साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, January 04, 2022

ओबीसी-एससी-एसटी वर्ग को समिति की सिफारिश के निहितार्थ को बेहद सावधानी और गहनतापूर्वक अध्ययन करना और सरकार की मंशा समझना बहुत जरूरी है-नन्द लाल वर्मा (असोसिएट प्रोफेसर)

एक विमर्श जिस पर आप भी विचार कीजिये ........
"इस तरह, गरीब सवर्णों के लिए 8 लाख की पारिवारिक सालाना आय का निर्धारण टैक्स फ्री इनकम  की सीमा को दृष्टिगत किया गया है। हालांकि, इसमें परिवार के सदस्यों और कृषि आय को जोड़ते ही सारा माजरा बदल जाता है।" मकान की शर्त खत्म, 5 एकड़ जमीन की शर्त बरकरार:"
एन.एल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)
ईडब्ल्यूएस और ओबीसी आरक्षण की आय सीमा : गरीब अगड़ों (ईडब्ल्यूएस) और सामाजिक - शैक्षणिक रूप से पिछड़ा- ओबीसी, दोनों के लिए 8 लाख की सीमा, लेकिन उसकी गणना का तरीका बिल्कुल अलग। आइए,इसे विस्तार से समझते हैं:
      केंद्र की बीजेपी सरकार ने 2019 में लोकसभा चुनावों से ठीक पहले सवर्ण गरीबों (ईडब्ल्यूएस) के लिए भी 10% आरक्षण की व्यवस्था की थी। 8 लाख रुपये तक की सालाना आमदनी वाले सवर्ण परिवार को गरीब और आरक्षण योग्य माना गया है। ओबीसी में भी क्रीमी लेयर तय करने के लिए 8 लाख रुपये तक की आमदनी का दायरा है। अब केंद्र सरकार द्वारा गठित एक समिति ने बताया है कि दोनों के लिए 8 लाख रुपये की गणना में निम्नलिखित अंतर है:
      केंद्र सरकार ने 2019 में आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को भी आरक्षण देने का फैसला किया तो गरबी का आधार 8 लाख रुपये की सालाना आय को तय किया गया। इस नियम के तहत जिस सवर्ण "परिवार" की सालाना आमदनी 8 लाख रुपये तक है, उसके अभ्यर्थियों को ही शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिलती है। उधर, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में क्रीमी लेयर का निर्धारण भी 8 लाख रुपये की सालाना आय के आधार पर ही होता है। यानी, अगर ओबीसी कैंडिडेट के "माता-पिता" की विगत तीन वर्षों औसत वार्षिक आय 8 लाख रुपये से अधिक है तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
बाहर से दोनों में समानता, लेकिन वास्तविकता बिल्कुल अलग:
      इस तरह, ईडब्ल्यूएस और ओबीसी, दोनों में क्रीमी लेयर तय करने का ''समान आर्थिक मापदंड'' रखे जाने पर आपत्तियां जताई जाने लगीं। सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से पूछ दिया कि इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? इसका हल ढूंढने के लिए केंद्र सरकार ने एक समिति का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कर दिया कि 8 लाख रुपये का मानदंड बाहर से तो दोनों वर्गों-ओबीसी और ईडब्ल्यूएस के लिए बराबर दिखता है, लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है। उसने बताया  है कि दोनों के लिए भले ही मानदंड 8 लाख रुपये हो, लेकिन इसकी गणना में जमीन-आसमान का अंतर है।
आइए,पहले जानते हैं कि वह अंतर क्या-क्या हैं...
(1) ईडब्ल्यूएस के लिए 8 लाख रुपये के कट ऑफ के मानदंड ओबीसी क्रीमी लेयर की तुलना में बहुत अधिक कठोर हैं।
(2) ईडब्ल्यूएस की आय की सीमा तय करते वक्त परिवार के दायरे में उसकी "तीन पुश्तें" आती हैं जबकि ओबीसी के मामले में सिर्फ "माता-पिता" की आय को ही देखा जाता है।
(3) ओबीसी की आमदनी का आकलन करते वक्त वेतन, खेती या कृषि और पारंपरिक कारीगरी के व्यवसायों से होने वाली आय नहीं जोड़ी जाती है जबकि ईडब्ल्यूएस के लिए     कृषि या खेती सहित "सभी स्रोतों" से होने वाली आयों को शामिल किया जाता है।
(4) ओबीसी अभ्यर्थी के सिर्फ माता-पिता की विगत तीन वर्षों की औसत वार्षिक आय 8 लाख रुपये से ज्यादा की हो रही हो तब वह क्रीमी लेयर कहलाता है जबकि ईडब्ल्यूएस के तीन पुश्तों की पिछले वर्ष की कुल आय मिलाकर 8 लाख रुपये से ज्यादा हो जाए तो उसे आरक्षण नहीं मिलेगा।
आइए, अब इन सभी बिंदुओं को विस्तार से समझते हैं...
पहला बिंदु : केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के निर्धारण के लिए 8 लाख रुपये आय का मापदंड ओबीसी क्रीमी लेयर की तुलना में कहीं अधिक सख्त है।
दूसरा बिंदु : गरीब सवर्णों के लिए पारिवारिक आय के तहत खुद उम्मीदवार, उसके माता-पिता, 18 वर्ष से कम उम्र के उसके भाई-बहन, उसका जीवनसाथी और 18 वर्ष से कम उम्र के उसके बच्चों की आय, सभी शामिल हैं। मतलब, आर्थिक पिछड़ों (ईडब्ल्यूएस) की पारिवारिक आय में तीन पुश्तों की समस्त स्रोतों की आमदनी शामिल है। इसमें खेती-किसानी से होने वाली आयकर मुक्त आमदनी भी जोड़ी जाती है। इनकम टैक्स स्लैब्स के नजरिए से आर्थिक पिछड़े वर्ग की आय की गणना करते वक्त इनका ध्यान रखना ही होगा। वहीं, ओबीसी के पारिवारिक आय की गणना में सिर्फ कैंडिडेट के माता-पिता की आमदनी शामिल होती है। उसमें भी माता-पिता की सैलरी, खेती और परंपरागत व्यवसाय से हुई आमदनी को नहीं जोड़ा जाता है। खुद कैंडिडेट, उसके भाई-बहन, जीवन साथी और बच्चों की आमदनी को तो जोड़ने की चर्चा तक नहीं है।
तीसरा बिंदु : सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि सबसे पहले ईडब्ल्यूएस की शर्त आवेदन के वर्ष से पहले के वित्तीय वर्ष से संबंधित है जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में क्रीमी लेयर के लिए आय मानकों की शर्तें विगत तीन वर्षों के लिए औसत सकल वार्षिक आय (Average Gross Annual Income) पर लागू होती है।
सुप्रीम कोर्ट का सवाल क्या है..........
     दरअसल, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने 7 अक्टूबर, 2021 को कहा था कि "आर्थिक पिछड़ापन एक सच्चाई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि लोगों के पास किताबें खरीदने और यहां तक कि खाने के पैसे भी नहीं हैं। लेकिन, जहां तक बात आर्थिक पिछड़ों का है तो वह अगड़ा वर्ग हैं और उनमें सामाजिक या शैक्षणिक पिछड़ापन नहीं है। तो क्या आप क्रीमी लेयर तय करने के लिए 8 लाख रुपये की सालाना आय का पैमाना आर्थिक पिछड़ों के लिए भी रख सकते हैं? याद रखिए कि जहां तक बात आर्थिक पिछड़ों की है तो हम सामाजिक या शैक्षणिक पिछड़ों की बात नहीं कर रहे हैं। सीमा तय करने का आधार क्या है या आपने आर्थिक पिछड़ों (ईडब्ल्यूएस) के लिए भी बस क्रीमी लेयर का पैमाना उठाकर रख दिया।"
केंद्र सरकार ने मानी समिति की सिफारिश:
     सुप्रीम कोर्ट की उपर्युक्त टिप्पणी पर सरकार ने 30 नवंबर, 2021 को पूर्व वित्त सचिव अजय भूषण पाण्डेय, भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR) के प्रोफेसर वीके मल्होत्रा और केंद्र सरकार के प्रधान आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल की एक समिति बना दी थी। इस समिति को गरीब सवर्णों की आय सीमा निर्धारित करने के लिए 2019 में बनाए गए नियमों की समीक्षा और "मेरे हिसाब से उसमें ढिलाई वरतने का दायित्व सौंपा गया था।" इस समिति ने 31 दिसंबर ,2021 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी  है जिसे स्वीकार भी कर लिया गया है।
इस समिति ने समझाया कि आय की गणना में कितना अंतर है:
     समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सुनने में भले ही ओबीसी और आर्थिक पिछड़े, दोनों के लिए 8 लाख रुपये की सीमा में समानता जान पड़ती हो, लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है। ओबीसी का क्रीमी लेयर सिर्फ उम्मीदवार की आय के आधार पर तय होता है जबकि आर्थिक पिछड़ों की आय सीमा में उम्मीदवार के साथ-साथ उसकी पारिवारिक और कृषि आय भी भी शामिल हैं। समिति ने कहा कि सिर्फ उन्हीं परिवारों के उम्मीदवारों को आर्थिक पिछड़ा श्रेणी के आरक्षण का लाभ दिया जा सकता है जिनकी सालाना आमदनी 8 लाख रुपये तक है। उसने कहा कि 17 जनवरी, 2019 को जारी ऑफिस मेमोरेंडम में दर्ज आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्ण परिवार की परिभाषा को ही आगे भी लागू रखा जाए।
     समिति ने इसे और भी स्पष्ट करते हुए कहा कि " मौजूदा आयकर नियमों के तहत पांच लाख रुपये तक की करयोग्य आय पर कोई टैक्स नहीं लगता है। फिर कटौतियों,बचत, बीमा आदि सभी का लाभ उठा लिया जाए तो 7-8 लाख रुपये तक की सालाना आय टैक्स फ्री हो जाती है। इस तरह, गरीब सवर्णों के लिए 8 लाख की पारिवारिक सालाना आय का निर्धारण टैक्स फ्री इनकम  की सीमा को दृष्टिगत किया गया है। हालांकि, इसमें परिवार के सदस्यों और कृषि आय को जोड़ते ही सारा माजरा बदल जाता है।"
मकान की शर्त खत्म, 5 एकड़ जमीन की शर्त बरकरार:
      वर्ष 2019 में बने नियमों के तहत मकान को आय सीमा से बाहर रखने की सिफारिश की गई है। समिति ने कहा है कि आय सीमा की गणना को सरल बनाए रखने के लिए आवासीय संपत्ति क्षेत्र यानी मकान के पैमाने को बाहर ही रखा जाए, क्योंकि इससे किसी की असल आर्थिक स्थिति का जायजा नहीं मिलता है। ऊपर से गरीब सवर्ण परिवारों पर इसका गंभीर दुष्परिणाम और बेवजह बोझ देखने को मिलेगा। हालांकि, परिवार के पास 5 एकड़ कृषि योग्य भूमि होने पर आर्थिक पिछड़ा नहीं माने जाने का पैमाना बरकरार रखे जाने की सिफारिश की गई है।
      रिपोर्ट में कहा गया है कि " विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों- ग्रामीण, शहरी, मेट्रो या राज्यों के लिए अलग-अलग आय सीमाएं होने से जटिलताएं पैदा होंगी, विशेष रूप से यह देखते हुए कि लोग नौकरियों, पढ़ाई, बिजनस आदि के लिए देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में तेजी से बढ़ रहे हैं। अलग-अलग क्षेत्रों के लिए आय की भिन्न-भिन्न सीमाएं सरकारी अधिकारियों और आवेदकों दोनों के लिए एक दु:स्वप्न के समान होगा।" मकान वाली पूर्व में लगाई गई शर्त को खत्म करने के पीछे सरकार और सवर्ण अधिकारियों की मानसिकता के निहितार्थ को ओबीसी- एससी-एसटी वर्ग के शिक्षित-चिंतकों-राजनीतिज्ञों को समझना- चिंतन-विश्लेषण करना बहुत जरूरी है )

