साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, May 30, 2022

क्या संविधान के भविष्य को लेकर डॉ.आंबेडकर के मन में उपजी तत्कालीन आशंकाएं आज पुष्ट होती दिख रही है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
      भारत के सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और भौगोलिक क्षेत्रों के विविध पहलुओं और व्यापक संदर्भों के दृष्टिगत संविधान की रचना करते समय डॉ.आंबेडकर की कुछ स्वाभाविक आशंकाएं और चिंताएं थी जैसे कि " यदि संविधान गलत लोगों के हाथों में पड़ गया तो इसका दुरुपयोग हो सकता है,जिसका मतलब यह है कि यदि सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों जिसे वह स्टेट कैपिटलिज्म कहते थे, को खत्म कर दिया गया तो संविधान का जो लड़ाकू/संघर्षशील गणतंत्र है, वह स्वतः पंगु या कमजोर हो जाएगा।" वर्तमान राजनीतिक सत्ता के "लोकतांत्रिक सह तानाशाही "के दौर में एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग के चिंतनशील वर्ग को डॉ.आंबेडकर की इन आशंकाओं की गंभीरता और निहितार्थ को समझने और ग्रामीण-शहरी बहुजन समाज को समझाने के सतत प्रयास जारी रखने की जरूरत है।
      भारत के हर जिम्मेदार/संवेदनशील नागरिक को संविधान की प्रस्तावना को अच्छी तरह पढ़ना और समझना बहुत जरूरी है। इसकी प्रस्तावना पं. नेहरू और डॉ.आंबेडकर का एक संयुक्त उपक्रम था। इस प्रस्तावना में भारत का मिशन स्टेटमेंट है कि इस संविधान का लक्ष्य क्या है, जैसा कि हर संविधान का होता है। उस वक्त दुनिया दो भागों में बंट चुकी थी। एक कम्युनिस्ट- सोशलिस्ट और दूसरा पूंजीपति वर्ग। प्रस्तावना में समाजवाद जैसे शब्द का उल्लेख नहीं था जिसे 1977 में जोड़ा गया। इसमें लोकतान्त्रिक शब्द का इस्तेमाल हुआ है कि संविधान का लक्ष्य भारत को एक " संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य " बनाना है।
      ब्रिटिश सिविल सर्वेंट मेटकॉफ का जन्म कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता ईस्ट इंडिया कंपनी में बड़े अधिकारी थे। मेटकॉफ भारत में बहुत दिनों तक रहे, बहुत घूमे, लिखे और भारत के एक्टिंग गर्वनर जरनल भी बने। उनका एक प्रसिद्ध कथन है कि "भारत के गांव अपने आप में एक स्वतंत्र गणतांत्रिक इकाई हैं।" डॉ.आंबेडकर मेटकॉफ को उध्दृत करते हुए अपने उद्घाटन भाषण में भारतीय संविधान के लक्ष्य/उद्देश्य को और ज्यादा व्याख्यायित करना चाहते थे कि किस तरह से यह जो संवैधानिक गणतंत्र है वह गांव के गणतंत्र को तोड़ेगा। गांव का गणतंत्र मतलब भारतीय सामंतवाद जिसे अंग्रेज "इंडियन सर्फडम " (भारतीय दासता) कहते थे।
     आंबेडकर और नेहरू दोनों की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई थी। इसलिए उन्हें पता था कि दुनिया में सामंतवाद को पूंजीवाद ने ही तोड़ा है। डॉ.आंबेडकर ने मेटकॉफ का जिक्र इसलिए भी किया, क्योंकि गांधी जी कहते थे कि भारत की आत्मा गांव में बसती है। इसलिए वह सारा तंत्र जैसे का तैसे बना रहे। डॉ.आंबेडकर को मालूम था कि गांव का सामाजिक ढांचा घोर अलोकतांत्रिक है, जिसे तोड़ना बहुत जरूरी है और इस व्यवस्था को पूंजीवाद ही तोड़ सकता है,लेकिन उस समय पूंजीवाद काफी घृणा का शब्द बन चुका था। तत्कालीन पत्रकार,लेखक,छात्र और आंदोलनकारी लगभग सारे लोग कम्युनिस्ट हो गए थे।यहां तक कि नेहरू भी कई बार कम्युनिज्म की तारीफ कर उसके पक्षधर दिखाई पड़ते थे। तो उस समय के शब्द पूंजीवाद को दोनों महापुरुषों ने "डेमोक्रेटिक" कहकर ऐसा आवरण पहना दिया कि लोग उन पर आरोप न लगाएं कि वे उस पूंजीवादी व्यवस्था लाने के पक्षधर हैं जिसे कम्युनिस्टों ने शोषण की व्यवस्था बता रखा था। इसीलिए मेटकॉफ के ज़िक्र के बगैर डॉ.आंबेडकर और उनके संविधान को समझना लगभग असंभव सा लगता है।
      लोकतंत्र/डेमोक्रेसी शब्द सन 1950 के दौर में पूंजीवादी दुनिया के लिए इस्तेमाल होता था। इसका मतलब यह है कि "जहां डेमोक्रेसी है,वहां पर पूंजीवाद है।" जहां पर समाजवाद है, वहां पर वर्किंग क्लास की तानाशाही है। इसी दर्शन के साथ डॉ.आंबेडकर और पं.नेहरू ने भारतीय गणतंत्र को एक "डेमोक्रेटिक रिपब्लिक" बनाने का लक्ष्य रखा था। जब इसका मसौदा पूरा हो गया जिसे डॉ.आंबेडकर ने खुद ही बनाया था,फिर 5 अप्रैल,1948 को इस पर अनुच्छेद दर अनुच्छेद गहन बहस शुरू हुई। बहस इसलिए हुई कि संविधान सभा अगर इसे आम सहमति से अनुमोदित करती है तो यह संविधान भारत के लिए लागू हो जाएगा। इस बहस के शुरू होने से पहले डॉ.आंबेडकर ने उद्घाटन भाषण दिया था, तब लोगों को उम्मीद थी कि डॉ.आंबेडकर यूरोपियन या अमेरिकन दर्शनशास्त्रियों को उध्दृत करेंगे जबकि उन्होंने अपने इस उद्घाटन भाषण में चार्ल्स मेटकॉफ को ही उद्धरित किया था।
      भारत देश अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस की तरह बने,एक आधुनिक, वैज्ञानिक, लोकतांत्रिक और पूंजीवादी देश बने। मगर ड्राफ्ट पेश करने के पांच-छः दिन बाद संघ परिवार का इंग्लिश में प्रकाशित मुखपत्र "ऑर्गेनाइजर" ने संविधान को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इसमें कहीं भारतीयता दिखाई नहीं पड़ती है। यही से संघ की भारतीयता एक नई बहस का मुद्दा बन जाता है। अब सवाल यह है कि उस समय आरएसएस की दृष्टि में "भारतीयता" शब्द का क्या मतलब रहा होगा ?
आरएसएस की दृष्टि में "भारतीयता" :
      "भारत में एक हिंदू धर्म है,उसके भीतर ऊंच-नीच की विविधता भरी सामाजिक जाति व्यवस्था है और उसमें कुछ अस्पृश्य भी माने जाते हैं।उसमें एक ऐसी संस्कृति है, जहां दलित मूंछ नहीं रख सकता,सवर्णों के सामने चारपाई पर नही बैठ सकता।केरल राज्य में दलित महिलाओं को स्तन ढकने पर ब्रेस्ट टैक्स देना पड़ता था, विवाह समारोहों में दलित दूल्हा पगड़ी बांधकर और घोड़े पर बैठकर बारात नही निकाल सकता था,नए कपड़े नहीं पहन सकता था,दलित महिलाएं सोने के गहने नहीं पहन सकती थीं, जिसके बहुत सबूत डॉ.आंबेडकर ने प्रस्तुत किए जिसकी बानगी 21वीं सदी में भी दिखाई देती है। ब्राम्हणवादी व्यवस्था का प्रबल समर्थक संघ समय-समय पर कहता रहा है कि डॉ.आंबेडकर द्वारा रचित संविधान उनको स्वीकार्य नहीं है और आजादी के बाद से उन्होंने इस संविधान को कभी मन से माना भी नहीं।इसलिए डॉ.आंबेडकर को उस समय यह लगना स्वाभाविक था कि "कहीं यही लोग,जो आज हमारा बनाया संविधान खारिज़ कर रहे हैं,अगर भविष्य में कभी सत्ता में आ गए तो संवैधानिक व्यवस्था का क्या होगा ?"आज के राजनीतिक सत्ता के दौर में उनकी वही आशंका लगभग सच होती दिखाई पड़ रही है।
        अब पूंजीवाद को थोड़ा और व्यापक संदर्भ में समझना होगा। अक्टूबर 1951 में डॉ.आंबेडकर ने प्रथम लोकसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा पत्र लिखा। उसका शीर्षक था: शेड्यूल कास्ट इमैंसिपेशन मैनिफेस्टो (अनुसूचित जाति मुक्ति घोषणा पत्र)। यह डॉ.आंबेडकर की एकमात्र ऐसी रचना है, जिसमें उन्होंने शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब्स के टाइटिल से उनकी मुक्ति का दर्शन दिया है। आपको अजीब सा लगेगा कि उस दर्शन में उन्होंने कहा है कि "जहां-जहां सरकारी कंपनियां जरूरी होंगी, वहां सरकारी कंपनियां होंगी और जहां प्राइवेट जरूरी होंगी, वहां हम प्राइवेट संस्थाओं को भी अवसर देंगे।"
        पं.नेहरू अच्छी तरह समझ रहे थे कि डॉ.आंबेडकर देश में क्या कहना और करना चाह रहे हैं। उन्हें भी यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई थी कि भारतीय राज्य को भी व्यवसाय में उतरना पड़ेगा, राज्य अपने पैसों के बलबूते ही नया भारत बन पाएगा। पूँजीपतियों के धन से भारत का गणतंत्र पुरानी व्यवस्था से लड़ नहीं पाएगा। डॉ.आंबेडकर को यह भी मालूम था कि पूंजीवाद ने दुनिया भर में महज सामंतवाद को ही नहीं खत्म किया है, बल्कि सामंती संस्कृति को भी खत्म किया है। भारत में जाति व्यवस्था संस्कृति का गम्भीर रूप ले चुकी है, तो शायद "पूंजीवाद भारत की जाति व्यवस्था को भी खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा!"
         इसमें बाकी चीजें तो अच्छी हुईं, लेकिन नेहरू जी, इंदिरा गांधी जी और बाद में राजीव गांधी के समय में प्राइवेट पूंजीवाद को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया। बाद में नरसिंह राव, मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने प्राइवेट कैपिटलिज्म को दिल खोलकर मौका दिया। आर्थिक सुधार आने के बाद देश में एक प्रकार की आर्थिक क्रांति हुई, काफी अनियोजित शहर और उद्योग-धंधे बढ़ गए। इस व्यवस्था से गांव के लोगों को शहर आने का मौका मिला तो भारत में हलवाही प्रथा खत्म हो गई, उत्तर भारत से बैल खत्म हो गए और दलित, जमींदारों के दरवाजों से मुक्त हो गए।
        सन 1990 के पहले की याद करें तो जितने आधुनिक कॉरपोरेट ओएनजीसी, इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, एनटीपीसी, भेल,बेल,गेल, सेल जैसे सार्वजनिक उपक्रम बने, वे पूरी तरह से अमेरिकी पूंजीवादी पैटर्न पर बनी हैं। आईआईटी और एम्स भी उसी पैटर्न पर बने हैं। इसे स्टेट कैपिटलिज्म कहा जाता है, जिसे खत्म करके यानी सरकारी/सार्वजनिक कंपनियों/उपक्रमों को खत्म करके ओबीसी और एससी-एसटी को समुचित प्रतिनिधित्व देने वाली संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर ही नही,बल्कि उसे धीरे-धीरे खत्म किये जाने की साजिशपूर्ण योजना है और उस दिशा में आज आरएसएस नियंत्रित राजनीतिक सत्ता के दौर में प्रयास तेजी से जारी हैं। डॉ.आंबेडकर की चिंता थी कि यदि देश की संवैधानिक सत्ता गलत हाथों में पड़ गयी, तो इसका दुरुपयोग हो सकता है!आज लोकतांत्रिक तानाशाही के दौर में वही हो रहा है कि स्टेट कैपिटलिज्म को खत्म कर दो तो भारतीय संविधान का जो लड़ाकू गणतंत्र है, वह स्वतः पंगु या कमजोर हो जाएगा और पश्चिमी सभ्यता की तरफ तेजी से बढ़ रहे भारत की गति कमजोर हो जाएगी और एक बार फिर वही ऊंच-नीच और छुआछूत पर आधारित सड़ी-गली सामाजिक जाति व्यवस्था की शायद वापसी हो जाए!🙏
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Tuesday, May 24, 2022

इंजन-सुरेश सौरभ

   (लघुकथा)  

-सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी पिन-262701
मो-7376236066
      लाठी के पीछे का सिरा वह अंधा बूढ़ा पकड़ता, आगे का, वह काली मटमैली बुढ़िया पकड़े हुए चलती। दोनों भीख मांगते। सारे शहर में वह दया के पात्र थे, लिहाजा उनकी  झोली रोज भर जाया करती थी। 
        एक दिन उसकी पार्टनर बुढ़िया मर गई। 
       अब वह दूसरे शहर में चला गया । अब उसकी आंखों की ज्योति लौट आई। वह अकेले भीख मांगता,पर पहले जैसी आमदनी नहीं थी। 
    अब वह पहले जैसे इंजन की तलाश कर रहा था, और उसे अपने साथ, तीसरे शहर ले जाकर, अपने काम को बेहतर तरीके से पटरी पर लाना चाह रहा था। 
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प्यार का एहसास-विकास कुमार

