साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Friday, May 06, 2022

राज्यसभा और विधान परिषदों में भी लागू हो एससी और एसटी के लिए आरक्षण और ओबीसी के लिए भी हो एससी-एसटी की तरह राजनीतिक आरक्षण-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
          वर्तमान में लोकसभा और राज्य की विभिन्न विधान सभाओं में एक-चौथाई सदस्य एससी व एसटी वर्ग के हैं, लेकिन राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों में उनका प्रतिनिधित्व (आरक्षण) नहीं है। यदि राज्यसभा और विधान परिषदों में भी होता आरक्षण तो  एससी-एसटी को मिल जाता संविधान सम्मत उचित प्रतिनिधित्व! आज के नवउदारवादी युग में वंचितों के हितों की रक्षा तभी हो सकेगी जब देश की व्यवस्था के हर स्तर पर उनका आनुपातिक या समुचित प्रतिनिधित्व हो। मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी को भी एससी-एसटी की तरह राजनीतिक आरक्षण अर्थात लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में समुचित आरक्षण  के साथ नौकरियों में प्रोमोशन में भी आरक्षण मिलना चाहिए। ओबीसी और एससी -एसटी वर्ग को संसद के उच्च सदन (राज्यसभा) और राज्यों की विधान परिषदों में भी आरक्षण को सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने की नई बहस में शामिल किया जाना चाहिए। ओबीसी और एससी-एसटी आधारित वोट बैंक की राजनीति करने वाले सभी दलों और ओबीसी- एससी-एसटी के सभी प्रतिनिधियों (सांसदों-विधायकों) को डॉ.आंबेडकर की सामाजिक न्याय की इस अधूरी पड़ी लड़ाई को सामूहिक तरीके से राजनीतिक स्तर पर लड़ने की जरूरत है।
             लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में लगभग 25प्रतिशत सदस्य एससी-एसटी हैं,फिर भी दलितों और आदिवासियों के एक बड़े वर्ग का मानना कि उन्होंने सामाजिक हितों की रक्षा करने में उतनी हिम्मत और शिद्दत से प्रयास करते हुए नही दिखाई दिए जितनी डॉ आंबेडकर ने संविधान बनाते समय अपेक्षा की थी। यह भी कहना अतिशयोक्ति नही होगी वे अक्षम और प्रभावविहीन सिद्ध हुए। उनमें से कुछ ही एससी और एसटी से जुड़े मुद्दे उठाते रहे हैं और कई इन वर्गों की बदहाली के प्रति चिंतित और संवेदनशील हैं। सबसे ज्यादा सोचनीय विषय यह है कि लोकसभा व विधानसभाओं के एससी-एसटी प्रतिनिधियों की आवाज उनकी ही पार्टियों के संसदीय और विधायक दलों में नहीं सुनी जाती है। एक रणनीति के तहत "जितनी चाबी भरी राम ने,उतना चले खिलौना" की तर्ज़ पर उनकी भूमिका बहुत सीमित कर दी जाती है। जब एससी-एसटी वर्ग के प्रतिनिधि पर्याप्त अनुभव प्राप्त कर लेते हैं और वे समझने लगते हैं कि एससी - एसटी की बेहतरी के लिए और कौन से कदम उठाए जाने चाहिए, तब उन्हीं की पार्टियां उन्हें उम्मीदवार बनाना तक उचित नहीं समझती हैं। उनकी जगह नौसिखियों और पद लोलुपों को नामांकित करती हैं जिन्हें नए सिरे से चीजों को सीखने और समझने में ही काफी समय निकल जाता है। हर राजनीतिक दल सामान्यतः आरक्षित सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों को खड़ा करने से परहेज करती हैं जो मजबूती से और बिना किसी लाग-लपेट के एससी-एसटी वर्ग के अधिकारों के पक्ष में आवाज उठाते हैं। राज्यसभा और विधानपरिषदों में उनका आरक्षण नही होने के कारण उच्च (स्थायी) सदनों में एससी-एसटी की उपस्थिति ना के बराबर रहती है। इसलिए एससी-एसटी वर्ग की पूरी संसद और राज्यों के विधानमंडलों में 25 प्रतिशत भागीदारी नहीं हो पाई है।
