साहित्य

  • जन की बात न दबेगी, न छिपेगी, अब छपेगी, लोकतंत्र के सच्चे सिपाही बनिए अपने लिए नहीं, अपने आने वाले कल के लिए, आपका अपना भविष्य जहाँ गर्व से कह सके आप थे तो हम हैं।
  • लखीमपुर-खीरी उ०प्र०

Tuesday, May 31, 2022

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग एक

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

✍️ दलित और ओबीसी की अधिकांश जातियां ग्रामीण क्षेत्रों में रहती हैं और वे अधिकांश अपने परंपरागत पेशे से ही जीविका चलाती हैं। विज्ञान और तकनीक युक्त शिक्षा उन तक अभी पूरी तरह नहीं पहुंच पाई है और सामाजिक स्तर पर छोटी-बड़ी जातियों की मान्यता के साथ जाति व्यवस्था अच्छी तरह से अपने पैर जमाए हुए है। सामाजिक स्तर पर अनुसूचित और ओबीसी की जातियों के बीच आज के दौर में भी सामान्य रूप से आपसी खान-पान और उठने-बैठने का माहौल पैदा होता नहीं दिखता है। सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों की वजह से दलितों की सामाजिक और धार्मिक मान्यताओंं/परंपराओं/रीति-रिवाज़ों में कुछ सीमा तक बदलाव आना स्वाभाविक है और जो दिखाई भी देता है। इन आंदोलनों से पूर्व दलित और ओबीसी हिन्दू धर्म,त्यौहारों,परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों को एक ही तरह से मानते/मनाते थे। बौद्घ धर्म और आंबेडकरवादी विचारधारा के प्रवाह से अब अनुसूचित और ओबीसी की जातियों की धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाज़ों में काफी अंतर आया है। शिक्षा की कमी के कारण ओबीसी के उत्थान के लिए डॉ.आंबेडकर द्वारा बनाई गई संवैधानिक व्यवस्था को ओबीसी अभी भी नहीं समझ पा रहा है। जातीय श्रेष्ठता की झूठी शान और सामाजिक/धार्मिक रीति-रिवाज़ों में अंतर के कारण दोनों में सामाजिक और राजनीतिक सामंजस्य या मेलमिलाप की भी कमी दिखाई देती है। सदैव सत्ता में बने रहने वाले जाति आधारित व्यवस्था के पोषक तत्वों / मनुवादियों द्वारा आग में घी डालकर इस दूरी को बनाए रखने का कार्य बखूबी किया गया और आज भी जारी है। ओबीसी सामाजिक -जातीय दुराग्रहों से ग्रसित होने के कारण मनुवादियों की साज़िश और डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी का अपने हित में मूल्यांकन नहीं कर पाया और नहीं कर पा रहा है,क्योंकि वह डॉ.आंबेडकर के व्यक्तित्व व कृतित्व को जाति विशेष से होने के पूर्वाग्रह और कथित सामाजिक जातीय श्रेष्ठता के दम्भ के कारण उनकी लोक कल्याणकारी वैचारिकी और योगदान को पढ़ने से परहेज करता रहा और आज भी उसे पढ़ने में सामाजिक हीनभावना/संकोच महसूस होता है। यहां तक कि, डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी के सार्वजनिक कार्यक्रमों के मंचों को साझा करने में भी उसे संकोच और शर्म आती है। देश के सत्ता प्रतिष्ठान डॉ.आंबेडकर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को एक जाति/समाज विशेष के खांचे में बन्द कर,इस क़दर प्रचार-प्रसार करते रहे जिससे अनु.जातियों,अनु.जनजातियों, ओबीसी जातियों और अल्पसंख्यक में सामाजिक/राजनीतिक एकता कायम न हो सके। आज यदि ओबीसी का कोई व्यक्ति डॉ.आंबेडकर से घृणा करता है या कोसता है या अन्य  महापुरुषों की तुलना में कमतर समझता है,तो समझ जाइए कि उसने डॉ.आंबेडकर की सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक मॉडल पर आधारित भेदभाव रहित मानववादी वैचारिकी/दर्शन को अभी तक पढ़ने/समझने का रंच मात्र भी प्रयास नहीं किया है। ओबीसी भूल जाता है कि देश की वर्णव्यवस्था में अनुसूचित और ओबीसी की समस्त जातियां "शूद्र" वर्ण में ही समाहित हैं। अशिक्षा और अज्ञानता के कारण ओबीसी जातियां अपनी सीढ़ीनुमा सामाजिक श्रेष्ठता के अहंकार में केवल अनुसूचित जाति को ही शूद्र और नीच समझकर जगह-जगह पर अपनी अज्ञानता/मूर्खता का परिचय देती नजर आती है जिससे उनमें एकता के बजाय सामाजिक व राजनीतिक वैमनस्यता की अमिट खाई 21वीं सदी में भी बनी हुई है।
✍️ विज्ञान और तर्क की 21वीं सदी में भी ओबीसी का बहुसंख्यक समाज धर्म-ग्रंथ और सामाजिक-धार्मिक आडंबरों/आयोजनों में जैसे रामायण,रामचरित मानस,सत्यनारायण की कथा, भागवत,महाभारत,मंदिर में स्थापित पत्थरों/धातुओ की जेवरात/हीरे/मोतियों से सुसुज्जित मूर्तियों के रूप में करोड़ों देवी-देवताओंं के चक्रव्यूह में मनवांछित चमत्कार की उम्मीद में फंसा रहता है और चमत्कार की आशा में अपने कर्मभाव और आत्मविश्वास के प्रति लगातार उदासीन होता जाता है। जबकि 85% शोषितों व वंचितों के लिए डॉ.आंबेडकर की संवैधानिक व्यवस्थाएं,एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति का विनाश) पुस्तक,साइमन कमीशन और गोल मेज कॉन्फ्रेंस के मुद्दे/विषय वस्तु और उद्देश्य,हिन्दू कोड बिल,काका कालेलकर और वीपी मंडल आयोग की सिफारिशें है, जिनका गहन अध्ययन और समझना बहुत जरूरी है। शिक्षा,धन,धरती और राजपाट दलितों व ओबीसी की लड़ाई के असल मुद्दे हैं जहां से उनकी भावी पीढ़ियों के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए रास्ते खुलते हैं। सत्ता के शीर्ष प्रतिष्ठान जैसे सरकार,कार्यपालिका,न्यायपालिका और मीडिया में शीर्ष पदों पर काबिज प्रभु लोगो ने दलितों-पिछड़ों  लिए अभी तक क्या किया है?
✍️ डॉ.आंबेडकर की बहुपटीय वैचारिकी को ईमानदारी से न तो देखा गया और न ही सार्वजनिक पटल पर लिखित/मौखिक रूप से प्रस्तुत किया गया। आज़ाद भारत की कई प्रकार की सत्ता संस्थाएं जैसे उच्च शिक्षण और अकादमिक संस्थाओ में ज्ञान की सत्ता,मीडिया और न्यायपालिका की सत्ता,संसद में राजपाट की सत्ता और समाज में धर्म या ब्राम्हणवाद की सत्ता काम करती हैं। क्या ये सारी सत्ताएं डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को समग्र और व्यापक संदर्भों में देखने व समझने में हमारी मददगार साबित होती है या फिर वे किन्हीं सामाजिक और जातीय पूर्वाग्रहों का शिकार हैं? डॉ.आंबेडकर की विचारधारा की परंपरा के अंतरराष्ट्रीय दलित चिंतक,दार्शनिक,साहित्यकार,आलोचक,गहन विश्लेषक,आईआईटी और आईआईएम जैसी प्रतिष्ठित अकैडमिक संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण और अध्यापन कर चुके प्रो.आनन्द तेलतुंबडे को 14 अप्रैल,2020 को डॉ.आंबेडकर की 129वीं जयंती पर भीमा कोरे गांव की घटना में एक आरोपी के पत्र/डायरी में "आनन्द" लिखा मिल जाने को कानूनी आधार बनाकर बिना किसी जांच-पड़ताल के उनको गिरफ्तार कर उस समय जेल जाने के लिए विवश किया जाता है जब कोविड- 19 के कारण जेलों में बन्द हजारों बंदियों/कैदियों को पैरोल पर रिहा किया जा रहा है। उनके साथ उनके साथी गौतम नौलखा को भी आत्मसमर्पण करना पड़ता है। कोविड -19 के कालखंड में सरकार, प्रशासन और स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी एडवाइजरी का पूरी तरह पालन करते हुए अपने घरों में आंबेडकर जयंती मनाने पर सरकार द्वारा राजनैतिक विद्वेषवश उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई किया जाना अत्यंत दुखद और शर्मनाक घटना है,जबकि 22 मार्च और 05 अप्रैल,2020 को कोरोना एडवाइजरी की धज्जियां उड़ाते सड़क पर उतरे लोगों के खिलाफ स्थानीय प्रशासन द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने से सरकार का दोहरा और सामाजिक - जातीय चरित्र परिलक्षित होता है।
✍️दरअसल,आज के दौर में शिक्षित और प्रगतिवादी दलित चिंतक/दार्शनिक,साहित्यकार,पत्रकार और अकैडमिक लोग सरकार पर यह सवाल उठाने लगे हैं,कि आखिर वे कौन है,जिनकी वजह से आजादी के सत्तर सालों में डॉ.आंबेडकर के सपनो का भारत का निर्माण नहीं हो पाया है या नहीं हो पा रहा है?अर्थात डॉ.आंबेडकर की राष्ट्र निर्माण की विचारधारा के हत्यारे कौन हैं?अध्ययन करने से पता चलता है कि आज देश में झूठ की बुनियाद पर खड़ा यथास्थितिवादी आरएसएस जो कि दक्षिणपंथी विचारधारा का कट्टर समर्थक है,देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की महत्वपूर्ण/ऊंची कुर्सियों पर मात्र काबिज बने रहने के लिए वे राजनेता डॉ.आंबेडकर को सार्वजनिक स्थानों पर दिखावा कर याद करते और पूजते नज़र आते हैं जो वास्तव में उनकी वैचारिकी/सैद्धांतिकी की अंदरूनी रूप से घोर खिलाफत में हमेशा खड़े नजर आते हैं। यह विडम्बना ही है कि वे आज उनके नाम में उनके पिता जी के नाम के "राम" को देखकर/ जोड़कर अलग किस्म की धार्मिक सियासत करना चाहते हैं। सामाजिक न्याय के स्थान पर सामाजिक समरसता की वैचारिकी का आपस में घालमेल किया जा रहा है। यह कार्य ओबीसी के लोग आरएसएस की प्रयोगशाला में प्रशक्षित होकर गांवों और शहरो में सुबह - शाम नियमित शाखाएं लगाकर बखूबी कर रहे हैं। संघ की विचारधारा का सबसे बड़ा और मज़बूत संवाहक आज ओबीसी ही बना है। संघ के लोग डॉ.आंबेडकर के आरएसएस से तरह-तरह के राजनैतिक संबंधों की अफवाहें फैलाकर दलितों को गुमराह कर उनकी बनी राजनीतिक विरासत को हड़पना चाहते हैं। गोलवलकर की पुस्तक "बंच ऑफ थाट्स " के हिंदी संस्करण "विचार नवनीत" में भारत देश के आंतरिक संकटों का जिक्र किया गया है जिसमें देश के मुसलमानों को पहला,ईसाईयों को दूसरा और कम्युनिस्टों को तीसरा आंतरिक संकट के रूप में रेखांकित और व्याख्यायित किया गया है।
✍️आज डॉ.आंबेडकर और गोलवलकर की वैचारिकी को समानांतर खड़ा कर गहन अधययन करने पर पता लग जाएगा कि दोनों की वैचारिकी में सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से कितना विरोधाभास व अंतर है। डॉ.आंबेडकर अपनी वैचारिकी में जातियों का उन्मूलन/विनाश चाहते हैं और संघ के गोलवलकर उन्मूलन के बजाय कोरी कल्पना आधारित सामाजिक समरसता के नाम पर जातियां जिंदा रखना चाहते हैं। गांव से लेकर शहर तक सत्ता के सभी शीर्ष प्रतिष्ठानों तक चलना होगा और देखना होगा कि सामाजिक न्याय की वैचारिकी के साथ गांधी जी जाति रूपी "जीव जंतु" को कितनी मजबूती के साथ जिंदा देखना चाहते थे। ऐसा उनके द्वारा समय-समय पर दिए गए संबोधनों/व्याख्यानों और उनके लेखों से पता चलता है।
क्रमशः पेज दो पर..........