      सुप्रीम कोर्ट ने भी आर्थिक पिछड़े उम्मीदवारों (ईडब्ल्यूएस) की आय सीमा में आवासीय संपत्तियों को जोड़ने पर घोर आपत्ति जाहिर की है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि शहरी और ग्रामीण इलाकों के आधार पर आवासीय संपत्ति की कीमत में भारी अंतर हो जाता है। ऐसे में यदि इस संपत्ति को भी आय के दायरे में ला दिया गया तो गरीब सवर्णों को आरक्षण का लाभ उठाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ेंगे।

पता-लखीमपुर-खीरी (यूपी )

Monday, January 03, 2022

भारत की प्रथम प्रशिक्षित महिला शिक्षिका क्रन्तिज्योती ज्योतिबा फुले......!

राष्ट्रीय शिक्षिका दिवस : 3 जनवरी                                                                                                                 

सावित्री बाई फुले
(3.1.1831-10.3.1897)
[शिक्षा हमारा अधिकार है। हमारे समाज में कई समुदाय इससे लंबे समय तक वंचित रहे हैं। उन्हें इस अधिकार को पाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा है। लड़कियों को तो और ज्यादा अवरोध झेलना पड़ता रहा है। प्रस्तुत पाठ इस संघर्ष का नेतृत्व करने वाली सावित्रीबाई फुले के योगदान पर केंद्रित है।]

ऊपर बना चित्र देखो। यह चित्र किसी पाठशाला का लगता है। यह सामान्य पाठशाला नहीं है। यह महाराष्ट्र की प्रथम कन्या पाठशाला है। एक शिक्षिका घर से पुस्तक लिए आ रही है। रास्ते में उसके ऊपर कोई धूल फेंक रहा है तो कोई पत्थर। पर वह अपने दृढ़ निश्चय से विचलित नहीं हो रही है। अपने विद्यालय में हंसी मजाक करती हुई वह अध्यापन में संलग्न हो जाती है। वह अपना अध्ययन भी साथ-साथ करती जाती है। कौन है यह महिला? क्या आप इस महिला को जानते हो? यह महाराष्ट्र की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले है। 

सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के नायगांव में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनकी माताजी का नाम लक्ष्मी बाई और पिताजी का नाम खंडोजी था। 9 वर्ष की आयु में इनका विवाह ज्योतिबा फुले के साथ हो गया जो कि 13 वर्ष के थे। वे स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक थे इसलिए सावित्री बाई के मन में स्थित पढ़ने की अभिलाषा पूरी होने लगी। आग्रह पर इन्होंने अंग्रेजी का भी अध्ययन किया।

1848 में सावित्रीबाई ने ज्योतिबा फुले के सहयोग से प्रदेश का प्रथम कन्या विद्यालय खोला। तब वे केवल 17 वर्ष की थी। 1851 में अस्पृश्य एवं तिरस्कृत समुदाय की बालिकाओं के लिए अन्य 
विद्यालय शुरू किया।

सामाजिक कुरीतियों का सावित्रीबाई ने मुखर विरोध किया। विधवाओं के सिर मुंडन प्रथा के निराकरण के लिए वह स्वयं नाइयों से मिली। फलस्वरुप कुछ नाइयों के सहयोग से यह प्रथा खत्म होने लगी। एक बार, रास्ते में जीर्ण वस्त्र धारण तथाकथित निम्न जाति की स्त्री को एक कुएं से जल निकालते देखकर सावित्रीबाई ने पीने के लिए जल मांगा। इस पर उच्चवर्णजातियों ने सावित्रीबाई का उपहास किया और कुएं से जल निकालने से मना कर दिया। सावित्रीबाई से यह अपमान सहन नहीं हुआ। वह उस स्त्री को अपने घर लाई। उसे अपना तालाब दिखाया और कहा, तुम यहाँ से पर्याप्त जल ले सकती हो। अपने घर का तालाब सभी के लिए सार्वजनिक कर दिया और कहा कि यहाँ से जल ग्रहण करने में कोई जाति बंधन नहीं होगा। सावित्रीबाई ने मानव समानता और स्वतंत्रता का हमेशा समर्थन किया।

"महिला सेवा मंडल", "शिशु हत्या प्रतिबंधक गृह" आदि संस्थाओं की स्थापना में फुले दंपति का महत्वपूर्ण योगदान है। सत्यशोधक मंडल की गतिविधि में भी सावित्रीबाई ने बहुत ही सक्रिय सहयोग प्रदान किया। इस मंडल/संगठन का उद्देश्य था, पीड़ित समुदाय को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना।

सावित्री बाई ने अनेक संस्थाओं के प्रशासन का कुशलता से संचालन किया। वे अकाल, महामारी जैसे प्लेग आदि के समय पीड़ितजनों की बिना विश्राम किए निरंतर सेवा किया करती थी। वे हमेशा ऐसे कार्यों में सहायता एवं संबंधित सामग्री की व्यवस्था का प्रयास किया करती थी। ऐसी ही महामारी के समय सेवा करते-करते उन्हें असाध्य रोग हो गया और 1897 में उनका निधन हो गया।

