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Wednesday, April 20, 2022

ईडब्ल्यूएस आरक्षण कितना न्यायसंगत एवं व्यावहारिक - एक नयी बहस को जन्म देता मुद्दा-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

सामाजिक मुद्दा  
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
     लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर 2019 में जब ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू किया जा रहा था तो उसे लगभग सभी दलों का भरपूर समर्थन मिला था। इस श्रेणी के आरक्षण के लिए लागू मापदंडो पर अर्थशास्त्री स्वामीनाथन एस.अंकलेसरैया अय्यर ने कुछ वाज़िब सवाल उठाए हैं। अय्यर अपने लेख में लिखते हैं कि " आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्ण वर्ग को आरक्षण देने की कोई जरूरत ही नहीं है।"
          केंद्र सरकार ने 2019 में आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण वर्ग के लिए भी 10% आरक्षण की व्यवस्था की थी। हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि देश में आर्थिक गरीबी बहुत तेजी से कम हो रही है। ऐसे में सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अय्यर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के आरक्षण को गैर-जरूरी और अव्यावहारिक बताते हुए इसे खत्म करने की वकालत कर रहे हैं। उन्होंने "द टाइम्स ऑफ इंडिया"  में लिखे अपने साप्ताहिक स्तंभ में अपने विचार के समर्थन में कई मजबूत दलीलें दी हैं। पेश है,उनके उस लेख के कुछ महत्वपूर्ण संपादित अंश ..
1.भारत में तेजी से घटा है, गरीबी का स्तर...................
          तीन अर्थशास्त्रियों: सुरजीत भल्ला, अरविंद विरमानी और करन भसीन का अनुमान है कि देश में अत्यंत गरीबी (Extreme Poverty) की स्थिति अब नहीं रही है। विश्व बैंक के अनुसार, देश का हर नागरिक हर दिन औसतन 130 रुपये का खर्च कर पा रहा है, तो अत्यंत गरीबी की स्थिति नहीं मानी जाएगी। भारत में गरीबी रेखा के मानक (स्टैंडर्ड्स ऑफ पावर्टी लाइन) विश्व बैंक के मानकों से मेल खाते हैं। विश्व बैंक के पैमानों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि भारत में गरीबी अनुपात 2004 में 31.9% के मुकाबले 2014 में 5.1% हो गया जो 2020 में गिरकर 0.86% पर आ गया। चूंकि, 2017-18 एनएसएसओ सर्वे के आंकड़ों की अनदेखी के लिए आलोचना करने वाले इस मापदंड से चिढ़ सकते हैं, लेकिन कुछ अन्य अध्ययनों से भी पता चलता है कि हाल के दशकों में गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर भारत ने जबर्दस्त कामयाबी हासिल की है।
2.बिना आरक्षण के ही घट रही है गरीबी, तो फिर आरक्षण क्यों?.................
         आर्थिक रूप से गरीब सवर्ण वर्ग को शैक्षणिक संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण दिए बिना ही यदि गरीबी घट रही है तो क्या उन्हें आरक्षण देने का सरकार का फैसला कठघरे में खड़ा नहीं होता है? सुप्रीम कोर्ट 1992 में आर्थिक आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण की मांग को अनुचित बताते हुए पहले ही खारिज कर चुका है। उस समय तो देश की बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी। इसलिए सवाल उठता है कि क्या जब गरीबी उन्मूलन योजनाओं से गरीबी में तेजी से कमी आ रही है,तब आर्थिक आधार पर ईडब्ल्यूएस को आरक्षण देना कितना जायज़ और व्यावहारिक है?
3.संविधान में सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक भेदभाव की खाई कम करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था ..........
          संविधान जाति, धर्म, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने से मना करता है। हालांकि, सदियों से भेदभाव के शिकार दलितों-आदिवासियों/एससी-एसटी के पक्ष में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। संविधान सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए भी आरक्षण की अनुमति देता है। इस कारण राजनीतिक रूप से काफी दबंग समूहों ने खुद को पिछड़ा वर्ग बताकर अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल करवा लिया। जाति आधारित राजनीतिक दलों के कारण यह घालमेल करना आसान हो गया।
4.एक बार सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुकी है, ईडब्ल्यूएस आरक्षण..............
          भारत सरकार ने 1991 में ओबीसी के लिए 27% और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने गरीबी आधारित आरक्षण को खारिज़ कर दिया था। अभी ओबीसी के लिए 27% के साथ-साथ एससी के लिए 15% और एसटी के लिए 7.5% आरक्षण के साथ सभी सरकारी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में आज 49.5% आरक्षण लागू है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि 50% से ज्यादा आरक्षण की व्यवस्था समानता के सिद्धांत के खिलाफ होगी।
5.शिक्षा व्यवस्था में खामियों की वजह से नौकरियों का संकट..............
देश में रोजगार का गंभीर संकट है। केंद्र और राज्य सरकारें रोजगार के प्रमुख स्रोत हैं। युवाओं का सर्वाधिक जोर भी सरकारी नौकरियों पर ही होता है,क्योंकि इनसे स्थायित्व एवं भविष्य की सुरक्षा की भावना जुड़ी होती है। यही वजह है कि ऊंची-ऊंची डिग्री धारक भी चपरासी की नौकरी के लिए मारामारी करते दिख रहे हैं। नौकरियों का संकट शिक्षा के निम्नस्तरीय या अधोमानक होने के कारण भी पैदा होता है। हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था युवाओं को उचित कौशल नहीं दे पा रही है। इसका मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि आरक्षण के जरिए अयोग्य लोगों को भर लिया जाए। आदर्श स्थिति तो यह है कि शिक्षा व्यवस्था में कौशलपरक और रोजगारपरक सुधार किए जाएं।
6.ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मापदंड की परिधि में आती है,देश की लगभग 80% आबादी............
