साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, June 28, 2021

ज़िम्मेदारी-डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

  लघुकथा  

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'
अभी श्याम ऑफ़िस से लौटा ही था कि उसकी पत्नी रेनू उस पर बिलबिला उठी- "सुनो जी! आज मैंने तुम्हारी पासबुक देखी है। पिछले एक साल से हर महीने दस हज़ार रुपये किसे ट्रान्सफर कर रहे हो? सच-सच बता दो।" "अरे वो मम्मी-पापा आजकल काफ़ी परेशान रहते हैं। दोनो बीमार चल रहे हैं और इधर कुछ मकान का भी लफड़ा है।" रेनू ने झगड़ने के अंदाज़ में कहा- "यह बकवास मुझे नहीं सुननी। तुम्हीं ने ठेका ले रखा है क्या इन बुड्ढों का। और दूसरे बेटों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है क्या!" "हा, जब उनके बेटे अपनी ज़िम्मेदारी से मुकर गये हैं, तो मेरी ही ज़िम्मेदारी बनती है।" "मतलब", "मतलब यह कि मैं तुम्हारे मम्मी-पापा की बात कर रहा हू। मेरे पापा तो पेंशनर हैं। हर महीने मुझे ही कुछ न कुछ देते रहते हैं। रेनू का चेहरा खिलखिला उठा और एक साँस में बोल गयी- "ओह श्याम! मेरे जानू! कितने अच्छे हो तुम! बैठो न! बहुत थके लग रहे हो। मैं अभी कॉफ़ी बनाकर लाती हूँ।"

सम्पर्क:
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
पिनकोड- 212601
वार्तासूत्र : 9839942005
ई-मेल : doctor_shailesh@rediffmail.com


मनचला-डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

 लघुकथा  

-डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
ट्रेन अभी फतेहपुर से छूटी ही थी कि एक पचीस-छब्बीस वर्षीय नवयुवक ने हाँफते हुए अन्दर प्रवेश किया। वह गेट पर ही कुछ पलों के लिए ठिठका और इधर-उधर नज़रें दौड़ने के पश्चात् समीप की ही एक सीट, जिस पर तीन महिलाएँ विराजमान थीं, से सटकर खड़ा हो गया। उन तीनों महिलाओं ने उसे हिकारत भरी नज़रों से घूरा, किन्तु इसका उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन महिलाओं में से एक प्रौढ़ा थी, किन्तु बाक़ी दो...बला की ख़ूबसूरत जवान युवतियाँ। ख़ैर ट्रेन धीरे-धीरे स्पीड पकड़ रही थी..."क्यों भाई तेरे को और कहीं जगह नहीं मिली, यहीं हमारे सर पे ही खड़ा होना था। माँ-बाप जाने कैसे संस्कार देते हैं इन युवकों को...लड़कियाँ देखी और निहारने लगे...ए...ओ...मनचले, तुझसे ही कह रही हूँ, अपना ठौर कहीं और ढूँढ़ ले।" प्रौढ़ा ने अपना आक्रोश ज़ाहिर करते हुए हट जाने की चेतावनी दी...पर वह बंदा मानो कसम खाकर आया था। ख़ामोशी की चादर ओढ़े निर्विकार भाव से वहीं खड़ा रहा। माँ जी के इतना कहने के बाद भी यहीं पर...अंगद की तरह पैर...बेशर्म यहीं पर...मेरा वश चले तो...चप्पलों से...।" वे दोनों युवतियाँ आपस में बतियाए जा रही थीं।

 

अब ट्रेन पूरी स्पीड में थी। कानपुर चंद मिनटों की बात थी कि टीटीई ने एस-फोर कोच में प्रवेश किया और सात नम्बर की बर्थ से सटे उस नवयुवक को टोका- साबजादे, टिकट...उसने शायद उसकी बात सुनी नहीं या जानबूझकर अनसुनी कर दी। "अबे ओ मनचले, उधर मत निहार, टिकट दिखा।" इस बार आवेश भरे स्वर में टीटीई ने उससे टिकट की माँग की...अच्छा-अच्छा टि-टिकट...इस ज़ेब-उस ज़ेब में हाथ डालने लगा। तीनों महिलाएँ और आस-पास बैठे लोग मुस्कुराने लगे- "...अब स्साले को पता चलेगा। बहुत स्मार्ट...", "एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे...", बगल में एक सज्जन गीत गुनगुना रहे थे कि तभी हर ज़ेब खँगालने के बाद आख़िर में शर्ट की ज़ेब में हाथ डाला। सर, यह टिकट...एस-फोर, सेवन। तब तुम खड़े क्यों हो? टीटीई ने प्रश्न किया...साब, मेरे अम्मा-बाबू ने मुझे ऐसे ही संस्कार दिये हैं।

सम्पर्क:
18/17, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)
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Saturday, June 26, 2021

हम बच्चे-मधुर कुलश्रेष्ठ

मधुर कुलश्रेष्ठ
हम नन्हें मुन्ने बच्चे प्यारे प्यारे
कंचे गोली गिल्ली डंडा खेल हमारे
भागम-भाग, छिपन छिपाई
इक्कड़ दुक्कड़ हमको लगते प्यारे 

धौल धपट कर लड़ते झगड़ते
पल में गलबहियाँ डाले फिरते
हम नासमझों की दुनियां में
झट मिट जाते गिले हमारे

लड़के लड़की का भेद नहीं
जात पाँत की दीवार न आती
मिल जुलकर सब खेल खेलते
इस घर से उस घर के द्वारे

हम नन्हें मुन्ने बच्चे प्यारे प्यारे

ठानी थी बगावत करने की- कपिलेश प्रसाद

कपिलेश प्रसाद


भेंड़-बकरियों के झुंड हैं हम 
और लक़ीर के फ़क़ीर भी ,
एक ने जो राह पकड़ ली-
चल पड़े हम भी उस ओर।
यह सोंच कर कि सब जा रहे जिस उस ओर
ठीक ही जा रहे होंगे ,
मैं भी कुछ रूक-रूक कर चलता रहा उस ओर
ठानी थी बग़ावत करने की , 
पर ठहर सा गया कुछ सोंच कर?
नहीं चाहते हुए भी चल पड़ा 
इनके ही नक्श-ए-कदम पर
क्योंकि हम चल रहे थे किसी के समानान्तर 
जो खड़ी उस तरफ वैसी ही एक भीड़ थी !
और खड़ा होना था हमें भी उसके मुकाबिल

जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव में बीजेपी ने झोंकी पूरी ताकत, मैदान में उतरे योगी सरकार के मंत्री और प्रशासनिक अधिकारी-नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  राजनैतिक चर्चा  

नन्द लाल वर्मा

बीजेपी की तैयारी ज्यादातर सीटों पर येनकेन प्रकारेण कब्ज़ा करने की है तो दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी भी इस चुनाव में पूरे जोर-शोर से अपनी ताल ठोक रही है। अब इंतजार 26 जून और 3 जुलाई का है जब  जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए नामांकन और वोट डाले जाएंगे और नतीजे भी उसी दिन घोषित हो जाएंगे।

यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले अब जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर होने वाले चुनाव में सियासी दल अपना दम खम ठोक रहे हैं।75 जिलों में होने वाले इस जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए आज यानी 26 जून को नामांकन होना है। ऐसे में बीजेपी की तैयारी है कि इन चुनावों में साम,दाम, दंड, भेद से ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल की जाए। यही वजह है कि अब सरकार के मंत्री भी अपने-अपने क्षेत्र में नामांकन के दौरान मौजूद रहेंगे। पार्टी के उम्मीदवार का हौसला बढ़ाने के साथ ही साथ किस तरीके से लॉबिंग करके उम्मीदवार को जिताया जाए इस पर रणनीति भी तय करेंगे।कई जिलों से खबरें आ रही हैं कि जहां गैर बीजेपी दल मजबूत है, वहां के सपा, बीएसपी और निर्दलीय सदस्यों को स्थानीय जिला प्रशासन के माध्यम से कानूनी दांवपेंच प्रयोग कर या तो हिरासत में लिया जा रहा या फिर उनको सुरक्षित जगह रखा जा रहा है।