           अब व्यावहारिक समाधान यह है कि सभी राजनैतिक दलों पर यह दबाव बनाया जाए कि वे लोकसभा और विधानसभा की आरक्षित सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों को खड़ा करें जो एससी व एसटी के अधिकारों के पक्ष में दृढ़़ता के साथ खड़े हो सकें। इसके लिए एससी और एसटी को लामबंद करना होगा और उनमें जनजागृति फैलाने के लिए कैडर कैम्पों के माध्यम से सतत संवाद और संपर्क स्थापित करने के समुचित प्रयास करने होंगे। दलितों को एकजुट करने के प्रयासों में आने वाली समस्याओं के कई उदाहरण हैं, जैसे अनुसूचित जाति- जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, अनुसूचित जातियों के लिए विशेष घटक योजना और आदिवासी उपयोजना के विरोध के खिलाफ वंचित वर्गों को एकजुट करने के प्रयासों की असफलता। हाल ही में, ऊना में दलितों पर हुए अत्याचार के विरूद्ध लोगों को लामबंद करने के प्रयास अपेक्षानुसार सफल होते नही दिखाई नहीं दिए हैं। इन प्रदर्शनों  में  कुछ हजार व्यक्ति ही जुट पाए और किसी भी मामले में इनकी संख्या दस हजार से अधिक नहीं हो सकी। इसके विपरीत, अत्याचार निवारण अधिनियम के निष्प्रभावी करने की मांग जोे किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं हो सकती और शक्तिशाली-वर्चस्वशाली ऊँची जातियों को ओबीसी में शामिल किए जाने के समर्थन में कुछ ऊँची जातियों द्वारा जो शक्ति प्रदर्शन गुजरात और महाराष्ट्र में हुए उनमें भारी भीड़ जुटती दिखाई दी। ये दोनों ही मांगें सामाजिक यथार्थ या न्याय और संवैधानिक प्रावधानों के अनुकूल नही हैं। इन दोनों राज्योें के विभिन्न शहरों में इन मुद्दों को लेकर जो रैलियां हुईं उनमें दसों हजार व्यक्तियों ने भाग लिया और कुछ में तो प्रदर्शनकारियों की संख्या कई लाख से भी अधिक थी। संसाधनाें और जागृति के अभाव में जो समस्याएं एससी व एसटी से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों को लागू करवाने के पक्ष में इन समुदायों के व्यक्तियों को लामबंद करने में पेश आती हैं, ये उसके कुछ उदाहरण हैं। इन दो समस्याओं को दूर करने के बाद ही एससी- एसटी को राजनैतिक सत्ता में अपना वाजिब हक मिल पाएगा और वे विकास के सही फल का स्वाद चख सकेंगे। जब तक यह नहीं हो जाता है,तब तक एससी- एसटी के अधिकार उन्हें दिए जाने के पक्ष में सतत और अधिकतम सामाजिक-राजनीतिक दबाव बनाने की जरूरत है। उन्हें सामाजिक रूप से अगड़ी जातियों के समकक्ष लाने और अपमान-अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए यह आवश्यक है। ऐसा करने के लिए कुछ उपलब्ध अनुकूल परिस्थितियों का बेहद समझदारी से प्रयोग करने की जरुरत है।