         मोदी नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने 2019 में सवर्ण गरीबों के लिए आरक्षण का विधेयक संसद में पेश किया तो बिहार के क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) जैसी इक्का-दुक्का पार्टियों को छोड़कर सभी दलों ने समर्थन किया था। तब बीजेपी ने कहा था कि इस नई व्यवस्था से देश में पहली बार ईसाइयों और मुस्लिमों को भी आरक्षण मिल रहा है। इस कथन से यह साफ परिलक्षित होता है कि राजनीतिक दल और उसके नेता आरक्षण को सिर्फ वोट बैंक के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं,नाकि उनका मकसद समाज सुधार होता है। सरकार मानती है कि सालाना 8 लाख रुपये की आमदनी वाले, 5 एकड़ से कम कृषि योग्य भूमि वाले और शहरों में 1,000 वर्ग फीट क्षेत्रफल से कम में बने मकान वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) में आते हैं।
7.सरकार का उद्देश्य समाज सुधार नहीं,बल्कि जातीय वोट बैंक साधना है मकसद.................
           राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की 2011-12 की रिपोर्ट कहती है कि सबसे धनी 5% भारतीयों का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ 4,481 रुपये है जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 10,281 रुपये है। संभवतः प्रति व्यक्ति आय इनके 20% ज्यादा होंगी। 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना के मुताबिक, सिर्फ 8.25% ग्रामीण परिवारों की मासिक आमदनी 10 हजार से ज्यादा है। सच है कि उसके बाद से आमदनी बढ़ी है, फिर भी शंका की गुंजाइश कम है कि 80% से ज्यादा भारतीय ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आते हैं। 2015-16 की कृषि जनगणना के मुताबिक 86% जमीन मालिकों के पास 5 एकड़ से कम कृषि भूमि है। तय पैमाने के अनुसार ये सभी ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आ जाएंगे। इस तरह कहें, तो आर्थिक रूपी गरीबी के आधार पर आरक्षण का मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों को आरक्षण के दायरे में समेटना है, नाकि समाज के आर्थिक रूप से सबसे कमजोर वर्ग को अर्थात सरकार की नजर समाज सुधार की जगह उनके वोट बैंक पर ज्यादा दिखती है।
8.शिक्षा व्यवस्था सुधरे, आरक्षण की घुट्टी देना बंद हो...............
             एससी-एसटी और पिछड़े वर्ग को आरक्षण उनके साथ हुए ऐतिहासिक भेदभाव की वजह से दिया गया है, लेकिन उच्च जातियां ऐतिहासिक भेदभाव के कारण गरीब नहीं हुई हैं। वे इतिहास में हुए सामाजिक और शैक्षणिक अन्याय के पीड़ित नहीं हैं। उनकी गरीबी के कई दूसरे अन्य कारण हो सकते हैं, लेकिन अन्याय हरगिज़ नहीं। इसलिए उनकी सरकारी आर्थिक मदद होनी चाहिए, लेकिन आरक्षण नहीं। आखिरकार, आरक्षण के बावजूद जेएनयू या आईएएस की परीक्षा में न्यूनतम मार्क्स लाना और कुछ अनिवार्य प्रश्नपत्रों को क्वालीफाई करने के बाद ही शेष उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन होता है। बेहद गरीब परिवारों के बच्चे मुश्किल से ही शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं, इस कारण उन्हें न्यूनतम मार्क्स हासिल और कुछ अनिवार्य प्रश्नपत्रों को क्वालीफाई करने में भी परेशानी होती है। ऐसे में आरक्षण का अधिकतम फायदा क्रीमी लेयर को ही मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह सरकार से कहे कि वह शिक्षा व्यवस्था में सुधार करे नाकि, गरीब सवर्णों को आरक्षण दे।
             उल्लेखनीय है कि जब 7अगस्त,1990 को जब पीएम वीपी सिंह ने केवल सरकारी नौकरियों में 27% ओबीसी आरक्षण की घोषणा की थी तो आरक्षण विरोधी सवर्ण मानसिकता की सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों ने सड़को पर अराजकता फैलाकर विरोध करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी थी। घोषणा के कुछ दिनों बाद विषय सुप्रीम कोर्ट ले जाया गया और तत्कालीन सरकार ने तब तक आरक्षण नही दिया, जब तक न्यायालय का अंतिम फैसला नही आ गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण की 50% की अधिकतम सीमा और क्रीमी लेयर जैसी दो शर्तों के साथ 1992 में ओबीसी आरक्षण देने का आदेश हो पाया था जो 1993 से लागू हुआ। ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर याचिका आज सुप्रीम कोर्ट में लंबित होने के बावजूद बीजेपी सरकार ने 10% आरक्षण तुरंत लागू कर दिया था और आज धड़ल्ले से दिया जा रहा है। इस गैरसंवैधानिक और अन्यायपूर्वक दिए जा रहे आरक्षण के ख़िलाफ़ ओबीसी आरक्षण की तरह विरोध नही हुआ था। दोनों तरह के आरक्षण पर संबंधित वर्ग की सामाजिक-राजनीतिक चेतना का स्तर और सर्वोच्च न्यायपालिका एवं सरकार में बैठे वर्ग विशेष की नीयत को सहजता से समझा और अनुमान लगाया जा सकता है।
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