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नन्दलाल वर्मा (सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर) युवराज दत्त महाविद्यालय लखीमपुर-खीरी 9415461224. |
आगामी बिहार,पश्चिम बंगाल और 2027 के शुरुआत में होने वाले विधान सभा चुनावों में विपक्षी दलों का जातिगत जनगणना, आरक्षण और संविधान एक बड़ा और कारगर मुद्दा न बन सके और उसकी चुनावी राजनीति और रणनीति
को विफल करने की योजना या साजिश में बीजेपी की मातृ संस्था आरएसएस और उसके कथित धार्मिक,सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आनुषंगिक संगठनों ने वैचारिक स्तर पर अभी से काम करना शुरू कर दिया है। लोक सभा में वक़्फ़ बोर्ड संशोधन बिल पेश होने के कुछेक घण्टों पहले आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने काशी के ज्ञानवापी और मथुरा में श्रीकृष्ण की जन्मभूमि से जुड़े आंदोलनों अभियानों और कार्यक्रमों में आरएसएस के स्वयंसेवकों की सक्रिय सहभागिता के बारे में जो कहा है,उसके गहन राजनीतिक निहितार्थ निकालने और समझने की जरूरत है।
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और उसके दिव्य-भव्य उद्घाटन की सफलता के बाद ऐसा लग रहा था कि आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठन अब संतुष्ट हो चुके हैं और अनुमान लगाया जा रहा था कि उन्होंने काशी और मथुरा जैसे धार्मिक-राजनीतिक विषय त्याग दिए हैं, लेकिन दत्तात्रेय के उद्बोधन से यह साबित हो गया है कि उनके राजनीतिक एजेंडों
में ये दोनों विषय महत्वपूर्ण हैं। कन्नड़ की एक पत्रिका में दिए गए साक्षात्कार में दत्तात्रेय ने बताया है कि 1984 में विश्व हिंदू परिषद और साधु संतों ने तीन (अयोध्या, काशी और मथुरा) मंदिरों की बात कही थी। उन्होंने यह भी कहा कि यदि हमारे स्वयं सेवक काशी और मथुरा के मंदिरों के लिए कार्य करना चाहते हैं, तो वो उन्हें रोकेंगे नहीं। उनके इस वक्तव्य से साफ है कि इन दो हिन्दू धार्मिक स्थलों से जुड़े विवाद और आंदोलनों को शुरू करने के लिए एक नई ऊर्जा और धार देने की कार्य योजना संगठन स्तर पर बन चुकी है। समय आने पर उसे मूर्त रूप दिया जाएगा.
उत्तर प्रदेश स्थित हिंदुओं के दो पवित्र धार्मिक स्थल काशी और मथुरा भौगोलिक रूप से बिहार,पश्चिम बंगाल और यूपी से काफी नजदीक हैं। सन्निकट चुनावों में विपक्षी दलों द्वारा बिहार और यूपी में जातिगत जनगणना, उसके अनुरूप सामाजिक न्याय अर्थात् आरक्षण की विस्तारवादी राजनीति और संविधान बचाओ जैसे बड़े सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे बनने के डर से आरएसएस और बीजेपी अंदरूनी रूप से उसकी धार्मिक काट निकालने में जुटी हुई है, क्योंकि देश में जब जब सामाजिक न्याय या आरक्षण का सामाजिक मुद्दा उठता हुआ दिखाई दिया है तब तब आरएसएस, बीजेपी और उनके आनुषंगिक संगठन धर्म की ध्वजा लेकर निकलते हुए दिखाई दिए हैं।1990 में वीपी सिंह सरकार द्वारा सरकारी नौकरियों में ओबीसी को 27% आरक्षण की घोषणा होते ही ओबीसी का ध्यान भटकाने के लिए लालकृष्ण आडवाणी द्वारा राम मंदिर के लिए सारनाथ से यात्रा शुरू करना इसका एक उदाहरण है। आरएसएस और बीजेपी के लोग देश के बहुजन समाज(एससी-एसटी और ओबीसी) की राजनीतिक गोलबंदी के लिए हमेशा धर्म का सहारा लेने की हर संभव प्रयास करते रहे हैं। धार्मिक आधार पर सामाजिक गोलबंदी से सर्वाधिक फायदा किस दल को मिलता है,यह बताने की जरूरत नहीं है।
संघ प्रमुख मोहन भागवत मंदिरों और मस्जिदों को मुद्दे बनाने की सोच को लेकर हमेशा यह कहते हुए दिखाई दिए हैं कि इससे सामाजिक ताने बाने को नुकसान पहुंचता है,वह ऐसा कहकर संतुलन साधते हुए नज़र आते हैं। फिलहाल,आरएसएस के दत्तात्रेय ने इन दो मुद्दों पर वक्तव्य देकर धार्मिक राजनीति को नई ऊर्जा देने के साथ नई हवा देने का कार्य किया है और विपक्षी दलों के सामने एक बड़ी राजनीतिक चुनौती पैदा करने जैसा काम किया है। अयोध्या की अपार राजनीतिक और रणनीतिक सफलता ने हिंदुत्व की राजनीति की नींव तो पहले से ही मजबूत कर दी है। देश के बौध्दिक और राजनीतिक गलियारों में आरएसएस के दत्तात्रेय के वक्तव्य का गंभीरतापूर्वक आंकलन और विश्लेषण किया जा रहा है और निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि यदि आरएसएस और बीजेपी काशी और मथुरा के मुद्दों पर राजनीति करने पर अपने स्वयं सेवकों को उतारती है तो देश में एक बार फिर सामाजिक और राजनीतिक रूप से उथल-पुथल और अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है। स्वयं सेवकों और जनसाधारण की धार्मिक भावनाएं जब उबाल पर होती हैं तो फिर उनको अनुशासित करना मुश्किल हो जाता है। 2047 तक देश को एक विकसित राष्ट्र बनाने का जो संकल्प बीजेपी ने लिया है, देश के बेरोजगार युवाओं के लिए देश मे औद्योगिक संरचना के लिए बड़े निवेश की जरूरत होगी और कोई भी देश या पूंजीपति ऐसे माहौल में अपनी पूंजी को सुरक्षित न समझकर,भारत में निवेश करने के बारे में विचार और साहस नहीं करेगा और फिर भारत का विकसित राष्ट्र बनाने का सपना कैसे पूरा होता नज़र आएगा?
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