   कविता   

विकास कुमार
अन्छा दाउदनगर, औरंगाबाद बिहार
कभी हमारी मुलाकात हो या न हो बस मेरा हर बात याद रखना,
जिस दिन तुम मेरे लिए तड़पी थी बस ओ रात याद  रखना।

कल को मेरी चेहरा तुम्हे याद हो ना हो बस फोटो साथ रखना।
चाहे हम जहाँ भी रहे जिस हाल में रहे बस मुझे न तुम परखना।।

मैं अगर पागल भी हो जाऊ, तो तुम मुझे बस पागल मत कहना।
मुझे देखकर तुम्हे दर्द भी हो, तो तुम मुझे भूलकर भी सहना।।

मैं तो टूट के बिखर गया हूं, अब न हो पाता  मुझे कोई बहाना।
इस दुनिया भरी बाजार में तुम्हे,  मिल जायेंगे भले हजार दीवाना।।

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Monday, May 23, 2022

समानता, स्वतन्त्रता,निष्पक्षता, निर्विवादिता और बंधुता के पर्याय : डॉ. भीमराव आंबेडकर : एक निर्भीक - अपराजेय नायक-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

            डॉ भीमराव आंबेडकर को जब संविधान-निर्माण की ज़िम्मेदारी दी गई तो वहां उन्होंने भारत के सबसे पिछड़े और वंचित समाज जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक और महिलाएं भी शामिल हैं, के सभी प्रकार के हितों का सबसे ज्यादा ख्याल रखा,लेकिन किसी गैर-वंचित वर्ग या समुदाय का उन्होंने ज़रा भी नुकसान होने नहीं दिया और न ही किसी प्रकार का वैरभाव या प्रतिक्रियावादी नज़रिया परिलक्षित होने दिया, यह हमारे संविधान का सबसे महत्वपूर्ण, खूबसूरत और सराहनीय पक्ष है। इसमें किसी को तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए कि यदि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के संविधान निर्माण की जिम्मेवारी किसी सवर्ण समाज के व्यक्ति के नेतृत्व में दी गयी होती तो ऐसा हरगिज नहीं हो पाता। लोकतंत्र में संख्या बल बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है। अशिक्षित-गरीब समस्त बहुजन समाज को एक समान वोट का अधिकार दिलाने में डॉ.आंबेडकर का अद्वितीय योगदान रहा और इसके लिए उन्हें संविधान सभा मे निर्भीकतापूर्वक खड़े होकर कड़ा संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने खुद चुनाव लड़ा,भले ही वह हार गए। देश का एक बड़ा अभिजात्य वर्ग नहीं चाहता था कि डॉ.आंबेडकर जैसा उच्च शिक्षित,विधि वेत्ता,अर्थशास्त्री और देश की सामाजिक जाति व्यवस्था की ऊँच-नीच के मर्म को समझने और उसका समाधान निकालने की समझ वाला संविधान सभा में पहुंचें! डॉ आंबेडकर के संविधान सभा में पहुंचने की भी एक कहानी है। उसके पूर्व वह लगातार शोषित और वंचित वर्ग को राजनीतिक सत्ता के मायने और महत्व को समझाते रहे अर्थात आशय स्पष्ट था कि डॉ.आंबेडकर राजनीतिक सत्ता को ही सभी प्रकार की प्रगति का मूल मानते थे। इस देश का दलित और शोषित वर्ग देश का हुक्मरान बने,उसके लिए उन्हें समान मताधिकार और लोकसभा-विधानसभाओं में आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था की। उन्हें पता था कि भारत जैसे जातिवादी और धार्मिक कट्टरपंथी देश में वंचितों का हक़ यहां के मनुवादी संस्कृति के लोग आसानी से देने वाले नहीं हैं! इसके लिए उन्होंने तमाम देशों के संविधानों का गहन और सूक्ष्म अध्ययन कर देश मे निष्पक्षतापूर्वक    समतावादी व्यवस्था स्थापित करने के उद्देष्य से महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रावधानों की व्यवस्था की।
             " शिक्षित बनो! संघर्ष करो! संगठित रहो!" के सूत्र द्वारा डॉ.आंबेडकर की दूरदृष्टि राजनीतिक सत्ता की तरफ ही थी। इसको बार-बार बोलकर वह अपनी सोयी वंचित-शोषित जनता की शक्ति का आह्वान करना चाहते थे कि शिक्षा, संघर्ष और संगठन को माध्यम बनाकर इस देश की बहुजन आबादी, जो कि पहले से ही यहाँ की हुक्मरान कौम रही है, अब संख्या बल के आधार पर लोकतंत्र में राजनीतिक सत्ता को हासिल करे। यद्यपि बीएसपी संस्थापक कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में खास तौर से डॉ.आंबेडकर की इस सैद्धांतिकी को व्यावहारिक धरातल पर सच साबित करके दिखाया। उत्तर भारत मे दलित राजनीति की दस्तक भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कोई सामान्य घटना नहीं है।
               बावजूद इसके, अफसोस और दुख की बात है कि मनुवादी व्यवस्था से लड़-भिड़कर डॉ.आंबेडकर के अथक प्रयत्नों से प्राप्त संवैधानिक अधिकारों के सम्बंध में अभी तक यहां का दलित-आदिवासी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यक और महिला समुदाय सही अर्थों में समझ हासिल नहीं कर पाया है। यहां का बहुजन समाज अपनी धार्मिक और आर्थिक गुलामी के चलते वोट की अहमियत को पहचानने में अभी भी गुमराह और असफल होता रहता है। 2019 लोकसभा चुनाव और 2022 यूपी विधान सभा चुनाव में ओबीसी,अनुसूचित जाति और जनजातियों को डॉ.आंबेडकर के अथक प्रयासों से हासिल किए गए राजननैतिक मताधिकार को प्रति माह मिल रहे पांच किलो अनाज और पांच सौ रुपये किसान सम्मान निधि के स्वार्थ में मनुवादी राजनीतिक शक्तियों के पास गिरवीं रखने में अपने महानायक की त्याग-तपस्या की बलि देने में कोई संकोच तक नही हुआ। इस लालच भरे राजनैतिक कदम से डॉ.आंबेडकर द्वारा दिलाई गयी मताधिकार और लोकतांत्रिक शक्ति तात्कालिक रूप से कमज़ोर होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। एक तरह की इस चुनावी रिश्वतखोरी के दूरगामी दुष्प्रभावों से अनभिज्ञ बहुजन समाज में तेजी से उपजती आर्थिक गुलामी की संस्कृति की वजह से डॉ.आंबेडकर की राजनीतिक विचारधारा पर राजनीति करने वाले दलों के प्रति विश्वास और आस्था जैसा संदेश काफी पीछे जाता हुआ प्रतीत हो रहा है।
                 डॉ.आंबेडकर ने अपने अंतिम समय में बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर ऐतिहासिक धार्मिक और सांस्कृतिक क्रांति का सूत्रपात किया था। इसके माध्यम से वह इस देश को प्रबुद्ध अर्थात ज्ञान आधारित भारत बनाना चाहते थे। उनका यह बहुत बड़ा सपना था जो उनके असमय परिनिर्वाण के चलते अधूरा रह गया। इसके लिए देश के शोषित और वंचित समुदाय को अभी बहुत काम करना होगा। आंबेडकरी मिशन-आंदोलन को और मजबूत करना होगा। कांशीराम के पैदल और साईकिल यात्रा रूपी संघर्ष से गांव-गांव तक पहुंचे इस आंदोलन को समय-समय पर जनजागरण के माध्यम से जिंदा रखना होगा। आंबेडकर के "पे बैक टू द सोसाइटी " के सिद्धांत को अपनाते हुए ज्यादा-से-ज्यादा संख्या में पढ़े-लिखे और नौकरी- पेशा में लगे नौजवानों, महिलाओं और अवकाशप्राप्त अनुभवी लोगों को आगे आना होगा। उन्हें डॉ आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी के कारवां का नेतृत्व संभालना होगा। बहुजन समाज के अंदर की पितृसत्ता को डॉ.आंबेडकर खतरनाक मानते थे। इसलिए एक लड़ाई उसके लिए भी समानांतर चलती रहनी चाहिए। कुल मिलाकर वंचित समाज को अपनी सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक - सांस्कृतिक-आर्थिक ज़मीन को सुदृढ़ बनाकर राजनीतिक ताकत को नए सिरे से हासिल करना होगा। इसके बाद ही तमाम तरह के शोषण-उत्पीड़न व भेदभाव से मुक्त समानता, स्वतन्त्रता और बंधुता पर आधारित समतामूलक समाज बनने का सपना सच होता दिख पाएगा। वास्तव में इस बड़े काम को संभव कर दिखाने के बाद इस देश का बहुजन समाज पूरी दुनिया को यह बताने में गौरवान्वित महसूस कर सकता है कि डॉ.आंबेडकर सही मायनों में "ज्ञान के प्रतीक" और "विश्व रत्न" हैं।
           आइए!जानते हैं कि डॉ.भीमराव आंबेडकर के महान और अतुलनीय व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में दुनिया के विकसित देश और उनके प्रमुख किस प्रकार सोचते हैं:
अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा : यदि डॉ.भीमराव आंबेडकर हमारे देश मे पैदा हुए होते तो हम उन्हें " सूर्य" की उपाधि से नवाज़ते।
साऊथ आफ्रिका के राष्ट्रपति नेल्सेन मंडेला: भारत से लेने लायक एक ही चीज़ है, वह है, डॉ.आंबेडकर द्वारा रचित संविधान।"
हंगरी : " हम अपनी लड़ाई डॉ.आंबेडकर की क्रांति के आधार पर लड़ रहे हैं।"
नेपाल: "हमारा आने वाला संविधान डॉ आंबेडकर के नेतृत्व में लिखा गया भारतीय संविधान पर आधारित होगा।"
पाकिस्तान: "अगर हमारे देश में डॉ.आंबेडकर रहे होते तो हमें धार्मिक कट्टरता मिटाने में आसानी होती।
इंग्लैण्ड के गवर्नर जनरल (आज़ादी से पहले): "अगर भारत को पूर्ण स्वतंत्रता चाहिये तो डॉ. आंबेडकर जैसे अनुभवी, निष्पक्ष राजनीतिज्ञ और समाजशास्त्री को संविधान सभा में होना ही चाहिये।"
जापान: " डॉ आंबेडकर ने मानवता की सच्ची लड़ाई लड़ी थी।" (जापान में डॉ.आंबेडकर की मूर्ति लगाई जा रही है)
कोलंबिया यूनिवर्सिटी: " हमें गर्व है कि हमारी यूनिवर्सिटी में एक ऐसा छात्र पढ़ा जिसने भारत का संविधान लिखा।"(यूनिवर्सिटी में मूर्ति स्थापना पर यूनिवर्सिटी प्रमुख)
                दुनिया के लगभग 100 से अधिक देशों ने डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी को अपनाया है, किंतु जो सम्मान उन्हें दुनिया के अन्य विकसित देशों ने दिया वह सम्मान उन्हें अपने देश में मिलने में काफी देर कर दी गयी, क्योंकि भारत में जाति और धर्म की व्यवस्था आज भी मानवतावाद पर हावी है जो व्यक्ति के योगदान को नहीं,बल्कि जाति व धर्म को ज्यादा महत्व देती है। एक विश्वरत्न को कथित श्रेष्ठ जातिवादियों की छोटी मानसिकता ने जाति से जोड़कर उन्हें छोटा साबित करने में कोई कोर-कसर नही छोड़ी है! डॉ आंबेडकर एक व्यक्ति नही है, वह एक  छोटी-मोटी एकेडमिक संस्था जैसी है जिसमे समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र,अर्थशास्त्र,पत्रकारिता और कानून जैसे विषयों के गूढ़ रहस्यों के अध्ययन और अध्यापन की अपार संभावनाएं छुपी हुई हैं। उनके व्यक्तित्व को संविधान निर्माता और दलितों के मसीहा तक सीमित करने की मनुवादियों की साज़िश को समझना और समाज को समझाना होगा। यदि डॉ आंबेडकर किसी ब्राम्हण समाज मे पैदा हुए होते तो यही डॉ.आंबेडकर घर-घर किसी देवी-देवता से कम पूजनीय नही होते। कांश! डॉ आंबेडकर जी कुछ वर्षों और जीवित रहे होते तो एससी - एसटी और ओबीसी की सामाजिक,शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन दिखाई देता और विविध संकटों के दौर से गुजरती बहुजन समाज की राजनीतिक दुर्दशा भी नही देखनी पड़ती।