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग दो

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
1916 में ईसाई मिशनरियों के एक सम्मेलन में गांधी जी जाति की उपयोगिता और महत्व को कैसे स्थापित करने का प्रयास करते दिखते हैं,देखिए उसकी एक बानगी: "जाति का व्यापक संगठन समाज की "धार्मिक आवश्यकताओं" को पूरा करने के साथ "राजनैतिक आवश्यकताओ" की भी पूर्ति करता है। जाति व्यवस्था से ग्रामवासी अपने अंदरुनी मामलों का निपटारा करने के साथ शासक शक्तियों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न से भी निपट लेते हैं। एक राष्ट्र जो जाति व्यवस्था को कायम रखने में सक्षम हो,तो उस अवस्था में उसकी अदभुत सांगठनिक क्षमता को नकार पाना संभव नहीं है।" 
✍️1921 में एक गुजराती पत्रिका में वह जाति की महत्ता पर फिर लिखते हैं कि :"मेरा विश्वास है कि यदि हिन्दू समाज आज अपने पैरों पर यदि खड़ा हो पाया है तो उसकी एकमात्र वजह है, कि उसकी बुनियाद या नींव देश की "मज़बूत जाति व्यवस्था" के ऊपर डाली गई है। जातियों का विनाश और पश्चिम यूरोपीय सामाजिक व्यवस्था के अपनाने का अर्थ यह होगा कि "आनुवंशिक पैतृक व्यवस्था के सिद्धांत का त्याग कर दें,जो जाति व्यवस्था की मूल आत्मा है।"आनुवंशिक पैतृक व्यवस्था" का सिद्धांत एक "शाश्वत सिद्धांत" हैं इसको बदलने से अव्यवस्था और अराजकता फैल सकती है। मेरे लिए ब्राम्हण का क्या उपयोग है,यदि मै उसे जीवन भर ब्राम्हण न कह सकूं? यदि हर रोज किसी ब्राम्हण को शूद्र में और शूद्र को ब्राम्हण में परिवर्तित किया जाए तो इससे तो समाज में अफरातफरी व अराजकता फैल जाएगी!"
✍️आरएसएस के गोलवलकर भी जाति का उपचार नहीं,बल्कि "अस्पृश्यता" का उपचार चाहते हैं और गांधी तो पहले से ही इसके पास खड़े नजर आते हैं। वह डॉ.आंबेडकर के संवैधानिक प्रावधानों/विशेषाधिकारों की गलत व्याख्या कर दर्शाते हैं। "बंच ऑफ थाट्स" में वह लिखते हैं कि "यह सब अंग्रेज़ो द्वारा पैदा किया हुआ है। हमारा कटु अनुभव है कि अंग्रेजों ने जाति/वर्ग को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया है।" जैसे ब्राम्हण के खिलाफ अब्राम्हण और फूट डालो-राज करो की कुटिल नीति अपनाई। उनका स्पष्ट मानना है कि देश में जाति का जहर अंग्रेजों ने ही फैलाया है।
✍️इनका यह भी मानना है कि डॉ.आंबेडकर ने एससी-एसटी के आरक्षण संबंधी विशेषाधिकारों का प्रावधान सन 1950 में गणतंत्र की स्थापना से मात्र दस वर्ष के लिए किया था,किंतु इसे लगातार बढ़ाया जा रहा है। जबकि दस वर्ष की बात केवल राजनीतिक(लोक सभा और विधान सभाओं में)आरक्षण के लिए है।इनके अनुसार ऐसी कोई जाति नहीं है जिसमें गरीब, जरूरतमंद और कंगाल लोग न हों।अतः"आर्थिक आधार"पर ही विशेषाधिकार/आरक्षण दिया जाना उचित है।तथ्यों को गलत और तोड़-मरोड़ कर पेश करने की इनकी परम्परा/संस्कृति रही है।गोलवलकर के इसी दर्शन पर जनवरी 2019 में सामान्य वर्ग के "आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग(ईडब्ल्यूएस)" को बिना किसी आयोग,सर्वे,संविधान के सामाजिक न्याय और सुप्रीम कोर्ट के 50% तक आरक्षण के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए दिया गया 10% आरक्षण संविधान के आरक्षण की मूल भावना के स्पष्ट खिलाफ है।इसमें जाति के आधार पर वंचना/शोषण/छुआछूत की बहस को सिरे से ही खारिज कर दिया गया है। डॉ.आंबेडकर के लंबे सामाजिक संघर्ष के प्रभाव से गांधी जी की जाति व्यवस्था पर समझ बदलती नजर आती है जिससे उन्होंने तत्कालीन "हरिजन अस्पृश्यता" के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन भी किया।
✍️डॉ.आंबेडकर की "जाति-बहस" को दरकिनार कर आज तक "सामाजिक न्याय" के बजाय "सामाजिक समरसता" जैसी दक्षिणपंथी संघी-शब्दावली के चक्रव्यूह में ओबीसी को फंसाने का कार्य चलता रहा है। बहुजन समाज को डॉ.आंबेडकर की जाति-उन्मूलन की विचारधारा को जिंदा और मजबूत रखना होगा,क्योंकि भारतीय समाज को व्यवस्थित ,समरस और सुदृढ़ बनाने के लिए जातियों को मिटाना बहुत जरूरी है।
✍️डॉ.आंबेडकर का नाम आते ही उनकी आपके मन में क्या छवि बनती है? हाथ में संविधान लिए टाई और सूट-बूट में एक विद्वान,संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष या फिर अकेले में संविधान निर्माता,दलितों और आरक्षण के मसीहा के रूप में उन्हें कैद कर एक जाति/वर्ग के खांचे में कस दिया गया। डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को एक समाज,राजनीति और अर्थशास्त्री के साथ एक मानवविज्ञानी और नारीवादी विमर्श जैसे विविध आयामों को वृहद स्तर पर समझना होगा। किसान,मजदूर व महिलोत्थान पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है और संवैधानिक व्यवस्था भी की है। आरबीआई,प्रॉब्लम ऑफ रूपी,महिलाओ के श्रम के कार्य घंटे और समय के साथ उनके श्रम का आर्थिक मूल्यांकन,महिलाओ के सामाजिक अधिकार,किसानों की चंकबदी,सिंचाई बांध जैसे मूल विषयों पर सामाजिक न्याय की वैचारिकी के सबसे बड़े प्रणेता/प्रमुख स्वर" डॉ.आंबेडकर "को सायाश भारतीय सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य से लगातार ओझल किया जाता रहा है। उनकी वैचारिकी का पाठ कम और कुपाठ ज्यादा किया गया। घोर प्रतिकूलताओं और विषमताओं के बावजूद तत्कालीन ब्राम्हणवादी मीडिया के समानांतर खड़ी की गई उनकी बहुजन मीडिया की पत्रकारिता का भी मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है। आजकल सामाजिक/राजनैतिक आयोजनों/उत्सवों पर डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी खूब धमाल मचा रही है। बौद्धिक/सांस्कृतिक मंचों पर अब उनकी वैचारिकी बहस और विश्लेषण और उच्च अकादमिक स्तर पर शोधार्थियों के लिए एक गंभीर विषय का रूप धारण चुकी है।
✍️ डॉ.आंबेडकर के समग्र चिंतन को लगभग सत्तर वर्षों तक जानबूझकर सामाजिक व राजनैतिक साज़िश के तहत उपेक्षित किया जाता रहा। तत्कालीन राजनीतिक,सांस्कृतिक और बौद्धिक मंचों/बहसों और शैक्षिक/अकादमिक संस्थाओं के किसी स्तर के किसी विषय के पाठ्यक्रम में एक पन्ने की जगह तक न मिल पाना,उनकी वैचारिकी के प्रति नफ़रत या परहेज की कलुषित भावना परिलक्षित होती है। ज्योतिबा राव-सावित्री फुले,विरसा मुंडा,पेरियार,फातिमा शेख, कालेलकर,वीपी मंडल,रामस्वरूप वर्मा,जगदेव प्रसाद और ललई सिंह आदि की वैचारिकी को तो ये दक्षिणपंथी फूटी आंख भी देखना नहीं चाहते हैं और राजनीति में आते-आते मुलायम,लालू यादव और मायावती इन्हे जातिवादी दिखने लगते हैं। उच्च प्रतिष्ठानों पर काबिज लोगो ने बहुजन समाज की घोर उपेक्षा के साथ उनका मानसिक और आर्थिक शोषण करने में भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है।
✍️आज के दौर में जाति के आधार पर छुआछूत खत्म होती दिख रही है,किन्तु छोटी-बड़ी संस्थाओं में यह शोषण का दूसरे प्रकार का अस्त्र अबश्य बन गया है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठानों,सरकारी नौकरियों की लिखित परीक्षा से लेकर साक्षात्कार तक जानबूझकर कम अंक देने की संस्कृति परदे के नीचे अब जातिवाद अपने महीन/बारीक रूप में पहले से ज्यादा हानिकारक तत्व के साथ जिंदा है।
✍️कोविड-19 के संकट काल में टीवी चैनल पर रामायण और महाभारत दिखाकर डॉ.आंबेडकर के सामाजिक न्याय के स्थान पर दक्षिणपंथी प्रभु वर्ग की सामाजिक समरसता फैलाने की साज़िश है। अभी भी अपना वर्चस्व कायम करने के लिए जाति व्यवस्था बनाए रखना चाहते हैं। धर्म और धार्मिक कर्मकाण्ड/ आडंबर जातियों का भरपूर सरंक्षण करते हैं। इसलिए इनका पहले विनाश होना बहुत जरूरी है। इन्हीं सब की वजह से भारत आज भी डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी से बाहर खड़ा दिखाई देता है। पढ़ना ही है,तो डॉ.आंबेडकर का बनाया संविधान तथा पेरियार और ललई सिंह की सच्ची रामायण पढ़िए। दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के साथ & टीवी पर प्रसारित होने वाला धारावाहिक "एक महानायक: डॉ.भीमराव आंबेडकर" का भी प्रसारण होना चाहिए।
✍️लाला लाजपतराय,बाल गंगाधर तिलक व राजेन्द्र प्रसाद जैसे दक्षिणपंथी लोगों को "राष्ट्र-निर्माताओं" की श्रेणी में स्थापित किया जाता है और डॉ.आंबेडकर को मात्र "दलितों और आरक्षण के नेता" के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया जाता है।उच्च कोटि की विद्वता होने के बावजूद डॉ.आंबेडकर को राष्ट्र निर्माण व अकादमिक पाठ्यक्रमों और पुस्तकालयों में उचित जगह नहीं मिली। अब जब कुछ हालात बदल रहे हैं तो दक्षिणपंथी उसमें तरह-तरह से छिद्रान्वेषण कर उनकी वैचारिकी की दिशा-दशा बदलने की साज़िश करने से बाज नहीं आ रहे।
✍️देश की बुनियादी समस्यायों पर केन्द्रित अनु. 340(52%ओबीसी के लिए प्रतिनिधित्व ),अनु.341 (अनुसूचित जातियों के लिए 15%आरक्षण)और अनु.342 (अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% आरक्षण) में " डॉ.आंबेडकर सबसे पहले देश के 52% ओबीसी की व्यवस्था में समुचित भागीदारी की बात करते हैं।" अनु.340 का सरदार पटेल विरोध करते हुए प्रश्न करते हैं कि यह ओबीसी क्या है? एससी-एसटी की पहचान-गणना हो चुकी थी। इसलिए उनके लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था के साथ "राजनैतिक आरक्षण"(केवल लोकसभा व राज्य विधान सभाओं में केवल दस वर्ष के लिए,किंतु राज्य सभा और राज्य विधान परिषदों में नहीं) भी हो गया,किन्तु ओबीसी की जातियों की पहचान का कार्य पूर्ण नहीं हो पाया था,इसलिए अनु.340 की व्यवस्था दी गई थी,किंतु इस "अनुच्छेद के हिसाब से आयोग गठित न होने के कारण,हिन्दू कोड बिल पर राजेन्द्र और तिलक द्वारा धमकी ओर कैबिनेट वितरण में नेहरू द्वारा आंबेडकर के साथ भेदभाव(आंबेडकर योजना मंत्रालय चाहते थे) आदि विषयो का उल्लेख करते हुए डॉ. आंबेडकर 1951में ओबीसी के खातिर मंत्रिपरिषद से इस्तीफा तक दे देते है,लेकिन दुर्भाग्य है कि ओबीसी आंबेडकर के योगदान और त्याग को नहीं समझ पाया और अभी भी नहीं समझ पा रहा है। नेहरू ने इस त्याग पत्र को आंबेडकर को संसद में जानबूझकर पढ़ने नहीं दिया,क्योंकि ओबीसी को इस्तीफे का कारण पता चल जाता। बाद में उन्होंने अपने इस्तीफे का कारण प्रसार के माध्यम से संसद के बाहर रखा।

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

भाग तीन


एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

जिस देश में बुनियादी समस्याओं की उपेक्षा की जाती हैं,वहां गृह युद्ध जैसे हालात पैदा होने की संभावनाएं बन जाती हैं। जैसा कि अमेरिका में नस्लवाद के मामले में हुआ।अमेरिका बदला और गोरों के "व्हाइट हाउस" में कालों का वर्चस्व स्थापित हुआ,भले ही व्हाइट हाउस का नाम नही बदला,लेकिन वहां की लोकतांत्रिक संस्कृति जरूर बदली है।
✍️ यदि बहुजन नायकों की सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक लिखित/अलिखित वैचारिकी को शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में शामिल कर पढ़ाया गया होता,तो वे 85% बहुजन के मन-मन और घर-घर पहुंच जाते,तो फिर काल्पनिक रामायण-महाभारत कौन देखता और सत्यनारयण - भागवत कथा कौन सुनता और विज्ञान के इस दौर के 2021 में भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का दंभ कैसे भरा जाता?
✍️डॉ.आंबेडकर का नाम आते ही आम आदमी के मन में उनकी क्या छवि बनती है? हाथ में संविधान लिए टाई और सूट-बूट में एक विद्वान,संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष या फिर अकेले में संविधान निर्माता,दलितों और आरक्षण के मसीहा के रूप में उन्हें कैद कर एक जाति/वर्ग के खांचे में कस दिया गया। डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी को एक समाजशास्त्री,राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री के साथ एक मानवविज्ञानी और नारीवादी विमर्श जैसे आयामों को वृहद स्तर पर समझना होगा। किसान,मजदूर व महिला उत्थान पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है और समाधान की संवैधानिक व्यवस्था भी की है। आरबीआई,प्रॉब्लम ऑफ रूपी,महिलाओ के श्रम के कार्य घंटे और समय के साथ उनके श्रम का आर्थिक मूल्यांकन,महिलाओ के सामाजिक अधिकार और उनके लिए प्रसूति अवकाश,किसानों की चकबंदी,सिंचाई बांध जैसे मूल विषयों पर सामाजिक न्याय की वैचारिकी के सबसे बड़े प्रणेता/प्रमुख स्वर"आंबेडकर"को सायाश भारतीय सामाजिक व राजनैतिक परिदृश्य से लगातार बाहर किया जाता रहा है। इनकी वैचारिकी का पाठ कम और कुपाठ ज्यादा किया गया। घोर प्रतिकूलताओं और विषमताओं के बावजूद तत्कालीन ब्राम्हणवादी मीडिया के समानांतर खड़ी की गई उनकी बहुजन मीडिया की पत्रकारिता का भी मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है। आजकल सामाजिक/राजनैतिक आयोजनों/उत्सवों पर आंबेडकर की वैचारिकी खूब धमाल मचा रही है। बौद्धिक/सांस्कृतिक मंचों पर अब उनकी वैचारिकी बहस और विश्लेषण और उच्च अकादमिक स्तर पर शोधार्थियों के लिए गंभीर विषय का रूप धारण चुकी है।