साहित्य रचना में भी सावित्रीबाई बढ़-चढ़कर है। उनके काव्य संकलन है काव्यफूले, सुबोध रत्नाकर आदि। भारत में महिला उत्थान आंदोलन को गहराई से समझने के लिए सावित्री बाई के जीवन का अवलोकन अपरिहार्य है।

संदर्भ-

1.पुस्तक-रुचिरा तृतीयो भाग: (कक्षा-8 के विद्यार्थियों के लिए संस्कृत भाषा की पाठ्य पुस्तक) प्रकाशक-एनसीईआरटी संस्करण-दिसंबर 2016
2.पुस्तक-भारत के महान व्यक्तित्व भाग-2
कक्षा-7 के विद्यार्थियों के लिए 
संस्करण-2009-10
प्रकाशक-विद्यालयी शिक्षा उत्तराखंड (उत्तराखंड के विद्यालयों के लिए नि:शुल्क वितरण हेतु) प्रथम महिला शिक्षिका ज्योतिबा फुले जी

माँ सावित्री बाई फुले- कवि श्याम किशोर बेचैन

  सावित्री बाई पर विशेष                                                                                             कविता                            
जन्म 03 जनवरी 1831                                                                              मृत्यु 10 मार्च 1897

मां  सावित्री  बाई  फूले  को 
नमन   हजारों   बार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार करें ||

अट्ठारह  सौ  इकत्तीस  की 
तीस  जनवरी  खास  बनी |
जन्मी  सावित्री  बाई  और 
दुनियां  का  इतिहास बनी ||

आओ हम भी सादर उनको 
भेट   पुष्प   उपहार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार करें ||

पिता श्री खांडोजी नेवसे 
पाटिल  एक  किसान  थे |
मांता  पूज्य  लक्ष्मी  बाई 
पति  जोतिबा  महान  थे ||

सहयोगी  फातिमा  शेख का 
याद   सदा   उपकार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार  करें ||

जब भारत में महिलाओं को 
पढ़ने  का  अधिकार ना था |
किसी  क्षेत्र  में  नर  से आगे 
बढ़ने  का अधिकार ना था ||

तब  शिक्षा अपनाई जिन्होंने
उनका प्रकट आभार करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर उनका सतकार करें ||

शिक्षा से वंचित लोगों को
शिक्षा का अधिकार दिया |
घर से  बेघर होकर के भी 
विद्यालय  उपहार  दिया ||

उनके  विद्यालय  का  सपना 
आओ  हम   साकार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार करें ||

संत  जोतिबा  राव  फुले ने 
सावित्री  को   ज्ञान  दिया |
और  सावित्री  बाई फूले ने 
नारी  को   सम्मान  दिया ||

नारी  के  सम्मान   का  फिर 
आओ  हम   विस्तार   करें |
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार  करें ||

नेकी के  खातिर  अपनो ने 
घर से जिन्हें निकाल दिया |
सामन्ती  लोगों  ने  जिनके 
ऊपर  कीचड़  डाल दिया ||

प्रथम शिक्षिका का यह सच
आओ  हम  स्वीकार  करें |
कवि श्याम किशोर बेचैन 
बक्सा मार्किट, लखीमपुर-खीरी
मोबाइल न 9125888207
समझें उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार करें ||

जिन्होंने अपना सारा जीवन 
मानवता   के   नाम   किया |
जिन्होंने चैन दिया बेचैन को 
और  राष्ट्रहित  काम  किया ||

ऐसी   विद्या   की   देवी  पर 
आओ  और   विचार   करें |
समझे उनका त्याग और तप 
फिर  उनका  सतकार  करें ||

 

Sunday, January 02, 2022

घुटन-अनुभूति गुप्ता

  कविता  
अनुभूति गुप्ता
लेखक/सम्पादिका
कोई मर रहा होगा
तो उसे बूंद भर जिंदगी दोगे क्या,
सांसें मोहताज है यकीं की, मुझे उम्मीद दोगे क्या..

सोच मेरी इतनी सी नहीं
जो तुमको कत्ल कर दें
क्या सच बोलकर मुझे महफूज़ कर दोगे क्या...

मैंने इक निवाला चुराया था
एक बच्चे के दांतों के बीच.. क्या मुझे माफ़ी दोगे क्या,
सच कहती हूं, इस दौर में
मां को दूर बैठे देखती हूं, क्या क़रीब कर दोगे क्या...!

मैं शरीर नहीं मांगती हूं
मैं वक्त मांगती हूं तुम्हारा
निगाह में, समंदर नहीं
रेत चाहती हूं क्या मुझे इन नेत्रों में बिछने दोगे क्या..!
पता-लखीमपुर खीरी उ०प्र०

Friday, December 31, 2021

तेरा क्या होगा कालीचरण-सुरेश सौरभ

(हास्य-व्यंग्य)
सुरेश सौरभ
   मुझे कायदे से याद है कि बचपन में, मेरे गाँव में, जब भी किसी के यहाँ शादी-ब्याह, मुन्डन या यहाँ दवात-ए-वलीमा होता था, तब इसकी खुशी में लप्पो हरामी की नौटंकी जरूर बंधाई जाती थी।हम सब लौड़ो-लपाड़ो को बड़ा मजा आता था। जब पांच-पांच रूपये देकर हमारे बाप-दादा मनचाहा गाना नचनियों से सुनते थे और नचनिये भी सब के कलमबंद ईनाम पर शुक्रिया ठुमका लगा-लगा कर अदा कर दिया करते थे।

    मेरे युवा अवस्था आते-आते नौटंकी का चलन धीरे-धीरे कम होता चला गया और धीरे-धीरे टीवी हर घर में महामारी की तरह फैलती चली गई और टीवी के बाद फिर यह स्मार्ट फोन की माया का साया घर-घर में ‘फेंकू फोटोजीवी’ की तरह फैलता चला गया। कहते हैं, बचपन का प्यार, बचपन में टीचर से खायी मार, और बचपन के शौक जवानी से लेकर बुढापे तक चर्राते रहते हंै। जब भी मौका मिल जाये तो उसे पूरा करने के लिए मन कुलबुलाने ही लगता है।

    स्मार्ट फोन की दुनिया में टहलते हुए मुझे आभासी दुनिया में लप्पो हरामी के बेटे रम्मन हरामी की नौटंकी जब नजर आ गई तो मेरी बांछंे खिल र्गइं।मुँह से लार टपकने लगी। तभी मेरा हाथ मारे जोश के अपनी जेब पर चला गया। दस रूपैया नचनिये पे लुटाना चाह रहा था। उसका फ्लाइंग किस दिल को घायल कर गया था। अपने दिये जाने वाले कलमबंद ईनाम से शुक्रिया भी चाह रहा था। तभी मेरे दिमाग की बत्ती जली, अरे! ये तो डिजिटल नौटंकी है। यहाँ तो बस लाइक कमेन्ट और सब्सक्राइब से ही ईनाम लुटाया जा सकता है और इस पातेे ही डिजिटल प्लेटफार्म के सारे नचैया फ्लाइंग किस फेंक कर नाजो अदा से शुक्रिया अदा करतंे हैं अथवा करतीं हैं। खैर अब तो डिजिटल प्लेटफार्म पर नौटंकी देखना रोज मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था, पर एक दिन मैंने कालीचरण नाम के एक नौटंकी बाज की नौटंकी देखी तो मुझे मजा आने के बजाय बहुत गुस्सा आ गया। दिल में तूफान उठ गया। मन कर रहा था कि जेब से दस रूपैया नहीं बल्कि पाँव से जूता निकालूँ। पर वह  आभासी दुनिया थी, सामने अगर वह होता तो मेरे साथ मेरे जैसे तमाम लोग उसे तमाम जूता दान कर देते। युगपुरूष गाँधी को गाली देने वाला यह कथित नौटंकीबाज उस फेंकू पार्टी से पोषित परजीवी है, जो अपने पैरों में उसी पार्टी के घुघरूँ बांध कर संसद जाने के ऐसे सपने देख रहा है,जैसे बिल्ली सपने में छिछड़े देखती है। अब मुझे किसी भी नौटंकीबाज की नौटंकी अच्छी नहीं लगती जब से एक नौटंकीबाज ने गांधी को अपना घिनौना मुँह फाड़ कर गाली दी है।

मो-निर्मल नगर
लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

Wednesday, December 29, 2021

झूठ मचाता शोर-जयराम जय

नवगीत

बेहूदे ने समय देखकर
खीसे दिया निपोर
दो कौड़ी का ढोंगी कहता
राष्ट्रभक्त को चोर 

स्वतंत्रता के युद्ध से जिनका
रहा न कोई नाता
राष्ट्रद्रोहियों को संसद में
राष्ट्रभक्त बतलाता 

जान बूझकर शब्द-शब्द में
ज़हर रहा है घोर 

धर्म का फ़र्जी चोला ओढ़े
चंदन तिलक लगाए
झूंठ-मूठ के मंत्र फूककर
बुद्धी है पलटाए 

सत्य हमेशा शांत रहा है
झूठ मचाता शोर 

पाठ पढ़ाया गया है जितना
उतना पढ़ता पट्टू
भौक रहा है सभी जानते 
है वो बड़ा निखट्टू 

हालत पतली देख के,पट्ठा
लगा रहा है जोर 

आखिर कितना और करेगा 
करले तू मनमानी
वख्त एक सा नहीं रहा है
बतलाते सब ज्ञानी 

रात अभी है काली लेकिन 
कल फिर होगी भोर.
'पर्णिका'बी-11/1,कृष्ण विहार,आवास विकास,
कल्याणपुर,कानपुर-208017(उ.प्र.)
मो.नं .9415429104 & 9369848238

Monday, December 27, 2021

स्त्री की पीड़ा-अनुभूति गुप्ता

  कविता  
अनुभूति गुप्ता
संपादक/लेखिका
मुझे पता है
कैसी होती हैं मानसिक यातनाएं
क्या होता है ढोना
क्या होता है एकाकी रोना....!

