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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०
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Tuesday, July 16, 2024

केवल आरक्षण से ही आधे आईएएस एससी-एसटी और ओबीसी,लेकिन वे शीर्ष पदों पर क्यों नहीं पहुंच पाते-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


【अधिकारियों के लिए न्यूनतम और अधिकतम कार्यकाल/अवधि तय होनी चाहिए और शीर्ष पदों के लिए गठित पैनल को गैर-विवेकाधीन, मैट्रिक्स-आधारित और पारदर्शी बनाना होगा】
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी
9415461224.
कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पर लोकसभा में बोलते हुए एक महत्वपूर्ण विषय के तार छेड़ दिए,जिसे जानते तो सभी हैं,लेकिन उन पर बड़े मंचों पर चर्चा तक नहीं होती है। महिला आरक्षण के अंदर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करते हुए राहुल गांधी ने कहा था कि आज की सरकार में सचिव स्तर की नौकरशाही पर सिर्फ तीन ओबीसी अफसर हैं। यानी देश की आधी से ज्यादा उनकी आबादी और हर वर्ष 27% आरक्षण से ओबीसी अधिकारी चयनित होने के बावजूद उनकी भारत सरकार के सिर्फ 5 प्रतिशत बजट निर्धारण में ही भूमिका है। इस मुद्दे को उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस,भारत जोड़ों की पैदल यात्रा और चुनावी रैलियों में भी उठाया और आरक्षण विरोधी नरेंद्र मोदी सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया।
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इसके जवाब में भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार ने यह तो नहीं कहा कि राहुल गंधी का ओबीसी अफसरों का बताया हुआ आंकड़ा गलत है,लेकिन जवाबी राजनीतिक हमला करते हुए कहा कि जब केंद्र में कांग्रेस की सत्ता थी, तो उसने ओबीसी अफसरों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या किया? कैबिनेट मंत्री किरेन रिजीजू ने इस बारे में एक्स पर पोस्ट किया था कि इस समय वही अफसर सचिव बन रहे हैं जो 1992 के आसपास नौकरी में आए थे। इसलिए कांग्रेस को बताना चाहिए कि ओबीसी अफसरों को आगे लाने में कांग्रेस की सरकारों की भूमिका क्या रही?
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2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों तक ऐसा लगता था कि सामाजिक न्याय पर ओबीसी के मुद्दे पर काफी चर्चा होगी और नौकरशाही के शीर्ष पर ओबीसी अफसरों के यथोचित प्रतिनिधित्व न होने या कम होने पर भी काफी चर्चा होगी,लेकिन चुनावी रैलियों और चुनावी घोषणा पत्र में सामाजिक न्याय पर ओबीसी अफसरों के प्रतिनिधित्व और महिला आरक्षण बिल में ओबीसी महिलाओं का आरक्षण न होने और जातिगत जनगणना पर जिस तेजी और जोर शोर से चर्चा होनी चाहिए थी, वह नहीं होती दिखी। मोदी के अबकी बार 400पार के नारे के निहितार्थ पर बीजेपी के कतिपय नेताओं की संविधान बदलने के बयान से एससी-एसटी और ओबीसी समाज मे यह संदेश घर कर गया कि यदि इस बार बीजेपी को दो तिहाई बहुमत हासिल हो जाता है तो संविधान में महत्वपूर्ण बदलाव किया जा सकता है। यदि संविधान बदला तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण तो खत्म हो ही जाएगा। इस बार के लोकसभा चुनाव में संविधान और लोकतंत्र का मुद्दा फेज़ दर फेज़ जोर पकड़ता चला गया जिसका सर्वाधिक प्रभाव यूपी में पड़ा जहां बीजेपी इस बार राम मंदिर के नाम पर अस्सी की अस्सी सीटें जीतने का दावा कर रही थी,वहां अयोध्या की सीट पर वहां की जनता ने बीजेपी को हराकर यह संदेश दे दिया कि हिन्दू बनाम मुस्लिम की राजनीति अब चलने वाली नहीं है। मंदिर और मुस्लिम मुद्दा इस बार चुनाव में कहीं भी जोर पकड़ते नहीं दिखा जिसके चलते वह यूपी में मात्र 33 सीटें ही जीत पाई और इस चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि कि अयोध्या में एक दलित समाज के व्यक्ति से बीजेपी के कथित रघुवंशी लल्लू सिंह को हार का सामना करना पड़ा जो बीजेपी के राम मंदिर निर्माण की जनस्वीकार्यता पर बड़ा सवाल खड़ा करती है। बनारस से मोदी जी की जीत की असलियत पर भी सवाल उठ रहे हैं। फ़िलहाल वह हार से बचा लिए गए।
राहुल गांधी ने ओबीसी नौकरशाही की सहभागिता का मुद्दा तो सही उठाया था,लेकिन उनका यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि इसकी सारी जिम्मेदारी वर्तमान मोदी सरकार की ही है। यह नौकरशाही की संरचना,उसके काम करने के तरीके और उसके जातिवादी चरित्र से जुड़ा मामला है और किसी भी पार्टी की सरकार के आने या जाने से इसमें बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। इस समस्या का यदि वास्तव में समाधान करना है तो वह नौकरशाही की संरचना और उसकी चयन प्रक्रिया के स्तर पर ही सम्भव हो सकता है।
तीन प्रस्तावित समाधान:
आईएएस अफसरों के नौकरी में आने की अधिकतम उम्र 29 साल हो और इसी दायरे के अंदर विभिन्न कैटेगरी को उम्र में जो भी छूट देनी हो, दी जाए या फिर सभी अफसरों की नौकरी का कार्यकाल बराबर किया जाए,ताकि सभी श्रेणी के अफसरों को सेवा के इतने वर्ष अवश्य मिल जाएं ताकि वे भी नौकरशाही के शीर्ष स्तर तक पहुंच पाएं। नौकरी के अलग-अलग स्तरों पर जब अफसरों को चुनने के लिए पैनल बनाया जाए तो यह प्रकिया पारदर्शी हो और इसमें मनमाने तरीके से किसी को चुन लेने और किसी को खारिज कर देने का वर्तमान चलन पूरी तरह से बंद होना चाहिए। अफसरों की सालाना गोपनीय रिपोर्ट(सीआर) के मामले में जातिवादी मानसिकता पर अंकुश लगे और भेदभाव को प्रक्रियागत तरीके से सीमित किया जाए।
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इन उपायों पर चर्चा करने से पहले यह ज़रूरी है कि इस विवाद के तीन पहलुओं पर आम सहमति बनाई जाए। सबसे पहले तो सरकार और नीति निर्माताओं को सहमत होना होगा कि भारतीय नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता का अभाव है और एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर उच्च पदों पर आनुपातिक रूप से बहुत कम हैं। 2022 में संसद में पूछे गए एक सवाल के जवाब में तत्कालीन केंद्रीय कार्मिक मंत्री डॉ.जितेंद्र सिंह ने सरकार की तरफ से जानकारी दी थी कि संयुक्त सचिव और सचिव स्तर पर केंद्र सरकार में 322 पद हैं,जिनमें से एससी,एसटी,ओबीसी और जनरल (अनारक्षित वर्ग) कटेगरी के क्रमश: 16, 13, 39 और 254 अफसर हैं। 2022 में ही पूछे गए एक अन्य सवाल के जवाब में डॉ.सिंह ने सदन को जानकारी दी थी कि भारत सरकार के 91 अतिरिक्त सचिवों में से एससी-एसटी के दस और ओबीसी के चार अफसर हैं,वहीं 245 संयुक्त सचिवों में से एससी-एसटी के 26 और ओबीसी के 29 अफसर ही हैं। आख़िर निर्धारित प्रतिशत तक आरक्षण और ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में अतिरिक्त जगह बनाने के बावजूद उच्च नौकरशाही के हर स्तर पर आरक्षित वर्ग के अधिकारियों का न्यूनतम आनुपातिक प्रतिनिधित्व न होना,सरकार की संविधान विरोधी सोच को दर्शाता है।
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हमें दूसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि यह समस्या 2014 में बनी मोदी सरकार में ही पैदा नहीं हुई है,लेकिन यह तथ्य और सत्य है कि उन्होंने भी इसे ठीक करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। यह सच है कि यह समस्या 2014 से पहले से ही चली आ रही है। मिसाल के तौर पर,मनमोहन सिंह के यूपीए शासन के तुरंत बाद 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, केंद्र सरकार के 70 सचिवों में कोई ओबीसी नहीं था और एससी-एसटी के तीन-तीन ही अधिकारी थे। 278 संयुक्त सचिवों में सिर्फ 10 एससी और 10 एसटी और 24 ओबीसी थे।
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तीसरी सहमति इस बात पर बनानी चाहिए कि राजकाज और खासकर नौकरशाही में तमाम सामाजिक समूहों, खासकर वंचित समूहों की हिस्सेदारी न सिर्फ अच्छी बात है, बल्कि संविधान और लोकतंत्र के सामाजिक न्याय के लिए यह ज़रूरी भी है। किसी भी संस्था का सार्वजनिक या सबके हित में होना इस बात से भी तय होता है कि इसमें विभिन्न समुदायों और वर्गों की समुचित हिस्सेदारी है या नहीं! ज्योतिबा फुले ने उस समय इस बात को बेहतरीन तरीके से उठाया था,जब उन्होंने पाया कि पुणे सार्वजनिक सभा में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व ही नहीं है तो उन्होंने पूछा कि फिर यह सार्वजनिक सभा कैसे हुई? ज्योतिबा फुले के इस विचार को भारतीय संविधान में मान्यता मिली और अनुच्छेद 16(4) के तहत व्यवस्था की गई है कि अगर राज्य की नज़र में किसी पिछड़े वर्ग (एससी- एसटी और ओबीसी) का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व/हिस्सेदारी नहीं है तो सरकार उस वर्ग के लोगों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है।
उपरोक्त तीन स्थापनाओं पर सहमति के बाद हम उन कारणों पर विचार कर सकते हैं जिनकी वजह से एससी-एसटी और ओबीसी के नौकरशाहों की शीर्ष निर्णायक तथा महत्वपूर्ण पदों पर हिस्सेदारी नहीं है:
नौकरी में अलग-अलग उम्र में आना और कार्यकाल में अंतर:
1️⃣
सिविल सर्विस परीक्षा के लिए यूपीएससी के मापदंडों के हिसाब से अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैटेगरी के अभ्यर्थियों की अधिकतम उम्र 32 साल निर्धारित है। ओबीसी कैंडिडेट को तीन साल और एससी-एसटी कैंडिडेट इस उम्र में पांच साल की छूट है। यानी ओबीसी कैंडिडेट 35 साल तक और एससी-एसटी कैंडिडेट 37 साल की उम्र तक ऑल इंडिया सर्विस में आ सकते हैं,लेकिन इसका एक यह भी अर्थ है कि एससी-एसटी और ओबीसी के कई कैंडिडेट,अनारक्षित और ईडब्ल्यूएस कैंडिडेट्स के मुकाबले कम समय नौकरी कर पाएंगे। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है,क्योंकि सबसे लंबी अवधि तक नौकरी कर रहे कैंडिडेट्स से ही शीर्ष स्तर के अफसर चुने जाते हैं। उम्र में छूट की वजह से सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो सिविल सेवा के दो अफसरों के कार्यकाल में 16 वर्ष तक का अंतर हो सकता है,क्योंकि सभी वर्गों से एक अफसर न्यूनतम 21 साल की उम्र में और दूसरा आरक्षित वर्ग का अफसर अधिकतम 37 साल की उम्र में सर्विस में आ सकता है।
सकता है।
2️⃣
दूसरी समस्या उच्च पदों के लिए गठित एंपैनलमेंट की है। अभी व्यवस्था यह है कि सरकार का कार्मिक विभाग नियत समय की नौकरी पूरी कर चुके अफसरों से पूछता है कि क्या वे विभिन्न उच्च पदों के लिए एंपैनल होना चाहते हैं। जो सहमति देते हैं उनमें से कुछ अफसरों को उन पदों के पैनल में चुन लेती है। इसी पैनल से अफसरों को प्रमोशन के लिए चयनित किया जाता है। अभी पैनल में अफसरों को लेने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और इसमें विभाग के उच्च अधिकारियों का मंतव्य यानी उनकी राय महत्वपूर्ण होती है। चूंकि,उच्च पदों पर एससी-एसटी और ओबीसी के अफसर बहुत कम हैं तो आरक्षित वर्ग के अफसरों के प्रति एक स्वाभाविक पक्षपात हो सकता है, इस बात से इनकार तो नहीं किया जा सकता। इसलिए ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया में पक्षपात की आशंका को न्यूनतम किया जाए और विभिन्न मापदंडों को स्कोर के आधार पर निर्धारित किया जाए। अगर ऐसा कोई निष्पक्ष सिस्टम बना पाना संभव न हो तो फिर जिन अफसरों ने एक निर्धारित कार्यकाल पूरा कर लिया है,उन सभी को पैनल में ले लिया जाए। दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट ने कैबिनेट सेक्रेटेरिएट के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट्स औसतन लगभग 25 साल की उम्र में जबकि एससी-एसटी और ओबीसी औसतन लगभग 28 साल की उम्र में सेवा में आते हैं,यानि आरक्षित श्रेणी के कैंडिडेट अनारक्षित श्रेणी के कैंडिडेट से औसतन तीन साल कम नौकरी कर पाते हैं। प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल मानता है कि, आरक्षित श्रेणी के कई अफसर इस वजह से भी नीति निर्माता के स्तर पर नहीं पहुंच पाते हैं।
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि “आरक्षित वर्ग से बहूत कम अफसर ही सचिव स्तर तक पहुंच पाते हैं।” लोक प्रशासन पर बनी कोठारी कमेटी ने तो अनारक्षित वर्ग ही नहीं,आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट्स के लिए भी सिर्फ दो बार परीक्षा में बैठने की सिफारिश की थी। भर्ती नीति और चयन पद्धति पर इस समिति (डी.एस.कोठारी) ने परीक्षा चक्र के डिजाइन पर सिफारिशें प्रदान कीं, जिसके परिणामस्वरूप तीन चरणों में परीक्षा की वर्तमान प्रणाली शुरू की गई: एक प्रारंभिक परीक्षा जिसके बाद एक मुख्य परीक्षा और एक साक्षात्कार। इसके अलावा,ऑल इंडिया सर्विसेज के लिए एक ही परीक्षा की योजना शुरू की गई। देश में गठित कई सुधार आयोग और समितियां इस बात पर एकमत दिखती हैं कि ज्यादा उम्र के चयनित अफसर सेवा में नहीं लिए जाने चाहिए और सुधारों में यह सुझाव बेहद उपयोगी माना जाता है। 31अगस्त 2005 को जांच आयोग के रूप में वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सिफारिश की है कि सिविल सर्विस परीक्षा में बैठने के लिए अनारक्षित वर्ग हेतु उम्र 21 से 25 साल होनी चाहिए। ओबीसी के लिए इसमें तीन साल और एससी-एसटी के लिए अधिकतम चार साल की छूट हो। इस उम्र तक अगर लोग नौकरी में आ जाते हैं तो इस बात की पूरी संभावना होगी कि हर अफसर सचिव पद हेतु एंपैनल होने के अर्ह(योग्य) हो जाएगा। दूसरा सुझाव पहली नज़र में अटपटा लग सकता है,लेकिन अगर ज़िद है कि अफसर 32, 35 और 37 साल तक के हो सकते हैं तो ऐसा नियम बनाया जा सकता है कि किसी भी वर्ग से अफसर चाहे जिस उम्र में आए,सबको एक समान कार्यकाल मिलेगा।
3️⃣
एक और महत्वपूर्ण पहलू, किसी अफसर को काबिल और ईमानदार मानने या न मानने को लेकर है। हालांकि, प्रशासनिक सेवाओं में जाति आधारित पक्षपात को साबित कर पाना हमेशा संभव नहीं है,लेकिन उच्च पदों पर उनकी लगभग अनुपस्थिति को देखते हुए इस आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता। जब 22.5% एससी-एसटी तथा 27% ओबीसी अफसर केवल आरक्षण से सर्विस में आ रहे हैं और कुछ उच्च मेरिट की वजग से ओवरलैपिंग से अनारक्षित श्रेणी में जगह ले लेते हैं, तो वे बीच में कहां लटक या अटक जा रहे हैं? दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सालाना रिपोर्ट बनाने में पक्षपात कम करने के लिए यह सिफारिश की थी कि "आउट ऑफ टर्न प्रमोशन ग्रेड" किसी भी स्तर पर सिर्फ 5-10% अफसरों को ही दिया जाए यानी कि मनमाने ढंग से प्रोमोशन पर एक सीमा तक अंकुश लगाना भी न्यायसंगत होगा। साथ ही यह भी सिफारिश थी कि गोपनीय रिपोर्ट की जगह एक नया सिस्टम ईज़ाद किया जाए,जिसमें कार्यभार पूरा करने के स्पष्ट रूप से पहचाने जाने वाले मानकों के आधार पर किसी अफसर का प्रोमोशन हेतु मूल्यांकन हो।
सरकार अगर सचमुच नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता के आधार पर न्याय या हिस्सेदारी देना चाहती है, तो उसे उपरोक्त कुछ उपायों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।