✍️डॉ.आंबेडकर के समग्र चिंतन को लगभग सत्तर वर्षों तक जानबूझकर सामाजिक व राजनैतिक साज़िश के तहत उपेक्षित किया जाता रहा। तत्कालीन राजनीतिक,सांस्कृतिक और बौद्धिक मंचों/बहसों और शैक्षिक/अकादमिक संस्थाओं के किसी स्तर के किसी विषय के पाठ्यक्रम में एक पन्ने की जगह तक न मिल पाना,उनकी वैचारिकी के प्रति नफ़रत या परहेज की कलुषित भावना परिलक्षित होती है।ज्योतिबा राव-सावित्री फुले,विरसा मुंडा,पेरियार,फातिमा शेख, कालेलकर,वीपी मंडल,रामस्वरूप वर्मा,जगदेव प्रसाद और ललई सिंह आदि की वैचारिकी को तो ये दक्षिणपंथी फूटी आंख भी देखना नहीं चाहते हैं और राजनीति में आते-आते मुलायम,लालू यादव और मायावती इन्हे जातिवादी दिखने लगते हैं।उच्च प्रतिष्ठानों पर काबिज लोगो ने बहुजन समाज की घोर उपेक्षा के साथ उनका मानसिक और आर्थिक शोषण करने में भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है।
✍️आज के दौर में जाति के आधार पर छुआछूत लगभग नहीं रह गयी है किन्तु अब यह छोटी-बड़ी संस्थाओं में यह शोषण का दूसरे प्रकार का अस्त्र अबश्य बन गया है। प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठानों,सरकारी नौकरियों की लिखित परीक्षा से लेकर साक्षात्कार तक जानबूझकर कम अंक देने की संस्कृति परदे के नीचे अब जातिवाद अपने महीन/बारीक रूप में पहले से ज्यादा खतरनाक रूप में जिंदा है।
✍️कोविड-19 के संकट काल में टीवी चैनल पर रामायण और महाभारत दिखाकर आंबेडकर के सामाजिक न्याय के स्थान पर दक्षिणपंथी प्रभु वर्ग की सामाजिक समरसता फैलाने की साज़िश है।अभी भी अपना वर्चस्व कायम करने के लिए जाति व्यवस्था बनाए रखना चाहते हैं।धर्म और धार्मिक कर्म काण्ड/ आडंबर जातियों का सरंक्षण करते हैं।इसलिए इनका पहले विनाश होना जरूरी है।इन्हीं सब की वजह से भारत आज भी डॉ.आंबेडकर की वैचारिकी से बाहर खड़ा दिखाई देता है। बहुजन समाज को पढ़ना ही है,तो डॉ.आंबेडकर का बनाया संविधान,पेरियार और ललई सिंह की सच्ची रामायण पढ़िए। दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के साथ &टीवी पर प्रसारित होने वाला धारावाहिक "एक महानायक: डॉ.भीमराव आंबेडकर" का भी प्रसारण होना चाहिए।
✍️लाला लाजपतराय,बाल गंगाधर तिलक व राजेन्द्र प्रसाद जैसे दक्षिणपंथी लोगों को "राष्ट्र-निर्माताओं" की श्रेणी में स्थापित किया जाता है और आंबेडकर को मात्र "दलितों और आरक्षण के नेता" के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया जाता है।विद्वता होने के बावजूद आंबेडकर को राष्ट्र निर्माण व अकादमिक पाठ्यक्रमों और पुस्तकालयों में जगह नहीं मिल पाती है।अब जब कुछ हालात बदल रहे हैं तो दक्षिणपंथी उसमें तरह तरह से छिद्रान्वेषण कर उनकी वैचारिकी की दिशा-दशा बदलने की साज़िश करने से बाज नहीं आ रहे।
✍️देश की बुनियादी समस्यायों पर केन्द्रित अनु. 340(52%ओबीसी के लिए प्रतिनिधित्व ),अनु.341 (अनुसूचित जातियों के लिए 15%आरक्षण)और अनु.342 (अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5% आरक्षण) में "आंबेडकर जी सबसे पहले देश के 52%ओबीसी के प्रतिनिधित्व की बात करते हैं।" अनु.340 का सरदार पटेल विरोध करते हुए प्रश्न करते हैं कि यह ओबीसी क्या है? एससी-एसटी की तो पहचान हो चुकी थी इसलिए उनके लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की व्यवस्था के साथ"राजनैतिक आरक्षण"(केवल लोकसभा व राज्य विधान सभाओं में केवल दस वर्ष के लिए,किंतु राज्य सभा और राज्य विधान परिषदों में नहीं)भी हो गया,किन्तु ओबीसी की जातियों की पहचान का कार्य पूर्ण नहीं हो पाया था,इसलिए अनु.340 की व्यवस्था दी गई थी,किंतु इस "अनुच्छेद के हिसाब से आयोग गठित न होने के कारण,हिन्दू कोड बिल पर राजेन्द्र और तिलक द्वारा धमकी ओर कैबिनेट वितरण में नेहरू द्वारा आंबेडकर के साथ भेदभाव(आंबेडकर योजना मंत्रालय लेना चाहते थे) आदि विषयो का उल्लेख करते हुए डॉ. आंबेडकर 1951में ओबीसी के खातिर मंत्रिपरिषद से इस्तीफा तक दे देते है।लेकिन दुर्भाग्य है कि ओबीसी आंबेडकर के योगदान और त्याग को नहीं समझ पाया और अभी भी नहीं समझ पा रहा है।नेहरू ने इस त्याग पत्र को डॉ.आंबेडकर को संसद में जानबूझकर पढ़ने नहीं दिया,क्योंकि ओबीसी और वंचित वर्ग को इस्तीफे का असली कारण पता चल जाता। बाद में उन्होंने अपने इस्तीफे का कारण प्रसार के माध्यम से संसद के बाहर रखा था।

आंबेडकर बनाम गांधी-गोलवलकर वैचारिकी/सामाजिक न्याय बनाम सामाजिक समरसता/जाति उन्मूलन बनाम जाति समरसता-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

  
भाग चार
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

दलितों और ओबीसी को अपने घरों में अदृश्य व काल्पनिक देवी-देवताओं की मूर्तियों,उनकी आरती की पुस्तकों,रामचरित मानस के स्थान पर बहुजन नायक की वैचारिकी से संबंधित सामग्री जैसे भारत का संविधान,कालेलकर आयोग(1955),बीपी मंडल आयोग (1980) की सिफारिशें (ओबीसी के लिए एससी-एसटी की तरह राजनैतिक आरक्षण, सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 27% आरक्षण प्रोन्नति में आरक्षण और बैक लॉग के आधार पर भर्तियां ) और पेरियार- ललई सिंह की "सच्ची रामायण" पढ़ना चाहिए।वर्ग विशेष के आधिपत्य के मंदिरों में कैद मिट्टी/पत्थरों की बेजान मूर्तियों के सामने खड़े होकर और दान पात्र में पैसा और सोना-चांदी डालकर अपनी मनोकामना पूरी होने,जन्म-पुनर्जन्म,स्वर्ग-नरक और पाप-पुण्य जैसे अंधविश्वास से बाहर निकल कर डॉ.आंबेडकर के मूलमंत्र/सूक्ति वाक्य "शिक्षित बनो,संगठित रहो और संघर्ष करो " पर चलने का साहस और विश्वास पैदा करो, क्योंकि ब्राम्हणवाद (ब्राम्हणों द्वारा ब्राम्हणों के लाभ के लिए निर्मित ब्राम्हण वर्चस्व की जन्म से लेकर मृत्यु तक और मृत्यु के बाद भी अवैज्ञानिक धार्मिक कर्मकांड,आडंबर,नाना प्रकार के व्रत और त्योहार मनाना,भूखे इंसान की जगह गाय/काले कुत्ते को रोटी खिलाना,हाथ और गले में काला धागा,हाथ की अंगुलियों में नाना प्रकार के महंगे पाषाण/रत्न जड़ित अंगूठियां पहनना,नजर न लगे इसलिए नवनिर्मित सुंदर मकान के मुख्य द्वार पर काला लंबा चुटीला या नजरौटा और हर शनिवार को घर में काले धागे में गुथे नीबू और हरी मिर्च लटकाना,माता-पिता और बुजुर्गों की सेवा और चरण स्पर्श न कर कुत्ते और गाय को पूड़ी पकवान खिलाना,गले लगाना और पैर पूजना,बेजान मूर्तियों के सामने धूप बत्ती जलाकर वायु प्रदूषण फैलाना,अदृश्य देवी-देवताओंं के अज्ञात जन्म दिन/जयंती के अवसरों पर और सावन माह भर गंगा नदी का गंदा पानी भरकर सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्राएं करना,खाली बाल्टी और बिल्ली द्वारा रास्ता काटना देखकर शगुन-अपशगुन की अवैज्ञानिक सोच और भय पैदा होना,बिना वैज्ञानिक आधार के ज्योतिषियों से भविष्य जानना,कालसर्प योग की मार को काटने के लिए अनुष्ठान करवाना,दशहरा पर्व पर नीलकंठ पक्षी के दर्शन को शुभ मानना,दीपावली पर बदबू फैलाती छछूंदर के दर्शन और धनतेरस पर खरीदारी को शुभ मानना,खून पसीने से कमाए गए आपके धन से रोजी-रोटी चलाने वालों से आशीर्वाद लेना,गाड़ी आदि खरीदने और दुल्हन को प्रथम बार मंदिर में जाकर भगवान के ठेकेदारों द्वारा फूलमाला पहनाना और तिलक/शुभांकर लगवाना,मुंडन के नाम पर बच्चों का मुंडन किसी अदृश्य देवी-देवता के द्वार या स्थान पर ही करवाना और तिलक लगवाना,डॉक्टर से उपचार न कराकर भूत-चुड़ैल उतरवाने के चक्कर में ओझाओं/तांत्रिकों के चंगुल में फंसना, काल्पनिक कथा-कहानी जैसी व्यवस्था जिसमें मानव समाज में स्थापित जन्म से श्रेष्ठ ब्राम्हण स्वयं को "भू-देवता" और अन्य को नीच बनाता है) को सबसे ज्यादा आक्सीजन ओबीसी ही देता है। जिस दिन ओबीसी ऑक्सीजन देना बन्द कर देगा,उसी दिन ब्राम्हणवाद की सांसे बन्द हो जाएंगी और वह समाज रूपी सड़क पर दम तोड़ता नजर आयेगा,लेकिन धर्मांध ओबीसी मानने को तैयार ही नही है।अदृश्य/,काल्पनिक भयवश वह इसी व्यवस्था का आदी/गुलाम सा बन चुका है। चाहे कोई संविधान को ख़त्म करे या उसके आरक्षण पर तरह-तरह से वार (क्रीमीलेयर,200 पॉइंट्स रोस्टर प्रणाली के स्थान पर 13 पॉइंट्स रोस्टर प्रणाली,दूसरे प्रांत में आरक्षण न मिलना,परीक्षा के किसी स्तर पर आरक्षण सुविधा लेने पर सामान्य वर्ग की कट-ऑफ से अधिक या बराबर मेरिट होने पर केवल आरक्षित वर्ग में ही चयन, अनारक्षित और आरक्षित वर्गों का साक्षात्कार अलग अलग समय करवाकर आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को कम अंक देना जिससे उनकी सामान्य वर्ग में चयन होने की संभावनाएं तो खत्म हो या कम हो जाएं,लिखित परीक्षा के बाद अनारक्षित और आरक्षित सीटों के गुणक में अभ्यर्थियों को बुलाना जिसमें आरक्षित वर्ग की कट-ऑफ सामान्य वर्ग की कट-ऑफ से अधिक होने के बावजूद साक्षात्कार में शामिल न करना,प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त करना और सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को 10% आरक्षण और उसकी 10%की गूढ़ गणित को समझना बहुत जरूरी है) कर कटौती/अतिक्रमण करे। अपने हितों पर पड़ने वाले दूरगामी दुष्प्रभावों/परिणामों को वह न तो समझ पा रहा और न ही मूल्यांकन कर पा रहा हैं,क्योंकि उसे धर्म-ग्रंथो के कर्मकांडो के अलावा"संविधान और आयोग की सिफारिशें पढ़ने,समझने का न तो समय है और न ही ललक या जिज्ञासा।"अंत में अवैज्ञानिकता पर आधारित भारत की सामाजिक/धार्मिक सरंचना/अवधारणाओं का विश्व के सर्वाधिक विकसित देशों से तुलना कर पेरियार रामा स्वामी की वैचारिकी का रेखांकित किया जाना अपरिहार्य जैसा लगता है:-
✍️"इंग्लैंड में कोई ब्राम्हण/शूद्र/अछूत/नीच पैदा नहीं होता!रूस में वर्णाश्रम/धर्म/भाग्य जैसी कोई चीज नहीं  है।अमेरिका में लोग ब्रम्हा के मुख/भुजाओं/उदर/पैर से पैदा नहीं होते।जर्मनी में भगवान खाना नहीं खाते और तुर्की में शादी नहीं करते।फ्रांस में भगवान करोड़ों के जेवरात/हीरे/मोती नहीं पहनते।इन सभी अति विकसित देशों के लोग विद्वान बुद्धिमान और वैज्ञानिक होते हैं। वे लोग आत्म-सम्मान खोना नहीं चाहते हैं। इसीलिए उनका ध्यान अपने अधिकारों और देश की सुरक्षा की ओर होता है। तो फिर!हमारे देश के लोगों के लिए ही अदृश्य करोड़ों बर्बर देवी -देवता और धार्मिक हठधर्मिता क्यों?
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Monday, May 30, 2022

उधारी मरीज-सुरेश सौरभ

 लघुकथा
  
-सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी पिन-262701
मो-7376236066