मुझे पता है
कैसी होती हैं सामाजिक धारणाएं
जिसमे कहा जाता है
स्त्री को बोझ, बांझ 
और कहा गया परायाधन, विवाह के उपरांत..!

मुझे पता है
कैसी होती हैं परियों की कथाएं
क्या होता है बेटी का होना
कैसे भ्रूण से लेकर का सफ़र
परिवार में, जन्मी बेटी के, अस्तित्व का असर...!

मुझे पता है
कैसी होती हैं चेहरे पर की मात्राएं
कहने की आज़ादी का द्वंद
लगाएं गए हुए प्रतिबंध
विवशता से भरा मन, प्रतिपल आश्रित तन...!


पता-लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Saturday, December 25, 2021

सुनो सेंटा- डॉ नूतन सिंह

  कविता  



तुम इंडिया में,
डॉ नूतन सिंह
पता- लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश
मिस्टर इंडिया बने क्यों घूमते हो,
दिखते क्यों नहीं?

रात में-
गुदगुदे बिछौनो में सोते बच्चों को ही 
चाकलेट देते हो?
आज कुछ तूफ़ानी करो-
कुछ नया करो,
इस क़ुहरे भरी सुबह
केतली  में गरम चाय क्यों नहीं बाँटते? 
हो सके तो-
बिस्कुट या रस भी साथ ले लो
और बुला लो हमें भी,
तुम्हें बताती हूँ.

पंचर बनाने वाला सुबह-सुबह
पुराने टायर जला के-
ना जाने हाथ सेंक रहा था या फेफड़ा
क्यों न ऐसा करो 
उसकी दुकान के आगे  
थोड़ी सूखी लकड़ियाँ गिरा दो

और वो
पेट्रोल पम्प के बग़ल वाले छप्पर के
बाहर रखे सिल-बट्टे पर 
थोड़ी धनिया नमक हरी मिर्च ही रख आओ
चटनी-रोटी के साथ 
बुझ जाएगी पेट की आग

या
एक दिन अपनी (घोड़ा) गाड़ी
दे दो उन बच्चों को
जो दिन भर 
पत्थर मार के तोड़ते रहते हैं इमली या बेर

और हाँ 
सामने वाले पार्क का अकेला चौकीदार
जो अपने से  कुछ बुदबुदाता रहता है 
उसे ?
उसे मोज़े और चाकलेट 
हरगिज़ नहीं
स्वेटर कम्बल भी नहीं
सिर्फ़ बतियाने को कुछ लोग
दे सकते हो?

Thursday, December 23, 2021

संस्कारी बहू-अखिलेश कुमार अरुण

 लघुकथा 

हिंदी मिलाप के दैनिक अंक में हैदराबाद से प्रकाशित (१४ अक्टूबर २०२१ ), इदौर समाचार पत्र में २६-१२-२०२१

    र में तीन-चार दिन से चारों तरफ खुशियां ही खुशियां थी। चहल-पहल था, सारे नाते रिश्तेदार आए हुए थे आज शादी का दूसरा दिन है। बहू को आए हुए 2 दिन हो गए हैं। उसकी खूबसूरती और नैनक्स देखते ही बनता है। साक्षात सुंदरता की देवी लगती है। महल्ले की महिलाओं के बीच बैठी उसकी सास तारीफों के पुल बांधते जा रही थी, "हमारी बहू, खूबसूरत ही नहीं गुणवती भी है, बहिन हमने जैसा चाहा था भगवान ने उससे बढ़कर दिया है।"

    एक महिना बाद बहु जब दूसरी बार ससुराल आई तो दो-तीन दिन तक सब ठीक रहा किन्तु अब सास को उसका व्यवहार कुछ बदला-बदला सा लगा। अब बहू देर से सोकर उठती है, घर के काम-काज भी मन से नहीं करती, बात-बात पर तुनक जाती है। सास आज सुबह इसी बात लेकर बैठ गई, बहु आंखें मलते हुए अपने कमरे से बाहर आई। तभी सास ने तुनक कर बोला,"बहू, यह कोई समय है उठने का....चाय-पानी का बेला हुआ सुरुज देवता पेड़ों कि झुरमुट से ऊपर निकल आये हैं.....।"

    बहू उल्टे पैर बिना कुछ बोले अपने कमरे में गई और लौटते हुए एक चिट लेकर आई सास के हाथों में रखकर बोली, "देख लीजिए, इसमें वह सब कुछ है जो आपने दहेज़ में मांगा था...... कामकाजी और संस्कारी बहू का इसमें जिक्र तक नहीं है!"


पता-ग्राम हजरतपुर पोस्ट-मगदापुर
जिला लखीमपुर-खीरी २६२८०४
8127698147

 

 

Wednesday, December 22, 2021

सिंदबाद की स्वरुचि भोज यात्रा-रामविलास जांगिड़

सामाजिक मुद्दा

सिंदबाद जहाजी ने प्रेस रिलीज में कहा कि मुझे सात यात्राओं में काफी समस्याएं और परेशानी हुई। लेकिन फिर भी मेरा इरादा नहीं टूटा और मैं आठवीं यात्रा करने के लिए स्वरुचि भोज पर निकल पड़ा। घटनास्थल पर पहुंच कर कार का लंगर डाला और पांडाल के अंदर घुस गए। धीरे-धीरे उस इलाके में पहुंच गया जो फास्ट फूड के नाम से जाना जाता है। वहां महिलाओं की इतनी भीड़ थी की फास्ट फूड फास्ट तरीके से गायब होता जा रहा था। भीड़ को देखकर मेरी हिम्मत गायब हो रही थी लेकिन मैंने इधर-उधर से साहस बटोरा और भीड़ का हिस्सा हो लिया। दो घंटे जीभ लप-लपाहट के बाद मुझ पर कई तरह की चटनियां व आलू, मिर्च, जलजीरा से युक्त द्रव्य पदार्थ की रुक-रुक कर बारिश-बर्फबारी होने लगी। जब मेरे कपड़े इन द्रव्य पदार्थों से पूरी तरह भीग गए तो मैंने मान लिया कि मैंने फास्ट फूड का भक्षण कर लिया है। महिलाओं की चीख-पुकार एवं खनकती चूड़ियों के बीच मैंने यूं ही हवा में फास्ट फूड का आनंद लिया। जिधर भी नजरें घुमाता उधर ही खाने के कीमती खजानों का भंडार भरा हुआ था।

महिला-पुरुष, किशोर-किशोरियां सभी अपने प्लेट-चम्मच के हथियारों से उस खजाने की खुदाई करने में व्यस्त थे। चीख-पुकार मचा रहे थे। भोजन खदान में खुद के दबने-कुचलने के गीत गा रहे थे। ऐसे स्वरुचि भोज में आज सिंदबाद जहाजी को भूमध्य सागर में शार्क मछलियों के बीच में जहाज चलाने की घटना याद आ गई। मैंने बड़ी कठिनाई हिम्मत और कुशलता के साथ प्लेट चम्मच हासिल की और स्वरुचि भोज के उस विशाल महासागर में अपनी जहाजी भूख का को आगे बढ़ाने का निश्चय किया। इसी समय डीजे की आवाज इतनी जोरदार थी कि स्वरुचि भोज का जहाज एक शराबी की तरह झूम रहा था। भोज के सारे काउंटर झूले की तरह झूल रहे थे। यह सब शादी समारोह में बजाए जाने वाले डीजे देव की कृपा से हुआ। सभी जहाजी अपने कानों में रूई के मोटे-मोटे फाहे डाले हुए थे। कानों को मजबूत पट्टी से बांधा हुआ था। मैंने भी अपने झोले में से रुई के बड़े-बड़े फाहे निकाले और दोनों कानों में डाट कर मजबूत पट्टी से बांध लिया। 