Wednesday, September 20, 2023

मोदी सरकार का आधा-अधूरा और विसंगतिपूर्ण " नारी शक्ति वंदन बिल"-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)


            "इस बिल को महिला आरक्षण बिल या सवर्ण महिला आरक्षण बिल कहें .....पढ़िए इस पुरे लेख में आखिर क्या है यह महिला आरक्षण बिल ?....महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं........बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं"
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

    ✍️महिला आरक्षण बिल एक संविधान संशोधन विधेयक है, जो भारत में लोकसभा और सभी राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण देने की बात करता है। यह बिल 1996 में पहली बार पेश किया गया था, लेकिन अब तक पारित नहीं हो पाया है। महिला आरक्षण बिल भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और सशक्तिकरण की दिशा में उठाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण कदम है। भारत में, महिलाओं की लोकसभा में 2023 में भागीदारी केवल 14.5% है, जो विश्व में सबसे कम में से एक है। महिला आरक्षण बिल के पारित होने से उम्मीद है कि महिलाओं की प्रतिनिधित्व में वृद्धि होगी और वे नीति निर्माण में अधिक प्रभावी भूमिका निभा सकेंगी। हालांकि, सोमवार को चली कैबिनेट बैठक को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी सामने नहीं आई है,लेकिन इस बात की चर्चा तेज है कि केंद्रीय कैबिनेट ने महिला आरक्षण बिल को मंजूर कर दिया है।विपक्ष कई बिन्दुओं को लेकर इस महिला आरक्षण बिल पर सरकार को घेरने की रणनीति बना रहा है। वह सवाल उठा रहा है कि जब सभी पार्टियां बिल के समर्थन में थीं, तो फिर 10 साल तक इंतजार करने की क्या जरूरत पड़ी और ओबीसी महिलाओं के आरक्षण पर सरकार अपनी मंशा क्यों नही जता रही है? उनका कहना है कि ऐसा कुछ राज्यों के सन्निकट चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर महिला वोट बैंक तैयार करने की दिशा में यह उपक्रम किया जा रहा है। 
✍️इस महिला आरक्षण बिल के समर्थकों का तर्क है कि यह महिलाओं के सशक्तिकरण और समानता स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगा। उनका मानना है कि इस आरक्षण से महिलाओं को राजनीति में प्रवेश करने और अपनी नेतृत्व क्षमता की भूमिकाओं को हासिल करने के लिए एक समान अवसर उपलब्ध होगा,जबकि इस बिल में एससी-एसटी महिलाओं के लिए क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण की बात कही जा रही है और ओबीसी महिलाओं के बारे में इस बिल में कोई जगह नहीं दी गयी है, तो फिर ऐसी स्थिति में यह बिल सशक्तिकरण और समानता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम कैसे साबित होगा? तुलनात्मक रूप से सामान्य वर्ग की महिलाएं एससी-एसटी और ओबीसी की महिलाओं से प्रत्येक क्षेत्र में आगे हैं और वर्तमान में महिला राजनीति की भागीदारी की बात की जाए तो सामान्य वर्ग की महिलाओं की ही अधिकतम भागीदारी दिखाई देती है,एससी -एसटी और ओबीसी महिलाओं की भागीदारी नाममात्र की दिखती है। महिला आरक्षण बिल के आधे-अधूरे और विसंगतियों को लेकर विरोधियों के पास भी अपने ठोस तर्क हैं जिनके आधार पर वे चर्चा के दौरान सरकार को घेर सकते हैं। फिलहाल, सरकार लोकसभा में दो तिहाई बहुमत से और राज्यसभा में राजनीतिक प्रबंधन से बिल पास कराने की स्थिति में सक्षम दिखती है। बिल पास होने के बाद इसकी विसंगतियों को लेकर विपक्ष या सामाजिक न्याय का कोई संगठन सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। विधि विशेषज्ञों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ओबीसी महिला आरक्षण के बिंदु पर सरकार के निर्णय से परे राय देते हुए निर्णय दे सकती है।
✍️नए संसद भवन में देश की आधी आबादी नारी शक्ति को राजनैतिक रूप से सशक्तिकरण की दिशा में लोकसभा और विधान सभा में 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए विगत दो दशकों से अधिक समय से लंबित महिला आरक्षण विधेयक मोदी सरकार राज्यों और लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर लेकर लायी है। इस बिल की विषय सामग्री का अध्ययन करने के बाद ही पता चल पाएगा कि बिल की वास्तविक विषयवस्तु क्या है। कहा जा रहा है कि यदि यह बिल पारित होकर कानून बन जाता है तो भी उसके लागू होने की संभावना 2029 तक पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती है। परिसीमन और जनगणना एक जटिल प्रक्रिया मानी जाती है। इस बिल की विसंगतियों और संभावना पर शुरुआती दौर में ही तरह- तरह की उंगलियां उठने लगी हैं। बताया जा रहा है कि एससी-एसटी की तरह लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं को 33% आरक्षण दिए जाने की बात कही गई है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को उनको मिलते आ रहे 15 % और 7.5 % राजनीतिक आरक्षण के भीतर ही आरक्षण दिया जाएगा,यह भी सुनने में रहा है। तो इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि बाकी आरक्षण अन्य एक विशिष्ट वर्ग (सामान्य वर्ग) की महिलाओं को 33% आरक्षण का लाभ दिए जाने की बात है। ओबीसी की महिलाओं के राजनैतिक आरक्षण की बात इस बिल में कहीं नहीं है, ऐसा तथ्य सामने निकलकर आ रहा है। एससी और एसटी वर्ग की महिलाओं को तो क्षैतिज (होरिजेंटल) आरक्षण का लाभ मिल जाएगा क्योंकि उनके वर्ग को पहले से ही राजनैतिक आरक्षण मिलता आ रहा है, लेकिन ओबीसी महिलाओं को आरक्षण कैसे मिल पायेगा, ओबीसी को तो राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है जबकि 1953 में गठित काका कालेलकर आयोग और 1979 में गठित मंडल आयोग की सिफारिशों में ओबीसी को राजनैतिक आरक्षण की भी सिफारिश है। चूंकि एससी और एसटी को केवल लोकसभा और राज्य की विधान सभाओं में ही आरक्षण मिल रहा है, उनके लिए राज्यसभा तथा राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण की व्यवस्था अभी भी नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस बिल में एससी और एसटी की महिलाओं को राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों में आरक्षण देने की बात कही गयी है,कि नही ? और यदि ऐसा नहीं है तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के संगठनों ,राजनीतिक दलों और उनके बौद्धिक मंचों से लंबित इस अधूरे राजनैतिक आरक्षण की मांग नए सिरे से उठना लाज़मी होगा। 
✍️चूंकि ओबीसी को वर्तमान में राजनैतिक आरक्षण नहीं मिल रहा है, इस आधार पर अनुमान लगाया जा रहा है कि उनकी महिलाओं को एससी-एसटी की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण कैसे मिल सकता है? यदि ओबीसी की महिलाओं के लिए आरक्षण की बात इस बिल में है तो फिर उन्हें एससी-एसटी वर्ग की महिलाओं की तरह क्षैतिज आरक्षण नहीं मिल पायेगा। ऐसी स्थिति में महिलाओं में दो भिन्न कैटेगिरी हो जाने से उनके बीच एक नई तरह की खाई पैदा होती दिखेगी जो कि नैसर्गिक न्याय के खिलाफ़ होगी। परिस्थितियों से यह सम्भव लग रहा है कि पहले एससी-एसटी की तर्ज पर ओबीसी के नए राजनैतिक आरक्षण की बात नए सिरे से उठे। अभी तक ओबीसी को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थाओं में 27% आरक्षण सीमा और क्रीमीलेयर की शर्त के साथ ही आरक्षण मिल रहा है। 10% ईडब्ल्यूएस आरक्षण के बाद ओबीसी को मिल रहे 27% आरक्षण सीमा की शर्त को लगातार खारिज किया जा रहा है, क्योंकि ओबीसी आरक्षण पर निर्णय देते समय सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की कुल सीमा 50% निर्धारित की थी। ईडब्ल्यूएस पर 2023 में आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से यह सीमा टूट गई है,ऐसा माना जा रहा है। अब एक बड़ा सवाल यह उठता है कि महिला आरक्षण में यदि ओबीसी महिलाओं को शामिल नही किया जाता है तो मोदी जी के " नारी शक्ति वंदन " नारे और बिल की व्यावहारिकता और सार्थकता कैसे सिद्ध होगी? सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक मंचों से इस बिल को कई तरह की विसंगतियों से भरा हुआ बताया जा रहा है और यह भी कहा जा रहा है कि सन्निकट राज्य विधासभाओं और 2024 के लोकसभा चुनाव के भविष्य को लेकर जल्दबाजी में लाया गया यह बिल मोदी जी का एक और जुमला साबित हो सकता है।
✍️2019 में जब सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10% आरक्षण के लिए संविधान संशोधन बिल पास हुआ था तो उसके बाद से ही ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ाने और जातिगत जनगणना की मांग जोर शोर से उठ रही है। महिलाओं को 33% राजनैतिक आरक्षण देने के लिए लाए गए इस बिल के बाद जातिगत जनगणना और उसके हिसाब से आरक्षण दिए जाने की एक सामाजिक और राजनीतिक मांग उठने का एक और माक़ूल मौका मिलता हुआ दिख रहा है। यदि सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियां इस बिल पर बहस के दौरान यह मांग उठाती हैं और विसंगतियों के कारण बिल के पास होने या लागू होने में कोई अड़चन पैदा होती है तो यह स्थिति बीजेपी गठबंधन सरकार के लिए गले की हड्डी बन सकता है और सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों में एक नई तरह की एकजुटता के लिए नए अवसर पैदा हो सकते हैं, अर्थात विपक्ष की राजनैतिक एकता के गठबंधन का दायरा और बड़ा होने के साथ पहले से अधिक मजबूत बन सकता है। इस बिल से विपक्ष को सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना कराने का एक और सुअवसर मिलने की संभावना जताई जा रही है। यदि ओबीसी महिलाओं को आरक्षण की परिधि में नहीं लाया गया तो 2024 के लोकसभा चुनाव सरकार के लिए भारी पड़ सकता है। जरा इस पर गम्भीरतापूर्वक सोचिएगा!