       वह डॉक्टर के सामने पड़ी बेन्च पर एकदम लिथर गया। जोर-जोर से हाँफते हुए फटी-फटी आँखों से उसके साथ आया, तीमारदार हाथ जोड़कर बोला-डॉ. साहब बचा लीजिए कल से उल्टी-दस्त से परेशान है। कई जगह दिखाया पर कोई फायदा नहीं मिला। डॉक्टर साहब ने तुरन्त दूसरा पेशेन्ट छोड,़ उसके मरीज पर दया दृष्टि डाली।... फौरन इन्जेक्शन और दवा दी। 
     कुछ घड़ी बाद मरीज कुछ सुकून महसूस कर रहा था। डॉक्टर ने कहा-‘‘इन्हें ले जाओ। अब ये ठीक हो जाएंगे, जो दवाएँ दीं है, उसे समय से खिलाते रहना। अगर फिर भी कोई परेशानी लगेे तो ले आना।’’
    अब फीस देने की बारी थी,पर डॉक्टर के माँगने से पहले ही तीमारदार दीनता से हाथ जोड़कर बोला-साहेब! पैसे जल्दबाजी में घर ही भूल गया। आप भरोसा रखें। कल इधर से निकलूँगा तो दे दूँगा।’’
      डॉक्टर ने दया भाव से कहा-ठीक है भाई कोई बात नहीं।
      मरीज अपने तीमारदार के साथ चला गया।
      तीसरे दिन वह मरीज डॉक्टर साहब  के क्लीनिक के सामनेे, साइकिल चलाते हुए चैतन्य दषा में निकला। उसे देख डॉक्टर साहब को अपनी फीस याद आई और वह वादा भी जो उन्हें टूटता हुआ दिखने लगा था।
      आठवें दिन। वह उधारी मरीज डॉक्टर साहब को, एक पार्टी में दिखा। डॉक्टर साहब जब उसके सामने आ गये तो उसने डॉक्टर को फौरन नमस्कार किया, उनके बोलने के पहले ही वह बोल पड़ा-क्या बताएँ डॉक्टर साहब! अप की दवा से कोई फायदा नहीं हुआ? बड़ा इलाज कराया, तब कहीं फायदा हुआ।’’ डाक्टर साहब हतप्रभ थे। फौरन उससे, परे हट गये। उन्हें सुदर्शन की बाबा भारती वाली कहानी याद आ रही थी,पर अब डाकू किस-किस रूप में आएंगे। यह सोचते हुए व्यथित थे। अब तक पार्टी की शानदार रौनक और वहाँ का सौंदर्य बोध उन्हें प्रफुल्लित कर रहा था, पर अब वही उन्हें हृदय में टीस दे रहा था। अतंर्मन को उदासी के भंवर में धकेल रहा था।

क्या संविधान के भविष्य को लेकर डॉ.आंबेडकर के मन में उपजी तत्कालीन आशंकाएं आज पुष्ट होती दिख रही है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
      भारत के सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और भौगोलिक क्षेत्रों के विविध पहलुओं और व्यापक संदर्भों के दृष्टिगत संविधान की रचना करते समय डॉ.आंबेडकर की कुछ स्वाभाविक आशंकाएं और चिंताएं थी जैसे कि " यदि संविधान गलत लोगों के हाथों में पड़ गया तो इसका दुरुपयोग हो सकता है,जिसका मतलब यह है कि यदि सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों जिसे वह स्टेट कैपिटलिज्म कहते थे, को खत्म कर दिया गया तो संविधान का जो लड़ाकू/संघर्षशील गणतंत्र है, वह स्वतः पंगु या कमजोर हो जाएगा।" वर्तमान राजनीतिक सत्ता के "लोकतांत्रिक सह तानाशाही "के दौर में एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग के चिंतनशील वर्ग को डॉ.आंबेडकर की इन आशंकाओं की गंभीरता और निहितार्थ को समझने और ग्रामीण-शहरी बहुजन समाज को समझाने के सतत प्रयास जारी रखने की जरूरत है।
      भारत के हर जिम्मेदार/संवेदनशील नागरिक को संविधान की प्रस्तावना को अच्छी तरह पढ़ना और समझना बहुत जरूरी है। इसकी प्रस्तावना पं. नेहरू और डॉ.आंबेडकर का एक संयुक्त उपक्रम था। इस प्रस्तावना में भारत का मिशन स्टेटमेंट है कि इस संविधान का लक्ष्य क्या है, जैसा कि हर संविधान का होता है। उस वक्त दुनिया दो भागों में बंट चुकी थी। एक कम्युनिस्ट- सोशलिस्ट और दूसरा पूंजीपति वर्ग। प्रस्तावना में समाजवाद जैसे शब्द का उल्लेख नहीं था जिसे 1977 में जोड़ा गया। इसमें लोकतान्त्रिक शब्द का इस्तेमाल हुआ है कि संविधान का लक्ष्य भारत को एक " संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य " बनाना है।
      ब्रिटिश सिविल सर्वेंट मेटकॉफ का जन्म कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता ईस्ट इंडिया कंपनी में बड़े अधिकारी थे। मेटकॉफ भारत में बहुत दिनों तक रहे, बहुत घूमे, लिखे और भारत के एक्टिंग गर्वनर जरनल भी बने। उनका एक प्रसिद्ध कथन है कि "भारत के गांव अपने आप में एक स्वतंत्र गणतांत्रिक इकाई हैं।" डॉ.आंबेडकर मेटकॉफ को उध्दृत करते हुए अपने उद्घाटन भाषण में भारतीय संविधान के लक्ष्य/उद्देश्य को और ज्यादा व्याख्यायित करना चाहते थे कि किस तरह से यह जो संवैधानिक गणतंत्र है वह गांव के गणतंत्र को तोड़ेगा। गांव का गणतंत्र मतलब भारतीय सामंतवाद जिसे अंग्रेज "इंडियन सर्फडम " (भारतीय दासता) कहते थे।
     आंबेडकर और नेहरू दोनों की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई थी। इसलिए उन्हें पता था कि दुनिया में सामंतवाद को पूंजीवाद ने ही तोड़ा है। डॉ.आंबेडकर ने मेटकॉफ का जिक्र इसलिए भी किया, क्योंकि गांधी जी कहते थे कि भारत की आत्मा गांव में बसती है। इसलिए वह सारा तंत्र जैसे का तैसे बना रहे। डॉ.आंबेडकर को मालूम था कि गांव का सामाजिक ढांचा घोर अलोकतांत्रिक है, जिसे तोड़ना बहुत जरूरी है और इस व्यवस्था को पूंजीवाद ही तोड़ सकता है,लेकिन उस समय पूंजीवाद काफी घृणा का शब्द बन चुका था। तत्कालीन पत्रकार,लेखक,छात्र और आंदोलनकारी लगभग सारे लोग कम्युनिस्ट हो गए थे।यहां तक कि नेहरू भी कई बार कम्युनिज्म की तारीफ कर उसके पक्षधर दिखाई पड़ते थे। तो उस समय के शब्द पूंजीवाद को दोनों महापुरुषों ने "डेमोक्रेटिक" कहकर ऐसा आवरण पहना दिया कि लोग उन पर आरोप न लगाएं कि वे उस पूंजीवादी व्यवस्था लाने के पक्षधर हैं जिसे कम्युनिस्टों ने शोषण की व्यवस्था बता रखा था। इसीलिए मेटकॉफ के ज़िक्र के बगैर डॉ.आंबेडकर और उनके संविधान को समझना लगभग असंभव सा लगता है।
      लोकतंत्र/डेमोक्रेसी शब्द सन 1950 के दौर में पूंजीवादी दुनिया के लिए इस्तेमाल होता था। इसका मतलब यह है कि "जहां डेमोक्रेसी है,वहां पर पूंजीवाद है।" जहां पर समाजवाद है, वहां पर वर्किंग क्लास की तानाशाही है। इसी दर्शन के साथ डॉ.आंबेडकर और पं.नेहरू ने भारतीय गणतंत्र को एक "डेमोक्रेटिक रिपब्लिक" बनाने का लक्ष्य रखा था। जब इसका मसौदा पूरा हो गया जिसे डॉ.आंबेडकर ने खुद ही बनाया था,फिर 5 अप्रैल,1948 को इस पर अनुच्छेद दर अनुच्छेद गहन बहस शुरू हुई। बहस इसलिए हुई कि संविधान सभा अगर इसे आम सहमति से अनुमोदित करती है तो यह संविधान भारत के लिए लागू हो जाएगा। इस बहस के शुरू होने से पहले डॉ.आंबेडकर ने उद्घाटन भाषण दिया था, तब लोगों को उम्मीद थी कि डॉ.आंबेडकर यूरोपियन या अमेरिकन दर्शनशास्त्रियों को उध्दृत करेंगे जबकि उन्होंने अपने इस उद्घाटन भाषण में चार्ल्स मेटकॉफ को ही उद्धरित किया था।
      भारत देश अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस की तरह बने,एक आधुनिक, वैज्ञानिक, लोकतांत्रिक और पूंजीवादी देश बने। मगर ड्राफ्ट पेश करने के पांच-छः दिन बाद संघ परिवार का इंग्लिश में प्रकाशित मुखपत्र "ऑर्गेनाइजर" ने संविधान को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इसमें कहीं भारतीयता दिखाई नहीं पड़ती है। यही से संघ की भारतीयता एक नई बहस का मुद्दा बन जाता है। अब सवाल यह है कि उस समय आरएसएस की दृष्टि में "भारतीयता" शब्द का क्या मतलब रहा होगा ?
आरएसएस की दृष्टि में "भारतीयता" :
      "भारत में एक हिंदू धर्म है,उसके भीतर ऊंच-नीच की विविधता भरी सामाजिक जाति व्यवस्था है और उसमें कुछ अस्पृश्य भी माने जाते हैं।उसमें एक ऐसी संस्कृति है, जहां दलित मूंछ नहीं रख सकता,सवर्णों के सामने चारपाई पर नही बैठ सकता।केरल राज्य में दलित महिलाओं को स्तन ढकने पर ब्रेस्ट टैक्स देना पड़ता था, विवाह समारोहों में दलित दूल्हा पगड़ी बांधकर और घोड़े पर बैठकर बारात नही निकाल सकता था,नए कपड़े नहीं पहन सकता था,दलित महिलाएं सोने के गहने नहीं पहन सकती थीं, जिसके बहुत सबूत डॉ.आंबेडकर ने प्रस्तुत किए जिसकी बानगी 21वीं सदी में भी दिखाई देती है। ब्राम्हणवादी व्यवस्था का प्रबल समर्थक संघ समय-समय पर कहता रहा है कि डॉ.आंबेडकर द्वारा रचित संविधान उनको स्वीकार्य नहीं है और आजादी के बाद से उन्होंने इस संविधान को कभी मन से माना भी नहीं।इसलिए डॉ.आंबेडकर को उस समय यह लगना स्वाभाविक था कि "कहीं यही लोग,जो आज हमारा बनाया संविधान खारिज़ कर रहे हैं,अगर भविष्य में कभी सत्ता में आ गए तो संवैधानिक व्यवस्था का क्या होगा ?"आज के राजनीतिक सत्ता के दौर में उनकी वही आशंका लगभग सच होती दिखाई पड़ रही है।
        अब पूंजीवाद को थोड़ा और व्यापक संदर्भ में समझना होगा। अक्टूबर 1951 में डॉ.आंबेडकर ने प्रथम लोकसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा पत्र लिखा। उसका शीर्षक था: शेड्यूल कास्ट इमैंसिपेशन मैनिफेस्टो (अनुसूचित जाति मुक्ति घोषणा पत्र)। यह डॉ.आंबेडकर की एकमात्र ऐसी रचना है, जिसमें उन्होंने शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब्स के टाइटिल से उनकी मुक्ति का दर्शन दिया है। आपको अजीब सा लगेगा कि उस दर्शन में उन्होंने कहा है कि "जहां-जहां सरकारी कंपनियां जरूरी होंगी, वहां सरकारी कंपनियां होंगी और जहां प्राइवेट जरूरी होंगी, वहां हम प्राइवेट संस्थाओं को भी अवसर देंगे।"
        पं.नेहरू अच्छी तरह समझ रहे थे कि डॉ.आंबेडकर देश में क्या कहना और करना चाह रहे हैं। उन्हें भी यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई थी कि भारतीय राज्य को भी व्यवसाय में उतरना पड़ेगा, राज्य अपने पैसों के बलबूते ही नया भारत बन पाएगा। पूँजीपतियों के धन से भारत का गणतंत्र पुरानी व्यवस्था से लड़ नहीं पाएगा। डॉ.आंबेडकर को यह भी मालूम था कि पूंजीवाद ने दुनिया भर में महज सामंतवाद को ही नहीं खत्म किया है, बल्कि सामंती संस्कृति को भी खत्म किया है। भारत में जाति व्यवस्था संस्कृति का गम्भीर रूप ले चुकी है, तो शायद "पूंजीवाद भारत की जाति व्यवस्था को भी खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा!"
         इसमें बाकी चीजें तो अच्छी हुईं, लेकिन नेहरू जी, इंदिरा गांधी जी और बाद में राजीव गांधी के समय में प्राइवेट पूंजीवाद को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया। बाद में नरसिंह राव, मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने प्राइवेट कैपिटलिज्म को दिल खोलकर मौका दिया। आर्थिक सुधार आने के बाद देश में एक प्रकार की आर्थिक क्रांति हुई, काफी अनियोजित शहर और उद्योग-धंधे बढ़ गए। इस व्यवस्था से गांव के लोगों को शहर आने का मौका मिला तो भारत में हलवाही प्रथा खत्म हो गई, उत्तर भारत से बैल खत्म हो गए और दलित, जमींदारों के दरवाजों से मुक्त हो गए।
        सन 1990 के पहले की याद करें तो जितने आधुनिक कॉरपोरेट ओएनजीसी, इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, एनटीपीसी, भेल,बेल,गेल, सेल जैसे सार्वजनिक उपक्रम बने, वे पूरी तरह से अमेरिकी पूंजीवादी पैटर्न पर बनी हैं। आईआईटी और एम्स भी उसी पैटर्न पर बने हैं। इसे स्टेट कैपिटलिज्म कहा जाता है, जिसे खत्म करके यानी सरकारी/सार्वजनिक कंपनियों/उपक्रमों को खत्म करके ओबीसी और एससी-एसटी को समुचित प्रतिनिधित्व देने वाली संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर ही नही,बल्कि उसे धीरे-धीरे खत्म किये जाने की साजिशपूर्ण योजना है और उस दिशा में आज आरएसएस नियंत्रित राजनीतिक सत्ता के दौर में प्रयास तेजी से जारी हैं। डॉ.आंबेडकर की चिंता थी कि यदि देश की संवैधानिक सत्ता गलत हाथों में पड़ गयी, तो इसका दुरुपयोग हो सकता है!आज लोकतांत्रिक तानाशाही के दौर में वही हो रहा है कि स्टेट कैपिटलिज्म को खत्म कर दो तो भारतीय संविधान का जो लड़ाकू गणतंत्र है, वह स्वतः पंगु या कमजोर हो जाएगा और पश्चिमी सभ्यता की तरफ तेजी से बढ़ रहे भारत की गति कमजोर हो जाएगी और एक बार फिर वही ऊंच-नीच और छुआछूत पर आधारित सड़ी-गली सामाजिक जाति व्यवस्था की शायद वापसी हो जाए!🙏
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Tuesday, May 24, 2022