प्रदेश में होने वाले 75 जिलों में जिला पंचायत अध्यक्ष पद का चुनाव खासतौर से सत्ताधारी बीजेपी के लिए नाक का सवाल बना हुआ है क्योंकि इस बार बीजेपी ने जिस आक्रामक ढंग से पंचायत चुनाव लड़ा था नतीजे उसके पक्ष में नहीं आए थे।बीजेपी से ज्यादा निर्दलीय जीते थे और बीजेपी तीसरे नंबर पर सपा के बाद चली गई थी। ऐसे में अब जब 3 जुलाई को जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए वोट डाले जाने हैं तो पार्टी की तैयारी है कि 75 में से तकरीबन 60 जिलों में अपना जिला पंचायत अध्यक्ष बनवाया जाए और इसके लिए बीजेपी हर पैंतरा अपना रही है। पार्टी ने निर्दलीयों को साथ जोड़ने के नाम पर कानूनी शिकंजा या अन्य तरह का दबाव बनाना शुरू कर दिया है और कहीं कहीं पार्टी ऐसे लोगों को उम्मीदवार बना रही है जिन्हें कुछ समय पहले अनुशासनहीनता/गुंडागर्दी के चलते पार्टी से निष्कासित कर दिया था।


आज 26 जून को यानी शनिवार को जिला अध्यक्ष पद के लिए नामांकन होना है।यह नामांकन दोपहर 3 बजे तक होगा ऐसे में सरकार के मंत्री अपने-अपने क्षेत्र में नामांकन के दौरान मौजूद रहेंगे और उम्मीदवारों का हौसला बढ़ाएंगे और विपक्षियों पर.......।  बीजेपी के उम्मीदवार को जिला पंचायत अध्यक्ष कैसे बनाया जाए इस रणनीति पर भी पार्टी पदाधिकारियों और स्थानीय प्रशासन से बात चल रही है।


दरअसल, बीएल संतोष जब 2 दिन लखनऊ में थे तब भी पंचायत चुनाव को लेकर चर्चा हुई थी और तब मंत्रियों को अपने-अपने जिलों में जिला अध्यक्ष बनवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उसके बाद यह तय हुआ कि नामांकन के दौरान भी मंत्री वहां मौजूद रहेंगे। दरअसल, ऐसा माना जा रहा है कि जब पंचायत के चुनाव हुए तब कोरोना की दूसरी लहर की वजह से सरकार के मंत्री पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार के लिए नहीं उतर पाए थे जिसका खामियाजा बीजेपी को भुगतना पड़ा और नतीजे उसके अनुकूल नहीं रहे। इससे सबक लेते हुए इस बार मंत्रियों को ही मैदान में उतार दिया है। ज्यादातर मंत्री कल नामांकन के दिन प्रत्याशियों के नामांकन में शामिल होंगे।


हालांकि कोविड के चलते नामांकन जुलूस पर तो सभी जगहों पर रोक है लेकिन कोविड प्रोटोकॉल को फॉलो करते हुए नामांकन किया जाएगा। 27 जून को सरकार के सभी मंत्री पूरे प्रदेश में तीसरी लहर के मद्देनजर बच्चों को जो मेडिसिन किट उपलब्ध कराई गई है उसका वितरण भी अपने-अपने क्षेत्रों में करेंगे और इसके बाद मंत्रियों का ब्लॉक स्तर पर दौरा भी होना है यानी 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले अब बचे हुए 8 महीनों में सरकार के मंत्री आपको लखनऊ में कम और अपने विधानसभा क्षेतत्रों में, प्रभार वाले जिले में और ब्लॉक में प्रवास करते ज्यादा नजर आएंगे।क्योंकि आंतरिक कलह की वजह से यूपी का विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए राजनैतिक रूप से जीवन-मरण का विषय बन चुका है


बीजेपी ने इस बार उम्मीदवारों के नाम घोषित करने में भी अपनी रणनीति में बदलाव किया. दरअसल, पहले 3050 जिला पंचायत वार्ड के सदस्यों के नाम की घोषणा लखनऊ मुख्यालय से की गई लेकिन नतीजे पक्ष में नहीं आये. उसके बाद यह तय किया गया कि जिला पंचायत अध्यक्ष पद के उम्मीदवारों के नाम की घोषणा जिला स्तर पर ही की जाएगी. इसके पीछे मंशा यह थी कि किसी नाम पर अगर बवाल हो तो उससे सीधे-सीधे आलाकमान पर सवाल ना उठे, लेकिन इतनी सावधानी बरतने के बाद और कई स्तर पर स्क्रीनिंग करने के बावजूद  उन्नाव में पार्टी को दोबारा बैकफुट पर आना पड़ा।


एक तरफ बीजेपी की तैयारी ज्यादातर सीटों पर कब्जा करने की है तो दूसरी तरफ इस चुनाव को विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल मानकर समाजवादी पार्टी भी इस चुनाव में जोर-शोर से अपनी ताल ठोक रही है। हालांकि, लगातार समाजवादी पार्टी इस चुनाव में शासन सत्ता के दुरुपयोग का भी आरोप लगा रही है। लेकिन बीजेपी भी समाजवादी पार्टी को 2015 की याद दिला रही है। अब इंतजार आज यानी 26 जून और 3 जुलाई का है जब पंचायत चुनाव में जिला पंचायत अध्यक्ष पद के लिए नामांकन हर वोट डाले जाएंगे और नतीजे भी उसी दिन घोषित हो जाएंगे।जो खबरें मिल रही हैं उससे ज़ाहिर होता है कि बीजेपी सरकार ने विपक्षियों पर नामांकन प्रक्रिया से पहले ही कानूनी शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। क्योंकि मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के लिए लोकतंत्र का मतलब मात्र चुनाव जीतना ही शगल बन चुका है। यह सर्वविदित है कि इस तरह के चुनावों में सत्ता का हमेशा दखल रहा है।लेकिन विपक्ष के सदस्यों को थोक भाव मे बिना किसी अपराध के हिरासत में लेने के पीछे की मंशा बहुत कुछ बयां करती है जिसका खुलासा आज के नामांकन दाखिल होने और मतदान की तारीख को हो जाएगा।