Saturday, September 02, 2023

यदि संविधान बदला तो एससी-एसटी और ओबीसी की गति उस लोहार जैसी ही होगी जिसे भेंट में मिले चंदन के बाग-नन्द लाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)

चिंतनीय_आलेख
नन्दलाल वर्मा
(सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराज दत्त महाविद्यालय
लखीमपुर-खीरी 

         एक बार एक राजा ने एक लोहार की कारीगरी से खुश होकर उसे चंदन का बाग इसलिए भेंट कर दिया कि वह चंदन की बेशकीमती लकड़ी बेचकर धनवान बन जाये।
उस लोहार को चंदन के पेड़ की कीमत और उपयोगिता का कोई अंदाजा नहीं था। इसलिए उसने अपने पेशे की उपयोगिता के हिसाब से चंदन के पेड़ो को काटकर उन्हें भट्टी में जलाकर कोयला बनाकर अपने काम में और अपने पेशेवर साथियों को बेचना शुरू कर दिया। ऐसा करते-करते, धीरे-धीरे एक दिन बेशकीमती चंदन का पूरा बाग कोयला के रूप में तब्दील होकर बिक और उसकी भट्टी में जल गया।
          एक दिन राजा घूमते हुए उस लोहार के घर के बाहर से गुजर रहे थे तो राजा ने सोचा अब तो लोहार चंदन की लकड़ी बेच-बेचकर बहुत अमीर हो गया होगा। सामने देखने पर लोहार की स्थिति जैसे की तैसी ही बनी हुई नजर आई। यह देखकर राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। अनायास राजा के मुँह से निकला यह कैसे हो सकता है! राजा ने अपने जासूसों से सच का पता लगावाया तो पाया चंदन के बाग की बेशकीमती लकडी को तो उसने कोयला बनाकर बेच दिया और अपनी भट्टी में प्रयोग कर लिया है। यह सुनकर राजा ने अपना माथा पीटते हुए कहा कि उपहार,भेंट और दान किसी पात्र व्यक्ति को ही देना चाहिए। तब राजा ने लोहार को बुलाकर पूछा,तुम्हारे पास चंदन की एकाध लकडी बची है या सबका कोयला बनाकर बेच दिया? लोहार के पास कुल्हाडी में लगे चंदन के बेंट के अलावा कुछ भी नहीं था,उसने वह लाकर राजा को दे दिया।
          राजा ने लोहार की कुल्हाड़ी का बेंट लेकर लोहार को चंदन के व्यापारी के पास भेज दिया, वहाँ जाकर लोहार को कुल्हाड़ी के बेंट के बदले अच्छे खासे पैसे मिल गये। यह देखकर लोहार भौचक रह गया, उसकी आंखो में आंसू आ गये। उसकी स्थिति " अब पछताये होत क्या,जब चिड़ियां चुंग गयी खेत " जैसी हो गयी थी। वह बहुत पछताया और फिर उसने रोते हुए आँसू पोछकर राजा से एक और बाग देने की विनती की। तब राजा ने उससे कहा कि " ऐसी भेंट जीवन में बार-बार नहीं मिलती हैं बल्कि, एक बार ही मिलती है।"
         अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को संविधान प्रदत्त अधिकार विशेषकर मतदान का अधिकार चंदन के बाग की भेंट की तरह मिले हुए हैं। इन्हें पांच किलो मुफ्त राशन, सब्सिडी पर मिल रही घरेलू गैस,शौचालय एवं किसान सम्मान निधि के नाम पर मिल रही चन्द आर्थिक सहायता के लालच में बेचा जा रहा है। अगर संविधान प्रदत्त अधिकारों के संरक्षण के लिए एकजुट होकर सड़क से लेकर संसद तक विरोध-प्रदर्शन नहीं किया गया तो एससी-एसटी और ओबीसी की हालत उस लोहार जैसी होने में देर नहीं लगेगी। लोकतंत्र के आवरण में छुपी वर्तमान तानाशाह प्रवृत्ति की सत्ता की नीयत साफ नहीं लग रही है। यदि 2024 के लोकसभा चुनाव में आरएसएस से निकले मनुवादी भाजपाई एक बार फिर संसद में कब्जा करने में सफल हो जाते हैं तो डॉ आंबेडकर का न्याय पर आधारित संविधान बदलना तय है। डॉ.भीमराव आंबेडकर जी के अथक प्रयासों से पिछड़े समाज को जो सांविधानिक अधिकार मिले हैं जिनकी वजह से उसका एक बड़ा हिस्सा सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक रूप से एक सशक्त मध्यम वर्ग बनकर उभरा है। यह वर्ग अच्छा खा रहा है, उनके बच्चे देश विदेश की प्रतिष्ठित संस्थाओं में पढ़ और रिसर्च कर रहे हैं, सूट,बूट और टाई पहनकर मूछों पर ताव देकर आज़ादी से घूम रहा है, घोड़ी पर चढ़कर बारात निकाल रहा है, अच्छे मकानों और हवेलियों में रह रहा है, बड़ी बड़ी कारों में घूम रहा है, शिक्षित होकर बौद्धिक वर्ग विभिन विषयों और मुद्दों पर सड़क से लेकर उच्च संस्थाओं में सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ सीना तानकर लिख और दहाड़ रहा है, जिन्हें आज़ादी से पहले चारपाई पर बैठने का अधिकार नहीं था, वे आरक्षण की वजह से बड़े-बड़े अधिकारी बन रहे हैं, ऐसा होने से मनुवादियों को लग रहा है कि वे उनके सिर पर बैठ रहे हैं, ये सब मनुवादियों को अच्छा नहीं लग रहा है। संविधान बदलने के बाद वही पुरानी मनुस्मृति की व्यवस्था लागू होने की पूरी सम्भावना है जो सामाजिक व्यवस्था में ऊंच-नीच और भेदभाव से भरी जाति व्यवस्था फिर से कायम होने की पूरी सम्भावना दिख रही है। डॉ.आंबेडकर की सोच की दूरदर्शिता की वजह से राजनैतिक आरक्षण के माध्यम से जो एससी और एसटी के 131 सांसद हर लोकसभा में पहुंच रहे हैं, संविधान बदलने के बाद एससी और एसटी एक भी सांसद बनाने के लिए तरस जाएगा। बहुजन समाज को मिल रहे चुनावी प्रलोभनों से निजात पानी होगी। बहुजन समाज (एससी- एसटी और ओबीसी) की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि सारे सामाजिक और राजनीतिक द्वेष और दुराग्रह दरकिनार कर 2024 के लोकसभा चुनाव में संविधान,लोकतंत्र और उसके सामाजिक न्याय की पक्षधर पार्टियों के गठबंधन को ही जिताने में अपनी सारी राजनीतिक ऊर्जा लगाएं और समाज को भी प्रेरित व जागरूक करें।
        जब डॉ.आंबेडकर ने भारतीय संविधान की रचना की थी,वह मनुवाद पर आंबेडकर द्वारा किया गया करारा प्रहार था। इसलिए मनुवादी आंबेडकर और उनके संविधान से घोर नफ़रत करते हैं और उन्होंने ऐलानिया तौर पर भारतीय संविधान को स्वीकार करने से मना भी कर दिया था। सांविधानिक व्यवस्थाओं को देखकर मनुवादियों को सांप सूंघ गया था। संविधान ने एससी -एसटी और ओबीसी को केवल आरक्षण ही नहीं दिया,उसने बहुजन समाज को बहुत कुछ दिया है, जैसे आठ घण्टे का कार्य दिवस, महिलाओं को मातृत्व अवकाश और महिलाओं को तो डॉ आंबेडकर ने इतना दिया है, जितना उन्हें देश के सारे समाज सुधारक नहीं दे पाए। इसके बावजूद देश की 50प्रतिशत आबादी को डॉ.आंबेडकर के योगदान का एहसास नहीं है। देश के वंचित वर्ग के जीवन में जो भी बदलाव आया है वह सिर्फ डॉ.आंबेडकर और उनकी सांविधानिक व्यवस्थाओं से ही सम्भव हो पाया है। जिन्हें डॉ.आंबेडकर और उनके संविधान से प्रेम या लगाव नहीं है,अर्थात उससे नफ़रत करते हैं तो वे संविधान के माध्यम से डॉ.आंबेडकर द्वारा दी गयी सारी सुविधाओं और लाभों को त्याग दें,तब उन्हें संविधान की अहमियत पता चल जाएगी। इसलिए वर्तमान सत्ता द्वारा संविधान के बदलाव की संभावना से उपजने वाले गम्भीर दुष्प्रभावों को भांपते हुए बहुजन समाज को समय रहते ही सावधान और सजग हो जाना चाहिए और उस लोहार को मिली चंदन की लकड़ी की कीमत की तरह अपने सांविधानिक अधिकारों की कीमत पहचान कर संविधान की रक्षा करने की दिशा में आज से ही गम्भीर विचार-विमर्श के माध्यम से सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर सार्थक प्रयास शुरू कर देना चाहिए अन्यथा लोहार की तरह बेशकीमती चीज खो जाने के बाद पछतावे और हाथ मलने के सिवा कुछ हासिल नहीं होने वाला। भारतीय संविधान की अनमोल विरासत देश के हर वर्ग और नागरिक के हित में है। इसलिए इसके सरंक्षण की जिम्मेदारी भी सभी नागरिकों की बनती है। वर्तमान सत्त्तारुढ़ दल द्वारा बिना एजेंडे के संसद का विशेष सत्र बुलाने के गूढ़ निहितार्थ को समझने की जरूरत है। राजनीतिक और बौद्धिक गलियारों में संभावित बिंदुओं पर प्रकाश डालने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है, लेकिन इस सत्र के एजेंडों की असलियत सत्र शुरू होने के बाद ही सामने आ पाएगी।

