साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Monday, May 30, 2022

क्या संविधान के भविष्य को लेकर डॉ.आंबेडकर के मन में उपजी तत्कालीन आशंकाएं आज पुष्ट होती दिख रही है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
      भारत के सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और भौगोलिक क्षेत्रों के विविध पहलुओं और व्यापक संदर्भों के दृष्टिगत संविधान की रचना करते समय डॉ.आंबेडकर की कुछ स्वाभाविक आशंकाएं और चिंताएं थी जैसे कि " यदि संविधान गलत लोगों के हाथों में पड़ गया तो इसका दुरुपयोग हो सकता है,जिसका मतलब यह है कि यदि सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों जिसे वह स्टेट कैपिटलिज्म कहते थे, को खत्म कर दिया गया तो संविधान का जो लड़ाकू/संघर्षशील गणतंत्र है, वह स्वतः पंगु या कमजोर हो जाएगा।" वर्तमान राजनीतिक सत्ता के "लोकतांत्रिक सह तानाशाही "के दौर में एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग के चिंतनशील वर्ग को डॉ.आंबेडकर की इन आशंकाओं की गंभीरता और निहितार्थ को समझने और ग्रामीण-शहरी बहुजन समाज को समझाने के सतत प्रयास जारी रखने की जरूरत है।
      भारत के हर जिम्मेदार/संवेदनशील नागरिक को संविधान की प्रस्तावना को अच्छी तरह पढ़ना और समझना बहुत जरूरी है। इसकी प्रस्तावना पं. नेहरू और डॉ.आंबेडकर का एक संयुक्त उपक्रम था। इस प्रस्तावना में भारत का मिशन स्टेटमेंट है कि इस संविधान का लक्ष्य क्या है, जैसा कि हर संविधान का होता है। उस वक्त दुनिया दो भागों में बंट चुकी थी। एक कम्युनिस्ट- सोशलिस्ट और दूसरा पूंजीपति वर्ग। प्रस्तावना में समाजवाद जैसे शब्द का उल्लेख नहीं था जिसे 1977 में जोड़ा गया। इसमें लोकतान्त्रिक शब्द का इस्तेमाल हुआ है कि संविधान का लक्ष्य भारत को एक " संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य " बनाना है।
      ब्रिटिश सिविल सर्वेंट मेटकॉफ का जन्म कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता ईस्ट इंडिया कंपनी में बड़े अधिकारी थे। मेटकॉफ भारत में बहुत दिनों तक रहे, बहुत घूमे, लिखे और भारत के एक्टिंग गर्वनर जरनल भी बने। उनका एक प्रसिद्ध कथन है कि "भारत के गांव अपने आप में एक स्वतंत्र गणतांत्रिक इकाई हैं।" डॉ.आंबेडकर मेटकॉफ को उध्दृत करते हुए अपने उद्घाटन भाषण में भारतीय संविधान के लक्ष्य/उद्देश्य को और ज्यादा व्याख्यायित करना चाहते थे कि किस तरह से यह जो संवैधानिक गणतंत्र है वह गांव के गणतंत्र को तोड़ेगा। गांव का गणतंत्र मतलब भारतीय सामंतवाद जिसे अंग्रेज "इंडियन सर्फडम " (भारतीय दासता) कहते थे।
     आंबेडकर और नेहरू दोनों की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई थी। इसलिए उन्हें पता था कि दुनिया में सामंतवाद को पूंजीवाद ने ही तोड़ा है। डॉ.आंबेडकर ने मेटकॉफ का जिक्र इसलिए भी किया, क्योंकि गांधी जी कहते थे कि भारत की आत्मा गांव में बसती है। इसलिए वह सारा तंत्र जैसे का तैसे बना रहे। डॉ.आंबेडकर को मालूम था कि गांव का सामाजिक ढांचा घोर अलोकतांत्रिक है, जिसे तोड़ना बहुत जरूरी है और इस व्यवस्था को पूंजीवाद ही तोड़ सकता है,लेकिन उस समय पूंजीवाद काफी घृणा का शब्द बन चुका था। तत्कालीन पत्रकार,लेखक,छात्र और आंदोलनकारी लगभग सारे लोग कम्युनिस्ट हो गए थे।यहां तक कि नेहरू भी कई बार कम्युनिज्म की तारीफ कर उसके पक्षधर दिखाई पड़ते थे। तो उस समय के शब्द पूंजीवाद को दोनों महापुरुषों ने "डेमोक्रेटिक" कहकर ऐसा आवरण पहना दिया कि लोग उन पर आरोप न लगाएं कि वे उस पूंजीवादी व्यवस्था लाने के पक्षधर हैं जिसे कम्युनिस्टों ने शोषण की व्यवस्था बता रखा था। इसीलिए मेटकॉफ के ज़िक्र के बगैर डॉ.आंबेडकर और उनके संविधान को समझना लगभग असंभव सा लगता है।
