साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, December 06, 2021

6 दिसम्बर एक दर्द भरी कहानी जो दुखों के भवसागर में डुबो के चली गयी

सोशल मिडिया से साभार


राजधानी दिल्ली रात के 12 बजे थे।
रात का सन्नाटा और अचानक दिल्ली, मुम्बई, नागपुर मे चारो और फोन की घंटीया बज उठी।
राजभवन मौन था, संसद मौन थी, राष्ट्रपती भवन मौन था, हर कोई कस्म कस्म मे था।
शायद कोई बडा हादसा हुआ था, या किसी बड़े हादसे या आपदा से कम नही था! कोई अचानक हमें छोडकर चला गया था।जिसके जाने से करोडो लोग दुःख भरे आँसुओं से विलाप कर रहे थे, देखते ही देखते मुम्बई की सारे सड़के भीड से भर गयी पैर रखने की भी जगह नही बची थी मुम्बई की सड़को पर क्योंकि पार्थिव शरीर मुम्बई लाया जाना था! और अंतिम संस्कार भी मुम्बई मे ही होना था।
नागपुर, कानपुर, दिल्ली, चेन्नाई, मद्रास, बेंगलौर, पुणे, नाशीक और पुरे देश से मुम्बई आने वाली रैलगाडीयो और बसो मे बैठने को जगह नही थी।सब जल्द से जल्द मुम्बई पहोंचना चाहते थे और देखते ही देखते अरब सागर वाली मुम्बई जनसागर से भर गयी।

कौन था ये शख्स ?

जिसके अंतीम दर्शन की लालचा मे जन शैलाब रोते बिलखते मुम्बईकी ओर बढ़ रहा था। देश मे ये पहला प्रसंग था जब बड़े बुजुर्ग छोटे छोटे बच्चो जैसे छाती पीट पीट कर रो रहे थे।महिलाएँ आक्रोश कर रही थी और कह रही थी मेरे पिता चले गये, मेरा बाप चला गया अब कौन है हमारा यहां ?
चंदन की चीता पर जब उसे रखा गया तो लाखो दील रुदन से जल रहे थे।अरब सागर अपनी लहरों के साथ किनारों पर थपकता और लौट जाता फिर थपकता फिर लौट जाता शायद अंतिम दर्शन के लिये वह भी जोर लगा रहा था।
चीता जली और करोडो लोगो की आंखे बरसने लगी। किसके लिये बरस रही थी ये आंखे ? कौन था ईन सबका पिता ? किसकी जलती चीता को देखकर जल रहे थे करोडो दिलो के अग्निकुन्ड?कौन था यहां जो छोड गया था इनके दिलोमे आंधिया, कौन था वह जिसके नाम मात्र लेने से गरज उठती थी बिजलीया, मन से मस्तिष्क तक दौड जाता था ऊर्जा का प्रवाह, कौन था वह शख्स जिसने छीन लिये थे खाली कासीन के हाथो से और थमा दी थी कलम लिखने के लिये ऐक नया इतिहास! आंखो मे बसादीये थे नये सपने, होठो पे सजा दिये थे नये तराने, धन्यौ से प्रवाहीत किया था स्वाभिमान।अभिमान को दास्यता की ज़ंजीरें तोड़ने के लिये दिया प्रज्ञा का शस्त्र।
चिता जल रही थी अरब सागर के किनारे और देश के हर गांव के किनारे मे जल रहा था एक श्मशान, हर एक शख्स मे और दिल मे भी।जो नही पहोंच सका था अरब सागर के किनारे ऐक टक देख रहा था वह, उसकी प्रतिमा या गांव के उस झंडे को जिसमे नीला चक्र लहरा रहा था, या बैठाथा भुख, प्यास भूलकर अपने समूह के साथ उस जगह जिसे वह बौद्ध विहार कहता था।
क्यों गांव, शहर मे सारे समूह भूखे प्यासे बैठे थे ? उसकी चीता की आग ठंडी होने का इंतजार करते हुये, कौन सी आग थी जो वह लगाकर चला गया था ? क्या विद्रोह की आग थी ? या थी वह संघर्ष की आग भूखे, नंगे बदनो को कपडो से ढकने की थी आग ? आसमानता की धजीया उड़ाकर समानता प्रस्थापित करने की आग ?