Friday, May 06, 2022

राज्यसभा और विधान परिषदों में भी लागू हो एससी और एसटी के लिए आरक्षण और ओबीसी के लिए भी हो एससी-एसटी की तरह राजनीतिक आरक्षण-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
          वर्तमान में लोकसभा और राज्य की विभिन्न विधान सभाओं में एक-चौथाई सदस्य एससी व एसटी वर्ग के हैं, लेकिन राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों में उनका प्रतिनिधित्व (आरक्षण) नहीं है। यदि राज्यसभा और विधान परिषदों में भी होता आरक्षण तो  एससी-एसटी को मिल जाता संविधान सम्मत उचित प्रतिनिधित्व! आज के नवउदारवादी युग में वंचितों के हितों की रक्षा तभी हो सकेगी जब देश की व्यवस्था के हर स्तर पर उनका आनुपातिक या समुचित प्रतिनिधित्व हो। मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी को भी एससी-एसटी की तरह राजनीतिक आरक्षण अर्थात लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में समुचित आरक्षण  के साथ नौकरियों में प्रोमोशन में भी आरक्षण मिलना चाहिए। ओबीसी और एससी -एसटी वर्ग को संसद के उच्च सदन (राज्यसभा) और राज्यों की विधान परिषदों में भी आरक्षण को सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने की नई बहस में शामिल किया जाना चाहिए। ओबीसी और एससी-एसटी आधारित वोट बैंक की राजनीति करने वाले सभी दलों और ओबीसी- एससी-एसटी के सभी प्रतिनिधियों (सांसदों-विधायकों) को डॉ.आंबेडकर की सामाजिक न्याय की इस अधूरी पड़ी लड़ाई को सामूहिक तरीके से राजनीतिक स्तर पर लड़ने की जरूरत है।
             लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में लगभग 25प्रतिशत सदस्य एससी-एसटी हैं,फिर भी दलितों और आदिवासियों के एक बड़े वर्ग का मानना कि उन्होंने सामाजिक हितों की रक्षा करने में उतनी हिम्मत और शिद्दत से प्रयास करते हुए नही दिखाई दिए जितनी डॉ आंबेडकर ने संविधान बनाते समय अपेक्षा की थी। यह भी कहना अतिशयोक्ति नही होगी वे अक्षम और प्रभावविहीन सिद्ध हुए। उनमें से कुछ ही एससी और एसटी से जुड़े मुद्दे उठाते रहे हैं और कई इन वर्गों की बदहाली के प्रति चिंतित और संवेदनशील हैं। सबसे ज्यादा सोचनीय विषय यह है कि लोकसभा व विधानसभाओं के एससी-एसटी प्रतिनिधियों की आवाज उनकी ही पार्टियों के संसदीय और विधायक दलों में नहीं सुनी जाती है। एक रणनीति के तहत "जितनी चाबी भरी राम ने,उतना चले खिलौना" की तर्ज़ पर उनकी भूमिका बहुत सीमित कर दी जाती है। जब एससी-एसटी वर्ग के प्रतिनिधि पर्याप्त अनुभव प्राप्त कर लेते हैं और वे समझने लगते हैं कि एससी - एसटी की बेहतरी के लिए और कौन से कदम उठाए जाने चाहिए, तब उन्हीं की पार्टियां उन्हें उम्मीदवार बनाना तक उचित नहीं समझती हैं। उनकी जगह नौसिखियों और पद लोलुपों को नामांकित करती हैं जिन्हें नए सिरे से चीजों को सीखने और समझने में ही काफी समय निकल जाता है। हर राजनीतिक दल सामान्यतः आरक्षित सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों को खड़ा करने से परहेज करती हैं जो मजबूती से और बिना किसी लाग-लपेट के एससी-एसटी वर्ग के अधिकारों के पक्ष में आवाज उठाते हैं। राज्यसभा और विधानपरिषदों में उनका आरक्षण नही होने के कारण उच्च (स्थायी) सदनों में एससी-एसटी की उपस्थिति ना के बराबर रहती है। इसलिए एससी-एसटी वर्ग की पूरी संसद और राज्यों के विधानमंडलों में 25 प्रतिशत भागीदारी नहीं हो पाई है।
           अब व्यावहारिक समाधान यह है कि सभी राजनैतिक दलों पर यह दबाव बनाया जाए कि वे लोकसभा और विधानसभा की आरक्षित सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों को खड़ा करें जो एससी व एसटी के अधिकारों के पक्ष में दृढ़़ता के साथ खड़े हो सकें। इसके लिए एससी और एसटी को लामबंद करना होगा और उनमें जनजागृति फैलाने के लिए कैडर कैम्पों के माध्यम से सतत संवाद और संपर्क स्थापित करने के समुचित प्रयास करने होंगे। दलितों को एकजुट करने के प्रयासों में आने वाली समस्याओं के कई उदाहरण हैं, जैसे अनुसूचित जाति- जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, अनुसूचित जातियों के लिए विशेष घटक योजना और आदिवासी उपयोजना के विरोध के खिलाफ वंचित वर्गों को एकजुट करने के प्रयासों की असफलता। हाल ही में, ऊना में दलितों पर हुए अत्याचार के विरूद्ध लोगों को लामबंद करने के प्रयास अपेक्षानुसार सफल होते नही दिखाई नहीं दिए हैं। इन प्रदर्शनों  में  कुछ हजार व्यक्ति ही जुट पाए और किसी भी मामले में इनकी संख्या दस हजार से अधिक नहीं हो सकी। इसके विपरीत, अत्याचार निवारण अधिनियम के निष्प्रभावी करने की मांग जोे किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं हो सकती और शक्तिशाली-वर्चस्वशाली ऊँची जातियों को ओबीसी में शामिल किए जाने के समर्थन में कुछ ऊँची जातियों द्वारा जो शक्ति प्रदर्शन गुजरात और महाराष्ट्र में हुए उनमें भारी भीड़ जुटती दिखाई दी। ये दोनों ही मांगें सामाजिक यथार्थ या न्याय और संवैधानिक प्रावधानों के अनुकूल नही हैं। इन दोनों राज्योें के विभिन्न शहरों में इन मुद्दों को लेकर जो रैलियां हुईं उनमें दसों हजार व्यक्तियों ने भाग लिया और कुछ में तो प्रदर्शनकारियों की संख्या कई लाख से भी अधिक थी। संसाधनाें और जागृति के अभाव में जो समस्याएं एससी व एसटी से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों को लागू करवाने के पक्ष में इन समुदायों के व्यक्तियों को लामबंद करने में पेश आती हैं, ये उसके कुछ उदाहरण हैं। इन दो समस्याओं को दूर करने के बाद ही एससी- एसटी को राजनैतिक सत्ता में अपना वाजिब हक मिल पाएगा और वे विकास के सही फल का स्वाद चख सकेंगे। जब तक यह नहीं हो जाता है,तब तक एससी- एसटी के अधिकार उन्हें दिए जाने के पक्ष में सतत और अधिकतम सामाजिक-राजनीतिक दबाव बनाने की जरूरत है। उन्हें सामाजिक रूप से अगड़ी जातियों के समकक्ष लाने और अपमान-अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए यह आवश्यक है। ऐसा करने के लिए कुछ उपलब्ध अनुकूल परिस्थितियों का बेहद समझदारी से प्रयोग करने की जरुरत है।
           कुछ अनुकूल परिस्थितियां कुछ ही कारणों से बन पाई हैं। इनमें से एक है, एससी-एसटी वर्ग में एक मजबूत शिक्षित व सम्पन्न मध्यवर्गीय तबके का उभरना,भले ही यह वर्ग छोटा है। यह तबका डॉ.आंबेडकर के सामाजिक न्याय स्थापित करने के उद्देश्य से आरक्षण की नीति लागू कर सरकारी योजनाओं के चलते उभरा है। दूसरा कारण है, एससी को मिले समान मताधिकार रूपी हथियार से चुनावों को प्रभावित करने की क्षमता और शक्ति। कुछ राज्यों में दलित समाज बहुमत में न होते हुए भी वह चुनावों को प्रभावित करने की स्थिति में है। परंतु यह तभी हो सकता है जब ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों में एससी-एसटी में उनके अधिकारों व उनके लिए निर्धारित लाभों के संबंध में न केवल जनजागृति पैदा की जाए वरन् उन्हें यह भी बताया जाए कि वे राजनैतिक दलों और उनके उम्मीदवारों को किस तरह यह आभास करा सकते हैं कि उनके समर्थन और सहयोग के बिना चुनावों में जीत हासिल करना आसान नहीं होगा! यह काम एससी-एसटी वर्ग के शिक्षित और संपन्न मध्य वर्ग को तो करना ही होगा, इसके साथ ही उस ओबीसी को भी इसमें हाथ बंटाना होगा जो सामाजिक न्याय में विश्वास रखता है और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को और अधिक व्यापक स्तर पर व्यावहारिक और सार्थक बनाना चाहता है। इसके अतिरिक्त, यह भी आवश्यक है कि एससी -एसटी की विभिन्न जातियों और उपजातियों के बीच पारस्परिक वैरभाव समाप्त करने की दिशा में समुचित प्रयास भी किये जाएं। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एससी-एसटी वर्ग की सभी जातियों में पूर्ण एकता आवश्यक है। एससी-एसटी की विभिन्न जातियों की सामाजिक सरंचना और विकास का स्तर अलग-अलग है और उसके अनुसार आरक्षण और अन्य योजनाओं का लाभ लेने की उनकी क्षमता भी अलग-अलग है। इसके कारण उनके बीच उपजने वाले शत्रुता के भाव जैसी समस्याओं को दलित वर्ग की विभिन्न जातियों के सामाजिक पंचों को दूर करना होगा।
         सबसे पहले यह आवश्यक है कि हम राज्य और सरकार के बीच अंतर करें। भारतीय राज्य की मूल नीतियों और कर्तव्यों का निर्धारण संविधान में कर दिया गया है। अब मुद्दा केवल सरकारों द्वारा नीतियों के निर्माण और उनके क्रियान्वयन का है। सन् 1991 के बाद से सरकारों ने उदारीकरण के नाम पर ऐसी आर्थिक नीतियां अपनाई हैं जिनमें बाजार को सबसे प्रमुख स्थान दिया गया है। निकट भविष्य में इन आर्थिक नीतियोें में बदलाव की आशा करना यथार्थपूर्ण नहीं होगा।
          इसके साथ ही, दुनिया के कई हिस्सों में बाजार-केन्द्रित अनियंत्रित विकास मॉडल के दुष्परिणामों के विषय पर जागृति आ रही है। दुनिया को यह अहसास हो रहा है कि बाजार-आधारित विकास से न केवल आर्थिक विषमता की खाई बढ़ी है,बल्कि मध्यम और श्रमिक वर्ग की आर्थिक स्थिति या तो गिरी है या वैसी ही बनी हुई है। दूसरी ओर, राष्ट्रीय संपदा का बड़ा हिस्सा कुछ धन पशुओं अर्थात कॉरपोरेट घरानों के हाथों में केन्द्रित हो रहा है जो अपने धन का नंगा प्रदर्शन कर रहे हैं। वे अपने रहने के लिए ऐसे भवन बना रहे हैं, जो इस देश के राजाओं और सम्राटों को भी नसीब नहीं हुए थे। इस तरह के विकास मॉडल पर प्रतिक्रिया विकसित देशों में उभरकर सामने आने लगी है। एससी-एसटी व अन्य वंचित वर्गों को अधिकार व समानता उपलब्ध करवाने के लिए हम वृहद आर्थिक नीतियों में इस तरह के बदलाव आने का इंतजार नहीं कर सकते जिससे वे बाजार-केन्द्रित न होकर जनता के कल्याण पर केन्द्रित हो जाए। इन वंचित वर्गों के अधिकारों, सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई लगातार चलती रहनी चाहिए,चाहे जो भी सरकार शासन में हो और उसकी आर्थिक नीतियां कुछ भी हों!
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Wednesday, May 04, 2022

अगले पेज की खबर-रमाकान्त चौधरी

(लघुकथा) 
           रमाकान्त चौधरी           
ग्राम -झाऊपुर, लन्दनपुर ग्रंट, 
जनपद लखीमपुर खीरी उप्र।
सम्पर्क -  9415881883 

क्या जमाना आ गया है ? लगता है इंसान का जमीर मर गया है अब छोटी छोटी बच्चियाँ भी सुरक्षित नही  हैं आखिर इनकी सुरक्षा करने के लिए क्या दूसरे गृह  से लोग आएंगे अखबार पढ़ते हुए रामधन बड़बड़ाने लगे। 
रामधन को बड़बड़ाते देख महेंद्र बाबू ने पूछा -क्या हुआ भाई क्यों बड़बड़ा रहे हो? 
रामधन ने अखबार की ओर इशारा करते हुए कहा इस खबर को देखो 'एक अधेड़ ने 6 माह की बच्ची को बनाया हवस का शिकार, इसी के साथ रामधन बोले ऐसे मामले में कानून व्यवस्था और अधिक सख्त हो तभी महिलायें व बच्चियाँ सुरक्षित रह सकती हैं।
अगले पेज की खबर नहीं देखे हो। महेंद्र बाबू ने प्रश्नभरी नजरों से देखते हुए रामधन से पूछा। 
अगले पेज पर क्या कोई विशेष खबर है? रामधन उत्सुक निगाहों से देखते हुए बोले। जवाब में महेंद्र बाबू ने कहा अगले पेज पर खबर लगी है ' दुष्कर्म पीड़िता का रिपोर्ट लिखाने के बहाने कई लोगों ने किया यौन शोषण।, 
अब शासन प्रशासन को लेकर रामधन के पास कोई सवाल न था रामधन की आंखें सिर्फ महेंद्र बाबू को ही देख रही थीं। 
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Sunday, April 24, 2022