इंजन-सुरेश सौरभ

   (लघुकथा)  

-सुरेश सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर-खीरी पिन-262701
मो-7376236066
      लाठी के पीछे का सिरा वह अंधा बूढ़ा पकड़ता, आगे का, वह काली मटमैली बुढ़िया पकड़े हुए चलती। दोनों भीख मांगते। सारे शहर में वह दया के पात्र थे, लिहाजा उनकी  झोली रोज भर जाया करती थी। 
        एक दिन उसकी पार्टनर बुढ़िया मर गई। 
       अब वह दूसरे शहर में चला गया । अब उसकी आंखों की ज्योति लौट आई। वह अकेले भीख मांगता,पर पहले जैसी आमदनी नहीं थी। 
    अब वह पहले जैसे इंजन की तलाश कर रहा था, और उसे अपने साथ, तीसरे शहर ले जाकर, अपने काम को बेहतर तरीके से पटरी पर लाना चाह रहा था। 
...

प्यार का एहसास-विकास कुमार

   कविता   

विकास कुमार
अन्छा दाउदनगर, औरंगाबाद बिहार
कभी हमारी मुलाकात हो या न हो बस मेरा हर बात याद रखना,
जिस दिन तुम मेरे लिए तड़पी थी बस ओ रात याद  रखना।

कल को मेरी चेहरा तुम्हे याद हो ना हो बस फोटो साथ रखना।
चाहे हम जहाँ भी रहे जिस हाल में रहे बस मुझे न तुम परखना।।

मैं अगर पागल भी हो जाऊ, तो तुम मुझे बस पागल मत कहना।
मुझे देखकर तुम्हे दर्द भी हो, तो तुम मुझे भूलकर भी सहना।।

मैं तो टूट के बिखर गया हूं, अब न हो पाता  मुझे कोई बहाना।
इस दुनिया भरी बाजार में तुम्हे,  मिल जायेंगे भले हजार दीवाना।।

        ....

Monday, May 23, 2022

समानता, स्वतन्त्रता,निष्पक्षता, निर्विवादिता और बंधुता के पर्याय : डॉ. भीमराव आंबेडकर : एक निर्भीक - अपराजेय नायक-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी

            डॉ भीमराव आंबेडकर को जब संविधान-निर्माण की ज़िम्मेदारी दी गई तो वहां उन्होंने भारत के सबसे पिछड़े और वंचित समाज जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक और महिलाएं भी शामिल हैं, के सभी प्रकार के हितों का सबसे ज्यादा ख्याल रखा,लेकिन किसी गैर-वंचित वर्ग या समुदाय का उन्होंने ज़रा भी नुकसान होने नहीं दिया और न ही किसी प्रकार का वैरभाव या प्रतिक्रियावादी नज़रिया परिलक्षित होने दिया, यह हमारे संविधान का सबसे महत्वपूर्ण, खूबसूरत और सराहनीय पक्ष है। इसमें किसी को तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए कि यदि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश के संविधान निर्माण की जिम्मेवारी किसी सवर्ण समाज के व्यक्ति के नेतृत्व में दी गयी होती तो ऐसा हरगिज नहीं हो पाता। लोकतंत्र में संख्या बल बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है। अशिक्षित-गरीब समस्त बहुजन समाज को एक समान वोट का अधिकार दिलाने में डॉ.आंबेडकर का अद्वितीय योगदान रहा और इसके लिए उन्हें संविधान सभा मे निर्भीकतापूर्वक खड़े होकर कड़ा संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने खुद चुनाव लड़ा,भले ही वह हार गए। देश का एक बड़ा अभिजात्य वर्ग नहीं चाहता था कि डॉ.आंबेडकर जैसा उच्च शिक्षित,विधि वेत्ता,अर्थशास्त्री और देश की सामाजिक जाति व्यवस्था की ऊँच-नीच के मर्म को समझने और उसका समाधान निकालने की समझ वाला संविधान सभा में पहुंचें! डॉ आंबेडकर के संविधान सभा में पहुंचने की भी एक कहानी है। उसके पूर्व वह लगातार शोषित और वंचित वर्ग को राजनीतिक सत्ता के मायने और महत्व को समझाते रहे अर्थात आशय स्पष्ट था कि डॉ.आंबेडकर राजनीतिक सत्ता को ही सभी प्रकार की प्रगति का मूल मानते थे। इस देश का दलित और शोषित वर्ग देश का हुक्मरान बने,उसके लिए उन्हें समान मताधिकार और लोकसभा-विधानसभाओं में आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था की। उन्हें पता था कि भारत जैसे जातिवादी और धार्मिक कट्टरपंथी देश में वंचितों का हक़ यहां के मनुवादी संस्कृति के लोग आसानी से देने वाले नहीं हैं! इसके लिए उन्होंने तमाम देशों के संविधानों का गहन और सूक्ष्म अध्ययन कर देश मे निष्पक्षतापूर्वक    समतावादी व्यवस्था स्थापित करने के उद्देष्य से महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रावधानों की व्यवस्था की।
             " शिक्षित बनो! संघर्ष करो! संगठित रहो!" के सूत्र द्वारा डॉ.आंबेडकर की दूरदृष्टि राजनीतिक सत्ता की तरफ ही थी। इसको बार-बार बोलकर वह अपनी सोयी वंचित-शोषित जनता की शक्ति का आह्वान करना चाहते थे कि शिक्षा, संघर्ष और संगठन को माध्यम बनाकर इस देश की बहुजन आबादी, जो कि पहले से ही यहाँ की हुक्मरान कौम रही है, अब संख्या बल के आधार पर लोकतंत्र में राजनीतिक सत्ता को हासिल करे। यद्यपि बीएसपी संस्थापक कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में खास तौर से डॉ.आंबेडकर की इस सैद्धांतिकी को व्यावहारिक धरातल पर सच साबित करके दिखाया। उत्तर भारत मे दलित राजनीति की दस्तक भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कोई सामान्य घटना नहीं है।
               बावजूद इसके, अफसोस और दुख की बात है कि मनुवादी व्यवस्था से लड़-भिड़कर डॉ.आंबेडकर के अथक प्रयत्नों से प्राप्त संवैधानिक अधिकारों के सम्बंध में अभी तक यहां का दलित-आदिवासी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यक और महिला समुदाय सही अर्थों में समझ हासिल नहीं कर पाया है। यहां का बहुजन समाज अपनी धार्मिक और आर्थिक गुलामी के चलते वोट की अहमियत को पहचानने में अभी भी गुमराह और असफल होता रहता है। 2019 लोकसभा चुनाव और 2022 यूपी विधान सभा चुनाव में ओबीसी,अनुसूचित जाति और जनजातियों को डॉ.आंबेडकर के अथक प्रयासों से हासिल किए गए राजननैतिक मताधिकार को प्रति माह मिल रहे पांच किलो अनाज और पांच सौ रुपये किसान सम्मान निधि के स्वार्थ में मनुवादी राजनीतिक शक्तियों के पास गिरवीं रखने में अपने महानायक की त्याग-तपस्या की बलि देने में कोई संकोच तक नही हुआ। इस लालच भरे राजनैतिक कदम से डॉ.आंबेडकर द्वारा दिलाई गयी मताधिकार और लोकतांत्रिक शक्ति तात्कालिक रूप से कमज़ोर होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। एक तरह की इस चुनावी रिश्वतखोरी के दूरगामी दुष्प्रभावों से अनभिज्ञ बहुजन समाज में तेजी से उपजती आर्थिक गुलामी की संस्कृति की वजह से डॉ.आंबेडकर की राजनीतिक विचारधारा पर राजनीति करने वाले दलों के प्रति विश्वास और आस्था जैसा संदेश काफी पीछे जाता हुआ प्रतीत हो रहा है।
                 डॉ.आंबेडकर ने अपने अंतिम समय में बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर ऐतिहासिक धार्मिक और सांस्कृतिक क्रांति का सूत्रपात किया था। इसके माध्यम से वह इस देश को प्रबुद्ध अर्थात ज्ञान आधारित भारत बनाना चाहते थे। उनका यह बहुत बड़ा सपना था जो उनके असमय परिनिर्वाण के चलते अधूरा रह गया। इसके लिए देश के शोषित और वंचित समुदाय को अभी बहुत काम करना होगा। आंबेडकरी मिशन-आंदोलन को और मजबूत करना होगा। कांशीराम के पैदल और साईकिल यात्रा रूपी संघर्ष से गांव-गांव तक पहुंचे इस आंदोलन को समय-समय पर जनजागरण के माध्यम से जिंदा रखना होगा। आंबेडकर के "पे बैक टू द सोसाइटी " के सिद्धांत को अपनाते हुए ज्यादा-से-ज्यादा संख्या में पढ़े-लिखे और नौकरी- पेशा में लगे नौजवानों, महिलाओं और अवकाशप्राप्त अनुभवी लोगों को आगे आना होगा। उन्हें डॉ आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी के कारवां का नेतृत्व संभालना होगा। बहुजन समाज के अंदर की पितृसत्ता को डॉ.आंबेडकर खतरनाक मानते थे। इसलिए एक लड़ाई उसके लिए भी समानांतर चलती रहनी चाहिए। कुल मिलाकर वंचित समाज को अपनी सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक - सांस्कृतिक-आर्थिक ज़मीन को सुदृढ़ बनाकर राजनीतिक ताकत को नए सिरे से हासिल करना होगा। इसके बाद ही तमाम तरह के शोषण-उत्पीड़न व भेदभाव से मुक्त समानता, स्वतन्त्रता और बंधुता पर आधारित समतामूलक समाज बनने का सपना सच होता दिख पाएगा। वास्तव में इस बड़े काम को संभव कर दिखाने के बाद इस देश का बहुजन समाज पूरी दुनिया को यह बताने में गौरवान्वित महसूस कर सकता है कि डॉ.आंबेडकर सही मायनों में "ज्ञान के प्रतीक" और "विश्व रत्न" हैं।
           आइए!जानते हैं कि डॉ.भीमराव आंबेडकर के महान और अतुलनीय व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में दुनिया के विकसित देश और उनके प्रमुख किस प्रकार सोचते हैं:
अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा : यदि डॉ.भीमराव आंबेडकर हमारे देश मे पैदा हुए होते तो हम उन्हें " सूर्य" की उपाधि से नवाज़ते।
साऊथ आफ्रिका के राष्ट्रपति नेल्सेन मंडेला: भारत से लेने लायक एक ही चीज़ है, वह है, डॉ.आंबेडकर द्वारा रचित संविधान।"
हंगरी : " हम अपनी लड़ाई डॉ.आंबेडकर की क्रांति के आधार पर लड़ रहे हैं।"
नेपाल: "हमारा आने वाला संविधान डॉ आंबेडकर के नेतृत्व में लिखा गया भारतीय संविधान पर आधारित होगा।"
पाकिस्तान: "अगर हमारे देश में डॉ.आंबेडकर रहे होते तो हमें धार्मिक कट्टरता मिटाने में आसानी होती।
इंग्लैण्ड के गवर्नर जनरल (आज़ादी से पहले): "अगर भारत को पूर्ण स्वतंत्रता चाहिये तो डॉ. आंबेडकर जैसे अनुभवी, निष्पक्ष राजनीतिज्ञ और समाजशास्त्री को संविधान सभा में होना ही चाहिये।"
जापान: " डॉ आंबेडकर ने मानवता की सच्ची लड़ाई लड़ी थी।" (जापान में डॉ.आंबेडकर की मूर्ति लगाई जा रही है)
कोलंबिया यूनिवर्सिटी: " हमें गर्व है कि हमारी यूनिवर्सिटी में एक ऐसा छात्र पढ़ा जिसने भारत का संविधान लिखा।"(यूनिवर्सिटी में मूर्ति स्थापना पर यूनिवर्सिटी प्रमुख)
                दुनिया के लगभग 100 से अधिक देशों ने डॉ.आंबेडकर की बहुआयामी वैचारिकी को अपनाया है, किंतु जो सम्मान उन्हें दुनिया के अन्य विकसित देशों ने दिया वह सम्मान उन्हें अपने देश में मिलने में काफी देर कर दी गयी, क्योंकि भारत में जाति और धर्म की व्यवस्था आज भी मानवतावाद पर हावी है जो व्यक्ति के योगदान को नहीं,बल्कि जाति व धर्म को ज्यादा महत्व देती है। एक विश्वरत्न को कथित श्रेष्ठ जातिवादियों की छोटी मानसिकता ने जाति से जोड़कर उन्हें छोटा साबित करने में कोई कोर-कसर नही छोड़ी है! डॉ आंबेडकर एक व्यक्ति नही है, वह एक  छोटी-मोटी एकेडमिक संस्था जैसी है जिसमे समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र,अर्थशास्त्र,पत्रकारिता और कानून जैसे विषयों के गूढ़ रहस्यों के अध्ययन और अध्यापन की अपार संभावनाएं छुपी हुई हैं। उनके व्यक्तित्व को संविधान निर्माता और दलितों के मसीहा तक सीमित करने की मनुवादियों की साज़िश को समझना और समाज को समझाना होगा। यदि डॉ आंबेडकर किसी ब्राम्हण समाज मे पैदा हुए होते तो यही डॉ.आंबेडकर घर-घर किसी देवी-देवता से कम पूजनीय नही होते। कांश! डॉ आंबेडकर जी कुछ वर्षों और जीवित रहे होते तो एससी - एसटी और ओबीसी की सामाजिक,शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन दिखाई देता और विविध संकटों के दौर से गुजरती बहुजन समाज की राजनीतिक दुर्दशा भी नही देखनी पड़ती।

