साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, January 03, 2023

नये साल में फेसबुक कम, बुक ज्यादा-सुरेश सौरभ

हास्य-व्यंग्य
  सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी
उत्तर प्रदेश पिन-262701
मो-7376236066

   
नए साल पर मैंने प्रण किया है कि मैं फेसबुक कम चलाऊँगा और बुक पर अपनी निगाहें अधिक खर्च करूंगा। फेसबुक कम चलाने की वजह यह है कि फेसबुक चलाते-चलाते मेरी आंखें कमजोर होने लगीं हैं। 
       बरसों से फेसबुक चलाते-चलाते तमाम नाजनीनों के फेस देखते-देखते यह नौबत मेरे सिर पर साया हुई है, जो समय मैं नाजनीनों के नृत्य, गायन, उनकी कमनीय काया को फेसबुक पर देखते-देखते बिताते रहा, अगर वही समय पैसा कमाने में लगाता तो अडानी अंबानी के लेवल का जरूर बन जाता। फिर तमाम-नेता मंत्री मेरी चरण वंदना या गुणगान करते हुए फिरते और दुनिया भर का यश अपने चौखटे पर लटकता फिरता। और अपने चौखटे की वैलू वैश्विक स्तर की होती। 
     फेसबुक की बहन व्हाट्सएप्प, चचेरा भाई ट्वीटर और इन सबकी अम्मा ऐसी-वैसी तमाम वेबसाइडों का मैं इस कदर दीवाना हुआ कि नौबत यहाँ तक आ गई कि हमेशा ऑफिस में लेट हो जाया करता था। बॉस की झाड़ हमेशा मेरे पीछे किसी जिन्द-पिशाच की तरह पड़ी रहती थी। 
      हमेशा मोबाइल, मैं ऐसे अपनी आँखों से चिपकाए रहता था, जैसे कोई बंदरिया अपने नवजात बच्चे को अपने कलेजे से चिपकाये रहती। मेरी इस नजाकत को देख, अक्सर पत्नी कहती-हमेशा मोबाइल में घुसे रहो। ऐसा लगता है यह मोबाइल नहीं समुद्र मंथन से निकला वह अमृत कलश है जिसे हर समय अपने मुँह पर औंधाए रखते हो। पत्नी कभी-कभी इतनी आग-बगूला हो जाती कि हालात और हमारे रिश्ते भारत-पाक जैसे बेहद तनावपूर्ण, नाजुक और संवेनशील हो जाया करते। फिर नौबत भयानक युद्ध जैसी खतरे की बन जाती। मगर मेरी इमोशन गुलाटियों की वजह़ से द्वन्द्व युद्ध होते-होते टल जाता। फिर इसके लिए मैं ढकवा के जिन्द बाबा और ब्रह्म बाबा को प्रसाद चढ़ा आता। पर बकरे की माँ कब तक तक खैर मनायेगी, मेरी आंखें की जलन और सिर की पीड़ा बढ़ती गयी। तमाम अर्थिक और सामाजिक संबंधों का नुकसान होने लगा और तो और पत्नी को कम समय देने के कारण, वह मोबाइल को अपनी सौत और मुझे उसका गुलाम तक बताने लगी है। मित्रों यह दशा फेसबुक पर समय खपाने के कारण हुआ है।
       मेरे जैसे कई सरकारी भले मनुषों को यह फेसबुक अपना शिकार बनाता जा रहा है। थोड़ा काम, फिर फेसबुक, फिर काम फिर फेसबुक, जो समय पब्लिक के काम का होता है, उस समय, कोई नाच में पड़ा है, कोई नंगई के खेलों में पड़ा है, कोई फालतू की टिप्पणियों में पड़ा है, कोई अपने यूट्यूब के पंचर में पड़ा है, कोई अपने लौड़े के टपोरी मर्का डान्स के प्रमोशन में पड़ा है। कोई लंफगई-लुच्चई के वीडियों पब्लिक का काम छोड़ कर ऐसे देख रहा है, जैसे कुछ समय पहले कुछ माननीय विधानसभा में देख रहे थे। मेरी सरकार से गुजारिश है, बढ़ रहे सोशल मीडिया की इस लती महामारी से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनाए। इसके समूल उन्मूलन के लिए उस कार्यकारिणी का अध्यक्ष अमित मालवीय को बनाए। जिससे तमाम सरकारी काम बाधित न हो, जनता का काम न रूके। विकास पंख लगाकर फर-फर उड़ता रहे। नाले से गैस धड़-धड़ बनती रहे। दरअसल मेरा बेटा, मेरी बेटी  इस्ट्राग्राम के दीवाने होते जा रहे है। यानी दुनिवायी विषैला प्रदूषण मेरे घर में भी सोशल मीडिया के जरिए घुसने लगा है, इसलिए इसका विरोध करना भी मेरी मजबूरी बन गयी है।

No comments:

पढ़िये आज की रचना

चर्चा में झूठी-सुरेश सौरभ

(फिल्म समीक्षा)      एक मां के लिए उसका बेटा चाहे जैसा हो वह राजा बेटा ही होता है, बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, जिन्हें हम अपने विचार...

सबसे ज्यादा जो पढ़े गये, आप भी पढ़ें.