साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, April 18, 2022

वर्तमान राजनीतिक सत्ता/लोकतंत्र के संदर्भ में : सबसे बुरे संकट के दौर से गुजरती डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी: तथ्यपरक विश्लेषण- नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

अम्बेडकरवाद  एक विश्लेषण
 नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
युवराजदत्त महाविद्यालय,लखीमपुर-खीरी
       आज के दौर में जैसी राजनीतिक परिस्थितियां दिख रही है, उसमें दलित संविधान को बचाने के लिये तो प्रयासरत दिखता है,किंतु संविधान के बावजूद दलित अपने को सुरक्षित महसूस नही कर पा रहा है। बहुजन समाज का एक बहुत बड़ा समूह ओबीसी जिसको सामाजिक न्याय दिलाने के लिए डॉ.आंबेडकर ने संविधान में अनुच्छेद 340 की व्यवस्था की,जिसके बड़े हिस्से को हासिल करने के लिए आज भी एक बड़ी लड़ाई लड़नी शेष है। वह जाति-धर्म, हिन्दू-मुसलमान और झूठे राष्ट्रवाद के नशे में डॉ.आंबेडकर को केवल दलितों का मसीहा मानकर अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के संभावित खतरों के बारे में बेख़बर दिखाई देता है। बहुजन समाज को धर्म के धंधे की साजिश की गहराई को सूक्ष्मता और गहनता से समझते हुए ज्योतिबा फुले,आंबेडकर, पेरियार, राम स्वरूप वर्मा और ललई सिंह यादव की विचारधारा का अनुसरण करना होगा।
           एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक के बुद्धिजीवियों और सामाजिक चिंतकों को डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी या उनकी चिंताओं में से निम्नलिखित कुछ बिंदुओं पर सबसे ज्यादा फ़ोकस करने की जरूरत है,क्योंकि वर्तमान सत्ता के संदर्भ में डॉ.आंबेडकर अपने जीवनकाल में ही भावी संकटों के बारे मे कई तरह की आशंकाएं प्रकट कर रहे थे। आज वही आशंकाएं हूबहू सच साबित होती दिख रही हैं। डॉ.आंबेडकर को इसीलिए युगदृष्टा कहा गया है। वर्तमान सत्तापरक लोकतंत्र के दौर में डॉ.आंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता पर सामाजिक - राजनीतिक सतत संवाद और संपर्क स्थापित करना समय की जरुरत बनती दिख रही है: 
" संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता बनी रहे अर्थात सरकार के नियंत्रण से मुक्त हो तभी लोकतंत्र बचेगा!"

         डॉ.आंबेडकर की उस समय व्यक्त की गई चिंताएं और आशंकाएं आज सच साबित होती दिख रही हैं। निःसंदेह कहा जा सकता है कि आज की सत्ता के दौर में संविधान,संवैधानिक संस्थाएं और लोकतंत्र ख़तरे में है!ईडी, सीबीआई, चुनाव आयोग और न्यायपालिका सत्ता के इशारे पर काम करती दिखती हैं। आम आदमी की आवाज़ मीडिया का अधिकांश हिस्सा सरकार की विज्ञापन एजेंसीज की तरह काम कर रहा है। सरकार की नीतियों के प्रति असहमति और आलोचना को देश द्रोह मानकर क़ानूनी कार्रवाईयां की जा रही हैं।
      "कॉरपोरेट्स/ पूंजीपतियों और वर्णव्यवस्था का गठबंधन देश के विकास का सबसे बड़ा दुश्मन: वर्तमान सत्ता के संदर्भ में उक्त व्यक्त की गई आशंका या चिंता साफ देखी जा सकती है। वर्णव्यवस्था की पोषक आरएसएस नियंत्रित बीजेपी सरकार और देश के अडानी,अम्बानी और रामदेव जैसे अन्य बड़े कॉरपोरेट घरानों का सरकार के साथ गठबंधन हर कोई देख सकता है और आंबेडकर की उस वक्त व्यक्त की गई आशंका  से बेख़बर देश का बहुजन समाज बीजेपी के नारे "सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास " पर आंख मूंदकर चलता हुआ साफ दिखाई दे रहा है। सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण और मुद्रीकरण इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। देश का बहुजन समाज शिक्षा के निजीकरण की भयावहता का अनुमान और आंकलन नही कर पा रहा है। भविष्य में बहुजन समाज के बच्चों के लिए शिक्षा व रोजगार के दरवाजे बंद होने की संभावनाएं और सरकार की मंशा को समझना होगा।
