साहित्य

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Tuesday, October 19, 2021

बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती है लघु फ़िल्म कबाड़ी-डॉ.शैलेष गुप्त 'वीर'


सुरेश सौरभ की लघुकथा कबाड़ी पर बनी लघु फ़िल्म। शिव सिंह सागर ने किया है इस लघु फ़िल्म का निर्देशन
जिस प्रकार वर्तमान में साहित्य में लघु विधाएँ बहुत तेज़ी से लोकप्रिय हो रही हैं, ठीक उसी प्रकार लघु फ़िल्में भी दर्शकों को बहुत रास आ रही हैं। छोटी-छोटी कहानियाँ और लघुकथाओं पर बनी ये फ़िल्में समाज में एक सार्थक संदेश छोड़कर जाती हैं और बहुत कुछ सोचने के लिए विवश करती हैं। यदि कम में अधिक बात हो जाये, तो फिर विस्तार की क्या आवश्यकता है और यही साबित कर रही हैं लघु विधाएँ और लघु फ़िल्में। 

लखीमपुर के चर्चित लघुकथाकार सुरेश सौरभ की लघुकथा #कबाड़ी पर बनी लघु फ़िल्म #कबाड़ी यही साबित करती है। तेज़ी से बदल रहे परिवेश में मूल्य और संस्कार कहीं खोते जा रहे हैं। यहाँ तक कि विरासत भी आज के मनुष्य को बोझ लगने लगी है। वह वही विरासत सँभालना चाहता है, जिसका आर्थिक मूल्य हो। पैसे की ताक़त के आगे सारी चीज़ें गौड़ हो गयी हैं। मनुष्य की सोच बेहद संकुचित हो गयी है। सब कुछ पैसा, पैसा, पैसा। 'कबाड़ी' के माध्यम से समाज को यही संदेश दिया गया है। धरोहर पुरखों की निशानी होती है। वे पूर्वज, जिन्होंने हमको बहुत कुछ सौंपा है और हम उनकी बची हुई निशानियाँ भी नहीं सँभाल सकते हैं। 'कबाड़ी' में बाप-दादाओं की 'ख़रीदी हुई' और अब 'पड़ी हुई' पुस्तकों को वह व्यक्ति बेकार समझता है और उन्हें रद्दी के भाव बेच देना चाहता है। उसकी दृष्टि में इन पुस्तकों का वर्तमान में कोई मूल्य नहीं है। सच तो यह है कि पुस्तकों का मूल्य हमेशा रहता है जब तक कि पढ़ने वाले के अन्दर ललक होती है और जानने वाला कुछ जानना चाहता है। सात मिनट से भी कम समय की इस फिल्म में सीधा-सीधा सार्थक एवं पुष्ट संदेश दिया गया है। कबाड़ी, जिसके बाप-दादाओं का दिया हुआ तराज़ू आज भी सही-सलामत कार्य कर रहा है, वह नहीं बदलना चाहता और टोकने पर स्पष्ट कहता है कि नहीं, मैं इसे नहीं बदल सकता। कहीं न कहीं किताबें बेचने वाले को बहुत अन्दर तक झकझोर देता है और उसके भीतर गहरा क्षोभ उत्पन्न होता है। वह वास्तविकता से रूबरू होता है। अपनी विरासत कबाड़ के भाव बेचने से मना कर देता है। 

यह लघु फ़िल्म देखने वाले के मस्तिष्क पर सीधा असर करती है। इसे अवश्य देखना चाहिए। ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहित करना हम सबका दायित्व है। जयन्त फ़िल्म्स इन्टरटेनमेन्ट, फतेहपुर के बैनर तले बनी इस लघु फ़िल्म 'कबाड़ी' का निर्देशन युवा निर्देशक शिव सिंह सागर ने किया है। महेन्द्र सिंह यादव, प्रतिभा पाण्डेय, वसीक़ सनम, बेबी साहू के शानदार अभिनय से सजी इस लघु फ़िल्म के निर्माता जयन्त श्रीवास्तव हैं। लेखक सुरेश सौरभ की लिखी 'कबाड़ी' लघुकथा पर बनी इस लघु फ़िल्म की पटकथा शिव सिंह सागर एवं वसीक़ सनम की है। इसे अंजली स्टूडियो यूट्यूब चैनल पर इस लिंक [ https://youtu.be/omcjTSsRrRo] पर क्लिक करके देखा जा सकता है।

सम्पर्क: 
24/18, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
पिनकोड- 212601
वार्तासूत्र : 9839942005
ई-मेल : doctor_shailesh@rediffmail.com

Monday, June 28, 2021

मनचला-डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

 लघुकथा  

-डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
ट्रेन अभी फतेहपुर से छूटी ही थी कि एक पचीस-छब्बीस वर्षीय नवयुवक ने हाँफते हुए अन्दर प्रवेश किया। वह गेट पर ही कुछ पलों के लिए ठिठका और इधर-उधर नज़रें दौड़ने के पश्चात् समीप की ही एक सीट, जिस पर तीन महिलाएँ विराजमान थीं, से सटकर खड़ा हो गया। उन तीनों महिलाओं ने उसे हिकारत भरी नज़रों से घूरा, किन्तु इसका उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन महिलाओं में से एक प्रौढ़ा थी, किन्तु बाक़ी दो...बला की ख़ूबसूरत जवान युवतियाँ। ख़ैर ट्रेन धीरे-धीरे स्पीड पकड़ रही थी..."क्यों भाई तेरे को और कहीं जगह नहीं मिली, यहीं हमारे सर पे ही खड़ा होना था। माँ-बाप जाने कैसे संस्कार देते हैं इन युवकों को...लड़कियाँ देखी और निहारने लगे...ए...ओ...मनचले, तुझसे ही कह रही हूँ, अपना ठौर कहीं और ढूँढ़ ले।" प्रौढ़ा ने अपना आक्रोश ज़ाहिर करते हुए हट जाने की चेतावनी दी...पर वह बंदा मानो कसम खाकर आया था। ख़ामोशी की चादर ओढ़े निर्विकार भाव से वहीं खड़ा रहा। माँ जी के इतना कहने के बाद भी यहीं पर...अंगद की तरह पैर...बेशर्म यहीं पर...मेरा वश चले तो...चप्पलों से...।" वे दोनों युवतियाँ आपस में बतियाए जा रही थीं।

 

अब ट्रेन पूरी स्पीड में थी। कानपुर चंद मिनटों की बात थी कि टीटीई ने एस-फोर कोच में प्रवेश किया और सात नम्बर की बर्थ से सटे उस नवयुवक को टोका- साबजादे, टिकट...उसने शायद उसकी बात सुनी नहीं या जानबूझकर अनसुनी कर दी। "अबे ओ मनचले, उधर मत निहार, टिकट दिखा।" इस बार आवेश भरे स्वर में टीटीई ने उससे टिकट की माँग की...अच्छा-अच्छा टि-टिकट...इस ज़ेब-उस ज़ेब में हाथ डालने लगा। तीनों महिलाएँ और आस-पास बैठे लोग मुस्कुराने लगे- "...अब स्साले को पता चलेगा। बहुत स्मार्ट...", "एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे...", बगल में एक सज्जन गीत गुनगुना रहे थे कि तभी हर ज़ेब खँगालने के बाद आख़िर में शर्ट की ज़ेब में हाथ डाला। सर, यह टिकट...एस-फोर, सेवन। तब तुम खड़े क्यों हो? टीटीई ने प्रश्न किया...साब, मेरे अम्मा-बाबू ने मुझे ऐसे ही संस्कार दिये हैं।

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पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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