइवेट स्कूल कोरोना की मार से चौपट हो गए और बड़े स्कूल आनलाइन क्लाश के नाम पर अभिभावकों की जेब काट लिए हमारे माता-पिता के पास इतनी मोटी रकम नहीं थी उनकी रोड किनारे की दुकान, मजदूरी और कम्पनी की प्राइवेट नौकरी चली गई, नून-रोटी खाकर किसी प्रकार से जीवनयापन हो रहा है।

वंचितों की शिक्षा का असली इतिहास ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले से स्टार्ट होता है जो बाबा साहब डॉक्टर बी आर अंबेडकर के गुरु भी कहलाते हैं अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली का ही परिणाम था की 1891 में जन्मा बालक शिक्षा के क्षेत्र में अर्जित कर आज विश्व का सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करने वाला स्कॉलर बना हुआ है जिसे हम नॉलेज आफ सिंबल इन द वर्ल्ड के नाम से जानते हैं। हम अपने संपूर्ण समाज की तरफ से ऐसे महापुरुष को बार-बार नमन करते हैं हमारे असली शिक्षक बाबा साहब ज्योतिबा राव फूले और सावित्रीबाई फूले ही हैं।

आज के समय में भी द्रोणाचार्य जैसे शिक्षकों की कमी नहीं है इन शिक्षकों की साया से भी बचने का प्रयास करुंगा।

अधिकतर शिक्षक ऐसे हैं जो अपने शिक्षक धर्म का निर्वाह करते आए हैं चाहे वह जो भी समय काल रहा हो हम अपने जीवन के मोड़ पर मिले उन शिक्षकों को पुनः पुनः नमन करता हूं और अपने ज्ञान वृद्धि के लिए उन शिक्षकों के आशीर्वाद की कामना करता हूं जिनका आशीर्वाद हमें आजीवन मिलता रहे। 

शिक्षक दिवस की शुभकामनाएं।

अखिलेश कुमार अरुण
8127698147

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Monday, April 26, 2021

अपने जन्मदिन पर विशेष

अपने जन्मदिन पर विशेष

 

जन्मपत्री
मेरे जन्म का प्रमाण पापा जी के द्वारा हस्तलिखित

आज फेसबुक चुपके-चुपके हमारे जन्मदिन का टैग चला रहा है. अपने चाहने वालों का आशीर्वाद मिल रहा है, उसके लिए आप सबका कोटि-कोटिशः आभार. भागमभाग, आपा-धापी भरी जिंदगी में जन्मदिन क्या होता है, इसकी सुध कहां है। भला हो इस सोशल मीडिया का जो याद तो दिलाता है कि आज ही के दिन हमारा जन्म हुआ था जिसकी पुष्टि के लिए #पापा के हाथ की लिखी एक #मटमैली_डायरी के पन्नों की #जन्मपत्री है। जिसमें हमारा नाम #कमलकिशोर था, फिर #नवलकिशोर हुआ पर वह भी नाम हमारे से दूर हो, हमारे भाई को मिल गया और उसका नाम #इन्द्रजीत यादों में बनकर रह गया, घर का नाम ही हमारा कागजपत्री का लिखित नाम है. कभी #अकलेश तो कभी #अकलेशवा बुलाया जाता था. नाम की संतुष्टी हमें अखिलेश कुमार अरुण से मिली नहीं तो उसके पहले खूब नाम का छीछालेदर किये कुछ दिन #अखिलेश_कुमार_गौतम तो साल, दो साल तक #अखिलेश_कुमार_निगम (#गौतम और #निगम दोनों #जाति विशेष #उपनाम थे उपनाम की खोज का सिलसिला #अरुण पर जाकर ख़त्म हुआ जिसका अर्थ होता है #लालरंग/ #प्रातःकाल जो धीरे-धीरे फैलकर सम्पूर्ण विश्व को अपने आगोस में ले लेता है और संसार को एक नई उर्जा से भर देता है. देखिये अब आगे क्या होता है उपनाम की सार्थकता को सिद्ध करने में एक-एक दिन बिता जा रहा है. #जन्मदिन #26 #अप्रैल की जगह #1 #जनवरी कर दिया गया जो देखने में ही फर्जी लगता है इसलिए कभी हम इसे स्वीकार न कर सके. सोशल मिडिया के बायोग्राफी में 26 अप्रैल ही मेंशन है. असली जन्मदिन आज ही है, आज ही के दिन जन्म लेकर इस संसार में एक के बाद एक अपने लोगों का साथ मिलता गया और हम पर जिम्मेदारी का बोझ बढ़ता गया घर-परिवार/समाज, जिसमें समाज की जिम्मेदारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है किन्तु परिवार को भी लेकर चलना है। हम अपने ऊपर मिले जिम्मेदारियों पर खरे उतर सकें यही हमारे लिए हमारे जन्मदिन का सबसे बड़ा तोहफा होगा।