संतू जाग गया, पक्की दोस्ती का विमोचन सम्पन्न हुआ

    पुस्तक विमोचन   
संतू जाग गया, पक्की दोस्ती विमोचन सम्पन्न लखीमपुर खीरी आज सनातन धर्म विद्यालय में परिवर्तन फाउंडेशन संस्था के तत्वावधान में एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें गोला गोकर्णनाथ से मुख्य  अतिथि के रूप में वरिष्ठ कवि नंदी लाल विशिष्ट अतिथि कवि  समाजसेवी  द्वारिका प्रसाद रस्तोगी ने, डॉ मृदुला शुक्ला "मृदु" की कहानी संग्रह 'संतू जाग गया' और सुरेश सौरभ की कृति पक्की दोस्ती लघुकथा संग्रह का विमोचन किया। मुख्य वक्ता प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ राकेश माथुर ने पुस्तकों की समीक्षा  प्रस्तुत करते हुए कहा मृदुला की कहानियां गद्य गीत की तरह मार्मिक और हार्दिक हैं वहीं सौरभ की पक्की दोस्ती की बाल कहानियां बच्चों के लिए प्रेरणा दायक है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे शिक्षाविद् सत्य प्रकाश शिक्षक ने कहा रचनाकार सूर्य की तरह है जो समाज को सूर्य की तरह ही आलोकित करता है। सिधौली से पधारे  "श्रमवीर" कृति के रचयिता  देवेन्द्र कश्यप 'निडर' ने कहा सौरभ जी की रचनाओं में युगीन समय बोध है।

कार्यक्रम का संचालन कर रहे कवि श्याम किशोर बेचैन और शायर कवि विकास सहाय ने अपने बेहतरीन अंदाज से कविता पाठ करके सभा में समां बांध दिया। गोला गोकर्णनाथ के संत कुमार बाजपेई संत, रमाकांत चौधरी, डॉ शिव चन्द्र प्रसाद, हरगांव के युवा कवि विनोद शर्मा "सागर" नकहा के नवोदित कवि दुर्गा प्रसाद नाग, रंजीत बौद्ध, इन्द्र पाल, मृदुला शुक्ला, द्वारिका प्रसाद रस्तोगी ने भी सुमधुर काव्य पाठ किया। सरदार जोगिंदर सिंह चावला, अखिलेश अरूण, चंदन लाल वाल्मीकि, ने साहित्य की प्रासंगिकता पर विचार प्रकट किए। बालिका मानसी, रूपांसी, अपूर्वा शाक्य,  पूर्णिमा शाक्य ने भी कविता पाठ किया। संयोजक श्याम किशोर बेचैन ने अतिथियों को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया। सभा में शमशुल हसन उर्मिला शुक्ला, राम बाबू, मनीष गौतम, राज कुमार वर्मा, आदि काफी संख्या में लोग मौजूद रहे।

घायल है कानून व्यवस्था-रमाकान्त चौधरी


गोला  गोकर्ण नाथ लखीमपुर खीरी
 मोब 94 15 88 18 83 
घायल है कानून व्यवस्था,संविधान पर ताले हैं। 
संसद में जो बैठें हैं, सब सत्ता में मतवाले हैं। 

भरी भीड़ में नारी के जब वस्त्र उतारे जाते।
संसद में बैठे मंत्री जी  तनिक नही शरमाते। 
 बंद किए आंखें सबके सब देश के जो रखवाले हैं।
 संसद में जो बैठें हैं, सब सत्ता में मतवाले हैं।
 
निर्दोषों पर चले लाठियां,दोषी सब बच जाते।
बन के दल्ले घूम रहे ,वे राम नाम गुण गाते।
सबके सब हैँ चोर उचक्के, सब ही देखे भाले हैँ। 
संसद में जो बैठें हैं, सब सत्ता में मतवाले हैं।

संविधान की पीड़ा का मैं किसको दर्द  सुनाऊँ। 
आंसू पोंछू भारत के या खुद ही अश्क बहाऊँ। 
ऐसी अजब व्यवस्था में हम कैसे खुद को संभाले हैं। 
संसद में जो बैठें हैं, सब सत्ता में मतवाले हैं।

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Saturday, April 23, 2022

जातिवार जनगणना कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं,बल्कि डॉ.आंबेडकर के सपनों और भारतीय संविधान अनुरूप राष्ट्र-निर्माण और विकास के लिए जरूरी है जिसकी गणना साठ के दशक के शुरू में ही हो जानी चाहिए थी है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

    विमर्श   
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
          सामाजिक न्याय और बंधुता मानवीय संवेदनशीलता का एक बेहद गम्भीर मसला है और जातिवार जनगणना की मांग को भी उसकी एक महत्वपूर्ण और अभिन्न कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए। हज़ारों सालों की ऊँच-नीच की जड़ता से भरे भारतीय समाज में " समता, स्वतंत्रता व बंधुता '’ की स्थापना के लिए समाज सुधारकों द्वारा समय-समय पर कोशिशें की गईं। ग़ौर करने लायक यह है कि ऐसे अधिकांश समाज सुधारक एससी या ओबीसी से ही निकले हैं। औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ों ने हमारे देश के गैर-बराबरी भरे समाज में अलग-अलग समूहों की गणना कर उनके जीवन से जुड़े विभिन्न विषयों का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करने का निर्णय लिया और इस कड़ी में भारत में जातिवार जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी। अंतिम बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। उसी आधार पर अब तक यह अंदाजा लगाया जाता रहा है कि देश में किस सामाजिक समूह के लोग कितनी तादाद में हैं।
         जातिवार जनगणना क्यों जरूरी है: 1951 से 2011 तक की हर जनगणना में संवैधानिक बाध्यता के चलते अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गिनती तो हुई है, पर अन्य दूसरी जातियों की नहीं। आखिर , क्या वजह है कि भारत सरकार अपने देश की " सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई " जातियों की अलग-अलग संख्या जानने और बताने से हमेशा कतराती रही हैं? दुनिया का शायद ही कोई लोकतांत्रिक देश होगा जो अपनो लोगों के जीवन से जुड़ी सच्चाई को जानने से नाक-भौं सिकोड़ता हो! जो देश का समाज समावेशी नहीं होगा, उस पाखंड से भरे विभाजित समाज के जरिये अखंड भारत की दावेदारी/परिकल्पना हमेशा खोखली और राष्ट्र-निर्माण की संकल्पना अधूरी और झूठी सिद्ध होगी। जातिवार जनगणना की मांग इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि व्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों में उनके "ओवर-रिप्रेज़ेंटेशन व अंडर-रिप्रेज़ेंटेशन " का एक वास्तविक आंकड़ा सामने आ सके जिनके आधार पर कल्याणकारी योजनाओं व संविधान के सामाजिक न्याय के विषयों पर सक्रिय रूप से सकारात्मक दिशा में तेज़ी से बढ़ा जा सके। सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण विषय पर बहस होते समय हमेशा सम्बंधित रिप्रजेंटेशन के आंकड़े मांगती रही है, जैसे प्रोमोशन मे रिजर्वेशन का मसला।
        संविधान के अनु. 340 के तहत गठित प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर ने 1955 की अपनी रिपोर्ट में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने की सिफारिश की थी। द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बीपी मंडल अपनी रिपोर्ट में 3743 जातियों को एक जमात के रूप में सामने लाए। आयोग ने सामाजिक-शैक्षणिक गैर-बराबरी से निपटने के लिए एक पुख्ता दर्शन/विचार सामने रखते हुए मोटामोटी 40 सिफारिशों में एक भूमि-सुधार की भी बात कही थी।
       जातिवार जनगणना की मांग अटल बिहारी बाजपेयी ने की थी खारिज: दो-दो बार देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में जातिवार जनगणना को लेकर आम सहमति बनी। एक बार जनता दल नीत युनाइटेड फ्रंट सरकार (1996-98) में 2001 के लिए और दूसरी बार ( 2005-2014) यूपीए-2 की सरकार में 2011की जनगणना के लिए। इस मुद्दे पर पहली बार सरकार चली गई और जब अटल बिहारी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उस मांग को सिरे से खारिज कर दिया। वहीं दूसरी बार मनमोहन सिंह के आश्वासन के बावजूद कुछ दक्षिणपंथी सोच के नेताओं ने बड़ी चालाकी से उस संभावना को पलीता लगा दिया। जो जनगणना सेंसस कमीशन ऑफ इंडिया द्वारा जनगणना अधिनियम,1948 के मुताबिक होनी थी, उसे चार टुकड़ों में बांटकर सामाजिक-आर्थिक सर्वे की शक्ल में कराया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी क्षेत्रों में आवास व शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय की ओर से सामाजिक-आर्थिक जनगणना की गई जिस पर 4,893 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद जो आंकड़े जुटाये गये, वो सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के हैं, नाकि जातिवार जनगणना के और उन आंकड़ों को भी आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया।
        जातिवार जनगणना क्यों नहीं करवा सकी कोई सरकार? : आखिर वे कौन से डर है जिसके चलते आज़ादी के 75 साल बाद भी आज तक कोई भी सरकार जातिवार जनगणना करवाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी? दरअसल, जैसे ही सारी जातियों के सही आंकड़े सामने आएंगे, वैसे ही शोषकों द्वारा गढ़ा गया यह नैरेटिव ध्वस्त हो जाएगा कि ईबीसी ओबीसी की हकमारी कर रहा है या ओबीसी दलित-आदिवासी का शोषक है। वे मुश्किल से बनी जमात की हज़ारों जातियों को फिर से आपस में लड़ा नहीं पाएंगे और हर क्षेत्र में आरक्षण के माध्यम से समुचित प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा।यह हास्यास्पद ही है कि बिना पुख़्ता आंकड़ों के, केवल धारणा व पिछले 5 वर्षों के आंकड़ों के आधार पर रोहिणी कमीशन के जरिए पिछड़ों को उपश्रेणियों में बांटने की कवायद चल रही है। चाहे आप आरक्षण के पक्ष में हों या विपक्ष में, जाति जनगणना जरूरी है। वर्तमान मोदी सरकार ने 2018 में एक शिगूफा छोड़ा था कि हम ओबीसी की गणना कराएंगे। तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए यूं ही जुमले की तरह इस मुद्दे को उछाला था।
        सामान्य सी बात है कि सिर्फ ओबीसी की ही क्यों, भारत की हर जाति की गिनती हो। जब गाय-घोड़ा-गधा-कुत्ता-बिल्ली-शेर-हाथी-भेड़-बकरी-पशु-पक्षियों अर्थात सबकी गिनती होती है, तो इंसानों की क्यों नहीं? आखिर, पता तो चले कि भीख मांगने वाले,मजदूरी करने वाले,सब्जी बेचने वाले, गटर साफ करने वाले, रिक्शा खींचने वाले, ठेला लगाने वाले, फुटपाथ पर सोने वाले लोग किस समाज से आते हैं ? उनके उत्थान के लिए योजनाएं बनाना लोकतांत्रिक सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है और इस भूमिका से वह मुंह नहीं चुरा सकती। इसलिए जातिवार जनगणना कोई राजनैतिक विषय नहीं, बल्कि संविधान सम्मत राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का एक अभिन्न हिस्सा है। जो भी इसे टरकाना चाहते हैं, वे इस देश की एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्गों के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं और न ही करना चाहते हैं।
        बिहार और महाराष्ट्र सरकार ने जातिवार जनगणना के लिए प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा गया। इस विषय पर तमिलनाडु ने हमेशा सकारात्मक रुख दिखाया है। द्रविड़ियन आंदोलन से उपजी पार्टियों ने बहुत हद तक सामाजिक बुराईयों और बीमारियों के डायग्नोसिस में रूचि दिखाई। उड़ीसा और यूपी समेत देश के अनेक राज्यों में जातिवार जनगणना की जबर्दस्त मांग हुई। कर्नाटक में तो केंद्र के अड़ियल रुख को देखते हुए वहां की राज्य सरकार ने खुद ही जातिवार गणना का निश्चय करके दिखा दिया। राजद की पहल पर दो-दो बार बिहार विधानमंडल में जातिवार जनगणना को लेकर प्रस्ताव पारित हो चुका है। लालू प्रसाद, शरद यादव और मुलायम सिंह लंबे समय से इस मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे हैं।
       हाल ही में जब भारत के गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में बयान दिया कि सरकार जातिवार जनगणना नहीं कराएगी, तो तेजस्वी यादव के प्रस्ताव पर नीतीश कुमार ने सर्वदलीय शिष्टमंडल के साथ प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की। तेजस्वी यादव ने जातिवार जनगणना से समाज के अंदर विभाजन-रेखा के उभरने की चिंता में दुबले हो रहे पुनरुत्थानवादी ताकतों को तार्किक जवाब देते हुए कहा कि " जब सेंसस में धर्म का कॉलम रहने से लोग धर्मांध नहीं हो जाते, तो जाति का कॉलम जोड़ देने से जातीय विद्वेष कैसे फैलने लगेगा?
‘बौद्धिक’ बिरादरी की मसिक्रीड़ा:
        प्रो.अभय दुबे, बद्री नारायण, वेद प्रताप वैदिक, संजय कुमार, संकेत उपाध्याय, रमेश मिश्रा समेत अनेकानेक ‘' यथास्थितिवादी सवर्ण बुद्धिजीवियों '’ व पत्रकारों द्वारा जातिवार जनगणना को लेकर तमाम कुतर्क पेश किये जा रहे हैं: बद्री नारायण दैनिक जागरण में लिखते हैं, " सियासी शस्त्र न बने जातीय जनगणना " दैनिक भास्कर में अभय दुबे लोगों के मन में डर पैदा करने की मंशा से लिखते हैं," कि जातिगत जनगणना के गहन व बुनियादी प्रभाव होंगे जो इस समय न तो इसके समर्थकों की समझ में आ रहे हैं न विरोधियों के '’, नवभारत टाइम्स में वेद प्रताप वैदिक मसिक्रीड़ा करते हैं कि,कोटा बढ़वाना हो तो क्यों न याद आए जाति’,फिर वह दैनिक भास्कर में निर्गुण भजते हैं, ‘जनगणना में जाति नहीं, जरूरत पूछी जाए तभी पिछड़ों का हित होगा’.
          संकेत उपाध्याय दैनिक भास्कर में मानस मंथन करते नज़र आते हैं, ‘राजनीति का एटमी बम क्यों है आरक्षण: देश में आरक्षण प्रक्रिया की समीक्षा क्यों नहीं की जाती?’, वहीं दैनिक जागरण में रमेश मिश्रा चिंतित होकर कलम चलाते हैं, ‘मुख्य जनगणना के साथ-साथ जाति की जनगणना मुश्किल, जानिए क्या-क्या हो सकती हैं दिक्कतें?’ बावजूद, इन तिकड़म व विषवमन भरे लेखन के, नेशन बिल्डिंग में लगी पीढ़ी जद्दोजहद कर रही है। लोग भारतीय समाज के मनोविज्ञान को भूल जाते हैं और उसका निर्गुण बखान कर सच्चाई पर परदा डालने की कोशिश करते हैं।
           मंडल कमीशन की रिपोर्ट में बीपी मंडल ने रजनी कोठारी को उद्धृत करते हुए लिखा था, ‘भारत में जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे ऐसी राजनीति तलाशते हैं, जिसका समाज में कोई आधार नहीं है’. मनीष रंजन ठीक कहते हैं कि कोठारी के ‘' जातियों के राजनीतिकरण  के सिद्धांत के तहत ही जाति-व्यवस्था को व्यावहारिक चुनौती दी जा सकती है।"