पास ही एक धुआं छोड़ने की मशीन भी पड़ी थी। वह हर 2 मिनट के अंतराल में अजीब सा धुआं छोड़ती थी। यह धुआं आंखों के रास्ते पेट में धमाल मचाते हुए खोपड़ी में अपनी किल-किलाहट मचा रहा था। भारी भीड़ में एक का पांव दूसरे के ऊपर, तीसरे की खोपड़ी चौथे के ऊपर और पांचवे की प्लेट छठे के हाथ में दिखाई दे रही थी। खोपड़ियां आपस में टकरा रही थी। इनसे बचने के लिए मैंने झोले में से हेलमेट निकाल कर सिर पर धारण कर लिया। शादी में पटाखे, फुलझड़ियां, अनार, रॉकेट आदि बराबर रूप से छूट रहे थे। उनकी गगनभेदी आवाजें व इनसे निकला धुआं फेफड़ों को 50 बार स्वर्गवासी कर चुका था। आंखों के कोर्निया को भी भेदने वाली तीव्र प्रकाश की व्यवस्था इन पटाखों में पर्याप्त मात्रा में थी। मैंने एक किसी भोज काउंटर के सामने अपना डेरा डाल दिया। इसके निकट ही किसी अन्य काउंटर पर रोटियां हासिल करने की मारामारी थी। रोटियां मिलना लगभग असंभव था। प्लेट में किसी तरह हासिल की गई बेचारी दाल बस अकेली रहकर विरह के गीत गा रही थी। इस खतरनाक यात्रा के बाद आज का दिन है कि मैं कभी भी ऐसी स्वरुचि भोजन यात्रा पर नहीं निकला।

- रामविलास जांगिड़,18, उत्तम नगर, घूघरा, 
अजमेर  (305023) राजस्थान  मो 94136 01939) 

‘कन्यादान’ रस्म का औचित्य और तपस्या के सवाल...!-अजय बोकिल

सामाजिक-विमर्स
अजय बोकिल
सनातन हिंदू विवाह पद्धति में कन्यादान की रस्म के औचित्य पर मप्र की युवा आईएएस अधिकारी तपस्या परिहार द्वारा सवाल उठाने और अपने ही विवाह में इसे नकारने के बाद  इस समूचे संस्कार के औचित्य पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है। परंपरावादियों का मानना है कि कन्यादान के बगैर विवाह संस्कार अपूर्ण है, जबकि सुधारवादियों का तर्क है कि कन्या कोई वस्तु नहीं है, जो उसे ‘दान’ कैसे किया जा सकता है? लिहाजा यह रस्म ही अनुचित है। विवाह दो आत्मा और दो शरीरों के समाजमान्य मिलन का उत्सव है। अगर इसमें कन्या अपने पति के घर जाती है तो भी यह केवल ‘दायित्व का हस्तांतरण’ है न कि किसी के द्वारा किसी को किया गया कोई दान या मेहरबानी है। वैसे भी वेदों में पाणिग्रहण का तो उल्लेख है, लेकिन कन्यादान का नहीं। यह रस्म हिंदू विवाह संस्कार में काफी बाद में जोड़ी गई। 
कन्यादान को नकारने वाली तपस्या का कहना है ‍िक मैं अपने पिता की बेटी हूं। हमेशा बेटी ही रहूंगी। मैं दोनो परिवारों का हिस्सा रहूंगी। बेटी को ‘दान’ समझना स्त्री की गरिमा को कम करना है। मेरे परिवार को भी यह ‍अधिकार नहीं है कि वो मुझे ‘दान’ कर सके। तपस्या का इस तरह एक स्थापित परंपरा पर सवाल उठाना भी अपने आप में एक क्रांित ही है। खास बात यह है ‍कि तपस्या के तर्क को उसके पति और दोनो परिवारवालों ने भी सही माना और कन्यादान के ‍बिना ही यह विवाह संस्कार राजी खुशी से सम्पन्न हुआ। 

इस पर आगे चर्चा से पहले यह समझना जरूरी है कि कन्यादान’ की रस्म वैदिक विवाह पद्धति में कैसे जुड़ी और क्यों इसने ‘महादान’ का स्वरूप ले लिया। हिंदू सोलह संस्कारों में विवाह तेरहवां संस्कार है। विवाह शब्द संस्कृत के दो शब्दों वि+वाह से ‍िमलकर बना है। जिसका अर्थ है विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। हिंदू विवाह संस्कार और अन्य धर्मों के विवाह संस्कारों में अंतर इतना है ‍िक यहां विवाह सात जन्मों का सम्बन्ध होता है ( कानूनन तलाक अलग बात है)। यह सम्बन्ध अग्नि की साक्षी से तय होता है।  जबकि अन्य धर्मों में वह या तो अनुबंध होता है या ‍िफर केवल परस्पर स्वीकार होता है। 

चूंकि हिंदू और सनातन धर्म किसी एक पुस्तक का ईश्वरीय आदेश से संचालित नहीं है, इसलिए हिंदू विवाह कर्मकांड के बारे में थोड़ी सी जानकारी ऋग्वेद और ज्यादा जानकारी आश्वलायन गृह्य सू‍त्र, आश्वलायन श्रौतसूत्र, ऐतरेय ब्राह्मण, मंत्र ब्राह्मण तथा हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र में ‍िमलती है। ये सूत्र वेदो के बहुत बाद में रचे गए हैं। हिंदू धर्म में संस्कारों की संख्या भी अलग-अलग है, लेकिन बहुमान्य सोलह संस्कार ही हैं। इनमें से विवाह संस्कार तेरहवां है। मूल वैदिक विवाह पद्धति में भी स्थानीय और आंचलिक स्तर पर रस्मो रिवाज में कुछ बदलाव होते रहे हैं। लेकिन ज्यादातर हिंदू विवाहों में विवाह संकल्प के बाद कन्यादान की परंपरा है। उसके बाद पाणिग्रहण होता है। कन्यादान के समय जो श्लोक बोले जाते हैं, उनका उल्लेख आश्वलायन गृह्य सूत्र में है और ये अद्भुत और ऐहिक हैं। उदाहरण के लिए कन्यादान की रस्म शुरू होते समय वधु का पिता वर से कहता है- आप मेरी कन्या का स्वीकार करें। जवाब में वर कहता है- हां मैं इसका (आपकी बेटी) पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूं। आगे का श्लोक अद्भुत है। वर कहता है कि आप मुझे यह कन्या दान दे रहे हैं, यह कन्या का यह दान किसने और किसे दिया ? ( वही उत्तर भी देता है) यह दान काम ने काम को दिया है। अर्थात काम ही दानदाता है और काम ही दानग्रहणकर्ता है। इसके बाद वधु कहती है- आप पत्नी के रूप में मेरा स्वीकार करें। वर कहता है- हां, मैं सानंद तुम्हें पत्नी के रूप में स्वीकार करता हूं। 

हिंदू धर्म में यूं तो आठ प्रकार के विवाह मान्य किए गए हैं, लेकिन सर्वाधिक मान्य और प्रचलित ‘ब्रह्म विवाह’ पद्धति है, जिसमें हम आम तौर पर विवाह या शादी के नाम से जानते हैं। प्राचीन ग्रंथों पर नजर डालें तो वैदिक काल में विवाह की मुख्य रस्म पाणिग्रहण ही थी, यानी वर और वधु द्वारा एक दूसरे का हाथ थामना। जीवनभर साथ देने के वचन के साथ गृहस्थ जीवन की शुरूआत करना। हिंदू दर्शन के हिसाब से यह जीवन के चार पुरूषार्थों में से तीसरे क्रम का यानी ‘काम’ का पुरूषार्थ है। जब स्त्री और पुरूष का यह रिश्ता सर्वस्वीकार्य है तब इसमें ‘दान’ की बात कहां से आ गई?