पता-लखीमपुर खीरी उ०प्र०

Friday, June 25, 2021

एक लोकतंत्रवादी अखबार की मौत पर दो आंसू-अजय बोकिल

  राजनैतिक चर्चा  
अजय बोकिल
किसी अखबार की मौत पर विदाई हो तो ऐसी, जैसी कि हांगकांग के ‍अखबार ‘एप्पल डेली’ को उसके चाहने वालों ने दी। इस अखबार की रोजाना 80 हजार प्रतियां छपती थीं, लेकिन समाचार पत्र का आखिरी अंक खरीदने सुबह से लोग टूट पड़े और देखते ही देखते उसकी 10 लाख प्रतियां बिक र्गईं। लोकतंत्र की खातिर ‘शहीद’ होने वाले इस अखबार की अंतिम प्रति को सहेजे रखने शहर की सड़कों पर भीड़ उमड़ पड़ी। उन्होंने अखबार के समर्थन में अपने मोबाइल की फ्लैश लाइटें चमकाईं। क्योंकि यह अखबार कोविड, आर्थिक संकट या किसी काले धंधे के कारण बंद नहीं हुआ था, बल्कि देश में लोकतंत्र कायमी की लड़ाई लड़ते और सरकार की प्रताड़ना झेलते हुए ‘वीरमरण’ को प्राप्त हुआ था। अखबार के संचालकों ने 24 जून को अपने ग्राहकों, विज्ञापनदाताओं को अपने आखिरी मेल में उनके सहयोग के लिए धन्यवाद देते हुए ‘शोक सूचना’ दी कि अब अखबार का प्रिंट और डिजीटल एडीशन उन्हें नहीं ‍मिल पाएगा। अखबार के अंतिम अंक में एक तस्वीर प्रकाशित की गई, जिसमें ‘एप्पल डेली’ के कर्मचारी इमारत के आसपास बारिश के बावजूद एकत्रित हुए समर्थकों का कार्यालय से हाथ हिलाकर अभिवादन कर रहे हैं। इसे शीर्षक दिया गया- श्हांगकांग वासियों ने बारिश में दुखद विदाई दी, हम एप्पल डेली का समर्थन करते हैं।

एक लोकतंत्रवादी अखबार की इस तरह मौत पर शायद ही कोई वामपंथी आंसू बहाना चाहे, क्योंकि जो चीनी कम्युनिस्ट सरकार की प्रताड़ना का ‍िशकार हुआ और शायद ही कोई वामपंथी इस पर लिखना चाहे और शायद कोई दक्षिणपंथी इस पर आंसू बहाना चाहे, क्योंकि मीडिया को लेकर उसकी आंतरिक भावना भी इससे बहुत अलग नहीं है। फर्क केवल दमन के तरीकों और जुमलों का है। चाहत मीडिया को ‘कोल्हू का बैल’ बनाने की ही है क्योंकि कई खामियों के बावजूद प्रेस लोकतंत्र का सबसे बड़ा झंडाबरदार रहा है। 

दुर्योग देखिए कि कल ही मैंने अपने इस स्तम्भ में भारत सहित पूरी दुनिया में प्रिंट मीडिया की चलाचली की बेला की चर्चा की थी और दूसरे ही ‍िदन हांगकांग के प्रमुख और दमदार अखबार का सरकारी ठोकशाही के चलते उठावना हो गया। कहा जा सकता है कि यह मामला हांगकांग का है, जहां लोग बीते 24 सालो से देश में लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं, उसका भारत से क्या सीधा सम्बन्ध है? यकीनन सीधा सम्बन्ध नहीं है, लेकिन सत्ता की मानसिकता में बहुत फर्क नहीं है। मकसद वही है, किसी न ‍िकसी रूप में अभिव्यक्ति पर नकेल डालना और इसे जायज ठहराने के लिए अपने हिसाब से जुमले और तर्क गढ़ना। यह भी संयोग है कि हमारे देश में आपातकाल लगाने की आज 45 वीं बरसी पर मीडिया या तो दम तोड़ रहा है या फिर ‘बैंड पार्टी’ में तब्दील हो रहा है। वही आपातकाल, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र का काल माना गया और जिसकी समाप्ति को लोकतं‍त्र की जीत के रूप में पारिभाषित किया गया। तब भी प्रेस का एक बड़ा वर्ग सत्ता के आगे दंडवत कर रहा था। लेकिन उस अंधेरे में भी कुछ दीए बोलने की आजादी और लोकतंत्र की मशाल बाले हुए थे। उन्हीं दीयों को आज हम पत्रकारिता के प्रकाश स्तम्भ मानकर नमन करते हैं, आदर्श मानते हैं।
 
‘एप्पल डेली’की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। एप्पल डेली का प्रकाशन 20 जून 1995 को एक कपड़ा व्यापारी जिमी लाई ने टैबलायड अखबार के रूप में शुरू किया था। पहले यह पत्रिका के रूप में ‍निकलता था। ‘एप्पल’ नाम इसे जान बूझ कर दिया गया था, क्योंकि आदम और हौव्वा की कहानी में इसे एक वर्जित फल माना गया है। शुरू में इस पत्रक की प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए सभी तरीके अपनाए गए। लेकिन इस अखबार को सही पहचान तब मिली, जब 2015 में चान पुई मान इसकी पहली महिला प्रधान संपादक बनीं। उन्होंने इसे मानवाधिकार और लोकतंत्र की लड़ाई लड़ने वाले अखबार में तब्दील कर ‍िदया। मानव‍ाधिकार और लोकतं‍त्र ऐेसे शब्द हैं, जिसे चीनी सत्ता को सबसे ज्यादा चिढ़ रही है। अखबार ने अपने डिजीटल एडीशन के साथ हांगकांग में लोकतंत्र कायमी के लिए जारी संघर्ष का खुला समर्थन दिया। लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों, सरकार के प्रति लोगों के असंतोष और राजनीतिक गतिविधियों को भरपूर कवरेज दिया, जो सरकार की निगाहें टेढ़ी होने के लिए काफी था। सरकार के दबाव में बहुत से बड़े विज्ञापनदाताओ ने ‘एप्पल डेली’ को विज्ञापन देने से हाथ खींच लिए। चीन समर्थित हांगकांग प्रशासन और पुलिस ने पिछले साल ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ की आड़ में अखबार के दफ्तटर पर छापा मारा। यह कानून हांगकांग में पिछले साल ही लागू किया गया है। छापे के बाद अखबार के खाते सील कर ‍िदए। 23 लाख डालर की सम्पत्ति जब्त कर ली गई। अखबार के संपादक रेयान लाॅ सहित पांच शीर्ष संपादकों और सीईओ चेंउंग किम हंग को गिरफ्तांर कर लिया गया। अखबार ने उसके खिलाफ की गई सरकारी कार्रवाइयों की भी पूरी ताकत से रिपोर्टिंग की। छापे के दूसरे दिन के अंक में अखबार की हेड लाइन थी-‘ एप्पल डेली लड़ता रहेगा।‘ इस बात को जनता तक इसे डिजीटल माध्यम से पहुंचाया गया। गौरतलब है कि सरकारी दमन के चलते अखबार के सामने विकल्प था कि वह संघर्ष की अपनी टेक छोड़कर सरकार की भजन मंडली में शामिल हो जाता। लेकिन ‘ऐप्पल डेली’ ने ऐसा करने की बजाए प्रकाशन बंद करने का ‍िनर्णय लिया। इन भावुक क्षणों में एप्पल डेली के ग्राफिक डिजाइनर डिकसन ने कहा, श्श्यह हमारा आखिरी दिन और आखिरी संस्करण है, क्या यह सच्चाई दिखाता है कि हांगकांग ने अपनी प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी को खोना शुरू कर दिया है ? इससे अखबार के पाठकों और प्रशंसकों में उसकी इज्जत और बढ़ गई। जबकि चीनी सरकार की मीडिया का गला घोंटने की कार्रवाई की पूरी दुनिया में कड़ी आलोचना हुई। हाल में 17 जून को हांगकांग पुलिस ने एप्पल डेली के मुख्यालय पर फिर छापा मारा तथा कई लोगो को गिरफ्तार किया। अखबार पर आरोप लगाया गया कि वो विदेशी शक्तियो से मिलकर राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल रहा है। खास बात है कि पिछले साल अमेरिकी राष्ट्पति के चुनाव में एप्पल डेली ने ट्रंप का समर्थन किया था, जो चीनी सरकार को नागवार गुजरा था। 

