साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, May 31, 2022

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग दो

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
1916 में ईसाई मिशनरियों के एक सम्मेलन में गांधी जी जाति की उपयोगिता और महत्व को कैसे स्थापित करने का प्रयास करते दिखते हैं,देखिए उसकी एक बानगी: "जाति का व्यापक संगठन समाज की "धार्मिक आवश्यकताओं" को पूरा करने के साथ "राजनैतिक आवश्यकताओ" की भी पूर्ति करता है। जाति व्यवस्था से ग्रामवासी अपने अंदरुनी मामलों का निपटारा करने के साथ शासक शक्तियों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न से भी निपट लेते हैं। एक राष्ट्र जो जाति व्यवस्था को कायम रखने में सक्षम हो,तो उस अवस्था में उसकी अदभुत सांगठनिक क्षमता को नकार पाना संभव नहीं है।" 
✍️1921 में एक गुजराती पत्रिका में वह जाति की महत्ता पर फिर लिखते हैं कि :"मेरा विश्वास है कि यदि हिन्दू समाज आज अपने पैरों पर यदि खड़ा हो पाया है तो उसकी एकमात्र वजह है, कि उसकी बुनियाद या नींव देश की "मज़बूत जाति व्यवस्था" के ऊपर डाली गई है। जातियों का विनाश और पश्चिम यूरोपीय सामाजिक व्यवस्था के अपनाने का अर्थ यह होगा कि "आनुवंशिक पैतृक व्यवस्था के सिद्धांत का त्याग कर दें,जो जाति व्यवस्था की मूल आत्मा है।"आनुवंशिक पैतृक व्यवस्था" का सिद्धांत एक "शाश्वत सिद्धांत" हैं इसको बदलने से अव्यवस्था और अराजकता फैल सकती है। मेरे लिए ब्राम्हण का क्या उपयोग है,यदि मै उसे जीवन भर ब्राम्हण न कह सकूं? यदि हर रोज किसी ब्राम्हण को शूद्र में और शूद्र को ब्राम्हण में परिवर्तित किया जाए तो इससे तो समाज में अफरातफरी व अराजकता फैल जाएगी!"
✍️आरएसएस के गोलवलकर भी जाति का उपचार नहीं,बल्कि "अस्पृश्यता" का उपचार चाहते हैं और गांधी तो पहले से ही इसके पास खड़े नजर आते हैं। वह डॉ.आंबेडकर के संवैधानिक प्रावधानों/विशेषाधिकारों की गलत व्याख्या कर दर्शाते हैं। "बंच ऑफ थाट्स" में वह लिखते हैं कि "यह सब अंग्रेज़ो द्वारा पैदा किया हुआ है। हमारा कटु अनुभव है कि अंग्रेजों ने जाति/वर्ग को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया है।" जैसे ब्राम्हण के खिलाफ अब्राम्हण और फूट डालो-राज करो की कुटिल नीति अपनाई। उनका स्पष्ट मानना है कि देश में जाति का जहर अंग्रेजों ने ही फैलाया है।
✍️इनका यह भी मानना है कि डॉ.आंबेडकर ने एससी-एसटी के आरक्षण संबंधी विशेषाधिकारों का प्रावधान सन 1950 में गणतंत्र की स्थापना से मात्र दस वर्ष के लिए किया था,किंतु इसे लगातार बढ़ाया जा रहा है। जबकि दस वर्ष की बात केवल राजनीतिक(लोक सभा और विधान सभाओं में)आरक्षण के लिए है।इनके अनुसार ऐसी कोई जाति नहीं है जिसमें गरीब, जरूरतमंद और कंगाल लोग न हों।अतः"आर्थिक आधार"पर ही विशेषाधिकार/आरक्षण दिया जाना उचित है।तथ्यों को गलत और तोड़-मरोड़ कर पेश करने की इनकी परम्परा/संस्कृति रही है।गोलवलकर के इसी दर्शन पर जनवरी 2019 में सामान्य वर्ग के "आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग(ईडब्ल्यूएस)" को बिना किसी आयोग,सर्वे,संविधान के सामाजिक न्याय और सुप्रीम कोर्ट के 50% तक आरक्षण के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए दिया गया 10% आरक्षण संविधान के आरक्षण की मूल भावना के स्पष्ट खिलाफ है।इसमें जाति के आधार पर वंचना/शोषण/छुआछूत की बहस को सिरे से ही खारिज कर दिया गया है। डॉ.आंबेडकर के लंबे सामाजिक संघर्ष के प्रभाव से गांधी जी की जाति व्यवस्था पर समझ बदलती नजर आती है जिससे उन्होंने तत्कालीन "हरिजन अस्पृश्यता" के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन भी किया।