इसके पीछे सोच यह है कि स्त्री एक ‘सम्पत्ति’ ही है, जिसका विवाह होने तक रक्षण करना पिता का, विवाह के बाद पति का और वृद्धावस्था में बेटे का कर्तव्य है। इस सोच में यह पूर्वाग्रह निहित है कि स्त्री अबला है और उसकी रक्षा करना पुरूष का कर्तव्य है। इसलिए विवाह वास्तव में दो आत्माअों के ‍िमलन के साथ स्त्री रक्षण के दायित्व का हस्तांतरण भी है। ‍विद्वानों के एक वर्ग का मानना है कि मूल रस्म पाणिग्रहण ही थी। कालातंर में उसे ही कन्यादान कहा जाने लगा। महाभारत में एक जगह लीला पुरूषोत्तम कन्यादान की व्याख्या इस रूप में करते हैं कि कन्यादान यानी ‘कन्या का आदान’ यानी दायित्व का हस्तांतरण है न ‍िक पूर्ण रूप से दान। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि हिंदू‍ विवाह पद्धति में केवल कन्यादान से ‍विवाह की रस्म पूरी नहीं होती। इसके लिए सप्तपदी ( सात कदम) यानी सात फेरे भी आवश्यक हैं, जो अग्नि को साक्षी रखकर लिए जाते हैं। हर फेरे के साथ वर अपनी भावी पत्नी को एक वचन देता है। यह वचन क्रमश: भरण-पोषण, आहार व संयम, धन प्रबंधन, आत्मिक सुख, पशुधन संवर्द्धन, हर ऋतु में उचित रहन-सहन से सम्बन्धित होता है। अंतिम वचन में वधु, वर को जीवनभर अपनाने और उसके साथ चलने का वचन देती है। लगभग इसी आशय के वचन या प्रतिज्ञाएं भारतीय मूल के सभी धर्मों में की जाती हैं। लेकिन रस्मों की सर्वाधिक संख्या और कर्मकांड सनातन हिंदू विवाह पद्धति में ही हैं।

यहां सवाल उठता है कि यदि कन्यादान मूल वैदिक संस्कार में नहीं था तो बाद में इसे क्यों जोड़ा गया? यही नहीं इसे ‘महादान’कहकर महिमा मंडित क्यों किया गया? शास्त्रों में कहा गया है कि कन्यादान सबसे बड़ा दान है। इससे माता-पिता के ‍िलए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं। कन्यादान हर पिता के लिए सौभाग्य की बात है। कालांतर में शायद इसी दान ने ‘पुण्य’ का रूप का धर लिया और पिता के पुण्य की कामना ही कन्यादान का कारण बन गई। यहां एक बात और है कि हिंदू‍ विवाह में  कन्यादान के बाद कन्या का गोत्र भी बदल जाता है। वह पति के गोत्र का हिस्सा बन जाती है। इसी मान्यता के कारण भी कन्यादान को अनिवार्य और महादान की संज्ञा दी गई होगी। तीसरा कारण बाहरी आंक्राताअों से बेटियों को बचाने के लिए उनके कम उम्र में विवाह किए जाने लगे तो इसका औचित्य ठहराने के लिए कन्यादान की रस्म जोड़ी गई हो और इसे महादान के रूप में महिमा मंडित किया गया हो। 

हिंदू धर्म से निकले इतर धर्मों में भी कन्यादान की रस्म नहीं के बराबर है। जैन धर्म में विवाह की रस्में सनातन हिंदू धर्म से कुछ मिलती जुलती हैं। लेकिन वहां भी कन्यादान को ‘प्रदान’ कहा जाता है। सात फेरे वहां भी होते हैं। सिख धर्म में विवाह को  ‘आनंद कारज’ कहा जाता है और इसकी रस्म बेहद सरल है। वर वधु गुरू ग्रंथ साहब के चार फेरे, जिसे लावां कहा जाता है, लेते हैं। हर फेरे में गुरूबानी पाठ, सत्यनिष्ठा, वाहे गुरू की सर्वत्र विद्यमानता, वाहे गुरू का जाप और गुरूअों के संदेश को पाना ही आनंद कारज है। गुरू ग्रंथ साहब की साक्षी में वर वधु एक ताउम्र एक दूसरे को अपनाने का वचन देते हैं। हिंदू धर्म से निकले बौद्ध धर्म में तो विवाह केवल सामाजिक समारोह है। वहां भगवान बुद्ध की प्रतिमा तथा बौद्ध धर्मगुरूअों की मौजूदगी में वर वधु पंचशील ग्रहण करते हैं। वर और वधु सदाचार तथा एक दूसरे का साथ निभाने का वचन देते हैं। अंबेडकरवादी बौद्‍धों में डाॅ भीमराव अंबेडकर की तस्वीर विवाह समारोह में अनिवार्य रूप से रखी जाती है। 

यहां बुनियादी प्रश्न वही है कि क्या कन्यादान के बगैर हिंदू विवाह संस्कार पूरा नहीं हो सकता? तपस्या ने सभी की सहमति से यह कर ‍िदखाया है। दरअसल इसके पीछे कर्मकांड से ज्यादा भावुकता का सवाल है। अक्सर विवाह में कन्यादान करते समय कुछ देर के लिए ही सही पिता की आंखें नम हो जाती हैं। वह इसे जिगर के टुकड़े को अपने से अलग होने के रूप में महसूस करता है। ऐसे में यह कन्यादान नहीं, बेटी का भावनात्मक रूप से विलगीकरण का यत्न है, जो संवेदना के स्तर पर शायद कभी भी नहीं होता या हो सकता। माता पिता के लिए बेटी सदा बेटी ही रहती है। तपस्या ने इसी कोमल बिंदु को पकड़ा है, विचारशील मनो को झकझोरा है। यह बहस यकीनन आगे जाएगी। आज बेटियां ज्यादा आत्मनिर्भर हैं, सक्षम हैं, जागरूक हैं। क्या हिंदू समाज को ऐसे ‘दान’ की महानता पर पुनर्विचार नहीं करना चाहिए? 
राइट क्लिक  वरिष्ठ संपादक 
( ‘सुबह सवेरे’ में दि. 21 दिसंबर 2021 को प्रकाशित)

अपनी संतान को बेनाम रखूँगा-कपिलेश प्रसाद

   कविता  

कपिलेश प्रसाद
न राम रखूँगा ,
न श्याम रखूँगा
न मुरारी ,
न त्रिपुरारी
न ब्रह्म , न इन्द्रासन
न राधा , न सीता
न गौरी , न गणेश
न महादेवा
न अंजनिपुत्र हनुमान रखूँगा ,
तुम्हारे इन सम्बोधनों से पृथक
तुम्हारे मिथकों से दूर 
भला हो
अपनी संतान को मैं तो
बेनाम रखूँगा ।
 
संस्कृति की कुछ धरोहरें
हैं शेष हमारे पास भी ...
प्रकृत्ति की नेमत हैं हम
नाम से विकृत नहीं कर पाओगे
हम स्वयं में बृहद ,
नहीं कपोल-कल्पित
कर्मेक्षा नामधारी हैं ।
 
मंगरू - मँगला , बुधना -बुधनी
सोमारू और  शनिचरा
मराछो और एतवारी ,
लालो और गुलबिया
क्या-क्या नहीं हँकाया हमको ... !
 
हरि था तुमको अति पावन ,
और वह हो गया हरिया ?
 
साँवले को रचा श्यामल
और काला हो गया कलुआ ?
राम न तुमको भाया उसका
कह दिया उसको रमुआ ?
 
राम नाम एक सत्य तुम्हारा ... ?
शेष अधम सब नीच पुकारा !
दुत्कार लिया , सो दुत्कार लिया,

खबरदार जो पुन: दुत्कारा !                                                                                                 पता-बोकारो झारखंड

Monday, December 20, 2021

जाता हुआ दिसंबर और हम......अखिलेश कुमार अरुण

अखिलेश कुमार अरुण
गैर-कानूनी क़दम उठाएं जो सम्भव नहीं है अगर गलती से क़दम उठा भी लिया तो पुलिस से लेकर घर वाले पीट-पीटकर बोकला छोड़ा देंगे वकील साहब भी कुछ नहीं कर पाएंगे मानवाधिकार के हाथ से भी निकल गया अब करो गणना मगर उल्टी गिनती दो साल बारह महीना..दो साल ग्यारह महीना...दो साल दस.....।

(हिंदी-मिलाप के दैनिक अंक  हैदराबाद से २८.१२.२०२१ को प्रकाशित)
दिसंबर जाने वाला है और यह हर साल जाता है इसमें कोई नई बात नहीं है, पहली इस्वी मने ईसा मसीह के जन्म से लेकर आज तक यह क्रम लगातार जारी है और रहेगा जब तक कि यह दुनिया रहेगी और लिखने-पढ़ने वाले लोग रहेंगे क्योंकि इसकी गणना मनुष्य ही करता है और मनुष्य पढ़ा लिखा है, जानवर नहीं करता वह पढ़ा-लिखा नहीं है न। मनुष्यों के पास साल भर का लेखा-जोखा होता है गिनने के लिए जन्म, मृत्यु, शादी, सालगिरह आदि-आदि इस साल का निपटा नहीं कि अगले साल की तैयारी में लग जाइए
 