हांगकांग में लोकतं त्र की विरासत इसके ब्रिटिश उपनिवेश होने के जमाने से है। ब्रिटेन ने हांगकांग को चीन के राजा से लीज पर लिया था और एक प्रमुख व्यापारिक बंदरगाह के रूप में विकसित किया। सौ साल बाद इसे चीन ने वापस मांगा, क्योंकि चीन की वैश्विक हैसियत बदल गई थी। ब्रिटेन ने हांगकांग को चीन इस शर्त पर लौटाया था कि चीन का हिस्सा बनने के बाद भी वहां पूंजीवादी व्यवस्था, पुरानी परंपराओं और लोकतंत्र को कायम रखा जाएगा। और अखबार इस लोकतंत्रवादी विचार के प्रमुख संवाहक हैं। लेकिन चीनी नेतृत्व इस लोकतंत्र में भी अपने लिए खतरा देखता है। इसलिए उसका गला घोंटने की पूरी कोशिश की जा रही है। 

एक बात और। हमारे यहां सोशल मीडिया की भूमिका जैसी भी हो, लेकिन हांगकांग में उसने लोकतं‍त्र के हक में दमदार भूमिका निभाई है। 75 लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश में लोकतंत्र बचाओ प्रदर्शनों तथा लोकतंत्रवादियों को एकजुट करने और लोकतंत्र के पक्ष में जनमत बनाने में सोशल मीडिया ने संघर्ष के टूल का काम किया है। इसका महत्व इसलिए भी है कि हांगकांग में पिछले दिनो हुए लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों में शामिल होने वाले ज्यादातर अनाम लोग थे। बल्कि उनमें से बहुत से लोग सरकारी दमन से बचने के लिए अपनी पहचान छुपाकर लोकतंत्र बचाने के लिए लड़ रहे थे। इसके बावजूद कई लोगों को गिरफ्ता रियां हुईें। इस लोकतंत्रवादी आंदोलन का प्रतीक चिन्ह एक ‘पीली छत्री’ को बनाया गया। इसकी शुरूआत 2014 में ‘छत्री आंदोलन’ के रूप में हुई थी।  

हांगकांग में प्रेस की स्वतंत्रता को कानूनी संरक्षण मिला हुआ है। लेकिन चीनी सरकार धीरे-धीरे प्रेस पर ‍शिकंजा कसती जा रही है। इसका एक कारण यह भी है कि चीन में छुपाई जाने वाली बहुत जानकारियां हांगकांग के मीडिया में आकर पूरी दुनिया को पता चल जाती हैं। बहुत सी किताबें और अन्य सामग्री जो साम्यवादी चीन में प्रतिबंधित है, हांगकांग में प्रकाशित हो जाती है। जैसे कि चीनी कम्युनिस्ट नेता जाओ ‍िजयांग के संस्मरण, जिन्हें 1989 में पद से इस्तीफा देना पड़ा था।

बहरहाल, लोकतंत्र की इस अनथक लड़ाई में ‘एप्पल डेली’ ने अपनी आहुति दे दी है। इस अखबार ने मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता क्या होती है और उसका क्या मूल्य चुकाना पड़ता है, इसका आदर्श प्रस्तुत‍ किया है। इसी के साथ एक सवाल यह भी कि क्या आज हमारे देश में कोई अखबार मूल्यों के लिए ऐसी आहुति देगा? और देगा तो कितने लोग उसके पक्ष में सड़कों पर उतरेंगे ? कितने लोग उस पत्र के लिए आंसू बहाएंगे? आखिर हांगकांग वासियों की लोकतंत्र की लड़ाई और लोकतं‍त्र के प्रति हमारी प्रतिबद्धता में गुणात्मक फर्क क्या है? जरा सोचें। और उस अखबार के अवसान पर पत्रका‍रीय श्रद्धांजलि तो बनती ही है। 
(लेखक दैनिक सुबह सवेरे के वरिष्ठ संपादक हैं) 

Thursday, June 24, 2021

सिमटते अखबार और सोशल मीडिया में ‘सूचनाओ का लंगर’-अजय बोकिल

अजय बोकिल

कोरोना की पहली लहर ने अखबारों को एनीमिक बनाया तो दूसरी लहर ने उनकी बची खुची कमर भी तोड़ दी है। बावजूद अपनी बेहतर विश्वसनीयता के अखबार एक-एक कर बंद होते जा रहे हैं। उनमें काम करने वाले मीडियाकर्मी भी सड़क पर आते जा रहे हैं। वो खुद अपनी आवाज उठाने के लायक भी नहीं रहे हैं, क्योंकि मीडिया अब खेमों में इतना विभाजित हो चुका है कि अपनों की मौत भी उसे ज्यादा विचलित नहीं करती। नौकरियां गंवाने के साथ बीते सवा साल में कोरोना से करीब 500 पत्रकारों ने अपनी जानें गंवा दी हैं। दूसरी तरफ सोशल मीडिया में अखबार अब पीडीएफ के रूप में जिंदा रहने की कोशिश में हैं। यह अखबारों का वामनावतार है। इस बात पर तो चर्चा बहुत होती है कि मीडिया को क्या छापनाध्दिखाना चाहिए, क्या नहीं छापनाध्दिखाना चाहिए, लेकिन मीडिया और मीडिया के अपने हालात क्या हैं, इस पर तो खुद मीडिया वाले भी चर्चा से बचते हैं।

कोविड-1 के समय मीडिया डेंजर जोन में चला गया था, अब कोविड-2 में मीडिया में दो तरह के बदलाव नमूदार हुए और हो रहे हैं। पहला तो जनता की आवाजसमझे जाते रहे ज्यादातर अखबार अब अपने वजूद की संध्या छाया से जूझ रहे हैं। इस देश में अखबारों 240 साल की महान परंपरा मिटने की कगार पर है। वो पत्रकारिता, जिसने तमाम खामियों के बावजूद आजादी के आंदोलन से लेकर स्वतं‍त्र भारत में भी कई दूसरे आंदोलन और समाज सुधार के अभियान चलाए, भंडा फोड़ किए अब खुद पाठकों को तलाश रही है। आश्चर्य नहीं कि दो दशक बाद आने वाली नस्ल अखबार की दुनिया को इतिहास के एक अध्याय के रूप में पढ़े। बड़े अखबारों का आकार सिमट रहा है, तो ज्यादातर छोटे अखबार छपना बंद होकर डिजीटल एडीशन पर चले गए हैं। दूसरी तरफ सोशल मीडिया में अखबारों का पीडीएफ और खबरों का लिंक कल्चर तेजी से उभर रहा है। अपनी खबर पढ़वाने के लिए भी हाथ-पैर जोड़ना पड़ रहे हैं कि मेहरबानी कर फलां लिंक को खोलें, लाइक या कमेंट करें। यानी आप का एक लाइक अथवा कमेंट किसी खबर नवीस के लिए जिंदगी की खुराक हो सकता है।

यहां तर्क दिया जा सकता है ‍कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इससे मीडिया अपवाद कैसे हो सकता है? अखबारों ने अपनी जिंदगी जी ली, जी भर कर खेल लिया। अब बदले वक्त में इंटरनेट ने सब कुछ बदल कर रख दिया है। मिलेनियल पीढ़ी नेट को ही भगवान मानती है। हाथ में अखबार लेकर पढ़ना, उसके स्पर्श से रोमांचित होना, उसे सुबह की चाय का अनिवार्य साथी समझना, बिना अखबार के दिन सूना-सूना महसूस करना, यह सब 20 सदी के एहसास हैं। या यूं कहें कि यह विचार और सूचना की भूख कम, आदत की लाचारी ज्यादा है। अब जब सूचना के तमाम साधन मौजूद हैं, तब अखबार की जरूरत ही क्या है ? मोबाइल पर हर सूचना हर क्षण मौजूद है।