Wednesday, April 20, 2022

ईडब्ल्यूएस आरक्षण कितना न्यायसंगत एवं व्यावहारिक - एक नयी बहस को जन्म देता मुद्दा-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

सामाजिक मुद्दा  
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
     लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर 2019 में जब ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू किया जा रहा था तो उसे लगभग सभी दलों का भरपूर समर्थन मिला था। इस श्रेणी के आरक्षण के लिए लागू मापदंडो पर अर्थशास्त्री स्वामीनाथन एस.अंकलेसरैया अय्यर ने कुछ वाज़िब सवाल उठाए हैं। अय्यर अपने लेख में लिखते हैं कि " आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्ण वर्ग को आरक्षण देने की कोई जरूरत ही नहीं है।"
          केंद्र सरकार ने 2019 में आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण वर्ग के लिए भी 10% आरक्षण की व्यवस्था की थी। हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि देश में आर्थिक गरीबी बहुत तेजी से कम हो रही है। ऐसे में सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अय्यर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के आरक्षण को गैर-जरूरी और अव्यावहारिक बताते हुए इसे खत्म करने की वकालत कर रहे हैं। उन्होंने "द टाइम्स ऑफ इंडिया"  में लिखे अपने साप्ताहिक स्तंभ में अपने विचार के समर्थन में कई मजबूत दलीलें दी हैं। पेश है,उनके उस लेख के कुछ महत्वपूर्ण संपादित अंश ..
1.भारत में तेजी से घटा है, गरीबी का स्तर...................
          तीन अर्थशास्त्रियों: सुरजीत भल्ला, अरविंद विरमानी और करन भसीन का अनुमान है कि देश में अत्यंत गरीबी (Extreme Poverty) की स्थिति अब नहीं रही है। विश्व बैंक के अनुसार, देश का हर नागरिक हर दिन औसतन 130 रुपये का खर्च कर पा रहा है, तो अत्यंत गरीबी की स्थिति नहीं मानी जाएगी। भारत में गरीबी रेखा के मानक (स्टैंडर्ड्स ऑफ पावर्टी लाइन) विश्व बैंक के मानकों से मेल खाते हैं। विश्व बैंक के पैमानों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि भारत में गरीबी अनुपात 2004 में 31.9% के मुकाबले 2014 में 5.1% हो गया जो 2020 में गिरकर 0.86% पर आ गया। चूंकि, 2017-18 एनएसएसओ सर्वे के आंकड़ों की अनदेखी के लिए आलोचना करने वाले इस मापदंड से चिढ़ सकते हैं, लेकिन कुछ अन्य अध्ययनों से भी पता चलता है कि हाल के दशकों में गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर भारत ने जबर्दस्त कामयाबी हासिल की है।
2.बिना आरक्षण के ही घट रही है गरीबी, तो फिर आरक्षण क्यों?.................
         आर्थिक रूप से गरीब सवर्ण वर्ग को शैक्षणिक संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण दिए बिना ही यदि गरीबी घट रही है तो क्या उन्हें आरक्षण देने का सरकार का फैसला कठघरे में खड़ा नहीं होता है? सुप्रीम कोर्ट 1992 में आर्थिक आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण की मांग को अनुचित बताते हुए पहले ही खारिज कर चुका है। उस समय तो देश की बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी। इसलिए सवाल उठता है कि क्या जब गरीबी उन्मूलन योजनाओं से गरीबी में तेजी से कमी आ रही है,तब आर्थिक आधार पर ईडब्ल्यूएस को आरक्षण देना कितना जायज़ और व्यावहारिक है?
3.संविधान में सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक भेदभाव की खाई कम करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था ..........
          संविधान जाति, धर्म, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने से मना करता है। हालांकि, सदियों से भेदभाव के शिकार दलितों-आदिवासियों/एससी-एसटी के पक्ष में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। संविधान सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए भी आरक्षण की अनुमति देता है। इस कारण राजनीतिक रूप से काफी दबंग समूहों ने खुद को पिछड़ा वर्ग बताकर अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल करवा लिया। जाति आधारित राजनीतिक दलों के कारण यह घालमेल करना आसान हो गया।
4.एक बार सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुकी है, ईडब्ल्यूएस आरक्षण..............
          भारत सरकार ने 1991 में ओबीसी के लिए 27% और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने गरीबी आधारित आरक्षण को खारिज़ कर दिया था। अभी ओबीसी के लिए 27% के साथ-साथ एससी के लिए 15% और एसटी के लिए 7.5% आरक्षण के साथ सभी सरकारी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में आज 49.5% आरक्षण लागू है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि 50% से ज्यादा आरक्षण की व्यवस्था समानता के सिद्धांत के खिलाफ होगी।
5.शिक्षा व्यवस्था में खामियों की वजह से नौकरियों का संकट..............
देश में रोजगार का गंभीर संकट है। केंद्र और राज्य सरकारें रोजगार के प्रमुख स्रोत हैं। युवाओं का सर्वाधिक जोर भी सरकारी नौकरियों पर ही होता है,क्योंकि इनसे स्थायित्व एवं भविष्य की सुरक्षा की भावना जुड़ी होती है। यही वजह है कि ऊंची-ऊंची डिग्री धारक भी चपरासी की नौकरी के लिए मारामारी करते दिख रहे हैं। नौकरियों का संकट शिक्षा के निम्नस्तरीय या अधोमानक होने के कारण भी पैदा होता है। हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था युवाओं को उचित कौशल नहीं दे पा रही है। इसका मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि आरक्षण के जरिए अयोग्य लोगों को भर लिया जाए। आदर्श स्थिति तो यह है कि शिक्षा व्यवस्था में कौशलपरक और रोजगारपरक सुधार किए जाएं।
6.ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मापदंड की परिधि में आती है,देश की लगभग 80% आबादी............
         मोदी नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने 2019 में सवर्ण गरीबों के लिए आरक्षण का विधेयक संसद में पेश किया तो बिहार के क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) जैसी इक्का-दुक्का पार्टियों को छोड़कर सभी दलों ने समर्थन किया था। तब बीजेपी ने कहा था कि इस नई व्यवस्था से देश में पहली बार ईसाइयों और मुस्लिमों को भी आरक्षण मिल रहा है। इस कथन से यह साफ परिलक्षित होता है कि राजनीतिक दल और उसके नेता आरक्षण को सिर्फ वोट बैंक के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं,नाकि उनका मकसद समाज सुधार होता है। सरकार मानती है कि सालाना 8 लाख रुपये की आमदनी वाले, 5 एकड़ से कम कृषि योग्य भूमि वाले और शहरों में 1,000 वर्ग फीट क्षेत्रफल से कम में बने मकान वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) में आते हैं।
7.सरकार का उद्देश्य समाज सुधार नहीं,बल्कि जातीय वोट बैंक साधना है मकसद.................
           राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की 2011-12 की रिपोर्ट कहती है कि सबसे धनी 5% भारतीयों का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ 4,481 रुपये है जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 10,281 रुपये है। संभवतः प्रति व्यक्ति आय इनके 20% ज्यादा होंगी। 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना के मुताबिक, सिर्फ 8.25% ग्रामीण परिवारों की मासिक आमदनी 10 हजार से ज्यादा है। सच है कि उसके बाद से आमदनी बढ़ी है, फिर भी शंका की गुंजाइश कम है कि 80% से ज्यादा भारतीय ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आते हैं। 2015-16 की कृषि जनगणना के मुताबिक 86% जमीन मालिकों के पास 5 एकड़ से कम कृषि भूमि है। तय पैमाने के अनुसार ये सभी ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आ जाएंगे। इस तरह कहें, तो आर्थिक रूपी गरीबी के आधार पर आरक्षण का मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों को आरक्षण के दायरे में समेटना है, नाकि समाज के आर्थिक रूप से सबसे कमजोर वर्ग को अर्थात सरकार की नजर समाज सुधार की जगह उनके वोट बैंक पर ज्यादा दिखती है।
8.शिक्षा व्यवस्था सुधरे, आरक्षण की घुट्टी देना बंद हो...............
             एससी-एसटी और पिछड़े वर्ग को आरक्षण उनके साथ हुए ऐतिहासिक भेदभाव की वजह से दिया गया है, लेकिन उच्च जातियां ऐतिहासिक भेदभाव के कारण गरीब नहीं हुई हैं। वे इतिहास में हुए सामाजिक और शैक्षणिक अन्याय के पीड़ित नहीं हैं। उनकी गरीबी के कई दूसरे अन्य कारण हो सकते हैं, लेकिन अन्याय हरगिज़ नहीं। इसलिए उनकी सरकारी आर्थिक मदद होनी चाहिए, लेकिन आरक्षण नहीं। आखिरकार, आरक्षण के बावजूद जेएनयू या आईएएस की परीक्षा में न्यूनतम मार्क्स लाना और कुछ अनिवार्य प्रश्नपत्रों को क्वालीफाई करने के बाद ही शेष उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन होता है। बेहद गरीब परिवारों के बच्चे मुश्किल से ही शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं, इस कारण उन्हें न्यूनतम मार्क्स हासिल और कुछ अनिवार्य प्रश्नपत्रों को क्वालीफाई करने में भी परेशानी होती है। ऐसे में आरक्षण का अधिकतम फायदा क्रीमी लेयर को ही मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह सरकार से कहे कि वह शिक्षा व्यवस्था में सुधार करे नाकि, गरीब सवर्णों को आरक्षण दे।
             उल्लेखनीय है कि जब 7अगस्त,1990 को जब पीएम वीपी सिंह ने केवल सरकारी नौकरियों में 27% ओबीसी आरक्षण की घोषणा की थी तो आरक्षण विरोधी सवर्ण मानसिकता की सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों ने सड़को पर अराजकता फैलाकर विरोध करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी थी। घोषणा के कुछ दिनों बाद विषय सुप्रीम कोर्ट ले जाया गया और तत्कालीन सरकार ने तब तक आरक्षण नही दिया, जब तक न्यायालय का अंतिम फैसला नही आ गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण की 50% की अधिकतम सीमा और क्रीमी लेयर जैसी दो शर्तों के साथ 1992 में ओबीसी आरक्षण देने का आदेश हो पाया था जो 1993 से लागू हुआ। ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर याचिका आज सुप्रीम कोर्ट में लंबित होने के बावजूद बीजेपी सरकार ने 10% आरक्षण तुरंत लागू कर दिया था और आज धड़ल्ले से दिया जा रहा है। इस गैरसंवैधानिक और अन्यायपूर्वक दिए जा रहे आरक्षण के ख़िलाफ़ ओबीसी आरक्षण की तरह विरोध नही हुआ था। दोनों तरह के आरक्षण पर संबंधित वर्ग की सामाजिक-राजनीतिक चेतना का स्तर और सर्वोच्च न्यायपालिका एवं सरकार में बैठे वर्ग विशेष की नीयत को सहजता से समझा और अनुमान लगाया जा सकता है।
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Monday, April 18, 2022

वर्तमान राजनीतिक सत्ता/लोकतंत्र के संदर्भ में : सबसे बुरे संकट के दौर से गुजरती डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी: तथ्यपरक विश्लेषण- नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

