साहित्य

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  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, January 17, 2023

भाग दो : ईडब्ल्यूएस आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने खींच दी हैं,भविष्य की सामाजिक-राजनीतिक विमर्श और आंदोलन की गहरी रेखाएं-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  भाग-2  
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर) सेवा निवृत
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

      इस बारे में सरकारी पक्ष का कहना था कि नए प्रावधान से सुप्रीम कोर्ट द्वारा लागू आरक्षण की 50% की सीमा का कहीं से उल्लंघन नहीं हुआ है, क्योंकि यह वास्तव में आरक्षण के भीतर आरक्षण ही है। यह 10% आरक्षण सामान्य वर्ग (जिसमें हिंदुओं की अगड़ी जातियां व गैर हिंदू धर्मावलंबी शामिल हैं) के बाकी 50% कोटे में से ही दिया गया है,अर्थात सरकारी और सवर्ण मानसिकता के लोग 50% अनारक्षित सीटों को सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित मानकर चलते आये हैं और आज भी मान रहे हैं, अनारक्षित 50%सीटों  को ओपन टू ऑल अर्थात जिसमें विशुद्ध मेरिट के आधार पर अनारक्षित और आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों में भेदभाव किये बिना चयनित होने की व्यवस्था होती है। इन 50%सीटों के भर जाने के बाद ही ओबीसी और एससी-एसटी के अभ्यर्थियों का उनके आरक्षण प्रतिशत के हिसाब से चयनित किये जाने की व्यवस्था होती है। इस प्रकार की चयन प्रक्रिया से सामान्य वर्ग की कट ऑफ मेरिट के बराबर या नीचे से ही आरक्षित वर्ग की मेरिट सूची की शुरूआत होती है।
      बेशक, इस ईडब्ल्यूएस आरक्षण से समाज के सामान्य वर्ग के उस गरीब तबके को राहत मिली है, जो केवल गरीब होने के कारण अपने ही वर्ग के सम्पन्न तबके से प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ रहा था। भाजपा और एनडीए में शामिल दलों ने इसे अपनी जीत बताया है। भाजपा को इसका कुछ लाभ आगामी चुनावों में हो सकता है, हालांकि ज्यादातर राज्यों में अगड़ी जातियां भाजपा समर्थक ही हैं।
        इस मामले में कांग्रेस का पूरा रवैया थोड़ा ढुलमुल दिखा। उसने एक तरफ अगड़ों को आर्थिक आरक्षण का समर्थन यह कहकर किया कि संसद में उनकी पार्टी ने संविधान संशोधन के पक्ष में वोट दिया था तो दूसरी तरफ अपने ही एक दलित नेता उदित राज से इसका यह कहकर विरोध करा दिया कि यह संशोधन आरक्षण की सीमा लांघता है और यह भी कि न्यायपालिका की मानसिकता ही मनुवादी है। हालांकि, कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने स्पष्ट कहा कि उनकी पार्टी शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत करती है। उन्होंने कहा कि यह संविधान संशोधन 2005-06 में डाॅ.मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा सिन्हा आयोग के गठन से शुरू की गई प्रक्रिया का ही नतीजा है। सिन्हा आयोग ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी। केवल तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने फैसले का यह कहकर विरोध किया कि इससे लंबे समय से जारी "सामाजिक न्याय के संघर्ष को झटका" लगा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले का स्वागत करते हुए देश में जातिगत जनगणना की मांग दोहराई है। जाहिर है कि अधिकांश दल राजनीतिक कारणों से फैसले का खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि मुट्ठी भर अगड़ों के वोटों की चिंता सभी को सता रही है।
         बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से भविष्य की सामाजिक-राजनीतिक विमर्श और आंदोलन की रेखाएं खिंचती नज़र आ रही हैं। ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रखने का काम किया है (ओबीसी में तो क्रीमी लेयर का नियम लागू है), क्योंकि आरक्षित वर्गों में भी विभिन्न जातियों के बीच आरक्षण का लाभ उठाने को लेकर प्रतिस्पर्द्धा तेज हो गई है। भारत में करीब 3 हजार जातियां और 25 हजार उप जातियां हैं। यह भी बात जोरों से उठने लगी है कि जब एक परिवार का तीन पीढि़यों से आरक्षण का लाभ लेते हुए आर्थिक-सामाजिक उत्थान हो गया फिर उन्हें आरक्षण क्यों मिलते रहना चाहिए तथा देश में सामाजिक और आर्थिक समता का सर्वमान्य पैमाना क्या है, क्या होना चाहिए? विभिन्न जातियों और समाजों में आरक्षण का लाभ उठाकर पनपते और प्रभावी हो रहे नए किस्म के ब्राह्मणवाद को अभी से नियंत्रित करना कितना जरूरी है और यह कैसे होगा? जाति आधारित राजनीति इसे कितना होने देगी? जाहिर है कि बदलते सामाजिक-राजनीतिक समीकरणो के चलते यह मांग आरक्षित वर्गों में से ही उठ सकती है,अर्थात सामाजिक न्याय का संघर्ष या आंदोलन एक नए दौर में प्रवेश कर सकता है। ये बदले सामाजिक समीकरण ही देश की राजनीति की चाल भी बदलेंगे और राजनीति के साथ व्यवस्था भी बदलेगी जिसकी सूक्ष्म रूप में आहट सुनाई भी देने लगी है।

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