मुझे याद है कि 2011 में एक प्रतिष्ठित पत्र में लेख छपा था कि भारत में प्रिंट उद्योग के इतने अच्छे दिनक्यों चल रहे हैं, जब कि बाकी दुनिया में इंटरनेट धीरे-धीरे अखबारों को लील रहा है। ये वो दिन थे, जब अखबारों में नए-नए संस्करण निकालने की होड़ सी मची थी। हमारे इतने संस्करणयह गर्व के साथ कहा जाता था। अब यही बात दबी जबान से भी करने को लोग तैयार नहीं है। नोटबंदी के बाद दूसरा बड़ा झटका कोविड ने पिछले साल दिया, जब लोगों ने बड़ी तादाद में संक्रमण के डर के मारे अखबार बंद कर दिए। विज्ञापन राजस्व 67 फीसदी तक घट गया। हजारों पत्रकारों और मीडिया ‍कर्मियों की नौकरियां चली गईं। अखबार में काम करना दुरूस्वप्न बन गया। कुछ ऐसी ही हालत इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की भी है। मीडिया जगत ने सरकार से बेलआउट पैकेज भी मांगा। लेकिन सरकार के लिए दूसरी चिन्ताएं ज्यादा महत्वपूर्ण थीं और जागरूक मीडिया कोई भी सरकार नहीं चाहती। बीते सवा साल में कितने अखबार या चैनल बंद हुए अथवा वेंटीलेटर पर जिंदा हैं, इसका कोई निश्चित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह सैकड़ों में है। अखबार बंद होने से बेरोजगार हुए अनेक पत्रकार अब डिजीटल मीडिया या दूसरे नए मीडिया में अपना भविष्य तलाश रहे हैं। कई पत्रकार खुद प्रकाशक बन गए हैं। हालांकि वहां भी अपनी पहचान बनाने और पहचान बचाने की मारा-मारी है। इस बीच कई नवाचार भी देखने को मिल रहे हैं। मसलन नई न्यूज साइट्स, फैक्ट चैक पत्रकारिता, डाटा विश्लेषण पत्रकारिता, सनसनीखेज बहसें आदि। इनमें से कई तो लोगों से चंदा करके अपने वेंचर चला रहे हैं। हर खबर को मसालेदार बनाने का चलन आम होता जा रहा है। उधर यू ट्यूब आदि पर तो ऐसे पत्रकारों का सैलाब-सा आया हुआ है और मौलिकता दांव पर लगी हुई है। सोशल मीडिया में जो दिखाया, बताया जा रहा है, वो कितना सही, कितना गलत है, कितना ज्ञान और कितना एजेंडा है, समझना मुश्किल है।

दूसरी तरफ देश में छपने वाले अखबारों की संख्या सिकुड़ने से सोशल मीडिया और खासकर व्हाॅट्स एप पर हम एक नया पीडीएफ कल्चरपनपते देख रहे हैं। अपने ग्रुप में यथाशीघ्र जमाने भर के अखबारों की पीडीएफ उपलब्ध कराना भी अब एक नई समाज सेवाहै। यह बात अलग है कि इन्हें मुहैया कराने वाले ज्यादातर पीडीएफ सेवकों और पीडीएफ पाठकों को भी पीडीएफका फुल फार्म ( पोर्टेबल डाॅक्युमेंट फार्मेट ) और अर्थ भी शायद ही मालूम होता हो। लोग इतना ही जानते हैं कि व्हाट्स एप पर झलकने वाला अखबार ही पीडीएफ है। आंखों पर जोर डालने वाले ये आॅन लाइन ‍अखबार कितनी गंभीरता से पढ़े जाते हैं, कहना मुश्किल है। अलबत्ता लेकिन किसी खास लेख या खबर को पढ़वाने के लिए भी लेखक या रिपोर्टर को पूरा दम लगाना पड़ता है। यानी समग्रता में अखबार पढ़ना और उस पर मनन का युग भी समाप्ति की ओर है। यह पीडीएफ पत्रकारिता भी बच्चों को रात में तारे दिखाने जैसी है। लेकिन इससे इतना फायदा जरूर हुआ है कि वो तमाम अखबार, जिनके शीर्षक भी आपके लिए मनोरंजन का कारण हो सकते हैं, खूब आॅन लाइन हो रहे हैं।

इसी के साथ एक नई डिजीटल पत्रकारिता संस्कृति भी फल-फूल रही है। गुजरे जमाने में लोग अखबार मांग कर पढ़ते थे, अब डिजीटल में अपनी खबर या लेख लोगों को पढ़वाने गुहार करती पड़ती है। एक ही खबर या सूचना पचासों ग्रुपों में अलग-अलग लिंक के रूप में पोस्ट होती रहती है। हर लिंक आप से लाइक और कमेंट मांगती है ताकि उसके हिट्स बढ़ें। कुलमिलाकर माहौल किसी धार्मिक स्थल पर जमे भिक्षुओं की माफिक होता है। यानी एक लाइकया एक हिटका सवाल है बाबा ! इस लिंक सैलाबके चलते डिजीटल मीडिया में विविधता का भारी का अकाल है। मौलिकता का घोर टोटा है। संपादन की कंगाली है। ऊपर से एक ग्रुप से बचो तो वही खबर दूसरे ग्रुप में लिंक के रूप में आपको चुनौती देती लगती है। संतोष की बात केवल इतनी है कि आप सोशल मीडिया पर जो चाहो, जैसा चाहो, कह सकते हैं, पोस्ट और फारवर्ड कर सकते हैं। क्योंकि किसी के पास सोचने, समझने और मेहनत के साथ उसे अभिव्यक्त करने का न तो वक्त है और न ही ऐसी कोई इच्छा है। दरअसल सोशल मीडिया खबरों का लंगरहै। जिसको जो मिले, जैसा बने, परोसता रहता है। लोग भी उसे पूरा पढ़े या समझे बगैर फारवर्ड करते रहते हैं। यानी यहां उद्देश्य सूचना की जिज्ञासा के शमन से ज्यादा उसकी चिंगारी सुलगाते रहना होता है। सोशल मीडिया के गुलाम हो चुके, लोगों की मजबूरी यह है कि उन्हें भी हर पल कुछ नया चाहिए। वो सही है या गलत है, इससे किसी को कोई खास मतलब नहीं होता।

सोशल मीडिया की यह अराजकताभी अब एक बड़ी ताकत बन चुकी है, जो सत्ताओं को भी हिला देती है। भविष्य का मीडिया यही है। अखबार चाटकर उससे दिमागी भूख मिटाने का दौर खत्म हुआ समझो। सोशल मीडिया पर हर पल आने और फारवर्ड होने वाली सूचनाएं चैंकाने, भड़काने या फिर डराने वाली ज्यादा होती है। इन पर अविश्वास के साथ विश्वास करते जाने का एक नया सामाजिक संस्कार हिलोरें ले रहा है। ऐसा संस्कार जिसकी कोई जवाबदेही नहीं है। हालांकि सरकार सोशल मीडिया पर कानूनी नकेल डालने की कोशिश कर रही है, लेकिन वह बहुत ज्यादा कामयाब नहीं होगी ( उससे राजनीतिक प्रतिशोध का मकसद भले पूरा हो जाए)। क्योंकि यह मूलतरू बिगडैल या स्वच्छंद सांड का बस्ती में घूमना है। लोग उससे डरते भी हैं, साथ में उसे देखते और छेड़ते भी हैं।