अम्बेडकरवाद  एक विश्लेषण
 नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराजदत्त महाविद्यालय,लखीमपुर-खीरी
       आज के दौर में जैसी राजनीतिक परिस्थितियां दिख रही है, उसमें दलित संविधान को बचाने के लिये तो प्रयासरत दिखता है,किंतु संविधान के बावजूद दलित अपने को सुरक्षित महसूस नही कर पा रहा है। बहुजन समाज का एक बहुत बड़ा समूह ओबीसी जिसको सामाजिक न्याय दिलाने के लिए डॉ.आंबेडकर ने संविधान में अनुच्छेद 340 की व्यवस्था की,जिसके बड़े हिस्से को हासिल करने के लिए आज भी एक बड़ी लड़ाई लड़नी शेष है। वह जाति-धर्म, हिन्दू-मुसलमान और झूठे राष्ट्रवाद के नशे में डॉ.आंबेडकर को केवल दलितों का मसीहा मानकर अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के संभावित खतरों के बारे में बेख़बर दिखाई देता है। बहुजन समाज को धर्म के धंधे की साजिश की गहराई को सूक्ष्मता और गहनता से समझते हुए ज्योतिबा फुले,आंबेडकर, पेरियार, राम स्वरूप वर्मा और ललई सिंह यादव की विचारधारा का अनुसरण करना होगा।
           एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक के बुद्धिजीवियों और सामाजिक चिंतकों को डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी या उनकी चिंताओं में से निम्नलिखित कुछ बिंदुओं पर सबसे ज्यादा फ़ोकस करने की जरूरत है,क्योंकि वर्तमान सत्ता के संदर्भ में डॉ.आंबेडकर अपने जीवनकाल में ही भावी संकटों के बारे मे कई तरह की आशंकाएं प्रकट कर रहे थे। आज वही आशंकाएं हूबहू सच साबित होती दिख रही हैं। डॉ.आंबेडकर को इसीलिए युगदृष्टा कहा गया है। वर्तमान सत्तापरक लोकतंत्र के दौर में डॉ.आंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता पर सामाजिक - राजनीतिक सतत संवाद और संपर्क स्थापित करना समय की जरुरत बनती दिख रही है: 
" संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता बनी रहे अर्थात सरकार के नियंत्रण से मुक्त हो तभी लोकतंत्र बचेगा!"

         डॉ.आंबेडकर की उस समय व्यक्त की गई चिंताएं और आशंकाएं आज सच साबित होती दिख रही हैं। निःसंदेह कहा जा सकता है कि आज की सत्ता के दौर में संविधान,संवैधानिक संस्थाएं और लोकतंत्र ख़तरे में है!ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग और न्यायपालिका सत्ता के इशारे पर काम करती दिखती हैं। आम आदमी की आवाज़ मीडिया का अधिकांश हिस्सा सरकार की विज्ञापन एजेंसीज की तरह काम कर रहा है। सरकार की नीतियों के प्रति असहमति और आलोचना को देश द्रोह मानकर क़ानूनी कार्रवाईयां की जा रही हैं।
      "कॉरपोरेट्स/ पूंजीपतियों और वर्णव्यवस्था का गठबंधन देश के विकास का सबसे बड़ा दुश्मन: वर्तमान सत्ता के संदर्भ में उक्त व्यक्त की गई आशंका या चिंता साफ देखी जा सकती है। वर्णव्यवस्था की पोषक आरएसएस नियंत्रित बीजेपी सरकार और देश के अडानी,अम्बानी और रामदेव जैसे अन्य बड़े कॉरपोरेट घरानों का सरकार के साथ गठबंधन हर कोई देख सकता है और आंबेडकर की उस वक्त व्यक्त की गई आशंका  से बेख़बर देश का बहुजन समाज बीजेपी के नारे "सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास " पर आंख मूंदकर चलता हुआ साफ दिखाई दे रहा है। सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण और मुद्रीकरण इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। देश का बहुजन समाज शिक्षा के निजीकरण की भयावहता का अनुमान और आंकलन नही कर पा रहा है। भविष्य में बहुजन समाज के बच्चों के लिए शिक्षा व रोजगार के दरवाजे बंद होने की संभावनाएं और सरकार की मंशा को समझना होगा।
" इतिहास गवाह है कि जहां नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है,वहाँ जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है।निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है, जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल न लगाया गया हो ": डॉ.आंबेडकर के इस कथन की पुष्टि वर्तमान सत्ता की मुफ्त राशन वितरण और किसान सम्मान निधि के रूप में साफ तौर पर देखी जा सकती है। सामाजिक और धार्मिक गुलामी से मुक्ति दिलाने का रास्ता दिखाने वाले डॉ.आंबेडकर को बहुजन समाज भूल सा गया है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज के एक मजबूत सामाजिक- राजनैतिक गठबंधन के बावजूद संख्यानुपात के हिसाब से अपेक्षित परिणाम नही मिले। बहुजन समाज ने पांच किलो राशन के क्षणिक लालच में फंसकर यूपी विधानसभा चुनाव में आंबेडकर की वैचारिकी-दर्शन पर आधारित कांशीराम जी के सामाजिक संघर्ष से बनी बसपा को राजनीतिक रूप से बेहद कमज़ोर करने का काम किया है जिससे देश का दलित चिंतक और बुद्धिजीवी वर्ग हतप्रभ है और वर्तमान सत्ता के दौर में भावी आशंकाओं को लेकर काफी गम्भीर और चिंतित है,लेकिन हिंदू धर्म का सबसे बड़ा संवाहक ओबीसी मस्त है। बीएसपी के संस्थापक मा. कांशीराम भी कहते थे कि "जिस कौम को मुफ्त में खाने की आदत होती है,वह कौम कभी क्रांति नही कर सकती है। जो कौम क्रांति नहीं करेगी,वह देश या प्रदेश का कभी शासक या हुक्मरान नही बन सकती और जो कौम शासक नही होती है,उसकी बहन और बेटियां सुरक्षित नहीं होती और वह इंसाफ भी नही प्राप्त कर सकती।"
"मनुष्य जीवन की तरह विचार भी नश्वर होता है। एक विचार को जिंदा रखने के लिए उसके प्रचार-प्रसार की उतनी ही आबश्यकता होती है जितनी एक पौधे को जिंदा रखने के लिए पानी की आबश्यकता होती है। एक प्रसार के बिना और दूसरा पानी के बिना मुरझाकर मर जायेंगे":
         आज डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी और दर्शन का प्रचार-प्रसार लगभग बंद हो चुका है। डॉ.आंबेडकर के जयंती और परिनिर्वाण दिवस के आयोजन में सामाजिकता कम और राजनीति ज्यादा हावी होती दिखती है। डॉ आंबेडकर की मूर्तियों- स्मारकों के निर्माण के साथ उनके विचारों का महल भी खड़ा करने की आबश्यकता है। उनकी मूर्तियों पर फूल मालाएं चढ़ाने और उनके सामने दीपक,अगरबत्तियां और धूपबत्ती जलाने के साथ उनके विचारों का प्रकाश समाज मे बिखेरना जरूरी है। आज वैचारिक-विमर्श के कैडर कैम्प लगभग बंद हो चुके हैं और वह गीत-भजन-संगीत की मंडलियों द्वारा मनोरंजन तक सिमटता दिख रहा है, जहां दर्शन कम प्रदर्शन ज्यादा हो रहा है और उसमें बहुजन समाज के पढ़े लिखे वर्ग की सहभागिता नगण्य दिखती है। आंबेडकरवादी परिवारों में उनके चरित्र की जगह उनके चित्र ज्यादा दिखाई देने लगे हैं। दुःखद पहलू यह है कि बहुजन समाज का पढ़ा लिखा वर्ग आरक्षण से नौकरी पाकर बहुजन वैचारिकी के विमर्श पर खरा नही उत्तर रहा है और डॉ.आंबेडकर के " पे बैक टू द सोसाइटी" के सिद्धांत के अमल पर गम्भीर नही दिखता है।
"जिसे अपने दुःखों से मुक्ति चाहिए, उसे लड़ना या संघर्ष करना होगा और जिसे लड़ना है, उसे पढ़ना होगा,क्योंकि ज्ञान के बिना जो लड़ने जाएगा तो उसकी हार निश्चित है। ज्ञान शिक्षा से आता है और जिसके पास ज्ञान होता है, वही शक्तिशाली होता है। शक्तिशाली के सामने बड़ी बड़ी हस्तियां झुकती हैं। इसलिए शिक्षित बनों,संगठित रहो और संघर्ष करने का नारा दिया था डॉ आंबेडकर जी ने ": वर्तमान सत्ता द्वारा साधन विहीन बहुजन वर्ग में मुफ़्तख़ोरी की संस्कृति एक सुनियोजित साजिश के तहत पैदा की जा रही है जिससे यह वर्ग आलसी और कामचोर बनकर रह जाये और डॉ.आंबेडकर को भूलकर उसकी संघर्ष करने की शक्ति कमजोर पड़ जाए। कुछ समय के बाद यह वर्ग एक नई तरह की आर्थिक गुलामी के शिकंजे में कसता नजर आएगा और फिर संघर्ष करने की क्षमता कमजोर होने और सरकार के टुकड़ों पर पलने को मजबूर इस वर्ग का लंबे समय तक राजनीतिक दोहन किया जाता रहेगा।
डॉ.आंबेडकर का राष्ट्रवाद:"राष्ट्रवाद तभी सार्थक सिद्ध हो सकता है जब लोगों के बीच जाति,नस्ल और रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।" डॉ आंबेडकर के अनुसार " जाति समाज विरोधी (कास्ट इज एन्टी सोशल) और हिंदुत्व राष्ट्र विरोधी (हिंदुत्व इज एन्टी नेशनल) है। सच्चे राष्ट्रवाद को समझने के लिए डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को समझना होगा।
       वर्णवादी व्यवस्था की फैक्ट्री से निकली बीजेपी की सत्ता की राष्ट्रवाद की परिभाषा में सामाजिक व्यवस्था में ऊंच-नीच की जातीय व्यवस्था आती है। वह जातियों के बीच समरसता की बात करते हैं। ऊँच-नीच में समरसता कैसे आएगी ? इसका वह फार्मूला/हल नही बताती हैं। डॉ.आंबेडकर सामाजिक व्यवस्था में जातियों का सम्पूर्ण विनाश की बात करते हैं। आरएसएस और बीजेपी सत्ता के लोग हिंदुत्व (मुस्लिम विरोध) की बात करते हैं जबकि आंबेडकर हिंदुत्व को राष्ट्र विरोधी करार देते हैं। आरएसएस हमेशा हिन्दू बनाम मुस्लिम को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर भगवा रंग के झंडे में अपने राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाता है। राष्ट्रीय झंडा तिरंगे की जगह आरएसएस भगवा रंग के झंडे को फहराकर राष्ट्रवाद की सुखद अनुभूति करती/कराती हुई दिखती है। डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी में वही धर्म सच्चे राष्ट्रवाद का दावा कर सकता है जिसमें समानता,स्वतंत्रता और बन्धुता की व्यवस्था क़ायम हो!
      "देश के संविधान में डॉ.आंबेडकर मतदान का अधिकार वाली एक ऐसी ताकत देकर गए है, जो किसी ब्रह्मास्त्र से कहीं अधिक ताकत रखती है।" लेकिन,आज हमारा बहुजन समाज मिली इस राजनीतिक ताकत का प्रयोग कैसे कर रहा है,जिसको डॉ.आंबेडकर ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा।जिस ओबीसी के उत्थान के लिए डॉ.आंबेडकर ने बहुत कुछ किया,वह आज संविधान पर हो रहे हमलों पर दलित समाज की तरह न तो चिंतित और न ही सड़कों पर हो रहे आंदोलनों में दलितों के साथ दिखता है। काश!ओबीसी आंबेडकर के सामाजिक संघर्ष व वैचारिकी को आज भी समझ जाए!
        जीवन के अंतिम क्षणों में डॉ.आंबेडकर ने अपनी कष्टमय संघर्ष यात्रा की वेदना व्यक्त करते हुए समाज से आवाहन किया था कि: " मैं बेहद कठिन मुश्किलों और संघर्षों से इस कारवां को इस स्थिति तक ला पाया हूं। यदि हमारे लोग या सेनापति इस कारवां को और आगे नही ले जा सकते हैं तो उसे पीछे भी मत जाने देना।
पता-मोतीनगर कालोनी
लखीमपुर खीरी

Sunday, April 17, 2022

अर्पित पुष्प-डॉ० सरस्वती जोशी

स्मृति शेष

स्व ० बीना रानी
माँ भारती की अनन्य भक्त, साहित्य के क्षेत्र की एक जानी-मानी हस्ती, श्रीमती डॉ. बीना रानी गुप्ता का परलोक गमन हिंदी साहित्य के क्षेत्र की एक दुर्भाग्यपूर्ण क्षति है। वे परम्परावादी हिंदू नारी व आधुनिक युग की प्रगतिशील भरतीय नारी के मिश्रण की एक सजीव मिसाल थीं । गृहलक्ष्मी के समस्त गुणों से युक्त, आदर्श पुत्री, पत्नी, माँ, गृहिणी के समस्त उत्तरदायित्वों का पालन करते हुए प्रगति की ओर अग्रसर हो समाज व देश के प्रति भी सजगता पूर्वक अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित श्रीमती. बीना रानी जी अपने परिवेश के हर व्यक्ति के लिए प्रेरणा का स्रोत थीं, हैं और रहेंगी । पठन-पाठन, शिक्षण आदि के साथ साहित्य की विविध विधाओं पर सरल, सुबोध शैली में चलती उनकी कलम पाठकों के मन पर आमिट छाप छोड़ जाती थी। शोध कर्ताओं के हेतु प्रकाशित उनकी पुस्तक “शोध प्रविधि के विविध आयाम” हर शोधकर्ता का मार्गदर्शन कर शोध-कार्य को जिस तरह सरल-सुगम कर समझा देती है वह सच में अत्यंत सराहनीय कार्य है । ऐसी विभूतियाँ संसार में कुछ विशेष प्रयोजन हेतु आती हैं, लक्ष्यपूर्ति कर अपनी स्मृतियों की छाप छोड़ संसार से विदा हो जाती हैं, और हम देखते रह जाते हैं बेबस से । काश मैं कभी उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर पाती । भारत माता व माँ भारती की ऐसी आदर्श पुत्री स्वर्गीया श्रीमती डॉ. बीना गुप्ता को हार्दिक श्रद्धांजलि व सादर नमन ।

हैं अश्रुपुरित नेत्रों से बहती जल-धारा से सिंचित सजल कण,
हैं तव स्मृतियों में लीन हृदय के स्नेह से सुरभित सुमन,
हैं व्यथित उर से उभर आते करूण स्वरों से रंजित भाव,
कर लेना स्वीकार यह श्रद्धांजलि हमको अपना मान !


