अमानवीयता (लघुकथा)
पति खामोश मुँह लटकाए बैठा था। पत्नी बोली,“क्या हुआ? आज जाना नहीं है क्या?
पति एकदम से फट पड़ा-नहीं! अब घर में ही पड़े-पड़े खाना है और मर जाना है। दुनिया के लिए छुट्टी है, पर हम पुलिस वालों के लिए नहीं, हमें तो बस मरना है ड्यूटी पर।
“बात क्या है,पूरी बात, बताओ तो सही?“
“क्या बताएँ?आंय!क्या बताएँ?अस्पताल नहीं? डाक्टर नहीं?दवाएँ नहीं? ऑक्सीजन नहीं? बस सेन्ट्रल विस्टा खा लो, स्टेडियम खा लो, और मंदिर खा लो, बच जाएँगे सब कोरोना से।लाइलाज लोग मर रहें हैं, उनके पास लाश फूँकने तक का पैसा नहीं?गंगा में शव बहाए जा रहे हैं। कुत्ते नोंच रहें हैं। अब तुम्हीं बताओ,जब उस लाश को कुत्ते नोंच रहे थे,दुनिया तमाशा देख रही थी,तब हम लोगों ने किसी तरह टायर-फायर से उसे जला दिया, तो हमारे ही ऊपर हाकिम हावी है। कह रहा है, तुम ने अमानवीता की, इसलिए निलंबित।“
“हाकिम को देखना चाहिए क्या सही है, क्या गलत?
“सब अंधे-बहरे हो गए हैं। हाकिम को मोर नचाने से फुरसत कहाँ? जो हमारी और जनता की तकलीफों को समझे?
“अब क्या करोगे?“
“घर में बैठ कर भगवान का स्मरण करते हुए,अपनी अमानवीयता का पश्चाताप करेंगे।“
अब दोनों से खामोशी से मुँह लटकाए बैठे थे, उनके चेहरों से अपराध भाव टप-टप टपक रहा था। ऐसा लग रहा था, कोरोना से बेमौत मरने वालों के असल दोषी-दुश्मन वहीं हो।
लेखक- सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर खीरी
पिन-262701
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित