साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Saturday, April 23, 2022

जातिवार जनगणना कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं,बल्कि डॉ.आंबेडकर के सपनों और भारतीय संविधान अनुरूप राष्ट्र-निर्माण और विकास के लिए जरूरी है जिसकी गणना साठ के दशक के शुरू में ही हो जानी चाहिए थी है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

    विमर्श   
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
          सामाजिक न्याय और बंधुता मानवीय संवेदनशीलता का एक बेहद गम्भीर मसला है और जातिवार जनगणना की मांग को भी उसकी एक महत्वपूर्ण और अभिन्न कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए। हज़ारों सालों की ऊँच-नीच की जड़ता से भरे भारतीय समाज में " समता, स्वतंत्रता व बंधुता '’ की स्थापना के लिए समाज सुधारकों द्वारा समय-समय पर कोशिशें की गईं। ग़ौर करने लायक यह है कि ऐसे अधिकांश समाज सुधारक एससी या ओबीसी से ही निकले हैं। औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ों ने हमारे देश के गैर-बराबरी भरे समाज में अलग-अलग समूहों की गणना कर उनके जीवन से जुड़े विभिन्न विषयों का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करने का निर्णय लिया और इस कड़ी में भारत में जातिवार जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी। अंतिम बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। उसी आधार पर अब तक यह अंदाजा लगाया जाता रहा है कि देश में किस सामाजिक समूह के लोग कितनी तादाद में हैं।
         जातिवार जनगणना क्यों जरूरी है: 1951 से 2011 तक की हर जनगणना में संवैधानिक बाध्यता के चलते अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गिनती तो हुई है, पर अन्य दूसरी जातियों की नहीं। आखिर , क्या वजह है कि भारत सरकार अपने देश की " सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई " जातियों की अलग-अलग संख्या जानने और बताने से हमेशा कतराती रही हैं? दुनिया का शायद ही कोई लोकतांत्रिक देश होगा जो अपनो लोगों के जीवन से जुड़ी सच्चाई को जानने से नाक-भौं सिकोड़ता हो! जो देश का समाज समावेशी नहीं होगा, उस पाखंड से भरे विभाजित समाज के जरिये अखंड भारत की दावेदारी/परिकल्पना हमेशा खोखली और राष्ट्र-निर्माण की संकल्पना अधूरी और झूठी सिद्ध होगी। जातिवार जनगणना की मांग इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि व्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों में उनके "ओवर-रिप्रेज़ेंटेशन व अंडर-रिप्रेज़ेंटेशन " का एक वास्तविक आंकड़ा सामने आ सके जिनके आधार पर कल्याणकारी योजनाओं व संविधान के सामाजिक न्याय के विषयों पर सक्रिय रूप से सकारात्मक दिशा में तेज़ी से बढ़ा जा सके। सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण विषय पर बहस होते समय हमेशा सम्बंधित रिप्रजेंटेशन के आंकड़े मांगती रही है, जैसे प्रोमोशन मे रिजर्वेशन का मसला।
        संविधान के अनु. 340 के तहत गठित प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर ने 1955 की अपनी रिपोर्ट में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने की सिफारिश की थी। द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बीपी मंडल अपनी रिपोर्ट में 3743 जातियों को एक जमात के रूप में सामने लाए। आयोग ने सामाजिक-शैक्षणिक गैर-बराबरी से निपटने के लिए एक पुख्ता दर्शन/विचार सामने रखते हुए मोटामोटी 40 सिफारिशों में एक भूमि-सुधार की भी बात कही थी।
       जातिवार जनगणना की मांग अटल बिहारी बाजपेयी ने की थी खारिज: दो-दो बार देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में जातिवार जनगणना को लेकर आम सहमति बनी। एक बार जनता दल नीत युनाइटेड फ्रंट सरकार (1996-98) में 2001 के लिए और दूसरी बार ( 2005-2014) यूपीए-2 की सरकार में 2011की जनगणना के लिए। इस मुद्दे पर पहली बार सरकार चली गई और जब अटल बिहारी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उस मांग को सिरे से खारिज कर दिया। वहीं दूसरी बार मनमोहन सिंह के आश्वासन के बावजूद कुछ दक्षिणपंथी सोच के नेताओं ने बड़ी चालाकी से उस संभावना को पलीता लगा दिया। जो जनगणना सेंसस कमीशन ऑफ इंडिया द्वारा जनगणना अधिनियम,1948 के मुताबिक होनी थी, उसे चार टुकड़ों में बांटकर सामाजिक-आर्थिक सर्वे की शक्ल में कराया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी क्षेत्रों में आवास व शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय की ओर से सामाजिक-आर्थिक जनगणना की गई जिस पर 4,893 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद जो आंकड़े जुटाये गये, वो सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के हैं, नाकि जातिवार जनगणना के और उन आंकड़ों को भी आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया।
        जातिवार जनगणना क्यों नहीं करवा सकी कोई सरकार? : आखिर वे कौन से डर है जिसके चलते आज़ादी के 75 साल बाद भी आज तक कोई भी सरकार जातिवार जनगणना करवाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी? दरअसल, जैसे ही सारी जातियों के सही आंकड़े सामने आएंगे, वैसे ही शोषकों द्वारा गढ़ा गया यह नैरेटिव ध्वस्त हो जाएगा कि ईबीसी ओबीसी की हकमारी कर रहा है या ओबीसी दलित-आदिवासी का शोषक है। वे मुश्किल से बनी जमात की हज़ारों जातियों को फिर से आपस में लड़ा नहीं पाएंगे और हर क्षेत्र में आरक्षण के माध्यम से समुचित प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा।यह हास्यास्पद ही है कि बिना पुख़्ता आंकड़ों के, केवल धारणा व पिछले 5 वर्षों के आंकड़ों के आधार पर रोहिणी कमीशन के जरिए पिछड़ों को उपश्रेणियों में बांटने की कवायद चल रही है। चाहे आप आरक्षण के पक्ष में हों या विपक्ष में, जाति जनगणना जरूरी है। वर्तमान मोदी सरकार ने 2018 में एक शिगूफा छोड़ा था कि हम ओबीसी की गणना कराएंगे। तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए यूं ही जुमले की तरह इस मुद्दे को उछाला था।
        सामान्य सी बात है कि सिर्फ ओबीसी की ही क्यों, भारत की हर जाति की गिनती हो। जब गाय-घोड़ा-गधा-कुत्ता-बिल्ली-शेर-हाथी-भेड़-बकरी-पशु-पक्षियों अर्थात सबकी गिनती होती है, तो इंसानों की क्यों नहीं? आखिर, पता तो चले कि भीख मांगने वाले,मजदूरी करने वाले,सब्जी बेचने वाले, गटर साफ करने वाले, रिक्शा खींचने वाले, ठेला लगाने वाले, फुटपाथ पर सोने वाले लोग किस समाज से आते हैं ? उनके उत्थान के लिए योजनाएं बनाना लोकतांत्रिक सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है और इस भूमिका से वह मुंह नहीं चुरा सकती। इसलिए जातिवार जनगणना कोई राजनैतिक विषय नहीं, बल्कि संविधान सम्मत राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का एक अभिन्न हिस्सा है। जो भी इसे टरकाना चाहते हैं, वे इस देश की एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्गों के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं और न ही करना चाहते हैं।
        बिहार और महाराष्ट्र सरकार ने जातिवार जनगणना के लिए प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा गया। इस विषय पर तमिलनाडु ने हमेशा सकारात्मक रुख दिखाया है। द्रविड़ियन आंदोलन से उपजी पार्टियों ने बहुत हद तक सामाजिक बुराईयों और बीमारियों के डायग्नोसिस में रूचि दिखाई। उड़ीसा और यूपी समेत देश के अनेक राज्यों में जातिवार जनगणना की जबर्दस्त मांग हुई। कर्नाटक में तो केंद्र के अड़ियल रुख को देखते हुए वहां की राज्य सरकार ने खुद ही जातिवार गणना का निश्चय करके दिखा दिया। राजद की पहल पर दो-दो बार बिहार विधानमंडल में जातिवार जनगणना को लेकर प्रस्ताव पारित हो चुका है। लालू प्रसाद, शरद यादव और मुलायम सिंह लंबे समय से इस मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे हैं।
       हाल ही में जब भारत के गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में बयान दिया कि सरकार जातिवार जनगणना नहीं कराएगी, तो तेजस्वी यादव के प्रस्ताव पर नीतीश कुमार ने सर्वदलीय शिष्टमंडल के साथ प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की। तेजस्वी यादव ने जातिवार जनगणना से समाज के अंदर विभाजन-रेखा के उभरने की चिंता में दुबले हो रहे पुनरुत्थानवादी ताकतों को तार्किक जवाब देते हुए कहा कि " जब सेंसस में धर्म का कॉलम रहने से लोग धर्मांध नहीं हो जाते, तो जाति का कॉलम जोड़ देने से जातीय विद्वेष कैसे फैलने लगेगा?
‘बौद्धिक’ बिरादरी की मसिक्रीड़ा:
        प्रो.अभय दुबे, बद्री नारायण, वेद प्रताप वैदिक, संजय कुमार, संकेत उपाध्याय, रमेश मिश्रा समेत अनेकानेक ‘' यथास्थितिवादी सवर्ण बुद्धिजीवियों '’ व पत्रकारों द्वारा जातिवार जनगणना को लेकर तमाम कुतर्क पेश किये जा रहे हैं: बद्री नारायण दैनिक जागरण में लिखते हैं, " सियासी शस्त्र न बने जातीय जनगणना " दैनिक भास्कर में अभय दुबे लोगों के मन में डर पैदा करने की मंशा से लिखते हैं," कि जातिगत जनगणना के गहन व बुनियादी प्रभाव होंगे जो इस समय न तो इसके समर्थकों की समझ में आ रहे हैं न विरोधियों के '’, नवभारत टाइम्स में वेद प्रताप वैदिक मसिक्रीड़ा करते हैं कि,कोटा बढ़वाना हो तो क्यों न याद आए जाति’,फिर वह दैनिक भास्कर में निर्गुण भजते हैं, ‘जनगणना में जाति नहीं, जरूरत पूछी जाए तभी पिछड़ों का हित होगा’.
          संकेत उपाध्याय दैनिक भास्कर में मानस मंथन करते नज़र आते हैं, ‘राजनीति का एटमी बम क्यों है आरक्षण: देश में आरक्षण प्रक्रिया की समीक्षा क्यों नहीं की जाती?’, वहीं दैनिक जागरण में रमेश मिश्रा चिंतित होकर कलम चलाते हैं, ‘मुख्य जनगणना के साथ-साथ जाति की जनगणना मुश्किल, जानिए क्या-क्या हो सकती हैं दिक्कतें?’ बावजूद, इन तिकड़म व विषवमन भरे लेखन के, नेशन बिल्डिंग में लगी पीढ़ी जद्दोजहद कर रही है। लोग भारतीय समाज के मनोविज्ञान को भूल जाते हैं और उसका निर्गुण बखान कर सच्चाई पर परदा डालने की कोशिश करते हैं।
           मंडल कमीशन की रिपोर्ट में बीपी मंडल ने रजनी कोठारी को उद्धृत करते हुए लिखा था, ‘भारत में जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे ऐसी राजनीति तलाशते हैं, जिसका समाज में कोई आधार नहीं है’. मनीष रंजन ठीक कहते हैं कि कोठारी के ‘' जातियों के राजनीतिकरण  के सिद्धांत के तहत ही जाति-व्यवस्था को व्यावहारिक चुनौती दी जा सकती है।"

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