किसी ने कहा था कि ये दुनिया अब कोविड पूर्वऔर कोविड पश्चातमें विभक्त हो जाएगी। अखबारों की थमती सांसें, मीडियाकर्मियों की बेकारी-लाचारी और सोशल मीडिया की बेखौफ लंगोट घुमाने की अदा यही साबित करती है कि तकनीक के साथ सूचनाओं की बमबारी और बढ़ेगी। लोग उससे घायल भी होंगे। लेकिन सूचनाओं की विश्वसनीयता वेंटीलेटर पर पड़ी दिखेगी। इसका आगाज हो चुका है। 

वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश

धन-रमा कनौजिया

साहित्य के नवांकुर

रमा कनौजिया
इक वस्तु जिसे कहते सब धन

है इसके लिए कुछ बदले मन ।

न स्थिर रहने वाला, गति करता है

फिर क्यों? मनुस ईमान भी धरता है।।

 

हैं चर्चे इसके जगत व्यहार में

हर कोई इसको जाने अपना माने,

क्या बच्चे, क्या बूढ़े और जवान

न मिले तो बन जाते हैं हैवान।।

 

माना कि है जीवन में जरुरी,

किन्तु मनुज, आधार तो नहीं

संतोष पर असंतोष की जीत को,

अपने पर हावी होने तो न दो।।

 

चाहे काली हो या गोरी सूरत

है सबको ही इसकी  जरूरत।

पापी से लेकर धर्मात्मा तक

जताते, सब अपना अपना हक ।।

 

बावली हुई है रे दुनिया सारी

दुश्मन हो गई लोगों की यारी।

मानव की सोच समंदर में

भाव हैं इसके अपने कलंदर के  ।।

 

ग्राम व पोस्ट- गुदरिया

जिला - लखीमपुर खीरी

जाड़ा-अक्षत अरविन्द

नवांकुर नन्हे-मुन्हे कवि

आया जाड़ा आया जाड़ा,

पढ़ने लगे हैं दाँत पहाड़ा।

हवा चल रही ठंडी-ठंडी,

बंद करो अब खुले किवाड़ा।

सूरज कोहरे से डर जाता,

गर्मी ने भी पल्ला झाड़ा।

दादी हलुआ दो गाजर का,

शकरकंद दो और सिंघाड़ा।

पड़े रहे  बिस्तर में हरदम,

जाड़े ने हर खेल बिगाड़ा।

 

अक्षत अरविन्द

कक्षा-5

श्री राजेन्द्र गिरि मेमोरियल एकेडमी गोला गोकर्ण नाथ-खीरी

 पता-नन्दी लाल निराशहनुमान मंदिर के पीछे

लखीमपुर रोड गोला गोकर्णनाथ-खीरी

Wednesday, June 23, 2021

ग़ज़ल-ओमप्रकाश गौतम

ओमप्रकाश गौतम
गई हैं क्यूं शये बाजार , अब ये बेटियां। 
कश्तियों के वास्ते, मझधार अब ये बेटियां। 
इस जमाने में भला ,उस बाप को निद्रा कहां। 
ब्याह के काबिल हुईं, तैयार अब ये बेटियां।। 
मुल्क के आईन ने हर, जर पे इनको हक दिया। 
मांगती कब पापा से, अधिकार अब ये बेटियां।। 
कहने को विद्वान हैं जो ,इल्म के हैं बादशा। 
बिन दहेजों के कहां ,स्वीकार अब ये बेटियां।। 
हुस्न के बाजार में, किरदार की कीमत कहां । 
हर गुणों से युक्त हैं ,बेकार अब ये बेटियां।। 
पूछते हैं लोग हम से ,हैं दिए तहजीब क्या। 
है तेरी तहजीब, ना इकरार अब ये बेटियां।। 
कर लिया पत्थर कलेजा ,गौतम उस दिन बाप ने। 
छोड़ कर जो रहीं, घर-बार अब ये बेटियां ।।