पेरिस, फ़्रान्स
दिनांक १६ अप्रैल २०२२)

Thursday, April 14, 2022

चौदह अप्रैल में लंदनपुर- रमाकांत चौधरी एडवोकेट

रमाकांत चौधरी एडवोकेट

गली व नगर की सफाई हुई है, 
रंगाई  हुई   है   पुताई   हुई  है, 
चमाचम चमकने लगे घर सभी के, 
खुशियों से भरने लगे घर सभी के, 
द्वारे  पर   रंगोली   सजने  लगी है, 
युवाओं की टोली निकलने लगी है, 
बजा बैंड बाजा  थिरकने लगे सब, 
जयभीम जयभीम कहने लगे सब, 
 खुशी  से  मगन  है चाचा व चाची, 
 उनकी छोटी बिटिया जी भर के नाची, 
 ना डर है किसी को किसी का किसी से, 
 प्यार  से  मिल  रहे  लोग  सब  सभी से, 
चौदह  अप्रैल  सबसे  आला हुआ है। 
 लंदनपुर का जलवा निराला हुआ है। 

 आगे   चले  भीमराव   जी   की  झांकी, 
 साहू जी की झांकी बुद्ध फुले की झांकी, 
 हजारों   लोग  संग   चले   जा   रहे   हैं, 
 बाबा साहब की जय-जय कहे जा रहे हैं, 
 कोई पैदल चले कोई ट्राली पर बैठा, 
 कोई रूठा - रूठा  चले  ऐंठा - ऐंठा, 
 नई   साड़ी   पहन   इतराती   फिरें, 
 दादी बाबा को आंखें दिखाती फिरें, 
 महेंदर की बीवी जितेंदर की भाभी, 
 न  माने  किसी  की भरे खूब चाबी, 
 खुद  भी  वे  नाचे  नचावें सभी को, 
 गीत बाबासाहब के गवावें सभी को, 
 हर शख्स बस जयभीम वाला हुआ है। 
लंदनपुर  का  जलवा  निराला  हुआ है। 

दादी   व   पोती   का  लफड़ा  हुआ   है, 
आगे बैठइ की खातिर ये झगड़ा हुआ है, 
हँसि - हँसि मजा  सब  लिए जा रहे हैं, 
बुद्ध फूले की जय-जय किए जा रहे हैं, 
लड़िका डीजे का वॉल्युम फुल पर किए हैं, 
 मारे    खुशी   के   वै    मन    की किए हैं, 
कभी दौड़ि पीछे कभी आगे - आगे, 
 रैली  के मुखिया फिरें  भागे - भागे, 
 न  माने  किसी की करें जोरा - जोरी, 
 नीला गुलाल सब लगावें छोरा - छोरी, 
 नीला   झंडा   सभी   लहराते  फिरें, 
 हीरो माफिक वै रुतबा दिखाते फिरें, 
 बुरी नजर वालों का मुंह काला हुआ है। 
 लंदनपुर  का  जलवा  निराला  हुआ है। 

 पसीना - पसीना   नहाए     हैं   सब, 
 बैंड वाले का मिलिके थकाए हैं सब, 
संभाले न संभले ये भीम जी का रेला, 
फैल इसके आगे सब दुनिया का मेला, 
 बाबासाहब  के  दर्शन  करें ग्रामवासी, 
 उनके   लिए   बस  यही मथुरा काशी, 
 आरती   उतारे   उनकी   पुष्प चढ़ावें, 
 बाकी   सभी   का  वै शरबत पिलावें, 
मिला जो हमें सब इन्हीं की बदौलत, 
 कुर्बान चरणन मा इनके सब दौलत, 
 पूरे    बरस    वे     चिंतित    रहे हैं, 
 जो जुलूस में जाने से वंचित रहे हैं, 
 भीम जैसा न कोई रखवाला हुआ है। 
 लंदनपुर  का जलवा निराला हुआ है। 


 ग्राम- झाऊपुर लंदनपुर ग्रंट, तहसील गोला गोकर्णनाथ, 
जिला लखीमपुर खीरी, उत्तर प्रदेश। 
मोब 9415881883


Tuesday, April 12, 2022

शोषितों- वंचितों के लिए निर्भीकता की मिसाल और मसाल हैं और विद्यार्थियों के लिए बेमिसाल आदर्श/प्रेरक व्यक्तित्व हैं डॉ.आंबेडकर:नन्द लाल वर्मा

"उनकी जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो पढ़ेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी.....आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा।"
एन०एल० वर्मा
एसोसियेट प्रोफ़ेसर
(युवराज दत्त महाविद्यालय)
         डॉ.भीम राव आंबेडकर एक ऐसा महान व्यक्तित्व है जो हर निराश,हताश और परेशान व्यक्ति की सामाजिक,धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति का मार्ग तैयार करते हुए आजीवन संघर्ष करते हुए नजर आते हैं। डॉ.भीमराव आंबेडकर को यदि 20 वीं सदी का महानतम व्यक्ति की संज्ञा दी जाए तो अतिशयोक्ति नही होनी चाहिए। जय भीम जय हिंद की तरह ही एक ऐसा नारा या उदघोष है जो हर वंचित- शोषित व्यक्ति के अंदर सतत संघर्ष के लिए एक अद्भुत ऊर्जा और शक्ति का संचार करता है। भीषण विषम परिस्थितियों से गुजर कर उन्होंने जो मुकाम हासिल किया है,वह दुनिया की ऐतिहासिक में एक अद्भुत मिसाल है। उनकी जीवन संघर्ष की गाथा संजीदगी और ईमानदारी के साथ जो पड़ेगा, उसकी आंखें एक बार भीगती या डबडबाती जरूर नज़र आएंगी।
 
           आज कथित आंबेडकरवादी यह कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि सवर्ण दलितों को घोड़ी पर बैठने और बारात चढ़ाने नहीं देते हैं, चारपाई पर बैठे नहीं देते हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि डॉ. आंबेडकर साहब को क्या वे ऐसा करने से रोक पाए थे? बिल्कुल नहीं। डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को तपाकर जिस दिन समाज के बीच जाओगे, घोड़ी और खटिया पर बैठने की तो बात दूर , पूरा सवर्ण समाज आपको पूरे सम्मान के साथ अपने सिर पर बैठाने के लिए उतावला दिखेगा। पहले आंबेडकर की तरह बनने का ईमानदारी से प्रयास और संघर्ष तो करके देखो! जो भी आंबेडकर की विचारधारा पर चलकर शिक्षा ग्रहण कर चुके हैं, वे आज घोड़ी- चारपाई तो छोड़ो पूरी दुनिया मे हवाई जहाज से उड़ रहे हैं। सबसे पहले शिक्षित होकर आंबेडकर की तरह ज्ञानी बनो, फिर बताना देश के ब्राम्हण या सवर्ण तुम्हारे साथ कैसा सलूक करते हैं? केवल जय भीम बोलने या नीला कपड़ा पहनने या मूंछ ऐंठने से कोई आंबेडकरवादी नही हो जाता है। आंबेडकरवादी बनने की इस मिथ्या परंपरा या पहचान से बाहर निकलकर डॉ.आंबेडकर की तरह अपने को शिक्षा की भट्ठी में तपाना होगा। जय भीम का नारा तभी बुलंद और सार्थक होगा जब बहुजन समाज के लोग आंबेडकर जी की वैचारिकी या दर्शन को व्यावहारिक जीवन में अर्थात आचरण में उतारेंगे। डॉ.भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के सामने दीपक,मोमबत्ती और अगरबत्ती जलाकर केवल उनका उपासक ही नहीं बनना है, बल्कि उनकी विचारधारा का संवाहक बनना होगा अर्थात उनकी वैचारिकी को खड़ा करना होगा। आंबेडकर जी खुद कहा करते थे कि मैं मूर्तियों और प्रतिमाओं में नहीं ,बल्कि क़िताबों में रहता हूँ। इसलिए आंबेडकरवादी बनने वाले हर इंसान को उनकी वैचारिकी-दर्शन को आत्मसात करना होगा और आंबेडकर जैसा विचारक - दार्शनिक बनकर उस पर आचरण करना होगा। बहुजनों को आंबेडकर जी  सवर्णों के सिर पर बैठने का ऐसा अद्भुत  सिद्धांत या हथियार (संविधान) देकर गए हैं जिसकी अकूत ताकत के साथ वह शान से सिर उठाकर चल सकता है। वह कहते थे "शिक्षा शेरनी का वह दूध है जिसे जो पिएगा वह दहाड़ेगा" और हम लोग अभी भी घोड़ी,बारात और चारपाई तक सिमटे हुए हैं। ऐसा वही कहते हैं जो दलित अशिक्षित और अज्ञानी हैं। ब्राह्मण जैसा बनने का प्रयास करिए और जैसे ही कोई सवर्ण या ब्राह्मण आपके सामने आए तो उसके सामने संस्कृत और मंत्रों का तेज-तेज उच्चारण कर पानी छिड़ककर ऐसे चिल्लाओ जिसे देखकर ब्राह्मण या सवर्ण देखकर भौचक रह जाए। ऐसा करने के लिए दलित समाज को तैयार करना होगा और फिर देखो तुम्हारी इस दशा को देखकर ब्राह्मण खुद न चिल्लाने लग जाए ,कि बाप रे बाप!


           एक शिक्षक बुद्ध जी थे जिनके किसी राज दरबार में प्रवेश करने पर राजा खुद सिंहासन से उतरकर नीचे मिलने आता था। ज्ञान या शिक्षा ऐसी शक्ति है जिसके सामने बड़ी-बड़ी हस्तियां झुकती हैं। इसलिए डॉ आंबेडकर की तरह शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने के लिए सतत प्रयास और अभ्यास करने की जरूरत है।

          आंबेडकर एक बात अच्छी तरह जान गए थे कि आखिर ब्राह्मण इतना शक्तिशाली और सम्मानित क्यों है अर्थात उनकी शक्ति का आधार क्या है? शक्ति का आधार है ज्ञान और ज्ञान का मतलब सूचना नहीं होता है बल्कि, तार्किकता के आधार पर विषय को कसौटी पर कसने की क्षमता और इसीलिए आंबेडकर ने शिक्षा के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने में अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया। दुनिया के नामी- गिरामी  विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में गहन अध्ययन और शोध कार्य किए। सारे धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन करने के पश्चात उनकी सच्चाई जानी और उसके बाद ही मनुस्मृति को जलाने का साहस जुटा पाए थे। जाति व्यवस्था में ऊंच-नीच का भाव गलत होता है। हम किसी भी चर्मकार या जुलाहे को उतने सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाते हैं जितना बाटा या वुडलैंड या अन्य किसी चमड़े के शोरूम के मालिक को या कपड़े बेचने वाले पूंजीपति को सम्मान देते हैं। ब्राह्मण केवल शिक्षा या ज्ञान की बदौलत ही श्रेष्ठ नहीं बन जाता है, बल्कि ज्ञान का दान करने से श्रेष्ठ बनता है। मान लीजिए कि किसी के पास अपार ज्ञान है और उसके ज्ञान से समाज के किसी व्यक्ति को कोई लाभ नहीं होता है,तो समाज उसका सम्मान क्यों करेगा और उसे श्रेष्ठ क्यों समझेगा? ऐसा करने से ही धीरे-धीरे वह व्यक्ति या समाज श्रेष्ठ बनता चला जाता है। ब्राह्मणों को एक भ्रम हो गया कि ज्ञान की वजह से ही वे श्रेष्ठ है,ऐसा नहीं है।