Friday, May 06, 2022

राज्यसभा और विधान परिषदों में भी लागू हो एससी और एसटी के लिए आरक्षण और ओबीसी के लिए भी हो एससी-एसटी की तरह राजनीतिक आरक्षण-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
          वर्तमान में लोकसभा और राज्य की विभिन्न विधान सभाओं में एक-चौथाई सदस्य एससी व एसटी वर्ग के हैं, लेकिन राज्यसभा और राज्यों की विधान परिषदों में उनका प्रतिनिधित्व (आरक्षण) नहीं है। यदि राज्यसभा और विधान परिषदों में भी होता आरक्षण तो  एससी-एसटी को मिल जाता संविधान सम्मत उचित प्रतिनिधित्व! आज के नवउदारवादी युग में वंचितों के हितों की रक्षा तभी हो सकेगी जब देश की व्यवस्था के हर स्तर पर उनका आनुपातिक या समुचित प्रतिनिधित्व हो। मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी को भी एससी-एसटी की तरह राजनीतिक आरक्षण अर्थात लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में समुचित आरक्षण  के साथ नौकरियों में प्रोमोशन में भी आरक्षण मिलना चाहिए। ओबीसी और एससी -एसटी वर्ग को संसद के उच्च सदन (राज्यसभा) और राज्यों की विधान परिषदों में भी आरक्षण को सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने की नई बहस में शामिल किया जाना चाहिए। ओबीसी और एससी-एसटी आधारित वोट बैंक की राजनीति करने वाले सभी दलों और ओबीसी- एससी-एसटी के सभी प्रतिनिधियों (सांसदों-विधायकों) को डॉ.आंबेडकर की सामाजिक न्याय की इस अधूरी पड़ी लड़ाई को सामूहिक तरीके से राजनीतिक स्तर पर लड़ने की जरूरत है।
             लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में लगभग 25प्रतिशत सदस्य एससी-एसटी हैं,फिर भी दलितों और आदिवासियों के एक बड़े वर्ग का मानना कि उन्होंने सामाजिक हितों की रक्षा करने में उतनी हिम्मत और शिद्दत से प्रयास करते हुए नही दिखाई दिए जितनी डॉ आंबेडकर ने संविधान बनाते समय अपेक्षा की थी। यह भी कहना अतिशयोक्ति नही होगी वे अक्षम और प्रभावविहीन सिद्ध हुए। उनमें से कुछ ही एससी और एसटी से जुड़े मुद्दे उठाते रहे हैं और कई इन वर्गों की बदहाली के प्रति चिंतित और संवेदनशील हैं। सबसे ज्यादा सोचनीय विषय यह है कि लोकसभा व विधानसभाओं के एससी-एसटी प्रतिनिधियों की आवाज उनकी ही पार्टियों के संसदीय और विधायक दलों में नहीं सुनी जाती है। एक रणनीति के तहत "जितनी चाबी भरी राम ने,उतना चले खिलौना" की तर्ज़ पर उनकी भूमिका बहुत सीमित कर दी जाती है। जब एससी-एसटी वर्ग के प्रतिनिधि पर्याप्त अनुभव प्राप्त कर लेते हैं और वे समझने लगते हैं कि एससी - एसटी की बेहतरी के लिए और कौन से कदम उठाए जाने चाहिए, तब उन्हीं की पार्टियां उन्हें उम्मीदवार बनाना तक उचित नहीं समझती हैं। उनकी जगह नौसिखियों और पद लोलुपों को नामांकित करती हैं जिन्हें नए सिरे से चीजों को सीखने और समझने में ही काफी समय निकल जाता है। हर राजनीतिक दल सामान्यतः आरक्षित सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों को खड़ा करने से परहेज करती हैं जो मजबूती से और बिना किसी लाग-लपेट के एससी-एसटी वर्ग के अधिकारों के पक्ष में आवाज उठाते हैं। राज्यसभा और विधानपरिषदों में उनका आरक्षण नही होने के कारण उच्च (स्थायी) सदनों में एससी-एसटी की उपस्थिति ना के बराबर रहती है। इसलिए एससी-एसटी वर्ग की पूरी संसद और राज्यों के विधानमंडलों में 25 प्रतिशत भागीदारी नहीं हो पाई है।
           अब व्यावहारिक समाधान यह है कि सभी राजनैतिक दलों पर यह दबाव बनाया जाए कि वे लोकसभा और विधानसभा की आरक्षित सीटों पर ऐसे उम्मीदवारों को खड़ा करें जो एससी व एसटी के अधिकारों के पक्ष में दृढ़़ता के साथ खड़े हो सकें। इसके लिए एससी और एसटी को लामबंद करना होगा और उनमें जनजागृति फैलाने के लिए कैडर कैम्पों के माध्यम से सतत संवाद और संपर्क स्थापित करने के समुचित प्रयास करने होंगे। दलितों को एकजुट करने के प्रयासों में आने वाली समस्याओं के कई उदाहरण हैं, जैसे अनुसूचित जाति- जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, अनुसूचित जातियों के लिए विशेष घटक योजना और आदिवासी उपयोजना के विरोध के खिलाफ वंचित वर्गों को एकजुट करने के प्रयासों की असफलता। हाल ही में, ऊना में दलितों पर हुए अत्याचार के विरूद्ध लोगों को लामबंद करने के प्रयास अपेक्षानुसार सफल होते नही दिखाई नहीं दिए हैं। इन प्रदर्शनों  में  कुछ हजार व्यक्ति ही जुट पाए और किसी भी मामले में इनकी संख्या दस हजार से अधिक नहीं हो सकी। इसके विपरीत, अत्याचार निवारण अधिनियम के निष्प्रभावी करने की मांग जोे किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं हो सकती और शक्तिशाली-वर्चस्वशाली ऊँची जातियों को ओबीसी में शामिल किए जाने के समर्थन में कुछ ऊँची जातियों द्वारा जो शक्ति प्रदर्शन गुजरात और महाराष्ट्र में हुए उनमें भारी भीड़ जुटती दिखाई दी। ये दोनों ही मांगें सामाजिक यथार्थ या न्याय और संवैधानिक प्रावधानों के अनुकूल नही हैं। इन दोनों राज्योें के विभिन्न शहरों में इन मुद्दों को लेकर जो रैलियां हुईं उनमें दसों हजार व्यक्तियों ने भाग लिया और कुछ में तो प्रदर्शनकारियों की संख्या कई लाख से भी अधिक थी। संसाधनाें और जागृति के अभाव में जो समस्याएं एससी व एसटी से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों को लागू करवाने के पक्ष में इन समुदायों के व्यक्तियों को लामबंद करने में पेश आती हैं, ये उसके कुछ उदाहरण हैं। इन दो समस्याओं को दूर करने के बाद ही एससी- एसटी को राजनैतिक सत्ता में अपना वाजिब हक मिल पाएगा और वे विकास के सही फल का स्वाद चख सकेंगे। जब तक यह नहीं हो जाता है,तब तक एससी- एसटी के अधिकार उन्हें दिए जाने के पक्ष में सतत और अधिकतम सामाजिक-राजनीतिक दबाव बनाने की जरूरत है। उन्हें सामाजिक रूप से अगड़ी जातियों के समकक्ष लाने और अपमान-अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए यह आवश्यक है। ऐसा करने के लिए कुछ उपलब्ध अनुकूल परिस्थितियों का बेहद समझदारी से प्रयोग करने की जरुरत है।
           कुछ अनुकूल परिस्थितियां कुछ ही कारणों से बन पाई हैं। इनमें से एक है, एससी-एसटी वर्ग में एक मजबूत शिक्षित व सम्पन्न मध्यवर्गीय तबके का उभरना,भले ही यह वर्ग छोटा है। यह तबका डॉ.आंबेडकर के सामाजिक न्याय स्थापित करने के उद्देश्य से आरक्षण की नीति लागू कर सरकारी योजनाओं के चलते उभरा है। दूसरा कारण है, एससी को मिले समान मताधिकार रूपी हथियार से चुनावों को प्रभावित करने की क्षमता और शक्ति। कुछ राज्यों में दलित समाज बहुमत में न होते हुए भी वह चुनावों को प्रभावित करने की स्थिति में है। परंतु यह तभी हो सकता है जब ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों में एससी-एसटी में उनके अधिकारों व उनके लिए निर्धारित लाभों के संबंध में न केवल जनजागृति पैदा की जाए वरन् उन्हें यह भी बताया जाए कि वे राजनैतिक दलों और उनके उम्मीदवारों को किस तरह यह आभास करा सकते हैं कि उनके समर्थन और सहयोग के बिना चुनावों में जीत हासिल करना आसान नहीं होगा! यह काम एससी-एसटी वर्ग के शिक्षित और संपन्न मध्य वर्ग को तो करना ही होगा, इसके साथ ही उस ओबीसी को भी इसमें हाथ बंटाना होगा जो सामाजिक न्याय में विश्वास रखता है और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को और अधिक व्यापक स्तर पर व्यावहारिक और सार्थक बनाना चाहता है। इसके अतिरिक्त, यह भी आवश्यक है कि एससी -एसटी की विभिन्न जातियों और उपजातियों के बीच पारस्परिक वैरभाव समाप्त करने की दिशा में समुचित प्रयास भी किये जाएं। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एससी-एसटी वर्ग की सभी जातियों में पूर्ण एकता आवश्यक है। एससी-एसटी की विभिन्न जातियों की सामाजिक सरंचना और विकास का स्तर अलग-अलग है और उसके अनुसार आरक्षण और अन्य योजनाओं का लाभ लेने की उनकी क्षमता भी अलग-अलग है। इसके कारण उनके बीच उपजने वाले शत्रुता के भाव जैसी समस्याओं को दलित वर्ग की विभिन्न जातियों के सामाजिक पंचों को दूर करना होगा।
         सबसे पहले यह आवश्यक है कि हम राज्य और सरकार के बीच अंतर करें। भारतीय राज्य की मूल नीतियों और कर्तव्यों का निर्धारण संविधान में कर दिया गया है। अब मुद्दा केवल सरकारों द्वारा नीतियों के निर्माण और उनके क्रियान्वयन का है। सन् 1991 के बाद से सरकारों ने उदारीकरण के नाम पर ऐसी आर्थिक नीतियां अपनाई हैं जिनमें बाजार को सबसे प्रमुख स्थान दिया गया है। निकट भविष्य में इन आर्थिक नीतियोें में बदलाव की आशा करना यथार्थपूर्ण नहीं होगा।
          इसके साथ ही, दुनिया के कई हिस्सों में बाजार-केन्द्रित अनियंत्रित विकास मॉडल के दुष्परिणामों के विषय पर जागृति आ रही है। दुनिया को यह अहसास हो रहा है कि बाजार-आधारित विकास से न केवल आर्थिक विषमता की खाई बढ़ी है,बल्कि मध्यम और श्रमिक वर्ग की आर्थिक स्थिति या तो गिरी है या वैसी ही बनी हुई है। दूसरी ओर, राष्ट्रीय संपदा का बड़ा हिस्सा कुछ धन पशुओं अर्थात कॉरपोरेट घरानों के हाथों में केन्द्रित हो रहा है जो अपने धन का नंगा प्रदर्शन कर रहे हैं। वे अपने रहने के लिए ऐसे भवन बना रहे हैं, जो इस देश के राजाओं और सम्राटों को भी नसीब नहीं हुए थे। इस तरह के विकास मॉडल पर प्रतिक्रिया विकसित देशों में उभरकर सामने आने लगी है। एससी-एसटी व अन्य वंचित वर्गों को अधिकार व समानता उपलब्ध करवाने के लिए हम वृहद आर्थिक नीतियों में इस तरह के बदलाव आने का इंतजार नहीं कर सकते जिससे वे बाजार-केन्द्रित न होकर जनता के कल्याण पर केन्द्रित हो जाए। इन वंचित वर्गों के अधिकारों, सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई लगातार चलती रहनी चाहिए,चाहे जो भी सरकार शासन में हो और उसकी आर्थिक नीतियां कुछ भी हों!
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Wednesday, May 04, 2022

अगले पेज की खबर-रमाकान्त चौधरी

(लघुकथा) 
           रमाकान्त चौधरी           
ग्राम -झाऊपुर, लन्दनपुर ग्रंट, 
जनपद लखीमपुर खीरी उप्र।
सम्पर्क -  9415881883 