      लोकतंत्र/डेमोक्रेसी शब्द सन 1950 के दौर में पूंजीवादी दुनिया के लिए इस्तेमाल होता था। इसका मतलब यह है कि "जहां डेमोक्रेसी है,वहां पर पूंजीवाद है।" जहां पर समाजवाद है, वहां पर वर्किंग क्लास की तानाशाही है। इसी दर्शन के साथ डॉ.आंबेडकर और पं.नेहरू ने भारतीय गणतंत्र को एक "डेमोक्रेटिक रिपब्लिक" बनाने का लक्ष्य रखा था। जब इसका मसौदा पूरा हो गया जिसे डॉ.आंबेडकर ने खुद ही बनाया था,फिर 5 अप्रैल,1948 को इस पर अनुच्छेद दर अनुच्छेद गहन बहस शुरू हुई। बहस इसलिए हुई कि संविधान सभा अगर इसे आम सहमति से अनुमोदित करती है तो यह संविधान भारत के लिए लागू हो जाएगा। इस बहस के शुरू होने से पहले डॉ.आंबेडकर ने उद्घाटन भाषण दिया था, तब लोगों को उम्मीद थी कि डॉ.आंबेडकर यूरोपियन या अमेरिकन दर्शनशास्त्रियों को उध्दृत करेंगे जबकि उन्होंने अपने इस उद्घाटन भाषण में चार्ल्स मेटकॉफ को ही उद्धरित किया था।
      भारत देश अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस की तरह बने,एक आधुनिक, वैज्ञानिक, लोकतांत्रिक और पूंजीवादी देश बने। मगर ड्राफ्ट पेश करने के पांच-छः दिन बाद संघ परिवार का इंग्लिश में प्रकाशित मुखपत्र "ऑर्गेनाइजर" ने संविधान को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इसमें कहीं भारतीयता दिखाई नहीं पड़ती है। यही से संघ की भारतीयता एक नई बहस का मुद्दा बन जाता है। अब सवाल यह है कि उस समय आरएसएस की दृष्टि में "भारतीयता" शब्द का क्या मतलब रहा होगा ?
आरएसएस की दृष्टि में "भारतीयता" :
      "भारत में एक हिंदू धर्म है,उसके भीतर ऊंच-नीच की विविधता भरी सामाजिक जाति व्यवस्था है और उसमें कुछ अस्पृश्य भी माने जाते हैं।उसमें एक ऐसी संस्कृति है, जहां दलित मूंछ नहीं रख सकता,सवर्णों के सामने चारपाई पर नही बैठ सकता।केरल राज्य में दलित महिलाओं को स्तन ढकने पर ब्रेस्ट टैक्स देना पड़ता था, विवाह समारोहों में दलित दूल्हा पगड़ी बांधकर और घोड़े पर बैठकर बारात नही निकाल सकता था,नए कपड़े नहीं पहन सकता था,दलित महिलाएं सोने के गहने नहीं पहन सकती थीं, जिसके बहुत सबूत डॉ.आंबेडकर ने प्रस्तुत किए जिसकी बानगी 21वीं सदी में भी दिखाई देती है। ब्राम्हणवादी व्यवस्था का प्रबल समर्थक संघ समय-समय पर कहता रहा है कि डॉ.आंबेडकर द्वारा रचित संविधान उनको स्वीकार्य नहीं है और आजादी के बाद से उन्होंने इस संविधान को कभी मन से माना भी नहीं।इसलिए डॉ.आंबेडकर को उस समय यह लगना स्वाभाविक था कि "कहीं यही लोग,जो आज हमारा बनाया संविधान खारिज़ कर रहे हैं,अगर भविष्य में कभी सत्ता में आ गए तो संवैधानिक व्यवस्था का क्या होगा ?"आज के राजनीतिक सत्ता के दौर में उनकी वही आशंका लगभग सच होती दिखाई पड़ रही है।