पति अपना जन्मदिन भूल जाए चलेगा पर अपनी पत्नी का भूल जाये  तो उसकी खैर नहीं, "इतना भी याद नहीं रहता कि आज कुछ खास है, काहें याद रखियेगा खर्च जो नहीं हो जाएगा, पिछले साल भी ऐसे ही भूल गए थे कौन रोज-रोज आता है साल में एक ही बार तो आता है दो-चार सौ खर्च हो जाए तो कौन हम बेगाने हैं हम पर ही तो खर्च होना है किसके लिए कमा रहे हैं...।"  अब इस पत्नी नामक परजीवी को कौन समझाए कि बैंक की ईएमआई, दूधवाला, पेपर वाला, बच्चों की स्कूल-टयूशन फीस ले-देकर महीने की अन्तिम तारिख को बचता है तो बस जान देना ही रह जाता है। घर में कुछ नया करना हो तो हाथ फैलाए बिना नहीं होता, सरकारी नौकरी से कहां पूर पड़ता है जी अपनी जिंदगी तो बंधुआ मजदूर सी होकर रह गयी है।

उत्तर प्रदेश की सरगर्मी तेज हो चली है ज्यों-ज्यों चुनाव नजदीक आता जा रहा है दिसम्बर की ठिठूरती जाड़े में प्रत्याशियों को यकायक पसीना छूट जा रहा है। वर्तमान सत्तापक्ष के छूटभैये नेता से लेकर सांसद-विधायक तक वोट की गणित में दिन-रात एक किए जा रहे हैं। साल का भी अन्तिम महिना चल रहा है और पंचवर्षीय राजशाही का भी अंत ही समझिए सरकार की वापसी हो भी सकती है और नहीं भी क्योंकि साफ-साफ कहना मुश्किल है। वह इसलिए कि मतदाताओं का मन किसी के गड़ना में नहीं आ रहा है। किसान आन्दोलन करते रहे पर किसान सम्मान निधि वाले भी तो हैं

बेरोजगार युवाओं के मन में आशा थी की समय से टीईटी हो जाएगा तो सुपर टेट में मौका मिल जाएगा आज साल का अंतिम महिना है और सत्ता में सरकार भी पांच साल पूरे कर रही है आशा यह है कि जनवरी तक कुछ अच्छा हो जाएगा। सबसे ज्यादा असमंजस में वे बेरोजगार साथी हैं जिनके लिए यही साल लास्ट है इसके बाद वे ओवरएज हो जाएंगे तो न नौकरी मिलनी है और न ही छोकरी फिर तो ताने के नाम पर खरी-खोटी सुनने को रह जाएगा मने पूरे जीवन की पढ़ाई-लिखाई पर पानी फिर जाना क्योंकि अपने देश में उसे ही सफल माना जाता है जिसकी महीने की पेशगी होती है उसके इतर आप लाख कमाओं रहोगे निकम्मे के निकम्मे इसलिए तो युवा कुछ कर गुजरने की उम्र में अपने को चहारदिवारियों में कैद कर आंखें फोड़ता रहता है। युवाओं का देश है भारत फिर भी निकम्मों में गिना जाता है।

वह किशोरियां जो अभी-अभी 18 को टक से छू-कर यूवा होने वाली थीं जिनका प्री-प्लान था, "बाबू, कुछ दिन की ही तो बात है बालिग होने में....फिर हमारा कोई कुछ नहीं कर पाएगा।" उनके लिए 3 साल का यह सौगात स्वर्ग के दरवाजे से धक्का दे देने जैसा है। अब या तो वह तीन साल के दिन को अपनी गिनती में शामिल करें या फिर गैर-कानूनी क़दम उठाएं जो सम्भव नहीं है अगर गलती से क़दम उठा भी लिया तो पुलिस से लेकर घर वाले पीट-पीटकर बोकला छोड़ा देंगे वकील साहब भी कुछ नहीं कर पाएंगे मानवाधिकार के हाथ से भी निकल गया अब करो गणना मगर उल्टी गिनती दो साल बारह महीना..दो साल ग्यारह महीना...दो साल दस.....। दूसरा पहलू उन लड़कियों/किशोरियों के लिए वरदान साबित होगा जो अपने पैरों पर खड़ा होकर समाज में अपनी अलग पहचान बनाना चाहती हैं और किसी भी इस स्तर पर अपने मान-सम्मान, अभिमान आदि से समझौता नहीं करना चाहती उन्हें तीन साल इस लिहाज से तो मिला की शादी लिए बालिग होने में अभी 3 साल और लगेंगे, यह तीन साल का समय कुछ कर गुजरने के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।

अखिलेश कुमार अरुण
ग्राम-हजरतपुर जिला-खीरी
उत्तर प्रदेश 262804

Sunday, December 19, 2021

अच्छे दिन-सुरेश सौरभ


लघुकथा

बेटी खामोश उदास बैठी थी। मां ने उसे देख पूछा-क्या हुआ बेटी बड़ी जल्दी लौट आई।
बेटी मां के गले से लगकर फूट पड़ी-सरवर डाउन था। इसलिए आज सीटैट स्थगित।
'उस दिन टेट का पेपर लीक हुआ था। आज सीटैट स्थगित, लगता है । यह सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती‌।'
अब तो बेटी और बिलखने लगी।
मां ने उसे संभलते हुए कहा-चिंता न कर, भगवान और अपनी मेहनत पर भरोसा कर, एक न एक दिन, अच्छे दिन जरूर आएंगे। 
बेटी भड़क गई-खाक में जाएं तुम्हारे अच्छे दिन, इस शब्द से मुझे सख़्त नफरत हो गई है।.. और लंबे-लंबे डग भरते हुए वह दूसरे कमरे में चली गई।
पीछे से उसे गुस्से में जाता देख, मां खीझ में बुदबुदाई-जब वोट दिया है तो झेलना ही पड़ेगा। और रोकर या हंसकर कहना पड़ेगा, 'अच्छे दिन आएंगे।'


पता-निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
मो-7376236066

तिकुनियां हत्याकांड: एक राजनीतिक विश्लेषण और संभावनाएं-नन्द लाल वर्मा (एशोसिएट प्रोफेसर)

राजनीतिक विश्लेषण

तिकुनिया कांड लखीमपुर खीरी

एन.एल.वर्मा (एशो.प्रोफेसर)
             सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज की निगरानी में लखीमपुर-खीरी के तिकुनियां हत्याकांड की जांच करने वाली एसआइटी के खुलासे और स्थानीय मीडिया के साथ सार्वजनिक रूप से बदसलूकी और अमर्यादित भाषा-शैली अपनाने के बावजूद केंद्र सरकार आरोपी के पिता गृह राज्य मंत्री को मंत्रिमंडल से हटाने में क्यों देरी कर या डर रही है? ऐसा तो नही है, कि देश मे दिल्ली के बॉर्डरों पर एक साल से अधिक चले किसान आंदोलन की तरह राजनीतिक विपक्षी पार्टियों, पत्रकारों और स्थानीय किसान संगठनों के दबाव में सरकार अपने मंत्री को बर्खास्त करने में राजनैतिक बेइज्जती या हार समझती हो और एक साल बाद अचानक मोदी जी नोटबन्दी और लॉक डाउन की तर्ज़ पर देश के किसानों के लिए गये अपने त्याग और तपस्या की कमी की दुहाई देते हुए सिख समाज के पावन पर्व पर तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा कर सिख समाज की धार्मिक भावनाओं से राजनैतिक फ़ायदा उठाने का उपक्रम करते दिखाई पड़ जाते हैं। कहीं, मोदी जी ऐसे ही अवसर की तलाश में तो नहीं हैं? और उपयुक्त अवसर मिलते ही मंत्री जी की बर्खास्तगी की घोषणा करते हुए अचानक एक दिन टीवी पर दिखाई पड़ जाएं!देश का सर्वश्रेष्ठ राजनैतिक मदारी किसी भी समय कोई भी चमत्कार कर सकता है। लेकिन एक बात समझ से परे है कि एक गृह राज्य मंत्री केंद्र सरकार के लिए किस मजबूरी का सबब बना हुआ है?

