साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, May 31, 2022

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग एक

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

✍️ दलित और ओबीसी की अधिकांश जातियां ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं और वे अधिकांश अपने परंपरागत पेशे से ही जीविका चलाती हैं। विज्ञान और तकनीक युक्त शिक्षा उन तक अभी पूरी तरह नहीं पहुंच पाई है और सामाजिक स्तर पर छोटी-बड़ी जातियों की मान्यता के साथ जाति व्यवस्था अच्छी तरह से अपने पैर जमाए हुए है। सामाजिक स्तर पर अनुसूचित और ओबीसी की जातियों के बीच आज के दौर में भी सामान्य रूप से आपसी खान-पान और उठने-बैठने का माहौल पैदा होता नहीं दिखता है। सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों की वजह से दलितों की सामाजिक और धार्मिक मान्यताओंं/परंपराओं/रीति-रिवाज़ों में कुछ सीमा तक बदलाव आना स्वाभाविक है और जो दिखाई भी देता है। इन आंदोलनों से पूर्व दलित और ओबीसी हिन्दू धर्म,त्यौहारों,परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों को एक ही तरह से मानते/मनाते थे। बौद्घ धर्म और आंबेडकरवादी विचारधारा के प्रवाह से अब अनुसूचित और ओबीसी की जातियों की धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाज़ों में काफी अंतर आया है। शिक्षा की कमी के कारण ओबीसी के उत्थान के लिए डॉ.आंबेडकर द्वारा बनाई गई संवैधानिक व्यवस्था को ओबीसी अभी भी नहीं समझ पा रहा है। जातीय श्रेष्ठता की झूठी शान और सामाजिक/धार्मिक रीति-रिवाज़ों में अंतर के कारण दोनों में सामाजिक और राजनीतिक सामंजस्य या मेलमिलाप की भी कमी दिखाई देती है। सदैव सत्ता में बने रहने वाले जाति आधारित व्यवस्था के पोषक तत्वों / मनुवादियों द्वारा आग में घी डालकर इस दूरी को बनाए रखने का कार्य बखूबी किया गया और आज भी जारी है। ओबीसी सामाजिक -जातीय दुराग्रहों से ग्रसित होने के कारण मनुवादियों की साज़िश और डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी का अपने हित में मूल्यांकन नहीं कर पाया और नहीं कर पा रहा है,क्योंकि वह डॉ.आंबेडकर के व्यक्तित्व व कृतित्व को जाति विशेष से होने के पूर्वाग्रह और कथित सामाजिक जातीय श्रेष्ठता के दम्भ के कारण उनकी लोक कल्याणकारी वैचारिकी और योगदान को पढ़ने से परहेज करता रहा और आज भी उसे पढ़ने में सामाजिक हीनभावना/संकोच महसूस होता है। यहां तक कि, डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी के सार्वजनिक कार्यक्रमों के मंचों को साझा करने में भी उसे संकोच और शर्म आती है। देश के सत्ता प्रतिष्ठान डॉ.आंबेडकर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक जाति/समाज विशेष के खांचे में बन्द कर,इस क़दर प्रचार-प्रसार करते रहे जिससे अनु.जातियों,अनु.जनजातियों, ओबीसी जातियों और अल्पसंख्यक में सामाजिक/राजनीतिक एकता कायम न हो सके। आज यदि ओबीसी का कोई व्यक्ति डॉ.आंबेडकर से घृणा करता है या कोसता है या अन्य  महापुरुषों की तुलना में कमतर समझता है,तो समझ जाइए कि उसने डॉ.आंबेडकर की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक मॉडल पर आधारित भेदभाव रहित मानववादी वैचारिकी/दर्शन को अभी तक पढ़ने/समझने का रंच मात्र भी प्रयास नहीं किया है। ओबीसी भूल जाता है कि देश की वर्णव्यवस्था में अनुसूचित और ओबीसी की समस्त जातियां "शूद्र" वर्ण में ही समाहित हैं। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण ओबीसी जातियां अपनी सीढ़ीनुमा सामाजिक श्रेष्ठता के अहंकार में केवल अनुसूचित जाति को ही शूद्र और नीच समझकर जगह-जगह पर अपनी अज्ञानता/मूर्खता का परिचय देती नजर आती है जिससे उनमें एकता के बजाय सामाजिक व राजनीतिक वैमनस्यता की अमिट खाई 21वीं सदी में भी बनी हुई है।
✍️ विज्ञान और तर्क की 21वीं सदी में भी ओबीसी का बहुसंख्यक समाज धर्म-ग्रंथ और सामाजिक-धार्मिक आडंबरों/आयोजनों में जैसे रामायण,रामचरित मानस,सत्यनारायण की कथा, भागवत,महाभारत,मंदिर में स्थापित पत्थरों/धातुओ की जेवरात/हीरे/मोतियों से सुसुज्जित मूर्तियों के रूप में करोड़ों देवी-देवताओंं के चक्रव्यूह में मनवांछित चमत्कार की उम्मीद में फंसा रहता है और चमत्कार की आशा में अपने कर्मभाव और आत्मविश्वास के प्रति लगातार उदासीन होता जाता है। जबकि 85% शोषितों व वंचितों के लिए डॉ.आंबेडकर की संवैधानिक व्यवस्थाएं,एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का विनाश) पुस्तक,साइमन कमीशन और गोल मेज कॉन्फ्रेंस के मुद्दे/विषय वस्तु और उद्देश्य,हिन्दू कोड बिल,काका कालेलकर और वीपी मंडल आयोग की सिफारिशें है, जिनका गहन अध्ययन और समझना बहुत जरूरी है। शिक्षा,धन,धरती और राजपाट दलितों व ओबीसी की लड़ाई के असल मुद्दे हैं जहां से उनकी भावी पीढ़ियों के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए रास्ते खुलते हैं। सत्ता के शीर्ष प्रतिष्ठान जैसे सरकार,कार्यपालिका,न्यायपालिका और मीडिया में शीर्ष पदों पर काबिज प्रभु लोगो ने दलितों-पिछड़ों  लिए अभी तक क्या किया है?
✍️ डॉ.आंबेडकर की बहुपटीय वैचारिकी को ईमानदारी से न तो देखा गया और न ही सार्वजनिक पटल पर लिखित/मौखिक रूप से प्रस्तुत किया गया। आज़ाद भारत की कई प्रकार की सत्ता संस्थाएं जैसे उच्च शिक्षण और अकादमिक संस्थाओ में ज्ञान की सत्ता,मीडिया और न्यायपालिका की सत्ता,संसद में राजपाट की सत्ता और समाज में धर्म या ब्राम्हणवाद की सत्ता काम करती हैं। क्या ये सारी सत्ताएं डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को समग्र और व्यापक संदर्भों में देखने व समझने में हमारी मददगार साबित होती है या फिर वे किन्हीं सामाजिक और जातीय पूर्वाग्रहों का शिकार हैं? डॉ.आंबेडकर की विचारधारा की परंपरा के अंतरराष्ट्रीय दलित चिंतक,दार्शनिक,साहित्यकार,आलोचक,गहन विश्लेषक,आईआईटी और आईआईएम जैसी प्रतिष्ठित अकैडमिक संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण और अध्यापन कर चुके प्रो.आनन्द तेलतुंबडे को 14 अप्रैल,2020 को डॉ.आंबेडकर की 129वीं जयंती पर भीमा कोरे गांव की घटना में एक आरोपी के पत्र/डायरी में "आनन्द" लिखा मिल जाने को कानूनी आधार बनाकर बिना किसी जांच-पड़ताल के उनको गिरफ्तार कर उस समय जेल जाने के लिए विवश किया जाता है जब कोविड- 19 के कारण जेलों में बन्द हजारों बंदियों/कैदियों को पैरोल पर रिहा किया जा रहा है। उनके साथ उनके साथी गौतम नौलखा को भी आत्मसमर्पण करना पड़ता है। कोविड -19 के कालखंड में सरकार, प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी एडवाइजरी का पूरी तरह पालन करते हुए अपने घरों में आंबेडकर जयंती मनाने पर सरकार द्वारा राजनैतिक विद्वेषवश उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई किया जाना अत्यंत दुखद और शर्मनाक घटना है,जबकि 22 मार्च और 05 अप्रैल,2020 को कोरोना एडवाइजरी की धज्जियां उड़ाते सड़क पर उतरे लोगों के खिलाफ स्थानीय प्रशासन द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने से सरकार का दोहरा और सामाजिक - जातीय चरित्र परिलक्षित होता है।
✍️दरअसल,आज के दौर में शिक्षित और प्रगतिवादी दलित चिंतक/दार्शनिक,साहित्यकार,पत्रकार और अकैडमिक लोग सरकार पर यह सवाल उठाने लगे हैं,कि आखिर वे कौन है,जिनकी वजह से आजादी के सत्तर सालों में डॉ.आंबेडकर के सपनो का भारत का निर्माण नहीं हो पाया है या नहीं हो पा रहा है?अर्थात डॉ.आंबेडकर की राष्ट्र निर्माण की विचारधारा के हत्यारे कौन हैं?अध्ययन करने से पता चलता है कि आज देश में झूठ की बुनियाद पर खड़ा यथास्थितिवादी आरएसएस जो कि दक्षिणपंथी विचारधारा का कट्टर समर्थक है,देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की महत्वपूर्ण/ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता डॉ.आंबेडकर को सार्वजनिक स्थानों पर दिखावा कर याद करते और पूजते नज़र आते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की अंदरूनी रूप से घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं। यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/ जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं। सामाजिक न्याय के स्थान पर सामाजिक समरसता की वैचारिकी का आपस में घालमेल किया जा रहा है। यह कार्य ओबीसी के लोग आरएसएस की प्रयोगशाला में प्रशक्षित होकर गांवों और शहरो में सुबह - शाम नियमित शाखाएं लगाकर बखूबी कर रहे हैं। संघ की विचारधारा का सबसे बड़ा और मज़बूत संवाहक आज ओबीसी ही बना है। संघ के लोग डॉ.आंबेडकर के आरएसएस से तरह-तरह के राजनैतिक संबंधों की अफवाहें फैलाकर दलितों को गुमराह कर उनकी बनी राजनीतिक विरासत को हड़पना चाहते हैं। गोलवलकर की पुस्तक "बंच ऑफ थाट्स " के हिंदी संस्करण "विचार नवनीत" में भारत देश के आंतरिक संकटों का जिक्र किया गया है जिसमें देश के मुसलमानों को पहला,ईसाईयों को दूसरा और कम्युनिस्टों को तीसरा आंतरिक संकट के रूप में रेखांकित और व्याख्यायित किया गया है।
✍️आज डॉ.आंबेडकर और गोलवलकर की वैचारिकी को समानांतर खड़ा कर गहन अधययन करने पर पता लग जाएगा कि दोनों की वैचारिकी में सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से कितना विरोधाभास व अंतर है। डॉ.आंबेडकर अपनी वैचारिकी में जातियों का उन्मूलन/विनाश चाहते हैं और संघ के गोलवलकर उन्मूलन के बजाय कोरी कल्पना आधारित सामाजिक समरसता के नाम पर जातियां जिंदा रखना चाहते हैं। गांव से लेकर शहर तक सत्ता के सभी शीर्ष प्रतिष्ठानों तक चलना होगा और देखना होगा कि सामाजिक न्याय की वैचारिकी के साथ गांधी जी जाति रूपी "जीव जंतु" को कितनी मजबूती के साथ जिंदा देखना चाहते थे। ऐसा उनके द्वारा समय-समय पर दिए गए संबोधनों/व्याख्यानों और उनके लेखों से पता चलता है।
क्रमशः पेज दो पर..........

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