क्या जमाना आ गया है ? लगता है इंसान का जमीर मर गया है अब छोटी छोटी बच्चियाँ भी सुरक्षित नही  हैं आखिर इनकी सुरक्षा करने के लिए क्या दूसरे गृह  से लोग आएंगे अखबार पढ़ते हुए रामधन बड़बड़ाने लगे। 
रामधन को बड़बड़ाते देख महेंद्र बाबू ने पूछा -क्या हुआ भाई क्यों बड़बड़ा रहे हो? 
रामधन ने अखबार की ओर इशारा करते हुए कहा इस खबर को देखो 'एक अधेड़ ने 6 माह की बच्ची को बनाया हवस का शिकार, इसी के साथ रामधन बोले ऐसे मामले में कानून व्यवस्था और अधिक सख्त हो तभी महिलायें व बच्चियाँ सुरक्षित रह सकती हैं।
अगले पेज की खबर नहीं देखे हो। महेंद्र बाबू ने प्रश्नभरी नजरों से देखते हुए रामधन से पूछा। 
अगले पेज पर क्या कोई विशेष खबर है? रामधन उत्सुक निगाहों से देखते हुए बोले। जवाब में महेंद्र बाबू ने कहा अगले पेज पर खबर लगी है ' दुष्कर्म पीड़िता का रिपोर्ट लिखाने के बहाने कई लोगों ने किया यौन शोषण।, 
अब शासन प्रशासन को लेकर रामधन के पास कोई सवाल न था रामधन की आंखें सिर्फ महेंद्र बाबू को ही देख रही थीं। 
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Sunday, April 24, 2022

संतू जाग गया, पक्की दोस्ती का विमोचन सम्पन्न हुआ

    पुस्तक विमोचन   
संतू जाग गया, पक्की दोस्ती विमोचन सम्पन्न लखीमपुर खीरी आज सनातन धर्म विद्यालय में परिवर्तन फाउंडेशन संस्था के तत्वावधान में एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसमें गोला गोकर्णनाथ से मुख्य  अतिथि के रूप में वरिष्ठ कवि नंदी लाल विशिष्ट अतिथि कवि  समाजसेवी  द्वारिका प्रसाद रस्तोगी ने, डॉ मृदुला शुक्ला "मृदु" की कहानी संग्रह 'संतू जाग गया' और सुरेश सौरभ की कृति पक्की दोस्ती लघुकथा संग्रह का विमोचन किया। मुख्य वक्ता प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ राकेश माथुर ने पुस्तकों की समीक्षा  प्रस्तुत करते हुए कहा मृदुला की कहानियां गद्य गीत की तरह मार्मिक और हार्दिक हैं वहीं सौरभ की पक्की दोस्ती की बाल कहानियां बच्चों के लिए प्रेरणा दायक है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे शिक्षाविद् सत्य प्रकाश शिक्षक ने कहा रचनाकार सूर्य की तरह है जो समाज को सूर्य की तरह ही आलोकित करता है। सिधौली से पधारे  "श्रमवीर" कृति के रचयिता  देवेन्द्र कश्यप 'निडर' ने कहा सौरभ जी की रचनाओं में युगीन समय बोध है।

कार्यक्रम का संचालन कर रहे कवि श्याम किशोर बेचैन और शायर कवि विकास सहाय ने अपने बेहतरीन अंदाज से कविता पाठ करके सभा में समां बांध दिया। गोला गोकर्णनाथ के संत कुमार बाजपेई संत, रमाकांत चौधरी, डॉ शिव चन्द्र प्रसाद, हरगांव के युवा कवि विनोद शर्मा "सागर" नकहा के नवोदित कवि दुर्गा प्रसाद नाग, रंजीत बौद्ध, इन्द्र पाल, मृदुला शुक्ला, द्वारिका प्रसाद रस्तोगी ने भी सुमधुर काव्य पाठ किया। सरदार जोगिंदर सिंह चावला, अखिलेश अरूण, चंदन लाल वाल्मीकि, ने साहित्य की प्रासंगिकता पर विचार प्रकट किए। बालिका मानसी, रूपांसी, अपूर्वा शाक्य,  पूर्णिमा शाक्य ने भी कविता पाठ किया। संयोजक श्याम किशोर बेचैन ने अतिथियों को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया। सभा में शमशुल हसन उर्मिला शुक्ला, राम बाबू, मनीष गौतम, राज कुमार वर्मा, आदि काफी संख्या में लोग मौजूद रहे।

घायल है कानून व्यवस्था-रमाकान्त चौधरी


गोला  गोकर्ण नाथ लखीमपुर खीरी
 मोब 94 15 88 18 83 
घायल है कानून व्यवस्था,संविधान पर ताले हैं। 
संसद में जो बैठें हैं, सब सत्ता में मतवाले हैं। 

भरी भीड़ में नारी के जब वस्त्र उतारे जाते।
संसद में बैठे मंत्री जी  तनिक नही शरमाते। 
 बंद किए आंखें सबके सब देश के जो रखवाले हैं।
 संसद में जो बैठें हैं, सब सत्ता में मतवाले हैं।
 
निर्दोषों पर चले लाठियां,दोषी सब बच जाते।
बन के दल्ले घूम रहे ,वे राम नाम गुण गाते।
सबके सब हैँ चोर उचक्के, सब ही देखे भाले हैँ। 
संसद में जो बैठें हैं, सब सत्ता में मतवाले हैं।

संविधान की पीड़ा का मैं किसको दर्द  सुनाऊँ। 
आंसू पोंछू भारत के या खुद ही अश्क बहाऊँ। 
ऐसी अजब व्यवस्था में हम कैसे खुद को संभाले हैं। 
संसद में जो बैठें हैं, सब सत्ता में मतवाले हैं।

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Saturday, April 23, 2022

जातिवार जनगणना कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं,बल्कि डॉ.आंबेडकर के सपनों और भारतीय संविधान अनुरूप राष्ट्र-निर्माण और विकास के लिए जरूरी है जिसकी गणना साठ के दशक के शुरू में ही हो जानी चाहिए थी है-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

    विमर्श   
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
          सामाजिक न्याय और बंधुता मानवीय संवेदनशीलता का एक बेहद गम्भीर मसला है और जातिवार जनगणना की मांग को भी उसकी एक महत्वपूर्ण और अभिन्न कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए। हज़ारों सालों की ऊँच-नीच की जड़ता से भरे भारतीय समाज में " समता, स्वतंत्रता व बंधुता '’ की स्थापना के लिए समाज सुधारकों द्वारा समय-समय पर कोशिशें की गईं। ग़ौर करने लायक यह है कि ऐसे अधिकांश समाज सुधारक एससी या ओबीसी से ही निकले हैं। औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ों ने हमारे देश के गैर-बराबरी भरे समाज में अलग-अलग समूहों की गणना कर उनके जीवन से जुड़े विभिन्न विषयों का वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करने का निर्णय लिया और इस कड़ी में भारत में जातिवार जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी। अंतिम बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। उसी आधार पर अब तक यह अंदाजा लगाया जाता रहा है कि देश में किस सामाजिक समूह के लोग कितनी तादाद में हैं।
         जातिवार जनगणना क्यों जरूरी है: 1951 से 2011 तक की हर जनगणना में संवैधानिक बाध्यता के चलते अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की गिनती तो हुई है, पर अन्य दूसरी जातियों की नहीं। आखिर , क्या वजह है कि भारत सरकार अपने देश की " सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई " जातियों की अलग-अलग संख्या जानने और बताने से हमेशा कतराती रही हैं? दुनिया का शायद ही कोई लोकतांत्रिक देश होगा जो अपनो लोगों के जीवन से जुड़ी सच्चाई को जानने से नाक-भौं सिकोड़ता हो! जो देश का समाज समावेशी नहीं होगा, उस पाखंड से भरे विभाजित समाज के जरिये अखंड भारत की दावेदारी/परिकल्पना हमेशा खोखली और राष्ट्र-निर्माण की संकल्पना अधूरी और झूठी सिद्ध होगी। जातिवार जनगणना की मांग इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि व्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों में उनके "ओवर-रिप्रेज़ेंटेशन व अंडर-रिप्रेज़ेंटेशन " का एक वास्तविक आंकड़ा सामने आ सके जिनके आधार पर कल्याणकारी योजनाओं व संविधान के सामाजिक न्याय के विषयों पर सक्रिय रूप से सकारात्मक दिशा में तेज़ी से बढ़ा जा सके। सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण विषय पर बहस होते समय हमेशा सम्बंधित रिप्रजेंटेशन के आंकड़े मांगती रही है, जैसे प्रोमोशन मे रिजर्वेशन का मसला।
        संविधान के अनु. 340 के तहत गठित प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर ने 1955 की अपनी रिपोर्ट में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने की सिफारिश की थी। द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष बीपी मंडल अपनी रिपोर्ट में 3743 जातियों को एक जमात के रूप में सामने लाए। आयोग ने सामाजिक-शैक्षणिक गैर-बराबरी से निपटने के लिए एक पुख्ता दर्शन/विचार सामने रखते हुए मोटामोटी 40 सिफारिशों में एक भूमि-सुधार की भी बात कही थी।
       जातिवार जनगणना की मांग अटल बिहारी बाजपेयी ने की थी खारिज: दो-दो बार देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में जातिवार जनगणना को लेकर आम सहमति बनी। एक बार जनता दल नीत युनाइटेड फ्रंट सरकार (1996-98) में 2001 के लिए और दूसरी बार ( 2005-2014) यूपीए-2 की सरकार में 2011की जनगणना के लिए। इस मुद्दे पर पहली बार सरकार चली गई और जब अटल बिहारी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने उस मांग को सिरे से खारिज कर दिया। वहीं दूसरी बार मनमोहन सिंह के आश्वासन के बावजूद कुछ दक्षिणपंथी सोच के नेताओं ने बड़ी चालाकी से उस संभावना को पलीता लगा दिया। जो जनगणना सेंसस कमीशन ऑफ इंडिया द्वारा जनगणना अधिनियम,1948 के मुताबिक होनी थी, उसे चार टुकड़ों में बांटकर सामाजिक-आर्थिक सर्वे की शक्ल में कराया गया। ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी क्षेत्रों में आवास व शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय की ओर से सामाजिक-आर्थिक जनगणना की गई जिस पर 4,893 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद जो आंकड़े जुटाये गये, वो सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के हैं, नाकि जातिवार जनगणना के और उन आंकड़ों को भी आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया।
        जातिवार जनगणना क्यों नहीं करवा सकी कोई सरकार? : आखिर वे कौन से डर है जिसके चलते आज़ादी के 75 साल बाद भी आज तक कोई भी सरकार जातिवार जनगणना करवाने की हिम्मत नहीं जुटा सकी? दरअसल, जैसे ही सारी जातियों के सही आंकड़े सामने आएंगे, वैसे ही शोषकों द्वारा गढ़ा गया यह नैरेटिव ध्वस्त हो जाएगा कि ईबीसी ओबीसी की हकमारी कर रहा है या ओबीसी दलित-आदिवासी का शोषक है। वे मुश्किल से बनी जमात की हज़ारों जातियों को फिर से आपस में लड़ा नहीं पाएंगे और हर क्षेत्र में आरक्षण के माध्यम से समुचित प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा।यह हास्यास्पद ही है कि बिना पुख़्ता आंकड़ों के, केवल धारणा व पिछले 5 वर्षों के आंकड़ों के आधार पर रोहिणी कमीशन के जरिए पिछड़ों को उपश्रेणियों में बांटने की कवायद चल रही है। चाहे आप आरक्षण के पक्ष में हों या विपक्ष में, जाति जनगणना जरूरी है। वर्तमान मोदी सरकार ने 2018 में एक शिगूफा छोड़ा था कि हम ओबीसी की गणना कराएंगे। तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी 2019 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए यूं ही जुमले की तरह इस मुद्दे को उछाला था।
        सामान्य सी बात है कि सिर्फ ओबीसी की ही क्यों, भारत की हर जाति की गिनती हो। जब गाय-घोड़ा-गधा-कुत्ता-बिल्ली-शेर-हाथी-भेड़-बकरी-पशु-पक्षियों अर्थात सबकी गिनती होती है, तो इंसानों की क्यों नहीं? आखिर, पता तो चले कि भीख मांगने वाले,मजदूरी करने वाले,सब्जी बेचने वाले, गटर साफ करने वाले, रिक्शा खींचने वाले, ठेला लगाने वाले, फुटपाथ पर सोने वाले लोग किस समाज से आते हैं ? उनके उत्थान के लिए योजनाएं बनाना लोकतांत्रिक सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है और इस भूमिका से वह मुंह नहीं चुरा सकती। इसलिए जातिवार जनगणना कोई राजनैतिक विषय नहीं, बल्कि संविधान सम्मत राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया का एक अभिन्न हिस्सा है। जो भी इसे टरकाना चाहते हैं, वे इस देश की एससी-एसटी,ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्गों के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं और न ही करना चाहते हैं।
        बिहार और महाराष्ट्र सरकार ने जातिवार जनगणना के लिए प्रस्ताव पारित कर केंद्र को भेजा गया। इस विषय पर तमिलनाडु ने हमेशा सकारात्मक रुख दिखाया है। द्रविड़ियन आंदोलन से उपजी पार्टियों ने बहुत हद तक सामाजिक बुराईयों और बीमारियों के डायग्नोसिस में रूचि दिखाई। उड़ीसा और यूपी समेत देश के अनेक राज्यों में जातिवार जनगणना की जबर्दस्त मांग हुई। कर्नाटक में तो केंद्र के अड़ियल रुख को देखते हुए वहां की राज्य सरकार ने खुद ही जातिवार गणना का निश्चय करके दिखा दिया। राजद की पहल पर दो-दो बार बिहार विधानमंडल में जातिवार जनगणना को लेकर प्रस्ताव पारित हो चुका है। लालू प्रसाद, शरद यादव और मुलायम सिंह लंबे समय से इस मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे हैं।
       हाल ही में जब भारत के गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में बयान दिया कि सरकार जातिवार जनगणना नहीं कराएगी, तो तेजस्वी यादव के प्रस्ताव पर नीतीश कुमार ने सर्वदलीय शिष्टमंडल के साथ प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की। तेजस्वी यादव ने जातिवार जनगणना से समाज के अंदर विभाजन-रेखा के उभरने की चिंता में दुबले हो रहे पुनरुत्थानवादी ताकतों को तार्किक जवाब देते हुए कहा कि " जब सेंसस में धर्म का कॉलम रहने से लोग धर्मांध नहीं हो जाते, तो जाति का कॉलम जोड़ देने से जातीय विद्वेष कैसे फैलने लगेगा?
‘बौद्धिक’ बिरादरी की मसिक्रीड़ा:
        प्रो.अभय दुबे, बद्री नारायण, वेद प्रताप वैदिक, संजय कुमार, संकेत उपाध्याय, रमेश मिश्रा समेत अनेकानेक ‘' यथास्थितिवादी सवर्ण बुद्धिजीवियों '’ व पत्रकारों द्वारा जातिवार जनगणना को लेकर तमाम कुतर्क पेश किये जा रहे हैं: बद्री नारायण दैनिक जागरण में लिखते हैं, " सियासी शस्त्र न बने जातीय जनगणना " दैनिक भास्कर में अभय दुबे लोगों के मन में डर पैदा करने की मंशा से लिखते हैं," कि जातिगत जनगणना के गहन व बुनियादी प्रभाव होंगे जो इस समय न तो इसके समर्थकों की समझ में आ रहे हैं न विरोधियों के '’, नवभारत टाइम्स में वेद प्रताप वैदिक मसिक्रीड़ा करते हैं कि,कोटा बढ़वाना हो तो क्यों न याद आए जाति’,फिर वह दैनिक भास्कर में निर्गुण भजते हैं, ‘जनगणना में जाति नहीं, जरूरत पूछी जाए तभी पिछड़ों का हित होगा’.
          संकेत उपाध्याय दैनिक भास्कर में मानस मंथन करते नज़र आते हैं, ‘राजनीति का एटमी बम क्यों है आरक्षण: देश में आरक्षण प्रक्रिया की समीक्षा क्यों नहीं की जाती?’, वहीं दैनिक जागरण में रमेश मिश्रा चिंतित होकर कलम चलाते हैं, ‘मुख्य जनगणना के साथ-साथ जाति की जनगणना मुश्किल, जानिए क्या-क्या हो सकती हैं दिक्कतें?’ बावजूद, इन तिकड़म व विषवमन भरे लेखन के, नेशन बिल्डिंग में लगी पीढ़ी जद्दोजहद कर रही है। लोग भारतीय समाज के मनोविज्ञान को भूल जाते हैं और उसका निर्गुण बखान कर सच्चाई पर परदा डालने की कोशिश करते हैं।
           मंडल कमीशन की रिपोर्ट में बीपी मंडल ने रजनी कोठारी को उद्धृत करते हुए लिखा था, ‘भारत में जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे ऐसी राजनीति तलाशते हैं, जिसका समाज में कोई आधार नहीं है’. मनीष रंजन ठीक कहते हैं कि कोठारी के ‘' जातियों के राजनीतिकरण  के सिद्धांत के तहत ही जाति-व्यवस्था को व्यावहारिक चुनौती दी जा सकती है।"