अपना-अपना अहसास-डॉ हरिवंश शर्मा

डॉ हरिवंश शर्मा (प्राचार्य)
आदर्श जनता महाविद्यालय
देवकली, लखीमपुर-खीरी 
यात्रा-वृतांत

       आज मुझे 6:50 की ट्रेन से लखनऊ जाना था । स्लीपर का टिकट बेटे ने यह कहते हुए ऑनलाइन बुक कर दिया कि गर्मी का सीजन है साधारण कम्पार्टमेन्ट में यात्रा करना कठिन है । ऊपर से भीड़ का अपना आलम । हालांकि खुद की पढ़ाई के दिनों र्में खूब यात्रा की है वह भी साधारण रेल के डिब्बे में ही । तब कोयले वाला इंजन हुआ करता था जो अक्सर जेम्सवाट की  केतली वाला किस्सा खूब याद दिलाता था । ग्रेजुएशन पूरा करते . करते छोटी लाइन पर पर एक सुबह की ट्रेन डीजल वाले इन्जन से दौडने लगी थी । वकालत की पढ़ाई के दौरान भी खूब आना - जाना ट्रेनो से ही हुआ । आज की यह यात्रा कुछ अलग सा अहसास कराने वाली थी । मुझे इसका कतई अन्दाजा नही था । स्टेशन पर पहुंचा तो जी आर पी वाला बोला कहा जाना है ? मैने उससे पूछा कि एस . 2 किधर लगेगा । उसने कहा बस यही खड़े रहिये इधर ही लगेगा । छोटी लाइन  को अब बड़ी लाइन में तब्दील कर  दिया गया है ।  लेकिन स्टेशन वही जिन्दगी जी रही है । कहने को भर कि नई बिल्डिंगें बन गई है पर लोग तो वैसे ही ख्यालों से लबरेज  छोटी लाइन जैसे I कोई जानकारी नही रहती कौन सा कम्पार्टमेन्ट किधर लगेगा । यात्रियों को अपना डिब्बा दूंढने में खूब इधर से उधर कसरत करनी पड़ती है । यह रोज बरोज होता है । ट्रेन आई मेरा डिब्बा आगे के बजाय  बिल्कुल पीछे था । यदि दौड़कर न जाता तो ट्रेन का छूटना तय था । खैर डिब्बे तक पहुचने में इतना वक्त नही लगा जितना उसके अन्दर घुसने में | खचाखच भरी ट्रेन में बड़ी मसक्कत करके गेट पर ही बडी मुश्किल से खड़े होने की जगह मिल पायी । लोग चिल्ला रहे थे । औरतें चीख रही थी । बच्चे रो रहे थे । कुछ खो गए थे और कुछ खोज रहे थे । तभी एक ग्रामीण औरत चिल्लाती - रोती  भीड को चीरती हुई गेट की तरफ आती दिखाई दी । हाय ! मेरा बेटा  बाहर रह गया है । मेरे आदमी ( हसबैण्ड ) भी बाहर है ट्रेन चल दी है । कोई मेरे बेटे को ला दो । कोई उन्हें बता दो । हाय हम क्या करे ! अरे ! वह तो धीरे धीरे चलती ट्रेन से कूदने ही जा रही थी तभी एक महिला ने बाहर  से  उसके बेटे को गेट थी तरफ बढ़ाया । लोगों ने झट से खीचकर उस महिला के हवाले कर दिया । बेटे को पाकर उसके चेहरे पर शान्ति के भाव थे । वह फिर जोर जोर से चिल्लाने लगी । इनके पापा स्टेशन पर ही रह गये । अब हम का करी । ऐसे में कुछ की हैसी भी छूट गई। कुछ ने उसे ढाँढ़स बंधाया।
        साधारण डिब्बे की भीड को मात देता हुआ स्लीपर कोच की खीसे निकल रही थी । कई बार मन हुआ यह स्लीपर कोच कोई पुरुष होता तो मैं इसकी बतीसी तोड देता ।
        बगल में खड़ी एक  महिला का बच्चा भूख से व्याकुल था । वह उसे दूध पिलाने के लिए आंचल की तरक हाथ ले जाती फिर संकोच वश रुक जाती । लोग सिर्फ देख रहे  थे । बीच गलियारे में खड़ी वह महिला परेशान थी कि क्या करे और कैसे अपने बच्चे को दूध पिलाये । इस पर भी सामने बैठे 40 साला आदमी की नजर नही हट रही थी । उसकी नजर सिर्फ दो जगह पर अटकी थी एक तो अपनी दोनों टांगे इस कदर चौड़ी करके बैठा था कि कोई वहाँ बैठ न जाये | दूसरे कि वह अपने बच्चे को कब और कैसे दूध पिलाएगी | मेरी रिजर्व 71 नम्बर वाली बर्थ पर भी कुछ ऐसे ही दुष्ट कब्जा किये बैठे थे । उसके पति भी मजबूर वही मेरे पास खड़े थे । मैने पूछा कि क्या आप इन सबको धक्का मारते हुये भीड को चीरकर मेरी वाली बर्थ तक जा सकते हो । बच्चे का रोना उनसे भी देखा न जा रहा था | बोले और क्या कर सकते है । मैने उन्हे टिकट दिपा कहा जाकर उनको खड़ा कर दो और कहो मेरी सीट बुक है हटो यहाँ से | बस फिर क्या एक बाप अपने बच्चे के लिए जो कर सकता है किया और लड - झगड़ कर मेरी बताई सीट पर जा बैठा । लोग उसे धक्का दे रहे थे उसे जोरो से चिल्लाकर कहा ये मेरी सीट है 71 नम्बर वाली यहाँ से हटिए । उन दोनों ने अपने बैठने भर की जगह बना ली थी। मै भीड मे दबा कसमसा रहा था । लेकिन सन्तुष्टि थी मेरे स्लीपर के टिकट का पैसा अब वसूल हो गया था । टांगे फैलाये बैठे उस आदमी को पीटने का मन हो रहा था । आसपास के लोग भी खफा थे । तभी उस महिला ने मेरी तरफ हाथ हिलाकर बुलाया । भैया जगह है आप भी आकर बैठ लो काफी देर से खड़े हो । भीड में बडी मुश्किल से मै वहाँ पहुचा तो दोनो बहुत प्रसन्न थे । मुझे उनकी दुआ का  अहसास हो रहा था ।
वही  बगल थी सीट पर बैठे एक सिख युवक व युवती पर मेरी नजर पड़ी युवक ने बताया वह मेरे ही शहर के एक विद्यालय का छात्र रहा है और दिल्ली में नौकरी करता है । जिसे वह दीदी -दीदी कह रहा था । मैने पहचाना वह कोई और नही उन्नीस वर्ष पहले वह कक्षा दो की मेरी स्टूडेन्ट सिमरन कौर बजाज थी जो दिल्ली में ही जॉब करती है । एक शिक्षक के लिए इससे बड़ा कुछ नही । मुझे ऐसे में कई प्रकार के अहसास हो रहे थे जो मुझे रोमांचित कर रहे थे जो अकथनीय है।

Wednesday, July 05, 2023

सामाजिक न्याय (आरक्षण) सम्बन्धी बेहद संवेदनशील और गम्भीर विषय-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

नंदलाल वर्मा (सेवानिवृत्त ए0 प्रो0)
युवराज दत्त महाविद्यालय, खीरी
आरक्षण है तो आखिर किसके लिए?????
पढ़िए इस मुद्दे पर सेवानिवृत्त प्रोफेसर एन०एल० वर्मा जी का महत्त्वपूर्ण लेख
      लाहाबाद विश्वविद्यालय के शिक्षाशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर पद हेतु होने वाले साक्षात्कार की श्रेणी वार जारी कट ऑफ सूची: 
अनारक्षित या सामान्य वर्ग: 141.5
अनुसूचित जाति              :  237.5
ओ.बी.सी.                       : 270.5
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        आरक्षित श्रेणी (एससी और ओबीसी) के सामाजिक न्याय की आरक्षण व्यवस्था के जानकारों और जिम्मेदारों से जानना चाहता हूँ कि उपरोक्त जारी सूची बनाने में मनुवादियों ने किस तरह की दिमागी गणित लगायी है? आरक्षण व्यवस्था लागू करने में सुनिश्चित है कि अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों की कट ऑफ के बराबर या उससे कम/नीचे अंकों से आरक्षित वर्ग (एससी और ओबीसी) के अभ्यर्थियों की सूची शुरू होती है और निर्धारित न्यूनतम योग्यता अंक तक जाती है। अनारक्षित या सामान्य वर्ग की सूची में अनारक्षित और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों में बिना भेदभाव किये कुल 50% अनारक्षित रिक्त पदों पर अनारक्षित वर्ग के 50%पदों के लिए सूची जारी की जाती है, अर्थात अनारक्षित वर्ग की सूची विशुद्ध रूप से मेरिट के आधार पर बनाये जाने की व्यवस्था है जिसमें अभ्यर्थियों की विशुद्ध मेरिट क्रमांक के आधार पर अनारक्षित और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी शामिल किए जाते हैं। इसके बाद आरक्षित वर्ग (एससी 21% और ओबीसी 27%) के अभ्यर्थियों की अलग-अलग उनकी मेरिट क्रमांक के आधार पर निर्धारित न्यूनतम योग्यता अंक तक बनाई जाती है। आरक्षण विरोधी शातिर शक्तियों द्वारा उपरोक्त जारी सूची में जिस फार्मूले को प्रयोग कर आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को आरक्षण से वंचित करने की जो साजिश रची है, उस साजिश को आरक्षित वर्ग के कितने जागरूक और जिम्मेदार लोग समझ रहे हैं, वे मुझसे संपर्क और संवाद कर सकते हैं। जो इस साजिश को नहीं समझ पा रहे हैं, ऐसे जिज्ञासु विशेषकर मुझसे संपर्क और संवाद स्थापित कर इसमें छिपी साज़िश को समझने का कष्ट करें। गलत तरीके से आरक्षण लागू करने और निजीकरण से आरक्षित वर्ग के युवाओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है। उपरोक्त सूची तैयार कर आरक्षण लागू करने में आरक्षण विरोधियों द्वारा एक अत्याधुनिक तकनीक को ईजाद किया गया है जिससे आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को उनके निर्धारित आरक्षण प्रतिशत की सीमा तक समेटा जा सके। 69000 प्राथमिक शिक्षक भर्ती में आरक्षित वर्ग के लगभग 19000 पदों के आरक्षण को अनारक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को दे दिया गया है जिसमें मा. उच्च न्यायालय ने निर्णय देकर यूपी सरकार को 50% आरक्षण देते हुए 69000 पदों की संशोधित सूची जारी करने का निर्देश भी दिया है, लेकिन राज्य सरकार आज तक संशोधित सूची जारी नहीं कर पाई है। आरक्षित वर्ग के लगभग 19000 पदों पर अनारक्षित/ सामान्य वर्ग के अभ्यर्थी नौकरी कर प्रति माह लगभग 50000 रुपये वेतन (कुल 95करोड़ रुपए प्रति माह) पाकर अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत कर रहे हैं और आरक्षित वर्ग के वंचित अभ्यर्थी अपने हक के लिए सरकार,सड़क और कोर्ट कचहरी में भिखारियों की तरह गिड़गिड़ा रहे हैं और इस आरक्षण महाघोटाले पर सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं। आरक्षित वर्ग के जागरूक और संवेदनशील नागरिकों को आरक्षण विरोधी सरकारों को सत्ता से बेदखल करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहिए।