✍️डॉ.आंबेडकर की "जाति-बहस" को दरकिनार कर आज तक "सामाजिक न्याय" के बजाय "सामाजिक समरसता" जैसी दक्षिणपंथी संघी-शब्दावली के चक्रव्यूह में ओबीसी को फंसाने का कार्य चलता रहा है। बहुजन समाज को डॉ.आंबेडकर की जाति-उन्मूलन की विचारधारा को जिंदा और मजबूत रखना होगा,क्योंकि भारतीय समाज को व्यवस्थित ,समरस और सुदृढ़ बनाने के लिए जातियों को मिटाना बहुत जरूरी है।
✍️डॉ.आंबेडकर का नाम आते ही उनकी आपके मन में क्या छवि बनती है? हाथ में संविधान लिए टाई और सूट-बूट में एक विद्वान,संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष या फिर अकेले में संविधान निर्माता,दलितों और आरक्षण के मसीहा के रूप में उन्हें कैद कर एक जाति/वर्ग के खांचे में कस दिया गया। डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को एक समाज,राजनीति और अर्थशास्त्री के साथ एक मानवविज्ञानी और नारीवादी विमर्श जैसे विविध आयामों को वृहद स्तर पर समझना होगा। किसान,मजदूर व महिलोत्थान पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है और संवैधानिक व्यवस्था भी की है। आरबीआई,प्रॉब्लम ऑफ रूपी,महिलाओ के श्रम के कार्य घंटे और समय के साथ उनके श्रम का आर्थिक मूल्यांकन,महिलाओ के सामाजिक अधिकार,किसानों की चंकबदी,सिंचाई बांध जैसे मूल विषयों पर सामाजिक न्याय की वैचारिकी के सबसे बड़े प्रणेता/प्रमुख स्वर" डॉ.आंबेडकर "को सायाश भारतीय सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य से लगातार ओझल किया जाता रहा है। उनकी वैचारिकी का पाठ कम और कुपाठ ज्यादा किया गया। घोर प्रतिकूलताओं और विषमताओं के बावजूद तत्कालीन ब्राम्हणवादी मीडिया के समानांतर खड़ी की गई उनकी बहुजन मीडिया की पत्रकारिता का भी मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है। आजकल सामाजिक/राजनैतिक आयोजनों/उत्सवों पर डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी खूब धमाल मचा रही है। बौद्धिक/सांस्कृतिक मंचों पर अब उनकी वैचारिकी बहस और विश्लेषण और उच्च अकादमिक स्तर पर शोधार्थियों के लिए एक गंभीर विषय का रूप धारण चुकी है।
✍️ डॉ.आंबेडकर के समग्र चिंतन को लगभग सत्तर वर्षों तक जानबूझकर सामाजिक व राजनैतिक साज़िश के तहत उपेक्षित किया जाता रहा। तत्कालीन राजनीतिक,सांस्कृतिक और बौद्धिक मंचों/बहसों और शैक्षिक/अकादमिक संस्थाओं के किसी स्तर के किसी विषय के पाठ्यक्रम में एक पन्ने की जगह तक न मिल पाना,उनकी वैचारिकी के प्रति नफ़रत या परहेज की कलुषित भावना परिलक्षित होती है। ज्योतिबा राव-सावित्री फुले,विरसा मुंडा,पेरियार,फातिमा शेख, कालेलकर,वीपी मंडल,रामस्वरूप वर्मा,जगदेव प्रसाद और ललई सिंह आदि की वैचारिकी को तो ये दक्षिणपंथी फूटी आंख भी देखना नहीं चाहते हैं और राजनीति में आते-आते मुलायम,लालू यादव और मायावती इन्हे जातिवादी दिखने लगते हैं। उच्च प्रतिष्ठानों पर काबिज लोगो ने बहुजन समाज की घोर उपेक्षा के साथ उनका मानसिक और आर्थिक शोषण करने में भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है।