            एक साल से अधिक चले किसान आंदोलन से उपजे जनाक्रोश से बीजेपी को भारी राजनैतिक नुकसान होता दिख रहा था, लखीमपुर खीरी के तिकुनियां हत्याकांड में उनके गृह राज्य मंत्री के बेटे और उनकी संलिप्तता की खबरें गोदी मीडिया को छोड़कर सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनलों के माध्यम से पूरे देश में छायी रहीं और निष्पक्ष जांच के लिए मोदी सरकार से मांग की जाती रही कि निष्पक्ष जांच के लिए आरोपी के पिता गृह राज्य मंत्री को तत्काल पद से बर्खास्त किया जाए। लेकिन, सब तरफ से उठते भारी विरोध-आक्रोश,मांग और विधानसभा-लोकसभा में शोर-शराबे के बावजूद मोदी सरकार मंत्री को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त नही कर पा रहे हैं। तिकुनियां कांड से हो रहे सियासी नुकसान का अनुमान और आँकलन करने में शीर्ष नेतृत्व विफल हो सकता है किंतु,स्थानीय बीजेपी संगठन और उसके आनुषंगिक संगठन तो इस कांड की असलियत,भयावहता और राजनैतिक संवेदनशीलता की गंभीरता को तो अच्छी तरह से समझते होंगे ? मंत्री जी की बर्खास्तगी के मुद्दे पर स्थानीय मीडिया भी जनपेक्षाओं पर उतना खरा उतर नही पा रहा था जितना आम आदमी को मीडिया से उम्मीद होती है। संयोग या दुर्योग से मंत्री जी का स्थानीय मीडिया कर्मियों के साथ किए गए अमर्यादित आचरण ने वह कमी भी पूरी कर दी। मंत्री के इस दुर्व्यवहार से आक्रोशित स्थानीय मीडिया भी मंत्री जी की बर्खास्तगी की मुहिम में अब सक्रिय होता दिख रहा है। मंत्री द्वारा मीडिया कर्मियों के साथ किया गया दुर्व्यवहार आम आदमी के लिए सोने में सुहागा सिद्ध हो सकता है। अब देखना यह है कि स्थानीय मीडिया के साथ हुई बदसलूकी राष्ट्रीय स्तर पर कितना जोर पकड़ पाती है? तिकुनियां कांड में मंत्री के बेटे की गिरफ्तारी और एसआइटी की जांच आने के बाद मंत्री जी की बौखलाहट से उनकी अपनी राजनीतिक फजीहत होने के साथ साथ पार्टी की भी लगातार फ़ज़ीहत और छीछालेदर हो रही है। भारी राजनैतिक नुकसान की अनदेखी कर आख़िर, वे कौन से कारण और परिस्थितियां हैं जिनके अदृश्य भय से स्थानीय और शीर्ष राजनीतिक संगठन के जिम्मेदार मौन धारण किए हुए हैं? अपवाद स्वरूप, कुछेक को छोड़कर तिकुनियां हत्याकांड पर गृह राज्य मंत्री से बीजेपी के स्थानीय लोगों और संगठनों द्वारा बनाई गई दूरी एक राहत भरा राजनैतिक संदेश जरूर देता हुआ नजर आ रहा है। कहीं ,उन्हें यह डर तो नही सता रहा है कि तिकुनियां कांड की लपटों से वे भी राजनैतिक रूप से झुलस न जाएं? एक स्थानीय बीजेपी विधायक जी उस सभा मे मौजूद थे जिसमें अपने संबोधन के दौरान मंत्री जी ने विधायक, सांसद और मंत्री बनने से पूर्व अपनी..... पृष्ठभूमि का हवाला देते हुए किसानों को सुधर जाने की धमकी दी थी और विरोध स्वरूप किसानों द्वारा काले झंडे दिखाने पर कार में सफर करते हुए किसानों को ठेंगा दिखाकर चिढ़ाते हुए नज़र आये थे। तिकुनियां कांड की  तपिश के डर से वही विधायक जी सार्वजनिक रूप से अब पूरी तरह मंत्री जी से दूरी बनाये हुए दिख रहे हैं। लखीमपुर खीरी स्थित बजाज चीनी मिलों पर किसानों का बकाया गन्ना मूल्य के भुगतान कराने के लिए घड़ियाली आंसू बहाते हुए योगी जी से हाथ जोड़कर अनुरोध करने का सोशल मीडिया पर अपना वीडियो वायरल करते हुए मा. विधायक जी जनता की राजनैतिक संवेदनाओं को बटोरते हुए दिखाई दिए थे और उससे पूर्व देश मे एक साल से अधिक चले किसान आंदोलन की कठिनाइयों-दुश्वारियों को झेलने वाले किसानों और आंदोलन के दौरान शहीद हुए किसानों के परिवारों के प्रति संवेदनाएं प्रकट करने के लिए दो शब्द तक जुटाने में विधायक जी कहीं नही दिख रहे थे।

          तिकुनियां कांड में मंत्री जी  के बेटे की संलिप्तता की खबरें आते ही यदि मंत्री जी नैतिकता के आधार पर स्वयं इस्तीफा की पेशकश कर देते या शीर्ष नेतृत्व इस्तीफ़ा ले लेता तो उस स्थिति में एक जन संदेश तो यह जा ही सकता था कि अब कांड की जांच निष्पक्ष होने की संभावना है और मीडिया-विपक्षी दलों द्वारा इस्तीफे की मांग और जांच प्रभावित होने जैसे विषय अनाबश्यक तूल पकड़ने से बचा जा सकता था। इससे मंत्री जी की सामाजिक -राजनीतिक छबि धूमिल होने को कम किया जा सकता था और  राजनीति में आने से पूर्व उनकी सामाजिक और..... पृष्ठभूमि या इतिहास के अनाबश्यक खुलासे से भी बचा जा सकता था। समय रहते यदि ऐसा हो गया होता तो व्यक्तिगत और पार्टीगत राजनीतिक नुकसान को कम अबश्य किया जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान और हस्तक्षेप की वजह से अब यह केस प्रशासनिक और न्यायिक स्तर पर अत्यंत गम्भीर और संवेदनशील बन चुका है,दोनों स्तर के जिम्मेदारों द्वारा फूंक फूंक कर कदम रखने के साथ पूरी सावधानी बरती जा रही है। किसी भी स्तर पर हुई चूक या लापरवाही के गम्भीर परिणाम आने की पूरी संभावनाएं भी हैं। मीडिया स्तर पर तो पहले ही यह हाई प्रोफाइल केस बन चुका था।

         तिकुनियां हत्याकांड से एक शालीन और सुशिक्षित स्थानीय विधायक की विरासत में मिली राजनीतिक फसल तात्कालिक रूप से जरूर नष्ट होती नज़र आ रही है ,लेकिन उसके लिए सबसे राहत भरी स्थिति यह हो सकती है कि विरासत में मिली राजनीतिक जमीन भविष्य में पूर्ण रूप से बंजर और वंचित होने से बच सकती है। तिकुनियां कांड निघासन समेत पूरे लखीमपुर खीरी की बीजेपी की राजनीतिक सफलता के लिए मट्ठा भी साबित हो सकता है।

          स्थानीय राजनैतिक गलियारों,बुद्धिजीवियों और आम जनता में यह चर्चा जोरों से सुनी जा सकती है कि मंत्री जी को हटाने में मोदी जी जितनी देर करेंगे, राजनैतिक नुकसान उतना ही अधिक होने की संभावना हैं। स्थानीय स्तर पर ऐसा भी अनुमान लगाया जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में लखीमपुर-खीरी की आठ विधान सभा क्षेत्रों में बीजेपी की सबसे ज्यादा दुर्गति निघासन विधानसभा क्षेत्र में ही होने की स्थिति नज़र आ रही है। एक आंकड़ा यह भी बताया जा रहा है कि लखीमपुर,गोला-गोकर्णनाथ,मोहम्मदी, निघासन और पलिया विधान सभा क्षेत्रों में सिख समाज की संख्या राजनैतिक रूप से निर्णायक भूमिका अदा करने की स्थिति में है।किसान आंदोलन और तिकुनियां कांड से सिख समाज बीजेपी से खाफी ख़फ़ा है और आगामी विधानसभा चुनाव में सामूहिक रूप से एकजुट होने की भी प्रबल संभावना जताई जा रही है। बीजेपी के शीर्ष और स्थानीय नेतृत्व को ज़मीनी स्तर की हकीकत को नजरअंदाज करना आगामी विधानसभा चुनाव में भारी पड़ सकता है। राजनीतिक गलियारों में एक यह भी सुगबुगाहट है कि राज्य स्तर पर बीजेपी के सहयोगी दल भी अब बीजेपी से कन्नी काटने की बाट जोह रहे हैं।  बीजेपी के कई स्थानीय विधायकगण समाजवादी पार्टी के स्थानीय और शीर्ष नेतृत्व से पाला बदलने के लिए संपर्क साध चुके हैं और आज भी संपर्क साधने के लिये हरसंभव प्रयास कर रहे हैं, ऐसी भी राजनैतिक गलियारों में चर्चा जोर शोर से है।

पता-लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश 262701

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चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

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