Thursday, November 10, 2022

धरती पुत्र की गैरहाजिरी में समाजवादी पार्टी की बढ़ सकती हैं कई प्रकार की चुनौतियां/मुश्किलें और कठिन परीक्षा से भी गुजरना पड़ सकता है:

राजनीति चर्चा 
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
      
मुलायम सिंह यादव विगत कई सालों से अपनी पार्टी के संरक्षक की भूमिका में थे लेकिन, सामाजिक और राजनीतिक अवसरों पर उनकी उपस्थिति और मौजूदगी अखिलेश यादव और लाखों कार्यकर्ताओं के लिए एक ऐसे वटवृक्ष के समान थी जिसकी छत्रछाया में सपाईयों को " जिसने न कभी झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम है" का नारा लगाने में एक अलग तरह की अनुभूति और गर्व महसूस होता था।
         मुलायम सिंह की रिक्तता से सपा की आगे की राजनीतिक राहें कितनी मुश्किल होंगी या सपा की यात्रा कितनी आसान और लम्बी होगी, बहुत कुछ उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी अखिलेश यादव के सियासी कौशल पर निर्भर करेगा। अब भविष्य का राजनीतिक सफर उन्हें पिता की छत्रछाया के बिना ही तय करना है जिसकी डगर थोड़ी कठिन जरूर दिखती है जो समाजवादी पार्टी के लिए चुनौती भरी हो सकती है। नेताजी के रहते चाचा शिवपाल सिंह यादव और अखिलेश यादव के बीच 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान दिखी भूमिका और नाराज़गी तथा मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव के बीजेपी में चले जाना बहुत कुछ समाजवादी पार्टी की राजनीतिक दिशा और दशा तय होने पर असर डालने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
माननीय मुलायास सिंह शोक-सभा
         
 निकट भविष्य में में अखिलेश यादव को कई बड़े व कड़े राजनीतिक फैसलों और इम्तहानों से गुजरना होगा। उन्हें एक बड़ी सत्ताधारी भाजपा के साथ चाचा शिवपाल सिंह यादव और उनकी पार्टी से भी निपटने के लिए बेहद राजनैतिक कौशल,संयम और दूरदर्शिता के साथ पेश आना पड़ेगा। मुलायम सिंह की मृत्यु से रिक्त हुई मैनपुरी लोकसभा सीट पर उपचुनाव भी होना है। निकाय चुनाव भी निकट है और पार्टी के लिए सबसे बड़ी परीक्षा तो 2024 का लोकसभा चुनाव है। ‘नेता जी’ के न रहने से सपा कार्यकर्ताओं को उनके भीतर उपजे सदमे से भी उबारना है और उन्हें भविष्य में होने वाले चुनावों के लिए नयी ऊर्जा और आत्मविश्वास के साथ तैयार करना सपा के लिए एक बड़ी चुनौती और परीक्षा हो सकती है। अखिलेश यादव के सामने पार्टी के आधार वोट बैंक के साथ ही अपने वृहद राजनीतिक कुनबे को साधना और संभालना बड़ी चुनौती है। उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव काफी समय से खफा चल रहे हैं लेकिन, बीच-बीच में मुलायम सिंह यादव उन्हें शांत कर दिया करते थे। इसी कारण वह विधानसभा चुनाव में सपा के साथ तो दिखाई देते थे लेकिन,बेमन जैसी स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है। फ़िलहाल,मुलायम सिंह के बाद अब परिवार में कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई नहीं देता है जो सबको साधकर चल सके,यह बड़ी जिम्मेदारी भी अखिलेश यादव पर ही होगी।
           मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव की भिन्न राजनीतिक पृष्ठभूमि और सियासी रणनीति के दृष्टिगत एक बहुत ही स्वाभाविक सवाल खड़ा होता है कि ‘नेताजी’ के साथ कार्यकर्ताओं व समर्थकों के लंबे अरसे से कायम उनके भावनात्मक रिश्ते की डोर को अखिलेश यादव कितनी मजबूती के साथ पकड़कर रख पाते हैं? इसके लिए उन्हें नए सिरे से बेहद सावधानी से व्यापक स्तर पर रणनीति तैयार करनी होगी। मुलायम सिंह यादव के साथ लंबे अरसे से काम करते आ रहे बुजुर्ग नेताओं के साथ अखिलेश यादव सामंजस्य स्थापित कर अपने नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ‘नेताजी’ की विरासत को आगे बढ़ा सकती है। हालांकि, मुलायम सिंह यादव कई अवसरों पर अखिलेश यादव को आशीर्वाद देकर स्थिति साफ कर चुके हैं जिससे उनके राजनीतिक उत्तराधिकार व विरासत को लेकर कोई संशय नही रह जाता है। इसके बावजूद मुलायम सिंह के न रहने पर ऐसी अप्रत्याशित राजनैतिक घटनाक्रम की संभावना से भी इनकार नही किया जा सकता है,जो मुलायम सिंह की उपस्थिति मात्र से अंकुरित होने का साहस नही जुटा पाती थीं क्योंकि, सत्ता और पैसा की राजनीति में सब सम्भव माना जाता है अर्थात अपनों को छोड़कर दुश्मन से हाथ मिलाने और दुश्मन को आप से हाथ मिलाने की कब और कैसी परिस्थितियां पैदा हो जाएं, वर्तमान राजनीति में ऐसी सम्भावनाएं सदैव बनी रहती है।
           मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव से होगी अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह की राजनीतिक परिपक्वता और एकता की परीक्षा। एकजुट रहेगी या बंट जाएगी मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत ? इस सीट पर मुलायम सिंह यादव का उत्‍तराधिकारी कौन होगा,यह आने वाले कुछ दिनों में एक ऐसा प्रश्‍न बनने वाला है जिससे अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह दोनों की राजनीतिक परिपक्‍वता,दूरदर्शिता और एकता की परीक्षा हो जाएगी। राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मैनपुरी सीट से मुलायम सिंह के राजनीतिक उत्‍तराधिकारी के चयन में यादव परिवार से कई विकल्प हो सकते,लेकिन सबसे ज्यादा सम्भावना धर्मेंद्र यादव पर जाकर टिकती नज़र आ रही है, क्योंकि सपा के आंदोलनों में वह सबसे अधिक सक्रिय रहते हैं। यह सीट मुलायम खानदान के पास लंबे समय से रही है और वर्तमान में इसी एक सीट की वजह से लोक सभा में यादव परिवार का प्रतिनिधित्व बचा था। इसलिए सपा के लिए यह सीट बचाना उसकी और यादव परिवार की प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ अतिमहत्वपूर्ण विषय माना जाता है है।  गुजरात, हिमाचल आदि राज्य में विधानसभा चुनाव के साथ मैनपुरी लोकसभा सीट पर उपचुनाव होने की उम्मीद है। समाजवादी पार्टी और यादव परिवार की इस रिक्त सीट को बचाने की एक बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि इससे पहले हुए उपचुनावों में एक मजबूत आधार वोट बैंक के बावजूद रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीट पर सपा मात खा चुकी है। इसके साथ ही कुछ दिनों बाद होने वाले नगर निकाय चुनाव में पार्टी के जनाधार को बरकरार रखना भी एक बड़ी चुनौती है।
           निःसंदेह, अखिलेश यादव की राजनीतिक तुलना मुलायम सिंह यादव से नहीं हो सकती है ,लेकिन अपनी लम्बी सियासी यात्रा में मुलायम सिंह यादव ने कई राजनीतिक और कूटनीतिक मानक गढ़े और चौंकाने वाले निर्णय भी लिए। मुलायम सिंह यादव जमीनी राजनीति के माहिर खिलाड़ी थे। वह ज़मीनी कार्यकर्ताओं के माध्यम से जनता की नब्ज बखूबी पहचानते थे। कोई नाराज हो गया तो उसे मना लेना उन्हें बखूबी आता था। विरोधी दलों के नेताओं से भी उन्होंने हमेशा निजी रिश्ते बनाकर ही राजनीति की। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सहित तमाम अन्य बीजेपी और अन्य दलों के नेता मुलायम सिंह यादव से अपने निजी रिश्तों की दुहाई देते दिखाई देते हैं। उम्मीद है कि अखिलेश यादव अपने पिता जी की राजनीतिक विरासत से बहुत कुछ सीखकर उनके नक्शे कदम पर चलकर उनकी राजनीतिक विरासत को आगे ले जाकर उसको अनवरत समृद्ध करने की दिशा में प्रयासरत रहेंगे। बदले राजनीतिक परिवेश में सियासी गलियारों में अखिलेश यादव के सियासी परीक्षा में पास और फेल होने की चर्चाएं होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
            हिंदुस्तान में कई नेताओं के दुनिया से जाने के बाद उनके राजनैतिक वारिसों ने विरासत में मिली सियासत को एक नई ऊर्जा और स्फूर्ति के साथ स्थापित और तराशकर बुलंदियों पर ले जाने का काम किया है। मुलायम सिंह यादव के जाने के बाद अखिलेश यादव सपा के लिए नया अवतार होंगे या नहीं, यह तो वक्त बताएगा,लेकिन आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी के जाने के बाद उनके बेटे जगनमोहन रेड्डी की पैदल यात्रा से आंध्र प्रदेश की सियासत बदलने का एक अच्छा उदाहरण भी हमारे सामने है जिससे अखिलेश यादव बहुत कुछ सीख सकते हैं।
इति

Tuesday, April 12, 2022

शोषितों- वंचितों के लिए निर्भीकता की मिसाल और मसाल हैं और विद्यार्थियों के लिए बेमिसाल आदर्श/प्रेरक व्यक्तित्व हैं डॉ.आंबेडकर:नन्द लाल वर्मा