राजनीति महज ‘कॅरियर’ है या वैचारिक संघर्ष का प्लेटफार्म-अजय बोकिल


अजय बोकिल
उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पार्टी में ब्राह्मण चेहरा रहे जितिन प्रसाद के भाजपा में शामिल होने पर कांगेस नेता शशि थरूर ने एक मार्के का ट्वीट किया था। थरूर ने सवाल उठाया था कि क्या राजनीति विचारविहीन कॅरियर हो सकती है? क्या सियासी पार्टी बदलने से व्यक्ति की वैचारिक प्रतिबद्धता भी आईपीएल में टीम बदलने वाले क्रिकेटर की तरह हो सकती है? ये सवाल केवल ‍जितिन प्रसाद के कल तक धर्मनिरपेक्षता का गुणगान करते-करते अचानक भगवा खेमे में आकर राष्ट्रवादी हो जाने तक सीमित नहीं है बल्कि बंगाल में उन टीएमसी नेताओं कार्यकर्ताओं पर भी लागू होते हैं, जो चुनाव के पहले अपनी मूल पार्टी तृणमूल कांग्रेस छोड़कर भाजपा की पुंगी बजाने लगे और सत्ता न मिली तो वापस दीदी की पालकी उठाने टीएमसी में लौटने लगे हैं। यह सवाल उन नवजोत सिद्धुओं, नाना पटोलेओं और उन तमाम दलबदलुओं पर भी लागू होते हैं, जिनके लिए राजनीति केवल सत्ता दोहन का जरिया है। ऐसे लोग सियासी खानाबदोश की तरह कभी भी किसी भी पार्टी में किसी भी विचारधारा के साथ फ्लर्ट कर सकते हैं और उसे स्वीकार या खारिज कर सकते हैं। यह कहकर कि पुरानी पार्टी में उनका ‘दम घुट’ रहा था, इसलिए नई पार्टी में आए। और अब नई पार्टी की हवा में भी उनका ‘दम घुट’ रहा है, इसलिए पुरानी पार्टी में दम मारने वापस जा रहे हैं। इस दृष्टि से किसी पार्टी में किसी नेता या कार्यकर्ता का ‘दम घुटना’ और दूसरी किसी पार्टी में थोड़े समय के लिए ही सही ताजी हवा खाने को हमे मेडिकल के बजाए ‘राजनीतिक‍ चिकित्साशास्त्र’ की शब्दावली में समझना होगा। थरूर ने जो सवाल उठाए, उसे और आगे इस बात से बढ़ाया जा सकता है कि अगर राजनीति वैचारिक लड़ाई है तो क्या यह लड़ाई परिवारवाद या वंशवादी तरीके से ज्यादा बेहतर लड़ी जा सकती है या फिर संघर्ष से उभरे एकल चेहरों के मार्फत ज्यादा विश्वसनीय तरीके से लड़ी जा सकती है? भरतीय राजनीतिक परिदृश्य में आज हम राजनीतिक संघर्ष की इन दो शैलियों में भी अंदरूनी टकराव देख रहे हैं। 
पहले राजनीति को कॅरियर मानने की बात। इस संदर्भ में पहला सवाल तो यह कि कोई व्यक्ति राजनीति में क्यों आता है? कौन सा दबाव या अंतरूप्रेरणा उसे ऐसा करने पर विवश करती है? क्योंकि राजनीति में प्रवेश या राजनीति करना आजीविका के लिए किए जाने वाले किसी भी उपक्रम से अलग और स्वैच्छिक है। इसका पहला उत्तर तो सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा की चाह है। दूसरा कुछ अंश समाज सेवा का भी हो सकता है। लेकिन तीसरा और सबसे अहम मुद्दा किसी राजनीतिक दल की विचारधारा से उसका किसी न किसी रूप में सहमत होना या उसकी तरफ स्वाभाविक झुकाव होता है। वरना वो राजनीतिक दल से सम्बद्ध होने के बजाए अ- राजनीतिक या आध्यात्मिक रहकर भी समाज सेवा कर सकता है। किसी विशिष्ट राजनीतिक‍ विचार के प्रति यह झुकाव या उसे आत्मसात करने के पीछे सम-सामयिक राजनीतिक- सामाजिक परिस्थिति, अंतर्द्वंद्व, पारिवारिक संस्कार या फिर वर्तमान के प्रति आक्रोश के कारण भी हो सकता है। वह इसे कुछ सीमा तक बदलना या फिर उसका अपने हित में दोहन करना चाहता है। बहुत से लोग समाज में नेताओं के सामाजिक दबदबे और उनके हमेशा चंपुओं से घिरे रहने को ही असली जलवा मानकर स्वयं भी उसी स्थिति को प्राप्त करने की आकांक्षा से राजनीति में आते हैं। लेकिन किसी विचार को जीवित रखने, उसे आगे बढ़ाने, उसकी रक्षा के लिए जी-जान लगाने, सब कुछ लुटाने का भाव रखने वाले उंगली पर गिनने लायक ही होते हैं। और मलाई खाने के वक्त ऐसे चेहरों को अक्सर पीछे धकेल दिया जाता है। बल्कि आजकल तो इसे राजनीतिक पिछड़ापन ही माना जाता है। लुब्बोलुआब यह कि राजनीति में जाना भी मूलतरू वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण ही होता है न कि केवल किसी तरह सत्ता हासिल करने के मकसद से। स्वतंत्रता आंदोलन भी इसी भाव से प्रेरित हस्तियों ने खड़ा किया, चलाया और अंततरू सफलता प्राप्त की। वैचारिक मतभेद तब भी होते थे, लेकिन अंतरात्मा की सरेआम नीलामी नहीं होती थी, जैसे कि आज होती है। 
आजकल एक तर्क बहुत दिया जाता है कि राजनीति भी अंततरू एक प्रोफेशन ( व्यवसाय) है। इसकी अपनी नैतिकता और मूल्य हैं, जो ‘प्रोफेशनल प्रोग्रेस’ की आकांक्षा से जन्मते और व्यवह्रत होते हैं। इसमें वैचारिक निष्ठा का क्रम बहुत नीचे होता है, जैसे कि बायो डाटा में यह बहुत संक्षेप में दिया जाता है कि आपने कहां-कहां नौकरी की। महत्वपूर्ण होता है कि आप का अगला ‘जम्प’ कितना और कैसा है? इसी कड़ी में राजनीति को खानदानी पेशा बताने की वकालत यह कहकर की जाती है कि जब इंजीनियर का बेटा इंजीनियर, वकील का बेटा वकील और कलाकार का बेटा कलाकार हो सकता है तो राजनेता का बेटा राजनेता बने तो गलत क्या है? यह अर्द्धसत्य है, इसलिए क्योंकि बहुत कम लोग हैं जो पारंपरिक पेशे को ही आगे बढ़ाना चाहते हैं। और उसे अपनाते भी हैं, तो वह मूलतरू आजीविका के लिए तथा स्थापित व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए होता है। इसमें समाोज या व्यवस्थाल परिवर्तन का कोई आग्रह नहीं होता। वह शुद्ध रूप से कारोबार होता है। आर्थिक नफा- नुकसान और गादी चलाते रहना ही उसका पैमाना होता है। 
लेकिन राजनीतिक विचारधाराएं किसी कारोबार को चलाने या बढ़ाने के लिए नहीं जन्मतीं। वह समूची व्यवस्था और समाज को बदलने का वैचारिक विकल्प प्रस्तुत करती हैं। देश उससे कितना सहमत होता है, यह अलग बात है। अगर होता है तो वह उसी विचार को राजनीतिक दल के रूप में प्रमोट करता है। सत्ता सौंपता है। मानकर कि दल या दल के नेता सत्ता को बपौती नहीं समझेंगे बल्कि व्यवस्था संचालन या बदलाव के लिए मिला संवैधानिक दायित्व समझेंगे। अर्थात ‍किसी भी नेता को अपनी वैचारिक निष्ठा को केवल ‘लिव इन रिलेशनशिप’ नहीं मानना चाहिए।
लेकिन आज जो हो रहा है वह वैचारिक निष्ठा की निर्लज्ज नीलामी जैसा है। नेता रहता एक दल में है और मनमाफिक महत्व न मिलने पर दूसरे में जाने के लिए भीतर से तार जोड़े रखता है। जिस दल में रहते हुए वह ‘दिन को दिन’ कहता था, दूसरे दल में जाते ही वह उसी दिन को ‘रात’ कहने में नहीं हिचकता। उसी प्रकार पार्टी की निगाह में भी जो नेता कल तक बहुत ‘महत्वपूर्ण’ था, पार्टी छोड़ते ही सबसे ‘नालायक’ बन जाता है। सबसे हैरानी की बात तो यह होती है कि वह ‘निष्ठावान’ होने के कारण ही पार्टी छोड़ने पर ‘विवश’ होता है और ‘निष्ठावान’ होने के कारण ही दूसरी पार्टी में जाता है। यहां निष्ठा ‘गांव की भौजाई’ की माफिक होती है। जब चाहे‍ ‍िजसके साथ हो ली। क्योंकि नेता को चाह भौतिक सुख-साधनों और सत्ता की है और उसके लिए यही राजनीति है और किसी प्रकार से सत्ता के काफिले में शामिल हो जाना ही ‘राजनीतिक मोक्ष’ है। जाहिर है कि यह शुद्ध राजनीतिक कॅरियर वाद है, जिसका लक्ष्य केवल आत्म या अपनो का कल्याण है। जबकि ‍वैचारिक लड़ाई में विचार की विजय और उसकी सामाजिक-राजनीतिक प्रतिष्ठापना राजनेता का अंतिम लक्ष्य होती हैं। क्रांतियां इसी अडिग प्रतिबद्धता से जन्म लेती हैं। लेकिन कॅरियरवादी राजनेता कोई क्रांति नहीं करते न कर सकते हैं, सिवाय अपने ही उसूलों की भ्रूण हत्या के। चलती गाड़ी में सवारी की यह मानसिकता किसी भी देश के नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक पतन का स्पष्ट संकेत है। वंशवाद इस पतन की गति और तेज करता है बजाए उसे थामने के। या फिर वह यथास्थिति को बनाए रखने के लिए पूरी ताकत लगा देता है। किसी राजनेता की वैचारिकता के बिकने का सीधा अर्थ उसकी आत्मा के बिकने जैसा है। और आत्माविहीन कोई कॅरियर भी वैध कैसे हो सकता है? जरा सोचें ! 