Wednesday, April 20, 2022

ईडब्ल्यूएस आरक्षण कितना न्यायसंगत एवं व्यावहारिक - एक नयी बहस को जन्म देता मुद्दा-नन्दलाल वर्मा (एसोसिएट प्रोफेसर)

सामाजिक मुद्दा  
एन०एल० वर्मा (असो.प्रोफ़ेसर)
वाणिज्य विभाग
वाईडीपीजी कॉलेज,लखीमपुर खीरी
     लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर 2019 में जब ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू किया जा रहा था तो उसे लगभग सभी दलों का भरपूर समर्थन मिला था। इस श्रेणी के आरक्षण के लिए लागू मापदंडो पर अर्थशास्त्री स्वामीनाथन एस.अंकलेसरैया अय्यर ने कुछ वाज़िब सवाल उठाए हैं। अय्यर अपने लेख में लिखते हैं कि " आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्ण वर्ग को आरक्षण देने की कोई जरूरत ही नहीं है।"
          केंद्र सरकार ने 2019 में आर्थिक रूप से कमजोर सवर्ण वर्ग के लिए भी 10% आरक्षण की व्यवस्था की थी। हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि देश में आर्थिक गरीबी बहुत तेजी से कम हो रही है। ऐसे में सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अय्यर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के आरक्षण को गैर-जरूरी और अव्यावहारिक बताते हुए इसे खत्म करने की वकालत कर रहे हैं। उन्होंने "द टाइम्स ऑफ इंडिया"  में लिखे अपने साप्ताहिक स्तंभ में अपने विचार के समर्थन में कई मजबूत दलीलें दी हैं। पेश है,उनके उस लेख के कुछ महत्वपूर्ण संपादित अंश ..
1.भारत में तेजी से घटा है, गरीबी का स्तर...................
          तीन अर्थशास्त्रियों: सुरजीत भल्ला, अरविंद विरमानी और करन भसीन का अनुमान है कि देश में अत्यंत गरीबी (Extreme Poverty) की स्थिति अब नहीं रही है। विश्व बैंक के अनुसार, देश का हर नागरिक हर दिन औसतन 130 रुपये का खर्च कर पा रहा है, तो अत्यंत गरीबी की स्थिति नहीं मानी जाएगी। भारत में गरीबी रेखा के मानक (स्टैंडर्ड्स ऑफ पावर्टी लाइन) विश्व बैंक के मानकों से मेल खाते हैं। विश्व बैंक के पैमानों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि भारत में गरीबी अनुपात 2004 में 31.9% के मुकाबले 2014 में 5.1% हो गया जो 2020 में गिरकर 0.86% पर आ गया। चूंकि, 2017-18 एनएसएसओ सर्वे के आंकड़ों की अनदेखी के लिए आलोचना करने वाले इस मापदंड से चिढ़ सकते हैं, लेकिन कुछ अन्य अध्ययनों से भी पता चलता है कि हाल के दशकों में गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर भारत ने जबर्दस्त कामयाबी हासिल की है।
2.बिना आरक्षण के ही घट रही है गरीबी, तो फिर आरक्षण क्यों?.................
         आर्थिक रूप से गरीब सवर्ण वर्ग को शैक्षणिक संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण दिए बिना ही यदि गरीबी घट रही है तो क्या उन्हें आरक्षण देने का सरकार का फैसला कठघरे में खड़ा नहीं होता है? सुप्रीम कोर्ट 1992 में आर्थिक आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण की मांग को अनुचित बताते हुए पहले ही खारिज कर चुका है। उस समय तो देश की बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी। इसलिए सवाल उठता है कि क्या जब गरीबी उन्मूलन योजनाओं से गरीबी में तेजी से कमी आ रही है,तब आर्थिक आधार पर ईडब्ल्यूएस को आरक्षण देना कितना जायज़ और व्यावहारिक है?
3.संविधान में सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक भेदभाव की खाई कम करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था ..........
          संविधान जाति, धर्म, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने से मना करता है। हालांकि, सदियों से भेदभाव के शिकार दलितों-आदिवासियों/एससी-एसटी के पक्ष में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। संविधान सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए भी आरक्षण की अनुमति देता है। इस कारण राजनीतिक रूप से काफी दबंग समूहों ने खुद को पिछड़ा वर्ग बताकर अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल करवा लिया। जाति आधारित राजनीतिक दलों के कारण यह घालमेल करना आसान हो गया।
4.एक बार सुप्रीम कोर्ट रद्द कर चुकी है, ईडब्ल्यूएस आरक्षण..............
          भारत सरकार ने 1991 में ओबीसी के लिए 27% और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10% आरक्षण का प्रावधान किया था। तब सुप्रीम कोर्ट ने गरीबी आधारित आरक्षण को खारिज़ कर दिया था। अभी ओबीसी के लिए 27% के साथ-साथ एससी के लिए 15% और एसटी के लिए 7.5% आरक्षण के साथ सभी सरकारी शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में आज 49.5% आरक्षण लागू है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि 50% से ज्यादा आरक्षण की व्यवस्था समानता के सिद्धांत के खिलाफ होगी।
5.शिक्षा व्यवस्था में खामियों की वजह से नौकरियों का संकट..............
देश में रोजगार का गंभीर संकट है। केंद्र और राज्य सरकारें रोजगार के प्रमुख स्रोत हैं। युवाओं का सर्वाधिक जोर भी सरकारी नौकरियों पर ही होता है,क्योंकि इनसे स्थायित्व एवं भविष्य की सुरक्षा की भावना जुड़ी होती है। यही वजह है कि ऊंची-ऊंची डिग्री धारक भी चपरासी की नौकरी के लिए मारामारी करते दिख रहे हैं। नौकरियों का संकट शिक्षा के निम्नस्तरीय या अधोमानक होने के कारण भी पैदा होता है। हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था युवाओं को उचित कौशल नहीं दे पा रही है। इसका मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि आरक्षण के जरिए अयोग्य लोगों को भर लिया जाए। आदर्श स्थिति तो यह है कि शिक्षा व्यवस्था में कौशलपरक और रोजगारपरक सुधार किए जाएं।
6.ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मापदंड की परिधि में आती है,देश की लगभग 80% आबादी............
         मोदी नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने 2019 में सवर्ण गरीबों के लिए आरक्षण का विधेयक संसद में पेश किया तो बिहार के क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) जैसी इक्का-दुक्का पार्टियों को छोड़कर सभी दलों ने समर्थन किया था। तब बीजेपी ने कहा था कि इस नई व्यवस्था से देश में पहली बार ईसाइयों और मुस्लिमों को भी आरक्षण मिल रहा है। इस कथन से यह साफ परिलक्षित होता है कि राजनीतिक दल और उसके नेता आरक्षण को सिर्फ वोट बैंक के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं,नाकि उनका मकसद समाज सुधार होता है। सरकार मानती है कि सालाना 8 लाख रुपये की आमदनी वाले, 5 एकड़ से कम कृषि योग्य भूमि वाले और शहरों में 1,000 वर्ग फीट क्षेत्रफल से कम में बने मकान वाले आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) में आते हैं।
7.सरकार का उद्देश्य समाज सुधार नहीं,बल्कि जातीय वोट बैंक साधना है मकसद.................
           राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की 2011-12 की रिपोर्ट कहती है कि सबसे धनी 5% भारतीयों का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ 4,481 रुपये है जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 10,281 रुपये है। संभवतः प्रति व्यक्ति आय इनके 20% ज्यादा होंगी। 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना के मुताबिक, सिर्फ 8.25% ग्रामीण परिवारों की मासिक आमदनी 10 हजार से ज्यादा है। सच है कि उसके बाद से आमदनी बढ़ी है, फिर भी शंका की गुंजाइश कम है कि 80% से ज्यादा भारतीय ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आते हैं। 2015-16 की कृषि जनगणना के मुताबिक 86% जमीन मालिकों के पास 5 एकड़ से कम कृषि भूमि है। तय पैमाने के अनुसार ये सभी ईडब्ल्यूएस श्रेणी में आ जाएंगे। इस तरह कहें, तो आर्थिक रूपी गरीबी के आधार पर आरक्षण का मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों को आरक्षण के दायरे में समेटना है, नाकि समाज के आर्थिक रूप से सबसे कमजोर वर्ग को अर्थात सरकार की नजर समाज सुधार की जगह उनके वोट बैंक पर ज्यादा दिखती है।
8.शिक्षा व्यवस्था सुधरे, आरक्षण की घुट्टी देना बंद हो...............
             एससी-एसटी और पिछड़े वर्ग को आरक्षण उनके साथ हुए ऐतिहासिक भेदभाव की वजह से दिया गया है, लेकिन उच्च जातियां ऐतिहासिक भेदभाव के कारण गरीब नहीं हुई हैं। वे इतिहास में हुए सामाजिक और शैक्षणिक अन्याय के पीड़ित नहीं हैं। उनकी गरीबी के कई दूसरे अन्य कारण हो सकते हैं, लेकिन अन्याय हरगिज़ नहीं। इसलिए उनकी सरकारी आर्थिक मदद होनी चाहिए, लेकिन आरक्षण नहीं। आखिरकार, आरक्षण के बावजूद जेएनयू या आईएएस की परीक्षा में न्यूनतम मार्क्स लाना और कुछ अनिवार्य प्रश्नपत्रों को क्वालीफाई करने के बाद ही शेष उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन होता है। बेहद गरीब परिवारों के बच्चे मुश्किल से ही शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं, इस कारण उन्हें न्यूनतम मार्क्स हासिल और कुछ अनिवार्य प्रश्नपत्रों को क्वालीफाई करने में भी परेशानी होती है। ऐसे में आरक्षण का अधिकतम फायदा क्रीमी लेयर को ही मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह सरकार से कहे कि वह शिक्षा व्यवस्था में सुधार करे नाकि, गरीब सवर्णों को आरक्षण दे।
             उल्लेखनीय है कि जब 7अगस्त,1990 को जब पीएम वीपी सिंह ने केवल सरकारी नौकरियों में 27% ओबीसी आरक्षण की घोषणा की थी तो आरक्षण विरोधी सवर्ण मानसिकता की सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों ने सड़को पर अराजकता फैलाकर विरोध करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी थी। घोषणा के कुछ दिनों बाद विषय सुप्रीम कोर्ट ले जाया गया और तत्कालीन सरकार ने तब तक आरक्षण नही दिया, जब तक न्यायालय का अंतिम फैसला नही आ गया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण की 50% की अधिकतम सीमा और क्रीमी लेयर जैसी दो शर्तों के साथ 1992 में ओबीसी आरक्षण देने का आदेश हो पाया था जो 1993 से लागू हुआ। ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर याचिका आज सुप्रीम कोर्ट में लंबित होने के बावजूद बीजेपी सरकार ने 10% आरक्षण तुरंत लागू कर दिया था और आज धड़ल्ले से दिया जा रहा है। इस गैरसंवैधानिक और अन्यायपूर्वक दिए जा रहे आरक्षण के ख़िलाफ़ ओबीसी आरक्षण की तरह विरोध नही हुआ था। दोनों तरह के आरक्षण पर संबंधित वर्ग की सामाजिक-राजनीतिक चेतना का स्तर और सर्वोच्च न्यायपालिका एवं सरकार में बैठे वर्ग विशेष की नीयत को सहजता से समझा और अनुमान लगाया जा सकता है।
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