"उनकी जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो पढ़ेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी.....आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा।"
एन०एल० वर्मा
एसोसियेट प्रोफ़ेसर
(युवराज दत्त महाविद्यालय)
         डॉ.भीम राव आंबेडकर एक ऐसा महान व्यक्तित्व है जो हर निराश,हताश और परेशान व्यक्ति की सामाजिक,धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति का मार्ग तैयार करते हुए आजीवन संघर्ष करते हुए नजर आते हैं। डॉ.भीमराव आंबेडकर को यदि 20 वीं सदी का महानतम व्यक्ति की संज्ञा दी जाए तो अतिशयोक्ति नही होनी चाहिए। जय भीम जय हिंद की तरह ही एक ऐसा नारा या उदघोष है जो हर वंचित- शोषित व्यक्ति के अंदर सतत संघर्ष के लिए एक अद्भुत ऊर्जा और शक्ति का संचार करता है। भीषण विषम परिस्थितियों से गुजर कर उन्होंने जो मुकाम हासिल किया है,वह दुनिया की ऐतिहासिक में एक अद्भुत मिसाल है। उनकी जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो पड़ेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी।
 
           आज कथित आंबेडकरवादी यह कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि सवर्ण दलितों को घोड़ी पर बैठने और बारात चढ़ाने नहीं देते हैं, चारपाई पर बैठे नहीं देते हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि डॉ. आंबेडकर साहब को क्या वे ऐसा करने से रोक पाए थे? बिल्कुल नहीं। डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को तपाकर जिस दिन समाज के बीच जाओगे, घोड़ी और खटिया पर बैठने की तो बात दूर , पूरा सवर्ण समाज आपको पूरे सम्मान के साथ अपने सिर पर बैठाने के लिए उतावला दिखेगा। पहले आंबेडकर की तरह बनने का ईमानदारी से प्रयास और संघर्ष तो करके देखो! जो भी आंबेडकर की विचारधारा पर चलकर शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं, वे आज घोड़ी- चारपाई तो छोड़ो पूरी दुनिया मे हवाई जहाज से उड़ रहे हैं। सबसे पहले शिक्षित होकर आंबेडकर की तरह ज्ञानी बनो, फिर बताना देश के ब्राम्हण या सवर्ण तुम्हारे साथ कैसा सलूक करते हैं? केवल जय भीम बोलने या नीला कपड़ा पहनने या मूंछ ऐंठने से कोई आंबेडकरवादी नही हो जाता है। आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा। जय भीम का नारा तभी बुलंद और सार्थक होगा जब बहुजन समाज के लोग आंबेडकर जी की वैचारिकी या दर्शन को व्यावहारिक जीवन में अर्थात आचरण में उतारेंगे। डॉ.भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के सामने दीपक,मोमबत्ती और अगरबत्ती जलाकर केवल उनका उपासक ही नहीं बनना है, बल्कि उनकी विचारधारा का संवाहक बनना होगा अर्थात उनकी वैचारिकी को खड़ा करना होगा। आंबेडकर जी खुद कहा करते थे कि मैं मूर्तियों और प्रतिमाओं में नहीं ,बल्कि क़िताबों में रहता हूँ। इसलिए आंबेडकरवादी बनने वाले हर इंसान को उनकी वैचारिकी-दर्शन को आत्मसात करना होगा और आंबेडकर जैसा विचारक - दार्शनिक बनकर उस पर आचरण करना होगा। बहुजनों को आंबेडकर जी  सवर्णों के सिर पर बैठने का ऐसा अद्भुत  सिद्धांत या हथियार (संविधान) देकर गए हैं जिसकी अकूत ताकत के साथ वह शान से सिर उठाकर चल सकता है। वह कहते थे "शिक्षा शेरनी का वह दूध है जिसे जो पिएगा वह दहाड़ेगा" और हम लोग अभी भी घोड़ी,बारात और चारपाई तक सिमटे हुए हैं। ऐसा वही कहते हैं जो दलित अशिक्षित और अज्ञानी हैं। ब्राह्मण जैसा बनने का प्रयास करिए और जैसे ही कोई सवर्ण या ब्राह्मण आपके सामने आए तो उसके सामने संस्कृत और मंत्रों का तेज-तेज उच्चारण कर पानी छिड़ककर ऐसे चिल्लाओ जिसे देखकर ब्राह्मण या सवर्ण देखकर भौचक रह जाए। ऐसा करने के लिए दलित समाज को तैयार करना होगा और फिर देखो तुम्हारी इस दशा को देखकर ब्राह्मण खुद न चिल्लाने लग जाए ,कि बाप रे बाप!


           एक शिक्षक बुद्ध जी थे जिनके किसी राज दरबार में प्रवेश करने पर राजा खुद सिंहासन से उतरकर नीचे मिलने आता था। ज्ञान या शिक्षा ऐसी शक्ति है जिसके सामने बड़ी-बड़ी हस्तियां झुकती हैं। इसलिए डॉ आंबेडकर की तरह शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने के लिए सतत प्रयास और अभ्यास करने की जरूरत है।

          आंबेडकर एक बात अच्छी तरह जान गए थे कि आखिर ब्राह्मण इतना शक्तिशाली और सम्मानित क्यों है अर्थात उनकी शक्ति का आधार क्या है? शक्ति का आधार है ज्ञान और ज्ञान का मतलब सूचना नहीं होता है बल्कि, तार्किकता के आधार पर विषय को कसौटी पर कसने की क्षमता और इसीलिए आंबेडकर ने शिक्षा के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने में अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। दुनिया के नामी- गिरामी  विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में गहन अध्ययन और शोध कार्य किए। सारे धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन करने के पश्चात उनकी सच्चाई जानी और उसके बाद ही मनुस्मृति को जलाने का साहस जुटा पाए थे। जाति व्यवस्था में ऊंच-नीच का भाव गलत होता है। हम किसी भी चर्मकार या जुलाहे को उतने सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाते हैं जितना बाटा या वुडलैंड या अन्य किसी चमड़े के शोरूम के मालिक को या कपड़े बेचने वाले पूंजीपति को सम्मान देते हैं। ब्राह्मण केवल शिक्षा या ज्ञान की बदौलत ही श्रेष्ठ नहीं बन जाता है, बल्कि ज्ञान का दान करने से श्रेष्ठ बनता है। मान लीजिए कि किसी के पास अपार ज्ञान है और उसके ज्ञान से समाज के किसी व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होता है,तो समाज उसका सम्मान क्यों करेगा और उसे श्रेष्ठ क्यों समझेगा? ऐसा करने से ही धीरे-धीरे वह व्यक्ति या समाज श्रेष्ठ बनता चला जाता है। ब्राह्मणों को एक भ्रम हो गया कि ज्ञान की वजह से ही वे श्रेष्ठ है,ऐसा नहीं है।

        डॉ.आंबेडकर को क्लास के बाहर बैठा दिया जाता था और वह बालक फिर भी किसी भी प्रकार की ग्लानि या अपमान महसूस न करते हुए अपने ज्ञान अर्जन के मार्ग पर पूरी हिम्मत और शिद्दत से चलता चला जाता है। कोलंबिया और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं में एक साधारण परिवार का एक असाधारण बालक स्वयं को एक सच्चा विद्यार्थी सिद्ध करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है और आज उन्हें  पूरी दुनिया में ज्ञान के प्रतीक अर्थात सिंबल ऑफ नॉलेज की संज्ञा से नवाज़ा जाता है। डॉ.आंबेडकर की शैक्षणिक ज्ञान की वजह से ही डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी -दर्शन को कोलंबिया विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल कर वहां के छात्रों को पढ़ाया और उन पर शोध कराया जा रहा है और हमारे देश में डॉ. आंबेडकर का बहुआयामी साहित्य और दर्शन लंबे समय तक आम लोगों के पास पहुंचने तक नही दिया गया। बहुजन समाज से निकले अन्य समाज सुधारकों और विचारकों की तरह डॉ. आंबेडकर को भी इतिहास के पन्नों में जानबूझकर इसलिए दबाए रखा जिससे देश का वंचित,शोषित और अशिक्षित एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग में सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक चेतना का संचार न हो सके। इसीलिए शिक्षित बनो और ज्ञानी बनो और ज्ञान को समाज में दान करो तभी आपको समाज में सम्मान मिलेगा और धीरे-धीरे श्रेष्ठता हासिल होती जाएगी।

          आज डॉ.आंबेडकर , गांधी और भगत सिंह देश के ही नहीं, बल्कि विश्व के महान आदर्श बन चुके हैं। आंबेडकर को  जिन लोगों ने क्लास के बाहर बिठाया उन्हीं के बीच या सिर पर बैठकर अपने अकूत ज्ञान के बदौलत पूरी निर्भीकता के साथ ऐसा संविधान रच दिया जिसमें कहीं भी किसी भी प्रकार का भेदभाव ,प्रतिक्रिया या बदले की भावना नहीं झलकती है। आज तक उनकी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक मानववादी संवैधानिक व्यवस्था या विचारधारा पर कोई सवालिया निशान लगाना तो दूर उसमें नुक़्ता चीनी तक लगाने का साहस नहीं जुटा  पाया है। बहुजन समाज को संविधान रूपी ऐसा अस्त्र डॉ आंबेडकर दे गए हैं जिससे वह बोल सकता है, अपने सामाजिक, राजनीतिक और अन्य हक लेने के साथ उनके लिए कानूनी और लोकतांत्रिक रूप से लड़ाई भी लड़ सकता है। डॉ.आंबेडकर की आज की हैसियत का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की विभिन्न पार्टियों के बैनर-पोस्टर-भाषण डॉ.आंबेडकर का नाम के बिना और नारे लगाए अधूरे से माने जाते हैं। आज के दौर में राजनीतिक सत्ता के क्षितिज या कैनवस पर डॉ.आंबेडकर को इग्नोर करना असंभव सा हो गया है। ब्राह्मणवादी सोच की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों के आयोजन भी बिना आंबेडकर के चित्र,विचारों और भाषण के बिना पूरे नही माने जाते हैं।
 
          हम कह सकते हैं कि वर्तमान दौर की राजनीति में आंबेडकर साहब की वैचारिकी या दर्शन एक अपरिहार्य विषय बन चुका है। देश के हर नागरिक को डॉ.की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के मोटे-मोटे सिद्धांतों को जरूर पढ़ना चाहिए। आज के वैज्ञानिक और आर्थिक युग में यह दुर्भाग्य का विषय है कि समाज मे सोशल साइंस के विषय लेकर अध्ययन और शोध करने  वाले छात्र-छात्राओं का कमतर मूल्यांकन किया जा रहा है।
         आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर समाज का एक ऐसा वर्ग है जो यह कहता है कि आंबेडकर ने हमारी जिंदगी बर्बाद कर दी और दूसरा वर्ग दिल ठोककर जय भीम का उदघोष करते हुए कहता है कि डॉ.आंबेडकर हमारे भगवान हैं, मसीहा हैं और मुक्तिदाता हैं। समाज के दो छोरों पर बैठे लोगों की सोच के इस भारी अंतर से डॉ.आंबेडकर की सार्थकता और प्रासंगिकता का आभास किया जा सकता है। हम कह सकते हैं कि हर परेशान इंसान के मसीहा हैं, डॉ.आंबेडकर साहब!
पता-मोतीनगर कालोनी लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश 262701

Friday, April 08, 2022

आखिर अंबेडकर को पीएम के तौर पर देखने की बात कभी किसी ने क्यों नहीं की-पुण्य प्रसून बाजपेयी