✍️आज के दौर में जाति के आधार पर छुआछूत खत्म होती दिख रही है,किन्तु छोटी-बड़ी संस्थाओं में यह शोषण का दूसरे प्रकार का अस्त्र अबश्य बन गया है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठानों,सरकारी नौकरियों की लिखित परीक्षा से लेकर साक्षात्कार तक जानबूझकर कम अंक देने की संस्कृति परदे के नीचे अब जातिवाद अपने महीन/बारीक रूप में पहले से ज्यादा हानिकारक तत्व के साथ जिंदा है।
✍️कोविड-19 के संकट काल में टीवी चैनल पर रामायण और महाभारत दिखाकर डॉ.आंबेडकर के सामाजिक न्याय के स्थान पर दक्षिणपंथी प्रभु वर्ग की सामाजिक समरसता फैलाने की साज़िश है। अभी भी अपना वर्चस्व कायम करने के लिए जाति व्यवस्था बनाए रखना चाहते हैं। धर्म और धार्मिक कर्मकाण्ड/ आडंबर जातियों का भरपूर सरंक्षण करते हैं। इसलिए इनका पहले विनाश होना बहुत जरूरी है। इन्हीं सब की वजह से भारत आज भी डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी से बाहर खड़ा दिखाई देता है। पढ़ना ही है,तो डॉ.आंबेडकर का बनाया संविधान तथा पेरियार और ललई सिंह की सच्ची रामायण पढ़िए। दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के साथ & टीवी पर प्रसारित होने वाला धारावाहिक "एक महानायक: डॉ.भीमराव आंबेडकर" का भी प्रसारण होना चाहिए।
✍️लाला लाजपतराय,बाल गंगाधर तिलक व राजेन्द्र प्रसाद जैसे दक्षिणपंथी लोगों को "राष्ट्र-निर्माताओं" की श्रेणी में स्थापित किया जाता है और डॉ.आंबेडकर को मात्र "दलितों और आरक्षण के नेता" के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया जाता है।उच्च कोटि की विद्वता होने के बावजूद डॉ.आंबेडकर को राष्ट्र निर्माण व अकादमिक पाठ्यक्रमों और पुस्तकालयों में उचित जगह नहीं मिली। अब जब कुछ हालात बदल रहे हैं तो दक्षिणपंथी उसमें तरह-तरह से छिद्रान्वेषण कर उनकी वैचारिकी की दिशा-दशा बदलने की साज़िश करने से बाज नहीं आ रहे।
✍️देश की बुनियादी समस्यायों पर केन्द्रित अनु. 340(52%ओबीसी के लिए प्रतिनिधित्व ),अनु.341 (अनुसूचित जातियों के लिए 15%आरक्षण)और अनु.342 (अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% आरक्षण) में " डॉ.आंबेडकर सबसे पहले देश के 52% ओबीसी की व्यवस्था में समुचित भागीदारी की बात करते हैं।" अनु.340 का सरदार पटेल विरोध करते हुए प्रश्न करते हैं कि यह ओबीसी क्या है? एससी-एसटी की पहचान-गणना हो चुकी थी। इसलिए उनके लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था के साथ "राजनैतिक आरक्षण"(केवल लोकसभा व राज्य विधान सभाओं में केवल दस वर्ष के लिए,किंतु राज्य सभा और राज्य विधान परिषदों में नहीं) भी हो गया,किन्तु ओबीसी की जातियों की पहचान का कार्य पूर्ण नहीं हो पाया था,इसलिए अनु.340 की व्यवस्था दी गई थी,किंतु इस "अनुच्छेद के हिसाब से आयोग गठित न होने के कारण,हिन्दू कोड बिल पर राजेन्द्र और तिलक द्वारा धमकी ओर कैबिनेट वितरण में नेहरू द्वारा आंबेडकर के साथ भेदभाव(आंबेडकर योजना मंत्रालय चाहते थे) आदि विषयो का उल्लेख करते हुए डॉ. आंबेडकर 1951में ओबीसी के खातिर मंत्रिपरिषद से इस्तीफा तक दे देते है,लेकिन दुर्भाग्य है कि ओबीसी आंबेडकर के योगदान और त्याग को नहीं समझ पाया और अभी भी नहीं समझ पा रहा है। नेहरू ने इस त्याग पत्र को आंबेडकर को संसद में जानबूझकर पढ़ने नहीं दिया,क्योंकि ओबीसी को इस्तीफे का कारण पता चल जाता। बाद में उन्होंने अपने इस्तीफे का कारण प्रसार के माध्यम से संसद के बाहर रखा।

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