        डॉ.आंबेडकर को क्लास के बाहर बैठा दिया जाता था और वह बालक फिर भी किसी भी प्रकार की ग्लानि या अपमान महसूस न करते हुए अपने ज्ञान अर्जन के मार्ग पर पूरी हिम्मत और शिद्दत से चलता चला जाता है। कोलंबिया और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं में एक साधारण परिवार का एक असाधारण बालक स्वयं को एक सच्चा विद्यार्थी सिद्ध करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है और आज उन्हें  पूरी दुनिया में ज्ञान के प्रतीक अर्थात सिंबल ऑफ नॉलेज की संज्ञा से नवाज़ा जाता है। डॉ.आंबेडकर की शैक्षणिक ज्ञान की वजह से ही डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी -दर्शन को कोलंबिया विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल कर वहां के छात्रों को पढ़ाया और उन पर शोध कराया जा रहा है और हमारे देश में डॉ. आंबेडकर का बहुआयामी साहित्य और दर्शन लंबे समय तक आम लोगों के पास पहुंचने तक नही दिया गया। बहुजन समाज से निकले अन्य समाज सुधारकों और विचारकों की तरह डॉ. आंबेडकर को भी इतिहास के पन्नों में जानबूझकर इसलिए दबाए रखा जिससे देश का वंचित,शोषित और अशिक्षित एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग में सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक चेतना का संचार न हो सके। इसीलिए शिक्षित बनो और ज्ञानी बनो और ज्ञान को समाज में दान करो तभी आपको समाज में सम्मान मिलेगा और धीरे-धीरे श्रेष्ठता हासिल होती जाएगी।

          आज डॉ.आंबेडकर , गांधी और भगत सिंह देश के ही नहीं, बल्कि विश्व के महान आदर्श बन चुके हैं। आंबेडकर को  जिन लोगों ने क्लास के बाहर बिठाया उन्हीं के बीच या सिर पर बैठकर अपने अकूत ज्ञान के बदौलत पूरी निर्भीकता के साथ ऐसा संविधान रच दिया जिसमें कहीं भी किसी भी प्रकार का भेदभाव ,प्रतिक्रिया या बदले की भावना नहीं झलकती है। आज तक उनकी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक मानववादी संवैधानिक व्यवस्था या विचारधारा पर कोई सवालिया निशान लगाना तो दूर उसमें नुक़्ता चीनी तक लगाने का साहस नहीं जुटा  पाया है। बहुजन समाज को संविधान रूपी ऐसा अस्त्र डॉ आंबेडकर दे गए हैं जिससे वह बोल सकता है, अपने सामाजिक, राजनीतिक और अन्य हक लेने के साथ उनके लिए कानूनी और लोकतांत्रिक रूप से लड़ाई भी लड़ सकता है। डॉ.आंबेडकर की आज की हैसियत का पता इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की विभिन्न पार्टियों के बैनर-पोस्टर-भाषण डॉ.आंबेडकर का नाम के बिना और नारे लगाए अधूरे से माने जाते हैं। आज के दौर में राजनीतिक सत्ता के क्षितिज या कैनवस पर डॉ.आंबेडकर को इग्नोर करना असंभव सा हो गया है। ब्राह्मणवादी सोच की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों के आयोजन भी बिना आंबेडकर के चित्र,विचारों और भाषण के बिना पूरे नही माने जाते हैं।
 
          हम कह सकते हैं कि वर्तमान दौर की राजनीति में आंबेडकर साहब की वैचारिकी या दर्शन एक अपरिहार्य विषय बन चुका है। देश के हर नागरिक को डॉ.की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के मोटे-मोटे सिद्धांतों को जरूर पढ़ना चाहिए। आज के वैज्ञानिक और आर्थिक युग में यह दुर्भाग्य का विषय है कि समाज मे सोशल साइंस के विषय लेकर अध्ययन और शोध करने  वाले छात्र-छात्राओं का कमतर मूल्यांकन किया जा रहा है।
         आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था पर समाज का एक ऐसा वर्ग है जो यह कहता है कि आंबेडकर ने हमारी जिंदगी बर्बाद कर दी और दूसरा वर्ग दिल ठोककर जय भीम का उदघोष करते हुए कहता है कि डॉ.आंबेडकर हमारे भगवान हैं, मसीहा हैं और मुक्तिदाता हैं। समाज के दो छोरों पर बैठे लोगों की सोच के इस भारी अंतर से डॉ.आंबेडकर की सार्थकता और प्रासंगिकता का आभास किया जा सकता है। हम कह सकते हैं कि हर परेशान इंसान के मसीहा हैं, डॉ.आंबेडकर साहब!
पता-मोतीनगर कालोनी लखीमपुर-खीरी उत्तर प्रदेश 262701

Sunday, April 10, 2022

मध्यप्रदेश के अब ‘भेडि़या राज्य’ बनने के निहितार्थ...अजय बोकिल

अजय बोकिल
मध्यप्रदेश ‘टाइगर स्टेट’ तो पहले से था ही, अब ‘वुल्फ स्टेट’ यानी ‘भेडि़या राज्य’  भी बन गया है। यानी बीते कुछ सालों में राज्य में ‘भे़डि़यों की तादाद खासी बढ़ी है। जंगल के हिसाब से यह अच्छी और मानव समाज की दृष्टि से यह चिंताजनक खबर है। क्योंकि भौतिक रूप से भेडि़यों की संख्या के साथ साथ ‘भेडि़या प्रवृत्ति’ भी बढ़ रही है। भेडि़यों  का बढ़ना वन्य जीव संरक्षण के हिसाब से बेशक यह बड़ी उपलब्धिय है, लेकिन लाक्षणिक दृष्टि से इस कामयाबी पर गर्व करें या न करें, संवेदनशील मन तय नहीं कर पा रहा। 
बहरहाल, मध्यप्रदेश के वन विभाग द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अब देश के सबसे ज्यादा भेडि़ए बसते हैं। इसके पहले मप्र टाइगर, लेपर्ड (तेंदुआ), घडि़याल और वल्चर (गिद्ध) स्टेट का दर्जा हासिल कर चुका था। इसी चैनल को भेडि़ये आगे बढ़ाएंगे, यह उम्मीद जरा कम थी। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में अब भेडि़यों की कुल संख्या 772 है। जबकि  राजस्थान में 532, गुजरात में 494, महाराष्ट्री में 396 तथा छत्तीसगढ़ में 320 भेडि़ए ही हैं। वन विभाग ने अपनी पोस्ट में मप्र को "वुल्फ स्टेट" लिखा है। यह अलग बात है कि इस खबर के दूसरे ही दिन यह शोक समाचार भी मिला कि इंदौर वहां अब दो भेडि़ए ही बचे हैं। 
मन में यह सवाल तो तब ही तरंगें ले रहा था कि जब मप्र में गिद्ध बढ़ रहे हैं तो भेडि़ए रेस मे पीछे क्यों छूट रहे हैं। क्योंकि दोनो का अपना प्राकृतिक और सांस्कृतिक महत्व है। गिद्धों की अपनी दृष्टि है और भेडि़यों की अपनी सृष्टि है। दोनो अपना काम करते रहते हैं, लोक लाज की चिंता नहीं पालते। यूं प्राणि शास्त्र के अनुसार भेडि़ए कुत्तों के पूर्वज हैं। रंगरूप में। लेकिन कुत्तों की तासीर वक्त के हिसाब से बदल गई। वो इंसानों के वफादार दोस्त हो गए। लेकिन भेडि़यों को जंगल ही रास आया। क्योंकि भेडि़या चरित्र पर उंगली उठाने वाला वहां कोई नहीं है। 
 वैसे मध्यप्रदेश में भेडि़यों की बढ़ती आबादी के पीछे वन विभाग द्वारा वन्य प्राणी संरक्षण के व्यापक प्रयास तो हैं ही कुछ प्रवृत्तिगत कारक भी हो सकते हैं, ‍जिनकी वजह में मप्र में भेडि़यों को पनपने का सर्वथा अनुकूल वातावरण मिल रहा है। मप्र में भेडि़यों की संख्या बढ़ने की खबर को टाइगरों ने किस रूप में लिया, यह अभी साफ नहीं है, क्योंकि भेडि़यों  को ‘जंगल का राजा’ तो क्या खुद महाबुद्धिमान समझने वाले मनुष्य भी अच्छे भाव में नहीं लेते। ‘भेडि़या’ होना ‘कुत्ता’ होने से भी ज्यादा खराब माना जाता है। इसका कारण भेडि़यों का स्वभाव और चरित्र है। वह चालाक होने के साथ साथ क्रूर भी है। यही कारण है कि शेर, सांप, बंदर और कुत्तों के अलावा हमारे यहां सबसे ज्यादा मुहावरे किसी पर बने हैं तो वो शायद भेडि़या ही है। फिर चाहे वो ‘भेडि़या धसान’ हो या ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ की झूठी पुकार अथवा ‘भेड़ की खाल में भेडि़या’ होने की बात। भेडि़ए शिकार के लिए कुछ भी कर सकते हैं। भेडिया शब्द सुनते ही एक चालाक और अविश्वनीय प्राणी की तस्वीर आंखों में तैरने लगती है। यूं कहने को भेडि़ए इस दुनिया में आठ लाख साल से हैं। उन्हे कुत्तों  का पूर्वज माना जाता है। हालांकि कुत्तों ने खुद को इतना सुधार लिया कि वो मनुष्य के चहेते और वफादार प्राणियों में शामिल हो गए। लेकिन भेडि़यों ने ऐसी सकारात्मकता कभी नहीं दिखाई। वो केवल अपने झुंड के प्रति वफादार होते हैं। यहां तक कि मौका मिले तो कुत्तों को भी नहीं छोड़ते। पालतू पशुअों के साथ मौका लगे तो इंसान के बच्चों को भी उठा ले जाते हैं। भेडि़ये और कुत्ते के बीच एक बुनियादी फर्क यह है कि लड़ते समय भेडि़ए कुत्तों की तरह जोर-जोर से भौंकने में वक्त नहीं गंवाते। काम दिखाकर चुपचाप चलते बनते हैं। बीच में खबर आई थी कि राज्य के नौरादेही अभयारण्य में शेरों ने भेडि़यों को बेदखल कर ‍िदया है। सुनकर अच्छा लगा। लेकिन यही हाल रहा तो एक दिन मप्र में ‘भेडि़या अभ्यारण्य’ ( वुल्फ सेंक्चुरी) भी स्थापित करना पड़ सकता है।  
वन विभाग माने न माने, समाजशास्त्री 
इसकी प्रामाणिकता पर भले शक करें, लेकिन  सामाजिक हकीकत यह है कि राज्य में ‘भेड़ की खाल में भेडि़ये’ बढ़ रहे हैं। यानी दिखने में भले भोले हों, लेकिन कब काम दिखा दें, कहा नहीं जा सकता। ऐसे भेडि़यों की संख्या जीवन के हर क्षेत्र में ‍िदन दूनी बढ़ रही है। लेकिन इनकी कोई आधिकारिक  गणना नहीं होती। इन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है। 
यूं भेडि़ये जंगलों मे तो बढ़ ही रहे हैं, इंसानी बस्तियों में ‘मनुष्य की खाल में’ भी बढ़ रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल सोशल मीडिया का है। वहां सूचनाअों के मामले में ‘भेडि़या 
धसान’ का आलम है। फर्जी खबर भी पूरे इत्मीनान के साथ तमाम व्हाट्स ग्रुपो में एक सी आस्था के साथ डलती जाती है। हालांकि भेडि़या समाज में व्हाट्स एप ग्रुप नहीं होते। लेकिन मानव समाज में समाज सेवा का नया टोटका व्हाट्स एप ग्रुप चलाना है। इसमें कोई भी सूचना का आगा-पीछा देखने की जहमत नहीं उठाता। बल्कि कई बार तो झूठी खबर बिना पांव के ‘भेडि़या आया, भेडि़या आया’ की पुकार के माफिक दौड़ने लगती है। लेकिन असलियत का पता लगते ही खबर फारवर्ड करने वाला भेडि़यों का पूरा झुंड ही गायब हो जाता है। 
भेडि़यों के बारे में माना जाता है कि वो कभी किसी के सगे नहीं होते। उन्हें खुद से और अपने झुंड से मतलब होता है। शायद  इसीलिए मनुष्य ने उन्हें पालने की जुर्रत नहीं की। भेडि़यों की इमेज आदिकाल से ही खराब है। प्राचीन सभ्यताअों में भी भेडि़यों को नकारात्मकता का प्रतीक  माना गया है। हालांकि चीनी ज्योतिष में भेडि़ये को ‘स्वर्ग के द्वार का रक्षक’ कहा गया है। हमारे यहां वैदिक काल में भेडि़ये को रात्रि का प्रतीक बताया गया है तो तांत्रिक बौद्ध धर्म में भेडि़या कब्रिस्तान का रखवाला माना गया है। ईसप की कहानियों और बाइबल में भी भेडि़ये को खतरनाक प्राणी बताया गया है। रूडयार्ड किपलिंग ने मोगली के रूप में भेडि़ए द्वारा पाले गए एक बच्चे की कल्पना की है। 
बाॅलीवुड में भेडि़ये को केन्द्र में रखकर फिल्मे शायद ही बनी हो, लेकिन हाॅलीवुड में भेडि़या प्रवृत्ति पर दर्जनों फिल्में बनी हैं। मसलन ‘द वुल्फ आॅफ वाॅल स्ट्रीट’, काॅल आॅफ द वुल्फ’, क्राइंग वुल्फ आदि। यानी भेडि़ये के चरित्र में मनुष्य की काफी ‍िदलचस्पी रही है। लेकिन भेडि़ए इससे नावाकिफ हैं। उनकी तादाद और तासीर का दायरा बढ़ रहा है, वो इसी में खुश हैं। साथ में अपना मध्यप्रदेश भी। 
वरिष्ठ संपादक 
‘राइट क्लिक’
( ‘सुबह सवेरे’ में ‍िद. 5 अप्रैल 2022 को प्रकाशित)

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चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

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