    अम्बेडकर युग में अम्बेडकरी विमर्श  

नेहरु की जगह सरदार पटेल पीएम होते तो देश के हालात कुछ और होते । ये सवाल नेहरु या कांग्रेस से नाराज हर नेता या राजनीतिक दल हमेशा उठाते रहे हैं। *लेकिन इस सवाल को किसी ने कभी नहीं उठाया कि अगर नेहरु की जगह अंबेडकर पीएम होते तो हालात कुछ और होते ।* दरअसल अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर किसीने कभी मान्यता दी ही नहीं। या तो संविधान निर्माता या फिर दलितों के मसीहा के तौर पर बाबा साहेब अंबेडकर को कमोवेश हर राजनीतिक सत्ता ने देश के सामने पेश किया । लेकिन इतिहास के पन्नों को अगर पलटे और आजादी से पहले या तुरंत बाद में या फिर देश के हालातों को लेकर अंबेडकर तब क्या सोच रहे थे और क्यों अंबेडकर को राजनीतिक तौर पर उभारने की कोई कोशिश हुई नहीं । और मौजूदा वक्त में भी बाबा साहेब अंबेडकर का नाम लेकर राजनीतिक सत्ता जिस तरह भावुक हो जाती है लेकिन ये कहने से बचती है कि अंबेडकर पीएम होते तो क्या होता ।
तो आईये जरा आंबेडकर के लेखन, अंबेडकर के कथन और अंबेडकर के अध्ययन को ही परख लें कि वह उस वक्त देश को लेकर वह क्या सोच रहे थे, जिस दौर में देश गढ़ा जा रहा था । तो संविधान निर्माता की पहचान लिये बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान की स्वीकृति के बाद 26 नवंबर 1949 को कहा “26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं । राजनीति में हम समानता प्राप्त कर लेंगे । परंतु सामाजिक-आर्थिक जीवन में असमानता बनी रहेगी। राजनीति में हम यह सिद्दांत स्वीकार करेंगे कि एक आदमी एक वोट होता है और एक वोट का एक ही मूल्य होता है ।” 
अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम यह सिद्दांत नकारते रहेंगे कि एक आदमी का एक ही मूल्य होता है। कब तक हम अंतर्विरोधों का ये जीवन बिताते रहेंगे। कहाँ तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे ? बहुत दिनो तक हम उसे नकारते रहे तो हम ऐसा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में डाल कर ही रहेंगे । जितनी जल्दी हो सके हमें इस अंतर्विरोध को दूर करना चाहिये ।वरना जो लोग इस असमानता से उत्पीडि़त है वे इस सभा द्वारा इतने परिश्रम से बनाये हुये राजनीतिक लोकतंत्र के भवन को ध्वस्त कर देंगे। ” यानी संविधान के आसरे देश को छोड़ा नहीं जा सकता है बल्कि अंबेडकर असमानता के उस सच को उस दौर में ही समझ रहे थे जिस सच से अभी भी राजनीतिक सत्ता आंखे मूंदे रहती है या फिर सत्ता पाने के लिये असमानता का जिक्र करती है ।


*यानी जो व्यवस्था समानता की होनी चाहिये, वह नहीं है तो इस बात की कुलबुलाहट अंबेडकर में उस दौर में इतनी ज्यादा थी कि 13 दिसंबर 1949 को जब नेहरु ने संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यों पर प्रस्ताव पेश किया तो बिना देर किये अंबेडकर ने नेहरु के प्रस्ताव का भी विरोध किया । अंबेडकर की राइटिंग और स्पीचीज की पुस्तक माला के खंड 13 के पेज 8 में लिखा है कि आंबेडकर ने कितना तीखा प्रहार नेहरु पर भी किया। उन्होने कहा,  “समाजवादी के रुप में इनकी जो ख्याती है उसे देखते हुये यह प्रसताव निराशाजनक है । मैं आशा करता था, कोई ऐसा प्रावधान होगा जिससे राज्यसत्ता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय को यथार्थ रुप दे सके ।* उस नजरिए से मै आशा करता था कि ये प्रस्ताव बहुत ही स्पष्ट शब्दों में घोषित करे कि देश में सामाजिक आर्थिक न्याय हो । इसके लिये उघोग-धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा । जब तक समाजवादी अर्थतंत्र न हो तबतक मै नहीं समझता , कोई भावी सरकार जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है वह ऐसा कर सकेगी ।”  
*अंबेडकर उन हालातों को उसी दौर में बता रहे थे जिस दौर में नेहरु सत्ता के लिये बेचैन थे और उसके बाद से बीते 70 बरस में यही सवाल हर नई राजनीतिक सत्ता पूर्व की सरकारों को लेकर यही सवाल खड़ा करते  सत्ता पाती रही है फिर आर्थिक असमानता तले उन्हीं हालातों में जाती है । यूं  तो ठीक दो बरस संसद में संविधान दिवस मनाये जाने के दौर को भी याद किया किया सकता है, जब 26 नवंबर 2015 को संविधान दिवस मनाते मनाते कांग्रेस हो या बीजेपी यानी विपक्ष हो या सत्तादारी सभी ने एक सुर में माना कि अंबेडकर जिन सवालों को संविधान लागू होने से पहले उठा रहे थे , वही सवाल संविधान लागू होने के बाद देश के सामने मुंह बाये खड़े हैं।*
*ये अलग बात है कि कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ने खुद को आंबेडकर के सबसे नजदीक खड़े होने की कोशिश संसद में बहस के दौरान की । लेकिन दोनो राजनीतिक दलों में से किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर अंबेडकर देश के पीएम होते तो देश के हालात कुछ और होते ।* क्योंकि अंबेडकर एक तरफ भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खडे होकर देश की व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे । और दूसरा उस दौर में अंबेडकर किसी भी राजनेता से सबसे ज्यादा पढ़े लिखे व्यक्तियो में से थे । जो अमेरिकी विश्वविघालय में राजनीति और सामाजिक अध्ययन करने के साथ साथ भारत की अर्थ नीति कैसे हो इस पर भी लिख रहे थे। यानी अंबेडकर का अध्ययन और भारत को लेकर उनकी सोच कैसे दलित नेता के तौर पर स्थापना और संविधान निर्माता के तौर पर मान्यता के तहत दब कर रह गई ये किसी ने सोचा ही नहीं । क्योंकि जिस दौर में महात्मा गांधी हिन्द स्वराज लिख रहे थे और हिन्द स्वराज के जरीये संसदीय प्रणली या आर्थिक हालातों का जिक्र भारत के संदर्भ में कर रहे थे ।
उस दौर में अंबेडकर भारत की पराधीन अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने के लिये स्वाधीन इक्नामिक ढांचे पर भी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में कह-बोल रहे थे । और भारत के सामाजिक जीवन में झांकने के लिये संस्कृत का धार्मिक पौराणिक और वेद संबंधी समूचा वाड्मंय अनुवाद में पढ़ रहे थे । और भोतिक स्थापनायें लोगों के सामने रख रहे थे । इसलिये जो दलित नेता आज सत्ता की गोद में बैठकर अंबेडकर को दलित नेता के तौर पर याद कर के नतमस्तक होते है , वह इस सच से आंखे चुराते हैं कि आंबेडकर ब्रहमण व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था से आगे अक सिस्टम मानते थे । और 1930 में उनका बहुत साफ मानना था कि ब्राह्मण सिस्टम में अगर जाटव भी किसी ब्राह्मण की जगह ले लेगा तो वह भी उसी अनुरुप काम करने लगेगा, जिस के अनुरुप कोई ब्राह्मण करता । 
अपनी किताब मार्क्स और बुद्द में आंबेडकर ने भारत की सामाजिक व्यवस्था की उन कुरितियों को उभारा भी और समाधान की उस लकीर को खींचने की कोशिश भी की जिस लकीर को गाहे बगाहे नेहरु से लेकर मोदी तक कभी सोशल इंजिनियरिंग तो कभी अमीर-गरीब के खांचे में उठाते हैं। *1942 में आल इंडिया रेडियो पर एक कार्यक्रम में अंबेडकर कहते है , भारत में इस समय केवल मजदूर वर्ग की सही नेतृत्व दे सकता है । मजदूर वर्ग में अनेक जातियों के लोग है जो छूत-अछूत का भेद मिटाती है । संगठन के लिये जाति प्रथा को आधार नहीं बनाते । उसी दौर में अंबेडकर अपनी किताब , ‘ स्टेट्स एंड माइनरटिज ” में राज्यों के विकास का खाका भी खिचते नजर आते है । जिस यूपी को लेकर आज बहस हो रही है कि इतने बडे सूबे को चार राज्यों में बांटा जाना चाहिये । वही यूपी को स्पेटाइल स्टेट कहते हुये अंबेडकर यूपी को तीन हिस्से में करने की वकालत आजादी से पहले ही करते है ।*
फिर अपनी किताब ‘ स्माल होल्डिग्स इन इंडिया ” में किसानों के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाते हैं, जिन सवालों का जबाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है । अंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानों की क्षमता बढाने के तरीके उस वक्त बताते है । जबकि आज जब यूपी में किसानों के कर्ज माफी के बाद भी किसान परेशान है । और कर्ज की वजह से सबसे ज्यादा किसानों की खुदकुशी वाले राज्य महाराष्ट्र में सत्ता किसानों की कर्ज माफी से इतर क्षमता बढाने का जिक्र तो करती है लेकिन ये होगा कैसे इसका रास्ता बता नहीं पाती । जबकि अंबेडकर ‘स्माल होल्डिग्स ” में सभी उपाय बताते हैं। और माना भी जाता है कि आंबेडकर ने नेहरु के मंत्रिमंडल में शामिल होने के बदले योजना आयोग देने को कहा था।
क्योंकि आंबेडकर लगातार भारत के सामाजिक – आर्थिक हालातों पर जिस तरह अध्ययन कर रहे थे , वैसे में उन्हें लगता रहा कि आजादी के बाद जिस इक्नामी को या जिस सिस्टम की जरुरत देश को है, वह उसे बाखूबी जानते समझते हैं। और अम्बेडकर ने उन्हीं सामाजिक हालातों की वजह से ही नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दिया, जिन परिस्थितियों को वह तब ठीक करना चाहते थे। 
*हिन्दू कोड बिल को लेकर जब संघ परिवार से लेकर , हिन्दु महासभा और कई दूसरे संगठनों ने सड़क पर विरोध प्रदर्शन शुरु किया । तो संसद में लंबी चर्चा के बाद भी देश की पहली राष्ट्रीय सरकार में भी जब आंबेडकर हिन्दू कोड बिल पर सहमत नहीं कर पाये तो 27 सितंबर 1951 को अंबेडकर ने नेहरु को इस्तीफा देते हुये लिखा “बहुत दिनों से इस्तीफा देने की सोच रहा था। एक चीज मुझे रोके हुये था, वह ये कि इस संसद के जीवनकाल में हिन्दूकोड बिल पास हो जाये । मैं बिल को तोड़कर विवाह और तलाक तक उसे सीमित करने पर सीमित हो गया थ। इस आशा से कि कम से कम इन्हीं को लेकर हमारा श्रम सार्थक हो जाये । पर बिल के इस भाग को भी मार दिया गया है । आपके मंत्रिमंडल में बने रहने का कोई कारण नहीं दिखता है । ”* 
दरअसल इतिहास के पन्नों को पलटिये तो गांधी, अंबेडकर और लोहिया कभी राजनीति करते हुये नजर नहीं आयेंगे बल्कि तीनों ही अपने-अपने तरह से देश को गढना चाहते थे । और आजादी के बाद संसदीय राजनीति के दायरे में तीनों को अपना बनाने की होड़ तो शुरु हुई लेकिन उनके विचार को ही खारिज कर दिया उनके जीवित रहते हुये उन्हीं लोगों ने किया जो उन्हे अपना बनाते या मानते नजर आये । इसलिये नेहरु या सरदार पटेल का जिक्र प्रशासनिक काबिलियत के तौर पर तो हो सकता है , लेकिन आजादी के ठीक बाद के हालात को अगर परखे तो उस वक्त देश को कैसे गढना है यही सवाल सबसे बडा था । लेकिन पहले दिन से ही जो सवाल सांप्रदायिकता के दायरे से होते हुये कश्मीर और रोजगार से होते हुये जाति-व्यवस्था और उससे आगे समाज के हर तबके की भागेदारी को लेकर सत्ता ने उठाये या उनसे दो चार होते वक्त जिन रास्तो को चुना। ध्यान दें तो बीते 70 बरस में देश उन्ही मुद्दो में आज भी उलझा हुआ है । और राजनीतिक सत्ता ही कैसे जाति-व्यवस्था के दायरे से इतर सोच पाने में सक्षम नहीं है ।
तो इस सवाल को तो अंबेडकर ने नेहरु के पहले मंत्रिमडल की बैठक में ही उठा दिया था । इसलिये *आंबेडकर पंचायत स्तर के चुनाव का भी विरोध कर रहे थे । क्योकि उनका साफ मानना था कि चुनाव जाति में सिमटेंगे ।* जाति राजनीति को चलायेगी और असमानता भी एक वक्त देश की पहचान बना दी जायेगी । जिसके आधार पर बजट से लेकर योजना आयोग की नीतियां बनेंगी . और ध्यान दें तो हुआ यही । अंतर सिर्फ यही आया है कि आंबेडकर आजादी के वक्त जब देश को गढने के लिये तमाम सवालों को मथ रहे थे तब देश की आबादी 31 करोड थी और आज दलितों की तादात ही करीब 21 करोड हो चली है । और शिक्षित चाहे 66 फ़ीसदी  हो लेकिन ग्रेजुएट महज 4 फ़ीसदी  है । इतना ही नहीं 70 फ़ीसदी  दलितों के पास अपनी कोई जमीन नहीं है । और 85 फ़ीसदी  दलितों की आय 5 हजार रुपये महीने से भी कम है । आबादी 16 फ़ीसदी  है लेकिन सरकारी नौकरियों में दलितों की तादाद महज 3.96 फ़ीसदी  है। और दलितों के लिये सरकार के तमाम मंत्रालयों का कुल बजट यानी उनकी आबादी की तुलना में आधे से भी कम है । 2016-17 में शिड्यूल कास्ट सब-प्लान आफ आल मिनिस्ट्रिज का महज 38,833 करोड दिया गया . जबकि आजादी के लिहाज से उन्हे मिलना चाहिये 77,236 करोड रुपये । पिछले बरस यानी 2015-16 में तो ये रकम और भी कम 30,850 करोड थी । 
यानी जिस नजरिये का सवाल *आंबेडकर आजादी से पहले और आजादी के ठीक बाद उठाते रहे । उन सवालों के आईने में अगर बाबा साहेब आंबेडकर को देश सिर्फ संविधान निर्माता मानता है या दलितों की मसीहा के तौर पर देखता है तो समझना जरुरी है कि आखिर आजतक किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी पीएम ने ये क्यों नहीं कहा कि अंबेडकर को तो प्रधानमंत्री होना चाहिये था।* क्योंकि ये बेहद महीन लकीर है कि महात्मा गांधी जन सरोकार को संघर्ष के लिये तैयार करते रहे और अंबेडकर नीतियों के आसरे जनसरोकार के संघर्ष को पैदा करना चाहते रहे। यानी देश की पॉलिसी ही अगर नीचे से उपर देखना शुरु कर देती तो अंग्रेजों का बना बनाया सिस्टम बहुत जल्द खत्म होता । यानी जिस नेहरु मॉडल को कांग्रेस ने महात्मा गांधी से जोडने की कोशिश की । और जिस नेहरु मॉडल को लोहिया ने खारिज कर समाजवाद के बीज बोने चाहे। इन दोनों को आत्मसात करने वाली राजनीतिक सत्ताओं ने आंबेडकर मॉडल पर चर्चा करना तो दूर आंबेडकर को दलितों की रहनुमाई तले संविधान निर्माता का तमगा देकर ही खत्म करने की कोशिश की । जो अब भी जारी है