वरिष्ठ संपादक दैनिक सुबह सवेरे मध्य प्रदेश

Tuesday, June 22, 2021

विवादों को दरकिनार कर अनुप्रिया पटेल ने मां कृष्णा पटेल के लिए मांगी एमएलसी सीट: खबर की सच्चाई पर सामाजिक-राजनैतिक विश्लेषण: -एसोसिएट प्रोफ़ेसर एन०एल० वर्मा

-----------------------हिंदुस्तान में छपी खबर------------------------------------------
       प्रदेश व केंद्र सरकार में भाजपा की सहयोगी अनुप्रिया पटेल की अगुवाई वाले अपना दल (सोनेलाल) ने विधान परिषद में खाली हो रही मनोनीत क्षेत्र के चार (एमएलसी सीटें) सदस्यों में से एक सदस्य पद देने की मांग की है। अपना दल (एस) ने प्रदेश भाजपा के शीर्ष नेताओं के सामने अपनी यह मंशा जाहिर कर दी है। पार्टी सारे विवादों को किनारे रखकर स्व. सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल को एमएलसी बनाना चाहती है, ताकि  विधानसभा चुनाव में पार्टी परिवार की पूरी एकता के साथ जनता के बीच नजर आए।
     अनुप्रिया पटेल की पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने भाजपा के शीर्ष नेताओं को यह समझाने का प्रयास किया है कि इसका लाभ विधान सभा चुनाव के दौरान राज्य में एनडीए के सभी प्रत्याशियों को मिलेगा। कृष्णा पटेल के साथ आ जाने से विपक्षियों को चुनाव में पटेल समाज को दिग्भ्रमित करने का मौक़ा भी नहीं मिलेगा। मिली जानकारी के मुताबिक कृष्णा पटेल के नाम पर सहमति न बनने की स्थिति में अपना दल (एस) स्व. डा. सोनेलाल पटेल के राजनैतिक सहयोगी रहे किसी पुराने कुर्मी नेता को विधान परिषद में भेजना चाहेगी। विधान परिषद में सपा के चार मनोनीत सदस्यों का कार्यकाल पांच जुलाई को समाप्त हो रहा है।
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खबर की सच्चाई पर सामाजिक-राजनैतिक विश्लेषण: -एसोसिएट प्रोफ़ेसर एन०एल० वर्मा
नन्द लाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
9415461224,8858656000
       अनुप्रिया पटेल ने बीजेपी के सामने पारिवारिक एकता और एनडीए के राजनैतिक लाभ की दुहाई देकर बीजेपी पर राजनैतिक दबाव/सौदेबाज़ी का एक बड़ा दांव चल दिया है। "एक तीर से दो शिकार" की कहावत चरितार्थ हो सकती है। यदि ऐसा होता है तो "देर आये दुरुस्त आये" की कहावत भी चरितार्थ होती नजर आएगी। यदि ऐसा करने में अनुप्रिया पटेल सफल हो जाती हैं तो एक तरफ पारिवारिक सौहार्द् की वापसी होने की प्रबल संभावना  और दूसरे गुट के राजनैतिक आधार का लाभ भी बीजेपी को मिलने के साथ उनकी मां को अथवा डॉ. सोने लाल पटेल के किसी पुराने कुर्मी सहयोगी को अपना दल विधान परिषद में भेजने में सफल हो जाएगा। यदि कृष्णा पटेल को अनुप्रिया पटेल का यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं होता है तो सोने लाल पटेल के किसी पुराने राजनैतिक कुर्मी नज़दीकी को विधान परिषद में भेजकर कृष्णा पटेल गुट में सामाजिक-राजनैतिक सेंध लगाने का एक अप्रत्यक्ष प्रयास कुछ सीमा तक सफल हो सकता है और साथ ही पारिवारिक-राजनैतिक सौहार्दता और एकता पुनर्जीवित करने की अपनी राजनैतिक पहल के संदेश को  चुनाव के समय कुर्मी समाज के सामने पूरी संवेदनाओं,भावनाओं और पूरी दमदारी के साथ पेश कर सकती हैं जिसका तात्कालिक राजनैतिक लाभ अपना दल (एस) को मिल सकता है।उल्लेखनीय है कि बीजेपी की सहयोगी और विधानसभा चुनाव 2022 में भी अनुप्रिया पटेल के बीजेपी के साथ जाने की पूर्ण संभावना को देखते हुए अपना दल के दूसरे गुट(कृष्णा पटेल) की नेता और अनुप्रिया पटेल की बहन पल्लवी पटेल भी राजनैतिक अवसर की तलाश में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव से संपर्क साध चुकी हैं।अनुप्रिया पटेल की इस पारिवारिक सौहार्दता और राजनैतिक उदारता पल्लवी पटेल की अखिलेश यादव से हुई राजनैतिक मुलाकात की परिणिति तो नही है?
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Asmita a ray of hope - Akhilesh Arun

  Editorial  

Created Asmita (Jan Ki Baat) blog/page for her works.  which were disqualified from literary pen of news and editorial department of magazines. Someone has said that creations are not bad. In the year 2019 or 2020, no major literary award (sorry can't remember, I will include remembrance) was given to such a person whose composition (book) was returned by not one but many editors saying that this book (manuscript) is meaningless. And it's pointless. Therefore, keep writing, you should have a positive attitude towards the article that comes to mind, and at the same time keep in mind that what we are writing is meaningful in itself, it is necessary to evaluate it by ourselves.

 

In view of my writing interest, the first suggestion to publish my articles on the blog was given by my own middle brother Naval Kishore. Because he went to Dubai after completing his graduation due to the financial condition of the house, it became necessary to get a smart phone to talk to the family and us. As a result, the brother has already entered the world of technology. We were able to join late due to our studies and personal problems and financial condition etc. My reading and writing work was going on, but the work of teaching in school would be in the month of September or November, it would be the year 2010 or 2011, when I started teaching at the end of the month, then we got 390 rupees as remuneration according to the days taught. My own first earning was that money was used to get a jacket which was probably worth Rs 590. Because of my single body, we got along with him for 10 or 11 years. In such a situation, getting smart mobile phones etc. was outside my Transient.

 

The arrival of the laptop (Naval Kishor had brought it from Dubai) paved the way to enter social media, in this world my middle brother is my guru. Started using Facebook, Twitter, etc. from 2014. But occasionally…… here the continuity continues from 2016, Since then till today I have made some acquaintance in the field of writing. In writing, I am from class six, in the writing of that time, the predominance of emotion and rhythm was more and at the same time that writing was flawed. The first composition story "The Unknown Attacker (agyat hamlavar)" appeared in the 2010/2011 issue of Saras Salil. Since then the process of writing started, Facebook, Twitter are good medium in the field of writing to create a global identity for new writers..... become an international identity, overnight; what else do you want? Asmita Blog Page From this year onwards, it has become an online platform for the works of all your literary companions. 5 or 6 months ago from today a meeting was held with my Teacher (guru ji) Mr. Rajkishor Gautam regarding literature. This is the place where we first met Mr. Suresh Saurabh. We keep getting to read your creations on Facebook etc. We were not fond of literary introduction, but the first meeting of both of us took place here first face to face. The literary relationship deepened. The idea of ​​creating an online web page in this area came to the mind of Mr. Suresh Saurabh  (leading litterateur of the our district), about which discussions started taking place among-st us. A meeting in this regard was held again at an interval of a month in which Mr. Rajkishor (Lecturer of English), Mr. Nandlal Verma (Associate Professor), Mr. Suresh Saurabh (literary writer), Mr. Shyamkishore Bechain (poet), Mr. Ramakant Choudhary  (advocate/poet) and others were present.

In which it was decided that it will be operated by me because I have some attachment in the online (internet) world... I gladly accepted. The operation of this page is just an experiment in the field of literature of the Our district and this experiment has also been successful. We are happy that since the last month of May till now, there has been a lot of support from literary colleagues and readers. While putting up the compositions, it has also been seen that the budding litterateurs of the district have also come out, whose works have been revised and published under the 'Sahitya Ke Navankur' column and which give them the nuances related to literature. Gladly accepted and reposted his compositions, which showed a lot of improvement in them. We, on behalf of the editorial board, wish and congratulate these Navankur literary colleagues for their bright future. In the field of literature, sharpen your writing at uninterrupted speed and become the voice of the public.

 

On this page, we are getting the support of great thinkers, writers, litterateurs, companions (gurus for me) of literature, we are very grateful to them and hope that your cooperation and guidance in literature will always be available. With this, we stop this writing here.

translated on 22.06.2021 

sub-editorial

Asmita Blog/Page

https://anviraj.blogspot.com

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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