बहुत बहुत आभार आप सब परिवारी, ईष्ट-मित्र, साथियों, गुरुजनों का।

-अखिलेश कुमार अरुण

26/04/2021

 

 

Wednesday, April 21, 2021

स्मृतिओं के झरोखे से मेरा बचपन


स्मृतिओं के झरोखे से मेरा बचपन

(तबका सुकून आज का क्षोभ)

पिछली बार लॉकडाउन में घर गया तो घर की साफ-सफाई करते/करवाते हुए मेरे द्वारा #काष्ठ_निर्मित_ट्रेक्टर हाथ लगा जिसको बड़े मनोयोग से बनाया था. जितनी रचनात्मकता लगा सकता था लगया. तब हम 6 या 7 वें दर्जे में होगें. खिलौनों की रचनात्मकता को लेकर रात भर सोचते और दिन में लग जाते, दिन-भर खुटुर-पुटुर दुकान के बाँट ज्यादातर हथौड़ी-छेनी के निचे ही रहते थे. #ट्रेक्टर के साथ-साथ #कल्टीवेटर, #तवे_का_हैरो, #कराहा, #ट्राली सब हुबहू नक़ल थे जो लड़की और लोहे के बनाये गए थे. उनमें से अब केवल ट्रेक्टर ही बचा हुआ है वह भी अगला पहिया (ट्रेक्टर के माफिक ही स्टेरिंग के साथ मुड़ता था) विहीन, लोहे के खिलौने (कराहा, कल्टीवेटर, हैरो, ट्राली) जो ट्रेक्टर के साथ उपयोग में लाये जाते थे हमारे शहर में पढ़ने आने के कुछ साल बाद पापा ने किसी कबाड़ी वाले को बेच दिए. आज होता तो उसे अपने बचपन के ऐतिहासिक धरोहरों में संजो के रखता. उससे बचपन की बहुत सारी यादें जुड़ी हुई हैं, याद है कि गर्मी की दुपहरी में घर के कामों से निवृत होकर माता जी के आराम में खट्ट-पट्ट ध्वनि और खेल-खिलौनों को लेकर भाईयों से मारा-पिटी चें-पों/चिल्ल-पों से बिघ्न डालना और फिर माता जी के द्वारा कूटे जाना...मन भर रो लेने के बाद नींद बहुत अच्छी आती थी. शाम को नींद खुलने पर सुबह का भ्रम हो आता था कुछ क्षण ऐसे निकल जाता था सुबह है कि शाम.