Monday, September 06, 2021

सिफारिश लागू हुई तो बदल जाएगा ओबीसी आरक्षण का पुराना ढांचा-नन्द लाल वर्मा

"क्या ओबीसी आरक्षण में बंदरबांट को खत्म कर देगी "रोहिणी आयोग" की सिफारिश, सामाजिक- राजनीतिक दबदबे का बदल सकता है हुलिया या चेहरा,सिफारिश लागू हुई तो बदल जाएगा ओबीसी आरक्षण का पुराना ढांचा"

N.L.Verma (Asso. Pro.)


       केंद्रीय विभागों और बैंकों में होने वाली भर्तियों के डेटा एनालिसिस से आयोग ने पाया है कि 983 जातियों को ओबीसी आरक्षण का कोई लाभ ही नहीं मिल पाया। इससे साफ हो गया है कि ओबीसी की कुछ जातियों का ही आरक्षण में दबदबा रहता है। ऐसे में रोहिणी आयोग ओबीसी की केंद्रीय सूची को बांटने की सिफारिश कर सकता है। आयोग ने ओबीसी को चार खांचों / वर्गों में बांटकर सबको एक निश्चित आरक्षण देने की सिफारिश की है। आयोग का मानना है कि ओबीसी में कुछ दबदबे वाली जातियां ही आरक्षण का ज्यादा फायदा उठा रही हैं, बाकी वंचित रह गए हैं।
        ओबीसी आरक्षण को लेकर तेज होती सियासत के बीच रोहिणी आयोग की सिफारिशें गौर करने लायक हैं। केंद्र सरकार ने ओबीसी समुदाय से आने वाले जस्टिस जी. रोहिणी की अगुवाई में चार सदस्यीय आयोग का गठन 2 अक्टूबर, 2017 को किया था। आयोग ने 11 अक्टूबर, 2017 को कार्यभार संभाला। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने एक सवाल के जवाब में 13 मार्च, 2018 को लोकसभा को बताया था कि ''दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज, नई दिल्ली के डायरेक्टर डॉ. जे.के. बजाज, एंथ्रोपॉलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, कोलकाता के डायरेक्टर और देश के रजिस्ट्रार जनरल और सेंसस कमिश्नर की सदस्यता वाले आयोग का गठन किया गया है।''
       मंत्रालय ने कहा कि यह आयोग ओबीसी में उप-श्रेणियों का निर्धारण करेगा। उसने इसका उद्देश्य बताते हुए कहा है कि ''जातियों और समुदायों के बीच आरक्षण का लाभ पहुंचने में किस हद तक असमानता और विषमता है, इसका पता लगाया जाएगा। आयोग ओबीसी की जातियों की उप-श्रेणियां तय करने के तरीके और पैमाने तय करेगा।'' आयोग को 27 मार्च, 2018 तक अपनी रिपोर्ट सौंप देनी थी, लेकिन उसे कई बार सेवा विस्तार दिया गया।
       देश में एक जाति के अंतर्गत कई उप-जातियां हैं। केंद्र सरकार की सूची में ही 2,633 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है। आयोग ने इस वर्ष सरकार को सुझाव दिया था कि इन्हें चार वर्गों में बांटकर उन्हें क्रमशः 2% 6%, 9% और 10% आरक्षण दे दिया जाए। इस तरह, ओबीसी के 27% का आरक्षण उप-जातियों के चार वर्गों में बंट जाएगा। आंध्र प्रदेश में भी ओबीसी को पांच वर्गों ''A, B, C, D, E '' में बांटा गया है। वहीं, कर्नाटक में ओबीसी के सब-ग्रुप के नाम '' 1, 2A, 2B, 3A, 3B '' हैं।
       दरअसल, आरक्षण लाभ के सामाजिक स्तर पर समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए ओबीसी लिस्ट को समूहों में बांटने की राय दी गई है जिससे 27% आबंटित मंडल आरक्षण में कुल पिछड़ी जाति की आबादी को शामिल किया जा सके। उप-वर्गीकरण के बाद ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' 27% में से केवल एक हिस्से के लिए योग्य होंगे जो मौजूदा स्थिति से बिल्कुल उलट है। फिलहाल, इनका शेयर असीमित है। इनके बारे में कहा जाता है कि ये आरक्षण लाभ का एक बड़ा हिस्सा झटक लेते हैं। 27% आरक्षण का बाकी हिस्सा सबसे ज्यादा बैकवर्ड समूहों के लिए होगा और इससे उन्हें ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' के साथ प्रतिस्पर्धा से बचने में मदद मिलेगी। क्या जातीय जनगणना से  ओबीसी के उत्थान का मकसद हल जाएगा या फिर कोई अलग वजह से एकजुट हुईं बिहार की सभी पार्टियां,यह एक बड़ा सवाल है जिसका जवाब निकट भविष्य में ही उजागर हो सकता है।
      केंद्रीय विभागों और बैंकों में होने वाली भर्तियों के डेटा एनालिसिस से आयोग ने पाया कि 10 जातियों को आरक्षण का 25% लाभ मिला है जबकि 38 अन्य जातियों ने दूसरे एक चौथाई हिस्से को घेर लिया। करीब 22% आरक्षण का लाभ 506 अन्य जातियों को मिला। इसके विपरीत लगभग 2.68% लाभ 994 जातियों ने आपस में शेयर किया। गौर करने वाली बात यह है कि 983 जातियों को ओबीसी आरक्षण का कोई लाभ ही नहीं मिल पाया। इससे साफ हो गया है कि कुछ जातियों का ही आरक्षण लाभ में दबदबा रहता है। ऐसे में आयोग ओबीसी की केंद्रीय सूची को बांटने की सिफारिश करेगा।
       राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC) ने वर्ष 2015 में ओबीसी जातियों या ओबीसी को पिछड़ा वर्ग (बैकवर्ड),ज्यादा पिछड़ा वर्ग (मोर बैकवर्ड ) और अति पिछड़ा वर्ग (मोस्ट बैकवर्ड) में बांटने की सिफारिश की थी। उसने कहा था कि सालों से आरक्षण का लाभ समाज की दबदबे वाली कुछ ओबीसी जातियां ही (पिछड़ों में अगड़े) हड़प ले रही हैं। इसलिए अन्य पिछड़े वर्ग में भी उप-वर्गीकरण करके अति-पिछड़ी जातियों के समूहों की पहचान करना जरूरी हो गया है। ध्यान रहे कि एनसीबीसी को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के कल्याण, उनकी शिकायते सुनने और उनके समाधान ढूंढने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।
मंडल दौर की वापसी के संकेत... 3.0 की आहट से है यह बेचैनी?
       क्या रोहिणी आयोग की सिफारिशें सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर हंगामा मचा सकती हैं ? बहरहाल, सब-कैटिगरी बनने से ''बैकवर्ड्स में फॉरवर्ड्स'' नाराज हो सकते हैं क्योंकि वे खुद को लूजर की स्थिति में आते समझ सकते हैं। दरअसल, ये समूह तुलनात्मक रूप से सामाजिक,शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से मजबूत माने जाते हैं।इसलिए इनका दबदबा रहता है। इनकी नाराजगी से बचने के लिए ही आयोग ने ''सबसे ज्यादा पिछड़े'' और ''अति पिछड़े'' जैसे नए सब-ग्रुप को नाम या टाइटल देने की जगह उन्हें कैटिगरी 1, 2, 3, 4 में बांटने की सिफारिश कर दी है। इस तरह के सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े स्तरों के मानदंड बिहार और तमिलनाडु राज्यों में अपनाए गए हैं।
        जस्टिस रोहिणी कमिशन ने ओबीसी से जुड़े सारे आंकड़ों को डिजिटल मोड में रखने और ओबीसी सर्टिफिकेट जारी करने का स्टैंडर्ड सिस्टम बनाने की भी सिफारिश की है। अगर इन सिफारिशों को लागू कर दिया गया तो देश के कुछ राज्यों विशेषकर यूपी और बिहार की राजनीति पर भी अच्छा खासा असर पड़ने की संभावनाएं नज़र आती हैं। खासकर, इन राज्यों समेत उत्तर भारत के कई राज्यों की राजनीति में नई जातियों के दबदबे का उभार देखा जा सकता है। ध्यान रहे कि मंडल कमिशन के बाद 1990 के दशक से यूपी और बिहार की राजनीति में वहां की यादव जाति बड़ी प्रभावशाली भूमिका में दिखाई देती है।

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