           कुछ अनुकूल परिस्थितियां कुछ ही कारणों से बन पाई हैं। इनमें से एक है, एससी-एसटी वर्ग में एक मजबूत शिक्षित व सम्पन्न मध्यवर्गीय तबके का उभरना,भले ही यह वर्ग छोटा है। यह तबका डॉ.आंबेडकर के सामाजिक न्याय स्थापित करने के उद्देश्य से आरक्षण की नीति लागू कर सरकारी योजनाओं के चलते उभरा है। दूसरा कारण है, एससी को मिले समान मताधिकार रूपी हथियार से चुनावों को प्रभावित करने की क्षमता और शक्ति। कुछ राज्यों में दलित समाज बहुमत में न होते हुए भी वह चुनावों को प्रभावित करने की स्थिति में है। परंतु यह तभी हो सकता है जब ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों में एससी-एसटी में उनके अधिकारों व उनके लिए निर्धारित लाभों के संबंध में न केवल जनजागृति पैदा की जाए वरन् उन्हें यह भी बताया जाए कि वे राजनैतिक दलों और उनके उम्मीदवारों को किस तरह यह आभास करा सकते हैं कि उनके समर्थन और सहयोग के बिना चुनावों में जीत हासिल करना आसान नहीं होगा! यह काम एससी-एसटी वर्ग के शिक्षित और संपन्न मध्य वर्ग को तो करना ही होगा, इसके साथ ही उस ओबीसी को भी इसमें हाथ बंटाना होगा जो सामाजिक न्याय में विश्वास रखता है और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को और अधिक व्यापक स्तर पर व्यावहारिक और सार्थक बनाना चाहता है। इसके अतिरिक्त, यह भी आवश्यक है कि एससी -एसटी की विभिन्न जातियों और उपजातियों के बीच पारस्परिक वैरभाव समाप्त करने की दिशा में समुचित प्रयास भी किये जाएं। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एससी-एसटी वर्ग की सभी जातियों में पूर्ण एकता आवश्यक है। एससी-एसटी की विभिन्न जातियों की सामाजिक सरंचना और विकास का स्तर अलग-अलग है और उसके अनुसार आरक्षण और अन्य योजनाओं का लाभ लेने की उनकी क्षमता भी अलग-अलग है। इसके कारण उनके बीच उपजने वाले शत्रुता के भाव जैसी समस्याओं को दलित वर्ग की विभिन्न जातियों के सामाजिक पंचों को दूर करना होगा।
         सबसे पहले यह आवश्यक है कि हम राज्य और सरकार के बीच अंतर करें। भारतीय राज्य की मूल नीतियों और कर्तव्यों का निर्धारण संविधान में कर दिया गया है। अब मुद्दा केवल सरकारों द्वारा नीतियों के निर्माण और उनके क्रियान्वयन का है। सन् 1991 के बाद से सरकारों ने उदारीकरण के नाम पर ऐसी आर्थिक नीतियां अपनाई हैं जिनमें बाजार को सबसे प्रमुख स्थान दिया गया है। निकट भविष्य में इन आर्थिक नीतियोें में बदलाव की आशा करना यथार्थपूर्ण नहीं होगा।
          इसके साथ ही, दुनिया के कई हिस्सों में बाजार-केन्द्रित अनियंत्रित विकास मॉडल के दुष्परिणामों के विषय पर जागृति आ रही है। दुनिया को यह अहसास हो रहा है कि बाजार-आधारित विकास से न केवल आर्थिक विषमता की खाई बढ़ी है,बल्कि मध्यम और श्रमिक वर्ग की आर्थिक स्थिति या तो गिरी है या वैसी ही बनी हुई है। दूसरी ओर, राष्ट्रीय संपदा का बड़ा हिस्सा कुछ धन पशुओं अर्थात कॉरपोरेट घरानों के हाथों में केन्द्रित हो रहा है जो अपने धन का नंगा प्रदर्शन कर रहे हैं। वे अपने रहने के लिए ऐसे भवन बना रहे हैं, जो इस देश के राजाओं और सम्राटों को भी नसीब नहीं हुए थे। इस तरह के विकास मॉडल पर प्रतिक्रिया विकसित देशों में उभरकर सामने आने लगी है। एससी-एसटी व अन्य वंचित वर्गों को अधिकार व समानता उपलब्ध करवाने के लिए हम वृहद आर्थिक नीतियों में इस तरह के बदलाव आने का इंतजार नहीं कर सकते जिससे वे बाजार-केन्द्रित न होकर जनता के कल्याण पर केन्द्रित हो जाए। इन वंचित वर्गों के अधिकारों, सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई लगातार चलती रहनी चाहिए,चाहे जो भी सरकार शासन में हो और उसकी आर्थिक नीतियां कुछ भी हों!
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