चवदार तालाब पर जलाई हुई आग अब बुजने का नाम नही ले रही थी। धू - धू जलती मनुस्मृति धुंवे के साथ खतम हुई थी।
क्या यह वह आग थी ? जो जलाकर चला गया था।
वह सारे ज्ञानपीठ, स्कूल, कोलेज मरभूमी जैसे लग रहे था।युवा, युवतियों की कलकलाहट आज मौन थी जिन्होंने हाथ मे कलम थमाई, शिक्षा का महत्व समजाया, जीने का मकसद दिया, राष्ट्रप्रेम की ओत प्रोत भावना जगाई वह युगंधर, प्रज्ञासूर्य काल के कपाल से ढल गया था।
जिस प्रज्ञातेज ने चहरे पर रोशनीया बिखेरी थी क्या वह अंधेरे मे गुम हो रहा था ?
बडी अजीब कस्म कस थी भारत का महान पत्रकार, अर्थशास्त्री, दुरद्रष्टा क्या द्रष्टि से ओजल हो जायेगा ?

सारे मिलों पर ऐसा लग रहा था जैसे हड़ताल चल रही हो सुबह शाम आवाज़ देकर जगाने वाली धुंवा भरी चीमनीया भी आज चुप चाप थी, खेतों मे हल नही चला पाया किसान क्यों ?सारे ऑफीस, सारे कोर्ट, सारी कचहरीया सुनी हो गयी थी जैसे सुना हो जाता है बेटी के बिदा होने के बाद बाप का आँगन।
सारे खेतीहर, मजदूर, किसान असमंजस मे थे ये क्या हुआ ? उनके सिर का सत्र छीन गया।
वह जो चंदन की चीता पर जल रहा है उसने ही तो जलाई थी जबरान ज्योत, मजदूर आंदोलन का वही तो था आधुनिक भारत मे मसीहा, सारी मिलों पर होती थी जो हड़ताले, आंदोलन अपने अधिकारो के लिये उसकी प्रेरणा भी तो वही था।
जिसने मजदूरो को अपना स्वतंत्र पक्ष दिया और संविधान मे लिख दी वह सभी बाते जिन्होंने किसानो, खेतीहारो, मज़दूरो के जीवन मे खुशियां बिखेरी थी।

इधर नागपुर की दीक्षाभूमी पर मातम बस रहा था, लोगो की चीखे सुनाई दे रही थी "बाबा चले गये" "हमारे बाबा चले गये " आधुनिक भारत का वह सुपुत्र जिसने भारत मे लोकतंत्र का बिजारोपण किया था, जिसने भारत के संविधान को रचकर भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया था। हर नागरीक को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का अधिकार दिया था, वोट देने का अधिकार देकर देश का मालिक बनाया था, क्या सचमुच वह शख्स नही रहा ?
कोई भी विश्वास करने को तैयार नही था। लोग कह रहे थे "अभी तो यहां बाबा की सफेद गाडी रुकी थी", "बाबा गाडी से उतरे थे सफेद पोशाक मे", "देखो अभी तो बाबा ने पंचशील दिये थे" "22 प्रतिज्ञाओ की गूंज अभी आसमान मे ही तो गूंज रही थी" वो शांत होने से पहले बाबा शांत नही हो सकते।

भारत के इतिहास ने नयी करवट ली थी जन सैलाब मुम्बई की सड़को पर बह रहा था।
भारतीय संस्क्रुति मे तुच्छ कहलाने वाली नारी जिसे हिन्दु कोड बिल का सहारा बाबा ने देना चाहा और फिर संविधान मे उसके हक आरक्षित किये ऐसी माँ बहने लाखो की तादाद मे श्मशान भूमी पर थी। यह भारतीय सड़ी गली धर्म परम्पराओ पर ऐक जोरदार तमाचा था क्योंकि जिन महिलाओ को श्मशान जाने का अधिकार भी नही था ऐसी "3 लाख" महिलाएँ बाबा के अंतिम दर्शन को पहोंची थी जो अपने आप मे ऐक विक्रम था।

भारत का यह युगंधर, संविधान निर्माता, प्रज्ञातेज, प्रज्ञासूर्य, महासूर्य, कल्प पुरुष नव भारत को नव चेतना देकर चला गया, ऐक ऊर्जा स्त्रोत देकर समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुता का पाठ पढाकर।
उस प्रज्ञासूर्य की प्रज्ञा किरणो से रोशन होगा हमारा देश, हमारा समाज और पुरे विश्वास के साथ हम आगे बढ़ेंगे हाथो मे हाथ लिये मानवता के रास्ते पर जहां कभी सूर्यास्त नही होंगा, जहां कभी सूर्यास्त नही होंगा, जहां कभी सूर्यास्त नही होगा।

जय भीम जय भीम और केवल जय भीम 
शत् शत् नमन अर्पित करता हूँ और करता रहुंगा।

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