मेरे बचपन का खिलौना

हमारे बचपन के दिनों में (90 का दशक) खेल-खिलौनों के नाम पर मेले-ठेले में 2 रुपये से लेकर 20 रूपये तक के अच्छे-खासे खिलौने क्या? टिकिया वाली बन्दुक,चाबी वाली कार हाथी-घोड़ा बस यही मिलता था. तकनिकी रूप से खिलौनों में हम ज्यादा तरक्की नहीं किये थे या यूँ कहें कि हम खिलौनों की अच्छी दुकान पर पहुँच ही नहीं पाते होंगे. तब घर की आर्थिक स्थिति फ़िलहाल ठीक थी किराने की दुकान के साथ-साथ साईकिल की दुकान थी, फर्निचरी का भी काम होता था. पिता जी मेठगिरी (ठेकेदारी) भी करते थे, मने कुल मिला के दाल-रोटी का इंतजाम हो जाता था. बचपन में हमारा पढ़ाई लिखाई से ज्यादा मन दुकान-दौरी के साथ ही साथ रचनात्मकता में रमा रहता था. छः बधिया से लेकर छोटे-छोटे कियारीदार चारपाई की बुनाई (नाना को बुनते देख कर सीख लिया था.), बांस/शहतूत की टोकरी और अल्युमिनियम तार की टोकरी बर्तन रखने के लिए  (जिसको हमारे तरफ खांची बोलते हैं) रेडियो रिपेयरिंग पंखे की वाईन्डिंग/रिपेयरिंग, सिलाई मशीन रिपेयरिंग थोड़ी-बहुत दर्जीगिरी, फर्निचरी का काम पापा को करते देख कर सीख लिया था, दरवाजे, कुर्सी-मेज, चारपाई, तख्ता आदि बनाने में निपुड हो गया था. सबसे बड़ी मजे की बात यह थी कि शादी व्याह में दुल्हे-दुल्हन की पाटी (बैठने का पीढ़ा) पुजाई या बारात के वापस आने पर बेड/दहेज़ के तख्ते को फिट करने की लिए जाता तो 151 रुपये से कम न लेता, हमारे चक्कर में दुसरे छोटे भाईयों को माता जी गुस्से में आकार खरी-खोटी सुनती थी, “इसका जीवन तो कट जायेगा तुम्हारे लोगों का क्या होगा न पढ़ने में हो  न कुछ गुण ढंग में.....मने बहुत कुछ सुना देतीं थीं.

हाईस्कूल के बाद (पापा जी का कहना था फेल हो गए तो पढ़ाई छोड़ा देंगे .....अपना भी कुछ ऐसा ही था पर हुआ कुछ और हम दोनों भाई नवल किशोर और मैं गुड सेकेण्ड डिवीजन से पास हो गए पूरे गाँव में पास होने वाले पहले थे) इंटर के बाद पढ़ाई का ऐसा चस्का लगा कि आज डिग्रियों की भरमार है और गुलाम (सरकारी नौकर) बनने की जद्दोजहद जारी है. बचपन का सब हुनर छूट गया आज पढ़ाई-लिखाई तक सिमित होकर रह गया हूँ. बेकार और बेरोजगार/प्राइवेट विद्यालय की प्रोफेसरी है, मझला भाई दुबई में डोमेस्टिक इलेक्ट्रीशियन का काम करता है और दो भाई एक बहन पढ़ाई-लिखाई में लगे हुए हैं.

(स्मृतियों के झरोखे से)