" इतिहास गवाह है कि जहां नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है,वहाँ जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है।निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है, जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल न लगाया गया हो ": डॉ.आंबेडकर के इस कथन की पुष्टि वर्तमान सत्ता की मुफ्त राशन वितरण और किसान सम्मान निधि के रूप में साफ तौर पर देखी जा सकती है। सामाजिक और धार्मिक गुलामी से मुक्ति दिलाने का रास्ता दिखाने वाले डॉ.आंबेडकर को बहुजन समाज भूल सा गया है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज के एक मजबूत सामाजिक- राजनैतिक गठबंधन के बावजूद संख्यानुपात के हिसाब से अपेक्षित परिणाम नही मिले। बहुजन समाज ने पांच किलो राशन के क्षणिक लालच में फंसकर यूपी विधानसभा चुनाव में आंबेडकर की वैचारिकी-दर्शन पर आधारित कांशीराम जी के सामाजिक संघर्ष से बनी बसपा को राजनीतिक रूप से बेहद कमज़ोर करने का काम किया है जिससे देश का दलित चिंतक और बुद्धिजीवी वर्ग हतप्रभ है और वर्तमान सत्ता के दौर में भावी आशंकाओं को लेकर काफी गम्भीर और चिंतित है,लेकिन हिंदू धर्म का सबसे बड़ा संवाहक ओबीसी मस्त है। बीएसपी के संस्थापक मा. कांशीराम भी कहते थे कि "जिस कौम को मुफ्त में खाने की आदत होती है,वह कौम कभी क्रांति नही कर सकती है। जो कौम क्रांति नहीं करेगी,वह देश या प्रदेश का कभी शासक या हुक्मरान नही बन सकती और जो कौम शासक नही होती है,उसकी बहन और बेटियां सुरक्षित नहीं होती और वह इंसाफ भी नही प्राप्त कर सकती।"
"मनुष्य जीवन की तरह विचार भी नश्वर होता है। एक विचार को जिंदा रखने के लिए उसके प्रचार-प्रसार की उतनी ही आबश्यकता होती है जितनी एक पौधे को जिंदा रखने के लिए पानी की आबश्यकता होती है। एक प्रसार के बिना और दूसरा पानी के बिना मुरझाकर मर जायेंगे":
         आज डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी और दर्शन का प्रचार-प्रसार लगभग बंद हो चुका है। डॉ.आंबेडकर के जयंती और परिनिर्वाण दिवस के आयोजन में सामाजिकता कम और राजनीति ज्यादा हावी होती दिखती है। डॉ आंबेडकर की मूर्तियों- स्मारकों के निर्माण के साथ उनके विचारों का महल भी खड़ा करने की आबश्यकता है। उनकी मूर्तियों पर फूल मालाएं चढ़ाने और उनके सामने दीपक,अगरबत्तियां और धूपबत्ती जलाने के साथ उनके विचारों का प्रकाश समाज मे बिखेरना जरूरी है। आज वैचारिक-विमर्श के कैडर कैम्प लगभग बंद हो चुके हैं और वह गीत-भजन-संगीत की मंडलियों द्वारा मनोरंजन तक सिमटता दिख रहा है, जहां दर्शन कम प्रदर्शन ज्यादा हो रहा है और उसमें बहुजन समाज के पढ़े लिखे वर्ग की सहभागिता नगण्य दिखती है। आंबेडकरवादी परिवारों में उनके चरित्र की जगह उनके चित्र ज्यादा दिखाई देने लगे हैं। दुःखद पहलू यह है कि बहुजन समाज का पढ़ा लिखा वर्ग आरक्षण से नौकरी पाकर बहुजन वैचारिकी के विमर्श पर खरा नही उत्तर रहा है और डॉ.आंबेडकर के " पे बैक टू द सोसाइटी" के सिद्धांत के अमल पर गम्भीर नही दिखता है।
