तुम्हारे ज्ञान का आलोक
शब्दों की कारीगरी का अमिट उजास
जो पुस्तकों में छुपा था,
उसे चिन्हित कर
तुम खुद जगमगाए।
उस ज्ञान की लौ का
अपरिमित विस्तार
तुमने फैला दिया
अंधेरों में सिसकने वाले
निरीहों तक।
आँखों में पाकर उजले स्वप्न
ले हाथों में कलम की शक्ति
अपराजेय
जो ललकारती निर्भय होकर,
जो दहाड़ती निशंक होकर।
गूँज इस दहाड़ की
स्मरण करवाती
हर श्वास के साथ
तुम्हारा!
ओ!महामानव!
राह सुझाती हर दिशाहीन को।
तुम्हारी चेतना,
तुम्हारी सजगता,
तुम्हारा आह्वान,
तुम्हारा मानवाधिकारों के लिए
क्रांति का स्फुरण,
आज
परिणति बनकर
जड़ों-जड़ों सा अनवरत
सुदूर फैल रहा विशाल बरगद की तरह।
इस बरगद की छांव में पनपा
हर बीज अपनी-अपनी सफलता की
स्वर्णिम हरीतिमा के साथ
दोहराए.....
अपनी यही परंपरा
किसी अन्य की स्वप्निल हरियाली के
यथार्थ बनने तक।
बाबा तुम्हारे मिशन के हर छोर
तक... दूर - दूर तक........
बहुत
दूर - दूर तक....... ।
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डॉ नूतन सिन्धु |
डॉ
नूतन सिन्धु (व्याख्याता)
नारनौल,
हरियाणा