-अखिलेश कुमार अरुण
लखीमपुर खीरी उ०प्र०
मो०न०-८१२७६९८१४७

Wednesday, April 29, 2020

एक थे इरफ़ान खान।

#श्रद्धाजंलि
बॉलीवुड अभिनेता #इरफान_खान का निधन बुधवार को हो गया. मैं इनके अभिनय का बहुत बड़ा कद्रदान हूं, इनके बोलने का लहज़ा, भाव-भंगिमा, और अदाकारी की सनक बरवस ही अपने दर्शकों को खींच लेती है। मैं इनकी फिल्मों जो मेरी पहली फिल्म थी वह शायद #पानसिंह तोमर के किरदार वाली थी उसका नाम नहीं पता और पता करना भी नहीं चाहता। बस अपने मन की बात लिखे देता हूं। उनकी एक और फिल्म है जिसमें औरतों को समझने का बहुत बड़ा अनुभव अपने एक्टर साथियों के साथ अभिनय करते नज़र आते हैं, पर आखिर गच्चा खा ही जाते हैं। पिछले साल या उससे भी पहले मैंने उनकी जो फिल्म देखी थी वह थी पाकिस्तानी अदाकारा के साथ अभिनित फिल्म #हिन्दी_मीडियम जिसने दिल को छू लिया, एक्शन, ड्रामा, इमोशनल का मिला-जुला कलेक्शन और उससे भी बड़ी बात यह कि उसके एक्टर इरफान खान। इस फिल्म को मैंने एक-दो नहीं लगभग-लगभग चार पांच बार तो देखा ही होऊंगा। #पिकू में टैक्सी ड्राइवर का रोल लेकर फिल्म में अमिताभ बच्चन और दीपिका पादुकोण के साथ फिल्म में जान डालने वाले अभिनेता इरफान खान पेट की बिमारी से ठीक होने के लिए बच्चन जी को कुछ ट्रिक सीखा रहे थे विश्वास नहीं होता कि उसी तरह की परेशानी आपके जीवन को खत्म कर गई और आप जिन्दगी की जंग हार गए। #मदारी फिल्म को पूरा नहीं देख पाया उसका मलाल नहीं है देख लूंगा किन्तु इस दुःख में कि अब आप जैसे अभिनेता की अब फिल्मी बाजार में आने वाली नहीं, जितनी बाजार में हैं उन्हीं को देखा जाए और समीक्षा की जाए।  अभी कुछ दिन पहले उनकी माता जी का भी निधन हो गया दुर्भाग्य यह रहा कि लाकडाउन के चलते अपनी माता की अन्तिम यात्रा में न जा सके अपनी माता के पास चले गए।अभिनेता इरफान खान को मंगलवार को पेट के संक्रमण के बाद शहर के एक अस्पताल की आईसीयू में भर्ती कराया गया था. उनके प्रवक्ता ने मंगलवार को यह जानकारी देते हुए बताया था कि 53 वर्षीय अभिनेता को कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में भर्ती कराया गया था. खान की 2018 में कैंसर की बीमारी का इलाज हुआ था. वह आंत के इन्फेक्शन से परेशान थे।
उनकी मृत्यु से फिल्मी जगत को अपार क्षति हुई है जिसकी भरपाई शायद ही हो। अश्रुपूरित नेत्रों से भावभीनी श्रद्धांजलि।
@अखिलेश कुमार अरुण

Monday, January 01, 2018

भोजपुरी लोक-समाज के गायक

भोजपुरी लोक-समाज के गायक- रविन्द्र कुमार 'राजू' के निधन से एगो भोजपुरी के निमन अध्याय क पटाक्षेप हो गईल। उनके निधन पर हम सब भोजपुरिया लोगिन साथे-साथे ऊ सबे दुःखी बा जे उनकर गीत-संगीत से असीम सुख के अनुभति करत रहल हा।
परसों की रात हमरा देर रात क नींद ना आवत रहे तब मोबाईल से हेडफोन लगा के एगो गीत बजवनी अउर पाँच-छः बेर से अधिका ले सुनते-सुनत सूत कईलीं, ऊ गीत कवन रहे जानताड़ीं जा-"ए बलम जी"।
हमके का मालूम रहे कि उ गीत उनका अन्तिम समय की बेला में सुनत तारीं, जेकरा निधन के सनेश हमरा फेसबुक पर, मसहूर गीतकार/संगीतकार-अशोक कुमार 'दीप' जी के फेसबुक वॉल से पता चलल। अचके एगो झटका लागल उनके करीब से हम ना जानत रहलीं हं बकीर उनकर गीत-गवनई से परिवार जइसन रिस्ता रहल ह। उनकरा गीत में समाज के दरद रहल ह। एगो नवही कनिया के दुख क सुन्दर प्रस्तुति " ए बलम जी.........!" त परिवारिक प्रेम और त्याग क साक्षात दर्शन "खेत बारी बटीं जाई वीरना......।
अश्रुपूर्ण भावभीनी श्रध्दाजंलि।
गीतकार/साहित्यकार-अखिलेश कुमार अरुण

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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