"जिसे अपने दुःखों से मुक्ति चाहिए, उसे लड़ना या संघर्ष करना होगा और जिसे लड़ना है, उसे पढ़ना होगा,क्योंकि ज्ञान के बिना जो लड़ने जाएगा तो उसकी हार निश्चित है। ज्ञान शिक्षा से आता है और जिसके पास ज्ञान होता है, वही शक्तिशाली होता है। शक्तिशाली के सामने बड़ी बड़ी हस्तियां झुकती हैं। इसलिए शिक्षित बनों,संगठित रहो और संघर्ष करने का नारा दिया था डॉ आंबेडकर जी ने ": वर्तमान सत्ता द्वारा साधन विहीन बहुजन वर्ग में मुफ़्तख़ोरी की संस्कृति एक सुनियोजित साजिश के तहत पैदा की जा रही है जिससे यह वर्ग आलसी और कामचोर बनकर रह जाये और डॉ.आंबेडकर को भूलकर उसकी संघर्ष करने की शक्ति कमजोर पड़ जाए। कुछ समय के बाद यह वर्ग एक नई तरह की आर्थिक गुलामी के शिकंजे में कसता नजर आएगा और फिर संघर्ष करने की क्षमता कमजोर होने और सरकार के टुकड़ों पर पलने को मजबूर इस वर्ग का लंबे समय तक राजनीतिक दोहन किया जाता रहेगा।
डॉ.आंबेडकर का राष्ट्रवाद:"राष्ट्रवाद तभी सार्थक सिद्ध हो सकता है जब लोगों के बीच जाति,नस्ल और रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक स्वतंत्रता, समानता और बन्धुता को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।" डॉ आंबेडकर के अनुसार " जाति समाज विरोधी (कास्ट इज एन्टी सोशल) और हिंदुत्व राष्ट्र विरोधी (हिंदुत्व इज एन्टी नेशनल) है। सच्चे राष्ट्रवाद को समझने के लिए डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को समझना होगा।
       वर्णवादी व्यवस्था की फैक्ट्री से निकली बीजेपी की सत्ता की राष्ट्रवाद की परिभाषा में सामाजिक व्यवस्था में ऊंच-नीच की जातीय व्यवस्था आती है। वह जातियों के बीच समरसता की बात करते हैं। ऊँच-नीच में समरसता कैसे आएगी ? इसका वह फार्मूला/हल नही बताती हैं। डॉ.आंबेडकर सामाजिक व्यवस्था में जातियों का सम्पूर्ण विनाश की बात करते हैं। आरएसएस और बीजेपी सत्ता के लोग हिंदुत्व (मुस्लिम विरोध) की बात करते हैं जबकि आंबेडकर हिंदुत्व को राष्ट्र विरोधी करार देते हैं। आरएसएस हमेशा हिन्दू बनाम मुस्लिम को राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर भगवा रंग के झंडे में अपने राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाता है। राष्ट्रीय झंडा तिरंगे की जगह आरएसएस भगवा रंग के झंडे को फहराकर राष्ट्रवाद की सुखद अनुभूति करती/कराती हुई दिखती है। डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी में वही धर्म सच्चे राष्ट्रवाद का दावा कर सकता है जिसमें समानता,स्वतंत्रता और बन्धुता की व्यवस्था क़ायम हो!
      "देश के संविधान में डॉ.आंबेडकर मतदान का अधिकार वाली एक ऐसी ताकत देकर गए है, जो किसी ब्रह्मास्त्र से कहीं अधिक ताकत रखती है।" लेकिन,आज हमारा बहुजन समाज मिली इस राजनीतिक ताकत का प्रयोग कैसे कर रहा है,जिसको डॉ.आंबेडकर ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा।जिस ओबीसी के उत्थान के लिए डॉ.आंबेडकर ने बहुत कुछ किया,वह आज संविधान पर हो रहे हमलों पर दलित समाज की तरह न तो चिंतित और न ही सड़कों पर हो रहे आंदोलनों में दलितों के साथ दिखता है। काश!ओबीसी आंबेडकर के सामाजिक संघर्ष व वैचारिकी को आज भी समझ जाए!
        जीवन के अंतिम क्षणों में डॉ.आंबेडकर ने अपनी कष्टमय संघर्ष यात्रा की वेदना व्यक्त करते हुए समाज से आवाहन किया था कि: " मैं बेहद कठिन मुश्किलों और संघर्षों से इस कारवां को इस स्थिति तक ला पाया हूं। यदि हमारे लोग या सेनापति इस कारवां को और आगे नही ले जा सकते हैं तो उसे पीछे भी मत जाने देना।
पता-मोतीनगर कालोनी
लखीमपुर खीरी

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