        अब पूंजीवाद को थोड़ा और व्यापक संदर्भ में समझना होगा। अक्टूबर 1951 में डॉ.आंबेडकर ने प्रथम लोकसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा पत्र लिखा। उसका शीर्षक था: शेड्यूल कास्ट इमैंसिपेशन मैनिफेस्टो (अनुसूचित जाति मुक्ति घोषणा पत्र)। यह डॉ.आंबेडकर की एकमात्र ऐसी रचना है, जिसमें उन्होंने शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब्स के टाइटिल से उनकी मुक्ति का दर्शन दिया है। आपको अजीब सा लगेगा कि उस दर्शन में उन्होंने कहा है कि "जहां-जहां सरकारी कंपनियां जरूरी होंगी, वहां सरकारी कंपनियां होंगी और जहां प्राइवेट जरूरी होंगी, वहां हम प्राइवेट संस्थाओं को भी अवसर देंगे।"
        पं.नेहरू अच्छी तरह समझ रहे थे कि डॉ.आंबेडकर देश में क्या कहना और करना चाह रहे हैं। उन्हें भी यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई थी कि भारतीय राज्य को भी व्यवसाय में उतरना पड़ेगा, राज्य अपने पैसों के बलबूते ही नया भारत बन पाएगा। पूँजीपतियों के धन से भारत का गणतंत्र पुरानी व्यवस्था से लड़ नहीं पाएगा। डॉ.आंबेडकर को यह भी मालूम था कि पूंजीवाद ने दुनिया भर में महज सामंतवाद को ही नहीं खत्म किया है, बल्कि सामंती संस्कृति को भी खत्म किया है। भारत में जाति व्यवस्था संस्कृति का गम्भीर रूप ले चुकी है, तो शायद "पूंजीवाद भारत की जाति व्यवस्था को भी खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा!"
         इसमें बाकी चीजें तो अच्छी हुईं, लेकिन नेहरू जी, इंदिरा गांधी जी और बाद में राजीव गांधी के समय में प्राइवेट पूंजीवाद को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया। बाद में नरसिंह राव, मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने प्राइवेट कैपिटलिज्म को दिल खोलकर मौका दिया। आर्थिक सुधार आने के बाद देश में एक प्रकार की आर्थिक क्रांति हुई, काफी अनियोजित शहर और उद्योग-धंधे बढ़ गए। इस व्यवस्था से गांव के लोगों को शहर आने का मौका मिला तो भारत में हलवाही प्रथा खत्म हो गई, उत्तर भारत से बैल खत्म हो गए और दलित, जमींदारों के दरवाजों से मुक्त हो गए।
        सन 1990 के पहले की याद करें तो जितने आधुनिक कॉरपोरेट ओएनजीसी, इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, एनटीपीसी, भेल,बेल,गेल, सेल जैसे सार्वजनिक उपक्रम बने, वे पूरी तरह से अमेरिकी पूंजीवादी पैटर्न पर बनी हैं। आईआईटी और एम्स भी उसी पैटर्न पर बने हैं। इसे स्टेट कैपिटलिज्म कहा जाता है, जिसे खत्म करके यानी सरकारी/सार्वजनिक कंपनियों/उपक्रमों को खत्म करके ओबीसी और एससी-एसटी को समुचित प्रतिनिधित्व देने वाली संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर ही नही,बल्कि उसे धीरे-धीरे खत्म किये जाने की साजिशपूर्ण योजना है और उस दिशा में आज आरएसएस नियंत्रित राजनीतिक सत्ता के दौर में प्रयास तेजी से जारी हैं। डॉ.आंबेडकर की चिंता थी कि यदि देश की संवैधानिक सत्ता गलत हाथों में पड़ गयी, तो इसका दुरुपयोग हो सकता है!आज लोकतांत्रिक तानाशाही के दौर में वही हो रहा है कि स्टेट कैपिटलिज्म को खत्म कर दो तो भारतीय संविधान का जो लड़ाकू गणतंत्र है, वह स्वतः पंगु या कमजोर हो जाएगा और पश्चिमी सभ्यता की तरफ तेजी से बढ़ रहे भारत की गति कमजोर हो जाएगी और एक बार फिर वही ऊंच-नीच और छुआछूत पर आधारित सड़ी-गली सामाजिक जाति व्यवस्था की शायद वापसी हो जाए!🙏
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